धीरेंदु मजूमदार की माँ (कहानी) : ललितांबिका अंतर्जनम्

Dheerendu Majumdar Ki Maan (Malayalam Story in Hindi) : Lalithambika Antharjanam

क्या, तुम्हें मालूम है कि मैं कौन हूँ? मेरा नाम शांति मजूमदार। मेरी उम्र नब्बे साल की है। पूर्वी बंगाल के एक गाँव में मेरा जन्म और पालन—पोषण हुआ था। नौ संतानें हुईं। सात लड़के और दो लड़कियाँ। पाँच संतानों की बलि दी भारत के लिए। चार की बलि चढ़ाई पाकिस्तान के लिए भी। फिर मैंने नई पीढ़ी के तमाम बच्चों को अपने पुत्र—पुत्रियों और पौत्र—पौत्रियों के रूप में गोद लिया। मैं चाहती थी कि उस गाँव में ही मेरी मृत्यु हो। मेरे सारे पूर्वजों का जन्म उस मिट्टी में हुआ था और उसी मिट्टी में वे विलीन भी हो गए थे। यदि मुक्ति—फौज के सिपाही बलपूर्वक मुझे कंधों पर लेकर दूर भाग न जाते तो यह शांति दादी माँ भी युद्ध मैदान में गिरकर गर्व के साथ कब की मुक्ति प्राप्त कर लेती।

क्या, मैं निडर हूँ, वैसे तो मैं क्यों डरूँ? शांति की कोई भी संतान कभी डरनेवाली नहीं ठहरी। भारत मेरा अपना देश है। मेरी पाँच संतानों की हड्डियाँ यहीं तो गल रही हैं, किंतु एक शरणार्थी के समान, एक परदेशी के समान यहाँ रहना शांति दादी कभी पसंद नहीं करती। बच्चो! शायद तुम जानते हो कि हमारे लिए भारत केवल मुट्ठी भर मिट्टी नहीं। वह हमारी सुफला, सुजला, शस्य श्यामला हमारी स्वर्र्ण—माता है। उनके करों में चमकनेवाली कोटि—कोटि तलवारों का ध्यान—भजन करके हमने अपने बच्चों का पालन—पोषण किया। उसकी मुक्ति के लिए अपने बच्चों की बलि भी चढ़ा दी। भारतीय स्वतंत्रता—संग्राम के प्रारंभकालीन उन निस्स्वार्थ एवं साहसी शहीदों की कहानी क्या तुमने सुनी है, क्या तुम्हारे इतिहास में कहीं ऐसी कोई कहानी है?

यादें एक—एक करके उमड़—घुमड़ रही हैं। रोमांचित करनेवाली यादें। किसी व्यक्ति की, परिवार की नहीं, संपूर्ण देश की करुण कहानी! शांति मजूमदार की कहानी से तुम्हें वह स्पष्ट मालूम हो जाएगा। सुनो, आज तुम जिसे पूर्वी पाकिस्तान पुकारते हो, उस देश के बीचोबीच हमारा घर था। जिस रास्ते से पद्मा नदी पूर्व की ओर बहकर सागर की ओर जाती है, उधर बाईं ओर की जमींदारी हमारी थी। बीच—बीच में बाढ़ आ जाती थी। उस दौरान गाँव के लोग दुर्गा मंदिर के उस पार के भोजनालय में शरण लेते थे, किंतु मजूमदार घराने की वधुएँ उस ऊँची अट्टालिका के छज्जे पर बैठकर पद्मा नदी के जल का संहार—तांडव देखती रहतीं। वे कभी भी अपने अंतःपुर के बाहर नहीं निकलती थीं। उन्होंने पर—पुरुषों को कभी देखा तक नहीं था। एक बार छोटे चाचा अबनि मजूमदार की प्रिय पत्नी प्रसव—पीड़ा से तड़पने लगी तो शहर से डॉक्टर को बुला लाने का हठ उन्होंने किया था। बड़े मजूमदार, जो ‘राजा साहब’ भी कहलाते थे, ने उसे मना किया था। मजूमदार घराने की औरतों को कोई बीमारी हुई तो काल के सिवाय और कोई उस अंतःपुर में घुस नहीं पाता था। यही वहाँ का रिवाज था।

लाल रेशम पहनकर तथा माथे पर सिंदूर लगाकर शादी की वेशभूषा में बंद पालकी में जब मैं उस घर पहुँच गई, तब मेरी उम्र बस नौ साल की थी। पचास साल की आयु तक कभी भी उस घर के बाहर नहीं निकली थी। बड़ा बेटा धीर जब कॉलेज में पढ़ रहा था, तब उसके किसी मित्र से मिलने के लिए सायबान के द्वार तक आने की उसने विनती की थी। महामहिम राज्यपाल महोदय एक बार पत्नी के साथ आए तो उनके स्वागत के लिए आने का अनुरोध पति ने किया था। तब भी मैंने नहीं माना था। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में जनमी एक औरत ऐसा नहीं कर पाती थी। कानून तोड़ने से हम डरते थे, किंतु तमाम कानूनों को तोड़ने के लिए अपनी संतान ही आए तो करें क्या?

एक ओर पति तथा दूसरी ओर संतानें! ऐसा धर्मयुद्ध चलता तो माँ कहाँ खड़ी हो सकती, किसकी मदद कर सकती? कर्तव्यों का घोर संघर्ष! बच्चो, तुम समझ नहीं पाओगे, कभी समझ नहीं पाओगे।

मजूमदार घराने के लोग पूर्णतया राजभक्त रहे थे। कई जगहों पर हमारी जमींदारी और जायदादें थीं। सरपंच के पद भी थे। मेरे पति तो राव बहादुर, मानद न्यायाधीश तथा माननीय ब्रिटिश सरकार की सलाहकार समिति के सदस्य भी थे। राज्यपाल तथा वाइसराय बीच—बीच में हमारा आतिथ्य स्वीकार करने आते थे। बी.ए. पास होते ही बड़े बेटे धीरेंदु को आई.सी.एस. के लिए भेजने का भी हमारा इरादा था। वह कहा करते थे, ‘‘राव बहादुर केवल ओहदा है, किंतु आई.सी.एस धन और अधिकार दोनों साथ लाएगा।’’

इन बातों को बिना जाने ही, धीर कलकत्ता से घर तथा घर से कलकत्ता यदा—कदा आया—जाया करता था। वह पढ़ने में समर्थ था। सुंदर और मितभाषी भी। सबसे बढ़कर धीरेंदु मजूमदार की दीन—दयालुता की प्रशंसा सब लोग करते थे। उसके साथ हमेशा ही साधुओं का एक दल होता। कुछ लोगों को सायबान तथा कुछ को अँधेरे बखारखाने में ठहरा देता। भोजनालय से भोजन पहुँचा देता। ऐसे लोगों के लिए न जाने उसने मेरे हाथ से कितने पैसे माँगे हैं। लोगों के मुँह से बाबू धीरेंद्र की प्रशंसा सुनकर मेरे कान फूले न समाते थे। ऐसे में, एक रात के वक्त घूँघट पहने एक स्त्री के साथ वह अंतःपुर आया। ‘‘माँ! यह भैरव वर्ग की योगिनी है। किसी से कुछ बोलेगी नहीं। न किसी से मिलेगी और न किसी को देखेगी। अतः अपने कमरे के पास किसी छोटे कमरे में इसे बिठा दें। उनका भोजन आप स्वयं ही लाकर दे दें।’’ मुझे सचमुच प्रसन्नता हुई। इस जमाने में, जबकि अकसर युवाजन वारांगनाओं की तलाश में रहते हैं, तब यह संन्यासियों के स्वागत—सत्कार में लगा है! अँधेरी कोठरी में बैठकर योगिनी हमेशा ही कुछ पढ़ती—लिखती रहती थी। कागज का ढेर लगता तो धीर आकर उसे ले जाता। वह दोनों आपस में मंत्र—जाप की भाँति कुछ फुसफुसाते थे, किंतु जब मैं भोजन लेकर जाती, तब वह बुढ़िया उठकर घूँघट डालकर कमरे के कोने की ओर हटकर खड़ी हो जाती, शायद इसलिए कि मैं उनकी शिष्या तो नहीं ठहरी। बारिश और बाढ़ की एक अमानिशा में धीर ने मुझे अँधेरे कमरे में बुला लिया। ‘‘माँ, योगिनी माता आज वापस जा रही हैं। अब वह आपसे मिलना और कुछ उपदेश देना चाहती हैं, आ जाओ।’’ यों कहकर उसने वह गेरुआ कपड़ा हटा दिया, जो संन्यासिनी के चेहरे को ढके हुए था। मैं एकदम स्तब्ध रह गई! कोई पुरुष, जवान। लगेगा कि वह धीर का ज्येष्ठ है। उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘माँ, मुझे माफी दे दीजिए, मैं सूर्यसेन। मुझे ‘मास्टर दा’ पुकारते हैं। मातृभूमि की आराधना हम महाकाली के रूप में करते हैं। शत करों में तलवार, शत करों में चक्र! शत्रु के रक्त से रंजित सिर, अँतड़ी, किंतु आज मैंने पहले—पहल देवी के अन्नपूर्णेश्वरी रूप को देख लिया है। करुणामूर्ति को देख लिया है। आप का आशिष मिले कि यह रूप भी सदा—सर्वदा मेरे ध्यान में रहे।’’

मास्टर दा झुककर मेरी पदधूलि ग्रहण कर आँसू बहा रहा था। मेरे भी आँसू बहने लगे। क्या यही मशहूर क्रांतिकारी सूर्यसेन है, आतंकवादी! देशद्रोही! क्या इसके सिर के लिए पुलिस के लोग भाग—दौड़ कर रहे हैं? उसके झुके हुए सिर पर हाथ रखा तो मेरा हृदय ही हाथों में आ गया था। ‘‘सूर्यसेन! मास्टर दा! जिस माता ने तुम्हें जन्म दिया था, क्या वह मेरी दीदी तो नहीं थी?’’

समय तेज गति से दौड़ रहा था। पद्मा नदी में नौका प्रतीक्षारत खड़ी थी। विक्षुब्ध लहरों के बीच से होकर नौका के विलीन होने का दृश्य स्तब्ध होकर मैं देखती रही। शांति मजूमदार नामक अंतःपुर की स्त्री तब तक मर चुकी थी। उसके बदले एक नई स्त्री—बंग माता—ने जन्म लिया। ऐसा बहाना किया कि कुछ भी नहीं जानती। सबकुछ जानकर भी एक ही समय अलग—अलग दो व्यक्ति बनकर जीने लगी। कुछ दिन बीत गए।

पुलिस द्वारा सूर्यसेन को पकड़ लेने और फाँसी की सजा देने का समाचार पाकर धीर के पिता बोले, ‘‘लो उसके जैसे देशद्रोही का यही हश्र होता है। न जाने क्या—क्या गड़बड़ ये बना लेते हैं? कल भी महामहिम राज्यपाल ने कहा था, मजूमदार साहब! आपका बड़ा बेटा कितना साहसी है। उसे पुलिस में लेने का मैंने निर्णय लिया है।’’

यह सुनकर रुदन रोकने के प्रयास में मैं बिलख पड़ी। क्या सूर्यसेन की मृत्यु के बारे में सोचकर ऐसा हुआ या भविष्य में पुलिस आयुक्त बनने का यत्न करनेवाले बेटे के बारे में सोचकर?...ओह! छोड़ दें। मास्टर दा की मृत्यु के बाद भी कई तरह के लोगों को लेकर धीर आया है। कइयों को शरण भी देनी पड़ी है मुझे। एक दिन सहसा बम फूटा, जिस दिन पुलिस के उच्च अधिकारी के मुँह से उसके पिता राव बहादुर नीहारेंदु मजूमदार ने यह जान लिया कि उनका बेटा पुलिस की निगरानी में है। अंतःपुर में आकर वह गरज पड़े। ‘‘नहीं, नहीं, मेरा ऐसा कोई बेटा नहीं। मेरा बड़ा बेटा मर चुका है।’’ इतना कह मेरी ओर मुड़कर आज्ञा दी, ‘‘वह पाजी आगे इधर आएगा तो पीने का पानी तक न देना। पकड़कर पुलिस के हवाले करना।’’

यह सुनते हुए भी तथा पतिव्रता धर्मपत्नी होते हुए भी इस माँ ने उस बेटे को कई बार आश्रय दिया है। जरूरी चीजें भी दी हैं। रो—रोकर मैं उससे कहती, ‘‘मेरा बेटा! तू ऐसी गड़बड़ में मत जा। बोल, तू नहीं जाएगा।’’

चित्तगोंग षड्यंत्र के मुकदमे में फँसने के पूर्व उसने कहा, ‘‘माँ, क्या तुमने सुना है, पहले यूनान की माताएँ अपने प्रथम पुत्र को युद्ध देवता के लिए बलि चढ़ाती थीं? जन्म देनेवाले देश के हित मरना स्वर्ग पाना ही है। मेरी माँ देवी है न? मातृभूमि के लिए तुम बड़े बेटे का त्याग कर दो। तुम्हारे और भी आठ संतानें तो हैं ही।’’

मैं फूट—फूटकर रो पड़ी, ‘‘बेटा, देश से बड़ी है माँ। माँ का हृदय होता है। वह फट जाएगा। देश तो केवल मिट्टी और कंकड़ है।’’ धीर ने मेरे ललाट को चूम लिया। ‘‘नहीं माँ, नहीं, देश आपके समान कोटि—कोटि माताओं के हृदयों से बना है। उनको वेदना है, घुटन है, आँसू हैं। इस दुःखी मातृभूमि की मुक्ति के हित यदि मैं मर गया तो माँ, तुमको ‘वंदे मातरम्’ गाकर हँसना चाहिए। माँ, बोलो हँसोगी न।’’

इतना कहकर मेरा चरणस्पर्श करके वह दौड़ पड़ा। फिर यह जानने पर कि हथियारखाने में हुए हमले में डायनामाइट—विस्फोट में बेटे की मृत्यु हुई तो क्षोभ और दुःख के मारे विवश उसके पिता के सम्मुख ही मैंने ‘वंदे मातरम्’ गाया। रोकर ...हँसकर...पगली के समान गरजकर जोर—जोर से गाया—

‘‘कोटि—कोटि कर धृत कराल करवाल’’

ओह! मुझे यह कैसी प्यास लगी है!

बच्चो! मेरा गला सूख रहा है, थोड़ा पानी दे दो। ठंडा पानी...

अब, बस करूँ। मुझे ये सारी बातें अब नहीं कहनी थीं।...इनकी याद भी न करनी थी। केवल शरणार्थी बनकर तुम लोगों की कृपा की याचना करती मैं अब एक विदेशी हूँ। धीरेंद्र मजूमदार को लोग कबका भूल गए। तब इस माँ की याद करे कौन?

धीर के प्रेत ने उसके छोटे भाइयों को भी आविष्ट कर लिया। बैरिस्टर परीक्षा के लिए पढ़ने लंदन गए शरदिंदु ने इंडिया ऑफिस के सामने गोरे को गोली से मार डाला और आत्महत्या कर ली। नित्येंदु और सत्येंदु ने कॉलेज जाना छोड़ दिया। पिता लकवे से पीड़ित होकर शय्यावलंबी हुए। सारी जायदाद जब्त हो गई। फिर भी मजूमदार भवन की कीर्ति आज भी सबसे बढ़कर है। बच्चो, देश के तमाम स्वतंत्रता सेनानियों का घर बन गया वह। उस घर के तहखाने से तारकेश्वर को गिरफ्तार कर लिया गया था। गणेश घोष, सावित्री, कल्पना जैसे कितने लोग वहीं अमरत्व को प्राप्त कर गए। क्या तुमने प्रीतिवर्द्धदार के बारे में सुना है? मेरी बेटी मिनती की अंतरंग मित्र थी वह। बेचारी...क्रांतिकारी बनने के लिए उसका जन्म नहीं हुआ था। खून देखा तो उसे चक्कर आ जाता। आँसू देखा तो सिसक पड़ती। ऐसी किशोरी ने चहरतली के यूरोपीय क्लब में बम फेंका और फिर पोटैशियम साइनाइड खाकर मृत्यु का वरण किया। इस बात का तुम्हें कहाँ तक विश्वास आएगा?

ऐसे व्यक्तियों के खून में उगी—खिली स्वतंत्रता को ही तुम लोग आज भोग रहे हो। नित्येंदु, सत्येंदु, मिनती आदि उसे देखने के लिए जीवित नहीं रहे। उसके बाद कांग्रेस आई। गांधीजी आए। गोपीनाथ को माफी नहीं देने की दलील पेश करनेवाले गांधीजी से मैंने कहा, ‘‘बापूजी, इतिहास तुम्हें माफी नहीं देगा। धीरता कोई अपराध नहीं। देश के लिए मारकर और मरकर ये बँगला युवक अमरता को प्राप्त कर गए हैं।’’

आखिर जाति और धर्म के आधार पर जब देश का विभाजन हुआ तो त्रैलोक्य चक्रवर्ती ने नेहरू से कहा, ‘‘किसके कहने पर तुमने बंगाल का सिर काटा, किसके कहने पर तुमने हमें अलग कर दिया? यहाँ हिंदू और मुसलमान नहीं। बँगाली सब एक हैं, सदैव एक ही। सिर और धड़ के अलग रहने पर इन राहु—केतुओं का खेल भीषण होगा। सूर्य और चंद्र का ग्रहण होगा। सावधान रहना।’’

हाँ, ग्रहण तो लग ही गया। इस बार सबको ग्रसते हुए वह आ गया। विभाजन के समय हमने भी भारत की ओर प्रयाण करने के बारे में सोचा था। बाद में लगा, जो भी हो, वहाँ हो या यहाँ, सब कहीं एक ही है। जहाँ कहीं भी देश की सेवा करके एकता के साथ रहें तो भला ही होगा। यों हम फिर से नए राष्ट्र की सेवा में लग गए। मजूमदार भवन की टूटी—फूटी चतुष्कोणशाला के नीचे माताजी के दर्शन के लिए फिर से लोगों की भीड़ लगी। नोआखाली में गांधीजी के साथ चली। चित्तगोंग में सेवाश्रम की स्थापना की। ढाका में सौहार्द समिति का आयोजन हुआ। किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी अधिकारियों ने हमें संदेह की दृष्टि से देखा। ढाका में प्रोफेसर रहे शुभेंदु को बरखास्त कर दिया गया। समरेंदु को डॉक्टरी का लाइसेंस तक नहीं दिया। बाढ़ के दौरान बचाव के कार्यक्रमों में लगे योगेंदु की मृत्यु हुई। बच्चो, इन बंगालियों की हमेशा ही यही विधि रही है। यहाँ की प्रकृति ही विक्षुब्ध है। समुद्र हमेशा तट प्रदेशों का आक्रमण कर उन्हें डुबो देता है। तूफान आता है। पद्मा नदी में बाढ़ आ जाती है। हैजा और गरीबी फैल जाते हैं। इनका सामना तो जाति और धर्म के आधार पर किया ही नहीं जा सकेगा। मेरी छोटी बेटी लैला ने एक मुसलमान से शादी की। हम सब एक साथ रहते थे। एक जमाना था, जब तीन साल की नाती नसीमा से टैगोर के सुप्रसिद्ध गान ‘सोनार बंगला’ का आलापन कराके आह्लादित हुआ करती थी। ओह! उस बच्ची को ही फौजियों ने हमसे छीनकर सड़क पर फेंककर मार डाला था।

सब खत्म हो गया। बच्चो, सबकुछ खत्म हो गया। मेरे लिए फिर एक ही शेष रहा था—वह भूमि, जो मेरी माता और पुत्री रही। मेरी जन्मभूमि, मेरा बंगाल, वहाँ की हमेशा ही विक्षुब्ध होती नदियाँ, झीलें और जनता। वे भी अब नष्ट हो चुकी हैं।

मुजीबुर साहब कहा करते थे, ‘‘शांति देवी! आप हमारे बंगाल की प्रतीक हैं। आप ही माता हैं, आप ही मातामही हैं, आपके आशीर्वाद से बंगाल पुनः मुक्त हो जाए।’’

मेरे तन में खून बहुत ही कम था। फिर भी मैंने तर्जनी काटकर तिलक लगा दिया। ‘‘बेटा, विजयी हो। विजयी होकर आओ! बंगाल को विजयी बनाने का भाग्य तुम्हारा हो।’’

शांति दादी को लेकर उनके पोते मुक्ति फौज के सिपाही भागे। अंत में भारत में लाए। यहाँ वे शरणार्थिनी ठहरी! भिक्षुकी ठहरीं! विदेशी ठहरीं!

बोलो इंदिरा, बोलो, क्या शांति मजूमदार यहाँ शरणार्थिनी बनकर आई? धीर, समर, सत्य और नित्य की माँ इधर विदेशी है क्या, टैगोर, शरतचंद्र, सी.आर. दास और नेताजी के देश में खड़ी होकर मैं पूछती हूँ, ‘‘शांति मजूमदार स्वदेशी है या विदेशी? यदि तुम कहोगे कि यह मेरा देश नहीं है तो मैं इधर नहीं मरूँगी। ओह!...मेरी आँखों से आँसू निकल रहे हैं। सिर चकरा रहा है।

नहीं, मैं रोऊँगी नहीं। धीरेंदु मजूमदार की माँ रोएगी नहीं। आओ, हम सब मिलकर पहले की भाँति वह गीत गाएँ—

‘‘कोटि कोटि करधृत कराल करवाल।
सुफलां...सुजलां शस्य श्यामलां
मातरं वंदे मातरम्...’’