Diva (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

दिवा (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

2. दिवा
देश : वोल्गा-तट (मध्य)
जाति : हिन्दी-स्लाव
काल : ३५०० ई० पू०

1.

"दिवा । धूप तेज है, देख तेरे शरीर में पसीना । आ, यहाँ शिला पर बैठें।"

"अच्छा, सूरश्रवा -ा-ा-ा" कह दिवा सूरश्रवा के साथ एक विशाल देवदारु की छाया में शिला-तल पर बैठ गई।

ग्रीष्म का समय; मध्याह्न की बेला, फिर मृग के पीछे दौड़ना, इस पर भी दिवा के ललाट पर श्रमबिन्दु अरुण मुक्ताफल की भाँति न झलके, यह कैसे हो सकता था ? किन्तु यह स्थान ऐसा था, जहाँ उनके श्रम के दूर होने में देर नहीं लग सकती थी। पहाड़ी नीचे से ऊपर तक हरियाली से लदी हुई थी। विशाल देवदारु अपनी शाखाओं और सूची पत्रों को फैलाये सूर्य की किरणों को रोके थे। नीचे बीच-बीच में तरह-तरह की बूटियाँ, लताएँ और पौधे उगे हुए थे। जरा-सा बैठने के बाद ही तरुण-युगल अपनी थकावट को भूल गये; और आसपास उगे पौधों में रंग-बिरंगे फूल और उनकी मधुर गंध उनके मन का आकर्षण करने लगी। तरुण ने अपने धनुष-बाण और पाषाण-परशु को शिला पर रख दिया; और पास में कल-कल बहते स्फटिक स्वच्छ जलस्रोत के किनारे उगे पौधों से सफेद, बैंगनी, लाल फूलों को चुनना शुरू किया। तरुणी ने भी हथियारों को रख अपने लम्बे सुनहले केशों पर हाथ डाला, अभी भी उनकी जड़ें आई थीं। उसने एक बार नीचे प्रशान्त प्रवाहिता वोल्गा की धारा की ओर देखा, फिर पक्षियों के मधुर कलरव ने उनका ध्यान क्षण भर के लिए अपनी ओर आकर्षित किया, उसने झुककर फूल चुनते तरुण पर नजर डाली। तरुण के भी वैसे ही सुनहले केश थे, किन्तु तरुणी अपने केशों से तुलना नहीं कर सकती थी; वह उसे अधिक सुन्दर जान पड़ते थे। तरुण का मुख घने पिंगलश्मश्रु से ढंका था, जिसके ऊपर उसका नासा, कपोल-भाग और ललाट की अरुणिमा दिखलाई पड़ती थी। तरुणी की दृष्टि फिर सूर की पुष्ट रोमश भुजाओं पर पड़ी। उस वक्त उसे याद आया कि कैसे सुर ने उस दिन एक बड़े दन्तैल सुअर की कमर को इन्हीं भुजाओं से पत्थर के फरसे द्वारा एक प्रहार में तोड़ दिया था। उस दिन यह कितनी कर्कश थीं और आज इन फूलों को चुनने में वह कितनी कोमल मालूम होती हैं। किन्तु उसकी मुसुक में उछलती मुसरियाँ, उसके पहुँचे में उभड़ी नसें बाहु को विषम बनाती अब भी उसके बल का परिचय दे रही थीं। एक बार तरुणी के मन में आया, उठकर उन बाँहों को चूम ले। हाँ, इस वक्त वह उसे इतनी प्यारी मालूम हो रही थीं। फिर दिवा की दृष्टि तरुण की जाँघों पर पड़ी। हर गति में उनकी पेशियाँ कितनी उछलती थीं। सचमुच चर्बीहीन पेशीपूर्ण उसकी जाँघे, पृथु पेंडली और क्षीण घुट्टी दिवा को अनोखी-सी मालूम होती थीं। सूर ने दिवा का प्यार पाने की कई बार इच्छा प्रकट की थी; मुंह से नहीं, चेष्टा से । नाचों में उसने कई बार अपने श्रम-कौशल को दिखलाकर दिवा को प्रसन्न करना चाहा था, लेकिन दिवा ने जहाँ जन के तरुणों को कितनी ही बार अपनी बाँहें नाचने को दीं, कई बार अपने ओंठ चूमने को दिये, कई बार उनके अंकों में शयन किया, वहाँ बेचारा सूर एक चुम्बन, एक आलिंगन क्या, एक बार हाथ मिलाकर नाचने से भी वंचित रहा !

सूर अँजली में फूल भर अब दिवा की ओर आ रहा था। उसका नग्न सर्वांग कितना पूर्ण था, उसका विशाल वक्ष, चर्बी नहीं पेशीपूर्ण कृश उदर कितना मनोहर था, इसका ख्याल आते ही दिवा को अफसोस होने लगा-उसने क्यों नहीं सूर का ख्याल किया। लेकिन, वस्तुतः इसमें दिवा का उतना दोष न था, दोष था सूर के मुँह पर लगे लज्जा के ताले का-जिसने दरवाजा खटखटाया उसके लिए वह खुला।

सूर के पास आने पर दिवा ने मुस्कराते हुए कहा-

"कितने सुन्दर, कितने सुगन्धित हैं ये फूल !"

सूर ने फूलों को शिलातल पर रखते हुए कहा-"जब मैं इन्हें तेरेसुनहरे केशों में गूंथ दूँगा, तो ये और सुन्दर लगेंगे।"

"तो सूर ! तू मेरे लिए इन फूलों को ला रहा है ?"

"हाँ, दिवा ! मैंने इन फूलों को देखा, तुझे देखा, फिर याद आई जल की परियाँ ।”

"जल की परियाँ ?"

"हाँ, बहुत सुन्दर जल की परियाँ जो खुश होने पर सारी मनोवांछाओं को पूर्ण कर देती हैं और नाराज होने पर प्राण भी नहीं छोड़तीं ।"

"तो सूर ! तू मुझे कैसी जल-परी समझता है ?"

"नाराज होने वाली नहीं ।”

"किन्तु, मैं तुझ पर कभी खुश नहीं हुई।

दिवा ठंडी सॉस लेकर चुप हो गई। सूर ने फिर दुहराते हुए कहा-

"नहीं दिवा ! तू मुझपर कभी नाराज नहीं हुई। याद है बचपन के दिन ?’

“तब भी तू शर्मीला था।”

"किन्तु तू मुझपर नाराज न होती थी।"

“तब मैं तुझे अपने आप चूमती थी।"

"हाँ, वह चूमना बहुत मीठा था।”

किन्तु जब वे मेरे गोल-गोल स्तन उभड़ने लगे, तब मेरे मुख को सारे जन के तरुण जोहने लगे, तब मैंने तुझे भूला दिया ।”-कह दिवा कुछ खिन्नमना हो गई।

"लेकिन दिवा ! इसमें तेरा दोष नहीं है।"

"फिर किसका दोष ?"

"मेरा, क्योंकि सारे जन के तरुण तुझसे चुम्बन माँगते, तू उन्हें चुम्बन देती; सारे जने के तरुण आलिंगन माँगते, तू आलिंगन देती। मृगया में चतुर, नृत्य में कुशल, शरीर में पुष्ट और सुन्दर किसी जन-तरुण की आशा को तूने भंग नहीं किया।”

"किन्तु सूर' ! तू भी वैसा ही, उनसे भी बढ़कर चतुर, कुशल, पुष्ट तरुण था, और मैंने तेरी आशा को भंग किया।

"दिवा । किन्तु मैंने कभी आशा नहीं प्रकट की।”

"शब्द से नहीं । बचपन में हम जब साथ खेला करते, तब भी तू शब्द से आशा नहीं प्रकट करता था, किन्तु दिवा समझती थी, आज दिवा ने सूर को भुला दिया, क्या यह दिवा (दिन) उस चमकते सूर (सूर्य) को कभी भुलाती है ? नहीं सूर ! अब दिवा तुझे नहीं भुलायेगी ।

"तो मैं फिर वही सूर और तू वही दिवा बनेगी।"

"हाँ, और मैं तेरे ओठों को चूमँगी।"

छोटे बच्चों की सी इन नग्न सौन्दर्य-मूर्तियों ने अपने अतिरिक्त अधरों को मिला दिया, फिर दिवा ने अपने अलसी के फूल जैसे नीले नेत्रों को सूर के वैसे ही नीले नेत्रों में चुभोते हुए कहा-

"और तू मेरी अपनी माँ का बेटा, मैं तुझे भूल गई !"

दिवा की आँखें गीली थीं। सूर ने उन्हें अपने गालों से पोछते हुए कहा-

"नहीं, तूने नहीं भुलाया दिवा ! जब तू बड़ी हो गई, तेरी वाणी, ऑखें और सारे अंग कुछ दूसरे जैसे मालूम होने लगे, तो मैं तुझसे दूर हटने लगा।"

"अपने मन से नहीं सूर !

"तो, दिवा !--"

"नहीं, कह तू मुझसे अब फिर नहीं शर्माएगा ?"

"नहीं शर्माऊँगा, अच्छा इन फूलों को गूंथने दे।"

सूर ने एक डंठल से रेशा निकाला, फिर उसमें लाल, सफेद, बैंगनी फूलों को गूंथना शुरू किया। उसके फूल के क्रम में सुरुचि थी। बालों को उसने सँभालकर पीठ पर फैला दिया। गर्मी के दिनों में वोल्गा-तीर के तरुण-तरुणियाँ अकसर नहाने-तैरने का आनन्द लेती हैं। इसलिए दिवा के केश साफ सुलझे हुए थे। सूर ने बालों पर तेहरी मेखला की भाँति स्रज को सजाया और फिर बीच में सफेद तथा किनारे पर बैंगनी फूलों के एक गुच्छे को ललाट के ऊपर केशों में खोंस दिया। दिवा शिलातल पर बैठी रही। सूर ने थोड़ा हटकर उसके चेहर को देखा। उसे वह सुन्दर मालूम हुई । थोड़ा और दूर से देखा। वह और भी सुन्दर मालूम हुई, किन्तु वहाँ फूलों की सुगन्धि न मिलती थी। सूर ने पास में बैठकर अपने गालों को दिवा के गालों से मिला दिया। दिवा ने अपने साथी की आँखें चूम लीं, और दाहिने हाथ को उसके कन्धे पर रख दिया । सूर ने अपने बाएँ हाथ से दिवा की कटि को लपेटते हुए कहा-

"दिवा ! ये फूल पहले से अधिक सुन्दर हैं ?"

“फूल या मैं ?"

सूर को कोई उत्तर नहीं सूझा, उसने जरा रुककर कहा-

"मैंने हटकर देखा, तुझे ज्यादा सुन्दर पाया। और हटकर देखा, और सुन्दर पाया।

"और यदि वोल्गा-तट से देखता ?"

"नहीं, उतनी दूर से नहीं-"

सूर की आँखों में चिन्ता की झलक उतर आई थी।

"दूर से तेरी सुगन्धि जाती रहती है, और रूप भी दूर हो जाता है।"

"तू सूर ! तू मुझे दूर से देखना चाहता है या पास रहना चाहता है।

"पास रहना, दिवा ! जैसे दिवा के पास चमकता सूर !"

“आज मेरे साथ नाचेगा सूर ?"

"जरूर !"

"आज मेरे साथ रहेगा ?"

"जरूर।"

"सारी रात ?"

“जरूर !"

"तो आज मैं जन के किसी तरुण के पास नहीं रहूँगी।" कह दिवा ने सूर का आलिंगन किया।

इसी बीच कितने ही शिकारी तरुण-तरुणियाँ आ गई । उनकी आवाज को सुनकर भी वे दोनों वैसे ही रोम-रोम से आलिंगित खड़े रहे। उन्होंने पास आकर कहा-

"दिवा ! आज तूने सूर को अपना साथी चुना ?"

"हाँ ! और मुँह को उनकी ओर घुमाकर कहा-"देखो ये फूल सूर ने सजाये हैं।"

एक तरुणी--"सूर ! तू फूल अच्छे सजाता है। मेरे केशों को भी सजा दे।"

दिवा-"आज नहीं, आज सूर मेरा। कल।”

तरुणी-"कल सूर मेरा।”

दिवा-"कल ? कल भी सूर मेरा।

तरुणी-"रोज-रोज सूर तेरा दिवा ! यह तो ठीक नहीं ।”

दिवा ने अपनी गलती को समझकर कहा-"रोज-रोज नहीं स्वसर (बहन) ! आज और कल भर ।"

धीरे-धीरे कितने ही और प्रौढ़ शिकारी आ गये। एक काला विशाल कुत्ता पास आ सूर के पैरों को चाटने लगा। सूर को अब अपनी भारी भेड़ याद आई। दिवा के कान में कुछ कह, वह दौड़ गया।

2.

लकड़ी की दीवारों और फूस से छाया एक विशाल झोपड़ा था । पत्थर के फरसे तेज होते हैं, किन्तु उनसे इतनी लकड़ियों का काटना सम्भव नहीं था। उन्होंने लकड़ी के काटने में आग से भी मदद ली थी, किन्तु पाषाण-परशुओं ने काफी काम किया था. इसमें शक नहीं। और इतना बड़ा झोपड़ा ? हाँ, इसी में सारा निशा-जन - निशा नामक किसी पुराने काल की स्त्री की सन्तान - रहता है। सारा जन एक छत के नीचे रहता, एक साथ शिकार करता, एक साथ फल या मधु जमा करता है। सारे जन की एक नायिका है, सारे जन का संचालन एक समिति करती है। संचालन–हाँ, इस संचालन से जन के व्यक्तियों के जीवन का कोई अंश छूटा नहीं है। शिकार, नाचना, प्रेम घर बनाना, चमड़े का परिधान तैयार करना सभी कामों का संचालन जन-समिति (कमेटी) करती है, जिसमें जन-माताओं को प्राधान्य है। निशा-जन के इस झोपड़े में १५० स्त्री-पुरुष रहते हैं। तो क्या यह सब एक परिवार हैं ? बहुत कुछ, और अनेक परिवार भी कह सकते हैं। क्योंकि माँ के जीते समय उसकी सन्तानों का एक छोटा परिवार-सा बन जाता है, ज्यादातर इस अर्थ में कि उसके सारे व्यक्ति उस माँ के नाम से पुकारे जाते हैं। उदाहरणार्थ, दिवा की माँ न रहे और वह कई बच्चों की माँ हो जाये, तो उन्हें दिवा-सूनु (दिवा-पुत्र) और दिवा-दुहिता (दिवा-पुत्री) कहेंगे। इतना होने पर भी दिवा की सन्तान की अपनी सम्पत्ति (मांस, फल) नहीं होगी। सभी जन-स्त्री, पुरुष दोनों साथ सम्पत्ति अर्जित करता है, साथ उसे भोगता है, न मिलने पर साथ भूखे मरता है। व्यक्ति जन से अलग अपना कोई अधिकार नहीं रखते । जन की आज्ञा, जन का रिवाज पालन करना उनके लिए उतना ही आसान मालूम पड़ता है, जितनी अपनी इच्छा।

और झोपड़ा ? यह अस्थायी झोपड़ा है। जब आस-पास के शिकार चले जायेंगे, आस-पास कन्द-मूल-फल न रहेंगे, तो सारा जन भी दूसरी जगह चला जायेगा। सदियों के तजुर्वे से उन्हें मालूम है, कि किसके बाद कहाँ शिकार पहुँचते हैं। यहाँ से चले जाने पर यह फूस गिर-पड़ जायेगा, किन्तु लकड़ी या पत्थर की दीवारें कई साल तक चली जायेंगी। नई जगह जा दीवारों को फस से ढॉक वे नया दम् (घर) बनायेंगे. उसमें एक स्थान सामान रखने का होगा, एक खाना पकाने का–जन हाथ से मिट्टी का बर्तन बनाता है, खोपड़ी को भी बर्तन के तौर पर इस्तेमाल करता है। माँस कभी कच्चा खाता है, कभी ताजे को भूनता है, सूखे को भूनना निषिद्ध समझता है। वोल्गा के इस भाग के जंगलों में मधु बहुत है, इसीलिए मध्वद (मधुभक्षी रीछ) भी यहाँ बहुत हैं। निशा-जन मधु को बहुत पसन्द करता है। मधु के तौर पर भी और सुरा के तौर पर भी।

और यह संगीत ? हाँ, स्त्री और पुरुष मधुर स्वर से गा रहे हैं। परिधाने के चमड़े को पीटने में तो नहीं लगे हुए हैं? जन हर एक काम को सम्मिलित ही नहीं करता, बल्कि उसे मनोरंजक ढंग से करता है- गीत सम्मिलित काम का एक अंग है, संगीत में काम का श्रम भूल जाता है। किन्तु यह गीत काम वाला गीत नहीं मालूम होता। यहाँ एक बार स्त्रियों के कंठ से सरस कोमल रोग निकल रहा है, एक बार पुरुषों के कंठ से गम्भीर कर्कश ध्वनि। चलें देखें।

झोपड़े में किन्तु विभक्त उसके एक भाग में जन के नर-नारी, बच्चे, बूढ़े, जवान इकट्ठा हुए हैं। बीच में छत कटी हुई है, जिनके नीचे देवदारु के काष्ठ की आग जल रही है। स्त्री-पुरुष बड़े राग से कुछ गा रहे हैं। उसमें जो शब्द सुनाई देते हैं, वह है-

"ओ-ो-ो-ग-ग-न्-ा-ा आ-ा-ा-या-ा"

क्या वह इसी अग्नि की प्रार्थना कर रहे हैं ? देखो, जन-नायिका तथा जन-समिति के लोग आग में माँस, चर्बी, फल और मधु डाल रहे हैं। अब के जन को शिकार खूब मिले, फल और मधु की भी बहुतायत रही, पशु तथा मानव शत्रुओं से जन-सन्तान को हानि नहीं पहुँची; इसीलिए आज पूर्णिमा के दिन जन अग्निदेव के प्रति अपनी कृतज्ञता और पूजा अर्पित कर रहा है। अभी जन-नायिका ने मधु-सुरा का एक चषक (प्याला) आग में डाला, लोग खड़े हो गये। हाँ, सभी नंगे हैं, वैसे ही जैसे कि पैदा हुए थे।

जाड़ा नहीं है, इस गर्मी में वह अपने चमड़े को किसी दूसरे चमड़े से ढॉकना सॉसत समझते हैं। लेकिन कितने सुडौल हैं इनके शरीर ? क्या इनमें किसी का पेट निकला है ? क्या इनमें किसी के चमड़े को चर्बी ने फुला रखा है?-नहीं। सौन्दर्य इसे कहते हैं, स्वास्थ्य इसका नाम है। इनके सबके चेहरे बिलकुल एक जैसे हैं। क्यों न होंगे, ये सभी निशा की सन्तान हैं, बाप-भाई-पुत्र से पैदा हुए हैं। सभी स्वस्थ और बलिष्ठ हैं। अस्वस्थ निर्बल व्यक्ति इस जीवन में, इस प्रकृति और पशु-जगत् की शत्रुता में जी नहीं सकता।

जन-नायिका उठकर बड़ी शाला में गई। लोग मिट्टी के लिए फर्श पर बैठ रहे हैं। मधु-सुरा के कुप्पे के कुप्पे आ रहे हैं और चषक (प्याले)—किसी के पास खोपड़ी के, किसी के पास हड्डी या सींग के, किसी के दारु-पत्ते के हैं। तरुण-तरुणियाँ, प्रौढ़-प्रौढ़ाएँ वृद्ध-वृद्धाएँ विभक्त से होकर पान-गोष्ठी में लगे हुए हैं। किन्तु, यह नियम नहीं। कितनी ही वृद्धाएँ समझती हैं कि उन्होंने अपने समय में जीवन का आनन्दपूरा ले लिया है, अब तरुणों की बारी है। कितनी ही तरूणियाँ किन्हीं वृद्धों को उनके सन्ध्या-काल में अमृत की एक पूँट अपने हाथ से पिलाना चाहती हैं। वह देखो दिवा को। उसके पास कितनी ही तरुण-तरुणियाँ बैठी हुई हैं; आज उसका हाथ ऋभु के कन्धे पर है, सूर दिवा के साथ बैठा है।

खान, पान, गान, नृत्य और फिर इसी बड़ी शाला में प्रेमी-प्रेमिकाओं का अंक-शयन। सवेरे उठ कुछ स्त्री-पुरुष घर के काम करेंगे, कुछ शिकार करने जायेंगे और कुछ फल जमा करेंगे। और गुलाबी गालों वाले इनके छोटे-छोटे बच्चे ? कुछ माँ की गोद में, कुछ वृक्ष की छाया के नीचे चमड़ों पर कुछ सयाने बच्चों की पीठ या गोद में, और कितने ही वोल्गा की रेतीली कूद-फाँद में रहेंगे।

वृद्ध-वृद्धाएँ अब निशा के राज्य की अपेक्षा ज्यादा सुखी और सन्तुष्ट हैं। जन एक जीवित माता का राज्य नहीं, बल्कि अनेक जीवित माताओं के परिवारों का एक परिवार एक जन है, यहाँ एक माता का अकंटका राज्य नहीं, जन-समिति का शासन है, इसलिए यहाँ किसी निशा को अपनी लेखा को वोल्गा में डुबाने की जरूरत नहीं।

3.

दिवा चार पुत्रों और पाँच पुत्रियों की माँ है, पैंतालिस वर्ष की आयु में वह निशा-जन की जन-नायिका बनाई गई है। पिछले पच्चीस सालों में निशा-जन की संख्या तिगुनी हो गई है। इसके लिए जब कभी सूर दिवा के ओंटों को चूमकर बधाई देता है, तो वह कहती है-"यह अग्नि की दया है. यह भगवान का प्रताप है। जो अग्नि की शरण लेता है, जो भगवान् की शरण लेता है. उसके चारों ओर मधु की धारा, इस वोल्गा की धारा की भाँति बहती है। उसके दारुओं (वन) में नाना मृग आकर चरते हैं।"

निशा-जन के लिए बहुत मुश्किल है। निशा-जन रस्थान बदलते जहाँ जाता, वहाँ पहले के इतने जंगल से उसका काम नहीं चलता। उसे जनदम (जनगृह) ही तिगुना नहीं बनाना पड़ता, बल्कि तिगुने मृगया- क्षेत्रों को भी लेना पड़ता। आज सि मृगया--क्षेत्रों में उसने डेरा डाला है, उसके उत्तर उषा-जन का मृगया-क्षेत्र है। दोनों मृगया-क्षेत्र के बीच कुछ अस्वामिक वन है। निशा-जन अस्वामिक वन को ही नहीं, उषा --जन के क्षेत्र में भी शिकार करने कई बार गया। जन-समिति ने उषा-जन से झगडा होने की सम्भावना को देखा, किन्तु उसे कोई उपाय नहीं सूझा। दिवा ने जन-समिति में एक दिन कहा था-‘‘भगवान् ने इतने मुंह दिये, उन्हीं के आहार के लिए ये वन हैं। इन वनों को छोड़ इन मुखों को आहार नहीं दिया जा सकता; इसलिए निशा-जन जंगल के रीछों, गायों, घोड़ों को नहीं छोड़ सकता; वैसे ही जैसे इस वोल्गा की मछलियों को ।"

उषा-जन ने निशा-जन को सरासर अन्याय करते देखा। उसकी जन-समिति ने कई बार निशा-जन-समिति से बातचीत की। समझाया, बतलाया-"सनातन काल से हमारे दोनों जनों में कभी युद्ध नहीं हुआ, हम हर शरद् में यहीं आकर रहते रहे।" किन्तु भूखे मरकर न्याय करने के लिए निशा-जन कैसे तैयार होता ? सब कानून जब विफल हो जाते हैं, तो जंगल के कानून की शरण लेनी ही पड़ती है। दोनों जन भीतर-भीतर इसके लिए तैयारी करने लगे। एक का पता दूसरे को मिल नहीं सकता था, क्योंकि प्रत्येक जन ब्याह-शादी, जीना-मरना सब कुछ अपने जन के भीतर करता था।

निशा-जन का एक गिरोह दूसरे मृगया-क्षेत्र में शिकार करने गया, उषा-जन के लोग छिपकर बैठे हुए थे। उन्होंने आक्रमण कर दिया । निशा-जन के लोग भी डटकर लड़े, किन्तु वह तैयार होकर काफी संख्या में नहीं आये थे। कितने ही अपने मरों को छोड़, कितने ही घायलों को लिए वहाँ भाग आये । जन-नायिका ने सुना, जन-समिति ने इस पर विचार किया, फिर जन-संसद-सारे जने के स्त्री-पुरुषों-की बैठक हुई। सारी बात उनके सामने रखी गई। मरों का नाम बतलाया गया। घायलों को सामने करके दिखलाया गया। भाइयों-बेटों, माँओं-बहनों बेटियों ने खून का बदला लेने के लिए सारे जन को उत्तेजित किया। खून का बदला न लेना जन-धर्म के अत्यन्त विरुद्ध काम है, और वह जन धर्म-विरोधी कोई काम नहीं कर सकता। जन ने तय किया कि मरों के खून का बदला लेना चाहिए।

नाच के बाजे युद्ध के बाजों में बदल गये। बच्चों -वृद्धों की रक्षा के लिए कुछ नर-नारियों को छोड़ सभी चल पड़े। उनके हाथों में धनुष, पाषाण-परशु, काष्ठ-शल्य, काष्ठ-मुद्गर थे। उन्होंने अपने शरीर में सबसे मोटे चमड़े के कंचुक पहने थे। आगे-आगे बाजा बजता जाता था, पीछे हथियार-बन्द नर-नारी। जन-नायिका दिवा आगे-आगे थी। दूर तक सुनाई पड़ती बाजे की आवाज, और लोगों के कोलाहल से सारी अरण्यानी मुखरित हो रही थी। पशु-पक्षी भयभीत हो यत्र-तत्र भाग रहे थे।

अपने क्षेत्र को छोड़ वह अस्वामिक क्षेत्र में दाखिल हुए-सीमा चिह्न न होने पर भी हर एक जन-शिकारी अपनी सीमा को जानता है और वह उसके लिए झूठ नहीं बोल सकता। झूठ अभी मानव के लिए अपरिचित और अत्यन्त कठिन विद्या थी। शिकारियों ने अपने जन के पास सूचना पहुँचाई, वह जन-पुर (जन के झोपड़े) से हथियार-बन्द हो निकले। उषा-जन वस्तुतः न्याय चाहता था, वह सिर्फ अपने मृगया-क्षेत्र की रक्षा करना चाहता था, किन्तु उसके अमित्र इस न्याय के लिए तैयार न थे। उषा-जन के मृगया-क्षेत्र में दोनों जनों का युद्ध हुआ। चकमक पत्थर के तीक्ष्ण फल वाले बाण सन्-सन् बरस रहे थे; पाषाण-परशु खप्-खप् एक-दूसरे पर चल रहे थे। वे भालों और मुद्गरों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। हथियार टूट या छूट जाने पर भट और भटानियाँ हाथों, दाँतों और नीचे पत्थरों से लड़ रहे थे।

निशा-जन की संख्या उषा-जन की संख्या से दूनी थी, इसीलिए उस पर विजय पाना उषा-जन के लिए असम्भव था। किन्तु, लड़ना जरूरी था, और तब तक जब तक कि एक बच्चा भी न रह जाये। लड़ाई पहर भर दिन चढे शुरू हुई थीं। जंगल में उषा-जन के दो-तिहाई लोग मारे जा चुके थे-हाँ, घायल नहीं मारे, जनों के युद्ध में घायल शत्रु को छेड़ना भारी अधर्म है । बाकी एक-तिहाई ने वोल्गा के तट पर लड़ते हुए प्राण दिया। वृद्धों और बच्चों सहित माताओं ने दम (घर) छोड़ भागना चाहा, किन्तु समय बीच चुका था। निशा-जन के बर्बर नर-नारियों ने उन्हें खदेड़-खदेड़कर पकड़ा, दुधमुँहे बच्चों को पत्थरों पर पटका, बूढ़ों और बूढ़ियों के गले में पत्थर बाँधकर वोल्गा में डुबाया। दम के भीतर रखे मांस, फल, मधु, सुरा तथा दूसरे सामान को बाहर निकाल बाकी बचे बच्चों और स्त्रियों को झोपड़े के भीतर बंद कर आग लगा दी। पोरिसों उछलती ज्वाला के भीतर उठते प्राणियों के क्रन्दन का आनन्द लेते, निशा-जन ने अग्निदेव को धन्यवाद दिया, फिर शत्रु-संचित मांस और सुरा से अपने देवों तथा अपने को तृप्त किया।

जन-नायिका दिवा बहुत खुश थी। उसने तीन माताओं की छाती से छीनकर उनके बच्चों को पत्थर पर पटका था, जब उनकी खोपड़ी के फटने का शब्द होता, तो वह किलकिलाकर हँसती। खान-पान के बाद उसी आग के प्रकाश में नृत्य शुरू हुआ। दिवा अपने तरुण पुत्र वसू के साथ आज नाच रही थी। दोनो नग्न मूतियाँ नृत्य के ताल में ही कभी एक-दूसरे को चूमर्ती, कभी आलिंगन करती, कभी चक्कर काटकर भिन्न-भिन्न नाट्य-मुद्राएँ दिखलातीं । सब जन जानता था कि आज उनकी जन-नायिका का प्रेम-पात्र वसु बना है, वसु विजयोन्माद-मत्त माता के प्रेम को ठुकराना नहीं चाहता था।

निशा-जन का मृगया-क्षेत्र अब चौगुने से अधिक हो गया था, शरद के निवास के लिए उसे बिलकुल चिन्ता न रह गई थी। चिन्ता उसे सिर्फ एक बात की थी। उषा-जन के मारे गये लोगों ने जो बात जीवित रहते न कर पाई, उसे अब वे मरने के बाद प्रेत हो करना चाहते थे। उस जले दम की जगह प्रेत-पुर बस गया था, जिससे अकेल-दुकेले गुजरना किसी निशा-जन वाले के लिए असम्भव था। कितनी ही बार शिकारियों ने दूर तक फैली आग के सामने सैकड़ो नंगी मूर्तियों को नाचते देखा था। स्थान-परिवर्तन के समय जन को उधर से ही जाना पड़ता था, किन्तु उस वक्त वह भारी संख्या में होता और दिन के उजाले में जाता था। दिवा ने तो कई बार अँधेरे में दुधमुँहे बच्चों को जमीन से उछल कर अपने हाथों में लिपटते देखा, उस वक्त वह चिल्ला उठती ।

4.

दिवा अब सत्तर से ऊपर की है। अब वह निशा-जन की नायिका नहीं है, किन्तु अब भी वह उसकी एक सम्माननीय वृद्धा है; क्योंकि २० वर्ष तक जन-नायिका रह उसने अपने बढ़ते हुए जन की समृद्धि के लिए बहुत काम किया था। इन वर्षों में जन को कई बाहरी जनों से लड़ना पड़ा, जिसमें उसे भारी जन-हानि उठानी पड़ी, तो भी निशा-जन सदा विजयी रहा। अब उसके पास कई मासों के लिए पर्याप्त मृगया-क्षेत्र हैं। दिवा के लिए यह सब भग (वान्) की कृपा से था, यद्यपि हाथ के पटके वे बच्चे अब भी कभी-कभी उसकी नींद को उचाट देते !

जाड़ों का दिन था। वोल्गा की धारा जम गई थी और महीनों के बरसते हिम के कारण वह दूसरे रजत बालुका या घने कपास की राशि सी मालूम होती थी। दूसरी ओर जंगल में शिशिर की निर्जीवता और स्तब्धता छाई थी। निशा-जन की संख्या अब और भी ज्यादा थी, इसलिए उसके आहार की मात्रा भी अधिक होनी जरूरी थी, किन्तु साथ ही उसके पास काम करने वाले हाथ भी अधिक थे और काम के दिनों में वह अधिक मात्रा में आहार संचय करते। जाड़ों में भी सधे कुत्तों के लिए निशा-पुत्र और पुत्रियाँ शिकार में कुछ-न-कुछ प्राप्त कर लेतीं। इधर उन्होंने शिकार का एक और नया ढंग निकाला था - चारे के अभाव से हरिन, गाय, घोड़े आदि शिकार के जानवर एक जंगल से दूसरे जंगल को चले जाते थे। निशा-जन ने जमीन में गिरे दानों को जमते देखा था, इसलिए उन्होंने घास के दानों को आर्द्र भूमि में छींटना शुरू किया। इन उगाई घासों के कारण जानवर कुछ दिन और अटकने लगे।

उस दिन ऋक्षश्रवा के कुत्ते ने खरगोश का पीछा किया। ऋक्षश्रवा भी उसके पीछे दौड़ा। पसीना छूटने पर उसने अपने बड़े चर्म-कंचुक को उतार कन्धे पर रख फिर दौड़ना शुरू किया, किन्तु कुत्ता अभी भी नहीं दिखाई पड़ता था, बरफ में उसके पैरों के निशान जरूर दिखलाई पड़ रहे। थे। ऋक्ष हाँफने लगा और विश्राम करने के लिए एक गिरे हुए वृक्ष के स्कन्ध पर बैठ गया। अभी वह पूरी तरह विश्राम नहीं कर पाया था कि उसे दूर अपने कुत्ते की आवाज सुनाई दी। वह उठकर फिर दौड़ने लगा। आवाज नजदीक आती गई। पास जाकर देखा, देवदारु के सहारे एक सुन्दरी खड़ी है। उसके शरीर पर श्वेत चर्म-कंचुक हैं। सफेद टोपी के नीचे से जहाँ-तहाँ उसके सुनहले केश निकल कर दिखलाई दे रहे हैं। उसके पैरों के पास एंक मरा हुआ खरगोश पड़ा है। ऋक्ष को देखकर कुत्ता नजदीक जा और जोर-जोर से भेंकने लगा। ऋक्ष की दृष्टि सुन्दरी के चेहरे पर पड़ी, उसने मुस्कराकर कहा-"मित्र ! यह तेरा कुत्ता है?"

"हाँ, मेरा है, किन्तु मैंने तुझे कभी नहीं देखा।

"मैं कुरु-जन की हूँ। यह कुरु-जन की भूमि है।"

"कुरु-जन की !" कह ऋक्ष सोच में पड़ गया। कुरु यहाँ उसका पड़ोसी जन है। कितने ही वर्षों से दोनों जनों में अनबन चल रही है। कभी-कभी युद्ध भी हो जाता है। किन्तु कुरु उषा-जन से अधिक चतुर है, इसलिए युद्ध में सफलता की आशा न देख वह अकसर अपने पैरों से भी काम लेता है। इस तरह जहाँ हाथ सफलता नहीं प्रदान करते, वहाँ पैर जीवित रहने में सफल बनाते हैं। निशा-पुत्र बराबर कुरु-संहार का निश्चय करते, किन्तु अभी तक वह अपने निश्चय को कार्य रूप में परिणत नहीं कर सके थे।

ऋक्ष को चुप देख तरुणी ने कहा-"इस खरगोश को तेरे कुत्ते ने मारा है, इसे तू ले जा ।

"लेकिन, यह कुरुओं के मृगया-क्षेत्र में मरा है।"

"हाँ, मरा है, किन्तु मैं कुत्ते के मालिक की प्रतीक्षा में थी।"

"प्रतीक्षा में ?

"हाँ कि उसके आने पर इस खरगोश को दे दें।"

कुरु का नाम सुनकर ऋक्ष के मन में कुछ द्वेष-सा उठ आया था, किन्तु सुन्दरी के स्नेहपूर्ण शब्दों को सुनकर वह दूर होने लगा। उसने प्रत्युपकार के भाव से प्रेरित होकर कहा-

"शिकार ही नहीं, तूने मेरे श्वक (कुत्ते) को भी मुझे दिया। यह कुत्ता मुझे बहुत प्रिय है।

“सुन्दर श्वक है।"

"सारे जन के बीच क्यों न हो, मेरी आवाज सुनते ही मेरे पास चला आता है।"

"इसका नाम ?"

"शम्भू ।"

"और तेरा मित्र !"

"ऋक्षश्रवा रोचना-सूनु ।"

"रोचना-सूनु ! मेरी माँ का नाम भी रोचना था। ऋक्ष जल्दी न हो तो थोड़ा बैठ।"

ऋक्ष ने धनुष और कंचुक बरफ पर रखकर सुन्दरी के पैरों के पास बैठते हुए कहा-

"तो अब तेरी माँ नहीं है ?"

"नहीं, वह निशा-जन के युद्ध में मारी गई। वह मुझे बहुत प्यार करती थी।'-कहते --कहते तरुणी की आँखों में आँसू भर आये।।

ऋक्ष ने अपने हाथ से उसके आँसुओं को पोंछते हुए कहा-

"यह युद्ध कितना बुरा है !" ।

"हाँ, जिसमें इतने प्रियों का बिछोह होता है।"

"और अब भी वह बन्द नहीं हुआ।

“बिना एक के उच्छेद हुए वह कैसे बन्द होगा ? मैं सुनती हैं, निशा-पुत्र फिर आक्रमण करने वाले हैं। मैं सोचती हूँ ऋक्ष ! तेरे जैसे ही तरुण तो वह भी होंगे।"

"और तेरी जैसी ही तरुणियाँ कुरुओं में भी होंगी।"

"फिर भी हमें एक दूसरे को मारना होगा, ऋक्ष ! यह कैसा है !"

ऋक्ष को ख्याल आया, तीन दिन बाद उसका जन कुरुओं पर आक्रमण करने वाला है। ऋक्ष के कुछ बोलने से पहले ही तरुणी ने कहा-

"लेकिन हम अब नहीं लड़ेंगे।"

"नहीं ! कुरु नहीं लड़ेंगे।"

"हाँ, हमारी संख्या इतनी कम रह गई है, कि हमें जीतने की आशा नहीं।"

“फिर कुरु क्या करेंगे ?"

"वोल्गा-तट को छोड़ दूर चले जायेंगे। वोल्गा माता की धारा कितनी प्रिय है ? अब फिर यह देखने को नहीं मिलेगी, इसीलिए मैं घन्टों यहाँ बैठी इसकी सुप्त धारा को देखा करती हूँ।"

"तो तू वोल्गा को फिर न देख सकेगी।"

"न तैर सकेंगी। इस गम्भीर उद (जल) में तैरने में कितना आनन्द आता था !"-सुन्दरी के कपोलों पर अश्रुबिन्दु ढलक रहे थे।

"कितना क्रूर, कितना निष्ठुर !"--उदास हो ऋक्ष ने कहा।

"किन्तु यह जन-धर्म है, रोचना-सूनु।"

"और बर्बर-धर्म है।"

*****

(आज से सवा दो सौ पीढी पहले के एक आर्य-जन की यह कहानी है। उस वक्त भारत, ईरान और रूस की श्वेत जातियों की एक जाति थी, जिसे हिन्दी स्लाव या शतं-वंश कहते हैं।)

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