दीदी (मलयालम कहानी) : एम. टी. वासुदेवन नायर

Didi (Malayalam Story in Hindi) : M. T. Vasudevan Nair

दीदी रो रही थी।
दीदी को रोते देखना अप्पू को अच्छा नहीं लगता। पिछवाड़े वाले कमरे की खिड़की की चौखट पर माथा टेके दीदी रो रही थी। वह तो हमेशा रोती ही रहती है। शायद नानी ने उसे गाली दी हो। वैसे नानी अप्पू को भी डाँटती रहती है। लेकिन अप्पू को रोना नहीं आता। गुस्सा आता है। अगर वह भी दीदी जैसा बड़ा होता तो दिखा देता।...इतनी बड़ी होने पर भी दीदी डाँट-फटकार क्यों सहती है। उसका चेहरा उतर जाता है। आँखें भर आती हैं...यह देखकर अकसर अप्पू वहाँ से बाहर निकल जाता।
दीदी को रोते देखकर अप्पू से उसके पास रहा नहीं जाता। कभी रोते-रोते दीदी उसे गले लगा लेती। दीदी से प्यार से लिपटना उसे अच्छा लगता है। लेकिन जब ‘बेटा’ कहते हुए सिर और माथे पर बार-बार चुम्बन लेती तो गरम-गरम आँसू अप्पू के बदन पर टपक पड़ते। तब वह भी रुआँसा हो जाता।
नानी की फटकार को वह अक्सर अनसुनी कर देता। बहुत गालियाँ सुन चुका। सुबह उठते ही गालियों की बौछार हो जाती-‘दुपहरिया होने पर ही छोकरा उठता है। देखा न रे, तेरे जनमते ही घर का सत्यानाश हो गया कि नहीं ?’
बरामदे के कोने में सिल के पास बैठे, दातून करते वक्त फर्श पर थोड़ा पानी गिर जाए तो बस काफी है, नानी शुरू कर देती-‘बदतमीज, अपनी हड्डी-पसली तोड़कर फर्श की लीपा-पोती की है मैंने।’
आँगन में कोई कूड़ा डाल दे, कुएँ में कोई कंकड़ी फेंक दे या ताँबें के घड़े पर ताल बजाये तो नानी गालियाँ देने लगती। अब स्कूल जाने लगा है तो उसे थोड़ी राहत मिली है। कम से कम दिन में तो छुटकारा मिल जाता है।
क्यों नहीं दीदी नानी को फटकार देती ? लेकिन अप्पू से ज्यादा दीदी ही नानी से डरती है।
अप्पू को गालियाँ देने पर कभी-कभी दीदी कहती, ‘‘उसे कोस-कोसकर मार डालेंगी माँ।’’
‘‘थू...’’
उसके जवाब में एक डाँट पिलाती। उससे भी बस नहीं करती, ‘‘ऐसे ही शक्कर समझकर क्यों नहीं चाट लेती ?’’
‘‘जब अपना ही खून हो..’’
तब अपने बछड़े को कोई छूने जाए तो जैसे कजरी गाय सींग तानकर आगे बढ़ती है उसी तरह नानी उछलती हुई आती।
‘‘अरी...किसी ऐरे-गैरे से...हाय राम ! मुझसे ज्यादा कहलवाना नहीं री !’’
बातें जब यहाँ तक पहुँच जातीं तो अप्पू चुपचाप आँगन की तरफ निकल जाता। वह अहाते में चक्कन को साथ लेकर घूमता रहता। कभी-कभी कद्दू की बेल के बीच लुकाछिपी करते लाल पूँछवाले पतंगे को पकड़ने की कोशिश करता। लेकिन कभी भी उसके हाथ न लगता। बाहर काफी देर बिताकर अप्पू घर लौटता। इस बीच उसे खयाल आता, दीदी पिछवाड़े के कमरे की खिड़की पर माथा टेके सिसक रही होगी।
सन्ध्या समय नाम जपने का काम अप्पू को तकलीफदेह लगता था। गलियारे में बैठकर ही यह काम करता। कई बार नमः शिवाय रटना पड़ता। फिर नक्षत्रों की नामावली रटनी पड़ती। इन सबमें उससे कोई गलती नहीं होती थी। देशी महीनों के नाम भी उसे गिनना आता था। लेकिन इसके बाद उसे अँग्रेजी के महीने और वन, टू, थ्री...गिनने के काम में दीदी की मदद की जरूरत पड़ती थी।
दीदी को अँग्रेजी आती थी। पौर की दीवार पर टँगी कान्हा की तस्वीर वाले कैलेण्डर में छपी अँग्रेजी दीदी पढ़ लेती थी। आखिर दीदी की पढ़ाई आठवीं तक हुई थी।
सब कुछ रटने के बाद वह दीदी के पास चुपचाप जा बैठता। दीदी उसके बालों पर उँगलियों फेरने लगती। तभी पड़ोस के बड़े घर से गाने की आवाज आती। वह कभी उधर नहीं गया। बाड़े के इस तरफ से देखा भर है। वहाँ काफी लोग रहते थे।
वहाँ से गाने की आवाज आ रही थी। गानेवाली और बातें करनेवाली एक पेटी वहाँ आयी थी। यह पेटी गाती और बोलती कैसे है ? चक्कन कहता है कि उसके अन्दर कोई बैठा होगा। चक्कन को कुछ भी नहीं आता। वह तो स्कूल भी नहीं जाता। कजरी गाय सिर्फ उसी को सींग नहीं मारती। यह तो उसके बड़प्पन से नहीं, उसके हाथ की लकुटी देखने से है।
वे सारे गीत शायद सिनेमा के थे। अप्पू ने अभी तक कोई सिनेमा नहीं देखा।
स्कूल के उसके साथी यशोदा और मणि ने सिनेमा देखा है। सिनेमा की तस्वीरों से बनी एक थैली उसने जरूर देखी थी।
गाना सुनकर, दीदी पर अक्सर एक पागलपन सवार होता। फिर कुछ पूछा जाए तो जवाब नहीं देती। पता नहीं वह क्यों इस तरह नाराज रहती थी ? कभी-कभी दीदी इसी तरह चुप्पी साधे बैठ जाती थी। यह दीदी भी कितनी अजीब है।
फिर भी उसे दीदी पसन्द थी। सवेरे स्कूल जाने के पहले दीदी ही उसे नहलाती। सूखी तुरई के रेशे से शरीर रगड़-रगड़कर नहाना उसे पसन्द नहीं। अँगोछे की नोक से कान के अन्दर साफ करते वक्त उसे गुदगुदी होती। दीदी ही कंजी परोस देती। कंजी पी लेने के बाद गीले अँगोछे से छाती से पानी पोंछ लेती, और पिछले दिन धोकर रखी कमीज और धारीदार जाँघिया पहनाती। बालों पर कंघी करके चेहरे से तेल की चिकनी परत एक बार और पोंछ देती। इसके बाद वह स्कूल रवाना हो जाता।
रात को वह खाने बैठता तो दीदी भी पास बैठ जाती। दीदी का कौर बनाकर खिलाना उसे पसन्द था। लेकिन नानी के सामने दीदी उसे कौर बनाकर नहीं खिलाती थी। क्योंकि एक बार नानी ने डाँटा था, ‘‘यह क्या दुधमुँहा बच्चा है जो तू कौर बनाकर खिलाती है....’’
दीदी कभी-कभार ही नानी को जवाब देती। दीदी की बातें सुनने पर नानी पर भूत सवार हो जाता। फिर कोहराम मच जाता, नानी की जली-कटी बातें सुनने के बाद दीदी रोने लगती। कभी-कभी नानी भी रो उठती।
नानी के रोने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन सिर्फ एक बार नानी को रोते देखकर उसे भी रोना आया था।
वह घटना अप्पू भूला नहीं था। नानी को रुलाने वाले उस आदमी को भी वह नहीं भूल पाया।
चक्कन के बनाये नारियल के पत्ते की गेंद से वह आँगन में खेल रहा था। तभी फाटक से किसी ने बुलाया।
‘‘माँ !’’
देखा, तो एक आदमी बाड़े के पास खड़ा था। लम्बी, आस्तीनवाली कमीज और बगल में एक थैली। नानी आँगन से होकर बाड़े की तरफ गयी। पता नहीं, नानी क्या बड़बड़ा रही थी।...
‘‘तेरी माँ ही तो कह रही है ! तुम यहाँ तक आ गये हो तो घर के अन्दर क्यों नहीं आते कुमारन ?’’
अप्पू को भी लगा कि नानी ने ठीक ही कहा था। यह कौन है इतना गरूरवाला ? अगर उसे नानी से बातें करनी हों तो उसे उधर बुलाने की क्या जरूरत है ? वह क्या इधर आ नहीं सकता ?
वह आदमी बोला, ‘‘मुझे यह कहकर निकले पाँच साल हो चुके कि अब इस घर में पैर न रखूँगा। वह तो कभी नहीं होगा माँ।’’
नानी उसे डाँट क्यों नहीं रही ? हमेशा गरजनेवाली नानी उस गरूरवाले के सामने गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘मेरे पेट की जनमी है ? मैं कैसे उसे मार डालूँ ?’’
उसका जवाब अप्पू की समझ में नहीं आया।
नानी ने कहा, ‘‘और जब तक मैं जिन्दा हूँ कम से कम तब तक...’’
‘‘उसके बाद इतना भी नहीं होगा।’’ उसका चिल्लाना जारी रहा, ‘‘ये सब सीख तुम्हें बेटी को पहले से देनी चाहिए थी।’’
इस बीच उसने अप्पू की तरफ देखा। अप्पू को उसकी नजर जरा गड़बड़-सी लगी। मौका पाकर बच्चों का गला घोंटकर थैली में बाँधकर ले जाने वाले उस साधु की नजर से भी वह इतना नहीं डरा था। यह भी गला घोंटनेवाला है क्या ?
वह चुपके से बरामदे की ओर बढ़ा। दीदी अन्दर चली गयी थी। रसोई के पिछवाड़े के दरवाजे पर खड़ी दीदी केले के बाग की ओर देख रही थी। आँचल थाम कर अप्पू ने पूछा, ‘‘दीदी, फाटक पर खड़ा आदमी कौन है ?’’
शायद दीदी ने उसकी बात नहीं सुनी।
‘‘फाटक पर कौन खड़ा है दीदी ?’’
दीदी कुछ कहने जा रही थी। लेकिन बोली नहीं।
‘‘बोलो, कौन है दीदी...’’
‘‘वह..’’
‘‘गला घोंट देगा क्या ?’’
‘‘कौन ?’’
‘‘वह आदमी...बच्चों का गला घोंटनेवाला तो नहीं है ?’’ लगा कि दीदी का दम घुट रहा है।
‘‘वह...तो, तेरे मामा हैं रे।’’
यह तो नया तमाशा हुआ। मामा होकर क्या ऐसा ही करना चाहिए था उसे ? फाटक पर आकर धीरे से नानी को बुलाना, फिर डराने के लिए अप्पू की ओर घूरना...अजीब मामा है यह।
शायद दीदी ने यों ही कहा हो।
‘‘क्या यह सच है दीदी ?’’
‘‘हाँ !’’
‘‘मामा इधर क्यों नहीं आते ?’’
दीदी ने उसका जवाब नहीं दिया।
‘‘मामा नहीं आएँगे क्या ?’’
और भी कुछ पूछना चाहता था। लेकिन उसने देखा कि दीदी आँखें पोंछ रही थी। यह दीदी तो पागल है...
तब नानी अन्दर आयी। नानी को देख अप्पू घबरा गया। नानी रो रही थी। साथ-साथ कुछ बड़बड़ा भी रही थी। अप्पू को भी गम हुआ। कितनी ही गालियाँ क्यों न दे वह, है तो उसकी अपनी नानी।
हिम्मत बाँधकर वह बाहर निकला और फाटक की ओर नजर दौड़ायी। मामा जा चुके थे।
एक मामा का होना अच्छा है। लेकिन इस तरह घूरकर डराना नहीं चाहिए। फाटक तक आकर नानी को भला-बुरा कहकर रुलाना नहीं चाहिए।
पछाँही के घर की जानू के भी एक मामा थे। वे सात समुन्दर पार दूर कहीं रहते थे। वहाँ रेशमी कपड़े और खूबसूरत छाते बहुत थे। वे जब आये थे तो जानू को ये दोनों चीजें मिलीं। छाता बहुत अच्छा था और बहुत हल्का भी। अपनी माँ के साथ मन्दिर जाते समय वह उसे साथ ले लेती। कमीज बड़ी थी इसलिए पेटी में ही रखी थी।
जानू के जो मामा घर पर पड़े रहते थे, उन्होंने उसे अब तक कुछ नहीं दिया है। सात समुन्दर पार के मामा ही उसे ज्यादा पसन्द थे। वे शायद अगले साल भी आएँगे।
अप्पू को अफसोस हुआ कि उसके मामा ऐसे गड़बड़ निकले। दीदी ने बताया कि वे इधर नहीं आएँगे। उनके यहाँ भी वैसा ही छाता मिलेगा क्या ? मिले तो भी वे नहीं लाएँगे। देखा न कैसे घूर रहे थे वह ? नानी तक को रुला दिया। रूठने से ही घर नहीं आते होंगे। लेकिन वे रूठे किससे थे ?
अब की बार आने पर उनसे पूछने की ठान ली थी। लेकिन मामा नहीं आये।
यह मामा रहते कहाँ हैं ? दीदी तो बताती नहीं। जानू भी ऐसे एक आदमी को नहीं जानती। जानू को यकीन ही नहीं होता कि अप्पू के भी एक मामा हैं। चक्कन थोड़ा-बहुत जानता है-नदी किनारे उनकी घर-जायदाद है।
चक्कन कहता है कि उसने देखा है। वह जब उधर से होकर गुजर रहा था उसी समय नये घर पर खपरैल छाया जा रहा था।
‘‘मामा इधर क्यों नहीं आते रे ?’’
‘‘वे झगड़ा करके जो गये हैं।’’
चक्कन भी नहीं जीनता ये झगड़ा किस बात पर हुआ है ?
सोचने पर उसे कुछ भी नहीं सूझता। उसके मन में कई तरह की शंकाएँ हैं जिन्हें वह सुलझाना चाहता है। मगर पूछे किससे ?
अकसर दीदी ही उसकी शंकाएँ दूर करतीं, रात को सोने के लिए लेटते वक्त।
जब तक वह खाना खाता तब तक दीदी उत्तरवाली कोठरी में बिछौना बिछा देती। बिछौने पर लाल रंग की बड़े-बड़े सफेद फूलों वाली पुरानी साड़ी बिछा देती। उस पर लेटना उसे पसन्द है। वह दीदी की साड़ी है।
दीदी की और एक साड़ी है। वह सन्दूक में करीने से रखी हुई है। उसे पहने दीदी को नहीं देखा। सन्दूक खोलने पर खुशबू आती है, केतकी की खुशबू। केतकी की खुशबूदार साड़ी दीदी पहने तो खूब मजा आएगा।
खाना खाते ही अप्पू लेट जाता। लेकिन जब तक दीदी न आती, वह न सोता। रसोई साफ कर बर्तन माँजकर ही दीदी आती थी। दीदी से लिपटकर सोते वक्त वह अपनी शंकाएँ एक-एक करके दीदी के सामने रखता। अकसर वह जानना चाहता है कि जानू ने जो कुछ कहा, वह सब झूठ है कि नहीं।
कभी-कभी वह कितनी झूठमूठ की बातें बनाती है। कह रही थी कि उसके घर के दक्खिन के सर्प देवता के झुरमुट में एक ऐसा साँप है जो नौ बच्चों को निगल चुका है। वह तो निरा झूठ है न ! एक साँप के पेट में इतने सारे बच्चे कैसे समा जाएँगे !
एक बार जानू ने कहा कि उसने ईश्वर को देखा है।
अप्पू के यकीन नहीं हुआ। अप्पू ने तो ईश्वर को नहीं देखा; न चक्कन ने देखा है और न दीदी ने।
जानू कहती है कि उसने रात को ही ईश्वर को देखा। पूजा के लिए आये पाँडे से भी लम्बी ईश्वर की दाढ़ी-मूँछ है। यह जानने के लिए कि वह झूठ तो नहीं बोल रही, अप्पू ने पूछा, ‘‘सिर पर क्या था ?’’
‘‘काहे के सिर पर ?’’
‘‘ईश्वर के ?’’
जानू ने खूब सोच-समझकर जवाब दिया, ‘‘बाल।’’
‘‘फू-फूय...’’ अप्पू चिल्लाया।
‘‘ईश्वर के सिर पर तो मुकुट रहता है।’’
वह तो जानू ने नहीं देखा था। वह झेंप गयी। झूठ बोलने पर भी जानू उसे अच्छी लगती थी। जब वह यहाँ थी तो साथ खेलती थी, अब वह भी चली गयी। जानू को उसके पिता ले गये। वह एक जंगली इलाके में गयी है। समुन्दर पार करना तो नहीं है। समुन्दर पार तो उसके मामा रहते हैं। पिता के साथ जाने पर वह रेलगाड़ी में बैठ सकती है। एक भारी पहाड़ का पेट चीरती हुई रेलगाड़ी चलती है।
जाने के पिछले दिन जानू अप्पू के यहाँ आयी थी। साथ में उसकी माँ भी थी।
‘‘हम कल रेलगाड़ी से जाएँगे।’’
उसने जब यह कहा तो अप्पू के मन में थोड़ी-सी जलन हुई। वह तो बहुत कुछ देख सकेगी। जहाँ वह जा रही है वहाँ शायद रबड़ का गेंद और साइकिल मिलते होंगे।
अप्पू भी कहीं जाना चाहता है। वह जाए तो कहाँ जाए ? कोई ले चले तभी न ?
बड़े टीले पर जहाँ सप्तपर्णी का पेड़ खड़ा था, उसके आगे वह कभी नहीं गया। सात समुन्दर पार के देश, ऊँची पहाड़ियों के सुरंगों से होकर जाने वाली रेलगाड़ी... सुन्दर छाते, रेशमी कपड़ों से भरे उन जगहों के बच्चों को कितना मजा आता होगा।
जानू की माँ ने दीदी से विदा ली। वे दोनों साथ-साथ पढ़ी थीं। जानू की माँ के पास कई साड़ियाँ हैं। वे जानू के पिताजी के साथ कई जगहों पर गयी हैं ! एक और भी मजेदार बात है, जानू के पिताजी को उसकी माँ ‘मुन्नी के पिताजी’ कहती हैं। जब जानू की माँ चली गयी तो दीदी की आँखें भर आयीं थीं।
शायद दीदी भी पहाड़ी सुरंगों को पार करने वाली रेलगाड़ी में कहीं जाना चाहती हो।
दीदी कहीं नहीं जाती। यहाँ तक कि मन्दिर के तालाब पर भी नहीं। घर के कुएँ पर ही नहाती है। फाटकवाले भगवती के मन्दिर का मेला देखने नानी गयी। अप्पू भी गया। फिर भी दीदी नहीं गयी।
‘‘दीदी नहीं चलेगी नानी ?’’
तब नानी बौखला उठी, ‘‘ए, छोकरे, चुप रह...’’
पिछले जेठ के महीने से वह स्कूल जाने लगा था। अब दो महीने के बाद परीक्षा शुरू होगी। उसमें पास होने पर वह दूसरे दर्जे में बैठेगा।
जानू अपने पिताजी के पास पहुँचने के बाद शायद वहीं किसी स्कूल में भर्ती हो जाएगी। वहाँ भी तो स्कूल होंगे। वहाँ हमारे केलू मास्टर जैसे मास्टर लोग भी होंगे क्या ? न होना ही अच्छा। पिटाई से तो बच सकती है।
क्साल में अप्पू का एक दोस्त है-कुट्टिशंकरन। खेत के उस पार उसका घर है। दोनों साथ-साथ स्कूल जाते हैं। केलू मास्टर कभी-कभी कुट्टिशंकरन को ‘कुट्टिच्चातन’ पुकारते थे। यह सुनकर सब हँसते थे। उसके साथ ही यह नाम ठीक ही लगता था। लेकिन केलू मास्टर की मार बर्दाश्त के बाहर थी।
कुट्टिशंकरन ने एक बार उसे एक नीबू दिया।
वह अपने घर से लाया था। उसके यहाँ पिछले दिन कुछ नीबू खरीदे गये थे, उसकी मँझली दीदी की शादी थी।
‘‘शादी में नीबूँ का क्या काम ?’’
‘‘बेवकूफ, तुम यह भी नहीं जानते क्या ?’’
‘‘वह इस तरह बोल रहा था जैसे उसने बहुत शादियाँ देखी हों। शादी के बारे में कुट्टिशंकरन ने सारा ब्यौरा उसके दिया। बहुत से लोग घर आएँगे। पण्डाल में बैठनेवाले बारातियों पर गुलाब जल छिटकते हैं। गुलाब जल खूब खुशबूदार है। बाद में चन्दन और नीबू सबको दिया जाता है।’’
अप्पू को इन बातों पर यकीन नहीं हुआ। अगर साफ कह दे कि यह सब झूठ है तो शायद वह पूछता, ‘‘क्या तुमने शादी देखी भी है ?’’
तब मानना पड़ता कि नहीं देखी है।
कुट्टिशंकरन को तसल्ली देने के लिए अप्पू ने कहा, ‘‘मेरे यहाँ जब दीदी की शादी होगी तब तुझे भी नीबू दूँगा।’’
मगर कुट्टिशंकरन कह रहा था, ‘‘तुम्हारी कोई दीदी कहाँ है ?’’
यह सुनकर अप्पू को काफी गुस्सा आया। उसे चार बार ‘कुट्टिच्चातन’ कहकर कनपटी पर चमाचा लगाने का मन हुआ। कुट्टिशंकरन उससे भी मोटा-तगड़ा है। इसलिए ऐसा नहीं किया।
‘‘मेरी दीदी फिर कौन है रे ?’’
‘‘अरे बुद्धू ! वह तो तेरी माँ है।’’
तब कुट्टिशंकरन की मूर्खता पर उसे हँसी आयी। इस उल्लू को केलू मास्टर ने ‘कुट्टिच्चातन’ सही नाम दिया है।
‘‘जा, तुझको खाक आता है।’’
‘‘फिर तू आया बड़ा जाननेवाला-मेरी माँ कह रही थी।’’
‘‘तेरी माँ क्या जाने !’’
फिर दोनों में झगड़ा शुरू हुआ। कुट्टिशंकरन ने नीबू वापस माँगा। नीबू उसके सामने फेंककर अप्पू ने नाक-भौं सिकोड़ी।
स्कूल से लौटते वक्त उसने सोचा, दीदी मेरी माँ कैसे हो सकती है ? उसके कोई माँ-बाप नहीं हैं। उसके तो दीदी और नानी हैं, बस। नानी की क्या बिसात ? छोकरे ऐसा मत कर...वैसा मत कर-तेरे जनमते ही...
उसे बस दीदी काफी है। फिर उस अच्छी दीदी को माँ कहने वाले कुट्टिच्चातन को क्या किया जाए ?
उसे माँ नहीं चाहिए।
माँ होती है तो क्या-क्या मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, ये सब वह देखता रहता था। दीदी की माँ है न नानी ? क्या दीदी को वह कभी चैन से बैठने देती है ?
पिछले चार-पाँच दिनों से दीदी दिन-रात रोती रहती है। नानी अब गाली नहीं देती।
दीदी भी कैसी पगली है...
दीदी अप्पू से नाराज नहीं होती। रात को सटकर लेटते समय दीदी ने बहुत कुछ कहा। कोई कहानी तो नहीं। कहानी सुनना ही अप्पू को पसन्द है। दीदी को कई कहानियाँ आती हैं। रत्न ढूँढ़ निकालने वाले राजकुमार की कहानी। उसको सुनने के बाद ही रत्न मिलने पर उसे छिपाने की तरकीब उसे सूझ पड़ी। रत्न को गोबर से ढँका जाय तो उसकी चमक बाहर दिखाई नहीं पड़ती। फिर पत्थर बन जाने वाली राजकुमारी की कहानी। जिन्दा करने के लिए बच्चे की बलि चढ़ाकर पत्थर पर खून डालने की बात सुनकर उसे रोना आया।

अब दीदी कहानियाँ नहीं सुनाती। चुपचाप पड़ी रहती। थोड़ी देर बाद पूछती, "सो गया बेटे...?"

"नहीं तो।"

"बेटा, तू खूब पढ़ाई करना।"

"जी!"

"बड़ा होकर दीदी का खूब खयाल तो करेगा कि नहीं?" यह कैसी बेतुकी बात है? फिर भी 'हाँ' भरता।

"दीदी का तो एक तू ही है रे!.."

दो-तीन दिनों से दीदी की तबीयत खराब है। वह चुपचाप अप्पू को नहलाती, खिलाती और बाल सँवारती और योंही उसके चेहरे की ओर ताकती रहती। फिर एकदम गुमसुम बनी रहती।

यह दीदी पागल जो ठहरी...दुपहर बीच वाले कमरे के फर्श पर नानी और दीदी लेटी तो नानी को कहते हुए सुना, "उसकी बात सोचकर तुम्हें मन मारने की कोई जरूरत नहीं।" दीदी कुछ भी नहीं बोली।

"जो हो गया सो हो गया। इधर-उधर की बातें सोचने से कहीं पहुँच नहीं पाओगी। अगर यह ठीक हुआ तो बस बेड़ा पार ही समझो..."

वह सुनकर भी दीदी चुप रही।

"वह सब शंकरन नायर ठीक कर देगा। वह बड़ा नेक आदमी है।"

"तुम क्या कह रही हो माँ?"

"तुम..." नानी कुछ ऊँची आवाज में बोली, “यों ही सब कुछ बरबाद न करो। अगर यह भी हाथ से निकल गया तो बस जिन्दगी भर पछताओगी।"

"यह धोखाधड़ी है न?" दीदी पूछती है।

"यह सब तुम्हें जानने की जरूरत नहीं है।"

"फिर उसका नतीजा भी मुझे ही तो भुगतना पड़ेगा।"

"वह सब शंकरन नायर को मालूम है।"

"माँ, अप्पू के..."

"अप्पू...शिप्पू-मालू! तुमसे मैं कह रही हूँ। जब मैं इस बला से छुटकारा पाना चाहती हूँ तब तो तू...।"

दीदी चुप बनी रही। फिर नानी ने कहा, "शंकरन नायर सब कुछ सँभाल लेगा।"

यह शंकरन नायर कौन है? इतने बड़े होशियार आदमी को कभी देखना भी चाहिए। इस बीच एक दिन सुना कि शंकरन नायर घर आने वाला है।

देखने में तो शंकरन नायर एक नेक आदमी लगा। ओसारे पर बैठे जब वह नानी से बातें कर रहा था तो अप्पू उसके पापड़नुमा सफेद बालों को देखता रहा।

वह आदमी नानी से बातें किये जा रहा था।

लेकिन उन सब बातों में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। वयनाड़ की पहाड़ी में शादी होनेवाली है, होने दो...यही खयाल रखना कि बच्चा होने की भनक तक कान में न पड़ने पाए...ठीक है। अप्पू बार-बार उस पापड़नुमा बाल को देखने में ही मजा ले रहा था। वह सोच रहा था कि उसके सिर पर एक लम्बी चोटी भी होती तो अच्छा लगेगा। स्कूल के बाग में गमले में रखा घोड़े की पूँछनुमा पौधा जैसा लगेगा।

उसने एक बार फिर झाँककर देखा।

शंकरन नायर ने आवाज और धीमी कर दी।

नानी ने मुड़कर देखा तो अप्पू पर नजर पड़ी।

"अप्पू, आँगन में जाकर खेलो..."

वह अन्दर चला गया, "थू...उनकी पंचायत।"

वयनाड़ की शादी से उसको क्या लेना-देना। एक नीबू तक नहीं मिलेगा। कोई चाहे शादी कर ले। अप्पू का क्या बिगड़ता है।

अन्दर के कमरे का चावल का बक्सा उसने खोलकर जोर से बन्द किया। उसके अन्दर से एक नन्हा-सा तिलचट्टा झाँक रहा था। खिड़की पर चढ़कर दीवार के कीले पर टँगी टोकरी यों ही टटोली। उसमें सरसों है।

रसोई से पीतल का गिलास गिरने की आवाज आयी। रसोई में दीदी है।

नानी ने पुकारा, "मालू!" शायद गिलास गिराने से डाँटने के लिए बुलाया हो।

"अरी, मालू!"

दीदी बरामदे के दरवाजे पर आकर खड़ी हुई। पता नहीं अब दीदी को क्या-क्या सुनना पड़ेगा? अप्पू ने डर से कान खड़े किये।

"माँ ने सब कह दिया है न?" शंकरन नायर पूछ रहा था।

"बेफिक्र रहो, सब कुछ मैं ठीक कर लूँगा। वह एक नेक आदमी है, एकला। वह यह सब जान नहीं पाएगा।"

दीदी बोलती नहीं।

"शादी वहीं पर होगी। दो-चार मेहमानों को बुलाना है।"

"लोग क्या कहेंगे?"

नानी को शक था।

"तुम लोग मेरे सगे-सम्बन्धी हो। तुम्हारा और कोई नहीं है। मैं तो बीस बरस से वहीं रहता हूँ। तो बात समझ में आयी न बहन जी?"

"कौन-सी बात?"

"हाँ, हाँ...वही तो मैंने कहा-तब मेरे यहाँ छोटे पैमाने पर शादी की रस्म पूरी की जाए तो इसमें बुराई क्या है?"

"ठीक है भैया। तुम्हीं तो मेरा सहारा हो।"

"इसलिए ही तो मैं उसे पटाकर लाया हूँ। वह लड़की को देखना चाहता है। तब क्या करे?"

नानी ने धीमी आवाज में कुछ फुसफुसाया।

"उसकी भनक तक कान में पड़ने नहीं दूंगा..."

"सब कुछ ठीक हो जाने पर गाँव के मन्दिर में खीर चढ़ाने की मनौती की है।"

"सब कुछ ठीक हो जाएगा। बिटिया को कोई तकलीफ न होगी। उसके पास सरकार से मिली चार एकड़ जमीन जो है। मेहनत करने पर आराम से गुजारा हो सकता है।"

तब मोरी के नीचे रखे खाली डिब्बे में छिपी सींगवाली कोई चीज दिखाई पड़ी। यह तिलचट्टा नहीं था। यह तो अप्पू के लिए एक नया शिकार मिल गया। इसे छोड़ना नहीं चाहिए। वक्त पर झाड़ भी नहीं दिखती। नारियल के पत्ते की एक मोटी तीली चाहिए।

ओसारे में तब भी बातचीत चल रही थी। नानी और शंकरन नायर के बीच। दोनों कानाफूसी कर रहे थे।

जो भी हो। झाड़ू कहाँ गयी? छिपकर बैठे सींगवाले को एक मार लगानी है।

झाड़ू ढूँढ़ते हुए रसोई पहुँचने पर वहाँ दीदी मिली। अभी-अभी तो दीदी शंकरन नायर की पंचायत सुनने गयी थी। जब दीदी से पूछा कि झाड़ कहाँ है तो उसने अप्पू को गोद में उठा लिया। फिर सिर पर, माथे पर चूमती रही। दीदी के आँसू उसके चेहरे पर और सिर पर टपक पड़े।

शंकरन नायर दीदी को कुछ गाली तो नहीं दे रहे थे। नानी भी नाराज नहीं हुई थी। फिर दीदी रो क्यों रही है?

यह दीदी भी कैसी पागल है।

रात को दीदी ने पूछा, "अगर दीदी नहीं हो तो बिटुआ नानी के पास सोएगा न?"

"मैं तो दीदी के पास ही सोऊँगा।"

"अगर दीदी भी चली जाए तो?"

"दीदी किधर जा रही है?"

दीदी चुप रही। बार-बार पूछने पर जवाब मिला, "कहीं भी नहीं। दीदी ने यों ही कहा था।"

"सच!" अप्पू ने तसल्ली की साँस ली।

एक दिन वह स्कूल से आया तो उसे मीठा-सा पकवान-अटा मिला। वह हमेशा नहीं बनता है। ऐसी कोई खास चीज मिलने पर चक्कन के सामने खड़े होकर खाने की जिद अप्पू करता है। उस छोकरे का लालच देखते ही बनता है। दीदी ने कहा है कि वह बहुत लालची है। इसलिए उसके देखते हुए खाना नहीं चाहिए। लेकिन वह लकुटिया बना सकता है। कजरी सिर्फ उसी पर सींग नहीं मारती। वह चाहे तो कजरी को गले लगा सकता है!

अटा छिपाये दीदी की नजर बचाकर वह आँगन की ओर निकला। चक्कन फूस के ढेर से फूस निकाल रहा था। हमेशा की तरह आज उसने एक टुकड़े के लिए विनती नहीं की।

"अपुन को बड़ी मालकिन ने दिया है।"

"झूठ।"

"मैं ही उनके आने पर चाय की पत्ती और चीनी ले आया।"

"किनके आने पर?"

"मेहमान लोगों के। देखिए छोटे मालिक"-चक्कन ने गाँठ खोलकर दिखाया-बीड़ी के तीन टुकड़े।

"जो साहब आये थे, उन्होंने पीकर फेंके थे।"

अगर बीड़ी पीते हैं तो जरूर बड़े आदमी ही होंगे। शंकरन नायर के पापड़ जैसे बाल होने पर भी वह बीड़ी नहीं पी सकता। पिछले हफ्ते जब वह आया तो नानी की तरह पान चबाता रहा। बहुत बुरी बात!

"मेहमान लोग कहाँ हैं?" दीदी से पूछने के लिए अन्दर दौड़ा। दीदी अहाते में ही थी। नानी रतालू छील रही थी।

"नानी, मेहमान कहाँ हैं?"

"कौन-से मेहमान...यहाँ कौन मेहमान आएगा रे...यमराज है क्या?"

चक्कन ने नाम नहीं बताया था। अगर यमराज ही है तो वह है कहाँ? मैं यही जानना चाहता हूँ।

"ए छोकरे, बदतमीजी दिखाओगे तो तुम्हारी हड़ी तोड़ दूंगी।"

अरे रहने दो। एक मेहमान जो आ गया तो पाँव जमीन पर पड़ते नहीं नानी के!

उसने फिर कुछ नहीं पूछा। रात में कुछ देर सोने के बाद आँखें खुली। बिस्तर पर दीदी नहीं थी। कमरे में दीया जल रहा था। दीदी सन्दूक खोलकर सामान करीने से रख रही है।...केतकी की खुशबू आ रही थी। जब वह सोने लेटा था तब दीदी पास थी तो फिर उठी क्यों? रात को दीया जलाकर सन्दूक में धोती और ब्लाउज क्यों ठूँस रही है?

चुपके से उठकर दीदी के गले से लिपटकर उसे डराना चाहा। लेकिन उठ नहीं पाया... आँखें धीरे से मुंद गयीं... राजकुमार ने जिस जंगल से रत्न ढूँढ़ निकाला था, उसकी याद आ रही है...केतकी की हल्की -सी खुशबू...उसने फिर आँखें मूंद लीं।

सुबह अप्पू को दीदी ने जगाया। कुएँ पर जाकर नहलाया। और फिर कंजी पी लेने के बाद दीदी ने उसे कपड़े पहनाये। बाल सँवारते वक्त दीदी ने कहा, "बिटू, स्कूल जाते समय सँभल के जाना। ढोरों से बचकर निकलना...।"

यह तो दीदी अक्सर कहा करती है।

उसने मान लिया।

"बच्चों से झगडा मत करना..."

"हूँ।"

"नानी जो है, तेरा पूरा ध्यान रखेगी"

"नानी का कहना मानना और नखरे मत दिखाना।"

"नानी बुरी है, मुझे तो सिर्फ दीदी ही चाहिए...।"

"बिटू..."

हाँफते हुए अप्पू को छाती से लगाकर दीदी ने टूटी-सी आवाज में पुकारा, 'मेरे बेटे।'

अप्पू को डर था कि कहीं दीदी रो न पड़े। अबकी बार दीदी नहीं रोयी। इसलिए उसे हैरानी नहीं हुई।

तब उसे कुछ कहने का मन हुआ।

"सुनो दीदी!"

"बेटे, मुझे एक दफे 'माँ' कहकर पुकार..."

वह उसे अच्छा नहीं लगा।

"क्यों दीदी?"

"कुछ नहीं, यों ही!"

"दीदी कैसे माँ होगी?"

दीदी ने उसका जवाब नहीं दिया। दीदी के हाथ ढीले हो गये। वह मुँह मोड़ कर चुप खड़ी रही। कुछ देर बाद कीले पर टंगी थैली अप्पू के हाथ में दी और बोली, "बेटा, जा..."

अप्पू ताड़ के पत्ते से बना छाता कन्धे पर रखकर उसकी रंगीन डण्डी पर थैली लटकाये आँगन से चल पड़ा। फाटक पार करने पर फिसलकर गिरने को हुआ, लेकिन गिरा नहीं। मुड़कर देखा कि किसी ने देखा तो नहीं। ओसारे के दरवाजे के सहारे खड़ी दीदी उसे ही एकटक देख रही थी...यह डरानेवाली आँखें दीदी को कैसे मिलीं। जब उसने मुड़कर देखा तो दीदी ने कछुए की तरह सिर अन्दर खींच लिया।

"दीदी भी कैसी पगली है।..."

खेत के उस पार कुट्टिशंकरन जंगली अण्डी का पत्ता तोड़कर उसके रस के बुलबुले उड़ाता हुआ खड़ा था। उसकी थैली में दो आँवले थे। छोटा आँवला उसने अप्पू को दिया। छोटा होने पर भी खूब मीठा था।

एक सूखा नाला, पगडण्डी और छोटा-सा टीला पार करके उसे स्कूल जाना था।

टीला पार करते डर लगता था। बहुत-सी गायें भी होंगी। कोई बात नहीं। कभी पास के बड़े घर का साँड भी वहाँ होगा...अप्पू ने उसे नहीं देखा है।..न दीख पड़े...।

दोपहर को नारायण की पेंसिल उसके हाथ से टूट गयी। नारायण रोया। मास्टरजी से शिकायत करने जा रहा था कि कुट्टिशंकरन बीच में पड़ा। केलू मास्टर के पास मामला पहुँचे तो अप्पू को भी मुसीबत होगी। इससे बचने के लिए कल चवन्नी नारायण को देनी होगी। अप्पू को तसल्ली हुई।

दीदी से पूछने पर चवन्नी जरूर मिलेगी। शाम को घर पहुँचा। किताबों की थैली बरामदे में फेंककर उसने दीदी को पुकारा।

"अप्पू?"

दीदी ने नहीं, नानी ने जवाब दिया था। नानी रसोई से बाहर आकर पूछने लगी।

"आज इतनी जल्दी कैसे आ गया?"

मन में आया कि पूछूँ-क्यों इतना प्यार जता रही हो?

लेकिन पूछा नहीं। अगर मार पड़ेगी तो।

"दीदी कहाँ है?"

"कंजी परोस दी है। कपड़ा बदल के आ जा।"

उसे कंजी नहीं चाहिए। दीदी चाहिए। कल तक चवन्नी नहीं मिले तो नाक कट जाएगी।

"दीदी कहाँ है?"

वह उत्तर वाले कमरे में गया। वहाँ दीदी नहीं थी। केतकी की हल्की-सी खुशबू कमरे में टिकी हुई थी।

"नानी, दीदी कहाँ है?"

"दीदी... यहाँ नहीं है।"

"फिर कहाँ है?"

"वह...हाँ, एक जगह गयी है।"

"किधर?"

"दीदी आ जाएगी। अप्पू के लिए गेंद लाएगी..."

गेंद-वेंद वह लाए। ठीक है। फिर भी उसे साथ लिये बिना, बिना बोले वह गयी क्यों?

उसे गुस्सा आया। अजीब दीदी है। दीदी ने ऐसा किया न? अप्पू बात तक न करेगा...इस दीदी को क्या करे?

दीदी के सन्दूक में चवन्नी होगी। एक नहीं दो चवन्नी लूँगा। उसके लिए डाँटने आये तो दिखा दूंगा।

लेकिन सन्दूक कहाँ थी। उसको रोना आया। नानी ने फिर पुकारा, "अप्पू, खाना नहीं खाएगा?..."

वह आँगन में निकल आया। बिल्व के चबूतरे से एक पत्थर लेकर फेंका। फिर पछाँही की ओर चल पड़ा।

"अप्पू को नानी ने कंजी परोसी है...।"

अप्पू को नानी का प्यार नहीं चाहिए...

दीदी को आने दो। रबड़ की गेंद लाकर दोगी तो दूर फेंक दूंगा-हाँ।

नानी ने फिर पुकारा।

अप्पू को कुछ नहीं चाहिए। उसे लगा कि जी भर रोये। दीदी से जो गुस्सा है उसे आँसुओं में उतारकर जोर से रोये...

अगर दीदी बढ़िया गेंद और मिठाई लायी तो? तब क्या करना चाहिए? तो भी दीदी बिना बताये चली गयी न!

अजीब है दीदी...

यह दीदी भी कैसी पगली है।...

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