धूप-छांह (असमिया कहानी) : सैयद अब्दुल मलिक

Dhoop-Chhanh (Assamese Story in Hindi) : Syed Abdul Malik

विदा देने के बाद भी उसे जाने में संकोच करते देख और अपने चेहरे पर टिकी उसकी निगाहों में आशंका लक्ष्य करके अमृत भी एक पल ठहर गया, फिर बोला - “किसी तरह की फिक्र करने की बात नहीं, अगले हफ्ते अपने बच्चे को घर ले जा सकोगी। वह बिलकुल चंगा हो गया है।"

"ठीक है, सर !” आंखों की श्रद्धा को अमृत के पांवों पर उड़ेलकर एक बार प्रणाम करके वह धीरे-धीरे कंपाउंड के बाहर हो गयी।

यों ही कुछ क्षण अमृत उस महिला की ओर देखता रहा । सिगरेट खत्म-सी हो गयी थी। उसने एक और सिगरेट जलायी। किसी वजह से अमृत का मन कुछ हल्का-सा लगा। लड़के के बचने की आशा न थी, मगर अब वह चंगा हो रहा है।

दुखिया विधवा का इकलौता बेटा । उसके जीवन की सारी आशाओं का केंद्र ।

अमृत को लगा कि उसने मां-बेटे दोनों को नयी जिंदगी दी है ।

घड़ी की ओर नजर डाली- पांच बज गये थे।

अमृत ने पश्चिम के आसमान की ओर देखा, खुला और साफ आसमान, सूरज निस्तेज-सा हो गया था। अप्रैल महीने की ऐसी शामें कभी-कभी बड़ी अच्छी लगती हैं। अपनी टाई की गांठ को ऐसे ही एक बार छूकर अमृत ने अनुभव किया कि उसे चाय पीनी है - प्यास-सी लगी है। ढाई बजे के बाद से अभी जरा-सा समय मिला है।

तभी एक सुंदर अंबेसेडर गाड़ी आकर रुकी । मुड़कर देखना चाहते हुए भी अमृत रुक गया, फिर अनमने भाव से गाड़ी की तरफ नजर डाली।

एक सज्जन के साथ एक महिला गाड़ी से उतरकर कंपाउंड में घुस रही थी।

महिला ने दबी आवाज में साथ के सज्जन से कहा- “वही हैं । चलिए।"

दोनों आकर अमृत के सामने खड़े हो गये।

सज्जन ने रूसी कर्ड की फैली हुई पैंट और हलकी नीली हवाई कमीज पहन रखी थी। आंखों पर चश्मा । महिला रेशमी मेखला पहने हुए थी, जिस पर एक पतली सूती चादर थी।

दोनों हाथ सिर से लगाकर अमृत ने नमस्ते किया । उन दोनों ने प्रति-नमस्कार किया।

महिला ने अमृत के चेहरे की ओर बड़े संशय से देखा।

“अंदर आइए।" अमृत बोला और दोनों आगंतुकों को अपने क्लिनिक के स्वागत-कक्ष में ले गया। तीनों बैठ गये।

“आप लोग?” अमृत ने सहज भाव से दोनों के चेहरों की तरफ देखते हुए पूछा।

सज्जन ने बताया, “आप ही के यहां आये हैं। शायद आप मुझे पहचान नहीं पाये । मेरा नाम है रंजीत चौधुरी ।”

अमृत के चेहरे का रंग जरा बदला । पर शायद उस पर आगंतुकों की नजर नहीं पड़ी।

"और ये हैं - मेरी वाइफ - गायत्री चौधुरी !”

गायत्री के चेहरे पर एक नजर डालकर अमृत ने सज्जन से कहा- “सिगरेट लीजिए।"

उसने सिगरेट का डिब्बा और दियासलाई बढ़ा दिये, तभी दरवाजे के पास आकर एक वर्दीधारी दरबान ने सलाम किया। किसी आदमी के आने पर आज्ञा-पालन का निर्देश उसे है।

मगर अमृत ने उसकी तरफ नजर नहीं उठायी । सामने की कुर्सी पर बैठे उस सज्जन की ओर देखा । पैंतीस-छत्तीस साल का आदमी । देखने में सुंदर, सिर्फ नाक ही नुकीली नहीं थी। गोरा रंग, भरे हुए गाल, मोटे फ्रेम का चश्मा।

सज्जन का चेहरा और आंखें कुछ रूखे और उदासी भरे लगे।

रंजीत ने एक सिगरेट जलायी।

निर्विकार व्यवसायी के लहजे में जरा-सी अंतरंगता मिलाकर अमृत बोला - "क्या बात है, बताइए।"

रंजीत ने एक बार गायत्री के चेहरे की तरफ देखा, फिर नजरों को जरा-सा कोमल बनाते हुए धीरे-धीरे कहा, “मेरी.. हमारी बच्ची बहुत ज्यादा बीमार है । आज लगभग छह महीने हो गये । इलाज में तो कुछ उठा नहीं रखा है, मगर जरा भी सुधार नहीं हुआ है।"

“बच्ची अभी है कहां?”

"हमारे साथ ही है। चार साल की । पहले उसकी सेहत बहुत अच्छी थी।"

"क्या साथ लेते आये हैं ?"

“नहीं, साथ नहीं लाये । सोच रहे हैं, आपकी सलाह लेकर ही जो करना होगा, करेंगे।"

"यहां आप लोग रहते कहां हैं ? मेरा मतलब है, क्या आप लोग यहीं रहते हैं ?”

“यहां नहीं रहते । मैं शिलांग रहता हूं। गायत्री के मंझले मामा यहीं रहते हैं - शायद आप उन्हें पहचानते हों।”

अमृत ने फिर एक बार गायत्री के चेहरे की ओर नजर डाली, गायत्री एकटक अमृत के चेहरे की ओर देख रही थी। अमृत की नजर पड़ते ही उसने सिर झुका लिया।

इंतजार में खड़े दरबान की ओर बिना देखे अमृत ने कहा, "रघुनाथ, हमें चाय पीनी है, फिर बोला- “वह लड़की क्या आप लोगों की पहली संतान है?”

“नहीं, तीसरी है। पहले दो लड़के हुए थे, दोनों नहीं रहे । एक जन्म के पहले साल ही चला गया, दूसरा, दो साल बाद । यह लड़की भी अगर...'

अमृत ने रंजीत और गायत्री, दोनों की ओर बारी-बारी से देखा और एक सिगरेट सुलगा ली।

“आप लोग क्या उस लड़की के इलाज के लिए ही आये हैं ?"

“हां, हम लोगों ने तो आशा छोड़ ही दी थी। पर शिलांग में हमारे एक दोस्त ने - जो आपके भी दोस्त हैं, - अवर-सचिव अहमद - उन्होंने आपके पास एक बार हो आने की सलाह दी। दस दिन की आकस्मिक छुट्टी लेकर आया हूं।"

कुर्सी पर से उठते हुए अमृत ने कहा, “चलिए, घर चलें । एक प्याली चाय पी जाये।"

तीनों स्वागत-कक्ष से बाहर निकल आये ।

क्लिनिक और अमृत के मकान के बीच फैली हुई लान पार करके तीनों अमृत के मकान में आ गये।

रि-इनफोर्स्ड कंक्रीट का सुंदर, छोटा-सा दूधिया रंग का नया बना, दुमंजिला मकान ।

बहुत साफ-सुथरा और सलीके से सजा हुआ। कहीं भी धूल का एक भी कण नहीं था। दीवार पर कहीं कैलेंडर, तस्वीर आदि कुछ भी नहीं।

अमृत के पीछे-पीछे रंजीत और गायत्री भी ऊपर गये।

ऊपर का बैठने का कमरा भी बड़ा सलीकेदार था। उसकी एक खिड़की से एक लता चढ़ रही थी। कुर्सी-मेज बड़े कायदे से लगी थीं । कीमती लकड़ी के दमकते मेहागनी रंग के फर्नीचर देखने में ऐसे लगते थे मानो एक-दो दिन पहले ही बनवाये गये हों।

फर्श पर एक नीलाभ सतरंजी बिछी थी। नीले रंग के बीच-बीच में नन्हें-नन्हें सफेद फूल बने हुए थे।

इस कमरे में और कोई भी न था।

तीनों बैठ गये। रंजीत के सामने बैठा था अमृत । गायत्री उसकी बायीं ओर । अमृत ने फिर एक सिगरेट जलायी।

रंजीत ने पूछा - "क्या आप वासना को - यानी, हमारी लड़की को एक बार देख आ सकते हैं?”

अमृत ने मानो कुछ क्षण इस बात पर विचार किया। फिर धीरे-धीरे बोला- “क्लिनिक नया-नया बना है। अभी काफी काम बाकी है। इधर बीमारों का तांता लग चुका है। एक अच्छा-सा सहायक चाहता था, मगर मिलता ही नहीं। सिर्फ नरों और कंपाउंडरों पर भरोसा करने में डर लगता है।"

गायत्री चुपचाप बातें सुन रही थी। रंजीत बोला – “हां, देख ही रहे हैं, आपको काफी बिजी रहना पड़ता है । तो फिर लड़की को हम यहीं ले आयेंगे।"

"वही ज्यादा सुविधाजनक होगा शायद । लड़की थोड़ा चल-फिर सकती है न?”

"बहुत ज्यादा तो नहीं । पर गाड़ी से लाया जा सकता है । शिलांग से तो गाड़ी पर ही ले आये हैं।”

“मैंने एक एंबुलेंस का आर्डर दे रखा है । वह कब तक यहां पहुंचेगी, पता नहीं ।” अमृत बोला।

डाइनिंग रूम में चाय रखकर वर्दीधारी खानसामा ने सलाम किया। अमृत के कहने पर तीनों चाय की मेज पर आ बैठे । उस समय भी अमृत रंजीत के सामने ही बैठा, गायत्री की ओर देखा भी नहीं। हालांकि सरल विनम्रता के साथ ही अमृत ने दोनों से चाय पीने का आग्रह किया।

रंजीत बोला – “मैं तो सिर्फ और छह दिन रह पाऊंगा। छुट्टी है ही नहीं। गायत्री यहां रहेगी।”

कुछ देर सोचकर अमृत बोला - “पांच दिन बाद मेरे यहां एक सीट खाली होने वाली है। यहां अभी सिर्फ छह सीटें हैं । तब तक लड़की को यहां न लाना ही ठीक रहेगा। क्या आप लोगों को कोई असुविधा होगी?"

रंजीत ने गायत्री के चेहरे की ओर देखा।

गायत्री तीनों के लिए चाय बना रही थी। उसने कुछ जवाब नहीं दिया।

आमलेट पर जरा काली मिर्च का चूरा छिड़कते हुए अमृत बोला - "अगर लड़की को यहां न रखने पर भी काम चल जाये - हालांकि वह देखना पड़ेगा- तो आप लोग उसे साथ ही ले जा सकेंगे। नहीं तो, हो सकता है, कुछ दिन यहीं रखकर इलाज करना पड़े, अगर आप लोगों को पसंद हो।”

"कल ले आयें उसे? आप एक बार देख लें।"

"कल? हां, ला सकते हैं । ठीक है, कल ले आयें । दोपहर से पहले लायें, आठ से दस बजे के बीच ।”

चाय पीकर तीनों निकल आये। एक चौकीदार ने आकर सलाम किया।

अमृत से मिलने कोई आया था। रंजीत बोला - "आपको अब और परेशान नहीं करेंगे।"

अमृत ने खिड़की से बाहर की ओर देखा । क्रमशः शाम उतरती आ रही थी। गेट के सामने एक गाड़ी आकर रुकी थी।

अमृत ने पूछा- “लड़की को अगर यहां कुछ दिन रखना पड़े तो आप लोगों को कोई असुविधा तो नहीं होगी न?”

रंजीत बोला- “उसके इलाज के लिए ही तो शिलांग से यहां आये हैं । जरूरत हो तो जितने दिन लगे वह यहां रहेगी।"

तीनों नीचे उतर गये । विदा लेते वक्त बड़ी लाचारी से रंजीत बोला- “बड़ी आशा लेकर आपके पास हम आये हैं, यह जान लें..."

थोड़ा हंसकर अमृत ने कहा - "पहले मैं बीमार को तो देख लूं।"

विदा लेकर रंजीत और गायत्री चले गये । नमस्कार करने पर भी अमृत ने गायत्री की ओर नजर नहीं उठायी। गायत्री से कोई बात नहीं की।

हालांकि रंजीत का ध्यान इस ओर गया था, पर उसने कुछ कहा नहीं...।

वासना की बीमारी बड़ी अजीब किस्म की थी । चार साल की नन्ही-सी लड़की को ऐसी बीमारी क्यों हुई, यह समझने में अमृत को भी कठिनाई हुई। थोड़े लंबे इलाज की जरूरत होगी । बड़ी सावधानी से, हरदिन बड़े ध्यान से लड़की का इलाज करना होगा । बीमारी जटिल हो गयी है।

उसके क्लिनिक में इसके पहले ऐसा रोगी नहीं आया था।

तीन दिन तरह-तरह की जांच करने के बाद अमृत ने चिंतित होकर कहा- “बीमारी बड़ी कांप्लिकेटेड हो गयी है। चिंता का कोई कारण नहीं है, यह बात भी नहीं। आप लोग अगर तैयार हों तो मैं दायित्व ले सकता हूं।” रंजीत और गायत्री ने लाचार-से होकर अमृत की ओर देखा।

रंजीत ने धीरे-धीरे कहा- “वासना के लिए हमें कितनी चिंता है, शायद आपको समझने में कठिनाई होगी। पहले के लड़कों ने तो धोखा दे दिया। इस तरह वे हाथ में आकर खो जायेंगे, यह बात सपने में भी नहीं सोची थी। सिर्फ दायित्व ही नहीं, वासना की जिंदगी ही आपके हाथ में है। अगर वह चंगी न हो पाये तो हमारी जिंदगी कैसी हो जायेगी, भगवान ही जानता है।”

गहरे उद्वेग से कही गयी रंजीत की बातों में जो वेदना थी, अमृत ने उसका अनुभव किया । मगर स्थिति को हल्का करने के उद्देश्य से ही उसने कहा- “आप लोगों के निराश होने का कोई कारण नहीं है । नन्हीं बच्ची है, हो सकता है कि जल्द ही चंगी हो जाये और मुझ पर आप विश्वास रख सकते हैं, आप लोगों की लड़की की मैं कभी अवहेलना नहीं करूंगा । उसका पूरा ध्यान रखूँगा।"

रंजीत की आंखों में आशा चमक उठी। उसने कहा - "गायत्री रहेगी। क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए, आपके कहने पर गायत्री उसकी व्यवस्था कर देगी । मेरी छुट्टी नहीं है, मुझे जाना ही पड़ेगा। आप वासना की देखभाल ऐसे करें, जैसे वह आपकी ही बेटी हो । गायत्री और आपको मिलकर वासना को जिलाना है।"

रंजीत की बात पर गायत्री ने एक बार अमृत के, फिर रंजीत के चेहरे की ओर देखा। उसका चेहरा जरा लाल हो गया।

अमृत ने धीमे स्वर से कहा- “आप लोगों के न रहने पर भी अपने बीमार की देखभाल मैं करूंगा ही। वह सब आप लोगों के सोचने की चीज नहीं है।"

मतलब, गायत्री को भी शिलांग ले जा सकते हैं। यहां उसकी कोई जरूरत नहीं है।

बात का आशय समझकर रंजीत बोला - “नहीं, वासना कभी-कभी उससे मिलने की जिद कर खोज सकती है। गायत्री रहे, और इसके यहां रहने में हमें कोई असुविधा भी नहीं है। अपनी गाड़ी यहीं छोड़ जाऊंगा। ड्राइवर भी साथ रहेगा। जरूरत के मुताबिक यह आती-जाती रहेगी।"

रंजीत उस एक सीट वाले कमरे में गया, जहां वासना को रखा गया था और सूखकर कांटे-जैसी हो गयी वासना के पास बैठा।

वासना के बालों को हाथ से सहलाते हुए रंजीत ने बुलाया- “वासना, अच्छा लग रहा है न? हां, डाक्टर साहब कहते हैं, तुम बड़ी जल्दी अच्छी हो जाओगी । मैं फिर शिलांग से आऊंगा। मां है न । डाक्टर साहब भी बड़े अच्छे हैं । तुम्हें बहुत प्यार करेंगे। अच्छा ! अब मैं चलता हूं।”

उसने वासना का माथा चूम लिया और उसके हाथों को कुछ क्षण अपनी हथेलियों से दबाये रखा। फिर उलटी हथेलियों से आंसू पोंछता कमरे से निकल गया।

दूसरे दिन रंजीत चला गया। जाते समय उसने अमृत से कहा- “गायत्री आपसे अब तक खुल नहीं पायी है। पहले की जान-पहचान नहीं है न, इसीलिए। मगर वासना के साथ गायत्री को भी आपके ही जिम्मे छोड़े जा रहा हूं। आप कैसे आदमी हैं, मैंने दो ही दिन में समझ लिया है, डाक्टर साहब ! आपके रहते अब मुझे कोई फिक्र नहीं।"

अमृत नम्रता के साथ हंस पड़ा।

गायत्री ने अमृत की उस हंसी का मतलब समझने का व्यर्थ प्रयास किया।

इसके बाद रंजीत और गायत्री चले गये।

अकेले में अमृत एक बार फिर यों ही हंस पड़ा।

शाम को चाय पीने के बाद अमृत ने तय किया कि उस दिन वह और कहीं नहीं निकलेगा। उसने दरबान से कह दिया कि कोई अगर उससे मिलने आये तो उससे बता दे कि आज वह किसी से नहीं मिलेगा। अब वह रात में ही बीमारों को देखने जायेगा।

हालांकि अमृत ने यह भी सोचा कि ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। फिर भी उसने एक उदास-सी शाम को अकेले बिताना चाहा।

आठ साल बाद अप्रत्याशित रूप से आयी है गायत्री- पहले की कुमारी गायत्री चलिहा । इस बीच स्थिति में अचिंतनीय परिवर्तन आ गया है।

आठ साल में आदमी की जिंदगी में कितना बदलाव आ जाता है !

इसी थोड़े समय के अंदर अमृत ने एम.बी.बी.एस.पास किया, हजारों की रकम कमायी, जर्मनी से नयी डिग्री ली, बाल-रोग चिकित्सा का विशेषज्ञ बना । नौकरी करने से इनकार कर अपनी फार्मेसी खोली, उसके बाद यह क्लिनिक ! अठहत्तर हजार खर्च करके यह नया संस्थान खोलते देख अनेक लोग पहले विस्मित हुए, परंतु सफल बनने में ही सफलता की मुक्ति है।

अब अमृत को न पहचानें, ऐसे लोग असम में नहीं हैं। बच्चों की असाध्य व्याधि को अकल्पनीय रूप से चंगा करने में डाक्टर अमृत का नाम असम में अद्वितीय है।

कीमती माइक्रोस्कोप समेत अनेक प्रकारके साजो-सामान, नर्स, कंपाउंडर और दवा-दारू के बड़े स्टाक के साथ वह पूरी तरह स्वावलंबी है । जर्मनी में ही उसने एक बात सीखी थी-जिंदगी में सफल बनने के लिए श्रम करना चाहिए। असाधारण श्रम किये बगैर असाधारण काम किया ही नहीं जा सकता।

कुछ और बातें अमृत को याद आयीं।

तीन साल की घनिष्ठ जान-पहचान के बीच गायत्री चलिहा ने अमृत के मन में जगह बना ली थी। कार्यकारी अभियंता श्री चलिहा की बेटी गायत्री- देखने-सुनने, पढ़ने-लिखने आदि में कहीं कोई कमी न थी। और जाने-माने व्यवसायी सदानंद फुकन का बेटा अमृत भी किसी विषय में गायत्री की तुलना में कम न था। सुंदर स्वस्थ युवक, लिखने-पढ़ने में तेज, डाक्टरी की दिशा में रुचि थी । तिस पर बाप की लाखों की संपत्ति ।

इनसे ज्यादा कीमती चीज थी अमृत का अविचल आत्म-विश्वास, और चरित्र-गुण । इसी कारण कोई-कोई अमृत को घमंडी समझने की गलती करता था, पर अमृत स्वभाव से ही विनम्र था।

गायत्री के साथ अमृत की निबिड़ घनिष्ठता हो गयी थी। गायत्री उसे पसंद आ गयी थी, दोनों एक-दूसरे को अपनाने के लिए प्रतिज्ञा कर चुके थे।

अमृत एम.बी.बी.एस. पास करेगा। प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू करेगा। गायत्री और अमृत एक मधुर दांपत्य जीवन शुरू करेंगे। प्यार और शांति, प्रेम और ऐश्वर्य के बीच दोनों मधुर जीवन-यापन करेंगे।

अमृत ने एक सपना देखा था...

अपने बड़े चाचा की लड़की की शादी में गायत्री शिलांग गयी।

उसके बाद गायत्री लौटी, बिलकुल अलग लड़की बनकर।

उसी शादी में गायत्री की मुलाकात नौजवान रंजीत से हुई थी। रंजीत के आकर्षण से गायत्री का सारा अतीत, सारी प्रतिज्ञाएं, कहीं बह गये।

अमृत को सूचित करने की प्रतीक्षा किये बगैर गायत्री ने मां को सूचित कर दिया, वह रंजीत से शादी करेगी।

मां को कुछ अचरज हुआ। पर रंजीत अमृत से बुरा नहीं है, ऐसा विश्वास कर रंजीत के साथ ही गायत्री की शादी तय कर दी।

अमृत को चोट लगी । एक चंचल लड़की ने उससे प्रवंचना की, इस कारण नहीं, बल्कि उसने उसके व्यक्तित्व का अपमान किया, इस कारण ।

रंजीत से शादी करने के निर्णय के बारे में कुछ बातें करके अमृत को धीरज बंधाने के लिए शादी के पहले गायत्री एक बार आयी थी।

परंतु उसे कोई बात कहने का कोई मौका न देकर अमृतं ने कहा- “तुम क्या कहने आयी हो, मैं समझता हूं, गायत्री ! परंतु मुझे तुम दूसरे नौजवानों की भांति अगर कमजोर समझती हो तो गलती कररही हो । तुम्हारेजैसी एक लड़की मेरे जीवन में न हो तो भी मैं सब-कुछ छोड़-छाड़ कर फकीर नहीं बनने वाला। पर, लिखी-पढ़ी लड़कियों के बारे में मेरी एक दूसरी ही धारणा थी, उस धारणा को तुमने चकनाचूर कर दिया। मुझे बुरा लगा है जरूर, मगर मैं उसके लिए जरा भी पछतावा नहीं करता। लेकिन मजे की बात यह है कि इतनी शिक्षा-दीक्षा के बाद भी लड़कियों में जरा भी बदलाव नहीं आया है।"

अमृत की बात पूरी होने पर गायत्री किसी तरह कह पायी थी- “मुझे समझने की कोशिश करो, अमृत भैया ! रंजीत मुझे पसंद आ गया है । तुम्हारे प्रति मैं हमेशा श्रद्धा रखूँगी।”

“और इसके बदले में अगर मैं तुमसे हमेशा घृणा करता रहूं तो? तुम यहां से चली जाओ, गायत्री ! तुम्हारा यहां होना मुझे असह्य लग रहा है । तुमसे प्यार किया था, इसलिए तुम मेरा ऐसा अपमान कर सकीं । तुमसे बदला लेने जैसी नीचता मुझमें नहीं है । रंजीत को पहचानता नहीं । डरो मत, कभी, कहीं उससे मुलाकात होने पर भी, तुम्हारे बीते दिनों की बातें उसे कह कर तुम्हें परेशान नहीं करूंगा। मुझसे तुम्हारी कोई जान-पहचान नहीं, यही कहूंगा।”

उन बातों की याद आ जाने के कारण अमृत को हंसी आ गयी। धत् ! गायत्री जैसी चंचल लड़की से इतनी सारी गर्मागर्म बातें कहने की भी भला क्या जरूरत थी? गायत्री तो एक साधारण-सी लड़की ठहरी।

डाक्टरी की आखिरी परीक्षा पासकर अमृत ने कुछ दिन प्राइवेट प्रैक्टिस की । दुनिया की सारी बातें छोड़कर तन-मन से डाक्टरी में जुट गया।

फिर एक बार तय किया कि बाल-रोगों के इलाज का एक अलग ही मजा है। किसी बीमार बच्चे को, जिसे अपनी बीमारी के बारे में कोई समझ नहीं, चंगा करना, उसे जिंदा रहने की प्रेरणा देना होता है । और चंगा हो जाने पर वे कभी डाक्टर का आभार भी प्रकट करने नहीं आते।

गायत्री की शादी हो गयी । वह तीन बच्चों की मां बन चुकी है। इस बीच दो बच्चों की मौत हो चुकी है । मगर गायत्री तो पहले जैसी ही बनी हुई है । खूबसूरत, छरहरे बदन वाली गायत्री अब भी एक लड़की जैसी ही लगती है । कहीं उम्र की जरा भी खरोंच नहीं लगी है। सिर्फ चेहरे पर जरा-सी वेदना की छाया भर पड़ी है। मगर उससे गायत्री सचमुच पहले की अपेक्षा खूबसूरत ही दिखती है।

अमृत उठ पड़ा।

ये बिलकुल गैर-जरूरी बातें भला आज क्यों सोच रहा हूं ? गायत्री चाहे खूबसूरत हो, या न हो, उससे तो मेरा अब कोई फायदा या नुकसान नहीं। मैं गायत्री और उसके परिवार के जीवन से बाहर हूं । बिलकुल बाहर।

गायत्री की बच्ची है - वासना । उसका इलाज करके, उसे चंगा करने का उत्तरदायित्व लिया है मैंने । वासना चाहे किसी की भी बच्ची हो, वह मेरे इलाज में है । मेरे क्लिनिक में पड़ी हुई है। अगर सोचना ही है, तो वासना के ही बारे में सोचूंगा। गायत्री के बारे में बिलकुल नहीं सोचूंगा । बेवफा गायत्री से आज भी मैं पहले जैसी ही नफरत करता हूं। मुझसे नफरत के सिवा और कुछ पाने की उम्मीद करना गायत्री के लिए गैर-वाजिब है।

बाहर की ओर नजर डालकर अमृत ने देखा, शाम हो आयी है, सूरज की अंतिम किरणें आकर उसके मकान पर पड़ रही हैं।

अमृत को बड़ा उदास-उदास-सा लगा।

अमृत का तो अब कोई नहीं रहा । पिता चल बसे हैं। मां पहले ही चल बसी थीं। आज तो उसके पास सिर्फ यह नयी क्लिनिक है, ये बीमार बच्चे हैं और वेतनभोगी कुछ नौकर-चाकर।

अमृत को लगा, शाम के अंधेरे के साथ ही चारों ओर से मौत उसे घेरे आरही है। घर-बार के कोने-कोने में मानो मौत घुसी आ रही है। और उस मौत से अमृत असहाय-सा अकेला जूझ रहा है।

दरबान ने आकर सलाम किया। कहा – “एक औरत आयी है गाड़ी लेकर। आप मुलाकात नहीं करेंगे, कहने पर भी नहीं मानती। कहती है, बड़ा जरूरी काम है । आपसे एक बार मिलकर ही जायेगी।

अमृत क्षण भर चुप रहा। फिर कहा- “ले आ।"

स्विच दबाकर अमृत ने बत्ती जलायी। और एक सिगरेट जलाकर आगंतुक की प्रतीक्षा में सीधा बैठ गया।

गायत्री अंदर आयी।

बैठे ही बैठे, जरा भी हिले-डुले बगैर, अमृत ने एक बार आंख उठाकर गायत्री के चेहरे की ओर देखा । गायत्री आकर उसके सामने खड़ी हो गयी।

फिर एक बार गायत्री की ओर देखर अमृत ने कहा - "बैठो।

कुर्सी पर बैठ कर उसकी ओर देखते हुए गायत्री ने कहा- “मुझे तो आने ही नहीं देता था, जबरदस्ती आयी हूं।"

अमृत तल्लीनता से सिगरेट पीता रहा।

"जब से आयी हूं, तुमने मुझसे एक बार भी बात नहीं की। इसी कारण मैं आज अकेली आयी हूं, तुमसे बात करने के इरादे से।” गायत्री बोली।

काल-बेल दबाकर बॉय को बुलाकर अमृत ने कहा - "दो गिलास शर्बत ले आ।

सलाम कर बॉय नीचे उतर गया।

कुछ उद्विग्नता से चीखती-सी गायत्री बोली- “अमृत भाई, तुम ऐसे गंभीर क्यों हो? मुझसे आखिर बात क्यों नहीं करते?"

खिड़की से बाहर की तरफ देखते हुए धीरे-धीरे अमृत ने कहा - "इस वक्त मुझे जरा एकांत अच्छा लगता है । किसी से बात नहीं करता।"

“परंतु क्या इसीलिए मुझसे भी बात नहीं करोगे?"

गायत्री के चेहरे की ओर देख अमृत बोला- “तुम्हें इस नियम का अपवाद मानने की कोई वजह तो मैं नहीं देखता।"

गायत्री को कुछ अपमान-सा लगा।

"तो फिर मैं चलूं । तुम रहो अकेले, चुपचाप।"

गायत्री ने उठना चाहा।

तभी बॉय ने एक ट्रे में दो गिलास शर्बत, एक प्लेट में कुछ किसमिश, अखरोट और कुछ टाफियां लाकर मेज पर रख दिये।

प्लेट को गायत्री की तरफ बढ़ाते हुए अमृत बोला – “खाओ, कुछ और दें?"

एक किसमिश मुंह में डालकर गायत्री बोली – “मैंने भला तुम्हारा क्या बिगाड़ा है कि यों निष्ठुरता से मेरा अपमान कर रहे हो? क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारा एक बार भी मुझसे बात न करना, उनकी नजर में नहीं आया है ? मुझसे बात न करने के कारण उन्हें भी बुरा लगा

एक टाफी का कागज खोलते हुए अमृत बोला - "इनको-उनको अच्छा लगना-बुरा लगना आदि को लेकर मुझे सोचने-विचारने को कुछ नहीं है । तुम लोग तो अमृत फुकन की शादी में नहीं आये हो कि आदर-स्वागत न करने पर बुरा मान जाओगे। तुम लोग आये हो, डाक्टर अमृत के यहां अपनी बेटी वासना के इलाज के लिए । वासना के इलाज का उत्तरदायित्व मैंने ले लिया है। अब मुझसे और क्या आशा रखती हो?”

शर्बत का घूँट भरकर गायत्री ने अपनी जुबान में कुछ तल्खी लाकर कहा - "और कुछ आशा करने का क्या मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है ? एक जान-पहचान वाली महिला के प्रति एक सज्जन व्यक्ति का जैसा बर्ताव होना चाहिए, वह सौजन्य भी क्या तुमसे पाने की आशा मैं न करूं?”

एक किसमिश की डंठल निकालते हुए गायत्री की तरफ बिना देखे अमृत बोला- “भला वह किस आधार पर?”

"अमृत भैया !” गायत्री चीख-सी पड़ी।

"ज्यादा चीखो मत । बीमारों को परेशानी होगी।" इतने निर्लिप्त भाव से अमृत ने यह बात कही कि गायत्री भौंचक रह गयी।

“मैं तुम्हारे सामने बैठी हूं, और तब भी तुम बीमारों की ही बातें सोच रहे हो?"

"भले-चंगे लोगों के बारे में बिना सोचे भी डाक्टर का काम चल जाता है। अगर मैं वासना के बारे में न सोचूं तो क्या वह अच्छी बात होगी?”

फिर एक बार तेज नजर से गायत्री ने अमृत की तरफ देखा । अमृत को कड़ी बात सुनाने के कारण उसे खुद ही शर्म आयी । यह है विख्यात डाक्टर अमृत फुकन- इस क्लिनिक का मालिक, लाखों की संपत्ति का अधिकारी, बाल-रोग विशेषज्ञ, डाक्टर अमृत । इसके यहां आकर ऐसी कड़ी बात सुनाना अशोभनीय है।

वह अमृत है, इसीलिए उसे निकल जाने को नहीं कहा।

गायत्री को कुछ शर्म आयी । अपने को अपराधी-सा महसूस किया । सिर झुकाकर कहा, “मेरी बात का बुरा न मानना, अमृत भैया ! मैं तुम्हारे घर में हूं, यह बात मैं भूल ही गयी थी।"

कुछ कहे बगैर शर्बत का गिलास खत्म कर अमृत ने एक सिगरेट जलायी।

गायत्री ने महसूस किया, वह अमृत के पास पुराने इतिहास को दुहराने के इरादे से नहीं आयी थी, आयी थी वासना के इलाज के लिए। आज अमृत - सिर्फ अमृत ही वासना को जिला सकता है । इस अमृत के साथ बहसबाजी करने का कोई फायदा नहीं है।

दोनों कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। दुनिया की छाती पर तब घना अंधेरा उतरता आ रहा था।

बाहर की ओर देखते हुए अमृत बोला- “रात हो आयी।” क्या गायत्री को अमृत विदा कर देना चाहता है - यह बात समझने की कोशिश किये बगैर अमृत के चेहरे की तरफ देखते हुए गायत्री ने पूछा- “वासना की हालत कैसी लग रही है ? वह चंगी हो जायेगी न, अमृत भैया?"

थोड़ा हंसने जैसा भाव दिखाकर अमृत ने कहा – “इस बात को पूछने के लिए इतनी लंबी भूमिका न बांधती तो क्या अच्छा नहीं होता?"

अचानक गायत्री उठ पड़ी और ऊंची आवाज में बोली - "बस, बस, हो गया । बहुत अपमान किया। वासना को तुम्हारे हाथों सौंप दिया है, हो सके तो जिलाना, और नहीं तो मार डालना । मुझे मालूम है, मुझसे बदला लिये बगैर तुम्हें चैन नहीं आयेगा।”

गायत्री की बात पर जरा भी कान दिये बगैर अमृत बोला- "तुम यहां और कितने दिन रुकोगी?”

"जितने दिन भी रुकूँ, इस तरह से आकर अब तुम्हें परेशान नहीं करूंगी । तुम बहुत बड़े डाक्टर हो सकते हो, पर मेरा इतना अपमान न करते तो क्या छोटे हो जाते ?"

गायत्री के चेहरे की ओर देखते हुए अमृत ने थोड़ी सख्ती से कहा- “तुमने मेरी जिंदगी का और मेरी मुहब्बत का जिस तरह से अपमान किया है, जरूर उतना मैंने नहीं किया।"

अचानक गायत्री बैठ गयी । वह मानो अकस्मात बिलकुल कमजोर हो गयी।

"तुम्हारी मुहब्बत का मैंने अपमान किया है, अमृत भैया !" गायत्री मानो अपने आप से कह रही हो।

अमृत हंस पड़ा । “ठीक है, जाने दो वे बातें, गायत्री ! वे सब पुरानी बातें हैं । जिस तरह तुमने कभी उन्हें नहीं सोचा, मैंने भी नहीं सोचा । तुम लोगों को देखकर ही पुरानी बातों की याद आ गयी।”

"मेरे बारे में तुम कभी नहीं सोचते?"

“तुम्हारे बात याद आते ही मुझे तुमसे नफरत हो आती है, इसी कारण नहीं सोचता । तुमसे नफरत करके भी क्या फायदा?"

गायत्री समझ गयी कि अमृत ने उस पर अपमान की आखिरी चोट करदी है। अब अमृत गायत्री को नफरत से भी याद नहीं करता।

क्या सोचती वह बैठी हुई है, वह खुद भी नहीं समझ सकी । गहरी नफरत क्या गहरी मुहब्बत की प्रतिक्रिया नहीं है ? तो क्या आज भी अमृत मुझसे मुहब्बत करता है ?

असंभव, अगर मुझसे मुहब्बत होती तो इतना अपमान कभी न करता । अमृत आज मुझसे दिलो-जान से नफरत करता है । पर मुझ पर उसका जो गुस्सा है, अगर उसका बदला वह वासना से ले, तब?

गायत्री ने अमृत के चेहरे की ओर नजर डाली । इतना गंभीर और शांत है, यह अमृत । लगता है, किसी से मुहब्बत करना भी नहीं जानता और न किसी से नफरत करना ही जानता है। गायत्री को डर-सा लगा। क्या यह मेरी हत्या कर देगा? वासना को मार डालेगा?

गायत्री ने धीमे से कहा - "तुम मुझे माफ नहीं करोगे, मैं जानती हूं | और मैं तुमसे क्षमा मांगने आयी भी नहीं। मगर अमृत भैया, चाहे जैसे भी हो, वासना को तुम्हें चंगा करना ही है । तुम बड़े डाक्टर हो, तुम उसे चंगा कर सकते हो । मैं अपने पहले के बच्चों को बचा नहीं पायी । वासना भी अगर न बचे तो हमारा क्या होगा, सोच ही नहीं सकती । वासना को तुम चंगा कर दो, अमृत भैया ! तुम्हें जो चाहिए मैं दूंगी।"

गायत्री के स्वर में अमृत ने एक असहाय, दुर्बल, सामान्य औरत की आवाज सुनी । उसे उससे कुछ हमदर्दी-सी हो आयी।

आवाज को जरा भी कंपाये बगैर अमृत बोला- “मुझे देने को आज तुम्हारे पास है ही क्या, गायत्री ?"

गायत्री ने चौंककर अमृत के चेहरे की ओर देखा-क्या चाहता है आखिर अमृत गायत्री से? अचानक वह बोल उठी- “तुम जो चाहते हो मैं सबकुछ दूंगी, अमृत भैया ! मगर वासना को तुम बचा दो । बोलो, बचा दोगे?"

अमृत ने धीरे-धीरे कहा- “वासना अच्छी न हो, इसका तो कोई कारण मुझे नहीं दिखता। ठीक है, मैं अच्छी तरह से देख-भाल करूंगा। बीमार को चंगा करना ही तो काम है मेरा।"

कुछ रुककर अमृत ने फिर कहा – “यह अस्पताल, फार्मेसी और क्लिनिक बनाने में काफी रकम लगी है । तुम लोग पैसे वाले हो, वासना को अच्छा कर देने पर बिल जरा जल्दी चुका देना - अगर हो सके, और कुछ भी मैं तुमसे नहीं चाहता।”

अमृत की बातों से गायत्री बिलकुल हतोत्साहित हो गयी । वह गायत्री से बिल की रकम के अलावा और कुछ भी नहीं चाहता । अमृत कसाई है, इंसान नहीं; डाक्टर नहीं, व्यापारी है।

परंतु गायत्री ने यह अपमान निर्विरोध नहीं सह लिया। कहा - "लेना, जितना चाहो । रुपया ही लेना । रुपये के लिए ही तो क्लिनिक खोला है न !"

कुछ हंसकर अमृत बोला- “डाक्टर आदमी ठहरा, क्लिनिक न खोलकर स्वयंवर-सभा लगाने से क्या अच्छा लगेगा?"

"इसका मतलब यह है कि मैंने रुपये के लालच से चौधुरी से शादी की थी, तुम यही कहना चाहते हो?"

"वह तो तुम्हीं जानो। रंजीत से शादी तुमने किसलिए की, इसे सोचने की जरूरत मैंने कभी नहीं समझी।”

अब तो अमृत के सामने बैठे रहना गायत्री को असंभव-सा लगा। दरवाजे-खिड़कियां खुले होने पर भी गायत्री को लगा कि उसका दम घुट-सा रहा है।

अमृत ने गायत्री की हालत समझी । वह उठ गया और एक खिड़की के पास खड़े होकर बाहर अंधेरे की ओर देखते हुए धीमी आवाज में धीरे-धीरे बोला- “नारी को खिलौना मान लेना जैसे पुरुष के लिए अन्याय है, उसी तरह पुरुष को खिलौना मान लेना नारी के लिए भी अन्याय है, गायत्री ! किसी नारी को वैसा अन्याय करने के लिए कदम बढ़ाते हुए उसे बाधा देना मैं अपना फर्ज समझता हूं । वासना के स्वार्थ में, रंजीत की मुहब्बत का अपमान कर अपने को सौंप देने में, हो सकता है तुम्हें कोई पछतावा न हो, मगर मैं उस कमजोरी का जरा भी फायदा उठाना नहीं चाहता। एक पति से तुम विश्वासघात कर सकती हो, मगर मैं नहीं कर सकता। रंजीत मेरा दुश्मन हो तो भी नहीं।”

"तुम यह सब क्या कह रहे हो, अमृत भैया?" डरती-सी गायत्री ने पूछा।

"तुमने ही कहा न, कि मैं जो कुछ चाहूं, वही तुम मुझे देने के लिए तैयार हो?"

अचानक गायत्री का चेहरा लाल हो उठा । बत्ती मानो सामने नाचने लगी। उसे लगा कि उसका सिर चकरा रहा है।

खिड़की के पास बाहर की ओर देखने में मग्न अमृत गायत्री को एक बहुत बड़ी शिला-प्रतिमा जैसा लगा। मानो बिलकुल प्राणहीन एक शिला-प्रतिमा है अमृत नाम का यह नौजवान।

गायत्री उठकर वहीं आ गयी। "अमृत भैया.! जरा मेरी ओर तो देखो।” गायत्री की आवाज कुछ सख्त-सी थी।

“कहो न !” अमृत ने बिना मुड़े कहा।

"अगर तुम मुझे इतना ही प्यार करते थे तो फिर चौधुरी के साथ जब मैं शादी करने चली थी तो तुमने मुझे यों ही छोड़ क्यों दिया? मुझे रोका क्यों नहीं?"

बिना मुड़े अमृत ने कहा- “तुम जैसी लड़की को उतना महत्व देने की कोई जरूरत मैंने नहीं समझी थी।"

"तो फिर तुम्हारे प्यार में कोई ताकत नहीं थी?"

अमृत मुड़ा और गायत्री के सामने जा खड़ा हुआ।

"तुम्हारी जुबान से प्यार की समालोचना सुनने की मेरी जरा भी इच्छा नहीं, गायत्री !”

कुछ देर रुककर अमृत फिर बोला- “वासना को मैं चंगा कर देने की कोशिश करूंगा। तुम लोग जरा भी न सोचना । उसके लिए मैं तुमसे किसी त्याग की कामना भी नहीं रखता। मैं तो डाक्टर हूं । इंसान न मानो तो भी तुम्हारा काम चल जायेगा।"

गायत्री को लगा, अमृत की आवाज में एक अकथ करुण दुर्बलता है। मगर उस वेदना में धीरज बंधाने की कोशिश करना तो अब व्यर्थ ही होगा।

"और कुछ देर ठहर जाओ, खाना खाकर जाना।"

"मगर तुम तो इंसान नहीं, सिर्फ डाक्टर हो ।”

“खाना नहीं खाओगी तो यों ही बैठो। बहुत दिन से मैंने किसी से दिल खोलकर बातें नहीं की हैं।"

“यह मुझसे तुम बात कर रहे हो, या मुझे गालियां सुना रहे हो?”

"जिन सच बातों को हम सुनना नहीं चाहते, वे कभी-कभी हमें गालियों-सी लगती हैं। ठीक है, आओ, तुम्हें अपना मकान दिखा दूं । आज तक मेरे मकान में कोई घुसा नहीं है।"

"एक ही आदमी के लिए इतना बड़ा मकान और इतने सारे कमरे क्यों, अमृत भैया?"

"आदमी के भी तो एक ही मन के अंदर अनेक कमरे होते हैं । एक ही मकान में अनेक कमरे होने में क्या बुराई है?"

फिर दोनों निचली मंजिल पर उतर आये। "तुमने भला अपने मकान का अंग्रेजी नाम 'रिट्रीट' क्यों रखा?"

"आखिर में हम यहीं लौट आये न, इसीलिए।"

“परंतु क्या तुम यहीं रह सकोगे?”

अब दोनों आंगन में निकल आये थे।

"इस कमरे के सामने - यह कैसा साइनबोर्ड है?"

"जरा बढ़कर देखो।"

गायत्री ने पढ़ा - नो एडमिशन फार एंजेल्स एंड वीमेन । (अर्थात देवदूतों एवं औरतों के लिए प्रवेश निषेध ।)

"भला यह सब कैसी बचकानी हरकतें करते हो ! देवदूतों को भी अगर यहां नहीं आने देते, किसी औरत को भी नहीं आने देते, तो फिर भला यहां आयेगा कौन?"

अमृत हंस पड़ा, बोला- “देवदूतों और औरतों के लिए प्रवेश-निषेध क्यों कर रखा है, पता है ? इन दोनों के ही पंख होते हैं । उड़ जाने वालों के लिए घर बनाने की कोई जरूरत नहीं होती। ओह ! बहुत रात हो गयी । अगर खाना नहीं खाओगी तो अब जाओ, गायत्री !”

गायत्री बोली, “हां, जा रही हूं । मगर यह साइनबोर्ड अब हटा दो।”

"किसलिए?"

"औरत तो आ ही गयी। हो सकता है, कोई देवदूत भी आ जाये।"

"दूसरा कोई देवदूत नहीं आनेवाला । अगर आये भी, तो यमदूत आ सकता है । पर नारी की अपेक्षा यमदूत ज्यादा मारात्मक नहीं होता।"

गायत्री के जाने के बाद अमृत सोचता रहा- आखिर तक क्या गायत्री की ही जीत हुई? गायत्री क्या यह सोच रही है कि मैं आज भी उससे मुहब्बत करता हूं?

अगर तुम ऐसा सोच रही हो, तो गलत सोचती हो, गायत्री ! अपने व्यक्तित्व के बदले अमृत एक चंचल लड़की से मुहब्बत कर अपनी कमजोरी प्रकट नहीं करेगा।

लड़कियों को पुरुषों की मुहब्बत को कमजोरी समझने में मजा आता है । मानो किसी लड़की का प्यार न मिले तो पुरुष की जिंदगी रसातल को चली जायेगी। बुरा न मानो गायत्री, अमृत उतना कमजोर नहीं है । कभी प्यार किया था, इसी कारण रंजीत की अंकशायिनी, तीन बच्चों की मां, प्रगल्भा गायत्री के लिए अब अपने अंतर में कोई कमजोरी अनुभव नहीं करता अमृत।

गायत्री आज मेरे पास आयी, मेरी शक्ति और प्रतिभा के सामने सिर झुकाकर आत्मसमर्पण कर दिया, परंतु मेरे उस पुराने प्रेम के प्रति आभार मानकर नहीं, अपनी बेटी के प्राणों की जरूरत के लिए । वासना न जी सके तो गायत्री और रंजीत दोनों की जिंदगी दूभर हो जायेगी - बस इसीलिए आज अमृत की जरूरत है।

और दूसरी बातें गैरजरूरी आडंबर भर हैं । परंतु वासना को लेकर रंजीत और गायत्री सुख-संतोष से घर-बार चलाते रहे, तो उससे भला मेरा क्या फायदा होगा? गायत्री का सुख अमृत के अकेले प्राणों में क्या नयी दीपशिखा जला सकेगा?

जिस स्वार्थ से एक दिन गायत्री ने मेरी मुहब्बत ठुकरा रंजीत को बांहों में भर लिया था, आज उसी स्वार्थवश गायत्री मेरे पास आयी है, मेरे पास अपनी संतान की जिंदगी बचाने की खातिर । एक साधारण जानवर जैसी स्वार्थी है यह गायत्री ।

न सोचने की कोशिश के बावजूद काफी रात तक अमृत गायत्री की बात ही सोचता रहा। जितना सोचता गया, गायत्री पर उतना ही ज्यादा क्रोध बढ़ता गया। गायत्री स्वार्थी है, गायत्री प्रवंचक है, गायत्री बेवफा है । अगर कोई मौका पाकर अमृत गायत्री से कोई मारात्मक बदला ले, तो उसमें कण भर भी अन्याय नहीं है । जो हमारे साथ नीच बर्ताव करे, हमें भी उससे नीच बर्ताव करके अपना बदला चुका लेना चाहिए।

काफी रात बीतने पर ही अमृत को नींद आ पायी ।...

कई दिन निकल गये। हर दिन गायत्री शाम को एक बार आती और वासना की खबर लेकर चली जाती । कभी-कभी अमृत से बात भी करती, परंतु दोनों भरसक एक-दूसरे से बचने की कोशिश करते। और बात करने पर भी बड़े संयत भाव से करते, जिससे कोई बहस न छिड़े।

इन कई दिनों में अमृत ने गायत्री पर नये ढंग से चोट करने की और उसका अपमान करने की कोशिश की। शायद इसी बात को समझकर गायत्री ने कोशिश की कि अमृत को वह मौका न मिले।

वासना को असाध्य व्याधि हो गयी थी। चार साल की नन्हीं बच्ची को ऐसी बीमारी क्यों हुई और कैसे हुई, यह समझने में अमृत को काफी कठिनाई हुई । परंतु असाध्य होने के कारण ही उस बीमारी का इलाज करना अमृत को पसंद भी आया था। दूसरे डाक्टर जहां हार चुके हैं, वहीं अमृत अपनी दक्षता प्रमाणित करेगा। गायत्री को समझा देगा कि विशल्यकरणी का अधिकारी वह है या रंजीत ।

एक सप्ताह बीत गया।

वासना की हालत में दिखने लायक कोई सुधार न होने के कारण अमृत कुछ सोच में पड़ गया था। रोग की पहचान में कहीं गलती तो नहीं हुई? नहीं, इसमें समय लगेगा। हो सकता है, दो-तीन माह या उससे भी ज्यादा लग जाये । परंतु चाहे जो भी हो, वासना को वह चंगा अवश्य करेगा। नहीं तो, वह गायत्री को जिस तरह हराना चाहता है, वैसे हरा नहीं पायेगा। वासना को जिलाकर वह गायत्री को जिंदगी भर के लिए आभारी बनाये रखेगा। वही अमृत की सबसे बड़ी जीत होगी।

अचानक गायत्री उसके कमरे में आ गयी। अमृत ने उसके आने की कोई आशा नहीं की थी।

“अमृत भैया, तुम यहां हो?"

"बैठो, गायत्री !"

गायत्री बैठ गयी और अमृत के चेहरे की तरफ देखते हुई बोली- “वासना कैसी है? उसके चंगा होने की संभावना दिख रही है?"

अमृत ने धीमे से कहा- “वासना बहुत धीरे-धीरे चंगी होगी । हमें धीरज रखना होगा।"

गायत्री मौन रही।

अमृत ने पूछा- “रंजीत की कोई चिट्ठी आयी है क्या?"

"हां । लिखा है कि उनकी भी तबीयत थोड़ी खराब हो गयी है । हो सके तो आने के लिए लिख भेजा है।”

"तो फिर तुम्हारा जाना ही अच्छा रहेगा । वासना को आंखों से देखने के सिवा तुम और कुछ तो कर नहीं सकती । तुम्हारे न रहने पर रंजीत को क्या असुविधा नहीं होगी?"

गायत्री ने कुछ नहीं कहा।

अमृत ने एक सिगरेट जलाकर गायत्री की ओर देखा । उसका चेहरा पहले जैसा ही खूबसूरत बना हुआ है।

अमृत ने नजर दूसरी ओर फेर ली।

“अगर नाराज न होओ तो एक बात कहूं, अमृत भैया !”

अमृत ने गायत्री की ओर नजर उठाकर देखा।

“इधर कई दिनों से मैं वासना को देखने के लिए ही नहीं आयी, तुम्हें देखने के लिए भी आती रही हूं | मैं जानती हूं, अपनी इस अकेली जिंदगी को लेकर तुम जरा भी सुखी नहीं हो । हो सकता है, इसके लिए मैं ही उत्तरदायी होऊ। परंतु अब तुम्हें सुखी बनाने का कोई उपाय मेरे पास नहीं है । सिर्फ सिगरेट पीकर और बीमारों से माथा खपाकर कोई आदमी सुखी नहीं हो सकता।"

अमृत बोला- “मैं जिंदगी में सुख ही ढूंढ रहा हूं, यह तुमसे किसने कहा?"

"पहले मुझे कह लेने दो । मैं तुम्हें पहचानती हूं | सुख न चाहे, ऐसे आदमी का जन्म आज तक नहीं हुआ है । मुझ पर गुस्सा कर तुम जिंदगी भर अकेले दुखी बने रहोगे, इसका भला मतलब क्या है ?"

“और कुछ कहना है ?” अमृत ने पूछा।

"आज तुम्हारे पास सब कुछ है - धन, ऐश्वर्य, प्रसिद्धि-ख्याति, घर-बार, अच्छा स्वास्थ्य । इतने बड़े मकान में किसी लड़की को थोड़ी-सी जगह देने से तुम इनकार क्यों कर रहे हो? मैं तो इसका कोई कारण नहीं देखती?”

अमृत हंसा नहीं। गायत्री के चेहरे की ओर देखते हुए गंभीरता से बोला- “मैंने कब कहा कि मैं शादी नहीं करूंगा? शादी करने के लिए ही तो घर-बार बनाया है। इस बारे में दूसरे की सलाह न मिलने से भी काम चल जायेगा।"

गायत्री लाल हो उठी। अमृत गायत्री को एक तिनके के बराबर भी मूल्य नहीं देना चाहता। अमृत गायत्री की याद में बिना शादी किये बैठा नहीं रहेगा। अमृत की जिंदगी में गायत्री के लिए कहीं कोई जगह नहीं । उसे अमृत बिलकुल भूल चुका है।

गायत्री को लगा, डाक्टर अमृत फुकन संपूर्ण अपरिचित कोई दूसरा आदमी है । डाक्टर के यहां गायत्री बिलकुल अवांछित अतिथि है।

उसे उसी क्षण वहां से निकल जाने की इच्छा हुई ।

बड़ी तकलीफ से गायत्री ने कुछ क्षण बाद कहा - "तुम्हारी बात सुनकर अच्छा लगा। मैं तो तुम्हारे बारे में कुछ और ही सोच रही थी।"

अमृत बोला- “अब तो शायद वासना को देखने आये बिना काम चल जायेगा? रंजीत तुम्हें अपने पास चाहता है, हो सके तो तुम चली जाओ।"

“जाऊंगी, तुम्हें और ज्यादा परेशान नहीं करूंगी। पर तुम जिस लड़की से शादी करना चाहते हो वह है कौन, क्या बतलाओगे?"

थोड़ा हंसने का भाव दिखाकर अमृत बोला - "अरुणा नाम की मेरे अस्पताल में एक नर्स है । वह लड़की बुरी नहीं है।”

गायत्री का चेहरा पीला पड़ गया।

डाक्टर अमृत फुकन एक सामान्य-सी नर्स से शादी करेगा? क्या दिमाग फिर गया है इसका?

किसी तरह आत्म-संवरण कर गायत्री ने कहा- “शादी कब हो रही है ?”

"अरुणा अभी यह बात नहीं बता सकती । कुछ दिन बाट जोहना होगा। अगर इसी बीच अरुणा किसी के साथ भाग न जाये, तो अगले साल शादी का इंतजाम करने की सोच रहा हूं।"

अब गायत्री की जबान बंद हो गयी। उसने सोचा, उससे बदला लेने के लिए ही यह इंतजाम अमृत कर रहा है।

हंसने का करुण प्रयास करते हुए गायत्री ने कहा- “जो जगह मेरी हो सकती थी, उस जगह क्या तुम एक नर्स को बिठा सकते हो, अमृत भैया?"

"जो तुम कर सकी, वह मैं नहीं कर सकूँगा, भला तुम ऐसा क्यों सोचती हो? अरुणा के बारे में कुछ बदनामी फैली थी- घर और परिवार से खदेड़ी जाकर नर्स बनी है। नर्स अच्छी होती है या बुरी, इसका विचार दूसरे करेंगे। परंतु अरुणा मेरे किसी कमरे में जगह बना ले, तो मैं दरवाजा बंद करने का कोई कारण नहीं देखता।”

“तो फिर यह साइनबोर्ड क्यों लगाया है - ऐंजिल्स और वीमेन के लिए जगह नहीं ?"

हंसकर अमृत बोला- “ए नर्स इज नाइदर एन ऐंजिल नॉर ए वीमेन - नर्स न देवदूत है, न औरत ।"

गायत्री को अमृत गेट तक छोड़ने आया । अरुणा नाम की किसी नर्स को अमृत ने कभी नहीं देखा था । पर उसने सोचा, गायत्री को चोट पहुंचाने के लिए एक झूठी बात बनाकर कहना कोई अपराध नहीं है।

गायत्री ने शायद सोचा था, उसकी याद में घुलता हुआ अमृत शादी किये बगैर जिंदगी गुजार देगा। विरही बनकर दुख-दर्द के बीच आहे भरता जिंदगी बिताता रहेगा। और एक दिन गायत्री से कहेगा- 'आज रात तुम यहीं रह जाओ, गायत्री ! कितनी सारी बातें मुझे तुमसे करनी है। परंतु अमृत तो खुद आगे बढ़कर गायत्री को गेट तक पहुंचा गया।

उसे विदा देते हुए सिर्फ इतना ही कहा - “वासना के लिए तुम फिक्र न करना । तुम शिलांग जा सकती हो । वासना की हालत के बारे में मैं रंजीत को पत्र देकर सूचित करता रहूंगा।"

घोर अपमान पाकर गायत्री चली गयी।

अमृत को आत्म-गौरव का अनुभव हुआ । गायत्री जैसी लड़की से ऐसा ही बर्ताव करना उचित है । यह बात सोचकर अमृत को मन ही मन अच्छा लगा।

खाना खाने के बाद काफी देर तक अमृत घर के सामने के लान में टहलता रहा । आसमान में धीमी रोशनी के कुछ तारे टिमटिमा रहे थे । सन्नाटे-भरी रात का एक मोहक आवेश चारों ओर फैला हुआ था।

पर अमृत के मन में शांति नहीं थी। हो सकता है, कल या परसों गायत्री शिलांग चली जाये, रंजीत के पास । आज अमृत से वह जो अपमान और चोट लिये जा रही है, वे रंजीत और उसके दांपत्य सुख को जरा भी छू नहीं पायेंगे । शिलांग पहुंचते ही गायत्री सब कुछ भूल जायेगी और रंजीत की छाती में समाकर कहेगी, वासना अगर चंगी न भी हो तो अफसोस न करना । आज रात ही वासना की जगह भरने के लिए आओ, नये मेहमान को बुलायें ।

बेवजह फिर अमृत को गुस्सा चढ़ आया । वासना से भी ज्यादा अपना गायत्री का रंजीत है। वासना मर भी जाये तो भी गायत्री रंजीत को बराबर प्यार करती रहेगी। गायत्री की दुनिया में डाक्टर अमृत के लिए कोई जगह नहीं । गायत्री जैसी स्वार्थी लड़की हंसते-हंसते अमृत के समग्र व्यक्तित्व को, सारी अनुभूतियों को अपमानित कर चली गयी और अमृत दानी सज्जन की भांति अपनी सारी विद्या-बुद्धि लगाकर, अपनी सारी दक्षता-प्रतिभा नियोजित कर, उसी गायत्री की बेटी वासना को फिर जिंदगी के बीच लौटा लाने की साधना में जुटा हुआ है।

गायत्री क्या सोचेगी मेरे बारे में? यही न कि जिस अमृत का मैंने खुलकर अपमान किया, वही अमृत आज रुपये के लिए, मेरी लड़की का इलाज करके उसे चंगा करने से इनकार नहीं करता। गायत्री सोचती है, मैं इंसान नहीं, अपमान का मुझे बोध नहीं, आत्मसम्मान का बोध नहीं, मैं हैवान हूं । मैं सिर्फ एक टैक्सी हूं, जो किराया देगा उसे ही चढ़ाकर उसका जहां जाने का मन हो, वहां जाना पड़ेगा। अपनी कोई राय, अपना कोई निर्णय नहीं है।

नहीं, नहीं, वासना के इलाज का भार लेकर मैंने बहुत बड़ी गलती की। गायत्री और रंजीत को मुझे लौटा देना चाहिए था। और तब गायत्री की समझ में आ जाता, उसका भी अपना व्यक्तित्व है।

गलती हो गयी। अपनी विद्या-बुद्धि को गायत्री की स्वार्थ-सिद्धि में लगाना मेरे व्यक्तित्व का अपमान है।

वह जितना ही सोचता रहा, अपने ऊपर उतनी ही धिक्कार की भावना जागने लगी। अपने ऊपर बेवजह गुस्सा चढ़ आया । व्याकुल-सा होकर अमृत टहलने लगा । परंतु करे क्या, कुछ तय नहीं कर पाया।

इसी बीच अमृत कई सिगरेटें फूंक चुका था, सीटी बजाने की कोशिश भी की थी, बीच-बीच में ठहर जाता, फिर तेज कदम चलाने लगता। पर उसे लगा, उसका अशांत चित्त बहुत ज्यादा अधीर हो उठा है।

अमृत को अंदर आया देख खानसामा ने पूछा- “खाना लगा दूं, साब?”

खाना खाने की इच्छा न थी, फिर भी यों ही दो-चार कौर मुंह में डाल लिया। इसके बाद सिगरेट पर सिगरेट फूंकता गया। पंखा चल रहा था, फिर भी अमृत को गर्मी लग रही थी।

वह फिर बाहर निकल गया।

चारों ओर सन्नाटा । अमृत की दुनिया के लोग भी सोये पड़े थे। दूर की बत्तियां ज्यादातर बुझ चुकी थीं, बहुत दूर-दूर दो-एक बत्तियां जल रही थीं।

बीमारों के कमरों में धीमे उजाले की बत्तियां जल रही थीं।

वह धीरे-धीरे बीमारों के कमरे की ओर चला गया।

तब रात के ग्यारह से ज्यादा बज चुके थे।

दरबान ने सलामकर उसकी राह छोड़ दी । एक नर्स ड्यूटी पर थी। इतनी रात गये अमृत को आया देख वह कुछ विस्मित-सी होकर उसकी ओर देखने लगी।

सभी बीमार चुपचाप पड़े हुए थे। दो-एक को शायद नींद भी आ गयी थी। बीमार सभी लड़के-लड़कियां थे।

बड़ी सावधानी से कदम रख रहा था अमृत, जिससे किसी की नींद में कोई खलल न पड़े। नींद ही बीमार की सबसे बड़ी दवा है । धीरे-धीरे अमृत बीमार बच्चों के पास से गुजरता गया। नर्स कुछ परेशान-सी हुई और कुछ पूछने की हिम्मत न कर वह अमृत के पीछे-पीछे चलने लगी।

अमृत वासना के कमरे में गया । नर्स भी साथ गयी। दोनों मौन थे। उनके कदमों से भी कोई आहट नहीं हो रही थी। सिर्फ सोये हुए बीमारों की सांसों की धीमी आवाज से रात का वह सन्नाटा जरा-सा कांप-कांप उठता था।

अमृत वासना के पास आकर खड़ा हो गया। बिलकुल सफेद धुले बिस्तर पर पीली पड़ी चार साल की बीमार बच्ची पड़ी हुई है । उसे नींद नहीं आयी थी, कुछ छटपटा-सी रही थी। पास आकर नर्स मच्छरदानी को उठा समीप ही खड़ी रही।

कुछ मिनट अमृत वासना के चेहरे की ओर काफी ध्यान से देखता रहा । वासना के चेहरे पर सिर्फ गायत्री की निशानी नहीं, रंजीत की भी आकृति की निशानी साफ झलक रही थी। वह सोच रहा था- यह एक नन्हीं गायत्री है । यह चंगी होगी, बड़ी होकर एक नयी गायत्री बनेगी, और किसी अमृत को प्रवंचित कर किसी रंजीत को अपना लेगी।

और कुछ देर एकटक देखते रहकर अमृत धीरे-धीरे वहां से चला आया। नर्स ने मच्छरदानी को फिर ठीक से खोंस दिया।

वासना की तबीयत पहले से कुछ सुधर रही है। नींद न आने पर भी अब वह चुपचाप रहती है, पहले जैसे चीख-पुकार नहीं करती । वासना ठीक हो जायेगी।

अमृत निकलकर बरामदे में आ गया। नर्स भी पीछे-पीछे आयी।

"नर्स...!"

“जी, सर!"

“वासना ने, यानी इस बच्ची ने कुछ खाया था?”

"जरा-सी बार्ली खिलायी थी। खाना चाहती ही नहीं।"

"ठीक है, तुम दूसरे बीमारों के पास रहो । मैं आज जरा इसे आब्जर्व करूंगा।"

"सर, क्या अभी?”

"हां, तुम रेस्ट भी ले सकती हो । मैं आज कुछ देर यहां रहूंगा।"

"रात के पहले हिस्से में मेरी ड्यूटी है, सर!"

"ठीक है । मेरे साथ अब आने की जरूरत नहीं । तुम वार्ड में जाओ।"

'गुडनाईट' कहकर नर्स आहिस्ता-आहिस्ता वहां से चली गयी।

कुछ सोचता हुआ अमृत थोड़ी देर बरामदे में खड़ा रहा। फिर क्लिनिक की लेबोरेटरी में घुस गया।

लेबोरेटरी के एक कमरे में कीमती दवाओं की आलमारियां कतारों में सजी थीं। वह स्टाक-रूम था।

अमृत ने कमरे के दरवाजे की कुंडी अंदर से लगा दी और बड़ी सावधानी से दवाओं की बोतलों और पैकेटों पर नजर डालता गया। ।

एक आलमारी पर कागज का एक लेबल चिपका था- पायजन- विष । उस आलमारी के पास अमृत कुछ देर खड़ा रहा। फिर चाबियों के गुच्छे की चाबी से आलमारी खोल एक शीशी उसने निकाल ली और उसे हाथ में लेकर कमरे के चारों ओर नजर डाली- नहीं, कोई नहीं है। आधी रात, निस्तब्ध संसार । सिर के ऊपर जलती बत्ती के प्रकाश में उसने फर्श पर पड़े अपने साये की तरफ देखा । साया बिलकुल छोटा-सा हो गया था।

मेज के पास के स्टूल पर ही वह बैठ गया और जहर की शीशी मेज पर रख दी।

एक ऐसी ही रात को वासना की मां गायत्री ने मेरा तिरस्कार कर, मुझसे विश्वासघात करके रंजीत को अपने सीने में भर लिया था, और वासना उसका जीता-जागता सबूत है । मैं भी विश्वासघात करूंगा । गायत्री और रंजीत के मिलन के जीते-जागते सबूत - वासना की जिंदगी मेरी मुट्ठी में है। गायत्री शांति से सोती रहे, रंजीत शांति से सोता रहे, मैं वासना की चिरशांति का इंतजाम करूंगा। एक बार गायत्री भी समझ ले, मैं किराये की टैक्सी नहीं हूं, एक इंसान हूं - अपमान का बदला लेना मैं भी जानता हूं।

क्या ऐसा करना पाप होगा?

मगर जिंदा रहकर, जवान होकर, वासना मेरे जैसे ही किसी युवक को प्रवंचित नहीं करेगी, इसका क्या ठिकाना? और अगर पाप हो भी, तो भी गायत्री का दर्प चूर करने के लिए मुझे यह काम करना ही होगा।

गायत्री कल वासना का निष्प्राण शरीर सामने रखकर छाती पीट-पीटकर रोयेगी। रंजीत दौड़ा आयेगा- और मैं उनकी नजरों से परे जी भर कर आनंद मनाऊंगा।

अमृत उठ खड़ा हुआ और जहर की शीशी अपने हाथ में ले ली।

सिर्फ दो बूंदें - बस वही काफी होंगी वासना के लिए। जो दवा वह खा रही है, उसी में दो बूंद मिला दूंगा। और उसकी जीभ पर दवा पड़ते ही जीभ ऐंठ जायेगी।

शरीर की चीर-फाड़ होगी। मगर उसे पकड़ने की सामर्थ्य किसी में नहीं होगी। डाक्टर अमृत के प्रेसक्रिप्शन में गलती निकालने वाला अब तक कोई पैदा ही नहीं हुआ।

दरवाजे-खिड़की बंद थे। कमरे में अमृत को बड़ी गर्मी लगी, जैसे उसका दम घुट जायेगा। दरवाजा खोलकर अमृत झट से कमरे से निकल गया।

बाहर की दुनिया पहले से भी ज्यादा सुनसान हो गयी थी। तारे मानो और भी ज्यादा निष्प्रभ हो गये थे।

अमृत ने बाहर की तरफ देखा । लगा, आसमान काफी दूर हट-सा गया है। बड़ी झीनी-सी हवा चल रही है। घना अंधेरा ठोस-सा होकर दूर की बत्तियों पर टूटा पड़ रहा है।

जहर की शीशी को मुट्ठी में पकड़े अमृत बरामदे से वासना के कमरे में चला गया।

जहर की शीशी हाथ में लिये अमृत वासना के बिस्तर के पास जा खड़ा हुआ। छोटी-सी मेज पर वासना की दवा की शीशी, प्याली, चम्मच, और एक थर्मामीटर चुपचाप पड़े हुए थे।

अमृत ने कमरे में चारों ओर देखा। खिड़की खुली थी, मगर झीने-से परदे के उस पार अंधेरे के सिवा कुछ और दिखायी नहीं पड़ता था।

निरुद्देश्य जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं होता। उसने सोचा, आखिर मैं जिंदा हूं ही क्यों? किसके लिए जिंदा हूं? दुनिया भर के जाने-अनजाने रोगियों को चंगा करने भर के लिए ? रुपया कमाने के लिए? सिर्फ रुपया कमाने के लिए क्या इंसान जिंदा रहता है ? रुपया कमाना कितना सरल और साधारण है !

जिंदा रहने के लिए इंसान का इतना आग्रह क्यों है ? जिंदा रहने से तो मुझे अब ऊब हो रही है। मेरे जैसे एक आदमी के जिंदा रहने का भला मतलब भी क्या है, जिसका कोई लक्ष्य ही नहीं ? वासना जैसी एक लड़की के जिंदा रहने का क्या अर्थ है ?

अमृत ने बड़े अचरज से अनुभव किया कि आज उसे मरने की इच्छा हो रही है। जिंदा रहे गायत्री - जिंदा रहे रंजीत । मगर यह वासना?

मेज पर रखी दवा की शीशी अपने हाथ में लेकर अमृत कर क्या रहा है ? बिना कुछ समझे, उसने उसका कार्क खोल डाला। सोचा, इस दवा के साथ दो बूंद जहर मिला दूं तो वासना का कण भर का जीवन समाप्त हो जाये । गायत्री ने मेरी समग्र सत्ता का अपमान किया है, उसका बदला आज मैं जरूर लूंगा।

झट जहर की शीशी का कार्क खोलकर अमृत ने वासना की दवा की शीशी में कुछ जहर की बूंदें डाल दी । और बुदबुदाया - "गायत्री ! डाक्टर अमृत के अपमान को यह नतीजा है ।

...अचानक अमृत ठहर गया।

अमृत तो डाक्टर है । अमृत तो इंसान नहीं, डाक्टर है । मैं डाक्टर हूं । बीमार को जीवन देना मेरा काम है । मृत्यु से इंसान को बचाना मेरा धर्म है । नहीं, नहीं, मैं इंसान नहीं । मैं डाक्टर हूं - डाक्टर । वासना गायत्री की बेटी नहीं, वासना एक बीमार लड़की है । डाक्टर अमृत असहाय मानव-शिशु वासना को जीवन-दान देगा । इस दान का महत्व कितना अधिक है !

डाक्टर अमृत का तो गायत्री नाम की किसी लड़की ने अपमान नहीं किया, कर ही नहीं सकती। डाक्टर अमृत किसी गायत्री को नहीं पहचानता । पहचानता है- वासना को । डाक्टर इंसान नहीं होता, डाक्टर के न तो शत्रु-मित्र होते हैं, न अपने-पराये।

बिना कोई आवाज किये दरवाजा खोलकर नर्स अंदर आयी । वासना के बिस्तर के पास हाथ में दो शीशियां लिये अमृत को खड़ा देख नर्स कुछ स्तब्ध-सी रह गयी।

अबोध्य, अवाक् दृष्टि से अमृत ने नर्स की ओर ऐसे देखा जैसे वह उसे पहचानता ही नहीं।

कुछ डरती-सी नर्स ने कहा- “सर!"

"हूं?" मानो अमृत की चेतना लौट आयी।

“वासना को दवा खिलाने का समय हो आया है, सर...! साढ़े बारह बजे खिलानी है।"

उसने वासना के बिस्तर की मच्छरदानी उठा दी । वासना को नींद नहीं आयी थी। उसने आंखें खोलकर देखा । बत्तख की आंखों जैसी छोटी-छोटी, सरल, तेजहीन आंखें ।

एक बार पास से वासना को देख लेने की अमृत की इच्छा हुई। वह जरा-सा झुककर वासना के चेहरे के पास अपना सिर ले गया।

वासना ने अमृत को पहचान लिया । क्षीण, दुबली आवाज में उसने पुकारा- “मामाजी ! मामाजी !”

अमृत के रोंगटे खड़े हो गये।

दवा खिलाने की प्याली और चम्मच हाथों में लिये नर्स बोली- “दवा की शीशी इधर दे दें, सर ! एक खुराक खिला दूं।"

नर्स की बातों से अमृत सहसा चौंक पड़ा। दवा तो नहीं रही- सब कुछ जहर हो गया है। उसने अबोध्य, तेज दृष्टि से नर्स के चेहरे पर नजर डालकर कहा - "नर्स, यह दवा और खिलाने की जरूरत नहीं । मैं नयी दवा दूंगा वासना के लिए।"

नर्स ने प्याली-चम्मच रखकर फिर एक बार अमृत के चेहरे की ओर देखा । उसके बाद मच्छरदानी को गिरा देने हेतु वह वासना के बिस्तर के समीप चली गयी।

"मच्छरदानी गिराने की जरूरत नहीं, नर्स ! तुम जाओ, मैं यहां हूं न...।”

कुछ भी कहे बगैर नर्स चुपचाप कमरे से निकल गयी।

अमृत ने वासना के सिर पर हाथ रखकर पुकारा – “वासना !"

"मामाजी !” मां का सिखाया हुआ संबोधन।

परंतु स्नेह कितना गहरा है !

काफी देर तक अमृत वासना के चेहरे को एकटक देखता रहा।

फिर हाथ की दोनों शीशियां मेज पर रख खिड़की से बाहर देखता हुआ अपने-आप से कहने लगा, वासना को पूरी तरह चंगा होने में तीन-चार महीने लग जायेंगे। इस अवधि में हो सकता है, जिंदा रहना मेरे लिए आसान ही हो जाये।

अमृत ने वासना की मच्छरदानी गिरा दी और बिस्तर के पास से खिड़की के पास हट आया।

दूर चमकने वाले अकेले तारे की ओर देखते हुए अमृत यों ही बोल उठा- “शायद रात ज्यादा हो गयी है । कितना गहरा सन्नाटा फैला हुआ है !"

अमृत ने अपने हाथ की दोनों शीशियां दूर के डस्टबिन में फेंक दीं। और धीरे-धीरे अपने घर की ओर चल पड़ा।

अस्पताल के रोगियों की असहाय सांसें गहरी होकर आधी रात की छाती में मिलती जा रही थीं। उस हवा में अमृत ने जीवन के एक अक्षय आश्वासन का अनुभव किया । उसका मन बहुत हल्का-सा लगा।

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