दूध का दाम (कहानी) : बनफूल
Doodh Ka Daam (Bangla Story in Hindi) : Banaphool
रेलगाड़ी के आने का अंदाजा स्पष्ट होने लगा था। अब जब कभी भी वह प्लेटफॉर्म पर पहुँचने ही वाली थी । उसे पकड़ने के लिए अत्यंत बेशकीमती सुंदर वस्त्रों में सजी-धजी, सुंदर-सुड़ौल तन्वंगी सुदर्शना, सुरूपा युवतियाँ इठलाती, बलखाती हुईं स्टेशन के उस प्लेटफॉर्म पर आ पहुँची थीं। सुंदर युवतियों के उस झुंड के आसपास चारों ओर कई बंगाली नौजवान भी घिरने शुरू हो गए थे। कोई-कोई तो इस तरह के भाव अपने चेहरों पर बनाए हुए थे, जैसे कि कहीं आ-भिड़ने में उनकी अपनी कोई दिलचस्पी नहीं है। जबकि कुछ तो अपनी पूरी समझदारी और चतुराई के साथ उन्हीं के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे थे । सुंदर युवतियों के उस मधु-गुंजार भरे माहौल में एक ढली हुई अवस्था की वृद्धा-महिला भी उसी रेलगाड़ी को पकड़ने की आशा में बढ़ती चली आई थी कि तभी वहाँ ढीले- ढाले ढंग से बाँधकर रखे किसी व्यक्ति के बिस्तरबंद के फीते में उनका पाँव जा उलझा और वह वहीं धड़ाम से गिर पड़ी। उससे उन्हें काफी चोट आई। वह जोर-जोर से कराहने लगीं, परंतु उसकी ओर किसी ने देखा तक नहीं । उनकी सहायता करने के लिए किसी ने भी न कुछ कहा, न कुछ किया। करने की कोई बात भी तो नहीं थी । कारण, स्त्रियों के प्रति सभ्य - शिष्टाचार निभाने की भावना की जो बात है, वह तो विदेशयों के प्रभाव के रूप में वहाँ आई है, लेकिन वह केवल उनके अपने देश की युवतियों के लिए ही कार्य रूप में परिणत होती है।
इसलिए जो स्त्रियाँ युवती नहीं हैं, उनके प्रति शिष्टाचार दिखाने की आवश्यकता नए जमाने के नवयुवकों में कहाँ है ? वैसे वहाँ जितने मुसाफिर थे, वे सभी के सभी केवल उन युवतियों के झुंड को लेकर ही प्रकट रूप में अथवा छिपे - छिपे तौर पर व्यस्त नहीं थे। जिन सज्जन महोदय के बिस्तरबंद के फैले फीते में पैर के अटक जाने से वह वृद्धा गिर पड़ी थीं, वे अच्छे-खासे पढ़े-लिखे शिक्षित और सुसभ्य समाज के सम्मानित पुरुष थे । वे भी वहाँ पास में ही खड़े थे। उन्होंने उस वृद्धा को डाँट फटकार भरे लहजे में एक उपदेश वाक्य झाड़ दिया – “ रास्ते पर निगाह गड़ाकर चल नहीं सकती, अगर जरा और तेज का झटका लगता तो मेरे बिस्तरबंद का फीता ही टूट जाता !”
पक्के फर्श पर गिर पड़ने के कारण उस वृद्ध महिला के दाहिने पैर में गहरी चोट आई थी। फिर भी जैसे-तैसे खड़ी होकर वह लँगड़ाते - लँगड़ाते प्लेटफॉर्म पर तेजी से आगे बढ़ने लगी; क्योंकि गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ लगी थी। इस डिब्बे-उस डिब्बे में दौड़-धूप करते हुए भी वह किसी एक में घुस नहीं पा रही थी। हालाँकि चाहे जैसे भी हो, किसी-न-किसी डिब्बे में अपने लिए उसे एक ठिकाना जुटाना ही था । रेलगाड़ी ज्यादा देर तक अब रुकेगी नहीं, जबकि किसी भी डिब्बे में घुसना असंभव हो रहा था। जैसे-तैसे, गिरते पड़ते वह एक इंटरक्लास (उस जमाने में रेलगाड़ियों में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के अलावा एक इंटरक्लास का ड्योढ़ा डिब्बा भी होता था, जो आजकल के आरक्षित द्वितीय श्रेणी के शयनयानों जैसा होता था) के डिब्बे में घुस आई। उसे उसमें चढ़ते देख उस डिब्बे में बैठे सारे-के-सारे यात्री विरोध में चीखने-चिल्लाने लगे।
डिब्बे में चढ़ आने के बाद भी, उसे बैठने की कोई जगह नहीं मिली। वैसे उस डिब्बे में जगह की कोई कमी नहीं थी। सुसभ्य समाज के एक माननीय बंगाली - महोदय अपने सारे बंडल - बिस्तर और सामान को बैठने की सीट पर फैलाकर ही पाँव पसारे बैठे थे। अगर वे जरा सा भी सरक जाते तो उस वृद्धा को बैठने की जगह बहुत आसानी से दे सकते थे। सरककर जगह तो उन्होंने नहीं दी, परंतु उपदेश देने से नहीं चूके, “घुसने को तो डिब्बे में घुस आई, अब जरा यह तो बताओ बुढ़िया कि बैठोगी कहाँ ?"
"मैं आप लोगों के पैरों के पास फर्श पर ही जैसे-तैसे बैठ जाऊँगी, भाई साहब! बस दो ही स्टेशनों की तो बात है, उसके बाद रेलगाड़ी जहाँ रुकेगी, बस वहीं उतर जाऊँगी। आप लोगों को बहुत अधिक देर तक असुविधा नहीं पहुँचाऊँगी।"
उन्हीं सज्जन के जूतों के जोड़ों को थोड़ा सा सरकाकर वह उनके पैरों के तलवों के पास ही बैठ गई । उनके बैठ जाने से भी कोई खास असुविधा किसी को नहीं हुई, क्योंकि एक तो वह वृद्धा काफी दुबली- पतली और साधारण कद-काठी की थी, दूसरे वह अपने उस शरीर को भी काफी सिकोड़-मरोड़कर बैठी थी। उस तरह बैठे रहने से उसे खुद ही काफी असुविधा थी। उधर प्लेटफॉर्म पर उस आदमी के बिस्तरबंद के फीते में पाँव उलझ जाने के कारण गिर पड़ने से पैर में जो मोच आ गई थी; अब घाव के ठंडा पड़ने पर वह अधिक टीस पैदा करने लगी। अब वह सहज-स्वाभाविक ढंग से बैठ भी नहीं पा रही थी। मोच आए पैर को उसने जो फिर ध्यान से देखा, तो पाया कि घाव लगी जगह पर सूजन आ गई है। पैर के फूलने और दर्द के लगातार बढ़ते ही जाने के कारण अब उसके मन में एक भारी दुश्चिंता उठने लगी कि ऐसी हालत में वह इस डिब्बे से नीचे कैसे उतरेगी ? बस दो स्टेशन बाद ही तो उतरना पड़ेगा ! आनेवाले उस स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर केवल उतरना ही तो नहीं है, बल्कि वहाँ से फिर दूसरे प्लेटफॉर्म पर जाकर एक और रेलगाड़ी पकड़नी है। जबकि अभी हालत यह है कि वह अपने पैर को हिला भी नहीं पा रही है; ऐसी हालत में तो खड़ा भी नहीं हुआ जा सकेगा। एक बार उसने उस डिब्बे में चारों ओर निहारा । डिब्बा अनेक बंगाली नागरिकों से भरा हुआ था। हालाँकि उनमें से ज्यादातर युवक थे, जो उसके बच्चों की उम्र के ही थे, कुछेक तो उसके नाती की उम्र के बराबर के भी थे। डिब्बे में उपस्थित लोगों को निहार लेने के बाद और अपने पहले के विभिन्न अनुभवों के आधार पर उसने अच्छी तरह समझ लिया कि आगे स्थिति क्या होगी ! उनमें से कोई भी उसे खड़ा होने और फिर डिब्बे से नीचे उतरने में सहायता करेगा? इसकी उम्मीद वह नहीं लगा सकी। फिर भी अब तो यह मजबूरी ही थी कि उन्हीं लोगों से सहायता करने की याचना करनी पड़ेगी। नहीं तो और कोई उपाय ही कहाँ रहा ?
उस वृद्धा को जिस स्टेशन पर उतरना था, रेलगाड़ी उस स्टेशन पर जा पहुँची । डिब्बे में बैठे वे सभी लोग हड़बड़ी में उतरने लगे, जिन्हें वहाँ उतरना था । परंतु उस वृद्धा की ओर किसी ने आँख उठाकर देखा तक नहीं ।
"अरे, ओ भाई लोगो ! जरा मुझे भी नीचे उतार दो न, मैं अपनी चोट लगी टाँग के कारण खड़ी नहीं हो पा रही हूँ। " वृद्धा ने जो यह करुण विनती की थी, वह डिब्बे में उपस्थित सभी लोगों के कानों में पहुँची। परंतु उनमें से अधिकांश सज्जनों ने ऐसी मुद्रा बनाई, जैसे लगा कि वे कुछ सुन नहीं सके।
एक सज्जन, जिनकी मुद्रा ऐसी थी कि उन्होंने सुन लिया है, बोल पड़े- " इस भिखमंगी औरत का साहस देखा आप लोगों ने ? अरे, कहाँ तो बिना टिकट के ही इस इंटरक्लास डिब्बे में चढ़कर जा रही है और अब यह हम लोगों से सेवा भी करवाना चाहती है !"
हालाँकि उस महोदय ने उस वृद्धा को भिखारी समझा, परंतु वह वृद्धा महिला न तो भिखारी थी और न ही पहनावे-ओढ़ावे या शक्त-सूरत अथवा आचार-व्यवहार में किसी भी तरह भिखारी दिखाई दे रही थी । उनके पास भी रेलवे का टिकट था; वह भी साधारण सेकंड क्लास का न होकर रिजर्व टाइप के इंटरक्लास का ही टिकट था ।
एक अन्य सज्जन ने उससे भी और समझदारी भरा विचार प्रकट किया, "इस असहाय बूढ़ी औरत को रास्ते पर छोड़ दिया है घरवालों ने। इसका कोई पति अथवा बेटा नहीं है क्या ? कितनी हैरानी की बात है यह ?” इतना कहकर सिगार के लंबे-लंबे कश खींचते और धुआँ उगलते हुए वह भी नीचे उतर गए । डिब्बे में जो लोग बाकी बचे रह गए थे, उनमें से दो-चार लोगों ने अपने टिफिन-कैरियर खोलकर भोजन करने में अपना मन लगा दिया था । उस वृद्धा की दर्द भरी विनती उन लोगों के कानों में भी गई थी; परंतु उसकी ओर ध्यान देना उन लोगों ने उचित नहीं समझा। थोड़ी देर में वह वृद्धा अपने दोनों हाथों की टेक देकर किसी तरह घिसटते - घिसटते डिब्बे के दरवाजे के सामने पहुँच गई थी, परंतु नीचे उतरने का साहस नहीं कर पा रही थी।
" अरे ओ बुढ़िया ! दरवाजे पर से हट जाओ। " - एक मारवाड़ी - सज्जन इतना कहकर उसके हटने का इंतजार किए बगैर ही अपने पैरों से उसे धक्का मारते हुए डिब्बे के अंदर जा घुसे। उसके पीछे-पीछे एक बहुत ही हट्टा- कट्टा बलिष्ठ शरीर का कुली भी चला आ रहा था । उसके सिर पर एक बहुत भारी सूटकेस और बँधा हुआ बिस्तरबंद रखा था। कुली के पीछे एक छोकरा भी चढ़ता चला आ रहा था, जिसने अपनी आँखों पर नीला चश्मा लगा रखा था तथा पैरों में चप्पल पहने हुए था । उसकी साज- पोशाक रंग-बिरंगी और बड़े विचित्र प्रकार की थी। उसने एक विचित्र प्रकार की मुद्रा बनाते हुए कहा, “ दयामयी ! कृपया रास्ता तो छोड़ें। ठीक दरवाजे पर क्यों विराजी हुई हैं?"
" अब तुम्हें कैसे बतलाऊँ, बेटा! पैर में बहुत जोर से मोच आ गई है। इसी वजह से मैं नीचे उतर नहीं पा रही हूँ।"
"ओह, अच्छा तो यह बात है। ठीक है, जरा मैं देखकर आता हूँ कि कहीं से अस्पताल का स्ट्रेचर उठाकर ला पाता हूँ।” कहकर वह विचित्र हाव-भाववाला छोकरा प्लेटफॉर्म की उस भीड़ में ऐसा खो गया कि फिर उस दरवाजे पर लौटा ही नहीं।
थोड़ी देर पहले जो बलिष्ठ शरीरवाला कुली अपने सिर पर बक्सों का बोझा लिये हुए डिब्बे में घुसा था, वह बाहर जाने के लिए अब खुले माथे होकर लौट रहा था। बाहर उतरने के लिए जगह खाली न देख वह वहाँ आकर खड़ा हो गया और बोला- “माई जी ! जरा कृपा करके थोड़ा हटकर बैठो न! आप नाहक आने-जाने के रास्ते पर क्यों बैठ गई हैं ?"
उसकी बात सुनते ही वृद्धा कुहर - कुहरकर रो पड़ी - "मुझे बैठना नहीं है, इस स्टेशन पर अभी उतरना है; मगर उतर नहीं पा रही हूँ। मेरे पैरों में इतनी गहरी चोट लगी है कि क्या बताऊँ बेटा !”
"ओह, यह बात है ? आपको जाना कहाँ है ?"
"गया शहर।"
"अच्छा तो अभी आगे दूसरी गाड़ी में चढ़ना भी है । कोई चिंता - फिक्र नहीं। आइए, मैं आपको ले चलता हूँ। जिस तरह से एक हृष्ट-पुष्ट बड़ा पुरुष एक नन्हे बच्चे को हाथों में घेरकर गोद में उठाकर अपनी छाती से लगा लेता है, ठीक उसी प्रकार उस कुली ने उस वृद्धा को अपनी दोनों बाँहों में भरकर गोदी में उठा लिया। फिर उसी तरह उठाए- उठाए ही वह उन्हें सीधे प्रथम श्रेणी के प्रतीक्षालय वाले कमरे में लेकर चला गया। वहाँ उसे एक जगह पर बैठाते हुए बोला, “माईजी ! आप यहीं पर आराम से बैठिए । गया शहर जानेवाली रेलगाड़ी के आने में अभी थोड़ी देरी है; परंतु आप घबराइए नहीं, मैं ठीक समय पर आकर आपको ले जाकर आपकी रेलगाड़ी के डिब्बे में चढ़ा दूँगा ।"
प्रतीक्षालय के फर्श पर ही वृद्धा थोड़ी आराम की मुद्रा में बैठ गई । उस कमरे में लंबे हत्थों पर पैर फैलाकर आराम से बैठी जा सकनेवाली दो आरामकुर्सी पर अंग्रेजी सूट-बूट में सजे-धजे दो बंगाली सम्मानित व्यक्ति अपने- अपने पैर पसारे लंबी ताने लेटे हुए थे। एक सज्जन दैनिक समाचार-पत्र पढ़ने में व्यस्त थे, जबकि दूसरे के हाथ में अंग्रेजी भाषा की एक मोटी सी किताब थी। उस किताब के मुख पृष्ठ पर मुसकराती हुई मुद्रा में एक अर्धनग्न युवती की तसवीर छपी हुई थी। उसकी मुसकान को देखते हुए उस वृद्धा के मन में आया, जैसे वह युवती उसकी ओर देखकर उसकी दुर्दशा पर व्यंग्य की हँसी हँसती जा रही है।
उन दोनों सज्जनों के बीच जो बात शुरू हुई, उससे लगा कि वह अभी इसी क्षण आरंभ नहीं हुई है, बल्कि उसके संबंध में काफी कुछ आलोचना - प्रत्यालोचना पहले से होती चली आ रही थी। अब बात इसतरह शुरू हुई, “सभ्य- समाज का नागरिक शिष्टाचार का रिवाज, कोई उन्हीं पश्चिमी देशों की जागीर थोड़े ही है। स्त्रियों के प्रति शालीन शिष्टाचार निभाने की प्रथा हमारे अपने इस देश में बहुत प्राचीनकाल में भी थी - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता (स्त्री जाति की जिस स्थल पर पूजा होती है; वहीं देवता लोग प्रसन्न मन से निवास करते हैं) – यह सुविचार हमारे पुराने स्मृति - शास्त्र में महाराज मनु ने ही लिख रखा है, महाशय !”
जो सज्जन नग्न स्त्री के चित्रोंवाली अंग्रेजी-भाषा की पुस्तक पढ़ रहे थे, उनकी हड़बड़ाहट देख ऐसा जान पड़ा, जैसे यह वाक्य उनके लिए पहली - पहली बार सुनी हुई कोई खबर हो, जिसके बारे में पहले से वे कुछ जानते ही न थे। वे आवेश में उठ खड़े हुए, “ अरे वाह ! यह आप क्या कह रहे हैं? आपने पहले क्यों नहीं बताया ? यदि मैं इस बात को पहले से जानता होता, तो फिर उस अंग्रेज साले को यों ही छोड़ देता क्या ? भला बतलाइए, महाराज मनु के जमाने में भी हमारे देश में स्त्री- जाति के प्रति अतिशय शिष्ट और शालीन शिष्टाचार निभाने की परंपरा थी । हम लोग महा पिछड़े हुए बर्बर और जंगली नहीं थे। यह बात मैं उस छोकरे को अच्छी तरह समझा देता ।”
वृद्धा ने अनुमान लगाया कि लगता है कि इससे पहले अंग्रेज जाति का कोई ब्रिटिश साहब यहाँ बैठा होगा, जिसकी भारतीयों के व्यवहार पर और उनकी सभ्यता पर की गई किसी टिप्पणी से ये लोग आहत हो गए थे। उसे लगा कि इन लोगों को उससे तर्क-वितर्क में अवश्य ही मुँह की खानी पड़ी होगी। संभव हैं कि उस गोरी चमड़ीवाले साहब ने अंग्रेजी पोशाक पहननेवाले काली- चमड़ी के इस बंगाली नौजवान को जंगली और बर्बर कहकर व्यंग्य कर दिया हो ! यह सोचकर उन्होंने मन-ही-मन बुदबुदाते हुए कहा, 'इसमें कुछ गलत ही क्या है ? मेरे प्यारे नौजवान बालको! तुम लोग अभी भी बर्बर, हिंसक, जंगली और असभ्य ही हो। वैसे शिष्टाचार तुम लोगों में है भी; विशेषकर स्त्रियों के प्रति अति शालीन नागरिक शिष्टाचार तो है ही, परंतु वे सब केवल युवतियों - कन्याओं के साथ व्यवहार करते समय ही दिखाई पड़ता है, औरों के मामलों में वह हवा हो जाता है।' बँगला भाषा के अलावा वृद्धा संस्कृत और अंग्रेजी का भी सामान्य ज्ञान रखती थी, क्योंकि उस जमाने में अंग्रेजी माध्यमवाले बेथुन - स्कूल में उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी।
तभी उस दूसरे बंगाली सज्जन की दृष्टि इस वृद्धा पर पड़ी। वे यकायक उबल पड़े, “अरे-अरे! ये औरत इस जगह पर कहाँ से आ घुसी ?"
" लगता है, कोई भीख माँगनेवाली होगी, कुछ पाने की तलाश में घुस आई होगी!" दूसरे बंगाली भद्रपुरुष ने अपने द्वारा लगाए गए अनुमान का खुलासा किया।
" सच कहते हो, भाई ! हमारा यह पूरा देश ही भिखारियों से भर गया है। स्वतंत्रता मिलने के बाद से तो भिखमंगों की संख्या बड़ी तेजी से और भी बढ़ गई है। कुछ तो माँग- माँगकर परेशान कर देते हैं, परंतु सभी तो वैसे नहीं हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जो मुँह खोलकर नहीं माँग पाते। "
फिर तो दिखाई पड़ा कि बंगाली सुसभ्य नागरिक महोदय ने अपनी जेब से एक पैसा निकालकर फेंक दिया ।
उनके ऐसा कर गुजरने पर भी वृद्धा पहले की ही तरह निर्विकार भाव से बैठी रह गई ।
"अरे, ओ बुढ़िया ! वह पैसा उठा लो, वह पैसा मैंने तुम्हें दिया है। "
इतना होने भी वृद्धा ने अपने मुँह से जबान नहीं खोली।
ऐसा होते देख उस दानदाता सभ्य सुसंस्कृत सज्जन के मन में यह संदेह हुआ कि संभव है, यह बुढ़िया बंगाली नहीं है, इसलिए परिष्कृत बँगला - भाषा में कही हुई उनकी बात को समझ नहीं पा रही है। तब उसने राष्ट्रभाषा हिंदी का व्यवहार किया। राष्ट्रभाषा का ज्ञान उन्हें अभी कुछ पहले ही तब हुआ था, जब अपनी नौकरी में सुविधा पाने के उद्देश्य से उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी की एक परीक्षा उत्तीर्ण की थी।
" उस पैसे को मैंने तुम्हें ही दिया है। तुम बिना डरे ही उसे उठा लो । "
उसकी यह बात सुनकर इस बार वृद्धा चुप नहीं रह सकी । वह परिष्कृत बँगला भाषा में कह उठी, “हे महाशयो ! मैं कोई भीख माँगनेवाली नहीं। जिसतरह से आप लोग भारतीय रेल के यात्री के रूप में यहाँ हैं, मैं भी भारतीय रेल की एक यात्री हूँ।"
"अच्छा, तो फिर इस प्रतीक्षालय में क्यों आ गई हो ? तुम्हें यह तो पता ही होगा कि यह कोई साधारण कमरा नहीं है, बल्कि यह उच्च श्रेणी के टिकटधारकों का प्रतीक्षालय है। "
“जी महाशय! मुझे सब मालूम है और मेरा अपना रेल टिकट भी उसी श्रेणी का है।" इतना वह कह ही पाई थी कि दूसरे ही क्षण बलिष्ठ कायावाला वह कुली दरवाजे पर आता हुआ दिखाई पड़ा और वहीं से चिल्लाया, “उठिए माईजी ! अब चलिए । गया शहर को जानेवाली रेलगाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ लगी है।" फिर करीब आकर उसने अपनी बलिष्ठ-भुजाओं में फिर से एक नन्हे बच्चे की तरह उस वृद्धा को गोदी में उठा लिया और उन्हें सँभालकर बाहर लिये चला गया।
गया शहर जानेवाली यात्री रेलगाड़ी में थोड़ी भीड़ थी; परंतु कुली बहुत ही मजबूत कद-काठी का था । आज के जमाने में शारीरिक-शक्ति की सभी जगह विजय होती है, अतः अपनी इस क्षमता का लाभ उठाते हुए अन्य यात्रियों को डाँट-डपटकर उन्हें सरकाते हुए डिब्बे की एक बैंच के कोने के स्थान में आराम से बैठने की एक अच्छी जगह पाने में सफलता प्राप्त कर ली। उसने वृद्धा को बहुत आराम से वहाँ बिठा दिया। वह जैसे ही डिब्बे से बाहर जाने लगा, वृद्धा ने उसका हाथ पकड़कर उसे दो रुपए दिए।
वृद्धा के इस व्यवहार पर उस कुली के साथ हिंदी भाषा में जो उनका वार्त्तालाप हुआ, उसका सारांश इस प्रकार है-
“नहीं माँजी! मैं इतने पैसे नहीं ले सकता। मेरी मजदूरी वस्तुतः कुल आठ आना की ही हुई। फिर आप मुझे आठ आने की जगह ये दो रुपए क्यों दे रही हैं ?"
“अरे, वाह ! तुमने मेरे लिए इतना कुछ किया । उसका क्या कोई मूल्य नहीं ? ले बेटा! मैंने जानबूझकर ही थोड़ा अधिक दिया है।"
"नहीं माँजी! आप मुझे कृपया क्षमा करेंगी। मैं एक मजदूर हूँ और अपनी मजदूरी की ही रोटी कमाता हूँ। मैं अपना धर्म बेचनेवाला नहीं हूँ। "
"नहीं रे! तू तो मेरा बेटा है, बेटा! बेटे का ही तो काम तुमने किया है। जबकि माँ होकर भी मैंने तुम्हें अपना दूध नहीं पिलाया था। आज इस घड़ी में जो ये मामूली से अधिक पैसे दे रही हूँ, उन्हें उस दूध का दाम समझकर ही रख लो, बेटा ! जाओ खुश रहो । सुखी रहो । दीर्घायु हो । भगवान् तुम्हारा मंगल करें। " कहते-कहते वृद्धा का गला भर आया । उनकी आवाज काँपने लगी। उनकी दोनों आँखों के कोनों में आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें झिलमिलाने लगीं।
कुछ देर के लिए तो वह कुली आश्चर्यचकित हो काठ - सा खड़ा ही रह गया था, परंतु उसके थोड़ी ही देर बाद उसका सिर अपने आप वृद्धा के चरणों में झुक गया। बड़े आदर के साथ उस वृद्धा को प्रणाम कर वह रेलगाड़ी के उस डिब्बे से नीचे उतर गया।