दूध की तलैया (पंजाबी कहानी) : कुलवन्त सिंह विर्क

Doodh Ki Talaiya (Punjabi Story) : Kulwant Singh Virk

चचेरे भाई होने के नाते लाल तथा दयाल का आपस में बड़ा स्नेह था। वे खेती भी इकट्ठी करते थे। गाँव के अन्दर एकता का बड़ा प्रभाव पड़ता है। दो सगे भाइयों की अपेक्षा यदि चचा-ताऊ के बेटे आपस में मिल कर चलें, तो उन्हें और भी बडी ताकत समझा जाता है। कारण कि ऐसा मेल बहुत कम देखने में आता है। दो सगे भाइयों का मिलकर रहना तो स्वाभाविक है। इसीलिए गाँव वाले इन दोनों-लाल और दयाल का नाम लेते थे। मजदूरों को काम के लिए बुला सकना उनके लिए आसान था, क्योंकि वे तुरंत उनका कहा मान लेते थे। गाँव की गलियों के अंदर चलना उन्हें सुहाता था, क्योंकि वहाँ उन पर पड़ने वाली दृष्टि आदर भरी होती थी।

बिना प्रयास के मिले इस आदर के अतिरिक्त उनका बोने-जोतने का काम भी सुगमतापूर्वक चलता था। मिलकर रहने से वे दो हलों की जुताई करते थे। एक मजदूर रख लेने से प्रतिदिन उनमें कोई एक आराम कर सकता था और काम भी निर्विघ्न चलता रहता था।

यदि जोत केवल एक हल की हो, तो एक तो उसमें आनंद नहीं आता, दूसरे वह काबू में भी नहीं रहतीं। अकेले रहते हुए खुद को तो पशुओं के साथ पशु बनना ही पड़ता है, यदि कोई मजदूर रखा हुआ हो, तो गुजारा नहीं हो सकता।

यह इकट्ठी खेती जिस तीसरे आदमी को पूरा आराम देती थी, वह था दयाल । दयाल गौर वर्ण का, सुंदर नखशिखवाला, भरे बदन का जवान था। दिन के पहले पहर तो वह खेतों में जाकर थोड़ा-बहुत काम करता, परंतु पिछले पहर वह नित्यप्रति उजले कपड़े पहनकर गाँव के अन्दर गश्त लगाता रहता या फिर चौपाल में बैठकर गप्पें हाँकता रहता। लोग उससे आँख मिलाकर बातें करके खुश होते।
परंतु गाँव वालों और दयाल को मिल रही यह खुशी केवल लाल के कारण थी, जिस गरीब को बाद में सारा काम करना पड़ता।

"कल तू पिछले पहर गाँव से बाहर ही नहीं निकला। गेहूँ के खेत को बाड़ देनी थी। दो आदमियों को, तुझे पता है, बाड़ देने में बड़ी मुश्किल होती है।" लाल कभी गिला करता। “वैसे ही आलस आ गया। गाँव में थानेदार आया था। मैंने सोचा कुछ बातों का पता लगेगा।" दयाल धीमे स्वर में उत्तर देता और लाल आगे कुछ न कहता।

लाल की पत्नी को भी दयाल अपने घर घूमता हआ दिखाई देता। लाल जिस समय खेतों में काम पर होता, उनके घरों की साँझी दीवार के उस पार दयाल की पगड़ी इधर-उधर घूमती दिखाई देती। कभी वह अपने लड़के को गोद में उठाकर एक लकड़ी का टुकड़ा हाथ में ले बढ़ई के घर की ओर चल देता और वहाँ से बालक के लिए गाड़ी आदि बनवा लेता। कभी अपनी पत्नी का साग काटने का हँसिया उठा कर उसे लुहारों के यहाँ तेज करवाने लग जाता और कभी सत्तो जुलाहिन के सिर पर चरखा उठवाकर उसकी तकली सीधी करवाने के लिए चल देता।

उधर लाल की पत्नी के सारे काम बिना हुए पड़े रहते। दयाल के घर में घूमती हुई पगड़ी तथा वहाँ से आती हुई आवाज उसके मन में कई आकांक्षाएँ जगाती-यदि कहीं लाल भी इस समय घर आ सके तो वह उसे गरम दूध पीने को दे, गाँव के अन्दर जाने के लिए उसे उजले कपड़े पहनाये और जब तक वह कपड़े पहने तब तक उसकी पगड़ी को कलफ लगा दे। अभी तक तो उसे न कपड़े धोने में आनंद आता था, न कपड़े पहनवाने में। आठ-दस दिनों में लाल कभी रात को सोते समय धले कपड़े अपने सिरहाने रखवा लेता और सुबह उठकर मैले कपड़े सिरहाने रखकर धुले कपड़े पहन लेता। लेकिन जल्दी ही वे फिर मैले हो जाते और अगले कई दिनों तक वह उन्हें ही पहने रहता। काश कहीं लाल भी दयाल की तरह शाम घर पर बिता सकता।

और जब वह रात को घर को आता, तो वह उसे डाँटती, "तू कोई उसका नौकर रखा हुआ है। स्वयं तो वह नवाब बना गाँव में घूमता रहता है और तू वहाँ मिट्टी में मिट्टी बना रहता है।"

“गाँव के अन्दर घूमने में क्या रखा है। पानी लगाने के बारे में बात करनी थी, इसलिए वह आया था।" लाल बात को टालता और फिर दिलासा देते हुए कहता, "कभी कोई हल आदि ठीक करवाना रहता है, कभी कोई रस्सी बटनी होती है, कभी किसी आदमी को काम के लिए कहना होता है-गाँव में आने के ऐसे सैकड़ों काम रहते हैं।"

“गाँव में काम रहते हैं, तो तू भी आ जाया कर। क्या यह जरूरी है कि गाँव के सारे काम वही करे?"
“अच्छा, मैं आ जाया करूँगा, इसमें कौन-सी बात है। वह कह देता है कि मैं चला जाता हूँ। मैं कह देता हूँ, अच्छा तू ही चला जा।"

लाल इस प्रकार आने को कह तो देता, परंतु वह आता कभी न । इस साँझे में असल में वह अन्दर की ओर का बैल था। वह भोर तारे के साथ उठ जाता और अपने मजदूर के साथ हल जोतने को निकल पड़ता। दयाल बाद में दिन चढ़े उठकर भैंसों को बाहर निकालता, उन्हें घास डालता और फिर उन्हें दुहता। वह पशुओं के खाने योग्य घास काटकर रख देता, उन्हें खोलकर बाहर घुमा लाता और फिर उन्हें अपने-अपने स्थान पर बाँध देता। शाम को वह किसी टोली के साथ बैठकर शराब पीता. कभी कहीं बैठकर ताश खेलता रहता। कभी अखबार की खबरें सुनता और उन्हें कहीं समझने की कोशिश करता। खेती का सारा भार दिन-प्रतिदिन लाल के ऊपर पड़ता जा रहा था। दयाल हमेशा दोस्ती गाँठने और अपना रसूख बनाने में लगा रहता। साझेदारी में ऐसा ही होता है। एक पक्ष अधिक काम करता और दूसरा कम। जब तक अधिक काम करने वाला पक्ष चुप किए रहता है, साझेदारी चलती रहती है और जहाँ उसे अधिक काम खटकने लगा, उसी समय साझेदारी टूट जाती है।

फसलों की कटाई के बाद एक दिन लोहारों के लड़के किसानों के यहाँ गेहूँ की पूलियाँ इकट्ठी कर रहे थे। लाल किसी और किसान के खलिहान में बैठा था। लोहार का एक लड़का उस किसान से पूली माँगने आया। उस लड़के का साथी सिर पर पूली रखे पास ही रास्ते में से गुजर रहा था।

“वह पूली तुम कहाँ से लाये?" किसान ने पूली माँगने आये लोहार के लड़के से दूसरे लड़के के सिर पर रखी पूली के बारे में पूछा।
"वह तो वहाँ दयाल के खलिहान से लाये हैं।"

लाल ने यह बात सुनी तो उसे अपना खून जमता-सा प्रतीत हुआ। खलिहान तो साझे का था, लेकिन उस पर अकेले दयाल का नाम चल रहा था। काम में व्यस्त लाल का तो अपनी भूमि और उसकी पैदावार से नाम मिटता जा रहा था। उसने दयाल से पृथक् होने का फैसला कर लिया। फसल की कटाई के बाद वैसे ही ये जोतों को बदलने के दिन थे।

अनाज तो हर बार वे बाँटते ही थे, अब उन्होंने भूसा भी अलग-अलग कर लिया। भैंसें अपने-अपने खूँटों पर अलग बाँध ली गयीं। एक थोड़े दिनों की व्याई भैंस की थोड़ी मुसीबत थी। उसकी बछिया मर चुकी थी। वह दयाल से हिली हुई थी, किसी और को दूध न देती थी। लाल ने कुछ दिनों तक उसको चने के आटे में नमक घोलकर पिलाया, अपने हाथों उसे आटा खिलाया, अपने हाथ की हथेली पर दूध की धारें डालकर उसे चटायीं और फिर दूध की धारें अपने मुँह में भरकर उसकी फुकारें उसके नथनों पर डालीं। ये सब उपाय करने से धीरे-धीरे भैंस उसको दूध देने लग गयी। लेकिन दयाल से भैंस का मोह फिर भी बना रहा। जब कभी वह खुल जाती, सीधी जाकर उसके पास खड़ी हो जाती या उसकी भैंसों में शामिल हो जाती।
भैंस का दयाल के साथ प्यार बना रहा, किंतु लाल व दयाल आपस में एकदूसरे से दूर होते गये। खेत उनके पास-पास होने के कारण पशु खुलकर कभी-कभी एक-दूसरे के खेत में चले जाते। इस पर बड़ी-बड़ी तकरारें होतीं। ऐसे अवसर पर दोनों में से कोई कम न बोलता। कोई अपने आपको छोटा कहलवाने को तैयार न होता। जब दयाल की छोटी-सी बछिया लकडी के फिरके में से निकलकर सारी रात लाल के सींचे हुए शलगमों को रौंदती रही, तो दयाल अकड़ कर बोला, "मैं बछिया के साथ बँधने से तो रहा। इन छोटे-छोटे जीवों का कोई पता है कि कब दायें-बायें से निकल जाते हैं।"

और अगले दिन जब लाल की घोड़ी साँकल समेत दयाल की फूली हुई कपास के पौधे तोड़ती और गिराती रही, तो लाल ने रूखे स्वर में कहा, “घोड़ी तो कपास को मुँह नहीं लगाती। पौधे तो उस समय टूटते हैं जब कोई साँकलवाली घोड़ी को पीछे से धमकाता है। यदि उसे आराम से निकाला जाता, तो पौधे नहीं टूटते।"

दयाल को इस बात से बड़ा क्रोध आया। शलगम तो आखिर खाने की चीज थी, लेकिन कपास तो पैसे वाली फसल है। खैरियत अभी तक यही थी कि लाल और दयाल दोनों में से किसी ने अभी एक-दूसरे से उलझने की नहीं ठानी थी।

कुछ दिनों बाद वर्षा हुई। दयाल के पास बाहर एक छाया हुआ घेरा था। लाल ने अभी तक कोई ऐसा घेरा नहीं बनाया था, फिर भी वह दयाल के घेरे में जाकर सिर छुपाने को राजी न था। उसका शहतूत का पेड़ था, उसके नीचे कुछ बचाव हो सकता था। वर्षा होती रही, और एक चादर ओढ़कर वह उस पेड़ के नीचे ही बैठा रहा। गाँव भर में यह बात फैल गई। शहतूत के पेड़ पर बगलों के घोंसले थे। लोग खिल्ली उड़ाने लगे, "ऊपर बगले स्नान करते रहे, नीचे लाल नहाता रहा।"

इस घटना के बाद यह चर्चा आम हो गई कि एक न एक दिन लाल और दयाल में लड़ाई जरूर होगी। कोई कहता, दयाल तगड़ा है, वह मारेगा। दूसरा दलील देता, लाल के अन्दर गुस्सा बहुत है, वही मारेगा।

ये सब चर्चाएं लाल की पत्नी के कानों तक भी पहुँचतीं और वह कभी-कभी घबराकर पूछती, "सुना है, दयाल तेरे साथ उलझने को उतावला है।"

"मेरे साथ उलझकर अपनी मौत बुलाएगा वह। वह तो मेरे आगे खड़ा तक नहीं हो सकता।" लाल तन कर उत्तर देता।

अपने आपको ऊँचा दिखाने के लिए एक दिन तो लाल सब सीमाएँ पार कर गया। गेहूँ की फसल बोने के पहले दयाल अपने खेत में खाद बिखेरना चाहता था। गाड़ी का रास्ता लाल के खेत में से होकर था। खेत को अभी जोता नहीं गया था, इसलिए उसमें से गाड़ी ले जाने में कोई हानि नहीं थी। लेकिन जब दयाल गाड़ी ले आया तो लाल लट्ठ लेकर अपनी वटिया के ऊपर खड़ा हो गया और उसने दयाल को गाड़ी वापस ले जाने पर मजबूर कर दिया ।

रात के समय लाल ने जब यह बात अपनी पत्नी को बतायी तो उसको विश्वास हो गया दयाल जरूर उसके पति से डरता है। दयाल को भी अपनी हालत अखरने लगी थी। अब वह खाहमखाह लाल के साथ उलझने पर उतारू था।

एक दिन सूरज डूबने के थोड़ी देर बाद लाल अपनी घोड़ी पर सवार गाँव की ओर आ रहा था। रास्ते में पानी की एक नाली पर दयाल एक और आदमी के साथ बैठा शराब पी रहा था। लाल और दयाल ने एक-दूसरे को देख लिया । नाली पार करने के लिए घोड़ी की चाल धीमी करनी ही थी । लाल के हाथ में एक खाली लोटा था ।
'कौन है ?' दयाल स्वर को जरा लटकाते हुए बोला।

'मैं हूँ ।' लाल ने कड़कती आवाज में कहा और फिर तरऊ-तरऊ करके घोड़ी को पानी पिलाने लगा । जैसे वह कह रहा हो आ जाओ मैं तो खड़ा हूँ। लेकिन आया कोई नहीं और लाल घोड़ी को पानी पिला कर चल दिया। घर आकर लाल ने अपनी पत्नी को बताया मैंने सोच रखा था कि अगर वह आगे आया तो उसके सिर पर लोटा दे मारूँगा । घोड़ी पर सवार आदमी वैसे भी चार आदमियों से भारी होता है। जिमे चाहे घोड़ी के नीचे डालकर रौंद दे।"
'शाबाश' लाल की पत्नी ने कहा ।

फिर एक रात थोड़ी बूँदाबांदी हुई। शरीर पर पड़ी बूंदों से पैदा हुए आलस्य के कारण लाल ने तड़के भैंस को घास न डाली । घास को भूख से तुनकी भैंस ने सांकल खींचकर वर्षा के कारण ढीला हुआ खूँटा उखाड़ लिया। काफी दिन चढ़ने पर लाल उठकर बाहर रास्ते में घूमती भैंस को पकड़ लाया और बैठकर उसे दुहने लगा। भैंस की झोल आज बहत कम थी। ऐसा लगता था जैसे किसी ने पहले उसे दुहा हो । अब केवल दाने के लालच से ही वह दोबारा दूध दे रही हो । लेकिन दुह कौन सकता है। दयाल के अलावा यह किसी और को तो पास पटकने तक नहीं देती। बस दयान ने ही इसे दुहा होगा। दो-दो, चार-चार धारें निकलने के बाद चरों स्तन खाली हो गये।

लोटे के अंदर तीन चार गिलास दूध की जगह सिर्फ करीब एक गिलास दूध था। अब क्या होगा। दयाल ने बहुत ही मूर्खता की थी। अपनी पत्नी से लाल अब क्या कहे ? उसे पता था कि दयाल द्वारा भैंस को दुहाकर अपनी पत्नी के आगे वह चुपचाप कैसे बैठ सकता था। वह भैंस के स्तनों को हाथ में लिये अकारण ही बैठा रहा, पर और अधिक धारें न निकल सकीं। दूध की आखिरी बूंदें भी समाप्त हो चुकी थीं। अचानक लाल को एक तरकीब सूझी। जमीन पर गिरे दूध के बारे में यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वह मात्रा में कितना है। थोड़ी मात्रा में गिरा दूध भी बहुत-सा मालूम देता है। यदि वह लोटे के दूध को गिरा दे, तो वह अपनी पत्नी से कह सकता है कि भैंस ने टाँग हिलाकर दूध गिरा दिया। हाथ में पकड़ा हुआ दूध का लोटा उसने उलटा कर दिया। वर्षा के कारण सब ओर कीचड़-ही-कीचड़ था और कहीं-कहीं पानी की छोटी-छोटी तलैया भी बनी हुई थीं। इस कारण गिरा हुआ दूध और अधिक मालूम हो रहा था। लाल को अपने किये पर पूर्ण संतोष था।

"दूध तो आज गिरा दिया निगोड़ी ने।" उसने अपनी पत्नी से आकर कहा।
"हाय, हाय। कैसे?"
"बस, टाँग उठाकर लोटे पर मारी और लोटा उलट गया।"
"दो लट्ठ नहीं मारे जाते ऐसी मनहूस के।" पत्नी को चार पहर बिना दूध के रहने की बात पर गुस्सा आ रहा था।
"नहीं, मारने से क्या होता। कहीं मक्खी ने काट दिया होगा। मक्खी के काटने से पशु बेबस हो जाता है। है तो बेचारी बड़ी अच्छी।"

चूल्हे के पास से उठकर पत्नी भैंस के पास आयी। असाधारण घटी घटना को देखने की उत्सुकता हरेक के अन्दर जाग उठती है।
"हाय, कितना सारा दूध था। तलैया भरी पड़ी है दूध की।" कहकर उसने लाल के मन को शांत कर दिया।

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