डूँगरवाड़ी के गिद्ध (कहानी) : अली इमाम नक़वी
Doongarwadi Ke Giddh (Story in Hindi) : Ali Imam Naqvi
इस अनहोनी पर दोनों ही हैरान रह गये। गैर-इरादी तौर पर उन्होंने स्ट्रेचर ज़मीन पर रखा। हैरत से लाश को देखा, फिर एक-दूसरे को। आँखों ही आँखों में एक दूसरे से बहुत से सवालात किये। काफी देर तब उसकी आँखों के ढेले घुमते रहे और जब वे थमे तो अनजाने ही दोनों कन्धे उचके। अचानक दोनों ने गले की रगों पर ज़ोर देकर जबड़ों को दायें-बायें खींचा और फिर उनकी नज़रों ने डूँगरवाड़ी (पारसी शमशान) के घने दरख़्तों की परिक्रमा की।
दूर-दूर तक एक गिद्ध का पता नहीं था - और यह बिल्कुल पहली बार हुआ था। दो घण्टे पहले इत्तिलाई घण्टी बजी थी। पन्द्रह मिनट बाद ही डूँगर बगली (मैयत का नहलाने-कफ़नाने की जगह) नम्बर दो के ख़ुर्द्दाम (सेवादार) लाश उन दोनों के सुपूर्द कर रहे थे। लाश को बावली की हद में लेने के बाद दोनों ने किवाड़ बन्द किये थे। फिर दरवाज़े की खिड़की खोलकर आनेवालों से मरनेवालों के सगे-सम्बन्धियों की बाबत मालूम करने के बाद फ़िरोज़ भाटीना से पूछा था - "साब लोग बख़्शीश आप्या...?"
जवाब में खुद्दाराम ने मुस्कुराते हुए दस-दस के दो नोट भाटीना के तरफ़ बढ़ा दिये थे। उसने एक नोट डगले की जेब में डाला और दूसरा अपने साथी हुर्मुज़ की तरफ़ बढ़ाते हुए खिड़की बन्द कर दी।
"ए ख़ुदा..." हुर्मुज़ ने सिर उठाकर ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों की घनी शाखों से झाँकते आसमान की तरफ़ देखा। फिर आँखों से भाटीना को इशारा किया। दोनों ने झुके स्ट्रेचर को उठाया और बावली की तरफ़ चल पड़े।
"फ़िरोज़!" चलते-चलते हुर्मुज़ अपने साथी से मुख़ातिब हुआ।
"बोलने!"
"अपन कब तलक... ये काम करेगा...?"
"चल-चल, मगज ना दही कर, चल-चल।"
"यार, अपन का वास्ते यही काम रह गयेला है?"
"सूँ विचार छे?" (क्या विचार है?)
"कुछ पन नथी। हूँ ख़ाली पूछूँ छ्यँ।" (कुछ नहीं। मैं सिर्फ़ पूछ रहा हूँ)
"आनेस्ट?"
"कसम ज़रतुश्त की।" उसने आसमान की तरफ़ सिर उठाकर कसम खायी। दो पल दोनों ख़ामोश रहे। फिर भाटीना बोला - "देख हुर्मुज़! पारसी पंचायत अपून को पाला। आपनो नसीब सालो खोटो हतो। (अपना नसीब साला खोटा था।) समझा क्या... अभी तू बता।"
"एकच स्टोरी छे बप्पा... कुछ जास्ती फ़र्क़ नहीं। पर सच्ची बोलूँ - अभी अपून कंटाल गया। एकदम साला कंटाल गया।"
और फिर उसकी बातों का सिलसिला अधूरा रह गया था। बावली आ गयी थी। हुर्मुज़ के पैर की एक ही ठोकर से बावली का दरवाज़ा खुल गया था और दूसरे ही पल दोनों लाश के सिरहाने और पाँयती खड़े थे। दही में लिपा लाश का चेहरा बिल्कुल सफ़ेद था। हुर्मुज़ ने लाश का सिरहाना ज़रा-सा ऊँचा किया। भाटीना ने कफ़न खींच लिया। फिर बारी-बारी दोनों ने लाश के पैर छुए। हाथों को आँखों और सीने से लगाया और खड़े हो गये। गुप्तांगों को छिपाने के लिए बस एक रूमाल कस्ती से लाश की कमर पर बाँध् दिया गया था, जिसे उन्होंने ज्यों का त्यों रहने दिया, और फिर वे दोनों लौट गये थे। अपने कमरे में पहुँचकर दोनों मेज़ के आसपास पड़ी कुख्रसयों पर बैठ गये। थोड़ी देर बाद हुर्मुज़ ने शराब की बोतल मेज़ पर रख ली थी और दोनों अपना-अपना गिलास भर रहे थे। चकली का एक टुकड़ा मुँह में रखने के बाद फ़िरोज़ भाटीना बोला -
"हुर्मुज़।"
"बोला।"
"सूँ लाइफ।"
"केम थया?" (क्या हुआ?)
"बगली... एक...दो...तीन...चार. बेल...साला... और"
"और?"
"हाँ और।"
"और मय्यतो... मय्यतो... (और मौत... मौत...)
"जो तो पारसी ना लाइफ।" (देख तो, पारसी की ज़िन्दगी।)
"लाइफ?"
"आस्तो।" (हाँ)
"क्या हुआ?"
"ऐनी जवानी सुपरफास्ट, अने बुढ़ापो मालगाड़ी माफ़िक चले।"
"खरद बोलो बप्पा, खरद बोलो।"
"सच्ची, एकदम खरा।"
फिर वे दोनों काफी देर तक ‘खरद-खरद’ की तक़रार करते रहे, पीते रहे; और कुछ देर बाद सुबक रहे थे। कोई घण्टे भर बाद फिर घण्टी बजी। अब बगली नम्बर चार से लाश आने वाली थी।
"वाह ख़ुदा-ए-ज़रतुश्तन, दारू नाबन्दोबस्त केदा।" (वाह ज़रतुश्त के ख़ुदा ने शराब का इन्तज़ाम किया)।
"हादड़ी चल, चल।"
दोनों बावली ने सदर दरवाज़े की तरफ़ बढ़े थे। एक मर्तबा फिर दरवाज़ा खुला था। ख़ाली स्ट्रेचर बाहर रख दिया गया था और कुछ देर बाद बगली नम्बर चार की लाश उनकी सुर्पुदगी में थी। आने वाले ख़ुद्दाम में से एक ने फिर एक मर्तबा दस-दस के दो नोट उनकी तरफ़ दिये थे, जिन्हें इस मर्तबा हुर्मुज़ ने आगे बढ़कर वसूल किया। दरवाज़ा बन्द किया गया। स्ट्रेचर उठाया गया और दोनों बावड़ी की तरफ़ बढ़ने लगे।
"हुर्मुज़।"
"बोल।"
"एक दिन आपरो भी एमिच जावनी न।" (एक दिन हम भी इसी तरह जायेंगे न।)
चलते-चलते हुर्मुज़ रुक गया। गरदन घुमाकर उसने फ़िरोज भाटीना को देखा, फिर किसी क़दर दुरुस्त लहज़े में उससे पूछा - "आ स्वां तमे केम केदा?" (ये सवाल तुमने क्यों किया?)
"मरदा तो सब ना पड़शे।" (मरना तो सबको पड़ेगा।)
"खराज बोले। पन मारा विचार अमना मरवाना नयीं।" (सब कहा, लेकिन मेरा विचार अभी मरने का नहीं।)
"विचार? सूँ कहे बप्पा।"
"चुप कर साला। हम लोग एटला लाइफ मा जोया सूँ? लाश, लाश, लाश अने पक्षी। जास्ती और जास्ती, वह साला सतारा रोड़ ना दारू! नौसादरवाला दारू। दस-दस रुपये का नोट। हूँ पूछूँ... लाइफ ऐना नाम छे?" (चुपकर साला। हम लोगों ने इतनी ज़िन्दगी में क्या देखा - लाश, लाश और गिद्ध। ज़्यादा से ज़्यादा वह साली सतारा रोडवाली दारू, नौसादरवाली। दस-दस रुपये के नोट। मैं पूछता हूँ - ज़िन्दगी इसी का नाम है?)
जवाब में फ़िरोज़ कुछ न बोला। वो तो बस हुर्मुज़ को देख रहा था।
"बोल बप्पा, आच छे जीवन" (बोल भाई, यही है ज़िन्दगी?)
"सू कहूँ, हूँ तो एटला जामूँ - आवे तो जावा पड़शे। हूँ जाऊँ तो मारा ठिकाना बीजू कोई आवे, तू जाये तो..." (क्या कहूँ, मैं इतना जानता हूँ - आयेगी तो जाना ही पड़ेगा। मैं जाऊँगा तो मेरी जगह कोई और आ जायेगा, तू जायेगा तो...)
"चुप साला भैन... हरामी...डुक्कर!" हुर्मुज़ चीख़ पड़ा था।
"बोम न मार बप्पा, जीवन न बात छोड़। मय्यत हाथ मा छे।" (चीख़ ना भाई, ज़िन्दगी की बात छोड़ कि मय्यत हाथ में है।)
और दोनों खामोशी से बावली तक पहुँचे थे। और जब बावली का दरवाज़ा खुला तो...
इस अनहोनी पर दोनों ही हैरान रह गये। गैर-इरादी तौर पर उन्होंने स्ट्रेचर ज़मीन पर रखा। हैरत से लाश को देखा, फिर एक-दूसरे को। आँखों ही आँखों में दोनों ने एक दूसरे से सवालात किये। काफी देर तक उनकी आँखों के ढेले घूमते रहे। और जब वो थमे तो अनजाने ही दोनों के कन्धे उचके... और फिर उनकी नज़रों ने डूँगरवाड़ी के घने दरख़्तों की परिक्रमा शुरू की। दूर-दूर तक एक भी गिद्ध का पता न था और ये बिल्कुल पहली मर्तबा हुआ था। गिद्ध ग़ायब थे और लाशें मौजूद। वरना होता तो ये आया था कि लाश पहुँची, हुर्मुज़ और फ़िरोज़ बावली से लौटे, बीस-पच्चीस मिनटों में लाश गिद्धों के मेंदों में मुन्तक़िल हुई। उन्होंने गिद्धों को लौटते देखा तो बावली पर पहुँचकर एसिड से ढाँचे पर छिड़काव किया और ढाँचा पाउडर बनकर बावली की गहराइयों में उतरता चला गया। नीचे बहुत नीचे-जाने कहाँ। कभी ये भी होता - कोई लाश ही न आती। उस रोज़ गिद्धों की ख़ातिर पंचायत बकरा ख़रीदकर हुर्मुज़ और भाटीना के सुपुर्द कर देती। कहीं ऐसा न हो कि गिद्ध मजबूर होकर उड़ जायें, लेकिन ये तो बिल्कुल ही अनहोनी बात थी। दोनों फटी-फटी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे, काफी देर उसी आलम में खड़े रहने के बाद उन्होंने दूसरी लाश भी बावली के जाल पर रख दी। फिर एक-दूसरे की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा। "सूँ विचार छे - कै़कबाद ने कहीं आऊँ।" (क्या ख़याल है - कै़कबाद के कह जाऊँ।)
"हाँ जा।"
उसने अपने कमरे में पहुँचकर हंगामी घण्टी के स्विच पर उँगली रख दी। डूँगरवाड़ी के दफ़्तर में दीवार पर लगा हुआ सर्ख बल्ब जलने-बुझने लगा। क्लर्क हैरान होकर दफ़्तर से निकले। और बल्ब तो बगलियों के भी जलने लगे थे। दफ़्तरों ने तिलावत (पाठ) रोक दी। बगलियों में घुमते हुए कुत्ते सहमकर इधर-उधर दुबक गये। नयी आने वाली लाशों के रिश्तेदार, सोगवार बेचैन होकर बगलियों से निकल आये। हर तरफ़ एक सवाल था - क्या हुआ? क़ैकबाद दौड़ा-दौड़ा गया और फिर आसमान की तरफ़ देखता हुआ पलटा। सबने उसे घरे लिया। "सूँ थ्याँ!" का शोर बुलन्द हुआ। जवाब में कै़कबाद ने ऐलान किया - "गिद्ध चले गये।"
"गिद्ध चले गये?"
"गिद्ध चले गये?"
"मगर काए को?"
"कुछ तो पन होयेगा!"
"मगर क्या होयेगा?"
पारसी पंचायत के सेक्रटरी ने कै़कबाद का फ़ोन रिसीव किया था और उसकी पेशानी पर सलवटों का जाल उभर आया था। सारी बात सुनकर उसने रिसीवर क्रेडिल पर रखने के बाद इण्टरकॉम पर डायरेक्टर को इत्तला दी। फ़ौरन ही अर्जेण्ट-मीटिंग कॉल की गयी। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सामने मसला पेश हुआ। लेकिन सवाल तो अपनी जगह क़ायम था - गिद्ध कहाँ गये?
"क्या कहाँ - गिद्ध चले गये?" पुलिस-कमिश्नर के लहज़े में हल्के-से विस्मय की मिलावट थीं।
"हाँ, हमारे गिद्ध चले गये। पारसी पंचायत के चेयरमैन ने एक-एक लफ़्ज पर ज़ोर देते हुए तसदीक की। फिर बड़ी तवज्जों से पुलिस-कमिश्नर की बात सुनता रहा। इसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। काफ़ी देर तक बात सुनता रहा, फिर दूसरी तरफ़ से सिलसिला टूट जाने पर उसने भी रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया। दूसरे तमाम डायरेक्टर्स उसी तरफ़ सवालिया नज़रों से देख रहे थे। उसने अपनी और पुलिस-कमिश्नर की गुफ़्तगु का खुलासा बयान किया। हर शख़्स थोड़ा-थोड़ा इतमीनान और ख़ासी परेशानियाँ समेटकर मीटिंग हॉल से वापस आया। सेक्रेटरी ने डूँगरवाड़ी फ़ोन किया। कै़कबाद ने तमाम मोहतरम दस्तूरों तक और हाजरीन तक चेयरमैन और पुलिस-कमिश्नर तक की गुफ़्तगु का खुलासा किया। दस्तूरों से बात बगली के खुद्दाम के जरिये फ़िरोज़ भाटीना और हुर्मुज़ तक पहुँची। भाटीना ने तमाम बात ग़ौर से सुनी, फिर आसमान की तरफ़ देखने लगा। घने दरख़्तों की खिड़कियों के आसमान साफ़ नज़र आ रहा था। न कौवे थे। न चीलें और न ही गिद्ध।
और फिर वे दोनों ही चौक पड़े थे। इत्तलाई घण्टी बज रही थी। बगली नम्बर तीन से लाश आ रही थी। एक मर्तबा फिर वे दरवाज़े पर खड़े थे। लाश आयी। इस बार खुद्दाम ने पचास-पचास के दो नोट भाटीना की तरफ़ बढ़ा दिये। लाश अन्दर कर लेने के बाद भाटीना ने मुँह बनाते हुए हुर्मुज़ को मुख़ातिब किया -
"हुर्मुज़!"
"बोल बप्पा।"
"सब पारसी आजिच क्यों मरता?"
हुर्मुज़ ने उसके सवाल का कोई जवाब न दिया। वह आसमान की तरफ़ देख रहा था।
"एक तो पक्षी नथी। अने लाश ऊपर लाश आवे।" (एक तो गिद्ध नहीं फिर लाश पर लाश आ रही है।) "पन पक्षी गया किधर?"
पुलिस-कमिश्नर बोला - "बद्दा पक्षी, खड़की, रवीवार पेठ अने सोमवार पेठ मा छे।"
"सा माअे?" (किस लिए)
"अरे वो साला हिन्दू-मुसलमान भिड़ी गयो। उधर राइट हुआ। साला वो लोग पुलिस बैन जला दिया। एम्बूलेंस को आंगार लगाया। रास्ता ऊपर लाशिच लाश छे और अपना गिद्ध उधर मज़ा मारता। और वह, पुलिस-कमिश्नर बोलता...साला रस्ता साफ़ होयेंगा तो गिद्ध आपो-आप वापस आयेंगा।"
"रस्ता साफ़ भी होयेंगा तो क्या... गिद्ध वापस आयेंगा... यह इण्डिया... साला इधर तो रोज़ राईट होता है। रोज़ अंगार लगता। रोज़ मानस मरता। फिर... फिर क्या साला... गिद्ध वापस आयेंगा।