धोखा : मंगल सिंह मुंडा
Dhokha : Mangal Singh Munda
मुंगली मुझे दादा कहती है। मैं भी उसे बहन कहता हूँ। यों मैं उसका कुछ भी नहीं लगता। पर न जाने क्यों मेरे अंतःकरण में उसके प्रति इतनी गहरी आस्था और प्रगाढ़ प्रेम है...।
पिछले ‘सरहुल’ में मैं जब घर आया था तो नौकरी में अपनी तरक्की की बात मुंगली के परिवारवालों को बता दी थी। खुशी में उन्होंने मुझे एक मुरगा भी खिला दिया था। तब मुंगली ने (शायद मजाक में) कहा था, ‘‘अब मैं भी जवान हो गई हूँ दादा। अपने जैसी मुझे भी नौकरी खोज दीजिए।’’
मैं उसकी स्त्री सुलभ चंचलता और चपलता पर मुग्ध हो गया। तब भला क्योंकर कुछ नहीं करता? कलकत्ता लौटकर इस विषय पर भीतर-ही-भीतर तत्पर रहा। अंत में कामयाब भी हो गया था। मैंने साहब के कान में यह सब भरा। उन्होंने पानी भरने के लिए ‘आया’ के रूप में मुंगली को मंजूर कर लिया था। आज इसी शुभ समाचार को बताने फिर गाँव आया हूँ। पर मुंगली ने बेबसी के स्वर में मुझे तुरंत लौट जाने को कहा। उफ! क्या मजबूरी रही होगी उसकी? उसके लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया? साहबों के घर-घर जाकर अकेले में साहिबानों से उसकी दर्दनाक दास्तान सुनाई थी। अस्पताल के सी.एम.ओ. के बँगले पर गया, ताकि ‘दाई’ का भी काम मिल जाए तो अच्छा ही रहेगा। आजकल नौकरी खोजना आसान है क्या? किसी के मुँह से सहयोगात्मक जवाब नहीं मिला। अंततः एक तरकीब सूझी। कलकत्ता में रहते-रहते मुझे यह एहसास हो गया था कि बंगाली औरतें बहुत ही भावुक हुआ करती हैं। रूप-यौवन एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व पर अपने आप को न्योछावर कर डालती हैं। मुंगली का एक पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ लेकर अपने साहेब की साहिबान के पास गया। बड़े ही मर्मस्पर्शी बयान में उस लड़की का परिचय दिया।
‘‘ओहो कतो सुंदोर मे आछे, ओ ऐ कोतो कोष्ट पाच्छे? तुमि मेयेटा के निए आसो।’’ साहिबा ने कहा। ‘‘मैं साहब को बोलूँगी। तुम लड़की को ले आओ।’’ साहब भला साहिबा की बात क्यों न मानें? उन्होंने मुझे हरी झंडी दिखा दी। मैंने भी सोचा कि चलो रेजागिरी से तो ‘आया’ ही भली। फिर कभी आहिस्ता-आहिस्ता पैर जम ही जाएगा। पर हाय! इसके हृदय-परिवर्तन पर मैं हैरान हूँ। अचानक यह सब कैसे हो गया? क्या गरीबी की मार तो नहीं पड़ी? क्या गत साल के सूखे के कारण खाने को अनाज की कमी तो नहीं पड़ी? क्या वह इसीलिए भट्ठा में काम करने गई थी? और वहाँ जाकर कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गया? मैं मन-ही-मन बीती घटनाओं के संदर्भ में अनुमान लगाने लगा, तो उस लड़की के जीवन-चक्र की एक धुँधली सी तसवीर मेरे सामने उभरने लगी।
एक दिन हावड़ा से हल्दिया गामी लोकल ट्रेन में मेरी ड्यूटी पड़ी। एक ‘कंपार्टमेंट’ में इंटर किया तो वहाँ आदिवासी युवक-युवतियों का एक बड़ा हुजूम जा रहा था। कोई चालीस-पचास की संख्या में थे। ‘टिकट’ मैंने कहा। इस पर उन लोगों ने गेट पर खड़े एक दुबले-पतले युवक की ओर इशारा किया। मैंने उससे टिकट माँगा।
‘‘ये तुम्हारे आदमी हैं?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘हाँ साहब, ये मेरे हैं। बीस महिलाएँ तथा पैंतीस पुरुष हैं। कुल मिलाकर पचपन, सर।’’
‘‘यह हुजूम लेकर कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘हल्दिया सर।’’
‘‘क्या हो रहा है वहाँ?’’
‘‘अरे साहब, आप नहीं जानते। वहाँ पावर प्लांट बननेवाला है। इन लोगों को और क्या काम करना है? भट्ठा में काम करने के लिए जा रहे हैं। मैं इनका सरदार हूँ। बगनान मेरा घर है। बोलिए सर, ‘रीजेंट’ या ‘न्यूज’ लाऊँ?’’
‘‘इन्हें ला कहाँ से रहे हो सरदारजी?’’
‘‘राँची से। गौतमधारा स्टेशन का नाम तो आप जानते ही हैं।’’
‘‘हाँ, जानता हूँ।’’
‘‘हद हो गई साब, हद हो गई इनकी गरीबी की। यों तो मैं बंगाली हूँ साब, पर राँची शहर से मेरा वास्ता है। मेरा बड़ा भाई म्यूजिकल इंस्ट्रमेंट का बिजनेस करता है—‘कलकत्ता म्यूजिकल कॉर्नर’। सबेरे पौ फटते गौतमधारा स्टेशन पर गाड़ी रुकती है। आप अगर खिड़की से झाँकोगे तो इन लोगों का हाल-चाल मालूम हो जाएगा साब। गले में कुछ न पड़े पर दसों मील पैदल चले जाते हैं। ठिठुरती ठंड में सिर पर दो-तीन तह लकड़ी के गट्ठर। आर.पी.एफ. तथा सेठ-साहूकारों की ‘धुधुवाई’ खा-खाकर कुछ रुपयों में अपना माल बेच आते हैं। सच कहता हूँ साब, किसी जमाने में एक दोना जामुन या केंद और एक ईंट का दाम समान था। आज इस महँगे जमाने में एक ईंट का दाम 2 रुपए तक पड़ने लगा है। पर उधर देखो, कोई शहरी बाबू अभी भी मात्र चार आने में ही उठाकर ले जाता है उनके दोने। सस्ते में क्यों न बेचें? ऐसा न होने पर घरों में चूल्हा ही न जले इनका। अच्छा साब, बहुत बात हो गई। ‘माजा’ ड्रिंक चलेगा?’’
‘‘बस, बस, रहने दो भई। अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हारा ठेकेदार कौन है?’’
‘‘रघुनाथ गोसाई है साब। बगनान ही घर है उसका। आप जानते हैं उसे?’’
‘‘हाँ, जानता तो हूँ। अपने ही साहब का कोई लगता है वह।’’ मैंने दाएँ हाथ में चिमटा एवं बाएँ हाथ को उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा। वह समझ गया कि मैं टिकट माँग रहा हूँ। अति सुंदर एक युवती की ओर इशारा करते हुए चिल्लाया, ‘‘मुंगली, जरा टिकस बाबू को वह कागज दिखा देना।’’
मुंगली! यहाँ! मैं चौंका। लगा, जैसे बिच्छु ने डंक मार दिया हो।
वह लड़की लजाते, सकुचाते मेरे पास आई। वह सचमुच मुंगली ही थी। हम दोनों एक-दूसरे को अपनी-अपनी आँखों को यथासंभव फैलाते हुए आश्चर्य से देखने लगे। पर दोनों के मुँह से कुछ आवाज न निकल पाई। शायद दोनों किसी अनजान रहस्य के खुलने के भय से चुप थे। मैंने सोचा कि आखिर इतनी परी सी गुड़िया भट्ठे में काम करने कैसे चली आई? यहाँ तो हजार किस्म के लफड़े होते हैं, अब यह इन लफड़ों में पड़े बिना न रहेगी।
यदि ऐसी ही कुछ बात है तो यही अच्छा मौका है। मजदूरों के सरदार से रघुनाथ के विषय में अच्छी तरह जान सकता हूँ। वह चटपट पचपन पैसेंजरों का हिसाब वाला कागज दिखाकर वापस लौट गई, मानो हमारे बीच कुछ हुआ ही न हो।
दोस्त का अभिनय करते हुए मैंने बातचीत जारी रखी, ‘‘क्यों सरदारजी, धंधा कैसा चल रहा है, बाजार मंदी तो नहीं पड़ गई?’’
‘‘पूछो मत साब, ऑर्डर तो बहुत मिल रहे हैं। उन्हें निभा पाना ही मुश्किल हो रहा है। देखिए न, सब मालिक झारखंडिए का ही ‘डिमांड’ करते हैं। सच मानिए, पश्चिम बंगाल में इन लोगों का बहुत डिमांड है। कलकत्ता से दीघा और फिर हल्दिया से बिहार के मोकामा तक, इतने विशाल प्रदेश में ईंट कौन बनाता है, मालूम है? ये ही झारखंड के गरीब आदिवासी। ईश्वर ने इन्हें बड़ी सूझ-बूझ से बनाया है। जो कहो, ‘हाँ’ ही में उत्तर देंगे। ‘न’ कहना तो ये जानते ही नहीं। ईमानदारी की तो ये सजीव मूर्ति हैं। यही सब कारण है इनके डिमांड का। जिस ठेकेदार के हाथ लगे कि वह चाँदी काटने लगता है, क्योंकि बीस का हिसाब लगाओ और पंद्रह का भुगतान कर दो। पाँच अपनी जेब में भर लो। क्या बताऊँ साब, कभी-कभी इनकी हालत देखकर मुझे भी रोना आता है। इनकी गरीबी की आग इतनी भयंकर है कि फूल जैसे मासूम चेहरे भी जलकर खाक हो जाते हैं। यह तो देख रहे हैं न, कितनी सुंदर और चरित्रवान लड़की है। मुंगली नाम है इसका। ठेकेदार रघुनाथ के जाल में फँस गई बेचारी। इसके माँ-बाप भी कैसे हैं कि ऐसी जगह में भेज देते हैं?’’
‘‘क्या कहा? ठेकेदार रघुनाथ से इसका...?’’
‘‘हाँ, साब! क्या आप उसे जानते हैं?’’
मैंने कहा, ‘‘मेरे साहब का कोई लगता है।’’
‘‘तब तो उसके चरित्र से भी...?’’
‘‘हाँ, सरदार, तुमसे ज्यादा जानता हूँ उसके विषय में।’’
‘‘तब तो मर गया साब, मर गया। आप के पाँव पड़ता हूँ। उसको मेरे विषय में कुछ मत बोलिएगा साब! हाथ जोड़कर कहता हूँ, नहीं तो मेरी चाकरी...।’’
‘‘नहीं बताऊँगा सरदारजी, कुछ नहीं बताऊँगा। बोलो, और क्या जानते हो उन दोनों के विषय में?’’
‘‘बहुत कुछ जानता हूँ साब, मगर...’’ वह बीच में ही रुक गया।
‘‘मगर क्यों?’’
‘‘शायद आप...।’’
‘‘नो...नो...तुम डरो मत’’, कंधे थपथपाते हुए मैंने उसे आश्वस्त किया। वह आगे कहने लगा, ‘‘साब, मैं रघुनाथ का मीडिया हूँ न, सब खबर रखता हूँ। बाकी मजदूरों को चार रुपया कम मिलता है। उनके द्वारा विरोध करने पर कह देता है कि पाँच रुपया सरकार के बाढ़ पीड़ित राहत कोष में कट जाता है। यह सरकार का हुकूम है। मुंगली को किंतु बीस मिलते हैं। कभी-कभी पूजा आदि में साड़ियाँ एवं चूड़ियाँ भी दे जाता है, और एक बात है साब, वह हर रविवार को उसे अपना डेरा ले जाता है, रात बिताकर फिर ड्यूटी।’’
‘‘अच्छा, तो रघुनाथ अब हल्दिया में ही है?’’
‘‘हाँ साब।’’
‘‘अच्छा सर।’’
मैं वहीं उतर गया। गाड़ी आगे चल दी।
उस दिन मुंगली तथा अन्य को लेकर गाड़ी निश्चय ही हल्दिया पहुँच गई होगी। कोई चार महीने गुजरे होंगे कि मुझे इत्तिफाक से हल्दिया जाने का मौका मिल गया। इन चार महीनों में ईंट के भट्ठे खूब गरम हुए होंगे। लूटनेवाले ने लूट लिया होगा, लुटानेवाला लुटा चुका होगा। अब बरसात पहुँच रही थी। धंधे में व्यवधान होने की संभावना दीख रही थी। इन्हीं संभावनाओं में कितने ही भट्ठे बंद होने जा रहे थे। मुंगली की कंपनी भी बंद होनेवाली थी। सभी लोग स्वदेश जाने की तैयारी में व्यस्त थे। भट्ठेवालों का हुजूम स्टेशन के इस छोर से उस छोर तक मँडरा रहा था। इस बार उनमें कुछ ज्यादा ही जोश तथा चपलता थी, स्वदेश जो जा रहे हैं। किसी के मुँह पर माउथ ऑर्गन खेल रहा है तो कोई ‘टू इन वन’ में अमिताभ एवं अमजद के डायलॉग सुन रहा है। युवतियों की कमर पर कंपनी द्वारा दी गई लाल पाड़वाली साड़ी सुशोभित है। ‘‘ऐसा क्यों मुंगली?’’ मैंने अचानक उसे देखते ही पूछा।
‘‘दादा जानते नहीं, हमारा भट्ठा बंद हो गया। बरसात आ गया न! अब चास-बास भी तो करना है, गाँव लौट रहे हैं हम लोग।’’
‘‘अच्छी बात! पर यह तुमने क्या हालत बना रखी है? तुम्हारी सभी सहेलियाँ तो चिड़ियाँ जैसी उछलती-फुदकती उल्लासित नजर आ रही हैं, एक तुम हो कि मरियल मुरगी के समान दुबकी हो?’’
‘‘जरा तबीयत खराब चलती है दादा’’, पलकें झुकाए कुछ इस तरह की भंगिमा बनाने लगी कि सबकुछ मुझसे कहते नहीं बना।
मैंने बात पलट दी, ‘‘अच्छा, कभी चांस लगे, तुम्हें जरूर नौकरी में लगा दूँगा।’’
‘‘सच!’’ वह उत्सुकता से कह उठी, ‘हाँ दादा, नौकरी में मुझे जरूर लगा देना, यहाँ मेरा दिल न लगता। ऊपरवाले बाबू लोग बहुत ही खराब आदमी हैं, हमें पूरा मजदूरी भी नहीं देते हैं। माँगने पर कहते हैं कि तुम मुझसे...। यहाँ हम बहुत खराब जगह में आ गए हैं, मैं तो फिर कभी नहीं आऊँगी। कभी नहीं दादा...’’ और सिसक-सिसककर वह रो पड़ी।
मुझे दाल में काला नजर आया। और कुछ जानने को उत्सुक होने लगा था।
‘‘बात क्या है मुंगली, किसी ने मारा?’’
‘‘कुछ नहीं दादा, कुछ नहीं। आपको यह जानकर कोई फायदा नहीं होगा। आपको नहीं बताऊँगी।’’
‘‘क्यों नहीं बताओगी? चोरी हो गई। लौटने के पैसे...?’’
‘‘हाँ दादा, कुछ ऐसी ही बात है। मेरा सभी पैसा लेकर ‘वो’ भाग गया।’’
‘‘कौन वो?’’
‘‘ठेकेदार, साब।’’
‘‘रघुनाथ ठेकेदार?’’
‘‘हाँ दादा।’’
‘‘उसे पैसा क्यों रखने दिया?’’
वह कहने लगी, ‘‘क्या बताऊँ दादा। चार महीना पहिले उसने मुझसे कहा था कि मैं उसकी हो जाऊँ। रात-दिन हर समय उसकी सेवा-सुश्रूषा करूँ। बरसात आने तक काम करने के बाद हम घर चले जाएँगे, वहाँ जगह-जमीन खेत-बाड़ी है। इस तरह मुझे रेजा का काम नहीं करना पड़ेगा। सोने की चूड़ियाँ तथा बंगाली शंखा मेरे लिए बनवाएगा...आदि-आदि। तब उसके बहकावे में आकर अपना सबकुछ उसे देती रही। आज सुन रही हूँ कि वह तो भाग गया, अब मेरे पास घर जाने का पैसा भी नहीं।’’
मैंने उसके दुःख में भागीदार बनते हुए उसे सौ का एक नोट थमाया और वहाँ से खिसक गया।
साभार : वंदना टेटे