डॉट पेन (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Dot Pen (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
सुबह से घर-गृहस्थी का
काम ठीक-ठाक ही चल रहा है। कहा से भी कोई बेसुरी आवाज नहीं आयी कि शान्ति
में बाधा पड़े।
सवेरे-ही-सवेरे
लोड शेडिंग नहीं हुई (जैसी कि आये दिन हो जाया करती है) वर्ना पानी खींचने
वाला पम्प अपाहिज पड़ा रहता। वर्तन माँजने वाली सुधा बाई सुबह के समय आ गयी
है। वर्ना ज्यादातर होता यह है कि वह बिना नोटिस दिये गायब हो जाती है। और
इसी तरह रसोई की गैस भी सही-सलामत है...वर्ना चाय गरम करने की केटली चढ़ाई
नहीं कि वह अक्सर ची बोल जाती है। और ही...असीमा और आनन्दी के बीच हर घड़ी
चलने वाली ठण्डी और खामोश लड़ाई अचानक किसी छोटी-मोटी वजह से मुखर नहीं हुई
है...जैसा कि जब-तब या कभी भी भड़क उठती है।
कहना
चाहिए कि आसमान साफ है और बादलों का दूर-दूर तक पता नहीं है। यहाँ तक कि
पराशर और परमेश दोनों के ही धीरज खो जाने के पहले ही अखबार आ चुका है।
टुटुन और मिठुन की स्कूल बस घड़ी के काँटे से काँटा मिलाकर दरवाजे पर खड़ी
है। स्कूल बैग में किताब-कापियाँ ठूँसकर और माँ के लाड़-दुलार से भरे टिफिन
बॉक्स के बोझ से दबे बच्चों को अपनी गोद में उठाकर वह अपनी मंजिल की तरफ
कूच कर गयी है।
इसके
तुरत बाद ही, पराशर और परमेश का खाना भी मेज पर लग चुका है। होता यह रहा
है कि दफ्तर जाने के पहले यह खाना कभी बिना डाँट-फटकार के परोसा नहीं गया
है।
अपनी
मस्त चाल और सुचारु ढंग से चलने वाले इस संसार-चक्र में अचानक 'खच्चाक',
की आवाज सुन पड़ी और डसके साथ ही...झन्नाहट भरा जोरदार स्वर गूँजने लगा।
इसकी
वजह तब समझ में आयी जब पराशर और परमेश दफ्तर जाने को घर से बाहर निकलने को
ही थे। लीलावती सवेरे से ही घर से गायब थीं। इसकी भी एक वजह थी। लीलावती
चाहे जहाँ भी हों और भले ही किसी जरूरी काम में उलझी हों...या फिर पूजाघर
में ध्यानस्थ बैठी हों बच्चों के दफ्तर जाते समय 'दुर्गा...जय दुर्गा'
करती-करती दरवाजे पर आ खड़ी होती हैं। आज वे दरवाजे पर खड़ी न थीं।
"माँ कहीं है'' परमेश ने
पूछा।
"मा...?"
बहुओं ने इधर-उधर देखा।
''कहां गयी...इधर तो नहीं
दीख रही।''
नहीं दीख रहीं...। इसके
क्या मानी? हम लोग खाने पर बैठ गये...यह बताया गया था उन्हें?
सोनू पूजाघर तक जाकर बता
दिया था उन्हें।
''अरे इतनी खुसर-पुसर
क्या लगा रखी है?'' पराशर चीख पड़ा, ''आज बताकर आयी थी? अरी ओ सोनू?''
सोनू
ने छूटते ही जवाब दिया था कि वह तो अभी-अभी मदर डेयरी और दूध के डिपो से
आकर खड़ी हुई है। दोनों काका वाबू कब खाने कौ वैठ, उसे भला क्या मालूम?
''तो खड़ा-खड़ी मुँह क्या
देख रही है। जा, दौड़कर देख आ पूजाघर और उनको जाकर बता दे कि हम लोग जा रहे
हैं।''
परमेश
ने तमतमाते हुए कहा, ''औह...यही सब तो मुसीबत खड़ी कर देती है आजकल माँ
तीन-तीन घण्टे पूजा-पाठ? अरे जाकर देख तो सही कहीं समाधि में अ तो नहीं
गयी हैं?''
उसने दरवाजे की तरफ पाँव
बढ़ाया था...सोनू ने आकर बताया, ''नहीं ध्यान-व्यान में डूबी नहीं हैं। वे
पूजाघर में हैं ही नहीं।''
''पूजाघर में नहीं हैं?''
''तो
फिर? वात क्या हुई? गयी कहाँ? भण्डार घर में तो नहीं बैठी? या अनाज वाले
कमरे में..। तूने छत पर देखा...या फिर छत पर फूल के गमलों में खुरपी तो
नहीं चला रही हैं।''
''नहीं बाबू....छत पर भी
नहीं हैं।''
''तू एक बार जा और अच्छी
तरह देख आ।''
सोनू भरिा कदमों से ऊपर
गयी और मुँह लटकाकर वापस लौटी।
''मैंने कहा न...कि छत पर
नहीं हैं।''
''अरे कहीं अपनी चारपाई
पर ही तो नहीं पड़ा हैं। वहाँ देखा तुमने? कहीं उनकी तबीयत तो नहीं बिगड़
गयी?''
सोनू ने पाँव पटकते हुए
कहा, ''यह लग कह रहे हो...बाई के आने पर राज
की तरह दादी ने ही तो
दरवाजा खोला था। इसके बाद पम्प चलाया।''
''इसके बाद?''
''इसके बाद नहाने-धोने को
चली गयीं...बाथरूम।"
''फिर?''
''फिर मैं क्या जानूँ...?
मैं क्या दादी जी की सेवा-टहल में लगी थी...मुझे और अपना काम नहीं करना'''
''और ये बहुएँ कहीं
थी?...असीमा...और आनन्दी?''
और
उन दोनों को ही इस बारे में क्या पता? ये सब सबेरे से ही काम के दबाव से
कहीं...किसी ओर आँख उठाकर न तो देख सकती हैं और न सुन सकती हैं। बच्चों को
तैयार कर स्कूल भेजना, उनका नाश्ता तेयार करना। बाबुओं का खाना। दम मारने
तक की फुरसत नहीं...वे भला कैसे जान पाएँगी कि सास कहाँ बैठी हैं...और
कहाँ किस गोरख धन्धे में पड़ा हैं।
अब बेटों ने और भी जोरदार
सवाल उछाला, ''तो क्या उन पर ध्यान नहीं रखना चाहिए? बहाने बनाती हो...यह
देखोगी नहीं कि कहाँ चली गयी?''
इसके
साथ ही बहुएँ टूट पड़ती हैं, ''घर में हरएक आदमी के पास जोड़ी भर आँख और एक
जोड़ा कान है।'' इस उतावलेपन में बुद्धिमति-गति भी जाती रहती है।
बहुओं के ऊपर दोनों ही
गरज पड़ते हैं, "यह सब देखना-सुनना हमारा काम है?''
''क्यों नहीं है?...हम सब
घर की बहुएँ हैं, क्या यही हमारा गुनाह है? सबेरे से ही वे पूजाघर में
जाकर बैठ जाती हैं...?''
''बस तो ठीक ही है। लेकिन
आज तो ऐसा कुछ नहीं हुआ।''
अचानक आनन्दी ने जोड़ा,
''हो सकता है गंगा-टंगा स्थान को निकल गयी ही।
सोनू अपनी हँसी रोक न
पायी। बोली, ''यह टंगा क्या होता है, चाची? टाँगा!''
''चुप
भी रहा कर!'' पराशर ने उसे डपटते हुए छोटी बहू की तरफ देखकर पूछा, ''अचानक
गंगा-स्नान की बात कहाँ से आ गयी? आज कोई पूजा-पार्वन तो नहीं है?''
''यह तो नहीं मालूम।
लेकिन कभी-कभार के निकल ही जाती हैं।"
''कभी-कभार। बराबर तो
नहीं? क्या अकेली ही जाती हैं? किसी को बताकर नहीं जातीं?''
''इसमें पूछने और बताने
की क्या जरूरत है। सामने अगर कोई दीख गया तो
बता
देती हैं। लगता है आज कोई दीखा नहीं। और अकेले तो कभी वैसे भी नहीं जाती
हैं। मोहल्ले की औरतों के साथ ही जाती रही हैं। कल शाम को भी दत्ता साहब
की पत्नी के साथ खूब हिलहिलकर बातें कर रही थीं।''
पराशर
एक सरकारी दफ्तर में नौकरी कर रहा है। वह ज्यादा देर रुक नहीं सकता। उसने
कहा, ''सोनू तू जरा दत्ता बाबू के घर जाकर देख तो आ।''
''...? चलो....अब और
ढूँढ़ती रहो.... ढेर सारी जगहें तो ढूँढ़ ली गयीं।'' कहकर थोड़ी-बहुत राहत
के साथ पराशर जल्दी से चला गया।
चूँकि परमेश की नौकरी आधी
सरकारी है....बल्कि कहना यह चाहिए कि बे-सरकारी ह्रै। इसलिए वह थोड़ा
इन्तजार कर सकता है।
वह जमीन पर पाँव पटकता
हुआ सोनू के आने की प्रतीक्षा करता रहा।
सोनू
ने आते ही मुँह बिचका दिया और बोली, ''दादी माँ उनके घर नहीं गयी। दत्ता
बाबू की माँ साग बीन रही थीं। उन्होंने बताया कि गंगा नहाने की बात कब और
कहीं से आ टपकी?''
असीमा
इतनी देर तक रसोंईघर में खाना पकाने का काम निपटा रही थी। आज खाना पकाने
की उसकी वरिा थी। और जिस दिन उसके जिम्मे खाना पकाने का काम होता वह दिन
को ही शाम का भी ज्यादातर खाना पकाकर रख देती और फ्रीज में डाल देती।
वैसे
खाना पकाने का काम तो वह हाथों से ही कर रही थी। कान तो डुधर ही लगे थे।
वह बाहर निकल आयी और पल्लू से हाथ पोंछती हुई बोली, ''तूने जब देखा कि
उनके घर में नहीं है तो तूने टुनटुनी के घर और गोपाल के घर जाकर क्यों
नहीं देखा? उनकी काकी के साथ भी तो वे कभी-कभी ठाकुरबाड़ी या झूलाबाड़ी चली
जाती हैं। टाबू की बुआ के साथ भी...''
''हां,''
सोनू ने झुँझलाकर जवाब दिया, ''और मुझे कोई काम तो करना है नहीं। इसीलिए
सुबह-सबेरे तुम लोगों की लावारिस और भटकी हुई गाय खोजती फिरूँ।''
सोनू वैसे तो फ्रॉक ही
पहनती है इसलिए उसकी बातचीत का तेवर उसकी माँ सुधावासिनी से कम हो, यह
जरूरी नहीं है।
कोई
और दूसरा मौका होता तो लोग इस बात को हँसी में उड़ा देते या उस पर ध्यान न
देते। लेकिन अभी लीलावती देवी के छोटे बेटे परमेश की नसों में दूसरे ही
तरह की उत्तेजना थी। उसकी नौकरी सरकारी नहीं थी लेकिन ऐसा न था कि वह इसकी
अनदेखी कर पाये। भैया तो बहाने बनाकर पहले ही खिसक चुके थे।
इसलिए
इस घड़ी परमेश को उस छोटी-सी छोकरी की गज भर जुबान पर हँसी नहीं आयी। उसने
उसे बुरी तरह डपट दिया, ''चुप शैतान कहीं की! जो जी में आता है...बक देती
है।''
असीमा
को ऐसा जान पड़ा कि कहीं कोई बम फटा। दरअसल गुस्सा तो किसी और के लिए था और
गान कहीं और गिरी थी। उसका टिमाग मारे गुस्से के सातवें आसमान पर चढ़ गया।
लेकिन
इस समय उस गुस्से को जाहिर करना ठीक नहीं होगा। जब मौका आएगा तब टेखेगी।
उफ....बड़ा सेब झाड़ा जा रहा जेल। तुम सबकी माँ कहीं-कहाँ जाती है तो क्या
हमें कभी बताकर भी जाती है।
घर
में रात-दिन अपना थोड़ा इस तरह लटकाये रखती हैं मानो फाँसी की सजा सुनाई
गयी हो लेकिन कोई मिलने-जुलने वाली आयी नहीं कि...खैर! असीमा ने साड़ी के
आँचल को पीठ पर फैलाया और चप्पल में पाँव घुसेड़कर बोली, ''ठीक है...मैं
देखकर आती हूँ।''
परमेश
ने घर के पास वाली स्टेशनरी की दूकान से नकद रुपये देकर दफ्तर को फोन करके
यह बता दिया कि किसी खास काम की वजह से वह अटक गया है। दफ्तर पहुँचने में
थोड़ी देर होगी।
'सबका
साथी' दूकान का मालिक है अरविन्द। परमेश का लँगोटिया यार। लेकिन बचपन का
यह दोस्त ऐसा बेशरम है कि टेलीफोन करने के पैसे पहले ही रखवा लेता है।
उधार के पैसे तो बहुत टूर की बात है। बेशरमी की हद तो इसी से देखी जा सकती
है कि उसने टेलीफोन के स्टैण्ड पर एक नोटिस लगा रखी है जिस पर लिखा
है-''पैसा फेंक...तमाशा देख।''
और मजा तो तब आता है जब
वह किसी की नजर में न आए...।
परमेश
वापस लौटा तो भाभी वापस आ चुकी थी। वह अपनी देवरानी को बता रही थी कि वह
तीन-तीन घरों का चक्कर लगाकर आ रही है। सारी घरवालियाँ तो घर में ही बैठी
हैं। बस इसी घर की मालकिन सवेरे से ही हवा हो गयी हैं। आखिर गायब कहाँ हो
जाएँगी। जरा दौड़कर तो देख रिक्शा-स्टैण्ड तक। हो सकता है...घड़ी की तरफ
देख-देखकर उसके तलवे की आग सिर पर सुलगने लगती है।
परमेश
अपनी माँ समान भाभी के लिए मन-ही-मन एक भद्दी-सी गाली उचारता है और अपनी
पत्नी की तरफ ताककर उखड़ी आवाज में पूछा, ''आखिर माँ अकेली और कहाँ-कहीं जा
सकती हैं?''
''और कहाँ जाएँगी? या तो
तुम लोगों की छोटी मौसी के यहाँ....या फिर घण्टू मामा के घर। हो सकता है
बुबु बुआ से मिलने चली गयी हों।''
''और कहीं?''
''ना...और
तो कुछ याद नहीं पड़ता।...और हम लोगों को कुछ बताकर जातीं भी नहीं? जाने के
समय कोई दीख गया तो बस इतना भर कहकर निकल जाती हैं कि अभी आयी। जब लौटकर
आती हैं ढेरसारे किस्से फदकती रहती हैं...'उनके यहाँ का यह बड़ा अच्छा
है...वह बड़ा खूबसूरत है। अमुक के सारे बाल-बच्चे गुणों की खान
हैं...बोधिसत्त्व के अवतार हैं।' तभी पता चलता है कि किसके यहाँ चरणों की
धूल देन को गयी थी।''
पत्नी
तेजी से क्या-कुछ बड़बड़ाती चली जा रही थी लेकिन परमेश ने उसकी आखिरी
बातों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। अगर औरतों की सारी बातों पर कान दिया
जाए तो मदों के लिए जीना दुश्वार हो जाए।
वैसे
शुरू की बातों को सुनकर परमेश को थोड़ी-बहुत तसल्ली हुई। डूबते को तिनके का
सहारा मिला। ऊपर जिन तीन घरों के बारे में बताया गया था, उनमें से दो के
यहीं टेलीफोन थे...और तीसरा बस टर्मिनल के पास था।
उसने
कहा, ''ठीक है। में एक रिक्शा लेकर सबसे पहले बुबु मौसी के यहाँ निकल जाता
हूँ। मैं वहाँ से देख-सुनकर बाकी दो घरों में फोन कर देखूँगा।''
उसने
मन-ही-मन सोचा...इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता है? थाना-पुलिस कर पाना
तो सम्भव नहीं होगा अभी। हो सकता है परमेश के घर से निकलते ही वे वापस आ
जाएँ। इन बहुओं के साथ ठन गयी होगी इसलिए जी खट्टा हो गया होगा और वे किसी
के घर जा बैठी हैं। ऐसा ही कुछ हुआ होगा...बल्कि हुआ है। वह बड़ा बहू तो
छोटी-मोटी तोप ही है।
लेकिन
बात यह नहीं थी...लीलावती किसी के घर जाकर नहीं बैठी थी। बुबु बुआ ने
हैरानी से कहा, ''आ...माँ...यह क्या कह रही हो...? लीला भाभी अकेली तो कभी
भी...कहीं भी घूमने-फिरने नहीं निकलती हैं। यहीं तो बहुत दिनों से नहीं
आयी हैं।''
छोटी
मौसी ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया, ''नहीं तो...। पिछले सोमवार को थोड़ा देर
के लिए हाल-चाल पूछने को आ गयी थी। रुकीं ही नहीं, बस...अपने घर-संसार की
चिन्ता में ही घुलती रहीं...और नहीं तो क्या?''
और घण्टू मामा का भी यही
जवाब था।
''लीला?
महीनों से यहाँ नहीं आयी। सुबह से ही घर में नहीं है वह...इसका क्या? घर
के लोग तक नहीं जानते कि कहीं गयी? धन्य है बेटे...तुम्हारा घर-संसार।
कहीं किसी मठ मन्दिर में भी जाती है? वहीं अगर कोई उत्सव या समारोह हो रहा
हो...पता नहीं। क्या खूब। वैसे ज्यादा परेशान होने की बात नहीं है। हो
सकता है अब तक आ गयी हो। मैं शाम के समय घर आऊँगा तो उससे मिल लूँगा।''
परमेश
ने मन-ही-मन कहा, हमारा सर खाने...और क्या? उसने फोन का चलो नीचे रख दिया।
उसने सोचा, उससे बड़ी भूल हो गयी है। उसे घर में बता आना चाहिए था कि माँ
जब वापस आ जाएँ तो उसे इस वात की सूचना दे दी जाए। घर में दफ्तर का फोन
रखा है। लेकिन इस बात की चिन्ता घर की बहुओं को होगी? और सारी वातों में
तो बड़ी बहूरानी जरूरत से ज्यादा चौकस हैं। लेकिन कोई काम की बात...।
तभी फोन की घण्टी झनइाना
उठी।
''कौन
है ही...बात क्या है। वापस आ गयीं? नहीं लौटी...? अच्छा तो
आकर...सुनूँगा..। भैया को यहीं से बता दूँगा। लेकिन बात क्या हुई।
हां...हो गयी। हैलो...हैलो...चलो...चली गयी।''
इधर घर की तसवीर कुछ डस
तरह की है...
सबेरे
मौहल्ले में जिन-जिन घरों में श्रीमती लीलावती की तलाश की गगी थी उन घरों
की महिलाएँ एक-एक घर आने लगी थी। उनमें से सब-की-सब अपने गालों पर हाथ
टिकाये बैठी थीं और जिरह में व्यस्त थीं।...''अच्छा.. तो कब से लीलावती
दीख नहीं रही। उनको सबसे बाद में किसने देखा था...! किसी से कुछ बताया भी
नहीं?...सवेरे किसी ने उसे पूजाघर में आते या वहाँ से निकलते नहीं देखा?
आखिर बात क्या हुई?''
यह
लीलावती नाम की महिला अचानक सबकी आँखों में धूल झोंककर...बेटे-बहू को
वताये बिना इस तरह कहीं चली जाएगी! सबकी सब इस पहेली को सुलझाने में लगी
हैं।
लेकिन इन तमाम सवालों के
जवाब ढूँढ़ने में सोनू ने बड़ी सहायता की है। और इस मामले में उसकी भूमिका
ही सबसे अहम है।
सोनू...पूरा
नाम स्वर्णमयी...सुधाहासिनी की बेटी। एकदम मुँह-अँधेरे अपनी माँ के साथ
चली आती है। पूरे दिन इस घर में रहती है। काम-धाम करती है। खाती-पीती है।
रात के समय उसकी मार उसे साथ लिवा ले जाती है। उसका घर पास ही है।
पहले-पहले
तो सोनू अपनी शानदार भूमिका निबाहते हुए उसमें जरा भी रद्दोबदल करने को
तैयार न थी। और बार-बार एक जैसे सवाल उत्तर देते-देते वह तग आ गयी थी,
''मैंने बताया न नहाने के लिए बाथरूम में घुसी।...मैंने अपनी आँखों से
देखा। इसके बाद कहीं बिला गयीं...मैं क्या जानूँ? मैं तो यही सोच रही थी
कि खनतले पर पूजा वाले घर चली गयीं। और सबेरे-सबेरे तो हमारे लिए दादी माँ
ही हरधाजा खोलती हैं। बन्द घर की चाबी भी उन्हीं के पास रहती है।''
मोहल्ले
भर की स्त्रियाँ विदा होने के बाद, मोहल्ले भर की बुआजी श्रीमती बुलबुल
उर्फ बुबु बुआ भी पधारीं। एक बार फिर सारी राम-कहानी सुनाई गयी।
बहुओं
ने अपने होठों को चबाते हुए कहा, ''सारा दोष तो हमारे ही मत्थे मढ़ा जाएगा।
लेकिन वे कहीं-कहीं गुलछर्रे उड़ाने जाती हैं...हमें कभी बताती भी हैं।''
''ठीक
है...कभी-कभार...शाम या दोपहर को थोड़ा-बहुत जरूर धूम-फिर आना चाहिए। लेकिन
यह क्या...सवेरे-सवेरे पूजा-पाठ किये बिना निकल गयी...हां...चाय-वाय पी भी
थी उसने...?''
''चाय
क्यों नहीं पीएँगी भला? जब पूजा-घर से उतरती हैं, तब पीती हैं। हम जैसे
प्लेच्छों के हाथ बनी चाय थोड़े ही गले से उतरेगी। खुद ही बनाती हैं और
पीती हैं।''
''अच्छा...थोड़ी
देर और देख लेती हूँ। वैसे घर पर भी...'' बुबु बुआ के घर में आज क्या खास
बात है...यह सुन लेने के पहले मिठुन और टुटुन के स्कूल-बस का हॉर्न सुनाई
पड़ा। सोनू दौड़ती हुई गयी अपनी जिम्मेदारी निभाने। उन दोनों के स्कूली बैग
उठाकर लाने का भार सोनू पर ही था।
उन दोनों के अन्दर आते ही
उनके ऊपर सभी एकबारगी टूट पड़े, ''अरे तुम दोनों ने सुबह के समय स्कूल जाने
के पहले दादी को देखा भी था?''
मिठुन की उम्र साढ़े तीन
साल है और टुटुन की पाँच। इसलिए निशाने पर मिठुन ही था।
''दादी
माँ को!...ही, क्यों नहीं देखूँगा...? मुझे मुँह धोने में थोड़ी-देर हो गयी
थी...। मैंने बाथरूम के दरवाजे पर जब धक्का दिया। वे गीले कपड़े में बाहर
निकल आयीं और वोली, बाबा...ह...इत्ते छोटे-से हाथ में इत्ता जोर।''
''अच्छा...। तो
फिर...इसके बाद?''
''बस...इसके
बाद क्या? बुबु बुआ...। कब आयीं,'' और वह हँसने लगा। अ बुआ वैसे तो इन
दोनों के बाप की मुँहबोली बुआ थीं लेकिन ये सब भी उसे बुआ कहकर बुलाते थे।
''बस...! अभी थोड़ी देर
पहले।...तेरी दादी माँ कहीं मिल नहीं रही हैं...यह सुनकर।''
''क्या?''
टटन जैसे उछल पड़ा। उसने
बताया, ''इसके बाद दादी ने मुझसे एक कागज और पेन्सिल माँगा था।''
''अच्छा, कागज और पेन्सिल
माँगा था?''
''हां
फिर...मैंने कहा अभी कागज कहीं मिलेगा? तो फिर ये...'' टुटुन ने उस समय की
सारी बातों को याद करते हुए कहा, ''हां...ये कहा कि तो फिर पेन्सिल ही दे
दें।...ही....ही...दादी डाँट पेन को पेन्सिल ही कहती हैं।''
''जाने भी दो...। जो
चाहें कहती रहें। इसके बाद तुमने क्या किया?''
ऐसा लगा कि रहस्य और
रोमांच की गिरह खुल रही है।
''इसके
बाद मैंने एक बालपेन निकालकर दिया। दादी ने...ही...ही...पता नहीं ठोंगे के
कागज पर क्या कुछ लिखा। फिर गुस्से में केहा...क्या खाक पेन्सिल है...।
इससे तो कुछ लिखा ही नहीं जाता। अब...ठीक उसी समय रिफिल खतम हो गयी तौ
इसमें मेरा दोष...अँ...ही...।''
लीलावती
की बहुओं की नाक और गींख से आन की लपट-सी निकल रही थी। और ठीक ऐसी ही
नाजुक घड़ी में काल-चण्डी की साक्षात् अवतार घर आकर बैठी हुई थीं। लीलावती
ने रहस्य का कैसा उलझा हुआ जाल फैला रखा है और उसी की एक साक्षी दी जा रही
है।
टुटुन
थोड़ा परेशान दीख पड़ा। उसने अपनी हाफ प्लेट की जेबों में हाथ डाला और
इन्हें टोहते-टटोलते बोल उठा, ''फिर तो दादी माँ गंगा में डूब मरने को ही
चली गयीं।''
"अंऽ...ऽ क्या कहा तूने?
इसका क्या मतलब...? आखिर तू ऐसा क्यों कह रहा है? बात क्या है?''
आसपास घिरे लोगों ने एक
साथ यह सवाल किया था...'' उन्होंने तुमसे कुछ कहा था? बता तो
सही...बता...जल्दी बोल...?''
टुटुन के गले से हकलाती
और सूखी-सी आवाज निकली, ''वह बोली...टुटुन...अगर मैं ना रहूँ...तो तुझे
बड़ा दुख होगा न...?''
''अच्छा...ऐसा कहा? तो
फिर तूने क्या कहा?''
टुटन
ने धूक घोटते हुए कहा, ''मैंने कहा था...कि...मुझे भला क्यों दुःख
होगा...? तुम क्या कभी मेरे जूते...किताब...काँपियाँ सहेजकर रखती भी हो।
मेरी टिफिन में खाने-पीने की चीजें डालती हो?''
''तूने ऐसा कहा था?
हां...तू तो बड़ा ही बेहूदा है रे...तुझे अपनी दादी माँ से जरा भी प्यार
नहीं।"
यहाँ
बेहूदा गाली का प्रयोग टुटुन पर ही किया गया था। टुटुन बौखला गया। उसने
बड़ी बहादुरी से पाँव पटकते हुए कहा, ''मैं क्या झूठ कह रहा हूँ। दादी यह
सारा कुछ करती है कभी? बस, जब देखो...तब पूजाघर में बैठी रहती है। और तुम
मुझे बेहूदा...। ठीक है.. मैं भी दादी की तरह।"
ट्रभटन
ने अपनी जेब से टूटी चॉक, टूटी रंगीन पेंसिलें, आधी खायी और खुली कैडबरी
चाकलेट, कागज में तुड़ी-मुडी चुड्गगम निकालीं।...और पता नहीं क्या-क्या
ढूँढता रहा था इस जंगल में।
''यह
लो''...कहता हुआ उसने कटा-फटा-सा चार तहों में लिपटा एक भूरे रंग का कागज
उछालकर फेंक दिया और फटाफट जूते फरकारता सीधे कमरे में घुस गया।
आनन्दी दौड़ती हुई चली
गयी उस 'बेशरम' अरविन्द की दूकान पर।
चाकलेट
से गीली और लिसलिसी, भूरे रंग के ठोंगे के एक टुकड़े पर रिफिल के खत्म हो
जाने पर, डॉट पेन से टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में इस सम्बोधनहीन पर्ची से जितना
कुछ पढ़ा जा सकता और समझ में आया वह यह था कि लीलावती घर छोड़कर जा रही
हैं। अगर वह नहीं लौटे तो कोई भी उन्के ढूँढ़ने न जाए। उन्हें ढूँढ़ना
बेकार होगा...वह...
''वह क्या...?''
क्या खाक...यह तो लिखा न
था।
बुबु बुआ दीवार से पीठ
टिकाये बैठी थी, बोली, ''अब इसमें समझ में न आने वाली कोई बात ही नहीं
है।''
लेकिन यहाँ भी जमे बैठे
रहने का कोई उपाय न था...। आज उनके घर में नये-नये जमाई बाबू के आने की
बात थी। वे चली गयीं।
आड़े-तिरछे
अक्षरों में लिखे गये सन्देश को बार-बार पढ़ने और कुछ नया पकड़ पाने की
कोशिश करती हुई पराशर ने उस पर्ची को अपनी मुट्ठी में दबाते हुए बड़ी
गम्भीरता से कहा, ''माँ जी एक दिन इस तरह हंगामा खड़ी करेंगी...मालूम न
था।''
सचमुच
बड़े आश्चर्य की बात थी। लेकिन इस तरह की आपत्तिजनक बात का भी सारे रंगमंच
पर तनिक भी विरोध नहीं किया गया। न तो प्रखरा बड़ी बहू और न मुखरा छोटी बहू
के गले से। यहाँ तक कि पराशर का चिरविरोधी परमेश भी चुप ही खड़ा था। परमेश
जो बचपन से ही भैया के हर-बात चाहे वह ईस्ट बंगाल हो या मोहन बागान,
कांग्रेस हो या सी. पी. एम., नजरुल गीति हो या अतुल प्रसादी गान-किसी भी
बात या विपय को काटना ही जिसका शौक रहा था...वह भी आज मूँग बना हुआ था। एक
शब्द तक बोल न पाया। ऐसा लगता था कि सारी दुनिया को ही काठ मार गया हो।
हालाँकि
लीलावती ने मना कर दिया था कि उन्हें कहीं से ढूँढ़ निकालने की कोशिश न की
जाए लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था! लेकिन तो भी...इस घड़ी...कोई कुछ समझ न पा
रहा था कि क्या किया जाए? घर का माहौल एक भारी लेकिन खामोश चट्टान की तरह
इन चारों के सीने पर अड़ गया था।
इसी
चट्टान के नीचे से परमेश किसी तरह देख पा रहा था-दो बच्चे स्कूल से लौट
आये हैं और इधर-उधर धमाचौकड़ी मचा रहे हैं...उछल-कूद रहे हैं और रंगीन साड़ी
में मुस्कराती एक बहू उन्हें बार-बार पुकार रही है, ''अरे तुम दोनों को
कुछ खाना-पीना नहीं है...बाबा...अरे तुम्हें भूख-बूख नहीं लगती? घर आये
नहीं कि चोर-सिपाही का खेल शुरू...।''
वह देख रहा है कांसे की
दो तश्तरियों में रोटियाँ और थोड़ी-सी सब्जी रखी है।
एक लड़का ऊँचे स्वर में
बोल उठता है, ''मैं रोज-रोज यही रोटी...नहीं खाऊँगा...छोड़ो...।''
बहू उसे बड़े प्यार से
मनाती है। उसकी खुशामद करती हुई कहती है...''अच्छा कल पराँठे बनाकर
रखूँगी...आज तो खा ले।... ''
वह
देख रहा है कि दोनों बच्चों में से एक रसोईघर के सामने खड़ा होकर चीख रहा
है। ''...सारे दिन तुम यही सड़ी-गली चीजें लेकर बैठी मत रहो...। चलो...अब
जल्दी से एक कहानी सुना दो।''
बहू के चेहरे पर उजास-सी
फैल जाती है...वह कहती है, ''बस बेटे...अभी आयी...पाँच मिनट और...हँ...।''
यह बहू नहीं है...माँ है।
सचमुच...! उसकी माँ इतनी
सुन्दर थी...उसकी हँसी इतनी प्यारी थी...इस बात को परमेश क्योंकर भूल गया?
उसकी
माँ दुनिया भर के काम-काज के बीच भी थोड़ा-सा समय निकालकर उनके पास बैठ
गयी। बच्चे क्या यूँ ही खाली बैठे रहेंगे! और इन बच्चों की सारी देखभाल और
साल-दर-साल उनका खयाल केवल माँ ही करती रही थी।
अच्छा...तो!
इसके बाद क्या हुआ?
लेकिन
पराशर नाम का आदमी अपने मन-मानस में माँ नाम के साथ जुड़े गौरव या उसकी
उजली तसवीर को अपने इर्द-गिर्द नहीं पा रहा। परमेश की आँखों में उभरती है
बस एक ही तसवीर...काली और बीमार- थान के कपड़े से लिपटी एक मूर्ति। वह उनके
खाने की मेज के पास आकर खड़ी हो गयी। लेकिन उसकी तरफ किसी ने नहीं देखा।
पराशर ने भी नहीं। वह मूर्ति भी धीरे-धीरे आँखों से ओझल होने लगी थी।
इसके
बाद उसने पाया कि...उस छाया में विलीन होती हुई मूर्ति के होठ हिले और
उसने एक सवाल किया कि तभी किसी बहू की तेज आवाज सुन पड़ी। पराशर ने कहा,
''तुमने बहुत ज्यादा खाना बना लिया है, माँ! अब तुम इनके बीच अपना दिमाग
खराब करने क्यों आयी हो...? अब इस घड़ी इससे ज्यादा और कुछ खाया जा सकता
है?''
छाया मूर्ति पीछे सरक गयी।
लेकिन वह पूरी तरह गायब
भी नहीं हुई। वह दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गयी थी। उसने पराशर की ओर ताके
बिना कहा, ''अच्छा...मैं चली।''
इसके बाद इतना ही सुन
पड़ा, 'दुर्गा...दुर्गा...।'
अच्छा...कितने दिन पहले
और कब पराशर ने अपनी माँ को माँ कहकर
बुलाया
था और कोई बात की थी। कुछ याद नहीं आ रहा। माँ के कुछ कहने पर या कुछ
पूछने पर...हाँ-हूँ...करके उसने अपना दायित्व भर टाल दिया है।
माँ
के पास आने पर ही उसे एक तरह का डर लगने लगता था...बेचैनी-सी होने लगती।
क्या पता, माँ कोई बेसिर-पैर की बात कर बैठे और इनके साथ ही कोई बिफरी
नागन अपना फन उठाकर फूत्कार भरने लगे।
आखिर ऐसी कौन-सी बातें
माँ किया करती थीं?
पराशर
अचानक परेशान हो गया। अभी...इसी घड़ी...इतनी जल्दी वह माँ के लिए 'अतीत'
सूचक शब्द या क्रिया की बात सोच रहा था।...माँ कहती थी। लेकिन ऐसी कभी कोई
उल्टी-सीधी बात की हो या दबाया-छिपाया हो...ऐसा नहीं जान पड़ता। ही...एक
दिन की बात उसे याद है। माँ ने अचानक उससे कहा था, ''अरे तू इतना
कमजोर-कमजोर-सा क्यों लग रहा है रे...तेरी हँसली दीखने लगी है...बात क्या
है?''
बस...इतना ही तो कहा था।
बस...इसी बात पर कैसा
तूफान बरपा था...कैसा हंगामा खड़ा किया गया था।
असीमा
ने भण्डार-घर की चाबी (जो पहले माँ के आँचल के छोर से बंधी रहती...पता
नहीं कब और कैसे असीमा ने उसे लपक लिया था) माँ की तरफ फेंककर कहा था,
''कल से आप पर ही इस घर-संसार का भार रहा। बेटों का खान-पान लाड़-जतन और
रख-रखाव...सब आप ही करिए-धरिए।...ओह...दूसरे के हाथ का खिलाया-पिलाया उनकी
देह को लग नहीं रहा...हँसली उभर आयी है।''
उस
चाबी को दोबारा असीमा के आँचल के हवाले करते हुए माँ को न जाने कितनी
चिरौरी करनी पड़ी थी। और तभी पराशर ने माँ को बुरी तरह डपट दिया था, ''हर
घड़ी वही बेवकूफी भरी बातें।'' माँ चुपचाप...और असमय ही पूजाघर में जा बैठ
गयी थीं।
पराशर
नाम के आदमी की आँखों के सामने ऐसी कोई हँसती-मुसकराती और उजली-सी तसवीर
नहीं थी। इसके बदले वहाँ एक उदास और मलिन-सी छाया बिखरने वाली मूर्ति खड़ा
थी जो मूर्ति भी नहीं कही जा सकती...क्योंकि उसके कोई चेहरा नहीं था।
दरअसल उसके चेहरे की तरफ ठीक से देखा भी कहां गया? पिछले कई-कई दिनों
से।...तो भी।
इसी उदासी भरी छाया से एक
गहरा और गम्भीर स्वर गूँज उठता है : ''माँ एक दिन ऐसा कुछ कर
गुजरेगी...मुझे पता था...।''
''तुमने
ठीक ही कहा,'' किसी ने समर्थन करते हुए कहा, ''छोटी बहू कभी-कभी तो बिना
वजह ही मेरे मुँह सामने ऐसी कुछ जली-कटी सुना देती थी कि दुःख या अपमान से
तंग आकर...वह किसी-न-किसी दिन कुछ कर बैठेंगी।''
दूसरे
ने कहा, ''भैया की बात गलत नहीं...मैं भी कभी-कभी यह सोचकर घबरा उठता था।
बड़ी बहू धीरे-धीरे घर-संसार पर अपना उाधिकार और आतंक बढ़ाती चली जा रही
है। जिसके हाथों यह सारी घर-गृहस्थी फली-फूली, उसके हाथों से सारा कुछ छीन
लिया गया। किसी भिखारी को एक मुट्ठी दाना देने के लिए भी हजार बार सोचना
पड़ता था। पूछना पडता था...बहूरानी किस डब्बे में से लेना होगा...ऐसा जान
पड़ता था कि वे इस घर-संसार की कोई नहीं हैं...कहीं बाहर से आ टपकी हैं।''
इस
बात को सभी जानते थे। वर्ना एक पाँच-साढ़े पाँच साल का बच्चा भी उसके लापता
हो जाने की खबर सुनते ही ऐसा क्यों कह उठा, ''लगता है कि दादी गंगा में
डूब मरी।''
और लीलावती का छोटा बेटा।
वह
अपनी आदतों के चलते या अपनी इन्हीं मजबूरियों के नाते अपनी माँ को डपट
दिया करता था या बात-बात पर झिड़क दिया करता था...अपनी हथेलियों में सिर को
छुपाये कुछ सोच रहा था...माँ क्या खाती थी...क्या पहनती थी...माँ की तबीयत
किसी दिन बिगड़ तो नहीं जाती थी...क्या ऐसा कभी किसी ने सोचा है...? उनकी
तरफ देखा है?
''हां...माँ ने उससे एक
बार कब यह कहा था...कि तेरे साथ एक जरूरी बात करनी है।''
इसका
जवाब परमेश ने दिया था, ''बात क्या है...कुछ चाहिए? ऐसा है कि तुम एक
लिस्ट तैयार कर रखो। क्या माँ ने ऐसी कोई लिस्ट दी थी कभी? नहीं। और अभी
उस दिन...? शायद उस दिन कोई पूजा या व्रत-उपवास था...''
तभी
पराशर ने आकर कहा था, ''परम भई...मैं तो कुछ नहीं जानता कि क्या करना
चाहिए। कुछ समझ नहीं पा रहा। क्या एक बार थाने में रिपोर्ट देने की जरूरत
है...या फिर रेडियो या टी. वी. में...परम...। मेरे तो हाथ-पाँव फूल रहे
हैं रे...। कहीं जाने के पहले इन बहुओं से सारी सूचनाएँ इकट्ठी कर ले
जाना...।''
''सूचनाएँ...कैसी
सूचनाएँ?''
''यही
कि कितनी उम्र है...रंग कैसा है। लम्बाई कितनी है...पहचान के लिए शरीर पर
कोई निशान है या नहीं...लापता होने के समय क्या पहने हुई थी...''
''माँ के बारे में ये
सारी बातें बहुओं से पूछनी होंगी?'' परमेश ने गुस्से में पूछा।
लेकिन भैया ने बड़ी बेबसी
से इस बात का उत्तर दिया, ''तो फिर...? तुझे पता है इस बारे में? मैं तो
कुछ भी नहीं जानता।''
''पहनने में और क्या
होगा...थान की धोती और सफेद कुरती के सिवा? और देह का रंग...''
बात खत्म नहीं हुई। तभी
कहीं शोर-गुल हुआ। दोनों भाई घर के बाहर निकल आये।
लीलावती की कहानी यहीं
खत्म हो जानी चाहिए।
और किसी मनोरंजनधर्मा
कहानीकार के हाथ पड़ने पर डसका अन्त यहीं पर हो जाता।
इस
संसार में इन चार स्त्री-पुरुषों के घोर अपराध-बोध से पीड़ित और विवेक के
अंकुश से छलनी किये गयें हृदय की अनुभूति के ऊपर अभिमानिनी लीलावती का एक
गौरवमय स्थान होता। साथ ही, लोक और समाज की आँखों सै उस भूरे रंग की पर्ची
के ऊपर लिखा वह सारा इतिहास ओझल ही रहता।
लेकिन
लीलावती की कहानी किसी रसज्ञ-रंजक कहानीकार के हाथ में नहीं पड़ी। वह पड़ी
एक अकुशल, अक्षम और रसवोधहीन लेखक के हाथ में। इसीलिए वाहर हो-हल्ला की
आवाज सुनकर दोनों भाई, जो आपस में सलाह-मशविरा कर रहे थे, बड़ी बेचैनी से
बाहर निकले। उन्होंने देखा माँ-एक रिक्शे से नीचे उतर रही है और
रिक्शावाले से भाड़े के सवाल पर उसे डाँट-फटकार रही है।
बेटों
को सामने पाकर उसे बड़ा सहारा मिला और वह खुले गले से वाली, ''देख
तो...श्याम बाजार के मोड़ से यहाँ तक आने का कितने पैसे माँग रहा है!..
कैसी लूट मचा रखी है!''
माँ के हाथ में सिन्दूर
से पुता शाल पत्ते का एक दोना था और कमाची की डाली में पूजा की सामग्री
थी...फूल...बेल-पत्र और प्रसाद।
इसके बाद?
इसके
बाद और क्या? कई-कई बार हुई झड़प-वहस और अपमान के घूँट पीने के बाद, जवाब
में यही सोचा गया, कि आखिर डन सारी बहुओं को अकेले ही बेलुडु,
दक्षिणेश्वर, मैके, कालीतला, घूमते देखती रहेंगी लीलावती। क्या वह जीवन भर
इनका ही मुँह जोहती रहेंगी? इसीलिए उन्होंने सोचा कि एक बार साहस कर देखने
मैं क्या हर्ज है? क्या बिगड़ जाएगा? ऐसा उन्होंने कर दिखाया...आस-पास
दिखने वाले लोगों से पूछ-ताछकर। कैसा अच्छा लग रहा था उन्हें। न जाने
कितने साल पहले दक्षिणेश्वर जाना हुआ था।
हां...यह ठीक है कि वह
किसी को बताकर नहीं गयी थी।
लेकिन
किसी को वताकर जाने की फुरसत कहाँ मिली? बस अचानक जी में आया और निकल गयी।
उन्होंने सुन रखा था कि सुबह साढ़े छः बजे ही श्याम बाजार के मोड़ से
दक्षिणेश्वर को बस जाती है। दौड़ते-गिरते-भागते जाना हो पाया था।
लेकिन तो भी...जैसे-तैसे
ही सही, एक पर्ची तो किसी तरह छोड़ जाने का समय तो मिल ही गया था? क्या सूझ
थी।
''हां...सूझ
ही तो थी...ही ही...। बस उल्टी खोपड़ी की सूझ थी। तेरे बेटे ने जो डॉट पेन
दिया...क्या कमाल का था। इससे तो अच्छा थो कि मैं झाड़ू के तिनके से कुछ
लिख जाती। क्या टेढ़ा-बोकचा लिखा...वह भी उलटकर नहीं देखी।''
''सब
चालबाजी है,'' विरोधी खेमे मैं खड़ी दोनों बहुओं ने एक साथ कहा, ''बकवास
की बातें हैं। बहू और बेटे को धमकाने और धकियाने की एक चाल। छी..छी...।''
तभी एक पुरुष-स्वर
धीरे-धीरे उच्चरित हुआ। ऐसा भी हो सकता है कि खुद से भी वह सहमा हुआ हो।
''और
इसके सिवा बात भी क्या होगी? ललिावती जैसी महिलाओं की कहानियों का अधिकांश
'रिफिल' खत्म हो जाने के बाद सस्ते डाँट पैन से ही लिखा जाता है।''
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)