धरती अब भी घूम रही है (कहानी) : विष्णु प्रभाकर
Dharti Ab Bhi Ghoom Rahi Hai : Vishnu Prabhakar
आयु नीना की दस वर्ष की भी नहीं थी, लेकिन बुद्धि काफी प्रौढ़ हो गई थी। जैसा कि अकसर मातृहीन बालिकाओं के साथ होता है, बुजुर्गी ने उसके लिए आयु का बंधन ढीला कर दिया था। इसलिए जब उसने सुना कि कुछ दूर पर सोया हुआ उसका छोटा भाई सुबक रहा है, तो वह चुपचाप उठी। एक क्षण भयातुर दृष्टि से चारों ओर देखा, फिर उसके पास आकर बैठ गई। तब रात आधी बीत चुकी थी और चाँद कभी का अस्त हो चुका था, फिर भी कुछ दूर पर सोते हुए उनके मौसा के परिवार के दूध-से धुले कपड़े अंधकार की कालस में चमक रहे थे, जैसे तमसावृत श्मशान में अग्नि के स्फुलिंग। वही चमक नीना के नन्हे से दिल में कसक उठी। किसी तरह रुलाई रोकर उसने धीरे से पुकारा, ‘कमल, ओ कमल...’ कमल आठवें वर्ष में चल रहा था। उसके छोटे से खटोले पर एक फटी सी दरी बिछी थी। उसपर वह लेटा था गुड मुड्, पैर उसने पेट से सटा रखे थे और मुँह को हाथों से ढक रखा था। रह-रहकर उसका पेट सिकुड़ता और सुबकियाँ निकल जातीं। उसने बहिन की पुकार का कोई जवाब नहीं दिया। नीना भी इतनी सहमी हुई थी कि दूसरी बार पुकारने का साहस न बटोर पाई। चुपचाप कमर सहलाती रही, देखती रही। कई क्षण बीत गए तो उसे सीधा करके उसका मुँह अपने दोनों हाथों में ले लिया। तब उसकी आँखें डबडबा आईं। आँसू ढुलककर कमल के मुख पर जा गिरे। कमल कुनमुनाया, फिर आँखें बंद किए-किए बोला, ‘जीजी!’
नीना ने चौंककर कहा, ‘तू जाग रहा था रे?’
‘नींद नहीं आती...जीजी, पिताजी कब आएँगे? जीजी, पिताजी के पास चलो।’
‘पिताजी...’
‘हाँ, जीजी! पिताजी के पास ले चलो। आज मुझे मौसाजी ने मारा था। जीजी, गिलास तोड़ा तो प्रदीप ने और मारा हमें...जीजी, यहाँ से चलो।’
नीना ने अनुभव किया कि कमल अब रोया, अब रोया। वह विह्वल हो उठी। उसने अपना मुँह उसके मुँह पर रख दिया और दोनों हाथों से उसे अपने वक्ष में समेटकर वह ‘शिशु-माँ’ वहीं लेट गई। बोली वह कुछ नहीं। बस उस स्तब्ध वातावरण में उसे जोर-जोर से थपथपाती रही और वह सुबकता रहा, बोलता रहा, ‘जीजी! आज मौसी ने हमें बासी रोटी दी। सारा हलवा प्रदीप को, रंजन को दे दिया और हमें सब खुरचन दी और जीजी, जब दोपहर को हम मौसाजी के कमरे में गए तो हमें घुड़ककर निकाल दिया। जीजी, वहाँ हमें क्यों नहीं जाने देते? जीजी, तुम स्कूल से जल्दी आ जाया करो। जीजी, पिताजी को जेल में क्यों बंद कर दिया? वहाँ पिताजी को रोटी कौन खिलाता है? हम वहाँ क्यों नहीं रहते? प्रदीप कहता था, तेरे पिताजी चोर हैं...’
तब एक बारगी अपने को धोखा देती हुई नीना जोर से बोल उठी, ‘प्रदीप झूठा है।’
और कहकर अपनी ही आवाज पर वह भय से थर-थर काँप गई। उसने कमल को जोर से भींच लिया। कमल को लगा, जैसे जीजी बड़े जोर से हिल रही है, हिलती जा रही है, हिलती चली जा रही है। हालन आ गया क्या? उसने घबराकर कहा, ‘जीजी, जीजी, क्या है? तुम्हें बुखार आ गया है?’
‘चुप, चुप! मौसी आ रही है।’
सचमुच कोई उठकर जल्दी-जल्दी उनके पास आया और कड़ककर पूछा, ‘क्या है, क्या है नीना, कमल क्या है रे?...ओ हो! भाई से लाड़ लड़ाया जा रहा है। मैं कहती हूँ नीना, तू यहाँ क्यों आई? अरी बोलती क्यों नहीं? ओ हो, बड़े बेचारे गहरी नींद में सोये हैं। अभी तो बड़ी गुटर-गुटर मेरी शिकायत हो रही थी। जैसे मैं जानती ही नहीं...हाय रे मेरी किस्मत! ओ बहिन! तू खुद तो मर गई, पर मुझे इस नरक में छोड़ गई।’
तभी मौसा हड़बड़ाकर उठ बैठे, पूछा, ‘क्या बात है? क्या हुआ?’
‘हुआ मेरा सिर। दोनों भागने की सलाह कर रहे हैं।’
‘कौन भागने की सलाह कर रहा है? नीना-कमल? अरे, कुछ लिया तो नहीं? अलमारी की चाबी तो है? रात ही पाँच सौ रुपए लाकर रखे हैं। अरे, तुम बोलती क्यों नहीं? क्यों री नीना! कहाँ हैं रुपए?’
बोलते-बोलते मौसा उठकर वहाँ आ गए थे, जहाँ दोनों बच्चे एक-दूसरे में सिमटे, सकपकाए, कबूतर की तरह आँखें बंद किए पड़े थे। मौसी ने तुनककर कहा, ‘क्या पता क्या-क्या निकालकर भागते, वह तो मेरी आँख खुल गई।’
और फिर झटककर नीना को उठाते हुए कहा, ‘चल अपनी खाट पर। खबरदार जो पास सोए। बाप तो आराम से जेल में जा बैठा, मुसीबत डाल गया मुझ पर। न लाती तो दुनिया मुँह पर थूकती, बहन के बच्चे थे। शहर की शहर में आँखों में लिहाज न आई। लेकिन कहनेवाले यह नहीं देखते कि हमारे घर में क्या सोने-चाँदी की खान है? क्या खर्च नहीं होता? पढ़ाई कितनी महँगी हो गई है और फिर बच्चों की खुराक बड़ों से ज्यादा ही है।’
रुपए नहीं निकाले, इस बात से मौसा को बड़ा संतोष हुआ। उन्होंने खाट पर बैठते हुए कहा, ‘मैं कहती हूँ तुम तो...’
‘अब चुप रहो। भले ही चचेरी बहन हो, हैं तो बहन के बच्चे।’
‘हाँ, बहन के बच्चे हैं, तभी तो बहनोई साहब को रिश्वत लेने की सूझी और रिश्वत भी क्या थी, बीस रुपए की। वह भी लेनी नहीं आई। वहीं पकड़े गए। हूँ, मैं रात पाँच सौ लाया हूँ। कोई कह दे, साबित कर दे!’
‘इतनी बुद्धि होती तो क्या अब तक तीसरे दर्जे का क्लर्क बना रहता।’
‘और मजा यह कि जब मैंने कहा कि तीन सौ, चार सौ रुपए का प्रबंध कर दे, तुझे छुड़ाने का जिम्मा मेरा, तो सत्यवादी बन गया—‘मैं रिश्वत नहीं दूँगा।’ नहीं दूँगा तो ली क्यों थी? अरे लेते हो तो दो भी। मैं तो...’
मौसी ने सहसा धीमे पड़ते हुए कहा, ‘चुप भी करो, रात का वक्त है! आवाज बहुत दूर तक जाती है।’
काफी देर बड़बड़ाने के बाद जब वे फिर सो गए, तो दोनों बालक तब भी जागते पड़े थे। आँखों की नींद आँसू बनकर उनके गालों पर जमती जा रही थी। और उनके धुँधले परदे पर बहुत से चित्र अनायास ही उभरते आ रहे थे। एक चित्र मौसी का था, जो उन्हें रोते-रोते घर लाई थी और वह प्रेम दरशाया था कि वे भी रो-रोकर पागल हो गए थे। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, प्यार घटता गया और दया बढ़ती गई। दया ऊँच-नीच और दंभ की जननी है। उसने उन्हें आज पशु से भी तिरस्कृत बना दिया...
एक चित्र मौसा का था, जो तीसरे-चौथे दिन बहुत से नोट लेकर आते और उन्हें लक्ष्य करके कहते, ‘मैं कहता हूँ कि उसने रिश्वत ली तो दी क्यों नहीं? अरे तीन सौ देने पड़ते तो पाँच सो बटोरने का मार्ग भी तो खुलता।’
एक चित्र पिता का था। पिता जो प्यार करता था, पिता जिसने रिश्वत ली थी, पिता जिसे जेल में बंद हुए दो महीने बीत चुके थे और अभी सात महीने शेष थे।
नीना ने सहसा दोनों हाथों से अपना मुँह भींच लिया। उसकी सुबकी निकलने वाली थी। उसने मन-ही-मन विह्वल-विकल होकर कहा, ‘पिताजी! अब नहीं सहा जाता, अब नहीं सहा जाता। मौसा तुम्हारे कमल को पीटते हैं। पिताजी, तुम आ जाओ। अब हम उस स्कूल में नहीं पढ़ेंगे। अब हम बढ़िया कपड़े नहीं पहनेंगे। पिताजी, तुमने रिश्वत ली थी तो देते क्यों नहीं...क्यों...क्यों?’
इस प्रकार सोचते-सोचते उसकी बंद आँखों के अंधकार में पिता की मूर्ति और भी विशाल हो उठी...एक अधेड़ व्यक्ति की मूर्ति, जिसकी आँखों में प्यार था, जिसकी वाणी में मिठास थी, जिसने दोनों बच्चों को नए स्कूल में भरती करवा रखा था। वहाँ उन्हें कोई मारता-झिड़कता नहीं था, वहाँ नाश्ता मिलता था, वहाँ वे तस्वीरें काटते थे, खिलौने बनाते थे।
और घर में पिता उनके लिए खाना बनाता था, अच्छी-अच्छी किताबें लाता था, फल लाता था। उनकी माँ के मरने पर उसने दूसरी शादी तक नहीं की थी।
नीना ने ये सब बातें पड़ोसियों के मुँह सुनी थीं। वे सब उसके पिता की बड़ी तारीफ करते थे। उसने अपने कानों से पिता को यह कहते सुना था कि रिश्वत लेना पाप है। लेकिन फिर उन्होंने रिश्वत ली...क्यों ली...आखिर क्यों?
पड़ोसिन कहती, ‘उसका खर्च बहुत था और आमदनी कम। वह बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता था, और तुम जानो, अच्छी शिक्षा बहुत महँगी है।’
महँगी...महँगी थी तो उसने रिश्वत ली। महँगी होना क्या होता है, और अब पिता कैसे छूटेंगे? मौसा कहते थे, ‘जज को रिश्वत देते तो छूट जाते। एक जज ने तीन हजार रुपए लेकर एक डाकू को छोड़ दिया था। एक आदमी जिसने एक औरत को मार डाला था, उसे भी जज ने छोड़ दिया था। पाँच हजार लिये थे।’ पाँच हजार कितने होते हैं? सौ...हजार...दस हजार...लाख...ये कितने होते हैं।
मौसा कहते थे, ‘रिश्वत और भी तरह की भी होती है। एक प्रोफेसर ने एक लड़की को एम.ए. में अव्वल कर दिया था, क्योंकि वह खूबसूरत थी...’
नीना ने सहसा दृष्टि उठाकर आसमान में देखा। तारे जगमगा रहे थे और आकाशगंगा का स्रोत धवल ज्योत्स्ना में लिपटा पड़ा था। उसने सोचा, यह सब कितना सुंदर है! क्या यहाँ भी रिश्वत चलती है?
उसकी सुबकियाँ अब बिल्कुल बंद हो चुकी थीं और वह बड़ी गंभीरता से सुनी-सुनाई बातों को याद कर रही थी, पर समझ में उसकी कुछ नहीं आ रहा था...खूबसूरत होना भी क्या रिश्वत है? मौसा कहते हैं कि गंजे हाकिम के पास खूबसूरत लड़की भेज दो और कुछ भी करवा लो...खूबसूरत लड़की और रुपया, रुपया और खूबसूरत लड़की...इन्हें लेकर जज और हाकिम काम क्यों कर देते हैं? क्यों...क्यों...और खूबसूरत लड़की वे क्या करते हैं? काम करवाते होंगे, पर काम तो सभी करते हैं...फिर खूबसूरत लड़की क्यों?...और उसके मौसा बहुत से रुपए लाते हैं, पर लड़की कभी नहीं लाते!
उसकी समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन उसी उधेड़-बुन में रात न जाने कहाँ चली गई, यह जाना न जा सका। एकाएक मौसी की पुकार ने उसकी तंद्रा को तोड़ दिया। हड़बड़ाकर आँखें खोलीं तो मौसी कह रही थी, ‘नीना, ओ नीना! अरी उठेगी नहीं? पाँच बजे हैं।’
पाँच...। अभी तो बहरुआ तीन की आवाज लगा रहा था और आकाशगंगा का मार्ग कैसा चमचम कर रहा था। इसी रास्ते तो स्वर्ग जाते हैं।
मौसी फिर चीखी, ‘अरी, सुना नहीं नीना? कब से पुकार रही हूँ। दोनों भाई-बहन कुंभकर्ण से बाजी लगाकर सोते हैं। चल जल्दी। चौका-बासन कर। मैं आती हूँ।’
नीना ने अब अँगड़ाई लेने का नाट्य किया। फिर कुनमुनाती हुई उठी, ‘जा रही हूँ, मौसी!’
जीने तक जाकर न जाने उसे क्या याद आया, वह कमल के पास गई और बड़े प्यार से कान से मुँह लगाकर उसे पुकारा। फिर उत्तर की प्रतीक्षा न करके उसे कौली में समेटकर नीचे लिये चली गई।
और जब दो घंटे बाद मौसी नीचे उतरी तो स्तब्ध रह जाना पड़ा। रसोईघर जैसे दूध में धोया गया हो। लकदक-लकदक, मैल की कहीं छाया तक नहीं। बरतन चाँदी से चमचमा रहे थे। बार-बार अविश्वास से आँखें मलकर ठगी सी मौसी बोली, ‘आज क्या बात है, नीना?’
‘कुछ नहीं, मौसी!’ नीना ने सकपकाकर उत्तर दिया।
‘कुछ नहीं कैसे? ऐसा काम क्या तू रोज करती है?’
कमल ने एकदम कहा, ‘मौसी! आज पिताजी आएँगे।’
‘पिताजी...’
‘हाँ, जीजी कहती थी...’
मौसी ने अविश्वास और आशंका से ऐसे देखा कि कमल सहमकर पीछे हट गया। कई क्षण तक उस स्तब्ध वातावरण में वे प्रस्तर-प्रतिमा बने रहे, फिर जैसे जागकर मौसी बोली, ‘तो यह बात है। बाप के स्वागत के लिए रसोईघर सजाया गया है।’
फिर एक बारगी बड़े जोर से हँसी, बोली, ‘पर रानीजी, अभी तो पूरे सात महीने बाकी हैं, सात महीने। बाह रे, वाह के लिए दिल में कितना दर्द है! इसका पासंग भी हमारे लिए होता तो...’
नीना की काया एकाएक पीली पड़ गई। आग्नेय नेत्रों से कमल की ओर देखती हुई वह वहाँ से चली गई। उस दृष्टि से कमल सहम गया, पर उसे अपने अपराध का पता तब लगा जब यह हो चुका था। स्कूल जाते समय रास्ते में नीना ने इस अपराध के लिए कमल को खूब डाँटा। इतना डाँटा कि वह रो पड़ा। रो पड़ा तो उसे छाती से लगाकर खुद भी रोने लगी।
इसी समय वहाँ से बहुत दूर एक सुसज्जित भवन में मुक्त अट्टहास गूँज रहा था। छोटे जज आज विशेष प्रसन्न थे। उनकी छोटी पुत्री मनमोहिनी को कमीशन ने सांस्कृतिक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर के पद के लिए चुन लिया था। मित्र बधाई देने आए हुए थे। उसी हर्ष का यह अट्टहास था। यद्यपि बाकायदा चाय-पार्टी का कोई प्रबंध नहीं था, तो भी मेज पर अच्छी भीड़भाड़ थी। अंग्रेज लोग चाय पीते समय बोलना पसंद नहीं करते थे, पर भारतवासी क्या अब भी उनके गुलाम हैं। वे लोग जोर-जोर से बातें कर रहे थे। मनमोहिनी ने चाय बनाते हुए कहा, ‘मुझे तो बिल्कुल आशा नहीं थी, पर सचिव साहब की कृपा को क्या कहूँ।’
सचिव साहब बोले, ‘मेरी कृपा! आपको कोई ‘न’ तो कर दे? आपकी प्रतिभा...’
डायरेक्टर कह उठे, ‘हाँ, इनकी प्रतिभा! सांस्कृतिक विभाग तो है ही नारी की प्रतिभा का क्षेत्र।’
सचिव साहब के नेत्र जैसे विस्फारित हो आए, प्याले को ठक से मेज पर रखते हुए उन्होंने कहा, ‘क्या बात कही आपने! संस्कृति और नारी दोनों एक ही हैं। नाट्य, नृत्य, संगीत और कविता।’
‘और प्रचार?’
‘अरे, नारी से अधिक प्रचार कर पाया है कोई।’
इसी समय बेयरे ने आकर सलाम झुकाई। तार आया था। खोलने पर जाना, छोटे जब साहब के बड़े बेटे की नियुक्ति इनकमटेक्स ऑफिसर के पद पर हो गई है। उसे मद्रास जाना होगा।
‘क्या, क्या’ कहते हुए सब तार पर झपटे। हर्ष और भी मुखर हो उठा। छोटे जज ने अट्टहास करते हुए अपनी पत्नी से कहा, ‘देखो निर्मल! मुझे पूरा विश्वास था, शर्मा मेरी बात नहीं टाल सकता। और मेरी बात भी क्या असल में वह तुम्हारा मुरीद है।’ कहता था, ‘औरत...’
बात काटकर सचिव साहब बोले, ‘जी नहीं, यह न आप हैं और न श्रीमती निर्मल। यह तो आपकी कौटुंबिक प्रतिभा है!’
इस पर सबने स्वीकृति सूचक हर्ष-ध्वनि की। छोटे न्यायमूर्ति इसका प्रतिवाद कर पाते कि बेयरे ने आकर फिर सलाम किया। विस्मित से डायरेक्टर बोले, ‘इस बार इसकी नियुक्ति होनेवाली है?’
बेयरे ने कहा, ‘दो बच्चे हुजूर से मिलने आए हैं।’
‘हमसे?’ छोटे न्यायमूर्ति अचकचाकर बोले।
‘जी।’
‘किसके बच्चे हैं?’
‘जी, मालूम नहीं। भाई-बहन हैं। गरीब जान पड़ते हैं।’
‘अरे तो बेवकूफ, कुछ दे-दिवाकर लौटा दिया होता।’
‘बहुत कोशिश की, पर वे कुछ माँगते ही नहीं। बस आपसे मिलना माँगते हैं।’
छोटे न्यायमूर्ति तेजी से उठे। मुख उनका विकृत हो आया, पर न जाने क्या सोचकर वे फिर बैठ गए। कहा, ‘आज खुशी का दिन है। यहीं ले आ।’
दो क्षण बाद, बुरी तरह सहमे, सकपकाए जिन दो बच्चों ने वहाँ प्रवेश किया, वे नीना और कमल थे। आँसुओं के दाग अभी गालों पर शेष थे। दृष्टि से भय झरा पड़ता था। एक साथ सबने उनको देखा और मदिरा के प्याले में मक्खी पड़ गई हो। छोटे न्यायमूर्ति ने पूछा, ‘कहाँ से आए हो?’
‘जी...जी...’ नीना ने कहना चाहा, पर मुँह से शब्द नहीं निकले और बावजूद सबके आश्वासन के वे कई क्षण हतप्रभ, विमूढ, अपलक देखते ही रहे, बस देखते ही रहे। आखिर मनमोहिनी उठी। पास आकर बोली, ‘कितने प्यारे, कितने सुंदर बच्चे हैं!’
इन शब्दों में न जाने क्या था! नीना को जैसे करंट छू गई। एक बारगी दृढ़ कंठ से बोल उठी, ‘आपने हमारे पिताजी को जेल भेजा है। आप उन्हें छोड़ दें।’
कमल ने उसी दृढ़ता से कहा, ‘हमारे पास पचास रुपए हैं। आपने तीन हजार लेकर एक डाकू को छोड़ा है।’
नीना बोली, ‘लेकिन हमारे पिताजी डाकू नहीं हैं। महँगाई बढ़ गई थी। उन्होंने बस बीस रुपए की रिश्वत ली थी।’
कमल ने कहा, ‘रुपए थोड़े हों तो...’
नीना बोली, ‘तो मैं एक-दो दिन आपके पास रह सकती हूँ।’
कमल ने कहा, ‘मेरी जीजी खूबसूरत है और आप खूबसूरत लड़कियों को लेकर काम कर देते हैं।’
रटे हुए पार्ट की तरह एक के बाद एक जब वे दोनों इस प्रकार बोल रहे थे तो न जाने हमारे कथाकार को क्या हुआ, वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ। उसे ऐसा लगा जैसे धरती सूर्य की चुंबक शक्ति से अलग हो रही है। लेकिन ऐसा होता तो क्या हम ‘पुनश्च’ लिखने को बाकी रहते? धरती अब भी उसी तरह घूम रही है।