दुर्गेशनन्दिनी (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय - अनुवादक : गदाधर सिंह

Durgeshnandini (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

प्रथम खण्ड

ग्यारहवां परिच्छेद : आसमानी का प्रेम

आसमानी को भीतर आते देख दिग्गजने बड़े प्रेम से कहा आओ प्यारी।

आसमानी ने कहा, वाहरे—ठठोली करते हो?

दि०| नहीं तुमसे क्या ठठोली करैंगे।

आ०| इसी से तुम्हारा नाम रसिक दास है?

दि०| रसिकः कौपिको वास:। प्यारी तुम बैठो मैं हाथ धो आऊं।

आसमानी ने मन में कहा, हां हाथ क्यों न धोवोगे। हम अभी तुमको और खिलावेंगे कि? और कहा कि क्यों; हाथ क्यों धोते हो, सब भात खा न जाओ।

दिग्गज ने कहा "यह कहीं हो सकता है कि बात कहके और फिर भात खाय।"

आ०| और यह भात बचा जो है। क्या भूखे रहोगे।

दिग्गज ने मुंह बिगाड़ कर कहा, क्या करूं तूने खाने भी दिया? और आंखे काढ़ कर पत्तल की ओर देखने लगे।

आसमानी ने कहा "तौ तुमको खाना पड़ेगा।"

दि०| हरे कृष्ण? चौके से उठ आये, कुल्ला किया, अब क्या खायेंगे?

आ०| हां न खाओगे? हमतो अपना जूठा खिलावेंगे और थाली में से एक कवर भात लेकर खा गयी।

ब्राह्मण हक से रह गया।

आधा कवर थाली में डाल कर आसमानी ने कहा 'ले अब खाओ' ब्राह्मण के मुख से शब्द नहीं निकला।

आ०| खाओ सुनते हो कि नहीं, मैं यह न किसी से कहूंगी कि तुमने हमारा जूठा खाया है, कुछ हानि नहीं।

दि०| हां उसमें क्या है।

किन्तु दिग्गज की क्षुधाग्नि क्षण २ बढ़ती जाती थी और मन में कहते थे कि यह दुष्ट आसमानी पृथ्वी में समाय जाती तो मैं यह सब भात खा जाता और पेट की आग बुझाता।

आसमानी चेष्टा से दिग्गज के मनकी बात लख गई और बोली "खाओ न-भला थाली के पास तो बैठो।"

दि०| क्यों फिर क्या होगा।

आ०| हमारा मन। क्या हमारा कहना न करोगे।

दिग्गज ने कहा "अच्छा लेओ बैठता हूं, इसमें कुछ दोष नहीं हैं। तुम्हारी बात रह जायं" और थाली के पास बैठ गए। पेट तो भूख के मारे ऐंठा जाता था और आगे का अन्न मुंह तक नहीं पहुंच सकता था। दिग्गज के आँखों से आँसू चलने लगे।

आसमानी ने कहा "यदि ब्राह्मण शुद्र का जुठा छूले तो क्या हो!" पण्डित ने कहा "स्नान कर डालना चाहिये।"

आ०| अब मैं जान गई कि तुम मुझको कैसा चाहते हो लो अब मैं जाती हूं। हमारे आने में तुमको क्लेश होता है।

दिग्गज लम्बी नाक सिकोड़ और कंजी आंखों को तिरछी कर हँसकर कहा "यह कौन बात है। अभी नहा डालूंगा।"

आसमानी ने कहा "मैं चाहती हूं कि आज तुमारी थाली का जूठन खाऊं। एक कोर बनाकर देओ तो।"

दिग्गज ने कहा "कुछ चिन्ता नहीं नहा कर स्वच्छ हो जाऊंगा" और भात सान कर कौर बनाने लगे।

आसमानी बोली कि मैं एक कहानी कहती हूं सुनो और जब तक मेरी कहानी समाप्त न हो तबतक तुम भात सानों, यदि हाथ खींच लोगे तो मैं चली जाऊंगी।

दिग्गज ने कहा अच्छा।

आसमानी एक राजा और उसके दुयो शुयो दो रानियों की कहानी कहने लगी और दिग्गज उसके मुंह की ओर देख कर हुंकारी भरने लगे और हाथ से भात भी सानते जाते थे।

सुनते २ दिग्गज का मन बंट गया और आसमानी के हवा भाव में भूल गया, भात का सानना भी स्मरण न रहा, परन्तु पेट की आतें कुलकुला ही रही थीं।

इतने में धोखे से भात का कौर मुंह तक पहुंच गया और मुंह में दांत तो थाही नहीं चुगलाने लगे। गाल फूला देखकर आसमानी खिलखिला कर हंसने लगी और बोली "क्यों यह क्या होता है?"

दिग्गज के ज्ञान चक्षु खुल पड़े और झट पट एक कौर और मुंह में धर आसमानी का पैर पकड़ कर कहने लगे "मेरी प्यारी आसमानी, किसी से कहना मत तुमको हमारी सौगंध।"

बारहवां परिच्छेद : दिग्गज हरण

इसी औसर पर बिमला ने आकर बाहर से द्वार खटखटाया। द्वार का शब्द सुनतेही दिग्गज का मुंह सूख गया और आसमानी ने कहा क्या हुआ? बिमला आती है छिप रहो छिप रहो।

ब्राह्मण देवता झट उठ खड़े हुए और घबरा कर कहने लगे "कहां छिपूं?"

आसमानी ने कहा देखो उस कोने में बड़ा अंधेरा है एक काली हांड़ी सिर पर रख के वहीं छिप रहो, अंधेरे में कुछ जान न पड़ैगा। दिग्गज ने वैसाही किया और आसमानी के बुद्धि को सराहने लगे किन्तु दुर्भाग्य वश एक अरहर की दाल की हांडी हाथ आई, ज्योंही उस को माथे पर औंधाया कि सब दाल वह कर नाक मुंह और संपूर्ण शरीर पर फैल गई। इतने से विमला ने भीतर आकर दिग्गज की यह दशा देखी। दिग्गज उसको देखतेही उठ खड़े हुए बिमला के मनमें दया आई और कहने लगी कि "बैठे रहो महाराज बैठे रहो" यदि तुम यह सब दाल पोंछ के खा जाओ तौ भी हम किसीसे न कहैंगी।

ब्राह्मण के जी में जी आया और फिर खाने को बैठ गये। मनमें तो आया कि शरीर की दाल भी पोंछके खा जांय परन्तु बन न पड़ा। आसमानी के निमित्त जो भात साना था वह सब खा गए पर अरहर की दाल का मनमें सोंच बनाही रहा।

जब खा पी चुके आसमानी ने स्नान कराया और मन स्थिर हुआ तो विमला ने कहा "रसिकदास एक बात है।" रसिकदास ने पूछा, क्या बात है?

वि०| तुम हम लोगों को चाहते हो नहीं?

दि०| कैसा कुछ।

वि०| दोनों जनी को?

दि०| हां दोनों को।

वि०| जो हम कहैं सो करोगे?

दि०| हां।

वि०| अभी?

दि०| हां अभी।

वि०| इसी घड़ी?

दि०| इसी घड़ी।

वि०| हम लोग यहां क्यों आई हैं जानते हो।

दि०| नहीं।

आसमानी ने कहा 'आज हम तुम्हारे संग भाग चलेंगी।" दिग्गज मुंह देखने लगा और बोला हां!

"विमला ने हंसी रोक के कहा बोलते क्यों नहीं?"

आं आं आं आं, तो तो तो कह कर दिग्गज रह गया किन्तु मुंह से शब्द नहीं निकला।

विमला ने कहा "तो क्या तुम न चलोगे"

आं आं आं तो अच्छा स्वामी से पूछ आऊं।

बि०| स्वामी से क्या पूछोगे? क्या गवना ब्याह है जो उनसे साइत पूछोगे?

दि०| अच्छा तो न जाऊंगा। तो कब चलना होगा?

बि०| कब? अभी देखते नहीं कि मैं सब ले देके आई हूं।

दि०| अभी?

वि०| नहीं तो कब? जो तुम न चलो तो हम किसी और को ढूढ़ें।

गजपति को फिर और कुछ न सूझी और बोले अच्छा चलो।

बिमला ने कहा अच्छा चदरा लेलेओ।

दिग्गज ने रामनामी अगौंछा ओढ़लिया और बिमला के पीछे हो लिए और उसे पुकार कर पूछने लगे कि लौटेगी कब?

बिमला ने कहा क्या लौटने ही को चलती हूं।

दिग्गज हंसने लगे और बोले कि बर्तन जो हमारे छूट जांंयगे।

बिमला ने कहा कुछ चिन्ता नहीं मैं तुम को नए ले दूंगी।

ब्राह्मण का जी उदास होगया परन्तु क्या करे अबला तो बड़ी प्रबला होती हैं। फिर बोले कि हमारी, "कगदहीं" जो रही जाती है!

बिमला ने कहा अच्छा शीध्र ले भी लेओ।

विद्यादिग्गज के गातेमें दो पोथी थीं एक व्याकरण और एक स्मृति, व्याकरणको हाथमें लेकर बोले कि इसका तो कुछ काम नहीं है, क्योंकि यह तो मेरे कण्ठाग्र है और केवल स्मृति को गाते में रख लिया, और श्रीदुर्गा कह कर आसमानी भी बिमला के साथ चली। थोड़ी दूर चल कर बोली कि तुम सब चलो मैं पीछे से आती हूं और आप घर चली गई। बिमला और गजपति साथ चले, दुर्ग से बाहर कुछ दूर जाकर दिग्गज ने कहा कि आसमानी नहीं आई?

विमला नें उत्तर दिया न आई होगी-क्या करना है।

रसिकदास चुप रहे, फिर कुछ काल में ठंढी सांस लेकर बोले बर्तन रह गया।

तेरहवां परिच्छेद : दिगज का साहस

चलते २ मान्दारणगढ़ धाम पार होगया रात अंधेरी बड़ी थी केवल नक्षत्रों के प्रकाश से कुछ कुछ मार्ग सूझता था मैदान में पहुंचकर विमला के मन में शंका हुई किन्तु दोनों सन्नाटे में चले जाते थे। बिमला ने गजपति को पुकार के कहा?

रसिकदास० | क्या सोचते हो?

रसिकदास ने कहा कि मैं बर्तनों का ध्यान कर रहा हूं। बिमला सुनकर मुंह पर कपड़ा देके हंसने लगी और फिर बोली कि क्यों दिग्गज तुम भूत से डरते हो कि नहीं? दिग्गज ने कहा राम राम कहो, राम राम, और सरक कर बिमला के समीप चले आये।

बिमला ने कहा, यहां तो भूत बहुत हैं। इतना सुनकर दिग्गज ने झपट कर बिमला का वस्त्र पकड़ लिया। फिर बिमला कहने लगी कि मैं उस दिन शैलेश्वर के दर्शन से लौटी आती थी मार्ग में उस बट के नीचे एक बढ़ी भारी मूर्ति देख पड़ी थी, इतने में जो दिग्गज की ओर दृष्टि पड़ी तो उसने देखा कि ब्राह्मण मारे डर के कांप रहा है, विशेष वार्ता से उसको शक्ति हीन होने के भय से बिमला ने बात टाल दी और कहने लगी "रसिकदास तुम गाना जानते हो?"

दिग्गज ने कहा, हां जानता क्यों नहीं।

तब बिमला ने कहा, अच्छा गाओ तो सही।

दिग्गज ने आरम्भ किया।

ए-हुम ऊं–"सखी री श्याम कदम्ब की डाल।"

मार्ग में एक गाय पड़ी खर्राटा ले रही थी इस अलोकिक राग को सुनकर भागी। रसिक गाने लगे।

"मोर पच्छ सिर सुमग बिराजै कर मुर्ली उर माल।

हँसि हँसि बात करत यदुनन्दन गिरवरधर गोपाल ॥१॥

ठाढ़ डगर अति रगर करत है रोकत सब बृज बाल।

गगरी फोरि नित चुनरी बिगारत करत अनेक कुचाल ॥२॥

इतने में मधुर संगीत ध्वनि सुनकर दिग्गज का राग बन्द होगया, बिमला गाने लगी उस सूनसान मैदान में रात्रि के समय जो उस कोकिल कण्ठी ने टीप ली शीतल समीर ने झट पट उसको इन्द्र के अखाड़े तक पहुंचा दिया और अप्सरा सब कान लगा कर सुनने लगीं दिग्गज का भी कान वहीं था जब वह गा चुकी रसिकदास ने कहा और-

बि०| और क्या?

दि०| एक और गाओ।

बि०| अब क्या गाऊं।

दि०| एक बिहाग गाओ?

बिमला ने कहा अच्छा गाती हूं और गाने लगी।

"ठाढ़े रहो बांके यार गगरिया मैं घर धर आऊं। गगरी मैं धरि आऊं चुनरी पहिर आऊं करि आऊं सोरहो सिंगार ॥१॥

गाते २ बिमला को मालूम हुआ कि कोई पीछे से कपड़ा खींचता है, पीछे फिर कर देखा तो दिग्गज उसका अंचल पकड़े उससे सट के चला आता है, बिमला ने कहा क्यो क्या फिर भूत आया क्या?

ब्राह्मण के मुंह से बात न निकली केवल उंगली के संकेत से दिखलाया कि 'वह।' बिमला सन्नाटे में आकर उसी ओर देखने लगी और खर्राटे का शब्द उसके कान में पड़ा और पथ के एक ओर कोई पदार्थ भी देख पड़ा। साहस पूव्वर्क उसके समीप जाकर देखा कि एक सुन्दर कसा कसाया घोड़ा मृत्यु से झगड़ रहा है। बिमला आगे बढ़ी और उस सैनिक अश्व के क्लेशकर अवस्था पर सोच करने लगी और कुछ काल पर्य्यन्त चुपचाप रही। जब आध कोस निकल गए तो दिग्गज ने फिर बिमला का अंचल पकड़ कर खींचा?'

बिमला ने कहा कौन।

गजपति ने एक वस्तु उठाकर देखाया, बिमला ने देखकर कहा यह किसी सिपाही की पगड़ी है और फिर सोचने लगी कि जिसका घोड़ा था, जान पड़ता है कि यह पगड़ी भी उसी की है। नहीं तो यह किसी पदचारी की पगड़ी जान पड़ती है! इतने में चन्द्रमा का उदय हुआ, बिमला और घबराई—

किञ्चित काल के अनन्तर दिग्गजने "पूछा प्यारी बोलती क्यों नहीं?"

बिमला ने कहा मार्ग में कुछ चिन्ह देखते हैं।

दिग्गज ने भली भांति इधर उधर देख कर कहा बहुत से घोड़ों के पैर के चिन्ह देख पड़ते हैं!

बि०| वाह कुछ समझे भी?

दि०| समझे तो कुछ नहीं।

बि०| वहां एक मरा हुआ घोड़ा, यहां सिपाही की पगड़ी और पृथ्वी तल में घोड़ों के पदचिन्ह इतने पर भी तुम्हारे कुछ समझ में नहीं आया! कोई मरा अवश्य है।

दि०| क्या?

बि०| अभी इधर से कोई सेना गई है।

गजपति ने डर के कहा तो धीरे २ चलो जिसमें वे सब आगे बढ़ जांय।

बिमला हंसकर कहने लगी कि तुम बड़े मूर्ख हो। क्या वे आगे गए हैं? देखो तो घोड़ों की टाप का मुंह किधर हैं? यह सेना मान्दारणगढ़ को गई है।

थोड़ी देर में शैलेश्वर के मन्दिर की ध्वजा देख पड़ी। बिमला ने मन में कहा कि राजपूत और ब्राह्मण से साक्षात होना अच्छा नहीं क्योंकि कुछ अनिष्ट हो तो आश्चर्य्य नहीं अतएव इसको यहां से हटाना उचित है।

दिग्गज ने फिर आकर बिमला के आंचल को पकड़ा।

बिमला ने पूछा अब क्या हुआ?

ब्राह्मण ने पूछा 'अब कितनी दूर और है?'

बि०| क्या कितनी दूर है?

दि०| वही वट वृक्ष!

बि०| कौन वट वृक्ष?

दि०| जहां तुम लोगों ने उसे देखा था।

बि०| क्या देखा था!

दि०| अरे रात को उस का नाम लेना न चाहिये।

बिमला समझ गई और औसर पाय बोली "ईह"

ब्राह्मण और डर गया बोला "क्या है।"

विमला घबरा कर शैलेश्वर के मन्दिर के समीपवर्ती वट वृक्ष की ओर उँगली दिखा कर बोली "देखो वही वठ का पेड़ है।"

दिग्गज से आगे न बढ़ा गया और मारे डर के पत्ते की भांति कांपने लगा।

बिमला ने कहा "आओ।"

ब्राह्मण ने कांपते २ उत्तर दिया कि मैं आगे नहीं जा सक्ता—

बिमला ने कहा कि मैं भी डरती हूं।

इतना सुनतेही ब्राह्मण चट लौट खड़ा हुआ और भागने की इच्छा करने लगा।

बिमला ने वृक्ष की ओर देखा कि उसके नीचे कोइ बस्तु पड़ी है। मन में जाना कि महादेव का नन्दी है किन्तु गजपति से कहा! गजपति! ईश्वर का ध्यान करो। देखो वृक्ष के नीचे कुछ जान पड़ता है?

"अरे बापरे" कह कर दिग्गज चम्पत हुए और लंबे २ डगों से झट पट आध कोस निकल गये।

बिमला तो उस के स्वभाव को भली भांति जानती थी कि वह दुर्ग के द्वार पर जा कर सास लगा अतएव कुछ चिन्ता न कर मन्दिर की ओर चली।

चारो ओर देखती थी किन्तु राजपुत्र का कोई चिन्ह नहीं दीखता था और मन में कहने लगी कि उन्होंने तो कोई संकेत भी नहीं बताया था अब उन को कहां ढूढूं। यदि न मिले तो व्यर्थ क्लेश हुआ। ब्राह्मण को भी मैंने भगा दिया अब अकेली फिर कर कैसे जाउंगी। शैलेश्वर! तूही रक्षक है।

बट के पेड़ के नीचे से मन्दिर में जाने की राह थी। जब बिमला वहां पहुंची और सांड न देख पड़ा तो घबराई और स्वेत बस्तु भी जो दूर से झलकती थी गुप्त हो गई। मैदान में भी तो सांड़ कहीं नहीं देख पड़ा था!

अन्त को वृक्ष के पीछे एक मनुष्य का बस्त्र दृष्टिगोचर हुआ। बिमला मन में डरी और मन्दिर की ओर चली और सीढ़ी पर चढ़ के केवाड़ को ढकेला किंतु वह बन्द था। भीतर से शब्द हुआ "कौन!" विमला ने साहस पूर्वक धीर धारण कर के कहा मैं एक स्त्री हूं, यहां विश्राम करने को आई हूं।

केवाड़ खुल गया, देखा कि मन्दिर में दिया जलता है और सामने ढाल तलवार बांधे एक मनुष्य खड़ा है।

कुमार जगतसिंह पहिले से आकर बिमला की राह देख रहे थे।

चौदहवां परिच्छेद : शैलेश्वर साक्षात

बिमला मन्दिर के भीतर जाकर पहिले मार्गश्रम निवारणार्थ बैठ गई और फिर शैलेश्वर को सिर नवाय राजकुमार को प्रणाम कर हंस कर बोली "शैलेश्वर की कृपा से आज आप से फिर भेंट हुई, मैं तो अकेली इस मैदान में आते बहुत डरती थी किंतु अब आप के दर्शन से सब भय दूर हुआ।

युवराज ने पूछा सब कुशल तो है!

बिमला तो मन की बात जानती ही थी तिलोत्तमा प्रति राजकुमार के प्रेम की प्रतिज्ञा करने के निमित्त बोली "मैं आज इसी निमित्त शैलेश्वर की पूजा करने आई हूं कि जिसमें मंगल हो किंतु मुझको जान पड़ता है कि आपने अपनी ही पूजा से महादेव को छकित कर रक्खा है अब वे मेरी पूजा क्यों लेंगे।" आज्ञा हो तो मैं फिर जाऊं।

युव०| जाओ—परन्तु अकेली जाना अच्छा नहीं, चलो मैं तुमको पहुंचाय आऊं।

बिमला ने देखा कि युवराज केवल अस्त्र शस्त्र नहीं बरन सर्व विद्या मैं दक्ष है। बोली अकेली जाने में क्या हानि है?

यु०| मार्ग में अनेक प्रकार के भय हैं।

बि०| तब मैं महाराज मानसिंह के निकट जाऊंगी।

राजपुत्र ने पूछा क्यों?

बि०| क्यों? उनके पास जाकर फ़रियाद करूंगी कि जो सेनापति आपने नियत किया है उस्से हमलोगों का मार्ग निष्कण्टक नहीं हो सकता, उससे शत्रु का नाश नही हो सक्ता।

राजपुत्र ने हंसकर उत्तर दिया, सेनापति न कहेगा कि शत्रु का तो देवता भी कुछ नहीं कर सकते मनुष्य कौन खेत की मूली है। देखो महादेव जी ने तो कामदेव का नाश कर दिया परन्तु आज पन्द्रह दिन हुए उसने इसी मन्दिर में बड़ा उपद्रव मचाया था। इतना बड़ा बीर है!

बिमला मुसकिरा कर बोली, उसने क्या उपद्रव किया था

युवराज ने कहा कि उसने उसी सेनापति पर आक्रमण किया था।

बिमला बोली कि महाराज यह बात असम्भव है।

युव०| इसके दो साक्षी है।

बि०| ऐसा कौन साक्षी है?

युव०| सुन्दरी-राजकुमार की बात पूरी नहीं होने पाई कि बिमला बोल उठी महाराज! यह योग्य विशेषण नहीं है, हमको बिमला कहा कीजिए।

राजकुमार ने कहा "क्या बिमला साक्षी न देगी?"

बि०| बिमला ऐसी साक्षी न देगी।

युव०| सच है, जो पन्द्रह दिन में भूलती है वह क्या साक्षी देगी।

बि०| महाराज मैं क्या भूल गई बताओ तो सही?

युव०| अपनी सखी का पता।

बिमला शंका परित्याग धीर मन होकर बोली "राजकुमार पता बताने में संकोच होता है और यदि बताने पर आप को दुःख होय तो। राजकुमार ने चिंता करके कहा, बिमला सच पता बताने में क्या मेरी कुछ हानि है?

बिमला ने कहा हां हानि है।

राजपुत्र फिर चिन्ता करने लगे। थोड़ी देर बाद बोले जो हो अब तो तुम हमारे चित्त को उद्वेगरहित करो, अब मन नहीं मानता। तुम जो शंका करती हो यदि वह सत्य हो तो क्या इस दुःख से कुछ विशेष क्लेश कर होगा। मैं केवल कुतूहल बस तुमसे मिलने को नहीं आया हूं क्योंकि यह समय कुतूहल का नहीं है, पन्द्रह दिन हुए मैंने घोड़े की पीठ के अतिरिक्त शय्या का दर्शणमात्र भी नहीं किया है, इस समय में व्याकुलता का मिस कर के आया हूं।

बिमला इन बातों को सुनकर बोली युवराज आप राजनीति में बिज्ञ हो बिवेचना करके देखो कि इस दुष्कर संग्राम के समय आप को काम क्रीड़ा करना उचित है! मैं दोनों के हित को कहती हूं आप मेरी सखी का ध्यान छोड़ दीजिए और अपने नियत कर्म्म में बद्धपरिकर होकर नियुक्त हूजिये।

युवराज खिसियायकर हंसने लगे 'प्यारी मैं उसको कैसे भूल जाऊं! उस प्राणेश्वेरी का चित्र मेरे पाहनहृदय पर ऐसा खचित होगया है कि बिधना भी उस को मिटा नहीं सकते और युद्ध की बात जो तूने कही सो तो मैं पहिले कह चुका कि जिस दिन से मैं तेरी सखी को देखकर गया हूं उस दिन से रणक्षेत्र में चलते फिरते जहां रहते हैं सर्वदा वही चन्द्र बदन आखों के सन्मुख रहता है बरन उसी के भ्रम से शत्रु के सिरच्छेदन में भी हाथ रुक जाया करता है। हे बिमला सच कह वह रूपराशि कब देख पड़ैगी। इतना सुन बिमला बोल उठी वह मनमोहनी वीरेन्द्रसिंह की पुत्री है और मान्दारणगढ़ ग्राम में रहती है।

जगतसिंह को सांप सा डस गया और कृपाण के ऊपर टुड्डी टेक कर किञ्चित काल पर्य्यन्त सोचते रहे फिर ठंडी सांस ले कर बोले बिमला तू सत्य कहती थी। तिलोत्तमा मुझको नहीं मिल सकती, अब मैं रणक्षेत्र में जाता हूं और वहीं कट कर मर जाऊंगा।

उनकी यह अवस्था देख विमला ने कहा युवराज आप आशाभग्न न हों कहा है कि "जेहिकर जेहिपर सत्य सनेहू सो तेहि मिलै न कछु सन्देहू।" आज नहीं तो कल ईश्वर अवश्य दया प्रकाश करेगा, संसार आशा ही के स्तंभ पर स्थित है, हथेली पर सरसों नहीं जमती आप मेरी बात सुनिए और दुःख न कीजिए ईश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। वह राई से पर्वत और पर्वत से राई बनाता है।

राजपुत्र ने आशा ग्रहण किया और कहा जो हो, अबतो मुझको कुछ भला बुरा नहीं सूझता। जो होना है सो तो हो होगा क्या ब्रह्मा का लिखा कोई मिटा सकता है? अब तो मैं इस शैलेश्वर के सन्मुख संकल्प करता हूं कि तिलोत्तमा के अतिरिक्त और कहीं किसी का पाणि ग्रहण न करूंगा। तुमसे मैं यही प्रार्थना करता हूं कि तुम जाकर यह सब बातें मेरी अपनी सखी से कह देना और यह भी कहना कि मैं एक बेर दर्शन की लालसा रखता हूं।

बिमला बहुत प्रसन्न हुई और बोली कि आपकी बात तो मैं उस्से कह दूंगी पर उस का उत्तर आप के पास कैसे पहुंचेगा!

युवराज ने कहा मैं कह तो नहीं सकता क्योंकि तुमको क्लेश बहुत होता है पर यदि तुम एक बेर और इस मन्दिर में आओ तो मैं तुम्हारा चिरवाधित हूंगा। मैं , भी कभी तुम्हारे काम आऊंगा।

बिमला बोली युवराज! मैं तो आपकी चेरी हूं किंतु अकेले इस मार्ग में भय लगता है, आज्ञा भंग करना उचित न समझ मैं आज यहां आई हूं फिर तो यहां का आना बड़ा कठिन है।

राजपुत्र चिन्ता करने लगे और फिर बोले अच्छा यदि कुछ हानि न हो तो मैं तुम्हारे संग चलूं और बाहर कहीं खड़ा रहूंगा। तुम मुझसे संदेसा कह जाना।

बिमला ने आनन्दमग्न होकर कहा "चलिए" ओर दोनों मन्दिर में से निकलने चाहते थे कि मनुष्य के चलने की आहट कान में पड़ी राजपुत्र ने विस्मित हो कर बिमला से पूछा क्या तुम्हारे संग और भी कोई है!

बिमला ने कहा नहीं तो।

रा०| फिर चलने का शब्द कैसा सुनाई देता है, मुझे डर मालूम होता है कि किसी ने हमारी बात सुन तो नहीं ली, और बाहर आकर मन्दिर के चारों ओर टहल कर देखा तो कोई दृष्टि न पड़ा।

पन्द्रहवां परिच्छेद : बीर पञ्चमी

दोनों शैलेश्वर को प्रणाम कर डरते हुए मान्दारणगढ़ की ओर चले, किश्चित काल पर्य्यन्त तो चुप रहे, फिर राजकुमार ने कहा बिमला मुझको एक सन्देह है कि तू परिचारिका नहीं है।

बिमला मुस्किरा कर कहने लगी "यह संदेह आपको क्यों हुआ?"

रा०| बीरेन्द्रसिंह की कन्या का विवाह राजा के पुत्र से न हो, इसमें कोई विशेष कारण है और तू यदि परिचारिका होती तो यह बात कदापि तुझको न मालूम होती।

विमला ने ठंढी सांस ली और कातरस्वर से बोली "आपका संदेह यथार्थ है मैं परिचारिका नहीं हूं, अदिष्ट बस यही काम करती हूं।"

राजकुमार ने देखा कि बिमला का मन रोआसा हो आया अतएव फिर उस विषय सम्बन्धी और कुछ न कहा। किन्तु विमला ने स्वतः कहा "युवराज मैं आपको बताऊंगी पर इस समय नहीं, देखो पीछे किसी के आने का शब्द सुनाई देता है, ऐसा जान पड़ता है कि दो मनुष्य परस्पर फुसकुसाय रहे हैं।"

राजकुमार ने कहा "मुझको भी सन्देह होता है, ठहरो मैं देख आऊं" और पीछे हटकर इधर उधर मार्ग के पार्श्वों में देखा तो मनुष्य का कहीं नहीं चिन्ह देख पड़ा। फिर आकर बिमला से बोले "मुझको शंका है कि कोई हमारे पीछे आता है, धीरे २ बात करो"। और दोनों धीरे २ बात करते हुए चले और थोड़ी देर में मान्दारणगढ़ में पंहुच कर दुर्ग के सामने आन खड़े हुए। राजपुत्र ने पूछा, "तू इस समय दुर्ग में कैसे जायगी? इतनी रात को फाटक तो बन्द होगा।"

बिमला ने कहा, "आप चिन्ता न करें मैं इसका प्रबंन्ध करके घर से चली थी।"

राजपुत्र ने हंसकर कहा, "क्या कोई चोर द्वार है क्या?" बिमला ने भी हंसकर कहा, "जहां चोर रहते हैं वही सिंह भी रहते हैं।"

फिर राजपुत्र ने कहा "बिमला, अब मेरे जाने का कुछ प्रयोजन नहीं है, मैं इसी अमराई में खड़ा हूं तू जाकर मेरी ओर से अपनी सखी से कह कि पन्द्रह दिन में अथवा महीने भर में अथवा वर्ष भर में एक बेर मुझको और दर्शन दे।"

बिमला ने कहा "यहां भी तो लोग रहते हैं आप मेरे संग चले आइए"।

रा०| तू कितनी दूर जायगी!

बि०| दुर्ग में चलिये।

राजकुमार ने सोच कर कहा 'बिमला यह तो उचित नहीं है। दुर्ग के स्वामी की आज्ञा है नहीं, मैं भीतर कैसे चलूं?'

बिमला ने कहा "कुछ चिन्ता नहीं?"

राजकुमार गर्वपूर्वक बोले 'राजपुत्रों को कहीं जाने मे चिन्ता नहीं है परन्तु देखो राजा के बेटे को बिना दुर्गेश की आज्ञा चोर की भांति भीतर जाना उचित नहीं है।'

बिमला ने कहा "मैं तो आपको संग ले चलती हूं!"

राजकुमार ने कहा 'तुम यह न जानो कि मैं परिचारिका समझ तुम्हारी बात काटता हूं किन्तु बताओ तो मुझको दुर्ग में ले चल कर क्या करोगी? और तुमको अधिकार कब है?'

'अच्छा तो जब तक मैं अपना अधिकार न बताऊं आप न चलेंगे?

राज०| निस्सन्देह न जाऊंगा।

विमला ने झुक कर राजपुत्र के कान में कुछ कहा।

राजपुत्र ने कहा "अच्छा चलो!"

बिमला राजकुमार को अमराई के भीतर से ले चली। किन्तु चलते समय फिर पत्तों के खड़खड़ाने से मनुष्य की आहट मालूम हुई।

बिमला ने कहा "देखो फिर"।

राज कुमार ने कहा "तुम तनिक और ठहरो मैं देख आऊं" और नंगी तलवार लेकर जिधर शब्द सुन पड़ा था उसी ओर चले पर कुछ देख न पड़ा। एक तो उस अमराई में झाड़ियों की बहुतायत तिस पर अन्धेरी रात दृष्टि भी दूर तक नहीं जाती थी और राजपुत्र ने यह भी समझा कि कौन जानि कोई पशु के चलने से पत्ता खड़का हो, किन्तु सन्देह निवाणार्थ एक वृक्ष के उपर चढ़ गए और चारो ओर देखने लगे तो एक वृक्ष के कुञ्ज में दो मनुष्य बैठे देख पड़े। केवल झलक भर देख पड़ती थी। भली भांति उस वृक्ष को चिन्ह धीरे २ नीचे आए और सब समाचार बिमला से कह सुनाया और बोले-यदि इस समय दो बर्छा होता तो अच्छा था।

बिमला ने पूछा बर्छा क्या होगा!

रा०| तो जान लेता कि यह मनुष्य कौन हैं? लक्षण अच्छा नही दीखता। मैं जानता हूं कि कोई पठान दुष्ट इच्छा करके हमारे पीछे आता है! बिमला ने भी उस घोड़े और पगड़ी का समाचार उनसे कहा और बोली की आप यहीं टहरैं मैं अभी बर्छा लिए आती हूं और झट पट एक खिड़की की राह से अपनी उसी कोठरी में घुसी जहां श्रृंगार कर रही थी और छत के उपर एक कोठरी का ताला खोल भीतर गई और फिर ताला बन्द कर दीया। इसी प्रकार गढ़ के शस्त्रशाला में पहुंची। और पहरे वाले से बोली 'मैं तुमसे एक वस्तु मांगती हूं किसी से कहना न। मुझको दो बर्छा देओ मैं फिर दे जाऊंगी।'

पहरे वाले ने घबरा कर पूछा 'माता तुम बर्छा लेकर क्या करोगी।?'

बिमला ने कहा आज वीरपंचमी का व्रत है जो स्त्री आज व्रत रहती हैं उनको वीर पुत्र उत्पन्न होता है इसी लिये रात्रि को अस्त्र की पूजा करूंंगी किसी से कहना मत। प्रहरी को विस्वास होगया और उसने दो बर्छा निकाल कर दे दिया और बिमला उसी प्रकार दौड़ती हुई कोठरी में से होकर खिड़की के राह बाहर आई किन्तु शीघ्रता के कारण ताला खुला छोड़ आई यही बुरा हुआ। जंगल के समीप एक वृक्ष था उस पर शस्त्रधारी बैठा था उसने बिमला को आते जाते देखा था, ताला खुला देख वह झट भीतर घुसा और दुर्ग में पहुंच गया।

यहां राज पुत्र ने बिमला से बर्छा ले फिर वृक्ष पर आरोहण करके देखा तो एक मनुष्य देख पड़ा दूसरा जाता रहा। एक बर्छा बायें और एक दहिने हाथ में ले ऐसा तिग कर मारा कि वह मनुष्य तुरन्त लुण्ड मुण्ड हो कर नीचे गिर पड़ा।

जगतसिंह शीघ्र वृक्ष के नीचे उत्तर उसी स्थान पर गए और देखा कि एक मुसलमान सैनिक मरा पड़ा है, बर्छा उसके कनपटी में लगा था। जब भली भांति देख लिया कि अब प्राण का लेश कुछ भी न रहा बर्छे को उसके कनपटी से निकाल लिया। उस मुर्दे के बस्त्र में एक पत्र भी पड़ा था। जगतसिंह ने इस पत्र को लेकर चांदनी में पढ़ा उसमें लिखा था।

"कतलू" खां के समस्त आज्ञाकारियों को उचित है कि पत्र वाहक की आशा प्रतिपालन करें।

-कतलू खां।

विमला ने भी सुना परन्तु उसने कुछ समझा नहीं। राजकुमार ने उसके निकट आकर सब बृत्तान्त कह सुनाया! विमला बोली युवराज यदि मैं यह जानती तो कदापि आप के लिए बर्छा न लाती और मैंने बड़ा पाप किया।

युवराज ने कहा बैरी के मारने में कुछ दोष नही वरन धर्म्म होता है।

विमला ने उत्तर दिया योधा लोग ऐसाही करते हैं पर मैं तो जानती हूं। और थोड़ा ठहर कर फिर बोली "राजकुमार अब यहां ठहरना अच्छा नहीं, दुर्ग में चलिए मैं द्वार खुला छोड़ आई हूं।

दोनों जल्दी २ चले। पहिले बिमला भीतर घुसी। राजपुत्र का हृदय और पांव कांपने लगा। प्रेम का पथ ऐसाही है। ऐसा तेजस्वी सेनापति जो शस्त्र धार के संमुख मुंह न मोड़ता इस पथ में पैर रखतेही कांपने लगा। लिखा है। "चढ़ी के मैं न तुरंग पै चलिवो पावक माहिं। प्रेम पंथ ऐसी कठिन सवहीं पावत नाहिं।"

बिमला पूर्वत खिड़की बन्द कर राजपुत्र को अपने में लेगई और बोली कि आप यहीं ठहरें मैं अभी आती हूं और वहां से चली गई।

थोड़ी देर में एक दूसरी कोठरी का द्वार खुला और बिमला राजकुमार को पुकार कर कहने लगी "यहां आकर एक बात सुनिये।

युवराज का हृदय और भी कांपने लगा और उठकर उसके पास गए।

बिमला तुरन्त वहां से टर गई, राजकुमार ने देखा कि कोठरी अति उत्तम और स्वच्छ है और भीतर से सुन्दर सुगन्ध आरही है मणिमय दीप जल रहा है और घूंघट काढ़े एक स्त्री बैठी है।

सोलहवां परिच्छेद : चातुर्य्य

कार्य्य समापन पश्चात बिमला प्रफुल्ल बदन अपनी कोठरी में पलङ्ग पर बैठी है, दीप जल रहा है, आगे मुकुर रक्खा है देखा तो सन्ध्या को श्रृङ्गार करके गई थी सब उसी प्रकार बना है। बाल बिखरे नहीं, आंखों के कज्जल में कुछ भेद नहीं आया, ओंठो पर धड़ी बंधी है और कान कुंडल भी वही असीम शोभा दिखा रहा है। भृङ्गी भाव से तकिया पर लेटी मूर्ति नवयुवतियों को मान हीन करती थी। इस प्रभा को आरसी में निहार बिमला मुस्किराई।

इस अवस्था में बैठी जगतसिंह की राह देख रही थी कि इतने में अमराई में तुरुही का शब्द हुआ और वह चिहुंक उठी। फाटक के अतिरिक्त अमराई इत्यादि कहीं तुरुही नहीं बजती थी, आज इतनी रात को क्या बात है मार्ग का व्यापार सब स्मरण करके मनमें अमङ्गल का अनुभव करने लगीं और खिड़की की राह अमराई की ओर देखने लगी। फिर घबरा कर कोठरी के बाहर निकल आई और आंगन में होकर सोपान द्वारा अटारी पर चढ़ इधर उधर देखने लगी किन्तु पेड़ों की छाया और अंधेरी रात के कारण कुछ देख न पड़ा, मुंडे़रे के नीचे झांक कर देखा परन्तु कहीं कुछ दिखाई न दिया। अमराई में बड़ा अंधेरा था,। उदास होकर नीचे उतरना चाहती थी कि अकस्मात किसी ने आकर उसके पीछे से उसको स्पर्श किया, उलट कर देखा कि शस्त्र बांधे एक मनुष्य खड़ा है उसको देखतेही हाथ पैर ढ़ीले हो गए और पुतली सी खड़ी रह गई।

शस्त्रधारी ने कहा "सावधान" चिल्लाना न, नहीं तो उठा कर छत के नीच फेंक दूंगा।"

इस मनुष्य का पहिरावा पठान सैनिक का सा था परन्तु उत्तमता के कारण बोध होता था कि यह कोई उच्च पद धारी है। उमर उसकी अभी तीस बर्ष से अधिक नहीं थी और श्री उसके मुंह पर दीप्तमान थी पगड़ी में एक हीरा भी लगा था। बीरता तो उसमें जगतसिंह से कम नहीं झलकती थी पर शरीर उतना विशाल नहीं था। कटिबन्द में तेगा और हाथ में नंगी तलवार लिए था।

उसने कहा खबरदार जो चिल्लायगी तो अभी नीचे डाल दूंगा।

परम चतुर विमला किञ्चित काल पर्य्यन्त बिहली थी आगे मृत्यु और पाछे गड़हा प्राण रक्षा का उपाय केवल इश्वराधीन था, धीरे से बोली "तुम कौन हो?"

सैनिक ने उत्तर दिया तू पूछ कर क्या करेगी?

बिमला ने कहा तुम इस दुर्ग में क्या करने आए। चोर को फांसी होती है क्या तुमने नहीं सुना?

सै०| प्यारी मैं चोर नहीं हूं।

बि०| तुम दुर्ग में कैसे आए?

सै०| तुम्हारेही करते आया हूं? जब तू द्वार खोल कर चली गई उसी समय मैं भीतर आया और तेरेही पीछे २ चला आता हूं।

विमला ने अपना माथा ठोंका फिर पूछा तुम हौ कौन?

सै०| मैं पठान हूं।

बि०| यहतो कुछ नहीं हुआ जाति के पठान हो पर हौ कौन?

सै०| मुझको उसमान खां कहते हैं।

वि०| उसमान खां को तो मैं जानती नहीं।

सै०| उसमान खां कतलू खां का सेनापति।

बिमला का शरीर कांपने लगा और मनमें आया कि किसी प्रकार बीरेन्द्रसिंह को समाचार पहुंचता तो अच्छा था, किन्तु कोई उपाय नहीं क्योंकि यह तो आगेही खड़ा है। जब तक यह बात करता है तभी तक अवकाश हैं इतने में यदि कोई प्रहरी आजाय तो बड़ी बात हो और उसको बातों में उलझा लिया।

आप इस दुर्ग से क्या करने आए?

उसमान खां ने उत्तर दिया "हम लोगों ने बीरेन्द्रसिंह के पास दूत भेजा था पर उन्होंने उत्तर दिया कि तुम लोगों से जो करते बने सो करो।"

बिमला ने कहा "जाना, दुर्गेश ने आपलोगों से मित्रता न करके मोगलों से मेल किया है इस लिए तुमलोग दुर्ग को लेने आए हो किन्तु तुमतो अकेले हो"

उस०| अभी तो मैं अकेला हूं।

बिमला ने कहा तभी मारे डरके हमको नहीं छोड़ते हो।

अपमान सूचक बचन सुन कर सम्भव है कि पठान मार्ग छोड़ दे यह सोच कर बिमला ने यह बात कही।

उसमानं ने हंस के कहा प्यारी मैं केवल तेरी कटाक्ष का भय करता हूं किन्तु यह चाहता हूं कि—

बिमला उसके मुंह कि तरफ देखने लगी।

"तुम्हारे पास जो ताली है वह हमको देदो हम तुम्हारे शरीर छूने में संकोच करंते हैं।

बिमला ने मुसकिरा कर कहा "अंगस्पर्श तो दूर रहे अभी तो तुम हमको नीचे डाले देते थे।

सेनापति ने कहा समय पर सब काम करना होता है, अभी कोई काम पड़ै तो देखो।

बिमला ने देखा कि ताली की इसको बड़ी आवश्यकता है यदि ऐसे न दूं तो छीन कर ले लेगा। दूसरा कोई ऐसे अवसर पर यथाशक्य ताली को फेंक देता पर बिमला ने कालयापन की आशा से कहा—

'महाशय! यदि मैं ताली न दूं तो आप क्या करेंगे?" और ताली हाथ में ले ली।

उसमान की दृष्टि उसी ओर थी, उसने कहा छीन कर ले लूंगा।

अच्छा छीनिए कह कर बिमला ने चाहा कि कुंजी अमराई की ओर फेक दें किन्तु सेनापति ने झपट कर उसका हाथ पकड़ चाभी छीन ली।

बिमला इस पर बहुत ख़िसिआई। पहिले तो सेनापति ने चाभी टेंट में किया फिर और २ जो कुछ किया वह विमलाही जानती है और पकड़ कर उसका हाथ पैर भी बांध दिया।

बिमला ने कहा यह क्या।

उसमान ने कहा यह तुम्हारा पुरस्कार है।

बि०| इस कर्म्म का फल तुमको शीघ्र मिलेगा।

सेनापति विमला को उसी अवस्था में छोड़ चला गया और कुछ दूर जाकर फिर लौटा, स्त्रियों की रसना का विश्वास नहीं, और उसका मुंह भी बांध दिया।

पूर्वोक्त राह से उतर कर विमला की कोठरी के नीचे वाली कोठरी में पहुंचा और उसी की भांति चाभी लगाय द्वार खोल उसमान खां ने धीरे २ सीटी बजाई, उसको सुन अमराई में से एक मनुष्य उबेने पैर धीरे २ आया और घर में घुस पड़ा, उसके पीछे एक और आया इसी प्रकार बहुत से पठान भीतर घुस आए। अन्त में जो एक मनुष्य आया उससे उसमान ने कहा-बस और नहीं तुम लोग बाहर रहो जब मैं शब्द करूं तो दुर्ग पर आक्रमण करना, ताज खां से भी कह देना।

वह फिर गया और उसमान इस टुकड़ी को लेकर फिर कोठे पर चढ़े और जहां बिमला बंधी पड़ी थी वहीं पहुँच कर बोले यह स्त्री बड़ी चतुर है इसका कभी विश्वास न करना रहीम शेख तुम्हारा इस पर पहरा है। मुंह इसका खोल दो और यदि भागे अथवा किसी से कुछ कहै या चिल्लाय तो स्त्री के मारने में कुछ दोष नहीं है अच्छाः—बहुत अच्छा, कह कर रहीम वहां ठहर गया।

पठानों की सेना एक छत से दूसरे छत पर होकर दुर्ग के अन्यत्र चल गई।

सत्रहवां परिच्छेद : प्रेमी

जब बिमला ने देखा कि उसमान अन्यत्र चलागया तो मन में कुछ भरोसा हुआ कि ईश्वर चाहे तो अब बन्धन से छूट जाउं और शीघ्र उसका उपाय करने लगी।

कुछ देर बाद उसने प्रहरी से वार्तालाप आरंभ की। यमदूत क्यों न हो। मनमोहनी की बात सुन मन चलायमान होही जाता है। पहिले तो विमला ने नाना प्रकार की बातचीत की फिर उसका नाम धाम आदि गृहस्ती की बातें पूछने लगी और प्रहरी का भी जी लगने लगा। औसर पाय बिमला ने धीरे २ जाल फैलाया। एक तो सुन्दर स्त्री, दूसरे प्रेममय अलाप, तीसरे तिर्छी चितवन, प्रहरी तो घायल हो गया। बिमला ने देखा कि अब यह भली भांति आशक्त हो गया और कहा-तुम डरते क्यों हो शेख़ जी? यहां हमारे समीप आकर बैठो।

कहने की देर थी पठान आम की भांति टपक पड़ा। इधर उधर की बात करते २ जब बिमला के देखा कि अब विष विध गया है और प्रहरी बार-बार उसके मुंह की ओर देख रहा है तो बोली।

शेख़जी क्या नींद आती है? यदि मेरा हाथ खोल दो तो मैं तुमको पंखा झल दूं फिर बांध देना। शेख़जी के माथे में पसीना भी निकल आया था, फिर ऐसे कोमल हाथों की हवा खाने को किसका जी न चाहेगा? प्रहरी ने उसका बन्धन खोल दिया।

बिमला थोड़ी देर तक अपने अंचल के झलती रही फिर बोली, शेख़जी? तुम्हारी स्त्री क्या तुमको चाहती नहीं?

शेख़ जी ने विस्मित होकर कहा, क्यों?

बिमला ने कहा शेख़ जी! कहते लाज लग्ती है किन्तु जो तुम हमारे पति होते तो मैं कभी तुमको लड़ाई पर न जाने देती।

प्रहरी ने फिर ठंढी स्वांस ली।

विमला बोली, "हा! तुम मेरे स्वामी न हुए"! और एक आह ली, इस आघात के सहने की प्रहरी को सामर्थ न थी और वह सरक कर विमला के समीप आगया, बिमला ने भी सरक कर उस को भरोसा दिया।

शेख को उसके अंग स्पर्श से "विहिश्त" में पहुँचने के लिये केवल तीन डण्डे शेष रह गए।

बिमला ने अपना हाथ प्रहरी के हाथ में दे दिया और बोली 'क्यों, शेख जी! जब तुम यहां से चले जाओगे तो क्या तुम को मेरा स्मर्ण रहेगा।

शे०| वाह, तुमको भूल जाऊंगा।

वि०| तो मैं तुम को अपने मन की बात बताऊंगी।

शे०| हां कहो।

वि०| नहीं, नहीं, मैं नहीं कहूंगी, तुम अपने जी में न जाने क्या समझो।

शे०| नहीं, नहीं, कहो, मैं तो तुम्हारा सेवक हूं।

वि०| मेरे मन में आता है कि अपने स्वामी को छोड़ तुम्हारे संग भाग चलूं, ओर तिरछा आखें करके उसके मुंह की ओर देखने लगी।

शेख जी मारे आल्हाद के फूल गए, और बोले चलो न।

वि०| ले चलने कहो तो चलैं।

शेख०| वाह तुमको न ले चलूंगा! प्राण मांगो तो दे दूं।

बि०| अच्छा तो यह लो, और गले से सोने की माला निकाल कर प्रहरी के गले में डाल दिया और बोली "हमारे शास्त्र में माला द्वारा विवाह होता है"।

प्रहरी ने दांत बाय कर कहां, तो हमारी तुम्हारी शादी हो गई! "होही गई" कहके विमला चुप रह कर कुछ सोचने लगी।

प्रहरी ने कहा क्या सोचती हो?

वि०| क्या सोचूं मेरे भाग्य में सुख नहीं है।

शेख०| क्यों?

बि०| तुम लोग यहां जय न पाओगे?

शे०| जय हुआ कि होने को है।

बि०| ऊं-हूं इसमें एक भेद है।

श०| क्या भेद है?

बि०| तुमसे कह दूं।

शे०| हां।

बिमला ने कुछ संकोच प्रकाश किया।

शेख जी ने घबरा कर कहा क्यों, क्या है।

बिमला बोली तुम जानते नहीं, जगतसिंह दस सहस्त्र सेना लिए इसी दुर्ग के समीप ठहरे हैं उनको यह मालूम है कि आज तुमलोग यहां आओगे, अभी कुछ न बोलेंगे, किंतु जब तुम लोग दुर्ग जय कर निश्चिंत हो जाओगे तब तुमको आकर घेर लेंगे।

प्रहरी चुप रह गया।

बि०| यह बात दुर्ग के सब लोग जानते हैं।

प्रहरी ने प्रसन्न होकर कहा सुनो, आज तुमने, बड़ा काम किया, मैं अभी जाकर सेनापति से यह बात कहता हूं, ऐसे समाचार देने से पुरस्कार मिलता है। तुम यहीं बैठी रहो मैं अभी आता हूं।

बिमला ने कहा आओगे तो!

शे०| आऊंगा क्यों नहीं, अभी आया।

बि०| देखो हमको भूल न जाना।

शे०| नहीं, नहीं।

बि०| देखो हमी को खाओ।

कुछ चिन्ता नहीं, कहता हुआ प्रहरी दौड़ा।

उसको आंख से ओट होतेही बिमला भी वहां से भगी।

अठारहवां परिच्छेद : प्रकोष्टाभ्यन्तर

पहिले बिमला के मनमें आई कि चलकर इसका सम्वाद बीरेन्द्रसिंह को देना चाहिए और उसी ओर दौड़ी, आधी दूर नहीं गई थी कि पठानों का अल्ला २ उसके कान में पड़ा

क्या! पठानों ने जय पा ली? बिमला बहुत व्याकुल हुई, थोड़ी देर में बड़ा कोलाहल हुआ और जान पड़ा कि दुर्ग में सब सजग होगए। घबराई हुई बीरेन्द्रसिंह की कोठरी में जाकर देखा तो वहां भी बड़ा कोलाहल मचरहा है, झांक कर देखा कि बीरेन्द्रसिंह कमर बाँधे हाथ में नंगी तलवार लिए रूधिराव शिक्त उन्मत्त की भांति अति घूणित फिरते है, किन्तु निष्फल, एक पठान ने ऐसे ज़ोर से तरवार मारी कि हाथ की कृपाण भूमि में गिर पड़ी और बीरेन्द्रसिंह पकड़े गए।

बिमला देख भाल, भग्नाशा हो वहां से चली। उस समय तिलोत्तमा स्मरण हुई और उसके यहां दौड़ी, पर मार्ग में देखा कि तिलोत्तमा के यहां जाना बड़ा कठिन है। छत पर, सीढ़ी पर, कोठरी दर कोठरी जहां देखा वहीं पठान सेना। दुर्ग जय हो जाने की शंका फिर मनमें न रही।

जब बिमला ने देखा कि तिलोत्तमा के यहां जाने में धोखा है तो वहां से लौटी और मनमें सोचती जाती थी कि अब जगतसिंह और तिलोत्तमा को इसका समाचार कैसे पहुंचाऊं! खड़ी २ एक कोठरी में इसी प्रकार सोच रही थी कि पठान लूटते २ इसी कोठरी के निकट आ पहुंचे वह मारे डरके एक सन्दूक के पीछे छिप रही। सिपाहियों ने आकर उस कोठरी में भी लूट मचा दी। बिमला ने देखा कि यहां भी बचाव नहीं हो सकता क्योंकि लुटेरे जब आकर इस सन्दूक को खोलेंगे तब, मैं पकड़ जाऊंगी। कुछ काल तो जान पर खेल वहीं पड़ी रही और सिर उठा कर देखा कि लुटेरे क्या करते हैं। उनको अपने काम में दशो चित्त से लिप्त देख धीरे २ वहां से निकल कर भागी, किसी ने देख नहीं पाया किन्तु द्वार से बाहर निकलतेही एक सैनिक ने पीछे से आकर उसका हाथ पकड़ लिया। पीछे से फिरकर जो उसने देखा तो रहीम शेख़ ने कहा 'क्यों' अब कहां भाग कर जायगी।

बिमला का मुंह सूख गया, परन्तु बुद्धि प्रकाश द्वारा बोली 'चुपचाप बाहर चले आओ' और उसका हाथ पकड़े पकड़े बाहर खींच ले गई रहीम उसके साथ चला गया। एकान्त में ले जाकर विमला ने उसे कहा छी, छी, छी, ! ऐसा कोई काम करता है? मुझको छोड़ के तुम कहां चले गए? मैंने तुम्हारे लिए कूओं में बांस डलवा दिए।'

एक बेर उस मधुर चितवन को देख फिर रहीम खां का रोष शांत हुआ और बोले, 'मैं जगतसिंह का सम्वाद देने को सेनापति को ढूंढ़ता था, जब वे न मिले तो फिर तेरे पास आया पर तू वहां थी ही नहीं, तेरी ही शोध में फिर रहा हूं।

बिमला ने कहा 'जब अतिकाल हुआ तो मैंने जाना कि तुम हमको भूल गये इसी लिए तुमको खोज रही हूं, अब क्यों विलम्ब करते हो! दूर्ग जय तो हो ही गया, अब भागने का उद्योग करना चाहिये।

रहीम ने कहा 'आज नहीं कल प्रातःकाल क्योंकि, बिना कहे कैसे चल सकता हूं! कल सेनापति से विदा होकर चलूंंगा।'

बिमला ने कहा, अच्छा चलो आज अपना गहना इत्यादि रखदें नहीं तो कोई लुटेरा ले लेगा।

सैनिक ने कहा,'चलो।'

रहीम को साथ लेने का यह अभिप्राय था कि उसके कारण दूसरा कोई सैनिक उस पर हाथ न डाल सकेगा और, यह बात शीघ्र देख पड़ी। थोड़ी दूर जाने के अनन्तर एक दल लुटेरों का मिला, बिमला को देख उन सबों ने कोलाहल किया।

"देखो कैसा पक्षी हाथ लगा।"

रहीम ने कहा, 'अपना २ काम करो' इस ओर कोई दृष्टिपात न करना, और वे सब ठिठक रहे। एक ने कहा, रहीम तू बड़ा भाग्यशाली है नवाबों के मुंह का निवाला छीन लेता है।

रहीम और विमला चले गये।

बिमला रहीम को अपने शयनागार के नीचे वाली कोठरी में ले जाकर बोली, 'यह हमारा नीचे का घर है। जो २ सामग्री इसकी तुमको लेना हो सब ले लो और इसके ऊपर मेरा शयनागार है, मैं अभी अपना अलंकार आदि लेकर आती हूं और उसके आगे एक तालियों का गुच्छा फेंक दिया।

रहीम बहु सामग्री संयुक्त घर देख कर सन्दूक पेटारा आदि खोलने लगा।

बिमला ने बाहर आकर कोठरी की कुंडी चढ़ा दी और शेख जी भीतर बन्द हो गए। सच है लालच विनाश करती है?

वहां से दौड़ कर विमला ऊपर वाले घर में गई, उसके और तिलोत्तमा के घर में केवल थोड़ा ही अन्तर था किन्तु लुटेरे अभी यहां नहीं पहुंचे थे, वरन यह भी सन्देह था कि तिलोत्तमा और जगतसिंह ने यह बात सुनी भी नहीं। कौतुहलवशत: विमला केवाड़ों की झरी से देखने लगी और अन्तस्थित भाव देख कर विस्मित हुई।

"तिलोत्तमा पलंग पर बैठी और जगतसिंह उसके समीप चुप चाप खड़े उसके मुंह की प्रभा देख रहे थे। तिलोत्तमा रोती थी और जगतसिंह आंसू पोछ रहे थे।"

विमला ने मन में कहा "जान पड़ता है यह विरह रोदन है?"

उन्नीसवां परिच्छेद : खड़ग प्रहार

विमला को देखकर जगतसिंह ने पूछा कौन कोलाहल करता है?'

बिमला ने कहा, 'पठानों ने दुर्ग ले लिया शीघ्र उपाय कीजिये, एक पल में शत्रु आप के सिर पर आ जायेंगे।

जगतसिंह ने कुछ चिन्ता कर के कहा 'बीरेन्द्रसिंह क्या करते हैं?'

बिमला बोली, 'वे तो पकड़ गए'

तिलोत्तमा चिल्लाने लगी और मुर्छित हो पलंग पर गिर पड़ी।

जगतसिंह ने मुंह सुखाकर कहा, देखो २ तिलोत्तमा को देखो।'

बिमला ने झट 'गुलाबपास' उठा लिया और तिलोतमा के मुख पर, कण्ठ पर और शिर पर भली भांति छिड़का और पंखा झलने लगी?

शत्रु और समीप आगये और बिमला रोने लगी और बोली 'देखो' यह आगये। राजपुत्र अब क्या होगा?'

जगतसिंह की आंखैं लाल होगई और आग बरसने लगी। हा! क्या हमको इस समय अन्तः पुर में स्त्रियों के साथही मरना था।

बिमला का भी मन मटक गया, राजपुत्र से कहने लगी 'अब क्या होगा युवराज? क्या यहां तिलोत्तमा के साथ मरना होगा?' और फिर रोने लगी।

राजपुत्र भी मनमें बहुत पिड़ित हुए और बोले 'मैं तिलोत्तमा को इस दशा में छोड़ कर कहां जाऊं? मैं भी तेरी सखी के संग प्राणत्याग करूंगा।

इसी समय एक भारी शब्द हुआ और अस्त्र की झनकार भी कान में पड़ी बिमला चिल्लाने लगी।

'हा तिलोत्तमा! हा! तेरी क्या दशा हुइ? अब तुझको कैसे बचाऊं?'

तिलोत्तमा ने आंखें खोली, बिमला कहने लगी 'तिलोत्तमा को चेत हुआ। राजकुमार! ए राजकुमार? इससमय तिलोत्तमा को बचाओ।

राजकुमार ने कहा 'इस घर में रहकर कौन रक्षा कर सकता है। यह सम्भव होता तो मैं तिलोत्तमा को बाहर निकाल ले जाता। परन्तु तिलोत्तमा तो चल भी नही सकती। देखो बिमला, पठान सीढ़ी पर चढ़े आते हैं। पहिले मैं बलि होता हूं किन्तु तब भी तुम्हारी रक्षा नहीं होती।'

बिमला ने तुरन्त तिलोत्तमा को गोद में ले लिया और बोली, 'चलिये मैं तिलोत्तमा को ले चलूंगी।'

दोनों कमरे के बाहर आए।

जगतसिंह ने कहा 'हमारे पीछे चली आओ

पठानों ने 'माल' देख वाह वाह पुकारा और यम के दूतों की भांति कूदने लगे। राजपुत्र ने तरवार म्यान से निकाल ली और हन के एक के सिर पर मारी कि पार होगई इतने में एक पठान ने राजपुत्र के गर्दन पर जड़ी, पर ओछी लगी। उसका हाथ पकड़ युवराज ने एक ऐसी दी कि वह लम्बा हो गया। शेष दो पठान जो थे उनने तीक कर जगतसिंह के मस्तक पर एक तरवार मारी परन्तु राजपूत ने जो लपक कर एक ऐसी कमर में हनी कि एक तो दो टुक हो गया दूसरे को तरवार कन्धे में लगी। रुधिर देख कर बीर को दूना रोष हुआ, जब तक पठान उबाता था जगतसिंह ने दोनों हाथों से कृपाण पकड़ ऐसे धड़ाके से मारा कि शरीर के आरपार होगई। पर लिखा है कि "मरतिहु बार कटक संहारा।' शक्ति के प्रभाव में राजकुमार भी गिर पड़े और मृतक के कमर की छुरी पेट में धंस गई, पर उसका कुछ ध्यान न कर राजकुमार ने एक और तलवार उसके सिर में मारी, इतने में बहुत से सिपाही अल्ला अल्ला करते आन पहुंचे राजपुत्र ने देखा कि अब लड़ना केवल प्राण देना है। शरीर से रुधिर बह रहा था और कुछ सुस्ती भी आगई थी।

तिलोत्तमा को अभीतक चेत नही हुआ था, विमला उसको गोदी में लिये इधर उधर कूदती थी और उसके भी वस्त्र में रुधिर लगाथा।

राजकुमार उसके उपर भार देकर स्वास लेरहे थे कि एक पठान ने कहा "अरे कायर! अस्त्र छोड़ेगा कि नहीं? तेरा प्राण लूंगा।"

अप्रतिष्ठित शब्द सुन कर युवराज को और रोष हुआ ओर कूद कर उसके ऊपर चढ़ बैठे और तरवार उठाय कर बोले, "दुष्ट? देख राजपूत ऐसे प्राण त्याग करते हैं।"

राजपूत्र ने जब देखा कि अकेला युद्ध करना उचित नहीं इस से तो मर जाना अच्छा है तो शत्रुदल में घुस कर दोनों हाथों से तरवार भांजने लगे. शरीर का ध्यान कुछ भी न रहा, एक दो तीन पठान हर हाथ में गिरते थे और कितने घायल भी हुए। वे भी चारों ओर अस्त्र की वर्षा करते थे, यहां तक कि राजकुमार की शक्ति हीन हो चली और घुमटा आने लगा, आंखों के सामने अंधेरा होने लगा और करणेन्द्रिय भी जवाब देने लगी। इतने में एक शब्द हुआ कि, 'राजकुमार को मारना मत घेर के पकड़ लो।'

रुधिर का प्रवाह होते २ युवराज मूर्छा खाकर भूमि पर गिर पड़े और तरवार भी हाथ से छूट गई। उनको पगड़ी में हीरा लगा था उसके लूटने के लिए बीसिओं पठान दौड़े किन्तु उसमान खां ने मना करके कहा "देखो राजपुत्र को छूना नहीं।" इसपर सब हट गए और उसमान खां और एक सैनिक दोनों ने मिलकर राजकुमार को उठा कर एक चारपाई पर डाल दिया। हा! जिस पलंग पर राजकुमार ने तिलोत्तमा के साथ सोने की आशा की थी वह पलंग मृतसय्या हुई। परमेश्वर की महिमा अपार है।

उनको पलंग पर सोलाय उसमान खां ने पूछा, स्त्री दोनों क्या हुई? उसने विमला और तिलोत्तमा को नहीं देख पाया वह दोनों तो चारपाई के नीचे छिपी थीं।

स्त्री दोनों क्या हुई, उनको ढूंढ़ो परिचारिका बड़ी चतुर है यदि निकल गई तो अच्छा न होगा। किन्तु बीरेन्द्र की कन्या को कुछ क्लेश न होने पावे। इस आज्ञा को पाय सिपाही चारों ओर ढूंढने लगे दो एक उस कोठरी में दीपक लेकर देखने लगे, जो चारपाई के नीचे दृष्टि पड़ी देखा तो दोनों पड़ी थीं, मारे आह्लाद के चिल्ला उठे, 'अरे ये तो यहां है।'

उसमान ने व्यग्र होकर कहा, 'कहां?'

उत्तर में फिर 'हे' शब्द सुनकर उसमान का चित्त प्रसन्न होगया और बोले, 'अच्छा तुम लोग बाहर निकल आओ कुछ चिन्ता नहीं।'

बिमला तिलोत्तमा को लेकर बाहर आकर बैठी इतने में उसको कुछ चेत हुआ और उठकर बैठी और धीरे २ विमला से पूछने लगी 'यहां कहां आए?’

बिमला में उसके कान में कहा 'कुछ चिंता नहीं तुम घुंंघट काढ़ कर बैठो।'

जो मनुष्य स्त्रियों को बाहर लाया था उसने सामने आकर कहा, जनाब! गुलाम इसको ढूंढ कर लाया है।'

उसमान ने कहा, 'तू पूरस्कार मांगता है? तेरा नाम क्या है?' उसने कहा, 'गुलाम का नाम करीमबख्श है परन्तु इस नाम से कोई चीन्हता नहीं। मैं पहिले मोग़ल की सेना में था और वहां लोग मुझको मोगल सेनापति कहते थे वही नाम अब भी है।'

बिमला चिहूंक उठी उसको अभिराम स्वामी का ध्यान आगया।

उसमान ने कहा,'अच्छा स्मर्ण रक्खूंगा'॥

॥ इति प्रथम खंड ॥

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