दिन की फुलवारी में (बांग्ला कहानी) : संजीव चट्टोपाध्याय
Din Ki Phulwari Mein (Bangla Story in Hindi) : Sanjib Chattopadhyay
विधान ने मुझसे कुछ रुपए उधार माँग थे। मैंने नाना प्रकार से उससे समझा-बुझाकर छुटकारा पा लिया और भाग आया। उधार देने लायक मेरे पास रुपए नहीं थे, ऐसी बात नहीं। बैंक में मेरे रुपए जमा हैं, जमा होते रहते हैं । होते- होते काफी कुछ जमा हो गया है। जमा करने का भी एक नशा है। दो से तीन, तीन से चार । बीच-बीच में बैंक की पासबुक देखता हूँ और प्रफुल्लित हो जाता हूँ - वाह ! कितने सुंदर ढंग से बढ़ता चला जा रहा है, बारिश के पानी में बाल्टी रख देने की तरह ! धीरे-धीरे बढ़ रहा है। जमा-पूँजी में से कुछ निकालता नहीं । जहाँ से जो कुछ भी आता है, सभी जमा कर देता हूँ। अचानक अपना ही कोई जरूरी प्रयोजन आ पड़ता है, तो भी दूसरे से उधार लेकर काम चला लेता हूँ। बाद में कर्ज चुका देता हूँ।
विधान कहता ही गया था - " बहुत विपत्ति में पड़ गया हूँ रे! यदि पैसे पा जाता, तो बहुत भला होता । "
मैंने मुँह बहुत उदास करते हुए सब सुना । मुँह पर एक ऐसा भाव बनाया, जैसे इसी क्षण मुझे ही कुछ रुपए उधार मिल जाते; तो बड़ा उपकार होता । अपने दूर के किसी रिश्तेदार की गंभीर बीमारी की बात झूठ-मूठ में ही उसे सुना दी। लगा कि मैंने बड़ी पटुता से अच्छा नाटक किया । झूठ बोलने का भी एक कौशल है । उसे सभी अच्छी तरह नहीं निभा पाते। पकड़ में आ जाते हैं। झूठ को इस प्रकार बोलना चाहिए कि सच से भी ज्यादा सच लगने लगे। इसके लिए प्रखर कल्पना और अद्भुत स्मरणशक्ति चाहिए। आज क्या कहा है, कल अच्छी तरह याद रहना चाहिए।
विधान की स्त्री मरने को है। प्रसव में कुछ ऐसी गड़बड़ी हो गई है कि बस अब गई कि तब गई। नर्सिंग होम में पड़ी हुई है। दरअसल विधान का भाग्य ही खराब है। यह युवक अच्छी-खासी नौकरी कर रहा था। वेतन भी कोई खराब नहीं था। समाज में मान-प्रतिष्ठा थी । विवाह भी स्वयं देख-सुनकर किया था । पत्नी भी कोई खराब नहीं मिली थी, किंतु अचानक हड़ताल शुरू हो गई। बढ़ते-बढ़ते तालाबंदी । वही तालाबंदी अभी चल रही है। बेचारा वेतन पाता नहीं। वर्ष पूरा बीत गया। जो जमा-पूँजी थी, खाने-पीने में खत्म हो गई। ऐसे आदमी को रुपया उधार देने को मन भी हो तो कोई उपाय नहीं है। आखिर विधान का भविष्य ही क्या है ? कुछ भी नहीं। पूरी तरह कौड़ी-हीन- कपर्दक शून्यावस्था! जो कुछ उधार लेगा, उसे फिर कभी चुका नहीं पाएगा; चाहने पर भी; चेष्टा करने पर भी नहीं । देने का मतलब, सदा-सर्वदा के लिए दे देना होगा । दान-ध्यान करना अच्छी बात है। लेकिन कौन लोग करेंगे ? जिनके पास काली कमाई का पैसा है। हमारे जैसे आदमियों के पास है ही क्या ? जो थोड़ी सी संचित जमा-पूँजी है, वही तो अंतिम अवस्था का सहारा है । उस समय तो कोई देखेगा नहीं । साथी सोहबती, आत्मीय - स्वजन तब कहाँ ? विधान को ये सब गूढ़ बातें कौन समझाए ?
विधान उसी समय जो चला गया, फिर दिखाई नहीं पड़ा। मैंने भी कोई खोज-खबर नहीं ली। वास्तविक संसार का यथार्थ अनुभव मुझे कुछ कम नहीं। बुद्धि की भी मुझमें कमी है, ऐसी भी कोई बात कभी महसूस नहीं हुई। कितनी अच्छी तरह परिवार चला रहा हूँ । परिवार चलाना और युद्ध करना प्रायः एक ही बात है। मैं जानता था, विधान साथ पुनः भेंट होने का अर्थ ही हैं, रुपए के विषय में रोना-धोना सुनना । सुनने का मतलब ही है, हृदय में चुभन महसूस करना । विवेक भाव कहेगा, तेरे पास है, तू दे सकता है, फिर भी तूने दिया नहीं; बड़े ही स्वार्थी हो बेटे ! विवेक एक बेकार की चीज है। होंठ काट खानेवाला समालोचक है। विधान के सामने जाकर खड़ा होने का मतलब है, एक अपराध - भाव मन में लेकर लौटना ।
दूसरा कारण, मैं साहबी ( प्रदर्शनात्मक ) प्रथा में विश्वास नहीं करता । विपत्ति की घड़ी में यदि मनुष्य के लिए कुछ कर सकी, तब तो उसके निकट जाकर खड़े होओ; ऐसा न हो, तो वह व्यर्थ की दिखावटी भद्रता कि " क्या है रे विधान ! तुम्हारी पत्नी कैसी है ?" यह प्रश्न जैसे व्यर्थ का नखरा है। इसी वजह से मेरा कोई आत्मीय संबंधी विपत्ति में पड़ता है तो भी मैं उसके करीब जाकर खड़ा नहीं होता । आजकल के युग में कुछ करने का मतलब है, पैसे से करना। जब खूब जी खोलकर कुछ दे सकोगे, तभी सभी कहेंगे- वाह ! खूब किया । कार्य - प्रयोजन- संस्कारादि में भी देखा है, विवाह, अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत आदि में किसने कितना दिया है? इसी विचार के आधार पर आत्मीयता का अपना समाज बन रहा है; अपनी बिरादरी तैयार हो रही है।
एक नई बात मैं और भी तत्त्व की समझ गया हूँ । सामाजिक बनने की चेष्टा करने से कोई लाभ नहीं है। क्या होगा सामाजिक बनकर? नुकसान छोड़, लाभ बिल्कुल नहीं होगा। आज फलाँ, कल फलाँ ! आज यह आ रहा है, कल वह आ रहा है। अंत में सब खाली खाली । संसार में कोई किसी का नहीं है। पैसा ही हो गया है, सार की भी सारवस्तु। बैंक-बैलेंस रहने के माने ही हैं - मान-सम्मान, सद्भाव, बंधुत्व, प्रेम-प्रणय, आदर-यत्न, आदि-आदि। अंतिम समय में यदि वही नहीं रहा, तो पाँव में रस्सी बाँधकर वहीं फेंक आएँगे, जहाँ मरे हुए पशु फेंके जाते हैं - "मर साले बूढ़े !"
रुपया पास रहने पर अजनबी, अनजाना- अनपहचाना सड़क का आदमी भी रुपए के लोभ में आकर सेवा करेगा और जेब खाली पड़ जाने पर अपना करीबी आदमी भी आँख उठाकर देखेगा नहीं। दुनिया के हाल-चाल का मुझे पता चल गया है। नाना प्रकार के कष्ट, नाना प्रकार की मशक्कत से मेरा रोजगार चला है। कुछ रुपए मेरे फिक्स डिपॉजिट में पड़े हैं। पंद्रह वर्ष बाद दुगुने होकर पुनः मिल जाएँगे। विकास बाबू की सलाह मानकर यूनिट खरीदना शुरू कर दिया है। यूनिट का दाम कभी कम नहीं होता, बढ़ता ही जाता है। इन सबके अलावा आजकल अनेक ऐसे प्रतिष्ठान, बड़े-बड़े व्यापारी, कारोबार कंपनियाँ आदि हो गए हैं, जहाँ रुपया लगा देने से उसके सूद से ही परिवार का भरण-पोषण होता रहता है, मूल धन में फिर हाथ ही नहीं लगाना पड़ता । मेरा सुखी जीवन व्यतीत हो रहा है। मेरा भविष्य पूरी तरह रंगीन है। जिस प्रकार सुनियोजित ढंग से चल रहा हूँ, उसे देखते हुए किसी में ऐसी ताकत नहीं कि मुझे रास्ते पर बैठने को बाध्य करे। हड़ताल, तालाबंदी, पूरी तरह ठप्प कर देना, निकाल बाहर कर देना, किसी भी बात की मैं कोई परवाह नहीं करता।
अब निश्चय किया है, एक छोटा सा मकान बनवाऊँगा । मध्यस्थ दलालों को भिड़ा दिया है। जगह, जमीन देख-सुन ली गई है। ठीक दाँव देखकर मार दूंगा; बिल्कुल पक्का । विधवाओं की या झगड़े झंझट की संपत्ति कभी-कभी बहते पानी के भाव मिल जाती है । खोज-खबर लेते रहना होता है। कचहरी में मेरे अपने आदमी हैं। वे खिला- पिलाकर आदर-आराम से रखे हुए हैं। बँगला में एक मुहावरा है - 'धैर्य रखे रहने से मेवा फलता है।' मेरी अभी ऐसी कोई खास उम्र नहीं हुई है कि जल्दबाजी मचानी होगी। अभी भी बहुत सा समय पड़ा है। मेरे तो बस एक ही लड़का है। अब और अधिक परिवार नहीं बढ़ा रहा हूँ । यदि मौज ही लूटनी होगी, तो टेढ़े रास्ते से करूँगा । उसमें खर्चा भी बहुत कम है। मैंने हिसाब-किताब करके देख लिया है। मेरी नीति के अनुसार संयम का अर्थ देवता जैसा चरित्र नहीं है। मैंने इसे भलीभाँति समझकर अनुभव किया है कि मनुष्य कभी भी देवता नहीं हो सकता। उसका सौभाग्य भी रहेगा, दुर्भाग्य भी रहेगा। लोभ - लालसा भी होगी । घर-संसार बसानेवाले आदमी के लिए हजारों प्रकार की बहानेबाजियाँ हैं। संयम का अर्थ है - ' खूब हिसाब करके सँभलकर, अपने पैसे को खर्च करना ।'
लगभग छह दिन बाद बाजार में विधान के साथ भेंट हो गई है। उसका चेहरा अस्त-व्यस्त हो गया है। उसे देखते ही मैं समझ गया कि समाचार ठीक नहीं है। इसी फिराक में था कि किसी तरह बगल काटकर निकल जाऊँ । क्या जाने बाबा, पत्नी यदि मर ही गई हो, तो भी अंत्येष्टि वगैरह हुई है भी या नहीं ? अभी भी संभव है, उसी बहाने का सहारा ले रुपया माँग बैठे ! सामने ही एक गाय आ पड़ी; अतः विधान ने पकड़ ही लिया। फिर बाध्य होकर पूछना ही पड़ा, " कहो भाई ! क्या खबर है ? "
संसार में अपने को सुरक्षित बनाए रखने के लिए थोड़ा नाटक करने की क्षमता रहे तो अच्छा ही रहता है। उससे बदनामी कुछ कम होती है। आँख भौंह सिकोड़कर इस भाव से प्रश्न किया, मानो इधर कई दिनों से उसका समाचार जानने की उत्कंठा में सो ही नहीं पाया हूँ ।
बड़ी करुणा भरी हँसी हँसते हुए विधान ने कहा, "सबकुछ समाप्त हो गया भाई ! अब तुम लोगों के लिए कोई डर नहीं रहा । "
'व्यर्थ की बकवास ! पत्नी कोई ऐसी परम दुर्लभ वस्तु नहीं है। एक यदि चली गई, तो दूसरी आ जाएगी। भला बंगाल-देश में लड़की की कमी ? तुम यदि आज ही स्वीकृति दे दो, तो तुम्हें कल ही विवाह वेदी पर बैठा दूँ । बेकार की पें-पें मत करो बाबू! मैं ऐसे अनेक पतिदेवों को अच्छी तरह पहचानता हूँ। सभी दूसरी बार विवाह कर दूसरी स्त्री, तीसरी बार विवाह कर तीसरी स्त्री के साथ संसार का सुख लूट रहे हैं । प्रथम बार की परिणीता पत्नी तसवीर बनकर खूँटी पर झूल रही है। करीब जाकर शीशे पर उँगली रगड़ने पर कहीं जाकर शरीर का कोई एक अंश दिखाई पड़ पाता है, अन्यथा सब धूल से ढँका हुआ। सभी बहुएँ अच्छी तरह जानती हैं कि पति नामक प्राणी क्या वस्तु है! जिंदा रहते-रहते तो समझ में आता नहीं, मर जाने पर तो फिर कुछ पूछो मत। विधान तो प्रेत-तत्त्व के बारे में कुछ जानता-वानता नहीं । अरे, बहुएँ मरकर भूत हो जाती हैं। भूत बनकर सब देख-समझ लेती हैं। उसके बाद पुन: बहू के रूप में जन्म लेती हैं। इसी से तो बहुएँ पति महोदयों की पहले नंबर की शत्रु हो जाती हैं। जितने दिन बीतते हैं, उतना ही प्रबल रूप धारण कर लेती हैं। बहू एक प्रकार का असाध्य रोग है । वह मर गई है। तू बच गया है विधू! तुम्हारी क्रॉनिक बीमारी दूर हो गई है। खुशी में पूजा-पाठ कर, पूजा-प्रसाद चढ़ा ! '
लेकिन यह बात तो कही नहीं जाएगी। मुख बहुत दयनीय बनाकर ! 'चच्च, चऽ, ' शब्द उच्चारण करके दुःख प्रकट किया।
विधू चुपचाप चला गया और करेगा क्या! कौन किसके कष्ट की करुण बात सुनता है ? मनुष्य के पास अब इतना फालतू समय नहीं है। सभी के सभी बहुत ज्यादा व्यस्त हो गए हैं। मृत्यु दर में भी अब तेजी नहीं रही । मुझको भी जल्दी है । दलाल के माध्यम से खबर मिली है कि 'उत्तरपाड़ा' के एक परिवार में क्षय रोग लगा है, बस टूटने को है। पैतृक संपत्ति बेच - बेचकर एक बंगाली बाबू मौज-मस्ती उड़ा रहे हैं। उधार - खाते में छाती तक डूब गए हैं। थोड़ी और मदद की गई तो पूरी तरह डूब जाएँगे। सबकुछ उड़ा चुकने के बाद अब बाबू साहब का एकमात्र सहारा उनके रहने का मकान भर रह गया है। वह यदि बेचेंगे नहीं तो देनदारों के हाथों जान से मारे जाएँगे। इस समय यदि थोड़ा सा सहारा मिले तो काम सफल हो सकता है। दुनिया का यही तो नियम है। एक आदमी घटता है, नष्ट होता है तो दूसरा एक आदमी बढ़ता है, पूर्ण होता है। नदी का एक किनारा टूटता है और एक किनारा ऊपर उठता है। एक चौरस जमीन उभर आती है, साथ ही साथ ढूँढ़ने में कुशल आदमियों के दल-के-दल आकर उसे देखकर बस जाते हैं। ककड़ी और तरबूजे की खेती-बाड़ी होने लगती है।
मेरे शरीर में फिर जाने कौन सी बीमारी पनप गई है! कौन जानता है? डॉक्टर वैद्य को दिखाने का मतलब है कि हजारों प्रकार की फेहरिस्त निकलने लगेगी। खूब डराकर काफी रुपए-पैसे का श्राद्ध करके छोड़ देंगे। आदमी को धराशायी कर देने के लिए लोग शाप देते हैं- 'तुम्हारे घर में वकील घुसे, वैद्य घुसे।' किसी आदमी को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने के लिए मामला - मुकदमा और बीमारी, दो अकाट्य अस्त्र हैं । अतः उस रास्ते पर इतनी आसानी से मैं पाँव बढ़ानेवाला नहीं हूँ । उस पथ पर नहीं जा रहा हूँ। कुछ टोटका - टोटकी मेरी जानकारी में हैं, कुछ होम्योपैथिक भी जानता हूँ । उसी के सहारे खुद को सँभाल लेना पड़ेगा। मैं कोई बुरा आदमी तो हूँ नहीं। किसी के उपकार में नहीं हूँ, यही तो मेरा एक दोष है। इसके अतिरिक्त बाकी सब तो मेरा अच्छा ही है। नशा भी नहीं करता । बुरी प्रवृत्ति का हूँ नहीं, तो फिर होम्योपैथिक से सफलता क्यों नहीं मिलेगी ?
पुल पार कर बस से 'उत्तरपाड़ा' में ज्यों ही उतरा, पेट का पुराना दर्द आकस्मिक रूप से इस प्रकार चुभन पैदा करने लगा कि सीधे खड़े होना भी संभव नहीं रह गया । यह फिर क्या हो गया ? जा तो रहा हूँ एक शुभ कार्य में । एक बंग-संतान विपत्ति में पड़ा है। उसे रास्ते पर बैठना होगा। सब चले जाने पर ही तो उसे समझ आएगी। वैसे यह ठीक है कि इस जन्म में फिर उठ पाने की क्षमता उसमें नहीं आ सकेगी; किंतु अगले जन्म में, इस जन्म के अनुभव की शिक्षा अवश्य काम आएगी। शुरू से ही समझना सीखेगा, कि क्या करने से क्या होता है ?
परंतु जब शरीर इस प्रकार से परेशानी खड़ी कर देगा तो मनुष्य को क्या कुछ अच्छा लगेगा ? पेट में जाने कौन सा दुश्मन घुस गया ? शरीर जब गोलमाल करने लगता है, धर्माचरण भी नहीं हो पाता, अधर्म भी नहीं होता। मेरी पीड़ा क्रमशः बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे रिक्शा उछल रहा है, पेट की व्यथा भी तेज होती जा रही है। वैसे बीच- बीच में यह पीड़ा कष्ट देती रहती है, किंतु आज कुछ अधिक ही कष्ट पहुँचा रही है।
किसी प्रकार चेष्टा करके गोलक साँतरा के मकान पर पहुँच आया। वही मुझे निर्दिष्ट स्थान पर ले जाएगा। साँतरा तैयार ही बैठा था । मेरा चेहरा देखते ही बोल पड़ा - " क्या हुआ है आपको ? शरीर कुछ अस्वस्थ लग रहा है। आँख - मुँह सब काले पड़ गए हैं!"
उस समय तक मुझमें बोलने की ताकत नहीं रह गई थी। पेट को जोर से पकड़कर एक कुरसी पर बैठ गया । साँतरा डर गया। उसकी जगह मैं होता तो मैं भी इसी तरह डर जाता। कोई किसी के घर आकर भीषण बीमार हो जाए तो क्या अच्छा लगता है ? व्यर्थ के काम बढ़ जाते हैं। ऊपर से उससे कहा भी नहीं जा सकता- 'जाइए महाशय, घर जाइए। मरना है तो अपने घर जाकर मरें ।" मनुष्य अभी इतना निर्लज्ज - मुँहफट नहीं हो पाया। रास्ता - घाट में कोई गिरकर छटपटाए भी तो बिना देखे चला जा सकता है ? हम तो बाइबिल पढ़े क्रिश्चियन पादरी नहीं हैं। जान-पहचान का आदमी घर आकर गले पड़ जाए तो मिजाज चिड़चिड़ा हो जाता है। मुँह पर भले न कुछ कह पाएँ, किंतु पीठ पीछे तो कहा जाता है- 'कैसी आफत है ? हरामजादे ने आज का रविवार ही माटी कर दिया। लो, अब करो मजा!' मैं यदि होता तो मैं भी ऐसा ही बोलता । मेरा छोटा साला गत वर्ष घूमने के लिए आया तो अचानक चेचक की बीमारी ले बैठा । ओह् ! वह भी कितनी बड़ी यंत्रणा थी! तीन दिन के लिए तो घूमने आया था, पर डेढ़ महीने तक पड़ा रहकर पूरी तरह बरबाद कर गया। उस समय तो मेरा मिजाज बिगड़ गया था । ऐसा प्रतीत हुआ, पत्नी यदि गुलाब का फूल होती है तो साले सब गुलाब के काँटे ही हैं।
गोलक ने कहा, “विश्वास महाशय ! गाड़ी बुला दूँ, अच्छा हो, आप घर जाकर सोएँ। शरीर स्वस्थ हो जाएगा तो विषय - संपत्ति सब होगी। "
'बेटा, संस्कृत श्लोक झाड़ रहा है!' मैंने पूछा, “आसपास में कोई डॉक्टर नहीं है ? "
गोलक ने कहा, “अपने डॉक्टर को दिखाना ही ठीक है । वे तो आपका सबकुछ ठीक से समझे हुए हैं। एक पुड़िया से ठीक कर देंगे।"
गोलक के गोलोक-धाम से किसी प्रकार बाहर निकलकर घर पहुँच पाया। मुझे यह क्या हो गया ? घर के लोगों में सभी कुछ को अति साधारण कर देने की एक अद्भुत क्षमता होती है- “ अरे, यह तो तुम्हारा अम्ल - विकार है, साधारण-सा पेट दर्द है । वह तो तुम्हारे पेट में आँव बनने से आमाशय की गड़बड़ी है।" कहकर जो जैसे बना, बगल काटकर खिसक लिया । " थोड़ा गरम पानी पियो। थोड़ा सा अजवाइन का अर्क पियो।" नाना प्रकार भिन्न- भिन्न लोगों की भिन्न-भिन्न सलाहें !
साँझ होते-होते किसी तरह पैदल चलकर डॉक्टर बाबू के पास जाना ही पड़ा। पहले डिस्पेंसरी में बिना पैसे के काम होता था। अब तो सबका लोभ बढ़ गया है। दस रुपए दिखाने की फीस लगती है। कैसा समय आ गया है! प्रवीण डॉक्टर बाबू ने खूब ध्यान से सारी बात सुनीं।
उन्होंने पूछा, “कितने दिनों से इस प्रकार हो रहा है ?"
" हो तो बहुत दिनों से रहा है, लेकिन पिछले लगभग एक साल से ज्यादा बढ़ गया है। कुछ खा नहीं पाता । कुछ खाता भी हूँ तो हजम नहीं होता। ऐसा लगता है कि सबकुछ गले के पास आकर अटक गया है। "
" हूँऽऽ ।" एक लंबी हुँकारी भरकर डॉक्टर बाबू मानो बहुत ज्यादा चिंता में डूब गए। मुझसे बढ़कर कुशल अभिनेता हैं। देंगे तो वही हजम करने की दवाई, पर उसके पहले कुछ ऐसा रूप बना रहे हैं, जैसे कोई बड़ी भयानक चीज हो गई हो। जाने कितनी सारी व्यावसायिक चालबाजियाँ हैं ।
'अच्छा चलिए, सो जाइए। "
लेटते-लेटते मन-ही-मन विचार किया, 'एक बार जब चुंगल में आ गया हूँ तो फिर आप बिना सुलाए छोड़ेंगे ? कितने परिवार-के-परिवार इसी तरह सो गए हैं। एक- एक को पकड़ते हैं और सुला देते हैं। जैसे ही सुलाना आरंभ करते हैं तो फिर बिना भारी धन-संपत्ति के जोर के 'उठा सके', ऐसी शक्ति किसके बाप में है ?'
चारों ओर ठोक-ठाककर, छाती देखकर, ब्लड प्रेशर नापकर, लगभग एक फीट लंबा एक प्रिस्क्रिप्शन घसीटकर दे दिया।
'इतनी अधिक दवाएँ कौन खाएगा ? पागल तो नहीं ! ' साहस करके पूछा - " डॉक्टर बाबू, इन दवाओं में से काम की कौन सी है ?"
" मतलब ?"
वे क्रोध से आगबबूला हो गए। क्रोधित होने से क्या लाभ होगा? मैंने सुना है, 'शीशे की खिड़की की ओर एक मुट्ठी कंकड़ फेंकने की तरह वे लोग भी जिस किसी रोग की ओर एक मुट्ठी कैप्सूल फेंकते हैं; चाहे जो लग जाए।'
" मेरा मतलब है कि किस दवा के खाने से पेट दर्द कम होगा ?"
'आप क्या समझते हैं, लोग यहाँ खेल खेलने के लिए बैठे हुए हैं ? तब तो जाकर अपनी दवा खुद कीजिए। हमारे पास आने की क्या जरूरत है ?"
दवा विक्रेता ने बताया, “पेट दर्द कम करने की दवा तीसरे नंबर पर लिखी है। "
तो फिर वही चार-पाँच दे दें। "
'ऐसा करना क्या ठीक रहेगा ?"
“ठीक-बेठीक मैं क्या समझता हूँ?"
तीन दिन तक कुल मिलाकर एक प्रकार से ठीक ही गुजरा। उसके बाद फिर भयानकता बढ़ती गई। जो कुछ भी खाता हूँ, सब बाहर निकल आता है। एकदम लस्त-पस्त हो गया। मरने से मैं नहीं डरता। मुझे डर इसी बात का है कि इतना कष्ट सहकर, रास्ता - घाट बाँधकर, असाध्य साधन कर, सब सजाया सुशृंखलित ढंग से निर्माण किया, इसका भोग कौन करेगा? धूर्त - चालाक सब लूट खाएँगे। मर जाने पर भी शांति नहीं पाऊँगा । ऐसे अनेक आदर्शवादी मूर्ख हैं, जो पत्नी के लिए समाधि बनाते हैं। बच्चे के लिए बैंक में रुपया जमा रखते हैं। लड़की के विवाह के लिए खाता खोलते हैं। उन्होंने संभवतः रामप्रसादजी का वह गाना नहीं सुना-
“ जिसके लिए चिंता करते-करते मर रहे हो, वह क्या तुम्हारे संग जाएगी ? अमंगल की आशंका से वही प्रेयसी गोबर छींटेगी। "
“मेरा तो भाई उड़ाऊ दिमाग है। अपना कमाया, अपने ही सामने उड़ा जाओ । उपभोग कर लो। मरने के बाद की भी अपनी सारी व्यवस्था स्वयं ही कर डालो। "
अबकी बार एक बड़े डॉक्टर साहब आए। इन महाशयों के बीच भी दस आना, छह आना वाला विभेद है। ये हुए चौंसठ परगना के अधिकारी । पहले दूर से देखा-परखा। देखते-देखते ही सुनते रहे। उसके बाद पेट के एक विशेष भाग को कसकर पकड़ लिया।
लगभग दस मिनट में राय प्रकट की, “मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ और अच्छी तरह से समझना पड़ेगा । संदेह हो रहा है कि कैंसर है।"
'आँयऽऽ! क्या कह रहे हैं ?"
चौंसठ रुपए पॉकेट में हँसते-हँसते चिंतामुक्त मुख से बोले, “आजकल बहुत हो रहा है। शुरू-शुरू में पकड़ में नहीं आता। पेट में होने पर तो एकदम ही पकड़ में नहीं आता। काफी बढ़ जाने पर ही पकड़ में आता है, और तब..."?" डॉक्टर बाबू उठ खड़े हुए। नियति की तरह हँसते हुए बोले, “और तब कुछ भी करने को बाकी नहीं रह जाता। "
अचानक पृथ्वी पर का सारा प्रकाश जैसे कम हो गया। ऐसा लगने लगा, जैसे जो कुछ भी किया है, सभी मानो साँझ के झुटपुटे में ही तेल चुकी हुई बत्ती मानो आँखों के सामने जल रही है। समय की आवाज जैसे सुन पा रहा हूँ। चल रहा है, निरंतर चल रहा है - टिक् टिक् टिक् ।
सायंकाल के लगभग विधान आया। किसी के द्वारा उसे सूचना मिल गई थी।
“मैंने सुना, संभवतः तुम्हारा स्वास्थ्य खराब हो गया है रे ! देखा, बड़े भारी डॉक्टर आए थे। "
कोई दूसरा समय होता तो अपने स्वभाव के अनुरूप विधान को कुछ भी गंध नहीं लगने देता। परंतु इस समय तो अपने को एकदम अकेला महसूस कर रहा हूँ। जान पड़ता है, जैसे मृत्यु नदी के तट पर, गाल पर हाथ रखे बैठा हूँ ! एकदम अकेला ! मृत्यु के पथ पर कोई संगी-साथी नहीं मिलता । मृत्यु तो सभी को एक ही साथ बुलाती नहीं । बस एक-एक करके बुला लेती है। यह कोई तीर्थयात्रा की तरह यात्रा तो नहीं है। पिकनिक जाने की तरह जाना नहीं है कि सभी एक साथ झुंड बनाकर हल्ला-गुल्ला, गाना-बजाना करते हुए साथ-साथ जाएँ। इस अंतिम यात्रा की सूनी राह पर मनुष्य को अकेले ही जाना होता है।
विधान के चेहरे के भाव ठीक से देख लेने पर निश्चय हो गया कि मेरे साथ कोई हँसी-ठिठौली करने नहीं आया है। अभी हाल में ही मृत्यु उसके पास आई थी और उसके सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति को उठा ले गई है। मृत्यु के क्रूर हाथों की खरोंच अभी भी उसके चेहरे पर बनी हुई है। बहुत दूर की यात्रा पर जानेवाले अपने प्रिय आत्मीय व्यक्ति को विदा करके लौटने पर, आदमी के मुख पर जैसा अवसाद घिर आता है, विधान के मुख की वैसी ही दशा है।
आज मैंने विधान को बैठने के लिए कहा, 'आर्थिक दुर्गति में पड़ा भुगत रहा है'; यह सोचकर आज उससे घृणा नहीं कर सका।
विधान ने पूछा, “तुम्हें क्या हो गया है ?"
" डॉक्टर बाबू को संदेह है कि कैंसर है। अभी कह गए हैं कि और अच्छी तरह से जाँच कर देखना होगा। "
"यह कैसी बात है रे !"
ऐसा कतई प्रतीत नहीं हुआ कि विधान नाटक कर रहा है। उसके कथन - आचरण में पर्याप्त आत्मीयता का भाव है।
विधान ने कहा, "अरे वाह ! कैंसर होना इतना आसान है क्या ?"
'मैं क्या कहूँ, तुम्हीं बताओ! डॉक्टर तो ऐसा ही बतला गए हैं। "
'तुम मेरे साथ एक जगह चलोगे ?"
"कहाँ, होम्योपैथिक ?"
"नहीं, नहीं, कैंसर के सामने तो वे सब बच्चे हैं। तुम्हें एक बार कैंसर - अस्पताल में ले चलूँगा । वहाँ मेरे जाने- पहचाने एक सज्जन हैं। "
विधान के साथ दूसरे दिन ही कैंसर अस्पताल गया। जिनके पास गया था, वे डॉक्टर नहीं थे, तो भी डॉक्टर बाबू लोग उनकी मुट्ठी में हैं। वे विधान की ससुराल के संबंधी हैं। उन्होंने उसी समय सारी व्यवस्था कर दी। शरीर के भीतर की स्थिति को ठीक ढंग से समझने-बूझने के लिए जिन-जिन पदार्थों को लेना आवश्यक था, वह सबकुछ अस्पतालवालों ने खींच-खींचकर ले लिया । अंत में बताया कि निश्चित जानकारी कुछ दिन बाद मिल पाएगी।
अस्पताल से बाहर आने पर मुझे बड़े जोर से रोना आया । रो लेने से मनुष्य का अंतरतम काफी हलका हो जाता है। रोने का मन है, किंतु रो नहीं पा रहा हूँ, इस प्रकार की दारुण-दशा और कोई नहीं है। अंतरतम न जाने कैसे फटा जा रहा है !
विधान को उस समय यदि कुछ रुपए दे दिए गए होते तो संभव है कि उसकी पत्नी बच गई होती! वैसे भाग्यवादी लोग कहेंगे, 'जीवन-मृत्यु पर मनुष्य का अधिकार नहीं है, किंतु इस कथन से भी मेरा अपराध-बोध कुछ कम नहीं होता।' मैं चाहता तो दे सकता था, पर दिया नहीं। विधान की अपेक्षा मैं अधिक नीच हूँ। दोनों व्यक्तियों की ऊपरी चमड़ी में कोई विशेष अंतर नहीं है। अंतर है तो यही कि विधान का मन बहुत विशाल है।
विधान से मैंने कहा, “मैं इस समय संदेश (मिठाई ) खाना चाहता हूँ । नरम-नरम सुंदर ढंग से पका संदेश कहाँ मिलता है ? संदेश तो खाया ही जा सकता है। "
विधान ने कहा, “खूब खाया जा सकता है, पर तुम अभी से इतना घबरा क्यों रहे हो ? कैंसर कह देने से ही कैंसर हो जाएगा ? मुझे तो ऐसा लगता है, तुम्हें अलसर हुआ है। समयानुसार खाते-पीते हो नहीं। कैसे स्वभाव के आदमी हो, किसी की बात मानते नहीं । "
एक अच्छी सी दुकान में जाकर दो-तीन प्रकार के संदेश (मिठाई विशेष ) ले आने का ऑर्डर दिया । मन में विचार था कि खूब खाऊँगा । पर दो खाने के बाद ही पेट एकदम भारी हो गया। पैसा देने गया तो विधान ने किसी भी तरह दाम नहीं देने दिए। मैंने कहा, “भाई ! इस समय तुम्हें बड़ी किल्लत उठानी पड़ रही है, तुम्हें भयंकर अभाव है । "
विधान ने कहा, “तुम्हें एक शुभ समाचार दूँ। मेरी फैक्टरी खुल गई है, बकाया कुछ रुपया भी पा गया हूँ। यही रुपया यदि कुछ महीने पहले पा गया होता, तो हो सकता..."
जेब से एक दस रुपए का नोट निकालकर उसी की ओर फटी-फटी आँखों से देखता हुआ विधान बैठा रहा । मैं उसी समय समझा कि अपने प्रिय व्यक्ति के चले जाने पर मनुष्य को जो वेदना होती है, उसमें नाटकीयता नहीं होती। मनुष्य सचमुच कष्ट पाता है। कोई उसे प्रकट करता है, कोई दबाए रखता है। विधान से कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है।
'हो सकता है ' - एक ऐसा शब्द है, जिसे खोलकर देखा नहीं जा सकता। 'होने जाने के बाद ही ' समझा जा सकता है, पेट की संतान की तरह ।
विधान ने मुझे गाड़ी का किराया भी चुकाने नहीं दिया। बड़े यत्न से घर पहुँचा गया । यह भी कह गया कि 'साँझ के बाद फिर आऊँगा । '
घर में पाँव रखते ही समझ में आया कि जितना कुछ उत्सव - आनंद, जीत में दिखाई देता है, वह सब छलना है, जादू का करिश्मा है । पुकार पड़ जाने पर कोई किसी को रोक नहीं सकता । मनुष्य मानो बगीचे का फूल है - खिला, गंध बिखेरा, एक सौंदर्य-सृष्टि को शोभा प्रदान की, फिर दिन बीतते-बीतते ही झर गया ।
अस्वस्थ, रोगी मनुष्य यदि सोचे कि सभी लोग उसे घेरकर बैठे हुए - 'आहा', 'ऊहू' करेंगे, उसके दुःख के भागीदार होंगे, मारे कष्ट के चौबीसों घंटे मुँह लटकाए विषादयुक्त रहेंगे, तो वह मूर्ख है। दुःख का कोई भागीदार नहीं होता। भागीदार होते हैं सुख के, आनंद के । मैं अपने घर में अकेला ही बैठा रहा । सामने रखा रेडियो चलाते ही समाचार गूँजने लगे। स्थानीय समाचार सुनानेवाले महोदय ने मेरी ओर जैसे घूँसा तानकर मारा - " एक जगह मेरा बहुत सा पैसा लगा हुआ था। वही कंपनी नीलाम हो रही है। उसको चलानेवाले प्रबंधक पुलिस की हिरासत में हैं। लोग हाय-हाय कर रहे हैं। "
मन का बाँध यकायक टूट गया। बहुत दिन पहले मैंने एक आदमी को अचानक मरते हुए देखा था । वह दृश्य अभी तक भूला नहीं है। वे महाशय एक दुकान से बहुत सारे पैकेट छाती से चिपकाए बाहर निकल रहे थे, अचानक हृदयाघात, हार्ट फेल ! हाथ का बंधन खुल जाने से एक-एक करके सभी पैकेट गिरने लगे ।
एक और घटना याद आई। एक बार एक आदमी की फुलवारी से एक नन्हीं उम्र की बच्ची ने सवेरे-सवेरे बहुत सारे फूल चुराकर अपने खोंइछे (पहने हुए वस्त्र का अगला भाग, जिसे किसी सामयिक रूप से समान रखने लायक बना लिया जाता है) में भर लिये थे। अचानक पीछे से उस घर की मालकिन आ गई और डपटकर बोली, “फेंक, फेंक दे सब फूल । यहीं रख जा ।"
हम लोग जिंदगी के दिन जैसे अनचाहे ही एक-एक कर फेंकते जाते हैं, उसी प्रकार उस लड़की ने अत्यंत बेबसी में करुण मुख बनाते हुए, दोनों हाथों से पकड़े फ्रॉक के खोंइछे को कुछ नीचा किया। पहले तो डगराता - डगराता सा एक-एक फूल गिरा, उसके बाद हरहराकर सारे फूल ओस से भीगी घास पर जा गिरे।
उस बच्ची की उन दोनों आँखों को मैं आज तक भुला नहीं पाया हूँ । मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मैं वही बच्ची हूँ । मृत्यु की फुलवारी में दिन के खिले खिले सुगंधित फूल जुटाने आया था, पकड़ लिया गया हूँ। एक दिन, दो दिन, करते हुए खोंइछे से सारे दिन गिरे जा रहे हैं, ओस से भीगी घास पर।"