दुर्गेशनन्दिनी (बंगला उपन्यास) : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय - अनुवादक : गदाधर सिंह

Durgeshnandini (Bangla Novel) : Bankim Chandra Chattopadhyay/Chatterjee

प्रथम खण्ड

प्रथम परिच्छेद : देवमन्दिर

बङ्गदेशीय सम्वत् ९९८ के ग्रीष्मकाल के अन्त में एक दिन एक पुरुष घोड़े पर चढ़ा विष्णुपुर से जहानाबाद की राह पर अकेला जाता था। सायंकाल समीप जान उसने घोड़े को शीघ्र हांका क्योंकि आगे एक बड़ा मैदान था यदि दैव संयोग से अंधेरा होजाय और पानी बरसने लगे तो यहां कोई ठहरने का अस्थान न मिलेगा। परन्तु संध्या हो गई और बादल भी घिर आया और रात होते २ ऐसा अँधेरा छा गया कि घोड़े का चलाना कठिन होगया केवल कौंधे के प्रकाश से कुछ कुछ दिखाई देता था और वह उसी के सहारे से चलता था। थोड़े समय के अनन्तर एक बड़ी आंधी आई और बादल गरजने लगा और साथही पानी भी बरसने लगा और पथिक को मार्ग ज्ञान कुछ भी न रहा। पथिक ने घोड़े की रास छोड़ दी और वह अपनी इच्छानुसार चलने लगा। कुछ दूर जाकर घोड़े ने ठोकर ली, इतने में बिजली भी चमकी और आगे एक भारी श्वेत वस्तु देख पड़ी। उसको दूना अटारी समझ वह पुरुष घोड़े से उतर पड़ा और जाना कि घोड़े ने इसी पत्थर की सीढ़ी में ठोकर खाई थी। समीपवर्ती गृह का अनुभव कर उसने घोड़े को स्वेच्छा विहार करने को छोड़ दिया और आप धीरे २ सीढ़ी टटोल २ चढ़ने लगा और विद्युत प्रकाश द्वारा जान लिया कि जिसको अटारी समझा था वह वास्तविक देवमन्दिर है परन्तु कर स्पर्श द्वारा जाना कि द्वार भीतर से बन्द है। मन में चिन्ता करने लगे कि इस जन्य शून्य स्थान में इस समय भीतर से मन्दिर को किसने बन्द किया और वृष्टि प्रहार से घबरा कर केवाड़ा भड़भड़ाने लगे। जब कपाट न खुला तो चाहा कि पदाघात करें परन्तु देवमन्दिर की अप्रतिष्ठा समझ रुक गए तथापि हाथही से ऐसे ऐसे धक्के लगाये कि केवाड़ा खुल गया। ज्योंही मन्दिर में घुसे कि भीतर चिल्लाने का शब्द सुनाई दिया और एकाएक वायु प्रवेश से भीतर का दीप भी ठंडा होगया परन्तु यह न मालूम हुआ कि मन्दिर में कौन है, मनुष्य है, कोई मूर्ति है या क्या है। निर्भय युवा ने मुस्करा कर पहिले उस मंदिर के अदृश्य देवता को प्रणाम किया और फिर बोला कि “मन्दिर में कौन है?” परन्तु किसी ने उत्तर न दिया केवल आभूषण की झनझनाहट का शब्द कान में पड़ा, टूटे द्वार से वायु प्रवेश के रोकने के निमित्त दोनों कपाटों को भली भांति लगा कर पथिक ने फिर कहा “जो कोई मन्दिर में हो सुनो, मैं शस्त्र बांधे द्वार पर विश्राम करता हूं यदि कोई विघ्न डालेगा फल भोगेगा यदि स्त्री हो तो सुख से विश्राम करे राजपूत के हाथ में जब तक तलवार है कोई तुम्हारा रोआं टेढ़ा नहीं कर सकता।”

मन्दिर में से स्त्री स्वर में यह शब्द सुनाई दिया कि “आप कौन हैं?”

पथिक ने घबड़ा कर यह उत्तर दिया, जान पड़ता है कि यह शब्द किसी सुन्दरी का है। “तुम मुझको पूछकर क्या करोगी?”

फिर शब्द हुआ कि “मैं डरती हूं।”

युवा ने कहा “मैं कोई हूं मुझको कोई उचित नहीं है कि मैं तुमको अपना पता बताऊं परन्तु मेरे रहते स्त्रियों को किसी प्रकार का भय नहीं है।”

उस स्त्री ने कहा “तुम्हारी बात सुनकर हमको बड़ा साहस हुआ, नहीं तो हम मरी जाती थीं, वरन अभी तक हमारी सखी घबराई हुई है। हम सांझ को इस शैलेश्वर की पूजा को आई थी जब पानी बरसने लगा हमारे कहार और दास दासी हमको त्याग कर नहीं मालूम कहां चले गये।”

युवा ने उनको सन्तोष दिया और कहा कि “तुम चिन्ता मत करो अभी विश्राम करो कल प्रातःकाल तुम्हारे घर तुम्हें पहुंचा दूंगा।” स्त्री ने यह सुन कर कहा “शैलेश्वर तुम्हारा भला करें।”

आधी रात को आंधी पानी बन्द हो गया तब युवा ने कहा “तुम थोड़ी देर धीर धारण पूर्वक यहां ठहरो मैं नि-कट ग्राम से एक दिया जला लाऊं।”

यह बात सुन कर उस सुन्दरी ने कहा, महाशय ग्राम दूर है इस मन्दिर का रक्षक समीपही रहता है, चांदनी निकल आई है, बाहर से उसकी कुटी देख पड़ेगी वह अकेला इस उजाड़ में रहता है इस कारण अग्नि की सामग्री सर्वदा उसके गृह में रहती है।

तदनुसार युवा ने बाहर आकर रक्षक के गृह को देखा और द्वार पर जाकर उसको जगाया। रक्षक ने भय के मारे पहिले द्वार नहीं खोला परन्तु भीतर से देखने लगा कि कौन है, बहुत देखा पर पता नहीं लगा परन्तु मुद्रा प्राप्ति का अनुभव कर बड़े कष्ट से उठा और बहुत ऊंच नीच सोच विचार द्वार खोल कर दीप जला दिया।

पथिक ने दीपक प्रकाश द्वारा देखा कि मन्दिर में सङ्गमरमर की एक शिव मूर्ति स्थापित है और उस मूर्तिके पिछाड़ी दो कामिनी खड़ी हैं। एक जो उसमें से नवीन थी दीपक देखतेही सिमट कर सिर झुका के बैठ गई परन्तु उसकी खुली हुई कलाई में मणिमय माड़वाड़ी चूड़ी और विचित्र कारचोबी का परिधान और सर्वोपरि हेममय आ-भरण देख कर ज्ञात हुआ कि यह नीच जाति की स्त्री नहीं है। दूसरी स्त्री के परिच्छेद से मालूम हुआ कि यह उस नवीन की दासी है और वयस भी इसकी अनुमान पैंतीस वर्ष की थी, सम्भाषण समय युवा ने यह भी देखा कि उन दोनों में से किसी का पहिनावा इस देश के समान नहीं है परन्तु आर्य्यदेश वासी स्त्रियों की भांति है। उसने मन्दिर में उचित स्थान पर दीपक को धर दिया और स्त्रियों की ओर मुंह करके खड़ा हुआ। दिये की जोति उनपर पड़ने से स्त्रियों ने जाना कि उनकी उम्र २५ वर्ष से कुछ अधिक होगी और शरीर इतना स्थूल था जैसे देव, और आभा उसकी हेम को भी लज्जित करती थी और उसपर कवचादि राजपूत जाति के वस्त्राभरण और भी शोभा देते थे, कमर में रेशमी परतला पड़ा था और उसमें तलवार लटकती थी और हाथ में एक लंबा बर्छा था, प्रशस्त ललाट में हीरा चमक रहा था और कान में मणि कुण्डल पड़ा था ओर वक्षस्थल में हीरे की माला चित्त को मोहे लेती थी।

परस्पर के समारम्भ से दोनों ओर परिचय निमित्त विशेष व्यग्रता थी किन्तु कोई अग्रसर नहीं हुआ।

पहिले युवा ने अपने को उद्वेग रहित करने की इच्छा कर बड़ी स्त्री से कहा “जान पड़ता है तुम किसी बड़े घर की स्त्री हो परन्तु पता पूछने में संकोच मालूम होता है किन्तु हमारे पता न बताने का जो कारण है वही तुम्हारा भी हेतु नहीं होसक्ता अतएव दृढ़ता पूर्वक जिज्ञासा करता हूं।

स्त्री ने कहा, महाशय हमलोगों को पहिले अपना पता बताना किसी प्रकार योग्य नहीं है।

युवा ने कहा कि पता बतलाने का पहिले और पीछे क्या?

फिर उसने उत्तर दिया कि स्त्रियों का पताही क्या? जिसका कोई अल्ल नहीं वह अपना पता क्या बतावेंगी? जो सर्वदा पर्दे में रहा करती हैं वह किस प्रकार अपने को प्रख्यात करें? जिस दिन से विधाता ने स्त्रियों को पति के नाम लेने को मना किया उसी दिन से उनको बेपते कर दिया।

युवा ने इसका कुछ उत्तर न दिया क्योंकि उनका मन दुर्चित्त था।

नवीना स्त्री अपने घूंघट को क्रमशः उठाकर सहचरी के पीछे तिरछी चितवन से युवा को देख रही थी। वार्तालाप करते २ पथिक की भी दृष्टि उसपर पड़ी और दोनों की चार आंखें हुंई और परस्पर अलौकिक आनन्दप्राप्ति पूर्वक दोनों के नेत्र ऐसे लड़े कि पलकों को भी अपना सहज स्वभाव भूल गया और ऊपर ही टँग रहीं परन्तु लज्जा ने झट आकर स्त्री के नैन कपाट को बन्द कर दिया और उसने अपना सिर झुका लिया। जब सहचरी ने अपने वाक्य का उत्तर न पाया तो पथिक के मुख की और देखने लगी और उनके गुप्त व्यवहार को समझ कर उस नवीना से बोली, “क्योंं ! महादेव के मन्दिरही में तूने प्रेमपाश फैलाया ?”

नवीना ने सहचरी से उसकी उङ्गली दबाकर धीरे से कहा ‘चल बक नहीं।’ चतुर सहचरी ने अपने मन में अनुमान किया कि इन लक्षणों से ज्ञात होता है कि आज यह लड़की इस परम सुन्दर युवा पुरुष को देख मदन बाणबिद्ध हुई और चाहे कुछ न हो पर कुछ दिन पर्य्यन्त इसको शोच अवश्य होगा और सब सुख क्लेशकर जान पड़ेगा अतएव इसका उपाय अभी से करना उचित है। पर अब क्या करूं! यदि किसी प्रकार से इस पुरुष को यहां से टालूं तो अच्छा हो। यह सोच बोली कि महाशय स्त्री की जाति ऐसी है कि उसको वायु से भी कलंक लगता है और आज इस आंधी से बचना अति कठिन है, अब पानी बन्द हो गया है धीरे धीरे घर चलना चाहिये।

युवा ने उत्तर दिया कि यदि अकेली इतनी रात को तुम पैदल जाओगी तो अच्छा नहीं, चलो मैं तुमको पहुंचा आऊं, अब आकाश निर्म्मल होगया, मैं अब तक अपने स्थान को चला जाता परन्तु मुझको तुम्हारी रूपराशि सखी का अकेली जाना अच्छा नहीं दिखता, इस कारण अभी तक यहां ठहरा हूँ। कामिनी ने कहा कि आपने हमारे ऊपर बड़ी दया की और कृतघ्नता के भय से हमलोग और कुछ आप से नहीं कह सकते। महाशय स्त्रियों की दुर्दशा मैं आपके सामने और क्या कहूं हमलोग तो स्वभाविक अविश्वासपात्र हैं यदि आप चलकर हमको पहुंचा आइयेगा तो यह हमारा सौभाग्य है किन्तु जब हमारा स्वामी इस कन्या का पिता पूछेगा कि तुम इतनी रात को किसके सङ्ग आईं तो यह क्या उत्तर देगी।

थोड़ी देर सोच कर युवा ने कहा “कह देना कि हम महाराज मानसिंह के पुत्र जगतसिंह के साथ आईं हैं।”

इन शब्दों को सुन कर उन स्त्रियों को बिज्जुपात के घात समान चोट लगी और दोनों डर कर खड़ी हो गईं। नवीना तो शिव जी की प्रतिमा के पिछाड़ी बैठ गई किन्तु दूसरी स्त्री ने गले में कपड़ा डाल कर दण्डवत किया और हाथ जोड़ कर बोली “युवराज! हमने बिना जाने बड़ा अपराध किया, हमारी अज्ञता को आप क्षमा करें।”

युवराज ने हँसकर कहा यह अपराध क्षमा के योग्य नहीं है यदि अपना पता दो तो क्षमा करूं नहीं तो अवश्य दण्ड दूंगा।

मधुर सम्भाषण से सर्वदा रस का अधिकार होता है इस कारण उस सुन्दरी ने हंस कर कहा कि कहिए क्या दण्ड दीजिएगा, मैं प्रस्तुत हूँ।

जगतसिंह ने भी हंस कर कहा कि मेरा दण्ड यही है कि तुम्हारे साथ तुमको चल कर पहुंचा आऊं।

सहचरी को जगतसिंह के सन्मुख नवीना का पता न बताने का कोई विशेष कारण था जब उसने देखा कि ये साथ चलने को उद्यत हैं तो बड़े संकट में पड़ी क्योंकि फिर तो सब बाते खुल जाएँगी। अतएव सिर झुका कर रह गई।

इस अवसर पर मन्दिर के समीप बहुत से घोड़ों के आने का शब्द सुनाई दिया और राजपूत ने जल्दी से बाहर निकल कर देखा कि सैकड़ों सवार चले जाते हैं किन्तु उनके पहिरावे से जाना कि मेरीही सी सेना है। जगतसिंह युद्ध के कारण विष्णुपुर के प्रदेश में जाकर और शीघ्र एक शत अश्वारोहिनी सेना लेकर पिता के पास चले जाते थे। सन्ध्या हो जाने के कारण राजकुमार दूसरी राह पर चले गये और सवार लोग और राह होगए थे। अब इन्होंने उन को देख कर पुकार कर कहा कि “दिल्ली के राजा की जय होय” यह शब्द सुन उन में से एक इनके निकट आया और इन्होंने कहा “धरमसिंह, मैं आंधी पानी के कारण यहीं ठहर गया और तुम्हारी राह देख रहा था।”

धरमसिंह ने प्रणाम कर के कहा कि “हम लोगों ने आपको बहुत ढूंढ़ा परन्तु जब आप न मिले तो घोड़े की टाप देखते चले आते हैं घोड़ा यहीं बट की छांह में खड़ा है अभी लिए आता हूं।”

जगतसिंह ने कहा तुम घोड़ा लेकर यहीं ठहरो और दो आदमियों को भेजो किसी निकटस्थ ग्रामसे एक डोली और कहार ले आवें और शेष सेनासे कहो कि आगे बढ़ें।

धरमसिंह यह आज्ञा पाकर बड़े विस्मित हुए किंतु स्वामि भक्तिता के विरुद्ध जान चुप चाप जाकर सैन्यगण से इस अभिप्रायको कह दिया। उनमें से कितनों ने डोलीका नाम सुन मुसकिरा कर कहा “आज तो नए २ ढङ्ग देखने में आते हैं” और कितनों ने कहा “क्यों नही! राजाओं की सेवाको अनेक स्त्री रहा करतीं हैं।”

इतने में औसर पा घूंघट खोल उस नवीना सुन्दरी ने सहचरीसे कहा क्यों, विमला! तुम ने राजपुत्रको पता क्यों नहीं बतलाया? उसने उत्तर दिया कि इसका समाचार मैं तुम्हारे पिता के सामने कहूंगी अब यह क्या कोलाहल होने लगा?

नवीना ने कहा जान पड़ता है कि राजपुत्र को ढूंढ़ने के लिये कोई सेना आई है। जहां युवराज आप प्रस्तुत हैं वहां तू चिन्ता किस बात की करती है?

इधर राजपुत्र के सवार डोली कहार लेनेको गए उधर वही डोली कहार और रक्षक जो उन स्त्रियों को लेआए थे आन पहुंचे। दूर से युवराज ने उनको देखकर मन्दिर में जा सहचरी से कहा “कि कई सिपाही डोली कहार लिये आते हैं बाहर आकर देखो तो क्या वे तुम्हारे ही आदमी है”? विमला ने बाहर आकर देखातो वही आदमी थे। तब युवराजने कहा कि अब हमारा यहां ठहरना उचित नहीं है यदि ये लोग हमको इस स्थान पर देखलेंगे तो अच्छा न होगा, लो अब मैं जाता हूँ और महादेवजी से यही विनती करताहूँ कि तुम लोग कुशल पूर्वक अपने घर पहुंच जाओ और तुमलोगों से यह निवेदन है कि हमारे मिलने का समाचार इस सप्ताह में किसी से न कहना और न हमको भूल जाना, यह लो अपना स्मारक चिन्ह यह एक सामान्य वस्तु तुम को देता हूं और मैंने जो तुम्हारी सखी का पता नहीं पाया यही एक चिन्ह अपने पास रक्खूंगा यह कह कर और अपने गले से मोती की माला निकाल विमला के गले में डाल दिया। विमला ने इस अमूल्य मणिमाला को पहिन युवराज को प्रणाम करके कहा महाराज मैंने जो आप को पता नहीं बताया इस्से आप अप्रसन्न न हो इसका एक विशेष कारण है परन्तु यदि आपको इसकी बड़ी इच्छा हो तो यह बतलाइये कि आज के पन्द्रहवें दिन आपसे कहां भेंट हो सकती है।

जगतसिंह ने कुछ सोच कर कहा कि आज के पन्द्रहवे दिन रात को मुझ से इसी मन्दिर में भेंट होगी और यदि उस दिन न मिलूं तो जान लेना कि फिर मुझसे भेंट न होगी।

‘ईश्वर आप को कुशल से रक्खे' यह कह कर विमला ने फिर प्रणाम किया।

युवा ने फिर एक बार अतृप्त लोचन से उस सुन्दरी की ओर दृष्टिपात करके और उसकी मन मोहनी मूर्ति को अपने हृदय में स्थापित कर घोड़े पर चढ़ प्रस्थान किया।

द्वितीय परिच्छेद : मोगल पठान

रातही में जगतासंह ने शैलेश्वर के मन्दिर से कूच किया। पाठक लोगों को यह संदेह होगा कि जगतसिंह राजपूत बङ्गदेश में क्या करने को आये और क्यों इस उजाड़ में अकेले फिरते थे अतएव तत्सामयिक बङ्गदेशीय राजकीय घटना का कुछ संक्षेप वर्णन इस स्थान पर उचित जान पड़ता है।

पहिले इस देश में बखतियार खिलजी ने यवन विजय पताका स्थापित किया और कई सौ बरस तक पठान लोग उसकी ओर से निष्कण्टक राज्य शासन करते रहे ९३२ के साल में प्रसिद्ध बाबर सुल्तान ने दिल्ली के महाराज इब्राहीम लोदी को पराजय करके सिंहासन छीन लिया और आप राजा बन बैठा। किन्तु उसी समय बङ्गदेश में तैमूर वंश वालों का अधिकार नहीं हुआ। जितने दिन तक मोगल कुल दीपक अकबर महाराज का उदय नहीं हुआ तब तक इस देश में पठान लोग स्वाधीन राज करते थे। निर्बुद्धि दाऊदखां ने बुरे समय में सुप्तसिंह के ऊपर हाथ उठाया और अपने कर्म के फल से अकबर के सेनापति मनाइमखां से पराजित होकर ९८२ के साल में उडिस्सा को भाग गया और बंगाल का राज मोगलियों के हाथ में आगया, पठानों ने इस नये देश में ऐसी स्थित पकड़ी कि वहां से उनको उठाना मोगलियों को बहुत कठिन होगया। अन्त को ९८६ साल में अकबर के प्रतिनिधि खांजहांखां ने उनको दूसरी बार हरा कर इस देश को भी अपने हाथ में कर लिया। इसके अनन्तर एक और बड़ा उपद्रव हुआ अकबरशाह ने राज कर प्राप्ति की जो नई प्रणाली प्रचलित की थी उससे जागीरदार बड़े अप्रसन्न हुए और सब बिगड़ खड़े हुए। यह औसर पाय उडिस्सा के पठानों ने भी सिर उठाया और कतलूखां को अपना स्वामी बना देश को स्वाधीन कर लिया। वरन मेदिनीपुर और विष्णुपुर को भी लेलिया।

आजिमखां और शहबाज़खां आदि चतुर चतुर सेनाध्यक्ष आये पर किसीने शत्रुजित देश पुनःप्राप्ति न कर पाया। अन्त को इस दुस्तर कर्म्म के साधन हेतु एक हिन्दू योद्धा भेजा गया।

जब मुसलमान की नवधर्मानुरागी सेना हिमालय के शिखर से होकर भारतभूमि में उतरे उस समय पृथ्वीराज आदि बड़े बड़े राजपूत योद्धाओं ने बड़ी शूरता से उनको रोका परन्तु विधाता को तो यही इच्छित था कि इस देश की दुर्दशा हो। राजपूत राजाओं में फूट उत्पन्न हुई और परस्पर विवाद होने लगा और मुसलमानों ने एक एक करके संपूर्ण राजाओं को जीत लिया और कुल भरतखण्ड उनके आधीन होगया परन्तु क्षत्रियों का तेज हीन नही हुआ बहुतेरे स्वाधीन भी रहे और आज तक ( यद्यपि मुसल्मानों का राज जाता रहा ) यवनों को समर में प्रचारते रहे और बहुतेरों को प्राजित भी किया। किन्तु बहुतेरे ऐसे टूट गये कि उनको कर देना पड़ा वरन दुष्ट यवन कुल के सन्तुष्टार्थ अपनी कन्या भी उनको देते थे। वे लोग भी इनसे मित्रता और बंधुता का बर्ताव करने लगे और फिर यही लोग उनके सेनाध्यक्ष आदि भी होने लगे। मोगलियों में सब से अकबर बड़ा बुद्धिमान था। उसने विचारा कि इस देश के राज काज के साधन हेतु इसी देश के मनुष्य बहुत उत्तम हैं। अन्य देशी से यह काम भली भांति नहीं हो सकता और युद्ध के काम में तो राजपूतों से बढ़कर कोई है ही नहींं। इसलिये वह सर्वदा इसी देश के आदमियों से काम लेता था और विशेष करके क्षत्रियों से।

जिस समय की चर्चा हम कर रहे हैं, उस समय दूसरे राजपूत अधिकारियों में महाराज मानसिंह सबसे प्रधान थे और वे अकबर के पुत्र सलीम के साले भी थे। जब आज़िमखां और शहबाज़खां से उड़ीसा पराजित नहीं हुआ तो महाराज अकबर ने इन्हीं को बङ्गाल और बिहार का अधिकार देकर भेजा।

९९७ साल में मानसिंह ने पटने में आकर पहिले पहिल तत्सामयिक उपद्रव को शान्त किया और दूसरे वर्ष उड़ीसा के जीतने की इच्छा करके उस ओर चले। मानसिंह ने पहिले पटने में पहुंचकर और वहां रहने की अभिलाषा से बङ्गाल के शासन निमित्त सैयद खां को अपना प्रतिनिधि नियत किया था सैयदखां यह अधिकार पाय उस समय की राजधानी तण्डा नगर में अपना मुख्य स्थान किया। समर में जाकर मानसिंह ने इस अपने प्रतिनिधि को बुलवाया और लिख भेजा कि सेना लेकर बर्द्धमान में हमको आकर मिलो।

राजा बर्द्धमान में पहुंच गए और सैयद खां ने लिख भेजा कि हमारी सेना एकतृत करने में बिलंब होगा तब तक वर्षा काल आ जायगा यदि आप वहीं पर ठहरे रहें तो मैं शरद ऋतु के आरम्भ में आपसे आकर मिलूंगा।

राजा ने दारुकेश्वर के तीर पर जहानाबाद नाम ग्राम में अपना डेरा डाल दिया और सैयदखां की राह देखने लगे। वहां के रहने वालों से मालूम हुआ कि उनकी यह दशा देख कतलूखां का साहस और भी बढ़ गया और वह जहानाबाद के समीप लूट कर रहा है।

राजा ने घबराकर उसके बल और अभिप्राय आदि का पता लगाने के लिये अपने एक प्रधान सेनाध्यक्ष को भेजना उचित समझा। राजा के साथ उनका प्रिय पुत्र जगतसिंह भी युद्ध में आया था इस दु:साध्य कार्य के भार लेने का उसकी इच्छा देख राजा ने एक सत सवार साथ करके उसीको इसका पता लगाने के निमित्त भेजा राजकुमार बहुत शीघ्र काम करके लौट आये थे उसी समय मन्दिर में पाठक लोगों से उनसे भेट हुई।

तृतीय परिच्छेद : नवीन सेनापति

शैलेश्वर के मन्दिर से चलकर युवराज ने 'लशकर' में पहुंच कर पिता से कहा कि पचास सहस्त्र सेना लेकर पठान लोग धरपुर के ग्राम में डेरा डाले पड़े हैं और आस पास के गांवों को लूट रहे हैं वरन स्थान स्थान पर दुर्गनिर्माण पूर्वक निर्विघ्न रूप वास करते हैं। मानसिंह ने सोचा कि इस उपद्रव को शीघ्र शान्त करना चाहिये किन्तु यह काम बड़ा कठिन है और संपूर्ण सेना को एकत्र करके सबको सुनाकर कहा कि "क्रमशः गांव २ परगना २ दिल्ली के महाराज के हाथ से निकला जाता है अब पठानों को दण्ड अवश्य देना चाहिये तुम लोग बताओ कि इसका क्या उपाय है? उनकी सेना भी हमसे बढ़कर है, यदि उनसे युद्ध करैं तो पहिले तो जीतने की सम्भावना नहीं और यदि ईश्वर सहाय हो तो उनको देश से निकालना सहज नहीं है। सब लोग विचार कर देखो यदि लड़ाई में हार गये तो फिर प्राण बचाना कठिन है किन्तु उड़ीसा के पुनः प्राप्ति की आशा भी न छोड़ना चाहिये। सैयदखां की भी राह देखना उचित है और बैरी दमन का भी उपाय अवश्य है अब तुम लोगों की क्या राय है?"

बूढ़े २ सेनाध्यक्षों ने एक मत होकर उत्तर दिया कि सैयदखां का मार्ग प्रतीक्षा अवश्य करना चाहिए मानसिंह ने कहा कि मेरे समझ में आता है कि थोड़ी सेना लेकर तुममें से एक आदमी जाकर वैरी का रंगढंग देख आवे। एक पुराने सेनाधिकारी ने कहा "महाराज जहां संपूर्ण सेना कुछ नहीं कर सकती वहां थोड़ी सेना जाकर क्या करेगी?" फिर महाराज ने कहा कि यह सेना मैं लड़ने को नहीं भेजता हूं, वे लोग छिपकर पठानोंका पता लेते रहेंगे और उनको भय दिखावेंगे।"

उस मोगल ने कहा ऐसा कौन साहसी है जो जान बूझ कर काल के मुँह में जायगा।

मानसिंह ने झुँझला कर कहा क्या इतने राजपूत और मोगल खड़े हैं उनमें से ऐसा कोई बीर नहीं है जो मृत्यु से न डरता हो?

इस बात के सुनतेही पाँच सात मोगल और राजपूत आगे आनकर बोले महाराज "हम सब तैयार हैं।" जगतसिंह भी उस स्थान पर प्रस्तुत थे उनका वय अभी बहुत कम था सबके पीछे खड़े होकर बोले आज्ञा हो तो मैं भी दिल्लीश्वर के कार्यसाधन हेतु बद्ध परिकर हूं।

राजा मानसिंह ने आश्चर्य्य पूर्वक कहा 'क्यों न हो' आज मैंने जाना कि अभी मोगल और राजपूत के बंश में बीरता का अंश है। तुम सब लोग इस कठिन काम के करने को खड़े हो अब मैं किसको भेजूं और किसको न भेजूं।

एक पारिषद ने हंसकर कहा कि महाराज यदि बहुत आदमी जाने को प्रस्तुत हैं तो बहुत अच्छी बात है इस उपरा चढ़ी में आपकी सेना का व्यय कम हो जायगा, जो सबसे थोड़ी सेना लेकर जाने कहे उसीको भेजिये।

राजा ने इस उत्तम उपाय को स्वीकार किया और पहिले जो सामने आया था उससे पूछा कि तुम कितनी सेना लेकर जाना चाहते हो? उसने उत्तर दिया कि हमको पन्द्रह सहस्त्र सेना चाहिये। राजा ने कहा कि यदि हम तुम को पन्द्रह सहस्त्र सिपाही देदें तो हमारे पास फिर कुछ न रह जायगा, कोई दस हजार लेकर नहीं जा सकता?

सब सेनापति चुप रहगए, अन्त को राजा का स्नेह पातृ यशवन्तसिंह नामी एक राजपूत योद्धा तैयार हुआ। राजा प्रसन्न चित्त होकर सबकी ओर देखने लगे। कुमार जगतसिंह देर से राजा के दृष्टयाभिलाषी खड़े थे ज्योंही राजा ने उनकी ओर देखा उन्होंने बिनय पूर्वक कहा कि महाराज की आज्ञा हो तो मैं केवल पांच सहस्त्रपदाति लेकर कतलूखां को सुवर्णरेखा के पार उतार आऊं।

राजा मानसिंह सनाटे में आ गए सेनापति भी सब कानाफूसी करने लगे।

थोड़ी देर के बाद राजाने कहा पुत्र मैंने जाना कि तू क्षत्री कुल तिलक होगा किन्तु अभी तुम इस काम के योग्य नहीं हो।

जगत सिंह ने हाथ जोड़ कर कहा कि यदि कार्य्य सिद्ध न हो और सेना को किसी प्रकार हानि पहुँचे तो मेरा उचित दण्ड किया जाय। राजा मानसिंह ने कुछ सोच कर कहा कि मैं तुम्हारी इच्छा को भंग न करुँगा अच्छा तुम्ही जाओ और आँखों में आँसु भर कर पुत्र को हृदय से लगाकर विदा किया और दूसरे सकल सेनापति अपने २ स्थान को चले गये।

चौथा परिच्छेद : मान्दारणगढ़

जगतसिंह जिस मार्ग से विष्णुपुर से जहानाबाद को गए थे उसका चिन्ह अद्य पर्य्यन्त बर्तमान है। उसके दक्षिण मान्दारणगढ़ नाम एक ग्राम है और जिन स्त्रियों से मन्दिर में साक्षात हुआ था वे वहां से चलकर इसी गांव की ओर गई। प्राचीन समय में इस स्थान पर कई दुर्ग थे इसी कारण इसका नाम मान्दारणगढ़ पड़ा। दामोदर नदी इसके बीच से बहती है और एक स्थान पर यह नदी ऐसी टेढ़ी होकर निकली है कि एक त्रिकोणसा बनगया है और आगे इस त्रिभुज के जहां नदी का मोड़ था एक बड़ा भारी दुर्ग बना था। नीचे से ऊपर तक एक रंग कृष्ण पत्थर की श्यामता दूरसे पर्वत की भ्रान्ति उत्पन्न करती थी और दोनों ओर इसके नदी की धारा और ही छबि दिखाती थी। काल पाकर ऊपर का भाग तो इसका गिरगया परन्तु नीह अभी पड़ा है और तदुपरस्थित वृक्षों के कुञ्ज में नाना प्रकार के जीवजन्तु बास करते हैं। नदी के उस पार भी अनेक गढ़ बने थे और उनमें एक कुलके कई धनाड्य और तेजस्वी पुरूष पृथक २ रहते थे। ऊर्ध्व लिखित हुर्ग के अतिरिक इस स्थान पर और किसी से मतलब नहीं है।

दिल्ली के महराज वालीन जब सेना लेकर बंग देश जीतने को आए थे उनके साथ एक जयधरसिंह नामी सैनिक भी आया था और जिस दिन महराज के जयपाई उस दिन इसने बड़ा साहस दिखलाया था। उक्त बालान ने प्रसन्न होकर यह मान्दारणगढ़ उसको पुरस्कार में दिया था क्रमश: इस बीर का वंश बहुत बढ़ा और काल पाकर बंगाधिपति को प्रचार के इस स्थान पर गढ़ निर्माण पूर्वक स्वाधीन होकर रहने लगा। जिस गढ़ का सविस्तर वर्णन हुआ है उस में ९९८ के साल में बीरेन्द्रसिंह नामी जयधरसिंह का एक वंशज रहता था।

वीरेन्द्रसिंह दम्भ और अधीरता के कारण अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता था और इसी कारण उनका आपुस में मेल नहीं था। पुत्र के विवाह के निमित्त पिता ने निकटस्थ एक अपने जाति वाले की कन्या ठहराई थी। बेटी वाले को और कोई सन्तान नहीं थी किन्तु कन्या परम सुन्दरी थी। बूढे़ने इस सम्बन्ध को अति उत्तम समझा और यथोचित उद्योग करने लगा। किन्तु बीरेन्द्रसिंह के मन का यह विवाह नहीं था उसने अपनेही ग्राम की एक पति पुत्रहीन दरिद्र स्त्री के कन्या से छिपकर अपना विवाह कर लिया, पिता ने जब यह समाचार सुना बहुत रुष्ट हुआ और बीरेन्द्र को घर से निकाल दिया। उसने अपनी स्त्री को यहीं छोड़ दिया क्योंकि वह गर्भिणी थी और आप सिपाहियों में नौकरी करने की इच्छा कर वहां से चल दिया।

पुत्र के चले जाने से वृद्ध पिता को बड़ा क्लेश हुआ और उसके पता लगाने का यत्न करने लगा परन्तु क्या हो सकता था। तब उसने बहू को बुला कर अपने घर में रक्खा, समय पाकर उसको एक कन्या उत्पन्न हुई। थोड़े दिन के अनन्तर माता इस लड़की की मर गईं और वह अनाथ अपने दादा के यहां बड़ी हुई। वीरेन्द्रसिंह ने दिल्ली में जाकर राजपूतों की सेवा करली और अपने गुण करके थोड़े ही दिनों में 'पदवी' पाई कुछ दिन में खूब धन और यश संचय किया। इतने में पिता के मरने का समाचार मिला और नौकरी छोड़ कर घर चले आये। दिल्ली से उनके साथ बहुत से लोग आये थे, उनमें एक दासी और एक परमहंस भी थे। परिचारिका का नाम विमला और परमहंस का नाम अभिराम स्वामी था।

विमला को हमने परिचारिका करके लिखा है वही परिपाटी अभी चली जायगी, वह घर में गृहस्थी के कर्म और विशेष कर बीरेन्द्रसिंह की लड़की का लालन पालन किया करती थी इसके अतिरिक्त और कोई काम वह नही करती थी परन्तु, उसके लक्षण दासी के से न थे। जैसे गृहिणी का आदर होता है उसी प्रकार उसका भी होता था ओर सब लोग उस को मानते थे रूप भी उसका कुछ बुरा न था उस की ढलती हुई जवानी देख कर ज्ञात होता था कि अपने समय में वह एकही रही होगी। गजपति विद्या दिग्गज नामी अभिराम स्वामी का एक शिष्य था यद्यपि उसको अलंकर शास्त्र का कुछ ज्ञान न था परन्तु रस अंग अंग से भरा था। उसने विमला को देखकर कहा परचारिका तो घड़े के घी की प्रकृति रखती है ज्यों ज्यों कामाग्नि कम होती है त्यों २ शरीर उसका पुष्ट होता जाता है।'

जिस दिन गजपति विद्या दिग्गज ने यह बोली बोली उसी दिन से विमला ने उनका नाम 'रसिकदास स्वामी, रक्खा।

विमला विधवा थी कि सधवा यह कोई नहीं जानता था पर आचरण उसके सब सधवा के थे। दुर्गेशनन्दिनी विलोत्तमा का जैसा स्नेह था वह मन्दिर में प्रकाश हो चुका है, तिलोत्तमा भी उसको वैसाही चाहती थी। बीरेन्द्रसिंह के दूसरे साथी अभिराम स्वामी सर्वदा दुर्ग में नहीं रहते थे कभी २ बाहर भी चले जाते थे, उनकी बहुदर्शिता और बुद्धिमानी में कुछ सन्देह नहीं, संसारिक विषयों को त्याग अहर्निश नेम धर्म में लगे रहते थे और राग क्षोभ का भी उन्होंने त्यागन कर दिया था। बीरेन्द्रसिंह ने इनको अपना दीक्षा गुरु बना रक्खा था।

इन दोनों के अतिरिक्त आसमानी नाम की एक और परिचारिका बीरेन्द्रसिंह के साथ आई थी॥

पांचवां परिच्छेद : अभिराम स्वामी का मंत्र

तिलोत्तमा और विमला दोनों मन्दिर से चलकर कुशल पूर्वक अपने घर पहुंच गईं। तीन चार दिन के अनन्तर एक दिवस बीरेन्द्रसिंह अपने 'दीवानखाने' में मसनद पर बैठे थे कि अभिराम स्वामी वहां आन पहुंचे, बीरेन्द्रसिंह ने उठकर स्वामीजी को दण्डवत किया और बैठने के निमित्त एक कुशासन बिछा दिया और आज्ञा पाकर आप भी बैठ गए । अभिराम स्वामी बोले ।

बीरेन्द्र ! आज मैं तुमसे कुछ कहा चाहता हूँ ।

बीरेन्द्रसिंह ने कहा आज्ञा-महाराज ?

अ० | आजकल मोगल पठानों में बड़ा युद्ध हो रहा है।

वी० | हां कोई भारी आपत्ति आवेगी।

अ० | आवेगी! क्या कहते हो? यह कहो कि अब क्या करना होगा?

वी० | (दम्भ पूर्वक) शत्रु आवेगा तो उस का नाश करूंगा और क्या करूंगा।

परमहंस ने मधुर स्वर से कहा, बीरेन्द्र! तुमसे वीरों के यही काम हैं किन्तु केवल कथन मात्र से जय न होगी, कुछ कर्तव्य भी चाहिये तुम्हारी वीरता में कुछ सन्देह नहीं परंतु तुम्हारे पास सेना नहीं है, मोगल पठान दोनों सेना बल में तुमसे श्रेष्ठ हैं बिना एक की सहायता दूसरे पर जय पाना सहज नहीं है, तुम हमारी बातों से अप्रसन्न न होना सोचो और मनमें विचारों और एक बात यह है कि दोनों से शत्रुता करही के क्या करोगे? पहिले तो शत्रुता अच्छी नहीं और यदि ऐसाही आनपड़े तो दो शत्रु से एक अच्छा है। हमारी बातों को भलीभांति विचार करके देखो।

बीरेंद्रसिंह कुछ काल पर्य्यन्त चुप रहे फिर बोले कि आप किधर की संधि चाहते हैं?

स्वामीजी ने कहा 'यतोधर्म्मस्ततोजय:' जिधर जाने में अधर्म्म न हो वही पक्ष लेना चाहिये, राज का द्रोही होना महां पाप है अतएव राजपक्ष प्रहण करो।

बीरेन्द्र ने थोड़ा सोचकर कहा कि राजा कौन है? मोगल पठान दोनों में राजत्व का विवाद है?

अभिराम स्वामी ने उत्तर दिया 'जो कर ले वही राजा'

बी० | अकबरशाह?

अ० | और क्या?

इस बातको सुनकर बीरेन्द्रसिंह को गुस्सा आगया और आंखें लाल होगईं। अभिराम स्वामी ने उनकी चेष्टा देखकर कहा, बीरेन्द्र! गुस्सा न करो हम तुमको दिल्ली के महाराज के पक्षपाती होने को कहते हैं कुछ मानसिंह का अनुगामी होना नहीं कहते।

बीरेन्द्रसिंह ने दहिना हाथ फैलाकर परमहंस को दिखाया और बायें हाथ की उंगली से शपथ कर कहा 'आपके चरण के प्रभाव से इसी हाथसे मानसिंह का नाश करूंगा'

अभिराम स्वामी ने कहा ज़रा शान्त हो क्रोध बस हो कर अपना काम बिगाड़ना न चाहिये मानसिंह को उसके अपराधों का दण्ड देना उचित है पर अकबरशाह से लड़ने में क्या लाभ होगा?

बीरेन्द्र ने क्रोध से कहा कि अकबर के पक्षपाती होने से उसके सेनापति के आधीन होना होगा, उसकी सहायता करनी पड़ैगी और मानसिंह के अतिरिक्त और कौन सेनापति है? गुरु देव! जबतक देह में प्राण है तब तक तो यह कर्म्म बीरेन्द्रसिंह से न होगा।

यह सुनकर अभिराम स्वामी चुप हो रहे फिर कुछ कालान्तर में बोले 'क्या पठानों की सहायता करनी तुम्हारे मन में है?'

बीरेन्द्र ने उत्तर दिया 'पक्षापक्ष के भेद से क्या लाभ होगा?' अभिराम स्वामी लम्बी सांस लेकर फिर चुप रहे और आंखों में आंसू भर लाये। बीरेन्द्रसिंह ने उनकी यह दशा देख कहा 'गुरूजी क्षमा कीजिये'। मैने बिना जाने यदि कोई अपराध किया हो तो बताइये।

स्वामीजी ने कपड़े से आंसू पोछकर कहा 'सुनो' मे कई दिन से ज्योतिष का हिसाब लगाता था, और विशेष करके तुम्हारी लड़की का फल बिचार रहा था क्योंकि तुम जानते हो कि मैं तुमसे उसपर अधिक तर स्नेह रखता हूं। वीरेन्द्र का मुंह सूख गया और उन्होंने आग्रह से कहा कि 'ज्योतिष में क्या निकला' परमहंस ने उत्तर दिया "मोगल सेनापति कर्तृक तिलोत्तमा को बड़ा क्लेश होगा।" बीरेन्द्रसिंह के मुख पर श्यामता आगई।

परमहंस ने फिर कहा कि मोगलों से विरोध करने में यह अमंगल होगा मेल करने से न होगा इसी लिये मैं तुमको उनका पक्षपाती होने को कहता हूं। कुछ तुमको खिझाने की मुझको लालसा नहीं है। मनुष्य का करना सब निषफल है। विधाता ने जो लिख दिया है वह अवश्य होगा नहीं तो तुम्हारी बुद्धि ऐसी न होती। बीरेन्द्रसिंह सन्नाटे में आगए। अभिराम स्वामी ने कहा वीरेन्द्र! द्वार पर कतलूखां का दूत खड़ा है। मैं उसे देखकर तुम्हारे पास आया था। मैंने उसे रोक दिया था इस कारण द्वारपाल ने अभी तक उसको आने नहीं दिया अब मेरी बातैं चुक गईं उसको बुलवा भेजिये बीरेन्द्रसिंह ने दीर्घ श्वास लेकर सिर उठाकर कहा "हे गुरूदेव जबतक मैंने तिलोत्तमा को देखा नहीं था उसे अपनी लड़की नहीं समझता था अब मुझको संसार में उससे प्रिय और कोई वस्तु नहीं है मैंने आपकी आज्ञा मानी और अपने पूर्व संकल्प को त्याग किया। मानासिंह का अनुगामी हूंगा आप द्वारस्थित दूत को बुलवा भेजिये।”

आज्ञा होते ही द्वारपाल ने दूत को लाकर उपस्थित किया। उसने आते ही कतलूखां का पत्र निकालकर बीरेन्द्रसिंह को दिया जिसका आशय यह था कि एक सहस्त्र सवार और पांच सहस्त्र 'अशरफी' तुरन्त भेज दो नही तो बीस 'हजार' सेना भेजकर मान्दारणगढ़ घेर लूंगा।

पत्र पढ़कर बीरेन्द्रसिंह ने कहा "दूत!" तुम जाकर अपने स्वामी से कह दो कि सेना भेज दो मैं देख लूगा और वह सिर नीचा करके चला गया।

विमला यह सब बातें भीतर से सुन रही थी॥

छठवां परिच्छेद : असावधानता

गढ़ के अग्रभाग में जिसके नीचे से दामोदर नदी बेग पूर्वक बहती थी तिलोत्तमा एक बंगले में बैठी जल का प्रवाह देख रही थी सायंकाल हो गया और पश्चिम ओर सूर्य्य अस्त होने लगे हेमवरणगन सम्मिलित नीलाम्बर का प्रतिबिम्ब बहते हुए जल में थरथराता था और उस पार की ऊंची २ अटारी और लम्बे लम्बे वृक्ष बिमल आकाश में चित्र के समान देख पड़ते थे, दुर्ग में मोर और हंस सारस आदि कोलाहल कर रहे थे और कहीं २ रात्रिकाल उपस्थित जान पक्षिगण बसेरों में चुहचुहाते थे और काननागत सुगन्धमय मंद वायु जल स्पर्श पूर्वक शरीर को छू कर शीतल करता था, उसके बेग से केश और अंचल के उड़ने की कुछ और ही शोभा थी।

तिलोत्तमा के रूप राशि के बर्णन में लेखनी थरथराती है और उपनाम भी लज्जायुक्त होकर इधर उधर मुंह चुराते फिरते हैं। सच है किशोर अवस्था में ऐसी स्थिरता और कोमलता संयुक्त लावण्य की उपमा को कौन तुल सकता है? एक बार देखने से जिसकी मधुर मूर्ति सदा चित्त पर चढ़ी रहती है और बालक युवा और वृद्ध सब को चलते फिरते जागते और सोते हर पल में एक रस प्रेम उपजाती है ऐसी अनुपम मन मोहिनी की असीम सुन्दरता का बखान करके कौन अपयश ले?

यदि किसी प्रकार नयन पथ द्वारा इस अपार शोभा राशि की झलक ध्यान में आजाय तो सन्ध्या समीर सञ्चिलित बसन्त लता की भांति मन सदा चलायमान रहे। यद्यपि उस की वय सोलह वर्ष की हो चुकी थी परन्तु इधर स्त्रियों की तरह उसके 'हाथ पैर' पुष्ठ नहीं हुए थे अभी वह बालिका ही बोध होती थी। मन्दवारिप्रवाह स्वभाव प्रकाशक काले घूंघरवाले केश दोनों पार्श्वों में सुन्दर प्रशस्त ललाट के ऊपर होकर कपोल गण्ड और पेटी पर्यन्त लटके हुए चित्र काव्य की निन्दा करते थे बड़े २ स्वच्छ कुटिलता रहित स्पष्ट और सरल ने‌‍‍त्र सर्वत्र सर्व्वकाल एक रस रहते थे परन्तु चाहने वालों के चित्त को देखतेही पलकपाश संकोच द्वारा फंसा लेते थे। सुडौल कीरवत नासा और कोमल रक्तबर्ण अधर सधर की जोड़ी गोल २ लोल कपोलों के बीच में अपूर्व छबि दिखलाती थी। और यदि एक बार मन्द मुसकान की प्रभा उन पर छा जाय फिर तो बड़े २ योगी मुनि और सिद्ध तपस्वियों के ध्यान छूट जाते थे। सुगढ़ित अस्थूल और कोमल शरीर की शोभा लिखते नहीं बनती। बांह में हीरा मणि के बाजूबन्द, नरम कलाई में मारवाडी चूड़ी उङ्गलियों में अँगूठी और छल्ले और गले में मेखला मोहनमाला और नौ नगे का हार और भी विशेष प्यारा मालूम होता था।

ऐसी रूपवती कामिनी अकेले बङ्गले में बैठी क्या करती है? क्या सायंकाल के आकाश की शोभा देखती है? पर आखें तो उसकी नीचे को देखती हैं। क्या नदी तीर के सुगन्ध वायु का रस लेरही है? किन्तु माथे में स्वेद के कण क्यों है? और वायुतो उसके चन्द्रानन के एक ही भाग में लगती है, क्या गौओं के चरने की शोभा देखती है। परन्तु वे तो धीरे२ घर चली जाती हैं। क्या पक्षी कलरव सुनती है? लेकिन उसका मुंह उदास है। वह कुछ देखती भालती नहीं है किन्तु किसी बात की चिन्ता कर रही है।

ऐसी कौन चिन्ता उसके जी में समाई है? अभी तो वह बालिका है, जान पड़ता है कि कुटिल कामदेव ने आज इसको पहिले पहिल अपना शिष्य किया है।

दासी ने दिया जला दिया और तिलोत्तमा एक पुस्तक लेकर दीप के समीप बैठी। अभिराम स्वामी ने उसको संस्कृत पढ़ाया था पहिले उसने कादम्बरी उठाई और थोड़ी सी पढ़कर धरदी और फिर सोचने लगी। एक पुस्तक और उठा लाई उसको भी थोड़ी पढ़कर फेंक दी अबकी गीत गोबिन्द लाई थोड़ी देर तो मन लगाकर पढ़ती रही जब 'मुखरमधीरं त्यज: मञ्जीरं रिपुमित्रकेलिष लोलम' चरण आया तो लज्जायुत मुस्किरा कर पुस्तक को बंद करके धर दिया और चुपचाप शय्या पर बैठ रही। पासही लेखनी और मसिदानी धरी थी पट्टी पर 'ए' 'उ' 'ता' 'क' 'स' 'म' घर द्वार वृक्ष मनुष्य इत्यादि लिखने लगी और एक ओर की पट्टी भर गई, जब कहीं स्थान न रहा तो फिर सोचने लगी और अपने करनी पर हंसी और उस लेख को पढ़ने लगी 'वासवदत्ता' 'के' 'ई' 'इ' 'य' 'एक' 'वृक्ष' शिव 'गीतगोबिन्द' विमला, लता, पता, हिजि, बिज, गढ़, सबनाथ और क्या लिखा था ?

'कुमार जगतसिंह'

यह नाम पढ़कर लज्जा के मारे तिलोत्तमा का मुंह लाल हो गया। फिर अपने मन में सोचा कि घर में कौन है जो लज्जा करैं और दो तीन चार बेर उस नाम को धोखा और चोरों की भांति द्वार की ओर देखती थी और फिर २ उस नाम को पढ़ती थी।

जब कुछ काल बीत गया तो मन में डरी कि कोई देख न ले और शीघ्र पानी लाकर सब को धो डाला किन्तु सन्तोष नहीं हुआ और एक कपड़े से पोंछ डाला फिर पढ़ कर देखा कि कहीं मसी का लेश तो नहीं रह गया। अभी चित्त की स्थिरता नहीं हुई और फिर पानी लाकर सब को धोया और वस्त्र से पोंछा तथापि भ्रान्ति बनी रही।

सातवां परिच्छेद : बिमला का मंत्र

अभिराम स्वामी अपनी कुटी में कुशासन पर बैठे थे और विमला ने खड़े २ अपना तिलोत्तमा और जगतसिंह का मन्दिर सम्बन्धी संपूर्ण समचार कह सुनाया और कहा कि आज चौदह दिन हो चुका कल पूरा पन्द्रह हो जायेगा। अभिराम स्वामी से पूछा फिर क्या इच्छा है?

बिमला ने कहा मैं तो यही पूछने को तुम्हारे पास आई हूं कि अब क्या करना उचित है।

स्वामी ने कहा कि यदि हमसे पूछती हो तो अब इस विषय को चित्त से भुलादो।

बिमला का मन उदास होगया तब अभिराम स्वामी ने पूछा 'क्यों कैसी उदास होगई?

बिमला ने कहा कि तिलोत्तमा की क्या दशा होगी!

अभिराम स्वामी ने आश्चर्य से पूछा 'क्यों, क्या तिलोत्तमा को विशेष प्रेम है?'

बिमला चुप रही और फिर बोली "मैं तुमसे क्या कहूं मैं आज चौदह दिन से उसको बिलक्षणगति देखती हूं, मुझको तो जान पड़ता है कि तिलोत्तमा दशा चित्त से आसक्त है।

परमहंस ने मुस्किरा कर कहा स्त्रियों को ऐसाही जान पड़ता है। हे बिमला! तू बहुत चिन्ता न कर अभी तिलोत्तमा लड़की है नये मनुष्य को देखने से कुछ प्रेम होही जाता है उस बात की चर्चा उड़ा दो वह आप भूल जायगी।

बिमला ने कहा 'नहीं महराज ऐसे लक्षण नहीं है। पन्द्रह दिन में उसका स्वभाव पलट गया। वह अब हमसे क्या और स्त्रियों से पूर्ववत हंसती बोलती नहीं, किसी से बात भी नहीं करती। पुस्तकैं उसकी सब पर्यक के नीचे पड़ी है, पौधे उसके पानी बिना सुखे जाते हैं पक्षियों की ओर अब उसकी रुचि नहीं है। खाना पीना सब छूट गया है रात को नींद नहीं आती भूषन बसन अच्छा नहीं लगता, रात दिन सोच में रहती है और चेहरे पर श्यामता आगई है।

अभिराम स्वामी सुनकर चुप रहे। थोड़ी देर के अनन्तर बोले "मैं जानता था कि देखते ही गहिरी प्रीत नहीं होती पर स्त्री चरित्र और विशेषतः बालिका चरित्र का मर्म्म ईश्वर ही जानता है। अब क्या करना उचित है? बीरेन्द्र तो इस सम्बन्ध को कदापि स्वीकार न करैगा बिमला ने कहा "इसी सोच में मैंने अभी तक इसका प्रकाश नहीं किया, मन्दिर में बीरेन्द्रसिंह को भी मैने कुछ पता नहीं दिया, किन्तु यदि 'सिंहजी' यह शब्द कहते समय बिमला के मुंह का रंग बदल गया, यदि "सिंहजी" मानसिंह से मित्रता करलें तो फिर जगतसिंह को जमाई बनाने में क्या हानि है?"

अ०। मानसिंह क्यों मानेगा?

बि०। न माने तो नहीं सही।

अ०। तो क्या जगतसिंह बिरेन्द्रसिंह की कन्या को स्वीकार करेगा?

बि०। जाति में तो किसी के दोष हैई नहीं, जयधरसिंह के पुर्खे भी तो यदुवंशी थे।

अ०। यदुवंशी की कन्या मुसल्मान के दोगले पुत्र की बहू होगी?

विमला ने स्वामी की ओर घूर कर कहा 'क्यों न होगी क्या यदुवंशी कुल नीच है?'

यह बात सुनकर परमहंस की आंखें क्रोध से लाल होगई और बोले 'पापिन! तू न मानैगी? दूर हो यहां से'॥

आठवां परिच्छेद : कुलतिलक

जगतसिंह सेना लेकर अपने पितासे विदा हुए और विशेष बीरता प्रकाश पूर्वक पठानों में हलचल मचा दिया! उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि पांच सहस्त्र सेना से कतलूखां के पचास सहस्त्र सेना को सुवर्णरेखा पार उतार दूंगा। यद्यपि अभी तक कार्य्य सिद्ध नहीं हुआ था परन्तु उनके कर्तव्य की श्लाघा सुनकर मानसिंह ने समझा कि जगतसिंह द्वारा प्राचीन राजपूत गौरव पुनः प्रसिद्ध होगा।

जगतसिंह भलीभांति जानते थे कि पांच सहस्त्र सेना से पचास सहस्त्र सेना परास्त करना संपूर्ण भाव से असंभव है बरन प्राण बचना कठिन है। अतएव उन्होने ऐसी प्रणाली स्थापित की कि जिसमें संमुख संग्राम न करना पड़ै और अपनी सेना को सर्वदा छिपाये रहते थे। कधी सघन जङ्गल, कधी घाटी और कधी पहाड़ों की खोहों में रहते जिसमें किसी प्रकार किसी को उनका स्थान न मालूम हो और जहां कहीं सुन पाते कि पठानों की सेना अमुक स्थान पर है तुरन्त छापा मार कर उनका नाश करते थे। और बहुतेरे भेदिये कुंजड़े, कसाई, भिक्षुक, उदासी, और ब्राह्मण का भेष बनाये फिरा करते थे और पठानों की सेना का शोध लिया करते थे और पहिले से जाकर मार्ग में छिपे रहते थे जहां किसी पठान सेना को आते देखा वहीं निकल कर मार कूट के सब छीन लेते थे। इस प्रकार जब अनेक पठान सेना मारी गई तब तो वे बहुत व्याकुल हुए और राजपूतों से संमुख संग्राम करने की टोह में फिरने लगे परन्तु जगतसिंह का पता काहे को लगता था।

जगतसिंह अपनी पांचो सहस्त्र सेना को एकत्र नहीं रखते थे कहीं सौ कहीं दो सौ इस प्रकार उनको भिन्न २ स्थानों में ठहरा दिया था और सर्वदा एक स्थान में भी नहीं रहते थे, मारा कूटा और चल दिया। कतलूखां के पास नित्य यही सम्वाद आता था कि आज चार सौ मरे कल हज़ार मरे, अर्थात सोते बैठते सर्व काल में अमङ्गल समाचार मिलता था। अन्त को लूट पाट सब बन्द हो गई और सेना सब दुर्ग में जा छिपी, आहारादि की भी कठिनता होने लगी। इस उत्तम शासन सम्वाद को सुनकर महाराज मानसिंह ने पुत्र को यह पत्र लिखा।

"कुल तिलक! मैंने जाना कि तू पठान वंश को निर्मूल करेगा अतएव यह दश सहस्र सेना और तुम्हारी सहायता के निमित्त भेजता हूं।"

कुमार ने उत्तर लिखा।

"महाराज यदि आपने और सेना भेजी तो अति उत्तम है नहीं तो आपके चरणों के प्रभाव से इसी पांच सहस्र सेना से मैं अपनी प्रतिज्ञा पालन करता" और सेना लेकर अपूर्व वीरता प्रकाश करने लगे।

अब देखना चाहिये कि शैलेश्वर के मन्दिर में जिस सुन्दरी से साक्षात हुआ था उसका ध्यान जगतसिंह को कुछ रहा या नहीं।

जिस दिन अभिराम स्वामी ने क्रोध करके बिमला को घर से निकाल दिया उसके दूसरे दिन संध्या को वह बैठी अपनी कोठरी में 'कंघी चोटी' कर रही थी। तीस बर्ष की बुढ़िया भी श्रृंगार करती है! क्यों नहीं, मन तो नहीं बूढ़ा होता और विशेषकर के रूपवती तो सर्वदा जवानही रहती हैं। हां कुरूपाके जवानी और बुढ़ापे में भेद होता है। बिमला तो रूप और रस दोनों से भरी पूरी थी वरन पुराना चावल और भी अच्छी तरह खिलता है। उसके लाल २ ओठों को देख कर कौन कहता कि बुढ़िया है, काजल लगे हुए मारू नयनों के कटाक्ष अपने सामने तरुणियों को क्या समझते थे। गोरे २ बदन पर नागिन सी लटैं गालों पर लटकती हुई कैसी भली मालूम होती थी। देखो! बायें हाथ से बालों को पकड़ कर कंघी करती हुइ मूर्ति को दर्पण में देखती और मुसकिराती और धीरे २ रस राग गाती हुई बिमला शांतीपुर की झीनी साड़ी के अंचल से घुटने के बीच में छातियों को छिपाये हुए कामारि के मन में भी काम उपजाती है।

जूड़े को बांंध बेणी पीठ पर लटका दी और एक इतर सुगन्धमय रूमाल से मुंह को पोंछ महोवे की बीड़ी खाय ओठों पर धड़ी जमाय मुक्तामय कंचुकी कस और अंग २ सिजिल कर गुच्छेदार गुरगावी पैर में पहिन गले में वही युवराजदत्त माला धारण किये हुए बिमला तिलोत्तमा के घर चली।

तिलोत्तमा इस रूप को देख कर चकित हो हंस के बोली।

क्यों! आज तो बड़ा मोहनी रूप बनाया है।

बिमला ने कहा 'तुमको क्या?'

ति० भला बता तो आज किसका घर घालेगी?

बि०। मैं कुछ करूंगी तुझको क्या?

तिलोत्तमा ऐसा उत्तर पाय लज्जा से उदास हो गई। तब बिमला ने हंस कर कहा मैं बड़ी दूर जाऊंगी।

तिलोत्तमा फिर प्रफुल्ल बदन हो गयी और पूछने लगी कि कहां जायगी।

बिमला मुंह पर हाथ रख कर हंसने लगी और बोली अनुमान करो कि मैं कहां जाऊंगी और तिलोत्तमा उसका मुंह देखने लगी तब बिमला ने उसका हाथ पकड़ लिया और 'सुनो' कह खिड़की के समीप ले गई और धीरे से कान में बोली "शैलेश्वर के मन्दिर में जाऊंगी वहां एक राजपूत्र से भेंट करनी है।

तिलोत्तमा के शरीर पर रोमांच हो आया और वह चुप रही।

बिमला फिर बोली कि अभिराम स्वामी से हमसे बात हुई थी और उन्हीं ने कहा कि जगतसिंह के सङ्ग तिलोत्तमा का संयोग हो नहीं सकता, तुम्हारा बाप न मानेगा। उनसे इसकी चरचा चला कर बिना लात खाये बच जांंय तो बड़ी भाग।

तिलोत्तमा के चेहरे का रंग उतर गया और मुंह लटका कर बोली 'फिर क्या होगा?'

वि० । क्यों? मैं राजपुत्र को बचन दे आई हूं, आज रात को उनसे मिलकर सब समाचार कहूंगी। अब कुछ चिन्ता नहीं है, देखें वे फिर क्या करते हैं। यदि उनको तेरा प्रेम होगा तो-इतने में तिलोत्तमा ने कपड़े से उसका मुंह बंद कर दिया और कहने लगी "तेरी बातों के सुनने से मुझको लज्जा होती है, तेरे जहां जी में आवे तहां जा न मेरी बात और किसी से कहना न और किसी की बात मुझसे कहना"।

बिमला हंस कर बोली "फिर क्यों इतना भाव करती हो?"

तिलोत्तमा ने कहा तू जा यहां से? अब मैं तेरी बात न सुनूंगी।

वि० । तब मैं मन्दिर में न जाउं—!

ति० । मैं क्या तुझको कहीं जाने को मना करती हूं जहां जी चाहे जा न।

बिमला हंसने लगी और बोली कि तब मैं मन्दिर में न जाऊंगी।

तिलोत्तमा ने सिर झुका के कहा—जा।

बिमला फिर हंसने लगी और कुछ कालान्तर में बोली अच्छा तो मैं जाती हूं और जब तक मैं न आऊं सो न जाना?'

तिलोत्तमा ने मुस्किरा के अपनी सम्मति प्रकाश की।

जाते समय बिमला ने एक हाथ तिलोत्तमा के कन्धे पर धर दूसरे से उसकी दाढ़ी चूम ली और उसके बिदा होते तिलोत्तमा के आँखों से आंसू टपक पड़े।

द्वार पर आसमानी ने आकर विमला से कहा—सर्कार तुझको बुलाते हैं।

तिलोत्तमा ने सुन कर चुपके से आकर "यह श्रृंगार उतार के जाना"। कहा

बिमला बोली "कुछ भय नही है" और विरेन्द्रसिंह के बैठक में चली गई। सिंह जी सैन कर रहे थे और एक दासी पैर दाबती थी और दूसरी पंखा झलती थी। पलंग के पास खड़ी होकर बिमला ने पूछा "महाराज की क्या आज्ञा है?"

बीरेन्द्रसिंह ने सिर उठा कर देखा और चकित हो कर कहा "विमला! आज तू सज के कहां निकली?"

विमला ने कुछ उत्तर न दिया और फिर पूछा कि 'मुझ को क्या आज्ञा होती है?'

बीरेन्द्र ने पूछा तिलोत्तमा कैसी है? अभी कुछ क्लेश सुनने में आया था, अबतो अच्छी है न?

वि०| आप की कृपा से अच्छी है।

बी०| अच्छा थोड़ी देर मुझको पंखा तो झल, आसमानी तू जा तिलोत्तमाको बुला ला और वह पंखा रखकर चली गई।

बिमला ने "इशारे से" आसमानी को द्वार पर ठहरने को कहा।

बीरेन्द्र ने दूसरे दासी से कहा "लक्षिमिन? तू मेरे लिये पान तो लगा ला" और वह भी चली गई।

बी०| बिमला सच बता आज तूने श्रृंगार क्यों किया है।

बि०| कुछ काम है।

बी०| क्या काम है बता न?

बि०| अच्छा सुनिए, और कामोद्दीपक कटाक्ष से वीरेन्द्र की ओर देखने लगी और बोली "मैं अपने यार के पास जाती हूं" और तुरन्त वहां से चल खड़ी हुई।

नौवां परिच्छेद : आसमानी दूती

बिमला के संकेत के अनुसार आसमानी द्वार पर खड़ी थी। बिमला ने आकर उस्से कहा आज तुझ से एक बात कहनी है। आसमानी ने कहा कि मैं तेरा वेश देख कर पहिलेही समझ गई थी आज कुछ है।

बिमला ने कहा "मुझको आज एक काम के लिये जाना है और अकेली रात में जा न सकूंगी अतएव तुझको संग ले चलूगीं।"

आसमानी ने पूछा "कहां?"

बिमला बोली तूंने तो पहिले इतनी बातें नहीं पूछीं थी।

आसमानी ने लजा कर कहा अच्छा तूं यहीं ठहर मैं थोड़ा काम कर के आती हूं।

बिमला ने कहा एक बात और है, तुझको कोई पहिचानता तो नहीं?

आसमानी ने पूछा, कौन?

बिमला ने कहा जैसे कुमार जगतसिंह से भेंट हो जाय तो वे तुझको पहिचान लेंगे।

आसमानी कुछ देर तक चुप रही और फिर गद गद स्वर से बोली "ऐसा कौन दिन होगा?"

बिमला ने कहा यदि हो तो?

आसमानी ने कहा 'कुमार न चीन्हेंगे तो कौन चीन्हेगा?'

बिमला बोली 'तब मैं तुझको न ले चलूंंगी और किसी को ले जाऊंगी क्योंकि अकेले तो जाऊंगी नहीं।

आसमानी ने कहा कि कुमार के देखने को बहुत जी चाहता है।

बिमला बोली फिर मैं क्या करूं, और सोचने लगी। और आसमानी मुंह पर कपड़ा लगाकर हंसने लगी।

बिमला ने भौंह चढ़ा कर कहा 'चल, वाह! अपने आप हंसती है।

आसमानी ने कहा मैं सोचती हूं कि चांद दिग्गज को तेरे संग करदूं तो अच्छा होय।

बिमला ने कहा "हां यह बात ठीक है, रसिक दासही को संग ले जाऊंगी।,,

आसमानी ने कहा "और मैं क्या हंसी करती थी?"

बिमला ने कहा "हंसी नहीं,मैं उस ब्राह्मण को पतियाती हूं और वह तो पोंगा हुई है—किन्तु वह जाय या न जाय!,, आसमानी ने हंसकर कहा वह मेरा काम है, मैं उसको अभी लिये आती हूं तब तक तू फाटकके बाहर खड़ी रह और हंसते हंसते दुर्ग के एक कुटी की ओर चली।

अभिराम स्वामी के शिष्य गजपति विद्या दिग्गज इसीमें रहते थे। इनका डोल साढ़े पांच हाथ का था, छाती हाथ भर की चौड़ी, लम्बी२ टागें, कुवड़ी पीठ और लम्बी नाके एक अद्भुत स्वरूप दिखलाती थी। माथे के बाल कुल श्वेत हो गए थे बरन टूट२ झरते भी जाते थे और वही मसल थी कि 'सौंच के पानी नाहीं नाम दयीवसिंह।' नाम तो इनका विद्या दिग्गज था परन्तु पढ़े लिखे कुछ ऐसेही थे बाल्य अवस्थामें तो व्याकर्ण प्रारम्भ किया था और साढ़े सात महीने 'महर्णोर्घ' लक्षण शुद्धता पूर्वक नहीं आया। भट्ठाचार्य्य महाशय के अनुग्रह से विद्यार्थियों में बैठ कर पन्द्रह वर्ष में शब्दकाण्ड समाप्त किया जब दूसरा काण्ड आरम्भ होने का समय आया तो गुरूजी ने कहा कि देखैं इसको कुछ आया कि नहीं और परीक्षा लेने बैठे। पूछा कि राम शब्द के परे अम होने से क्या रूप होगा। शिष्य ने देर तक सोच के कहा 'रामम्भा।' गुरू ने कहा "बेटा अब तू पण्डित हो गया अब अपने घर जा मैं तुझको नहीं पढ़ा सकता है।"

गजपति ने अहंकार पूर्वक कहा यदि मै पण्डित हो गया तो मुझको कोइ उपाधि मिलना चाहिये।

गुरु बोले हां ठीक है, अच्छा मैंने तुमको विद्या दिग्गज का पद दिया। दिग्गज ने प्रसन्न होकर गुरु का चरण छू कर प्रणाम किया और घर की राह ली।

घर में आकर दिग्गज पण्डित ने विचारा कि व्याकरण तो मैं पढ़ चुका अब कुछ स्मृति पाठ करना चाहिये और सुनते हैं कि अभिराम स्वामी बडे़ पंडित हैं उनके व्यतिरिक्त और कोई हमको भलीभांति पढ़ा न सकेगा, इससे उनके पास चलना अवश्य है और तदनुसार दुर्ग में पहुंचे। अभिराम स्वामी बहुतों को पढ़ाते थे पर किसी के ऊपर विशेष स्नेह नहीं करते थे। दिग्गज भी उनही में मिल गए।

दिग्गज अपने मन में जानते थे कि मैं केवल लीला करने को उत्पन्न हुआ हूं, और इस मेरे वृन्दावन में ईश्वर ने आसमानी को गौ रूपी बनाया है। आसमानी का भी जी बहुत लगता था और कधी २ बिमला भी आकर इस कौतुक की भागी होती थी।

"आज तो मेरी राधा आती है" "वाह विधाता आज तो तू ने दया की।"

दसवां परिच्छेद : आसमानी का प्रवेश

विद्या दिग्गज की मनमोहनी आसमानी के रूप देखने की इच्छा पाठकों के मन में अवश्य होगी परन्तु उसका वर्णन बिना सरस्वती की सहायता नहीं हो सकता अतएव देवी का आवाहन करता हूं।

हे वागदेवी! हे कमलासनि! हे शरदेन्दु आनन धारिणी! हे अमलकमलवत् भक्तवत्सल चरन! हे आज मैं तुम्हारीही शरण चाहता हूं। आसमानी के रूप वर्णन में मेरी सहायता करो हे महेश मुख चन्द्र चकोरी! हे जगदंब! दया पूर्व्वक साहस प्रदान करो मैं रूप वर्णन की इच्छा करता हूं। हे विद्याप्रदायनि! हे अधम उधारणि! हे अविद्या तिमिरनाशकारिणि! मेरे हृदय के मतिमन्दता रूपी अन्धकार का नाश करो। हे माता! तेरे दो स्वरूप हैं, जिस रूप से तूने काली,दास को बर देकर रघुवंश , कुमार सम्भव, मेघदूत और शकुन्तला की रचना कराई, जिस बर के प्रभाव से बाल्मीकि ने रामायण, भवभूति ने मालती माधव, और भारवि ने किरातार्ज्जुनीय बनाई वह रूप धारण करके मुझ को क्लेश न दे, जिस रूप के ध्यान से श्रीहर्ष ने नैषध बनाया, भारतचन्द्र ने विद्या का अपूर्व रूप वर्णन किया जिसके प्रसाद से दाशरथी राम का प्रादुर्भाव हुआ और जो मूर्ति अद्य पर्यन्त बटतला में विराजमान है, उसी स्वरूप का टुक मुझको दर्शन दे, में आसमानी के रूप राशि का वृत्तान्त लिखूंगा।

आसमानी की वेणी नागिन की भांति पीठ पर लटकती थी उसको देख उर्गिणी मारे भय के बिल में समाय गई । बिधना ने देखा कि हमारी सृष्टि में विघ्न पड़ता है, सांपिन बिल में रहेगी तो मनुष्य को काटैगी कौन? और पोंछ पकड़ कर बाहर खींच लिया। फणिनी झुंझला कर सिर पटकने लगी यहां तक कि माथा चिपटा होगया, उसीको अब लोग फण कहते हैं। मुंह आसमानी का अत्यन्त सुंदर था। चन्द्रमा मारे लज्जा के छिप रहे और ब्रह्मा के पास फ़रियाद लेकर गए, ब्रह्मा ने उन को समझा कर फिर भेजा और कहा कि जाओ अब स्त्रियां घूंघट से मुंह छिपाये रहैंगी, किन्तु भय के मारे आज तक उनका कलेजा सूखकर काला हो रहा है। नयनों को देखकर खजानोंने बस्ती को रहना छोड़ जंगल की राहली, विधना डरीं कि ऐसा न हो कि ये भी उनके पीछे चले जाय, इस कारण दो पलक बना के पिंजड़े में बन्द रक्खा। नाक गरुड़की इतनी लम्बी थी कि आज तक पक्षिराज उसके भयसे उड़ते फिरते हैं। ओठों की लाली देख दाड़िम ने बंगदेश का रहना त्याग किया। हाथियों ने बड़ा श्रम किया कि आसमानी को चाल में परास्त करैं, पर असमर्थ हो ब्रह्मदेश को भागे, जूड़ा की ऊंचाई देख धवलागिरि के मन में बड़ा सोच हुआ और बहुत कसमकस किया पर क्या करैं डील से हैरान थे, अन्त को न रह गया और रोने लगे कि आज तक नदी प्रवाह द्वारा आंसू चले जाते हैं।

परन्तु निष्कलंक तो संसार में इश्वर ने अपने अतिरिक्त और किसी को रक्खाही नही। इस अनुपम सौन्दर्य्य के साथ एक फ़ी भी लगी थीं, आसमानी विधवा थी। उसने दिग्गज के कूटी में आकर देखा की द्वार बन्द है और भीतर दीप जल रहा है। पुकारा महाराज।

किसी ने उत्तर नहीं दिया। फिर कहा "पण्डित।"

अभी भी कोई नहीं बोला।

वाह भीतर क्या करता है? ओ रसिकदास स्वामी उत्तर नहीं आया।

आसमानी ने द्वार के छेद में से देखा कि ब्राह्मण बैठा भोजन करता है इसी कारण बोलता नही मन में कहा वस्तुतः यह बोलकर फिर नहीं खाता और फिर पुकारा अरे ओ रसिकदास।

किसी ने उतर न दिया।

ऐ रसराज?

भीतर से शब्द 'हुम'

आ०| बोलते क्यों नहीं, फिर खा लेना?

उत्तर आया हूं-ऊं-ऊम?

आसमानी मुंह पर कपड़ा देके खिलाखिला कर हंसी और बोली—यह लो यह बात नहीं है?

दि०| ठीक, ठीक, ठीक, तो फिर अब न खाऊंगा।

आ०| हां २ उठ कर मुझको कपाट खोलदे?

आसमानी ने छेद में से देखा कि दिग्गज ने बहुत सा भात छोड़ दिया और कहा।

'नहीं नहीं वह भात तो सब खा जाओ।

दि०| नहीं अब क्या खांऊ, अबतो बात कह दिया।

आ०| नहीं २, न खाओ तो हमको खाओ'।

दि०| राधे कृष्ण! बात कह कर कोई खाता है।

आ०| अच्छा तो मैं जाती हूं मुझको तुमसे एक बात कहनी थी, अब कुछ न कहूंगी, लो जाती हूं।

दि०| नहीं नहीं, आसमानी रूठो न, एलो मैं खाता हूं। और बैठ कर खाने लगा। जब दो तीन ग्रास खा चुका तब आसमानी ने कहा, चलो हुआ अब केवाड़ खोल दो।

दि०| इतना यह भी खा लूं।

आ०| अभी भण्डार नहीं भरा, उठो नहीं तो मैं कह दूंगी कि तूने बात कहके फिर खाया।

दि०| नहीं नहीं, ए देख मैं उठा और मुंह बिचका कर रहा सहा भात छोड़ कर कवाड़ खोल दिया।

  • बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास हिन्दी में
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