धुंध के उस पार (कहानी) : डॉ. महिमा श्रीवास्तव

Dhund Ke Us Paar (Hindi Story) : Dr. Mahima Shrivastava

अनेक बार कुछ ऐसे संयोग, कुछ ऐसी रहस्यमयी घटनाएँ जीवन में घटित हो जाती हैं जिन्हें ‘मस्तिष्क’ अस्वीकारता है, किन्तु ‘मन’ मानता है। स्नेह के बंधन, काल-मृत्यु से परे होते हैं, जो न तोड़े जा सकते हैं न विस्मृति में धकेले जा सकते हैं।

ऐसी ही एक घटना मेरी बचपन की सखी और अब एक सफल चिकित्सक मेघा ने, अनेक वर्षों बाद मुझसे मिलने पर सुनाई। उसको मैं उसके ही शब्दों में, बिना काट- छाँट के प्रस्तुत कर रही हूँ-

बात उन दिनों की है जब मैं शहर के मध्य में स्थित महिला चिकित्सालय में स्नातकोत्तर कोर्स कर रही थी।

महिला चिकित्सालय की उस इमारत पर दृष्टिपात कर कोई उसे अस्पताल की संज्ञा नहीं दे सकता था। लाल रंग की भव्य, पुरातन अट्टालिका ऊँचे अशोक व पलाश के सघन वृक्षों से घिरी थी। पीछे विशाल उद्यान की रमणीक पृष्ठभूमि। वहाँ से प्रात: पक्षियों का कलरव जलतरंग बजाता था। सामने थे रंग बिरंगी सामग्रियों वाले चित्ताकर्षक सामग्रियों से भरे बाज़ार।

मेरा छात्रावास अस्पताल के निकट ही था। वहाँ उन दिनों मैं एकाकी ही रहती थी क्योंकि अन्य छात्राएँ उसी शहर की निवासिनी थीं। ‘नीड़ से दूर’ इस अजनबी नगर में मैं अपना अस्तित्व तलाशती थी।

शीत ऋतु के दिन थे। साथ ही मावट की रिमझिम चल रही थी। मेरी नियुक्ति प्रसूति-विभाग (लेबर-रूम) में चल रही थी। प्रतिदिन ‘नवजीवन’ को चिंतित मुखड़ों पर हर्ष-भाव लाता देखती व स्वयं भी आत्म-संतोष प्राप्त करती।

उस दिन रात्रि के लगभग ग्यारह बजे, कुछ समय मिला तो मैं भोजन करने हेतु हॉस्टल आ गई। टिफिन में आलू-मटर की सब्जी, बूंदी का रायता व कस्टर्ड देख क्षुधा दोगुनी हो गई। अभी तीन-चार निवाले गले से उतारे ही थे कि लगा जैसे मेरे कक्ष-द्वार को कोई हौले से खटखटा रहा है। तनिक भय सा लगा। हॉस्टल का कोई चौकीदार नहीं था उन दिनों व पूरा कैम्पस सुनसान रहता था।

सर-सर वायु के झोंके मेरे कमरे के झीने पर्दों को ले उड़ना चाह रहे थे। विद्युत की गड़गड़ाहट दीवारों को भी जैसे कंपित कर रही थी। मैं तनिक विचलित हुई। शंकित हृदय सहित द्वार खोला। द्वार पर एक बुर्काधारिणी महिला खड़ी थी। उसका मुख जितना दिख रहा था, अतीव आकर्षक था। घुंघराली पलकें, बंकिम नैन व छोटी सी सुडौल नासिका।

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसको निहारा। उसने मधुर स्वर में कहा - ‘‘अस्पताल के गेट पर, ऑटो में मेरी बहिन को भयंकर दर्द उठ रहे हैं। कृपया मेरे साथ जल्दी चलें।’’

मेरे लिए यह कोई नवीन घटना नहीं थी। अनेक प्रसव झेल चुकी स्त्रियाँ अस्पताल पहुँचते-पहुँचते प्रायः विलम्बित हो जाती थीं।

मैंने मेरे कक्ष में रखे दस्ताने व ‘ममता डिलीवरी किट’ उठाया व उस महिला के साथ निकल पड़ी।

चारों ओर अंधेरे का साम्राज्य था। वर्षा के कारण बिजली भी कटी हुई थी। ऊपर से बेहद ठंडी हवा। मैंने एप्रन के सारे बटन बंद करे व भरसक अपनी कंपकंपाहट रोकने का प्रयास किया।

मार्ग में विचार आते गये कि क्या एक डॉक्टर से कठिन किसी का जीवन हो सकता है। पूरे दिन में कोई भी पल अपना, व्यक्तिगत नहीं है। कभी मानवीयता का तकाज़ा, तो कभी संवेदना के नाते, हमें कभी भी चैन नहीं मिल पाता। माँ की आकांक्षा व महत्वाकांक्षा के फलस्वरूप, मेरा कवि, कलाकार मन रक्त, मज्जा, जन्म-मरण व कष्ट-पीड़ा देखने को बाध्य था। काश, मैं किसी महाविद्यालय में, प्रसाद की कामायनी, अथवा टॉमस हार्डी की नायिका का वर्णन कर रही होती। पर वही बात है -

‘कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता।’

इसी ऊहापोह में हम चिकित्सालय के मुख्य द्वार पर आ पहुँचे। नीरव रात्रि में, एक ऑटो खड़ा था व उसके अन्दर से उठती तीव्र चीखें मानो सोये संसार को उठाना चाहती थीं। ऑटो-चालक ने टॉर्च दिखाई व मैंने पाया कि शिशु का नीला पड़ता मुख बाहर निकल चुका था। आँवल-नाल ग्रीवा के चहुँ ओर तीन-चार बार लिपटी हुई थी। मैंने सधे हाथों से सुकोमल ग्रीवा को बंधन-मुक्त किया। शिशु को जननी से विलग किया व शेष प्रसव पूर्ण किया।

उस सद्यःप्रसूता के पति ने नन्हें जीव को तुरन्त शॉल में समेट लिया। मैंने उसे विलम्ब से आने के लिए तनिक झिड़का व प्रसूति कक्ष की ओर उन्मुख हुई ताकि स्ट्रेचर आदि भिजवा सकूँ।

प्रातः हल्की सी धुंध व्याप्त थी। मैं प्रातःकालीन वार्ड का दौरा कर रही थी। रात्रि वाली महिला सुकून से अधलेटी थी। स्वस्थ गुलाबी शिशु अमृत-पान कर क्षुधा शान्त कर रहा था।

मैंने उसका रक्तचाप लेते हुए कहा - ‘‘रात्रि में यदि तुम्हारी बहिन दौड़ी-दौड़ी नहीं आती तो इन नन्हें महाशय (शिशु) का न जाने क्या होता ?’’

उस महिला ने आश्चर्य-भाव से मुझे देखा। नकारात्मक सिर हिलाया। कुछ रुक कर फिर बताया कि उसकी एकमात्र स्नेही अग्रजा तो कुछ वर्ष पूर्व असाध्य-रोग से ग्रसित हो असमय ही इस संसार से विदा हो चुकी थी।

अब विस्मित होने की मेरी बारी थी। दिमाग पर जैसे धुंध का साया छा गया। मेरे अल्प जीवन की यह अभूतपूर्व घटना थी। अनेक दिनों तक वह सुकोमल किशोर चेहरा मेरे मानस-पटल पर घूमता रहा जो अपने सजल, करूण नैनों में दुनिया भर की अनुनय-विनय समा मुझसे आग्रह कर रहा था- ‘‘डॉक्टर, प्लीज़।’’

यह कथा सुना मेरी बचपन की प्रिय सखी मुझे देख रहस्यमय ढंग से मुस्कुराई व चलने की अनुमति माँगी। इतनी देर से मैं दम साधे उसकी कहानी सुन रही थी। अब जैसे वर्तमान में लौट कर आई ।

बहुत दिनों तक मैं इस कथा के विषय में सोचती रही। आज तक यह निर्णय नहीं ले पाई कि मेघा के साथ यह वास्तव में घटित हुई घटना है अथवा कहानियाँ लिखने व सुनाने में पारंगत मेरी सखी ने अपनी कल्पना शक्ति के घोड़े दौड़ाये थे।

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