दुर्घटना (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ
Durghatna (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan
भारत भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था के लिए नियुक्ति-पत्र पाकर मैं हवड़ा से ब्लाक डाइमडं एक्सप्रेस से धानबाद जिले के कतरास शहर के पास योगीडिह सर्वेक्षण कैम्प में कार्य आरम्भ करने के लिये जा रहा था। उस ट्रेन के हमारे डिब्बे में सत्रह नम्बर से लेकर चौबीस नम्बर सीट तक दो बच्चों को मिलाकर हम कुल दस यात्री थे। झरोखे के उस पार झारखण्ड के प्राकृतिक सौंदर्य, घने जंगल में पहाड के ऊपर से छलाँग लगाते हुए झरने के दृश्य, हवा के झोंकों से जंगल के ऊँचे शाल और पियासाल के वॄक्षों के सिर हिलाने के दृश्य, कुहासे से घिरे पर्वतों के मनोरम दृश्य से मैं अत्यंत मंत्रमुग्ध हो उठा था। जंगल में दिखाई पड़ रहे थे ढेर सारे कोयले की खदान। पहाड़ों की चोटियों पर कहीं चर्च तो कहीं मन्दिर शोभायमान थे। हम सब भिन्न-भिन्न विषयों पर आपस में बातचीत कर रहे थे। किंतु मेरे सामने बैठे हुए यात्री किसी से बातचीत किये बिना चुपचाप बैठे थे। उनके चेहरे से लग रहा था कि वे उत्तर-पूर्व भारत के मणिपुर, मेघालय, मिजोराम या नागालैंड के निवासी होंगे। वे शायद खुद को औरों से भिन्न और अलग समझते थे। समझने का कारण यह था कि सभी यात्री बीच-बीच में आँखें फाड़-फाड़ कर अलग-अलग हाव-भाव से उन्हें देख रहे थे। संयोग से उस तेलुगु यात्री की छोटी लड़की ने उस गोरे चिपटी नाक वाले व्यक्ति की ओर अंगुली दिखाते हुए अपने पिता से पूछा- “पिताजी! देखिए चीन का एक आदमी हमारे साथ सफर कर रहा है। आप उस दिन मुझे पढ़ाते समय कह रहे थे न कि चीन हमारा शत्रु है। उन्होंने कोरोना महामारी को सारे विश्व में फैलाया है। इस आदमी से हमें कोई खतरा नहीं है? ”
उस आदमी की समझ में इनकी बात नहीं आयी। वे सिर्फ चीन शब्द को ही समझ सके। उन्होंने मुझे टूटी-फूटी हिन्दी में पूछा-“ मैं देख रहा हूँ कि सब मुझे ऐसे घूर रहे हैं जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह या चिड़यिाघर से आया हूँ। वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं। वे मुझे चीन देश का मान कर शत्रु समझ रहे हैं क्या?” दूसरे ही पल काफी गुस्से में आकर उस आदमी ने कहा-“ क्या यह देश अकेले तुम्हारे बाप का है? हम इस देश के नागरिक नहीं हैं क्या? ”
उसकी खीझ भरी बातों को सुनकर तेलुगु दम्पति ने मुझे पूछा- “चीन का यह आदमी हमें गाली देते हुए क्या बोल रहा है? ”
मानो मैं चीन और भारत के विवाद में मध्यस्थता कर रहा था। मैंने उन दोनों के बीच उपजने वाले कलह को टालने के इरादे से तेलुगु दंपति से कहा-“ ये हमारे पूर्वोत्तर भारत के निवासी हैं। ये विदेशी नहीं हैं। ये तुम्हारे परिवार की तारीफ कर रहे हैं।”
पूर्वोत्तर के उस भारतीय से कहा- “वे तुम्हारा गुणगान करते हुए कह रहे हैं कि तुम देश के उत्तर-पूर्वांचल के रक्षक हो और चीन के शत्रु हो। ” उसके बाद वह आदमी चुप रहा।
तब तक ट्रेन धानबाद शहर में प्रवेश कर चुका था। उतरने के लिए सभी अपना- अपना सामान तैयार करने लगे। अन्त में हमारी ट्रेन धानबाद स्टेशन में पहूँच गयी। हम सब ट्रेन से उतर कर अपनी-अपनी मंजिल की ओर निकल पड़े। मैं देख रहा था कि स्टेशन से बाहर निकल ने तक पूर्वोत्तर भारत के निवासी और तेलुगु दंपति एक दूसरे को संदेह की निगाह से चुपके से निहार लेते थे। स्टेशन के बाहर भीड़ में हम एक दूसरे से अलग हो गये ।
धानबाद से मटकुरिआ, गोधर, कुसुण्डा, लोयाबाद, कतरास, सोनारडिह होते हुए मैं अपनी मंजिल जोगीडिह में पहुँचा । पहाड़ के ऊपर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था के अपने निजी क्वाटरस् नहीं हैं। दफ़्तर में जॉइनिंग रिपोर्ट दाखिल करके दोपहर को संस्था के एक चपरासी को लेकर पास के गाँव में किराये का मकान ढ़ूँढ़ने निकला।
पगडंडी में चलते समय मैंने उसे पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा कि उसका नाम जितन भूइँया । उसने पूछा कि बाबूजी आपका नाम क्या है? मैंने कहा कि मेरा नाम दाशरथि भूयाँ । मेरा नाम सुनते ही जितन खुश हो गया। जितन से पूछा- गाँव के ज्यादातर लोगों की आजीविका क्या है? उसने उत्तर दिया-“ सभी कोयले की खदान पर निर्भर करते हैं। जिनकी नौकरी भारत कुकिंग कोल लिमिटेड़ में नहीं है, वे कोयला संग्रह करके बेचते हैं या खेती-बाड़ी करके परिवार चलाते हैं।”
गाँव की सड़क पर जाते समय मैंने दोनों तरफ देखा कि अंम्बा भूइँया, लोबिन भूइँया, सोनाराम भूइँया, कोचे भूइँया, जिगा भूइँया, चंपाइ भूइँया, जोबा भूइँया, स्टिफेन भूइँया, दानिएल भूइँया, इग्नेश भूइँया, आदि वे जो भारत कुकिंग कोल लिमिटेड़ में काम कर रहे थे, उनके नामपट्ट मकान की दीवारों पर टाँगे हुए थे।
जितन से खबर मिली कि हमारी संस्था के एक कर्मचारी निर्मल चौपाल उसी गाँव में एक किराये का मकान लेकर रह रहे हैं। मैंने कहा कि चौपाल साहब के पास ले चलो। उनसे मेरा परिचय हुआ। अविवाहित निर्मल चौपाल अकेले रह रहे थे। वे काफी सरल और स्नेही स्वभाव के थे। जब तक मुझे किराये का मकान नहीं मिला, मैं उनके साथ रहा। बाद में मुझे एक खपरैल छत वाला मकान मिला और मैं वहीं चला गया। दीवार पर मेरा नामपट्ट टाँगा गया- दाशरथि भूयाँ, सर्वेक्षक, भारत भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण संस्था।
मेरे नामपट्ट को देख कर मेरे प्रति गाँव के लोगों का सम्मान बढ़ा। किसीने कोयले की अंगीठी बना दी, तो किसीने फोकट में कोयला दे दिया। वे अपने बगीचे में लगे केला, नींबू, बैंगन, पपीता आदि लेकर मेरे घर रोज आते रहे। कोयले की अंगीठी पर खाना बनाते समय ऐलुमिनियम के बरतन पिघल न जाए, इसलिए बरतनों की पेंदी में गीली मिट्टी का लेप लगा कर सुखा देते थे। कुछ लोग वादा करके गये कि जरूरत पड़ने पर आधी रात को भी वे सहायता करने आ जाएँगे। कार्यालय आते-जाते समय रोज सुबह-शाम “साहब नमस्कार” सुनने को मिला ।
मेरे सहकर्मी निर्मल चौपाल का घर झारखण्ड-पश्चिमबंग के सीमांत इलाके के बराकर शहर के नजदीक के एक गाँव में है। चौपाल मेरे सुख-दु:ख का प्रवासी मित्र है। उससे सुना कि वह अपनी शादी के लिए लड़की की खोज कर रहा है। चूँकि गाँव पास ही है, इसलिए वह दूसरे और चौथे शनिवार और दूसरी छुट्टियों में गाँव चला जाता है।
निर्मल ने अपनी शादी का निमंत्रण दिया। बारात में आने के लिए मजबूर किया। बारात में बाराती होकर जाने के लिये मेरी जिनती चाह थी, उससे कहीं अधिक नई जगह की अनजान संस्कृति के बारे में जानने के लिए मेरा मन व्याकुल था। इसलिए मैंने बिना किसी दुबिधा के हाँ कर दी। मैं विवाह के दिन सुबह उसके गाँव में पहुँचा। बारात पूरी तरह तैयार थी। सभी मेरे ही इंतजार में थे। मेरे पहुँचते ही बारात की गाड़ी निकली।
निर्मल की ससुराल ज्यादा दूर नहीं थी। हम अपराह्न तक उस गाँव में पहूँच गये । दामोदर नदी के किनारे हरे-भरे परिवेश में गाँव काफी खूबसूरत लग रहा था । नदी को पार करते ही गाँव में प्रवेश करने का रास्ता आ गया। गाँव के प्रारंभ में ही एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर सुशोभित हो रहा था। नदी के निर्मल जल में मन्दिर प्रतिबिम्बित हो रहा था। मन्दिर की प्राचीन और अद्भुत नक्काशी को देख कर मैं मुग्ध हो उठा। बाराती उतर पडे और रोशनी तथा बैंड पार्टी की प्रस्तुति शुरू हो गयी। मैंने एक आदमी से पूछ कर यह जानकारी ली कि उस स्थान से निर्मल की ससुराल तक पहुँचने के लिए बारात को कम-से-कम दो-तीन घण्टे लग ही जाएँगे। मैं अपने गवेषक मन और अनुसंधानी आँखों के कारण उस मंदिर के पास ही रह गया। सच बताएँ तो बारात की आतिशबाजी, नाच-गाने, हृदय को कँपा देने वाले डीजे यन्त्र के संगीत और प्रदूषण से मुझे कोई लगाव नहीं था।
मन्दिर में पहुँचने के लिए ज्यादा समय नहीं लगा। मन्दिर के सामने चाय की दुकानें थीं। सोचा कि पहले चाय पीकर ताजा हो जाएँ। चाय की एक दुकान में पहुँच कर चाय की फरमाइश की। दुकानदार ने कूछ देर तक संदेह की नजर से निहारने के बाद कहा- “चीनी नहीं है।”
मैंने कहा-“चीनी न होने से भी चलेगा। बिना चीनी की पी लेंगे, बिना चीनी की चाय दीजिए। ”
अचानक दुकानदार ने अपने कहने के लहजे को बदलते हुए कहा कि चाय की पत्ती नहीं है। मैं वहाँ से उसकी बगलवाली चाय की दुकान में गया। बगलवाले दुकानदार ने भी मुझे उसी लहजे में इनकार कर दिया। मैं समझ नहीं सका कि ये सभी व्यापारी हैं, फिर भी इस तरह ग्राहक को निराश करने का असली कारण क्या हो सकता है? चाय के बिना भी जिया जा सकता है, इसलिए उनकी बातों को महत्व न देकर मैं मन्दिर की ओर कदम बढ़ाने लगा। मन्दिर के सिंहद्वार के सामने बैठे हुए एक वृद्ध व्यक्ति से धूप-दीप आदि सामग्रियाँ माँगते ही उन्होंने कहा कि यह सब संध्या के श्रद्धालुओंके लिए है।
मैंने मन ही मन सोचा- “कैसी अजीब बात है। यदि संध्या के श्रद्धालुओंके किए है, तो फिर अपराह्न से ही सजा कर बैठे क्यों हैं।”
ईश्वर की आराधना, बिना दीप और धूप से भी की जा सकती है। मैं मन्दिर में जाने के लिए अहाते के प्रवेश द्वार को खोलते ही अन्दर से किसी ने बन्द करने की कोशिश की। मैं कुछ समझ नहीं सका। कहा-“मैं ठाकुरजी के दर्शन करना चाहता हूँ।”
उसने कहा- “तुम निर्मल चौपाल की बारात में आये हो। तुम जरूर दलित जाति के हो। दलितों को इस गाँव के मन्दिर में प्रवेश की मनाही है।”
मैंने कहा-“ नहीं मैं दलित नहीं हूँ।”
मुझे तब तक पता नहीं था कि निर्मल चौपाल एक दलित हैं। दलित हुआ तो क्या हुआ। वे भी हिन्दू हैं। तुम्हारा जितना अधिकार है, उनका भी उतना ही अधिकार है। उनके मन्दिर प्रवेश को रोकने वाले तुम कौन हो? बिहार -झारखण्ड की जाति-प्रथा को लेकर कई बार वाद-विवाद हुआ है। अखबारों में उसकी चर्चा मैंने पढ़ी थी, अब उसे खुद महसूस किया।
मैंने सफाई देते हुए कहा-“पुजारी जी! यह सच है कि मैं निर्मल चौपाल की बारात में आया हूँ, पर में दलित नहीं हूँ ।”
उल्टा पुजारी ने तर्क रखा- “दलित की बारात में क्या ब्रह्मण, कायस्त, क्षत्रिय आते हैं। तुम ने मुझे बेवकूफ समझ रखा है क्या। बताओ, क्या तुम्हारे माथे में लिखा है कि तुम एक दलित नहीं हो।”
मेरा दिमाग गरम हो गया। पूछा-“तुम्हारे माथे में लिखा है क्या कि तुम एक ब्रह्मण हो? ”
क्रोध में आकर पुजारी ने कमीज खोल कर जनेऊ को दिखाते हुए कहा- “देख रहे हो कि यह क्या है? तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि तुम एक दलित नहीं हो।”
मेरे शरीर में जनेऊ नहीं था। उन्हें कैसे समझाता कि मैं एक दलित नहीं हूँ। मैं वकालत करने लगा-“भक्त और भगवान के बीच मध्यस्थता करने वाले तुम कौन हो? ”
फिर मैंने जबरदस्ती मन्दिर में घुसने की कोशिश की तो वह ऊँची आवाज में आसपास के लोगों को बुलाने लगा। चाय बनाने वालों से लेकर दूसरे सभी लोगों ने मुझे घेर लिया और इधर-उधर ढकेलने लगे। उस ठेलाठेल में मेरा सिर फट गया। मैं चुपचाप लौटकर बारात की भीड़ में शामिल हो गया। मुझे लगा कि निर्मल चौपाल की शादी को ध्यान में रख कर यह सब सवर्णो का पूर्व प्रायोजित कार्यक्रम था।”
बिना देर किये मैं बारात के जुलूस में शामिल हो गया । निर्मल ने मेरे फटे हुए सिर को लेकर इसका कारण पूछा, पर सांप्रदायिक सद्भाव के बिगड़ने के भय से मैंने सारी बातें छिपा लीं। शादी-ब्याह की रस्मे खत्म होने के बाद जब वे दफ़्तर लौटे, तब मैंने उन्हें सारी बातें बतायीं। सारी बातें सुनने के बाद उसके मुहँ से एक ही तीखी बात निकली थी- “क्या देश के सारे मन्दिर उनके बाप के हैं? ”
दीपावली के दिन मौसम ने करवट ली। उसके अगले दिन से ठण्ड का प्रभाव अनुभूत होने लगा। सर्द मौसम के कारण चारों तरफ ठण्डी हवा फैलने लगी। ठण्ड के मारे काँपने लगा योगीडिह का इलाका। धीरे-धीरे पारा खिसकने लगा। सभी सुबह के सूरज की गरमी की जरूरत को महसूस करने लगे। रंग-बिरंग शीत-वस्त्रों से सभी खुद को सजाने लगे। उनकी दिनचर्या में परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। झारखण्ड की अपूर्व शोभा के आगार पहाड़, पर्वत और जंगलों में लकड़ी का कोयला पाने के लिये आग लगायी गयी ।
दिसम्बर के महीने की एक शाम। मैं दफ़्तर से लौट कर कँपानेवाली सर्दी से बचने के लिए कोयल की अँगीठी के पास बैठ कर ऊष्मा का अनुभव कर रहा था। गाँव के कुछ नामजद व्यक्ति आ पहुँचे। मुझे वे किसी एक उत्सव में मुख्य अतिथि बनाने का प्रस्ताव लेकर आये थे। मेरे सम्मति प्रदान करने के बाद निमंत्रण-पत्र छपवाये गये। लेकिन उस उत्सव के बारे में मेरी पहले से कोई धारणा नहीं थी। परिस्थिति कुछ भी हो, लेकिन मुझे जाना ही पड़ा। “मान या न मान, मैं तेरा मेहमान” नीति से मैं उत्सव में शामिल हुआ। उस उत्सव का आयोजन गाँव के छोर पर पहाड़ के ऊपर एक गिरजाघर में हुआ था। उत्सव खत्म होने के बाद गाँव के मुखिया मुझे गिरजाघर की एक छोटी-सी कोठरी में ले गये और वहाँ मन को लुभाने वाला स्वादिष्ट भोजन परोसा। मेरे पास बैठ कर कहा-“कई दिनों से मैं आपको एक बात पूछने की सोच रहा हूँ। उस बारे में आपकी राय जानना चाहूँगा।”
मैंने पूछा- “बात क्या है? ”
उन्होंने कहा-“आप तो अविवाहित हैं। आपके मित्र निर्मल चौपाल ने विवाह कर लिया है। आप क्यों अविवाहित रहेंगे । हमारे गिरजाघर के पादरी यानी मेरे बड़े भाई की एकलौती लड़की है। रोशनी उसका नाम है। पास ही के कालेज में बी.ए. में पढ़ रही है। आप ने उसे रास्ते में आते-जाते हुए देखा होगा। मेरा कहना यह है कि सर्, आप जरूर समझ रहे होंगे! इस सिलसिले में आपकी राय लेने के लिए मुझे बड़े भाई ने बहुत दिन पहले कहा था। इस कारण आपको उत्सव का मुख्य अतिथि बनाया गया। गाँव में आप और बड़े भाई साहब की बेटी को लेकर अफवाहें फैल रही हैं ।”
फिर उन्होंने मेरी जाति और गोत्र के बारे में पूछा। मैंने कहा-“तुम्हारे परिवार के कुलनाम के साथ मेरा कुलनाम मेल खाता है।” उसके बाद असम-बंग प्रदेश और उत्कल के जमींदारों के साथ मेरे जाति-गोत्र का सारा ऐतिहासिक सम्पर्क उन्हें समझा दिया।
मेरे जाति-गोत्र को सुनकर गाँव के मुखिया, उनके बड़े भाई गिरजाघर के पादरी और बेटी रोशनी को कितनी ठेस पहूँची होगी, उसे मैं नहीं जान सका। गाँव के दूसरे लोगों को कितना दु:ख हुआ होगा, उस बारे में भी मुझे पता नहीं चला। किसी की जाति-गोत्र को सुनकर किसी को ठेस पहुँचने की बात पहली बार सुनी। लेकिन रोशनी के साथ मेरे नाम को जोड़कर जो अफवाहें फैली थांr,उससे मेरे मन को काफी ठेस पहुँची थी।
मेरे जाति-गोत्र को सुनने के दिन से वे मुझसे धीरे-धीरे दूर होते गये। थोड़े ही दिनों में उनसे मिलने वाली स्नेह-श्रद्धा कहीं गायव हो गयी। पहले की तरह अब उनसे स्नेह-श्रद्धा मिल नहीं रही थी। उस गाँव में “जल बिना मछली” की तरह मेरे प्राण निस्संग पीड़ा से छटपटाने लगे । सोचा कि इस गाँव को छोड़कर पास के शहर में जाकर रहूँ। इसमें आने-जाने की तकलीफ तो है ही। पर रोज आते-जाते समय कोयले की धूल और धूऐँ से नहाते हुए दमा जैसी बीमारी को निमंत्रण देने का भय सब से ज्यादा था।
अन्त में तबादले के लिए अर्जी देने क्षेत्रीय कार्यालय रांची गया। अर्जी देने का काम खत्म करके रांची-धानबाद नाइट एक्सप्रेस पकड़ने के लिए बस अड्डे की ओर निकल पड़ा। बस अड्डे की ओर जाते समय रास्ते में देखा कि एक टी.वी. की दुकान के सामने मैच देखने के लिए काफी भीड़ जमी हुई है। उस दिन भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिटेट का मैच चल रहा था। सभी खेल के चरम उत्कर्ष का आनन्द ले रहे थे। भारत हार के कगार पर पहुँच चुका था। अन्त में सब का आकलन सच साबित हुआ। मैं देख रहा था कि किसी प्रकार के अशोभनीय मंतव्य से बचने के लिए एक विशेष धर्म-संप्रदाय के युवक वहाँ से खिसक रहे थे। पीछे से किसी ने टिप्पणी की, “देखो, पाकिस्तान की विजय को देखा कर ये देशप्रेमी अपने घरों में त्योहार मनाने के लिए खुशी के मारे लौट रहे हैं। ”
मेरा मन कह रहा था, “उनके देशप्रेम का इम्तहान मत लो । यह देश सबका है। अविश्वास का नतीजा देश के लिए हितकारक नहीं है।” लेकिन वयक्तिक सुरक्षा की दृष्टि से अपने मन की बातें उनके सामने खोल नहीं सका। उस उत्तर-पूर्वांचल और निर्मल चौपाल की (यह देश सिर्फ तुम्हारे बाप का है क्या?) बातों को मन-ही- मन दोहराते हुए धानबाद नाइट एक्सप्रेस बस में जा बैठा।
कुछ महीनों के बाद तबादले की चिट्ठी दफ़्तर में पहुँची। उस वक्त मुझे बेहद खुशी हुई। लेकिन उस चिट्ठी में लिखे गये आदेश को पढ़ने के बाद मेरे होश उड़ गये। मेरा तबादला सुदूर तमिलनाड़ू में हुआ है। तबादला की खबर को सुनकर सबसे ज्यादा दु:ख हुआ था निर्मल चौपाल को। लेकिन मैंने उसे यह नहीं कहा कि तबादले की अर्जी मैंने खुद दी थी।
अब आसमान से गिरा तो खजूर में अटका। चेन्नइ शहर में एक बहुमंजिला इमारत (अपार्टमण्ट) में मकान लिया। जाति, संप्रदाय, अंचल आदि को लेकर मेरे सामने जो घटनाएँ घटित हो रही थीं उससे भारत की संहति, एकता और राष्ट्र-निर्माण में भयंकर बाधा उपज रही थी। मेरा यह दृढ़ विश्वास था कि आने वाले दिनों में भी ऐसी ही घटनाएँ घटित होंगी। इसके समाधान के लिए क्या किया जा सक्ता है? अपने बचे-खुचे समय का उपयोग करके मैंने देश की इन समस्याओंपर आलेख लिखना शुरू किया । चेन्नइ से प्रकाशित अँग्रेजी दैनिक अखबार में धारावाहिक स्तम्भ लिखना शुरू किया। मेरे आलेख तमिल में अनूदित होकर स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हुए। थोड़े दिनों में मैं एक स्तम्भ-लेखक के रूप में परिचित हो गया। उसके बाद मुझे सभा-समितियों में मुख्य-अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया।
एक दिन एक सम्मेल्न में मुख्य-वक्ता होने का निमंत्रण मिला। मुझे पता नहीं था कि सम्मेलन के कार्यकर्ता किस दल/संस्था के हैं। उस दिन की आलोचना का बिषय था-“द्रविड़ों पर आर्य-संस्कृति के साम्रज्यवाद की प्रतिष्ठा-कितना सच और कितना झूठ। ”
सभा-स्थान में मेरा एक पूर्ण-अवयव का फोटो लगा हुआ था और उस में मेरे नाम को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया था- आज के मुख्य-वक्ता भारत के जाने माने स्तम्भकार श्री...। सभा-स्थान में भीड़ खचाखच भरी हुई थी। मैंने भाषण देना प्रारंभ किया- “हे मेरे तमिल भाई और बहनों। तमिलनाड़ु, विशेषकर दक्षिण भारत के लोग ब्रह्मण-विरोधी, हिन्दी-विरोधी और उत्तर भारत के विरोधी के रूप में जाने जाते हैं। उनके मत में द्रविड़ ही भारत के मूल निवासी हैं। आर्य भारत के बाहर से आये थे और द्रविड़ों को पराजित करके दक्षिण की तरफ भगा दिया। और उनका विश्वास है कि फिर आर्य ने अपने साम्रज्यवाद की प्रतिष्ठा की थी। वेद और संस्कृत-साहित्य पर आधारित परंपरागत हिन्दू-धर्म और हिन्दी-भाषा को आर्य्यों का सांस्कृतिक साम्रज्यवाद कह कर तमिलनाड़ु में उसका विरोध किया जा रहा है। ब्रह्मणों ने दक्षिण में आर्य-संस्कृति को थोपने में सहायता पहुँचायी थी, इसलिए ब्रह्मण द्रविड़ों के शत्रु हैं। अत: द्राविड़ लोग ब्रह्मणों के ईश्वर को भी स्वीकार करते नहीं है। हम लोगों को एक झूठा इतिहास पढ़ा कर ऐसे विचारों को पैदा किया गया है। एक कल्पित इतिहास की रचना करके, उसमें द्रविड़ और आर्य जाति के विभाजन को उत्साहित किया गया है। आर्य-द्रविड़ विभाजन के कारण भारत विश्व का पहला देश होगा जहाँ लोग खुद को भारतीय कहते समय संदेह प्रकट करेंगे। सिंधु सभ्यता का आविष्कार करने वाले ब्रिटिश पण्डितों ने ही इस विभाजन का बीज बोया है। इसका प्रमाण किसी के पास नहीँ है कि आर्य कहाँ से आये थे। आर्य-द्रविड़ विभाजन एक झूठ है। देश को विभाजित करने के लिये अँग्रेजों का यह एक ऐतिहासिक षड़यंत्र था। वे विभाजनकारी हैं। जाने से पहले वे जाति, वंश, संप्रदायों के आधार पर भारत को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटने का बीज बोकर गये हैं। भारत उपमहादेश में सभी जाति, उपजातियों के खून के नमूनों के परीक्षण से पता चला है कि जाति-धर्म और संप्रदाय के निरपेक्ष में सभी एक ही पित्रृ-पुरुष की संतान हैं। सभी के नसोंनि ओर धमनियों में एक ही रक्त है। आर्य-द्रविड़ विवाद अर्थहीन, एक अपवाद, एक मिथक, एक कल्पित कथा है। यदि किसी के पास इसका सही प्रमाण है, तो उस पर प्रकाश डाला जाना जरूरी है।
मेरा भाषण चल रहा था, सभा में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज रही थी। अचानक सभा-स्थान में जबरदस्त कुछ लोग घुस आये। वे गरजते हुए नारा लगा रहे थे- “उत्तर भारत का यह चालाक आदमी द्रविड़ जाति को बेवकूफ बनाने के लिए आया हुआ है। यह चालाक आदमी उत्तर भारतीय आर्य है। हमारे पुराने विश्वास और इतिहास को ठेस पहुँचा रहा है। हम आर्य-द्रविड़ विभाजन पर विश्वास रखते हैं।” इस तरह की सिंह-गर्जना के बीच अचानक कुर्सियों को फैंकना शुरू कर दिया। जान बचाने के लिए जब मैं सभा-मंच को छोड़ कर भागने की कोशिश कर रहा था,उस समय ऊपर से एक घूमती हुई लकड़ी की कुर्सी जोर-से आकर मेरे सिर से टकराई। फिर क्या हुआ, मुझे कुछ नहीं पता। उसके कुछ घण्टों बाद चेन्नइ के हस्पताल में मैंने खुद को पाया।