दुर्गेशनन्दिनी (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय - अनुवादक : गदाधर सिंह

Durgeshnandini (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

द्वितीय खण्ड

प्रथम परिच्छेद : आपेशा

जगतसिंह की आंख खुली तो देखा कि एक सुन्दर महल में पलंग के ऊपर पड़े हैं, कोठरी अति प्रशस्थ और सुशोभित है, पत्थर के चट्टान पर एक बहुमूल्य ‘गलीचा' पड़ा है और उपर सोने चांदी के गुलाबपाश इत्रदान, इत्यादि धरे हैं, द्वारों में खिड़कियों में और झरोखों में धानी परदे पड़े हैं और चारों ओर से सुन्दर सुगन्ध आ रही है।

परन्तु घर सूनसान था, केवल एक किंकरी खड़ी चुपचाप पंखा झल रही थी और एक दूसरी उसके पीछे खड़ी देख रही थी। जिस पलंग पर जगतसिंह सोते थे उसके एक तरफ एक स्त्री बैठी उनके चोटों में औषध लेपन कर रही थी और गलीचे पर एक सुवेषित यवन बैठा पान खा रहा था और आगे उसके एक फ़ारसी पुस्तक धरी थी। किन्तु सब सन्नाटे में थे, किसीके मुंह से शब्द नहीं निकलता था राजपुत्र ने चारों ओर देखा और चाहा कि करवट ले पर शरीर की वेदना के कारण फिरा नहीं गया।

पार्श्ववर्ती स्त्री ने राजकुमार की यह दशा देख धीरे से कहा 'चुपचाप पड़े रहो हिलो डोलो न।'
राजकुमार धीमे स्वर में बोले 'मैं कहाँ हूँ ?'
उस स्त्री ने कहा 'आप चुपचाप रहे चिन्ता न करें।'
राजपुत्र ने फिर धीरे से पूछा ‘कै वजे होंगे ?'
स्त्री ने कहा 'दोपहर होगई। आप चुप रहिये बोलने से घाव टूटने का भय रहता हैं और नहीं तो हमलोग जाते हैं।'
राजपुत्र ने दीनता प्रकाश पूर्वक फिर पूछा 'तुम कौन हो ?'
स्त्री ने कहा 'हमारा नाम आयेशा है।'
राजकुमार चुपरहे और उसका मुंह देखने लगे। इस व्यापार को अभी तक किसी ने नहीं देखा था।

आयेशा २२ वर्ष से ऊपर न थी किन्तु उस की सुन्दरता शब्दों द्वारा प्रकाश करना बड़ा कठिन है तिलोत्तम भी परम सुन्दर थी पर इसमें और उसमें बड़ा भेद था। तिलोत्तमा नवकलिका की भांति कोमल, संकुचित और निरमल स्वभाव योवन के रस से अज्ञात थी सुख पर उसके भोलापन चमकता था। नेत्र हाव भाव और कामकटाक्ष को जानते ही न थे शरीर का भी उसको अभी अच्छा ज्ञान न था बालापन प्रत्येक अङ्ग से टपकता था। पर आयेशा ऐसी न थी। वह प्रातकालीन नलिनी की भांति विकसित सुवासित और रसपरिपूर्ण थी। शरीर की आभा गृह को दीप्तमान करती थी। यदि विमला की तुलना इससे करें तो भी नहीं हो सकती क्योंकि वह सुन्दर तो अवश्य थी परन्तु गृहस्थी के कर्म करने से उसके हाथ पैर कठोर थे और शरीर भीतर से पोला था। थदि तिलोत्तमा के शरीर की प्रभा बालशशि की भांति थी तो बिमला की तैलाधीन दीपक के समान थी और आयेशा की मध्यान्ह पूर्व मार्त्तण्डरश्मि की भांति जिसपर पड़ती थी वह खिल उठता था।

जैसे उद्यान में पद्म का फूल शोभा देता है उसीप्रकार आयेशा से इस आख्यान की शोभा है। यदि कोई चित्रकार अपनी लेखनी लेकर इस अलेख रूपराशि का प्रतिबिम्ब उतारने की चेष्टा कर बैठता तो निश्चय है कि एक बेर उसको मूर्छा अवश्य आ जाती और ज्ञानशून्य हो जाता। पहिले तो उसको चम्पकरक्त और श्वेतवर्ण के अन्तर्गत शरीर के रङ्ग का रङ्ग कहां मिलता? फिर प्रशस्थ ललाट के लिखने के समय मन्मथ के रङ्ग भूमि का ध्यान न जमता मस्तक मध्य विलगित केश अर्ध चन्द्राकार जूड़ा पर्य्यन्त काकपक्ष की भांति कर्णदेश के ऊपर से घुमाने के समय हाथ अवश्य कांप जाता। निर्मल सुरसरिधार के निस्तृत स्थान से किञ्चित दूर पर बांकी भ्रूशैवाल के नीचे पलक पक्ष संचारित झख की जोड़ी प्रसन्नता पूर्वक खेलती हुई कदापि न बन सकती। उसके नीचे कीरबिम्ब फल के ऊपर बैठा हुआ कपोत की पीठ पर जिसके दोनों और दो भुजङ्ग हों केलि कर रहा हो और बीच में सिंहासन पर दो शालिग्राम की बटिया सरोवर के तीर पर धरी हों ऐसा रूप कब बन सकता है। सारांश जिसको बिधना ने स्वयं अनुपम बना दिया उसकी उपमा मनुष्य वापुरा क्या बना सकेगा। ऊपर की लाट बना कर अतिक्षीन लंक को ऊर्ध्व भार सहने के अयोग्य समझ उसने नीचे दो स्तंभ खड़े कर दिये जब भी चलते समय लच खाकर शरीर के दोहरा हो जाने का भय मन में लगा ही रहा। राजकुमार बहुत काल पर्यन्त आयेशा को देखते रहे और तिलोत्तमा का ध्यान आ गया और हदय विदीर्ण होकर शरीर क्षत द्वारा रुधिर वेग से बहने लगा। फिर मूर्छा आई और उन्होंने आंख बन्द कर ली।

स्त्री जो पलङ्ग पर बैठी थी डर कर खड़ी हो गई और पुस्तक पाठ करनेवाला यवन उसके मुंह की ओर देखने लगा। वह उठकर धीरे २ यवन के समीप जाकर उसके कान में बोली—
'उसमान शीघ्र वैद्य के समीप किसीको भेजो।'
दुर्गजयी उसमान ही गलीचे पर बैठा था। आयेशा की बात सुनकर उठ गया।
आयेशा ने एक रूपे का बर्तन उठा उसमें से जलवत एक वस्तु लेकर राजपुत्र के मुख और मस्तक पर छिड़का।
उसमानखां भी शीघ्रही लौट आया और चिकित्सक को लेता आया। उसने अपनी बुद्धि के अनुसार यत्न कर लहू का बहना बन्द किया और अनेक औषध आयेशा के पास रख उनके सेवन की विधि बताने लगा।
आयेशा ने धीरे से पूछा 'अब क्या बोध होता है?'
भिषक ने कहा-'ज्वर बहुत है।'
वैद्य को जाते देख उसमान ने द्वार पर जाकर उसके कान में कहा 'बचने की आशा है कि नहीं?"
भिषक ने उत्तर दिया "लक्षण तो नहीं है पर ईश्वर की गति जानी नहीं जाती जब फिर कोई विशेष क्लेश हो तो हम को बुला लेना।"

दूसरा परिच्छेद : पाषाण संयुक्त कुसुम

उस दिन आयेशा और उसमान बड़ी रात तक जगतसिंह के समीप बैठे थे। कभी उनको चेत होजाता था और कभी मूर्छा आ जाती थी। भिषक भी कई बेर आए और गए आयेशा चित्त लगाकर राजकुमार की सेवा करती थी जब आधी रात हुई एक परिचारिका ने आकर कहा "बेगम तुम को बुलाती हैं।'

'अच्छा जाती हूं' कह कर आयेशा उठी। उसमान भी उठे। आयेशा ने पूछा 'तुम क्यों उठे?'
उसने कहा 'रात बहुत गई है चलो तुमको पहुंचाय आयें।
आयेशा दास दासी को सावधान रहने की आज्ञा दे माता के घर चली। मार्ग में उसमान ने पूछा 'आज क्या तुम बेगम के पास रहोगी?'
आयेशा ने कहा 'नहीं मैं अभी राजपुत्र के पास लौट आऊंगी।' उसमान ने कहा 'आयेशा, तुम्हारे गुण का बखान मैं क्या करूं तुम इस परम शत्रु के ऊपर इतनी दया प्रकाश करती हो कि बहिन भाई पर न करेगी। तुम ने मानो इसको प्राण दान दिया।

आयेशा हँसने लगी और बोली 'उसमान' मेरा तो यह स्वभाव है। दुखी की सेवा करना तो मेरा धर्म है, यदि न करूं तो दोष है और करने में कुछ प्रशंसा नहीं। किन्तु तुम्हारा तो वह शत्रु हैं रण में तुम्हारे उसके परामर्ष हुआ था और तुम्ही ने उसकी यह दशा की है तुम उस पर इतनी कृपा करते हो तुम्हारी निस्सन्देह प्रशंसा है।'

उसमान ने कहा 'आयेशा, तुम अपने सुन्दर स्वभाव के कारण सब को समान समझती हो। मेरा अभिप्राय वैसा नहीं है, तुम नहीं जानती हो कि जगतसिंह की रक्षा से हमलोगों को कितना लाभ है उनकी मृत्यु से हमारी हानि हैं। कुछ मानसिंह लड़ाई में जगतसिंह से कम नहीं हैं। एक योद्धा नहीं दूसरा आवेगा किन्तु जगतसिंह यदि जीता हमारे हाथ में रहे तो मानसिंह को अपनाते कितनी देर है। वह अपने पुत्र के छुड़ाने की लालसा से अवश्य संधि करेगा और अकबरशाह भी ऐसे वीर सेनापति के छुड़ाने की इच्छा करेंगे। और यदि स्वयं जगतसिंह को हमलोग अपने हितसत्कार द्वारा बाधित कर सकें तो वह कृतज्ञता पालन पूर्वक हमारे मन का मेल करा देगा, उसके किये यह होसक्ता है। यदि और कुछ न हो तो मानसिंह अपने पुत्र के छोड़ाने के लिये रूपया बहुत देगा। एक दिन की विजय की अपेक्षा जगतसिंह का जीता रहना विशेष उपकार कारक है।'

उसमान ऊर्ध्व लिखित बातों को सोच बिचार तन मन से राजकुमार के पुनर्जीवन का उद्योग करता था किसी २ का ऐसा भी स्वभाव होता है कि यदि लोग उनको दयावन्त कहें तो लज्जा आती है अतएव बाहर से कठिनता धारण किये रहते हैं। उसमान का भी ऐसा ही स्वभाव देख आयेशा हँस कर बोली 'उसमान! यदि सब का चित्त तुम्हारे ऐसा होता तो फिर धर्म का कुछ काम न था'।
उसमान इधर उधर की बातैं कर बोला 'आयेशा। अब तो मुझ से रहा नहीं जाता, कब तक लव लगाये रहूं?'

आयेशा के मुंह पर गम्भीरता आ गयी। उसमान उसकी ओर देखने लगा। उसने कहा 'उसमान हम तुम भाई बहिन की भांति एक स्थान पर उठते बैठते हैं यदि तुम्हारे मन में कुछ और है तो अब मैं तुम्हारे सामने निकलूंगी भी नहीं। उसमान का मुंह मलीन होगया और बोला।'

'हे करतार! क्या तूने इस कोमल कुसुम शरीर को पाषाण हृदय संयुक्त बनाया है!' और आयेशा को माता के गृह पहुंचाय उदास मन अपने घर को लौट आया और जगतसिंह?
बिषम ज्वर में पड़े शय्या पर भुगत रहे हैं।

तीसरा परिच्छेद : तुम तिलोत्तमा नहीं हो?

दूसरे दिन सन्ध्या को जगतसिंह की कोठरी में उसमान और चिकित्सक चुपचाप बैठे थे आयेशा पलङ्ग पर बैठी हाथ से पंखा झल रही थी। चिकित्सक नाड़ी देख रहा था और जगतसिंह अचेत पड़े थे। चिकित्सक ने कहा 'आज की रात ज्वर उतरने पर यदि प्राण बच जाय तो फिर कुछ चिन्ता नहीं। अब वह समय आता जाता है।'

सब का मन ब्यग्र हो रहा था, चिकित्सक भी बार २ नाड़ी देखता था और 'अब नाड़ी बहुत सुस्त चलती है' 'अब तो कहीं मिलती ही नहीं' 'देखो यह चल रही है' कहता था। एकाएक उसका मुंह श्याम होगया और बोला 'देखो अब समय आ गया।'
आयेशा और उसमान कान लगाकर सुनते थे और भिषक नाड़ी पकड़े बैठा था।

थोड़ी देर बाद वैद्य ने कहा 'नाड़ी बहुत धीमी चलती है' आयेशा का मुंह और सूख गया और जगतसिंह के मुंह की भी आकृति बिगड़ चली बरन कुछ टेढ़ापन भी आ गया और स्वेतता छा गयी, हाथों की मुट्ठी बन्ध गयी आंखैं घूम गयीं। आयेशा से जाना कि अब कुछ आशा नहीं, काल आन पहुंचा। चिकित्सक हाथ में एक शीशी लिये बैठा था जगतसिंह की इस अवस्था को देख उनका मुंह चीर औषधी भीतर डाल दी किन्तु वह ओठों द्वारा निकल पड़ी कुछ थोड़ीसी पेट में गयी। दवा ने भीतर जातेही अपना प्रभाव दिखाया, शरीर का रङ्ग पलटने लगा स्वेतता जाती रही, रक्त का संचार होने लगा, हाथ की मुट्ठी खुल गई और आंख भी खुलने लगी। हकीम ने फिर नाड़ी देखी और किंचितकाल के अनन्तर हर्षयुत बोला 'अब कुछ भय नहीं अब काल टल गया।'

उसमान ने पूछा 'ज्वर उतर गया?'
भिषक ने कहा 'हां।'
आयेशा और उसमान दोनों इस बात को सुन कर प्रसन्न हुए?

भिषक ने कहा 'अब किसी बात की चिंता नहीं है मैं जाता हूं इस औषध को आधी रात तक देते जाना' और आप चला गया उसमान भी अपने घर चला गया केवल आयेशा पलङ्ग पर बैठी जगतसिंह की सेवा कर रही थी।

आधी रात के किंचित् पूर्व राजकुमार ने नेत्र खोला और आयेशा और उनकी चार आंखें हुईं। उस समय आयेशा को राजकुमार की चेष्टा देख बोध हुआ कि वे किसी वस्तु का स्मरण कर रहे हैं परन्तु श्रम निष्फल होता है। आयेशा की ओर किंचित्काल देख कर बोले 'मैं कहां हूं?' दो दिन में यही शब्द पहिले पहिल उनके मुंह से निकला।
आयेशा ने कहा 'कतलूखां के दुर्ग में'।
राजकुमार फिर कुछ स्मरण करने लगे और बोले 'मैं यहां कैसे आया?
पहिले आयेशा चुप हो रही फिर बोली ' आए पीड़ित जो हैं।' राजकुमार ने लक्षण समझ सिर को हिला कर कहा 'नहीं नहीं बन्दी हूं।' और चहरे का रङ्ग पलट गया।
आयेशा ने कुछ उत्तर न दिया।
फिर राजपुत्र बोले 'तुम कौन हो?'
'मेरा नाम आयेशा है।'
'आयेशा कौन?'
'कतलू खां की बेटी।'
राजपुत्र फिर चुप रह गए क्योंकि अभी उनको इतनी शक्ति तो थी ही नहीं स्वासा चलने लगी। जब फिर कुछ स्थिरता आई तो बोले 'हमको इस स्थान पर कै दिन हुए?'
'चार दिन।'
'मन्दारणगढ़ अभी तुम्हारे अधिकार में है?'
'हां है।'
फिर जगतसिंह का दम फुलने लगा और कुछ थम कर बोले-'बीरेन्द्रसिंह की क्या दशा हुई?'
'बीरेन्द्रसिंह कारागार में हैं आज उनका विचार होगा।'
जगतसिंह के मुंह पर और भी उदासी छा गई पूछा 'और २ परिजनों की क्या गति हुई?'
आयेशा उकता कर कहने लगी 'मैं सम्पूर्ण समाचार नहीं जानती।'
राजपुत्र अपने मन में सोचने लगे और उनके मुंह से एक नाम निकला आयेशा ने उसको सुन लिया-'तिलोत्तमा।'
आयेशा उठकर औषध लेने गई उस समय की शोभा युवराज के मन में बस गयी और वे उसी की ओर देखने लगे। उसने औषध लाकर दिया और राजपुत्र ने पान करके कहा—
'मैंने स्वप्न में देखा है कि स्वर्गीय देवकन्या मेरे सिरहाने बैठी शुश्रूषा कर रही है वह तुम्ही हो न तिलोत्तमा?'
आयेशा ने कहा 'आपने तिलोत्तमा को स्वप्न में देखा होगा।'

चौथा परिच्छेद : घूंघटवाली

दुर्ग जय करने के दूसरे दिन पहर दिन चढ़े कतलूखां का 'दरबार' हुआ। पारिषद लोग श्रेणीबद्ध दोनों ओर खड़े थे और सामने शतश: मनुष्य चुपचाप देख रहे थे। आज बीरेन्द्र सिंह का विचार होनेवाला है।

कई सिपाही अस्त्र बांधे बीरेन्द्रसिंह के हाथ में हथकड़ी और पैर मैं बेड़ी डाले उपस्थित हुए। यद्यपि उनका शरीर रक्त वर्ण हो रहा था पर मुंह पर भय का कोई चिन्ह नहीं था। आंखों से आग बरसती थी नाक का सिरा फरफराता था और दांत ओठों को खाये जाते थे। बीरेन्द्रसिंह को देख कतलू खां ने पूछा 'बीरेन्द्रसिंह! आज मैं तुम्हारे अपराध का विचार करने बैठा हूं बताओ तुमने हमसे बिरोध क्यों किया?'

बीरेन्द्रसिंह ने क्रोध करके कहा 'पहिले तुम यह तो बतलाओ कि हम ने क्या विरोध किया'।
एक पारिषद ने कहा 'विनीत भाव से बात करो'।
कतलू खां ने कहा 'तुमने क्यों हमारी आज्ञा के अनुसार हमको द्रव्य और सेना नहीं भेजी?'
बीरेन्द्रसिंह ने नि:शंक कहा 'तुम राजद्रोही लुटेरों को हम क्यों द्रव्य दें? और सेना दें?'
कतलू खां का कलेवर कोप से कांपने लगा किन्तु रोष को रोक कर बोला 'तुम ने हमारे अधिकार में रह कर मोगलियों से क्यों मेल किया?'
बीरेन्द्रसिंह ने कहा 'तुम्हारा अधिकार कहां है?'
कतलू खां को और कोप हुआ 'सुनरे दुष्ट जैसा तूने किया है वैसा भोगेगा। अभी तो तेरे जीने की आशा थी पर तू ने अपने हाथ से वह बिगाड़ा।'

बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू खां—मैं हाथ पैर बंधा कर तुम्हारे समीप दया की आशा कर के नहीं आया हूं जिस का जीवन तुम्हारी दया के आधीन है उसका जीनाही क्या? यदि तुम केवल मेराही प्राण ले कर सन्तुष्ट होते तब भी मैं तुमको आशीर्वाद देता परन्तु तुमने तो हमारे कुल का नाश कर डाला और प्राण से भी अधिक तुमने हमारे बीरेन्द्रसिंह के मुंह से और बात नहीं निकली कंठ रूंध गया आंखों से पानी बहने लगा। भय हीन दाम्भिक बीरेन्द्रसिंह सिर नीचे करके रोने लगे।

कतलू खां तो सहज निठुर था। वरन उसको परायः दुख देख कर उल्लास होता था बीरेन्द्रसिंह को इस अवस्था में देखकर उसको हंसी आयी और बोला 'बीरेन्द्रसिंह! कुछ मांगना हो तो मांग लो अब तुम्हारी घड़ी आगयी। रोते २ बीरेन्द्रसिंह की छाती कुछ ठंढी हुई और बोले 'मुझको और कुछ न चाहिये अब शीघ्र मेरे बध की आज्ञा दीजिये।'
क· — 'यह तो होगाही और कुछ?'
'अब इस जन्म और कुछ न चाहिये।'
'मरती समय अपनी कन्या से भेंट नहीं करोगे?'

इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव लगा। 'यदि हमारी कन्या तुम्हारे घर में जीती है तो उसको न देखूंगा और यदि मरगयी हो तो लाओ उसको गोद में लेकर मरूं।' दर्शकगण चुपचाप दांत तले उंगली दबाये इस कौतुक को देख रहे थे।

नवाब की आज्ञा पाय 'रक्षक बीरेन्द्रसिंह को बध भूमि की ओर ले चले। मार्ग में एक मुसलमान ने बीरेन्द्रसिंह के कान में कुछ कहा परंतु उन्होंने सुना नहीं तब एक पत्र उनके हाथ में दिया। उसको खोल कर उन्होंने देखा कि बिमला का लिखा है और मींज मांजकर फेक दिया उस मुसलमान ने उसको उठा लिया और चला गया। निकटवर्ती एक दर्शक ने अपने एक मित्र से धीरे से कहा 'जान पड़ता है यह पत्र इसकी कन्या का है।'
बीरेन्द्रसिंह इस बात को सुन उसकी ओर फिर कर बोले 'कौन कहता है कि हमारी कन्या है? हमारी कन्या नहीं है।'
पत्रवाहक ने पत्र ले जाते समय रक्षकों से कहा था जब तक हम न आवें तुम यहीं ठहरे रहना।
उन्होंने उत्तर दिया 'अच्छा सरकार।'
यह मनुष्य उसमान था इसी लिये रक्षकों ने सरकार कहा।

उसमान हाथ में चिट्ठी लिये चार दीवारी के समीप गया। उस स्थान पर एक वृक्ष के नांचे घूंघट काढ़े एक स्त्री बैठी थी। उसके समीप पहुंच कर उसमान ने सब वृत्तांत कह सुनाया। घूंघटवाली ने कहा 'आपको क्लेश तो बहुत होता है पर हम लोगों की यह दशा आपही के कारण हुई है। आप को फिर यह काम करना पड़ेगा' उसमान चुप रह गया।
घूंघटबाली ने रोकर कहा 'न करोगे न सही। अब तो मैं अनाथ हो गयी केवल ईश्वर रक्षा करनेवाला है।

उसमान ने कहा 'माता! तुम नहीं जानती हो। यह काम बड़ा कठिन है। यदि कतलू खां सुन पावे तो मरवा डाले'! स्त्री ने कहा 'कतलू खां— क्यों हमको डराते हो। उसकी सामर्थ नहीं जो तुम्हारा बाल बांका कर सके।'
उ॰–– तुम कतलू खां को चीन्हती नहीं हो? अच्छा चलो हम तुम को बध भूमि में ले चलें।
उसमान के पीछे २ स्त्री बध भूमि में जाकर चुपचाप खड़ी हुई। बीरेन्द्रसिंह एक भिखारी ब्राह्मण से बात कर रहे थे इस्से इसको नहीं देखा। घूंघटवाली ने घूंघट हटा कर देखा तो वह ब्राह्मण अभिराम स्वामी था।
बीरेन्द्रसिंह ने अभिराम स्वामी से कहा 'गुरुदेव अब मैं बिदा होता हूं। और मैं आप से क्या कहूँ इस लोक में अब मुझको और कुछ न चाहिये।'
अभिराम स्वामी ने उंगली से पीछे खड़ी घूंघटवाली स्त्री को दिखाया। बीरेन्द्रसिंह ने मुंह फेर कर देखा और घूंघटवाली झपट घूंघट हटा बेड़ी बद्ध बीरेन्द्रसिंह के चरण पर गिर पड़ी।
बीरेन्द्रसिंह ने गदगद स्वर से पुकारा 'बिमला।'
किन्तु बिमला रोने लगी।
'हे प्राणनाथ! हे स्वामी? हे राजन्! अब मैं कहां जाऊं। स्वामी मुझको छोड़कर तुम कहां चले ? मुझको किसको सौंपे जाते हो। हा प्रभू।'
बीरेन्द्रसिंह की आंखों से भी आंसू गिरने लगे। हाथ पकड़ कर बिमला को उठा लिया और बोले 'प्यारी? प्राणेश्वरी! क्यों तू मुझको रोलाती है। शत्रु देख कर मुझको कायर समझेंगे।'
विमला चुप रही। बीरेन्द्रसिंह ने फिर कहा 'बिमला। मैं तो अब जाता हूं तुम लोग मेरे पीछे आना।'
विमला ने कहा ' आऊंगी तो।' (और धीरे से जिसमें और लोग न सुनें) आऊंगी तो परंतु इस दुख का प्रतिशोध करके आऊंगी।'
बीरेन्द्रसिंह का मुखमंडल दीप्तमान हो गया आर बोले 'हां!' बिमला ने दहना हाथ दिखला कर कहा 'इस हाथ का कंकण भी मैंने उतार दिया अब उसका क्या काम है, अब इस को केवल अस्त्र, छूरी आदि भूषण पहिराऊंगी।'
बीरेन्द्रसिंह ने प्रसन्न होकर कहा 'ईश्वर तेरी मनोकामना पूरी करें।'
इतने में जल्लाद ने चिल्ला कर कहा अब 'मैं नहीं ठहर सक्ता।'
बीरेन्द्रसिंह ने बिमला से कहा 'बस अब तुम जाओ।'
बिमला ने कहा 'नहीं, मैं अपनी आंखों से देख लूंगी आज मैं तुम्हारे रुधिर से अपने लाज संकोच को धो डालूंगी।'

'अच्छा जैसी तेरी इच्छा' कहकर बीरेन्द्रसिंह ने जल्लादों को संकेत किया। बिमला देखती रही इतने में ऊपर से कठिन कुठार गिरा और बीरेन्द्रसिंह का सिर भूलोटन कबूतर की भांति पृथ्वी पर लोटने लगा। वह चित्र लिखित क ीसी खड़ी रही न तो उसके आंखों में आंसू आए और न मुंह का रंग पलटा यहां तक कि पलक भी नहीं गिरती थी।

पांचवां परिच्छेद : विधवा

तिलोत्तमा क्या हुई? वह पिता हीन अनाथ कन्या क्या हुई? बिमला भी क्या हुई? कहां से आकर उसने बध भूमि में अपने स्वामी का मरण देखा था? और फिर कहां गयी?

बीरेन्द्रसिंह ने मरते समय अपनी प्रिय कन्या को क्यों नहीं देखा वरन नाम लेते क्रोध के मारे शरीर कांपने लगा? और 'हमारी कन्या नहीं है' कहने का क्या प्रयोजन था? बिमला के पत्र को बिना पढ़े क्यों फेंक दिया?

कतलूखां के सामने बीरेन्द्रसिंह ने जो तिरस्कार किया था उसका स्मरण करो–– 'तुम ने मेरे उज्वल कुल में कालिमा लगायी, तिलोत्तमा और बिमला दोनों कतलूखां के उपपत्नी ग्रह में मिलेंगी। संसार की यही गति है! विधना की करतूत ऐसी ही है! रूप, यौवन, सरलता अमलता इत्यादि सब कालचक्र के नीचे पड़कर नष्ट हो जाते हैं।

कतलूखां का नियम था कि जब कोई दुर्ग वा ग्राम पराजय होता था यदि उसमें कोई यौवनवती मनमोहनी पकड़ी जाती तो वह उसकी सेवा में भेजी जाती थी। मान्दारणगढ़ के जय होने के दूसरे दिन कतलूखां ने वहां जाकर बन्दीजनों को यथायोग्य आज्ञा दी और उनकी रक्षा के निमित्त सेना नियोजित की। बिमला और तिलोत्तमा को अपने 'हाथ' में ले आने की आज्ञा दी। इसके अनन्तर और और कामों में लगा रहा। उसने यह सुना था कि राजपूत सेना अपने सेनप जगतसिंह के बन्दी होने का समाचार सुन कहीं आस पास आक्रमण करने के उद्योग में है अतएव तद्विषय उचित प्रबन्ध करने लगा और इसी कारण उसको अपने नवप्राप्त दासी की सेवा के स्वाद लेने का समय नहीं मिला।

बिमला और तिलोत्तमा दोनों दो स्थान पर रक्खी गयीं जिस स्थान में पिताहीन तिलोत्तमा अपने हेमबरण शरीर को धूलिधूसरित कर रही थी उसके देखने की चेष्टा पाठकों के मन में कदापि न होगी क्योंकि बने २ के तो सब साथी होते हैं बिगड़े पर कोई बात नहीं पूछता! बसन्त ऋतु में बारिसंचारित सुन्दर सुगंधमय नवलता को हिलते हुए देख किसका मन नहीं चलायमान होता? वही लता जब किसी आंधी के कारण अपने आधार वृक्ष समेत भूमि पर गिर पड़ती है तो वृक्ष को सबलोग देखते हैं लता को कोई नहीं देखता। लकड़हारे लकड़ी काट लेजाते हैं और वह लता पैरों के नीचे कुचल जाती है।
अब जहां चपल, चतुर, रसिक, दुःखी किन्तु धीरधारी मलिन रूप बनाये बिमला बैठी है वहां चलो।

क्या यही बिमला ! यह क्या दशा हुई, माथे में धूलि भरी है। वह बनारसी दुपट्टा क्या हुआ? वह कारचोबी अंगिया भी तो नहीं है। बस्त्र भी मैला हो गया है और कई स्थान पर फटा भी है। शरीर पर कोई आभरण भी नहीं है। आंखें फूल आई हैं। वह कटाक्ष भी नहीं है। मस्तक में घाव कैसा है? रुधिर बह रहा है।
बिमला उसमान की परीक्षा लेती है।

पठान कुल तिलक उसमान सर्वदा युद्ध को अपना साधन और धर्म समझता था और जय सिध्यर्थ कोई उपाय उठा नहीं धरता था किन्तु पराजितों पर निष्प्रयोजन किसी प्रकार का अत्याचार नहीं होने देता था। यदि कतलूखां स्वयं बिमला और तिलोत्तमा के पीछे न पड़ता तो उसमान उनको किसी प्रकार बन्दी न होने देता। उसी की कृपा से बिमला ने अपने मरते स्वामी का मुंह देखने पाया था और जब उसने जाना कि वह बीरेन्द्रसिंह की स्त्री है उस दिन से और भी दया करने लगा?

उसमान कतलूखां का भतीजा था इसलिये वह अन्तःपुर इत्यादि सब स्थानों में जासक्ता था! जहां कतलूखां का बिहारगृह था वहां उसका पुत्र भी नहीं जासक्ता था और उसमान भी नहीं जा सकता था किन्तु उसमान कतलूखां का दहिना हाथ था उसी के पराक्रम से उडिस्सा अधिकार दामोदर नदी पर्यन्त पहुंचा, अतएव पुरजन सब उसको कतलूखां के समान जानते और मानते थे।
इसीलिये आज प्रातःकाल बिमला के प्रार्थनानुसार, मरते समय उस्से उसके पतिसे साक्षात हुआ।
बिमला ने अपने बिधवा होनेके दूसरे दिन जो कुछ अलंकार उसके पास था उसने उतार कर कतलूखां नियोजित दासी को दे दिया।
दासी ने पूछा 'मुझको क्या आज्ञा होती है'।

बिमला ने कहा 'जैसे तू कल उसमान के पास गई थी उसी प्रकार एक बेर और जाओ, कहा कि मैं उनको देखा चाहती हूं। और यह भी कहना कि इस बेर से बस अब तीसरी बार क्लेश न दूंगी।'
दासी ने जाकर वैसाही कहा। उसमान ने कहला भेजा उस महल में हमारे जाने से दोनों की हानि है, उनसे कहो कि हमारे घर आवें।
बिमला ने पूछा 'मैं जाऊंगी कैसे?' दासी ने उत्तर दिया कि उन्होंने कहा है 'मैं उपाय कर दूंगा!'
सन्ध्या समय आयेशा की एक दासी आकर प्रहरी से कुछ कह बिमला को उसमान के समीप ले चली।
उसमान ने कहा 'मैं तुम्हारा और कोई उपकार कर सक्ता हूं?'
बिमला ने कहा एक छोटीसी बात है 'राजकुमार जगतसिंह अभी जीते हैं?'
उ।–– हां जीते हैं।
बि।–– स्वाधीन हैं कि बन्दी?
उ।–– बन्दी तो हैं पर अभी कारागार में नहीं गए हैं।
उनके शरीर में अस्त्रों के घाव बहुत हैं इसलिये अभी चिकित्सालय में हैं।
बिमला ने सुनकर कहा 'सब अमंगलही है। भाग्य को क्या करें! जब राजपुत्र आरोग्य हो जाय मेरी यह याचना है कि यह पत्र उनको दे देना अभी अपने पास रक्खो।'
उसमान ने पत्र फेर कर कहा 'यह काम हमारे योग्य नहीं है। राजपुत्र चाहे किसी अवस्था में हों बन्दी तो है। बन्दियों के पास बिना पढ़े हम लोग कोई पत्र नहीं जाने देते और स्वामी की आज्ञा भी ऐसी ही है।'
बिमला ने कहा, इसमें कुछ आप की निन्दा स्तुति नहीं लिखी है आप संशय न करें। और स्वामी की आज्ञा? स्वामी तो आपही हैं।'
उसमान ने कहा 'और २ कामों में तो मैं पिता के बिरुद्ध कर भी सक्ता हूं पर ऐसे विषयों में कुछ नहीं कर सक्ता। तुम्हारा कहना है कि इस पत्र में कोई बुरी बात नहीं लिखी है मैं मानता हूं पर नियम बिरुद्ध नहीं कर सकता। मुझ से यह काम न होगा।
बिमला ने उदास होकर कहा 'अच्छा तो पढ़कर दे देना।'
उसमान ने पत्र ले लिया और पढ़ने लगे।

छठवां परिछेद : बिमला का पत्र

'युवराज! मैं ने बचन दिया था कि एक दिन पता बताऊंगी। आज वह दिन आगया, मैंने स्थिर किया था कि तिलोत्तमा को राजसिंहासन पर बैठा कर पता बताती पर वह न होने पाया अब तो यह बोध होता है कि कुछ दिन में सुन्ने में आवेगा कि तिलोत्तमा भी एक थी और उसके सङ्ग बिमला भी कोई थी इसीलिये आपको यह पत्र लिखती हूँ। मैं बड़ी पापिन हूं मैंने अनेक अनुचित कर्म किये हैं। जब मैं मर जाऊंगी लोग निन्दा करेंगे और मुझ को अपवादक कहेंगे उस समय कौन मुझको कलंकशून्य सिद्ध करेगा? ऐसा कौन हितकारी है? हां एक है और वह थोड़ेही दिनों में इस लोक को त्याग परलोक को सिधारेगा, अभिराम स्वामी से मैं उरिन नहीं हो सकी। मैंने विचारा था कि एक दिन आपकी दासियों में मैं भी हूंगी। आपने भी एक दिन हमारे निजों की भांति काम किया है। हा! मैं यह बात किस्से कह रही हूं? अभागिनियों के दुर्भाग्य ने संपूर्ण हितकारियों का नाश कर डाला। जो हो आप हमारी इस बात का स्मरण रखना। जब लोग हमको कुलटा और गणिका कहेंगे तो आप कहियेगा कि बिमला नीच थी, अभागिन थी किन्तु गणिका नहीं थी। जिनका अभी परलोक हुआ है उनके साथ इस दासी का शास्त्रनियमानुसार पाणिग्रहण हुआ था। बिमला विश्वासघातिनी नहीं है।

अद्यपर्यन्त यह बातें छिपी थीं आज इसको कौन पतियाता है? यदि पत्नी थी तो दासी का काम क्यों करती थी? सुनिये मान्दारणगढ़ के समीपवर्त्ती एक ग्राम में शशिशेखर भट्टाचार्य रहते थे। युवा अवस्था में उन्होंने रीत्यानुसार विद्याध्ययन किया किन्तु इस्से उनका स्वाभाविक दोष दूर नहीं हुआ। और सब गुण उनमें बहुत अच्छे थे केवल एक दोष था किन्तु वह तो जवानी का दोष था।

मान्दारणगढ़ के जयधरसिंह के एक सेवक की स्त्री बड़ी सुन्दर थी। स्वामी उसका सेना में सिपाही था इस कारण प्रायः बाहर रहा करता था। शशिशेखर की आंख उसपर पड़ी थोड़ेही दिनों में उसका पैर भर आया।

अग्नि और पाप दोनों छिप नहीं सक्ते यह बात शशिशेखर के बाप के कान तक पहुंची। उन्होंने कुलकलंक के छुड़ाने के लिये उस स्त्री के स्वामी को तुरन्त बुलवा भेजा और अपने पुत्र का उचित शासन किया। इस अपमान के कारण शशिशेखर उदास होकर घर से चल दिये और काशी में पहुंचे। वहां एक महान पण्डित का नाम सुन उन्हीं के पास पढ़ने लगे। वेद में अच्छे थे ज्योतिष में भी बहुत बढ़े, अध्यापक का भी मन पढ़ाने में लगने लगा।

शशिशेखर एक शूद्री के गृह के समीप रहते थे उसको एक जवान कन्या थी वह प्रायः भट्टाचार्य महाराज की सेवा में रहा करती थी उस को इनसे गर्भ रह गया और मेरा जन्म हुआ। सुनतेही गुरु ने कहा 'शिष्य! मेरे यहां पापियों का काम नहीं है। जाओ अब काशी में मुंह न दिखलाना।
शशिशेखर लज्जा के मारे काशी से चल दिये और मेरी माता को भी घर से निकाल दिया।

बेचारी मुझको लेकर एक मड़ैया में रहने लगी और मजूरी करके पेट पालती थी। कोई बात नहीं पूछता था। पिता का भी कुछ समाचार नहीं मिला। कई वर्ष के अनन्तर एक धनी पठान बंगदेश से दिल्ली जाते समय काशी में उतरा था रात के कारण कहीं टिकने को स्थान नहीं मिलता था। उसके सङ्ग में उसकी स्त्री और एक छोटासा बालक भी था। उन्होंने हमारी मां की मड़ैया के समीप आकर निवेदन करके रात के टिकने की आशा मांगी। पठान के सङ्ग एक सेवक भी था। माता मेरी दरिद्र तो थी पर दयालु भी थी। धन की लालच से या जैसे हो उसने उनको स्थान दिया और एक ओर दीप जला कर पठान और उसके साथी लेटे।
उन दिनों काशी में लड़के बहुत चोरी जाते थे। मैं छ: वर्ष की थी मुझको सुध नहीं है किन्तु माता के मुंह से जैसा सुना है कहती हूं।

रात को दीप जल रहा था कि एक चोर सेन देकर पठान के बालक को ले चला। मेरी आंख खुली और मैंने चोर को देखा। उसको बालक ले जाते देख मैं चिल्लाई और सब जाग पड़े।

पठान की स्त्री ने देखा कि शय्या पर बालक नहीं है और चिल्लाने लगी। चोर उस समय चारपाई के नीचे था पठान ने उसका बाल पकड़ कर खींच लिया। जब चोर ने बहुत बिन्ती की तो उन्होंने तरवार से उसके कान में छेद करके छोड़ दिया।

यहां तक पढ़ कर उसमान में विमला ने पूछा 'तुम्हारा कभी और भी कोई नाम था?'
विमला ने कहा हां था पर वह मुसलमानी नाम था इसलिये पिताने दूसरा नाम रक्खा।
'वह नाम क्या था? माहरू!'
विमला ने विस्मित होकर कहा 'आप कैसे जानते हैं?'
उसमान ने कहा 'मैं वही बालक हूं जिसको चोर लिये जाता था।'
विमला को बड़ा आश्चर्य हुआ उसमान फिर पत्र पढ़ने लगे।

दूसरे दिन जाते समय पठान ने माता से कहा 'तुम्हारी कन्या ने जैसा मेरा उपकार किया है उसके प्रति उपकार करने की हम को सामर्थ नहीं है। परन्तु तुमको यदि कोई वस्तु चाहती हो तो मुझ से कहो मैं दिल्ली जाता हूं वहां से भेज दूंगा यदि द्रव्य चाहिये तो वह भी भेज सक्ता हूँ।
माता ने कहा 'मुझको धन नहीं चाहिये। मेरी मजूरी मुझको अच्छी है। किन्तु यदि आपकी पहुंच जहाँपनाह तक हो तो ––'
बात पूरी नहीं होने पाई कि पठान ने कहा 'हां ठीक है मैं राजदरबार में तुम्हारा काम कर सक्ता हूं'।
माता ने कहा 'तो वहां इस कन्या के बाप का पता लगा कर मुझको लिख भेजियेगा'।

पठान ने हुंकारी भरी और एक अशरफी निकाल कर माता के हाथ धरी और उसने ले लिया। अपने कहने के अनुसार उसने वहां जाकर पिता की खोज में बहुतेरे राजपूत भेजे पर कहीं पता न लगा।

चौदह वर्ष के अनन्तर राजपूतों ने लिखा कि पिता दिल्ली में हैं शशिशेखर नाम छोड़ कर अभिराम स्वामि नाम रक्खा है। जब यह सम्बाद आया माता मेरी मर चुकी थी।

यह सम्बाद सुन कर फिर मुझ से काशी में न रहा गया। कुल भर में मेरे केवल पिता जीते थे और सो भी दिल्ली में, तो मैं काशी में क्या करती। अतएव मैं अकेली पिता के पास चली गई। पिता मुझको देखकर पहिले रूखे हुए परन्तु जब मैं बहुत रोई गाई तब मुझको दासी हो के रहने की आज्ञा दी और माहरू नाम छोड़ विमला नाम रक्खा। मैं पिता के घर में रह कर रात दिन उनकी सेवा में लगी रहती थी और जिस प्रकार वह प्रसन्न रहते वही काम करती थी। पिता भी मेरी सेवा देख कर स्नेह करने लगे।

सातवां परिच्छेद : बिमला के पत्र की पूर्ति

'मैं कह चुकी हूं कि मान्दारणगढ़ के एक नीच स्त्री को मेरे पिता से गर्भ रह गया और उसको एक कन्या उत्पन्न हुई थोड़े ही दिनों में वह भी विधवा हो गयी और मेहनत मजूरी करके अपना और कन्या का पालन करती थी। इस कन्या के समान मान्दारणगढ़ में दूसरी रूपवती स्त्री न थी। काल पा कर उसका कलंक भी दूर होगया, जारजा का नाम भी मिट गया और उसके उदर में तिलोत्तमा का उद्भव हुआ!

वह जिस समय पेट में थी मेरे मनमें उसके विवाह के कारण चिन्ता उत्पन्न हुई। उसी समय एक दिन पिता अपने जामाता को साथ लेकर आए और मुझको पहिचनवा दिया उसी दिन से मैं उनको जानने लगी।

जब से मैंने प्राणेश्वर को देखा उसी दिन से परवश हो गयी वे प्रतिदिन पिता के समीप आया जाया करते थे और बैठते भी थे और बातचीत करते थे। मैं चुपचाप उनकी बातें सुना करती थी और मनसा वाचा से अपने को उनकी दासी समझी, वे भी मुझसे घृणा नहीं करते थे। अर्थात् दोनो ओर से आकर्षण होने लगा और मैं उनसे बोली। उन्होंने भी जो बात मेरे कान में कही वह मुझको आज पर्यन्त स्मरण है।

बिना मूल्य उनके हाथ बिक गयी, किन्तु माता की दुर्दशा मुझको भूलती न थी और मैंने अपना धर्म नहीं डगाया, पर इस्से उनका प्रेम कुछ कम नहीं हुआ। पिता को भी यह बातें ज्ञात हुंई। एक दिन दोनों बात कर रहे थे मैंने एक शब्द सुना।
पिता ने कहा 'मैं विमला को छोड़ नहीं सक्ता किन्तु यदि वह तुम्हारी पत्नी हो तो मुझको अंगीकार है पर जो तुम्हारे मन में यह बात न हो—'
पिता की बात पूरी नहीं होने पाई कि 'उन्ने' रोष करके कहा 'शूद्री कन्या को मैं कैसे विवाह सक्ता हूं?'
पिता ने कहा 'जारजा कन्या से कैसे विवाह किया था?'

प्राण प्रीतम ने कहा, उस समय मैं इसबात को नहीं जानता था जान बूझ कर कोई शूद्री की कन्या विवाह करता है? और आपकी पुत्री जारजा भी हो तो शूद्री नहीं हो सक्ती।'

पिताने कहा 'तुमने विवाह अस्वीकृत किया तो बहुत अच्छा तुम्हारे आने जाने से विमला को दुःख होता है अतएव अब यहां तुम्हारे आने का कुछ प्रयोजन नहीं। हमीं तुम्हारे घर पर आया करेंगे।'

उस दिन से उन्होंने आना जाना बन्द कर दिया। किन्तु मैं चातकी की भांति उनकी राह देखा करती थी उनसे भी न रहा गया और फिर आने जाने लगे। विरह ने प्रीत का रस चखा दिया और द्वितीय बार दर्शन होने से मेरा कुछ संकोच भी जाता रहा। पिता ने भी देखा और एक दिन मुझको बुला कर कहा, मैंने उदासी धर्म ग्रहण किया है और कुछ दिन देशाटन करूंगा तब तक तुम कहां रहोगी?'

मैं यह सुन कर रोने लगी और बोली मैं 'तुम्हारे सङ्ग चलूंगी' फिर जो प्राणेश्वर का ध्यान आ गया तो कहा 'नहीं तो जैसे काशी में अकेली रही थी उसी प्रकार अब भी रहूंगी।'
पिताने कहा 'नहीं मैंने एक उत्तम उपाय सोचा है जब तक मैं बाहर रहूं तब तक तुम महाराज मानसिंह की नवोढ़ा स्त्री के साथ रहना।'

मैं तुरन्त बोल उठी 'मैं तुम्हारे ही पास रहूंगी' पिता ने कहा 'नहीं मैं कहीं न जाऊंगा तुम मानसिंह के घर जाओ। मैं यहीं रहूंगा और नित्य तुमको देख आया करुंगा। जब मैं देख लूंगा कि तुम वहां कैसे रहती हो फिर वैसा प्रबन्ध करूंगा।'
हे युवराज! मैं उस दिन से तुम्हारे घर में रहने लगी और अपने प्राण प्रीतम से विलग हुई।

राजकुमार! मैं बहुत दिनों तक तुम्हारे पिता के घर में रही किन्तु तुम मुझ को नहीं चीन्हते। तब तुम्हारा वय केवल दश वर्ष का था और अपनी माता के साथ खेला करते थे। मैं तुम्हारी नबोढ़ा माता के संग दिल्ली में रहती थी। महाराज मानसिंह के पास स्त्रियां अनेक थीं तुम सब को थोही पहिचानते हो। योधपुर की उर्मिला तुमको स्मरण होगी उसके गुण का मैं तुमसे क्या वर्णन करूं। वह मुझको दासी करके नहीं मानती थी वरन भगिनी के तुल्य जानती थी। उसने मुझको अनेक विद्या सिखायी। उसीके अनुग्रह से मैंने शिल्प विद्या सीखी और नाच गाना भी मैंने उसी के चित्त विनोद के निमित्त सीखा। यह पत्र उन्हीं देवी के अनुग्रह का फल है।

उसकी कृपा से और भी अनेक लाभ हुए। उसने मुझको महाराज तक पहुंचाया और वे मेरा नाच गाना देख सुन कर बहुत प्रसन्न हुए और मुझको अपनी करके समझने लगे। वे मेरे पिता को भी मानते थे और कभी कभी मेरे देखने को आया करते थे। उर्मिला के समीप रहकर मैने बड़ा सुख भोगा किन्तु एक दुःख था कि जिसके लिये सर्वस्व त्याग करने को प्रस्तुत थी वह मन मोहन नहीं मिला। वे क्या मुझको भूल गए? कदापि नहीं। युवराज! आसमानी नाम चेरी को क्या आप पहिचानते होंगे? उनके सङ्ग मेरी बड़ी प्रीत थी मैंने उसको प्रीतम का समाचार लेने को भेजा। उसने उनका पता लगाया उन्होंने अनेक प्रकार की बातें कहीं। उसके उत्तर में मैंने उनको पत्र लिखा। उन्होंने उसका प्रति उत्तर दिया और इसी प्रकार हमारे उनके पत्र व्यवहार होने लगा।

इस रीति से तीन वर्ष बीत गया और परस्पर विस्मरण नहीं हुआ तब मुझको प्रतीत हुई कि यह प्रीत कच्ची नहीं है। इसका कारण क्या था मैं नहीं कह सक्ती। एक दिन रात्रि को मैं अकेली अपने शयनागार में सोई थी और दीप मन्द ज्योति से जल रहा था कि एक मनुष्य की परछाई देख पड़ी और किसी ने मेरे कान में धीरे से कहा 'प्यारी डरो मत मैं तुम्हारा दास हूं।'
मैं क्या उत्तर देती ? तीन वर्ष पर भेंट हुई सब बातें खुल गई गले लग कर रोने लगी।

फिर मैंने पूछा 'तुम कैसे इस पुरी में पहुंचे?' उन्होंने कहा 'आसमानी से पूछो, उसको साथ लेकर पवन के रथ पर चढ़कर आया हूँ इसी लिये अभी तक छिपा था।'
मैंने पूछा 'अब?'
उन्होंने कहा 'अब क्या? तुम चाहो सो करो।'

मैं सोचने लगी कि अब क्या करूं कहां रक्खूं? इतने में किसी ने मेरे शयनागार का द्वार खोला। देखूं तो महाराज मानसिंह आगे खड़े हैं। और क्या कहूं प्रीतम बन्दी कर लिये गए और दण्ड देने की भी आज्ञा हुई। मैं जाकर उर्मिला के चरण पर गिर पड़ी और सम्पूर्ण समाचार कह सुनाया। पिता से जब भेंट हुई उनके भी पैर पर गिर पड़ी। महाराज उनकी मानते थे और गुरू के तुल्य समझते थे मैंने उन से कहा 'आप अपनी ज्येष्ठ कन्या का स्मरण करें।' पर उन्होंने मेरी बात न सुनी जान पड़ता था कि महाराज की और उनकी एक मति थी। वरन रोष करके बोले 'पापिन! तू ने लज्जा संकोच सब छोड़ दिया' उर्मिला देवी ने मेरी रक्षा के निमित्त महाराज से बहुत कुछ कहा। महाराज बोले 'मैं इस चोर को छोड़ दूंगा यदि वह विमला से विवाह करले।'

मैं महाराज की मनोगति समझ चुप रही किन्तु प्राणेश्वर ने जब यह बात सुनी कहने लगे 'मैं बन्दी रहूंगा प्राणदण्ड भोगूंगा परन्तु शूद्री कन्या का अंगीकार कदापि न करूंगा। आप हिन्दू होकर ऐसा बात कहते हैं।'
महाराज ने कहा 'जब मैंने अपनी बहिन शाहजादा सलीम के सङ्ग ब्याह दी तो तुमको ब्राह्मण की कन्या ब्याहने कहता हूँ इसमें क्या आश्चर्य?'

पर उनके मन में न समाई। उन्होंने कहा 'महाराज जो होना था सो हो चुका अब आप कृपा करके मुझको बन्धन मुक्त कीजिये मैं अब विमला का नाम भी न लूंगा।'
महाराज ने कहा 'ऐसे तो तुम्हारे अपराध का प्रायश्चित नहीं होता। तुम विमला को त्याग दोगे तो दूसरा उसको कलंकिनी समझ कर ग्रहण नहीं करेगा।

अन्त को जब उनसे कारागार की कठिनता न सही गयी तो कुछ २ ढुले और बोले 'विमला यदि हमारे घर में दासी होकर रहे और इस विवाह के विषय में कभी किसी से कुछ न कहे तो मैं उससे विवाह करलूं नहीं तो न करूंगा।'

लगी बुरी होती है मैंने वही स्वीकार किया। मुझको धन सम्पत्ति और मान की लालसा न थी मैं तो केवल प्रीतम की अभिलाषी थी। पिता और महाराज की भी सम्मति हुई और मैं दासी का वेष धारण करके अपने भर्ता के गृह गई।

उन्होंने मुझको अपनी इच्छा के विरुद्ध पेंच में पड़ कर ग्रहण किया था, अतएव मुझको बैरी की भांति समझते थे। पूर्वकालीन प्रेम सब मिट्टी में मिल गया और महाराज मानसिंह कृत अपमान का टोकारा देकर मुझको निन्दित किया करते थे। मैं उसी में मगन थी। कुछ दिन के अनन्तर फिर मेरा सौभाग्य चमका और प्राणेश्वर मुझको चाहने लगे किंतु महाराज की ओर उनका वैसाही ध्यान रहा। विधना की करतूति! नहीं तो क्यों इस दशा को पहुंचते।
मैं तो अपना वृत्तान्त कह चुकी। बहुत लोग जानते होंगे कि मैं अपना कुल धर्म्म परित्याग कर मान्दारणगढ़ के स्वामी के पास रहती थी इसलिये मैंने आपको लिख भेजा है कि अब मैं मर जाऊं और लोग मुझको कलंक लगावें उस समय आप मेरी सहायता कीजियेगा।

इस पत्र में मैंने केवल अपना हाल लिखा है, जिसके संबाद जानने की आपको अनेक दिन से लालसा लग रही है उसका इसमें कुछ परिलेख नहीं है, आप उस नाम को अपने मन से भूल जाइये। तिलोत्तमा का अब ध्यान छोड़ दीजिये।
उसमान ने पत्र पढ़ कर कहा "माता तुम ने मेरी प्राण रक्षा की है अब मैं उसका प्रतिउपकार करूंगा"।
विमला ने ठंढी सांस लेकर कहा 'हमारा क्या उपकार आप कीजियेगा? और उपकार'-
उसमान ने कहा "मैं वही करूंगा।"
बिमला का बदन चमकने लगा और बोली "उसमान तुम क्या कहते हो? इस दग्धहृदय को अब ललचाते हो?"

उसमान ने हाथ से एक अँगूठी उतार कर कहा, यह अँगूठी लो दो एक दिन तो कुछ नहीं हो सकता ! कतलू खां की वर्ष गांठ समीप है उस दिन बड़ा उत्सव होगा। पहरे वाले मारे आनन्द के उन्मत्त हो जाते हैं। उसी दिन मैं तुम को मुक्त करूंगा तुम उस दिन रात को महल के द्वार पर आना यदि वहां कोई तुमको ऐसी हो दुसरी अंगूठी दिखावे तो तुम उसके सङ्ग हो लेना। आशा है कि निर्विघ्न निकल जाओगी’ आगे हरि इच्छा बलवान है।

विमला ने कहा परमेश्वर तुमको चिरंजीव रक्खें, और मैं क्या कहूं, और उसका हृदय भर आया और मुंह से बोली नहीं निकली ! आशीर्वाद देकर जब बिमला जाने लगी उसमान ने कहा “एक बात तुम से बता दें अकेली आना। यदि कोई तुम्हारे सङ्ग होगा तो काम न होगा। वरन उपद्रव का भय है।" .

बिमला समझ गई कि उसमान तिलोत्तमा को सङ्ग लाने का निषेध करता है और अपने मन में सोची कि यदि दो जन नहीं जा सकते तो अच्छी बात है तिलोत्तमा अकेली जायगी।
विमला बिदा हुई‌ ॥

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