धनवर्षण (कहानी) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Dhanvarshan (Hindi Story) : Hazari Prasad Dwivedi
किसी एक गांव में एक ब्राह्मण रहा करते थे। ये एक बहुत करामाती मंत्र
जानते थे। मंत्र का गुण यह था कि एक विशेष प्रकार का नक्षत्रयोग आने पर जब
उसका प्रयोग किया जाता तो आकाश से नाना प्रकार के रत्न और धन की वर्षा
होने लगती थी। उस ब्राह्मण के पास एक बड़े बुद्धिमान विद्यार्थी पढ़ते थे।
एक दिन एक काम से ब्राह्मण उस विद्यार्थी को लेकर घर से बाहर हुए। कुछ दूर
जाने पर वे एक घने जंगल में आ पड़े। इस जंगल में पांच सौ डाकू रहते थे।
राहियों के आते ही उनका माल-असबाब लूल लेते उस ब्राह्मण और विद्यार्थी की
भी यही दशा हुई। डाकुओं ने उन्हें बांध लिया।
राहगीरों के पास सदा रुपया-पैसा नहीं रहा करता था। फिर भी डाकू उनको नहीं
छोड़ते थे। वे एक को बांधकर दूसरे से कहते कि ‘जाओ, यदि हो सके
तो
रुपये ले आकर इसे छुड़ा ले जाओ।’ यदि बाप-बेटे को कभी पकड़
पाते, तो
लड़के को बांधकर रख लेते औऱ बाप रुपया ले आने को भेजते।
यदि मां-बेटी को
पकड़ते, तो बेटी को रखकर मां को रुपया ले आने को कहते। इसी तरह दो भाइयों
को पकड़ते तो छोटे को रखकर बड़े को भेजते और गुरु-चेला को पकड़ने पर गुरु
को रखकर चेले को भेजते। इसी के अनुसार उन्होंने ब्राह्मण को पकड़ रखा और
शिष्य को रुपया-पैसा ले आने के लिए भेज दिया।
जाते समय शिष्य ने गुरु को नमस्कार करके कहा, ‘‘मैं
दो-एक दिन
के भीतर ही लौटूंगा, आप डरिएगा मत। किंतु एक काम आपको करना होगा। आपको मैं
सावधान किये जाता हूं, आज धनवर्षण का योग है, ऐसा न हो कि आप दुःख से कातर
होकर धनवर्षा करें। यदि करेंगे तो आप खुद भी मरेंगे और ये पांच सौ डाकू भी
मरेंगे।’’ शिष्य ऐसा कहकर रुपये के लिए घर की ओर चले।
संध्या समय पूरब की ओर चांद उगने लगा । ब्राह्मण ने देखा, नक्षत्रयोग आ रहा है । देखकर उन्होंने सोचा,‘अच्छा, धन के लिए ही न डाकू हमको नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं ! यह धनवर्षण का योग तो दिखाई देता है। मैं इतना कष्ट क्यों सहूं? मैं इसी समय मंत्र के बल से धन बरसाकर, इन्हें देकर क्यों न चला जाऊं !' यही सोचकर उन्होंने कहा, "क्यों जी, तुम लोगों ने मुझे क्यों पकड़ा ह ?” कहना व्यर्थ है, उन्होंने जवाब दिया, “धन के लिए।” ब्राह्मण ने कहा, "यदि यही बात है तो मेरा बंधन खोल दो, स्नान करने दो, नया वस्त्र पहनने दो, चंदन लगाने दो और फूलों की माला पहनने दो।” डाकुओं ने वैसा ही किया । ब्राह्मण ने मंत्र पढ़कर ज्यों ही आकाश की ओर देखा, त्यों ही आकाश से नाना धन-रत्नों की झड़ी लग गई। डाकू, जिससे जितना हो सका, उस धन को लूटकर, अपने कपड़े में बांधकर चलते बने । ब्राह्मण भी उनके पीछे-पीछे जाने लगे। कुछ दूर जाने के बाद अचानक पांच सौ अन्य डाकू भी आ गये और उन्होंने इन डाकुओं को रोक लिया। पहले के डाकुओं ने कहा, “क्यों हमको रोकते हो ?” नयों ने जवाब दिया, “धन के लिए।" पहले के डाकुओं ने कहा, “ अगर यही बात है तो इस ब्राह्मण से मांगो। इसके आकाश की ओर देखते ही धन की वर्षा होती है । इसी ने हमको धन दिया है।"
नये डाकुओं ने पहले के डाकुओं को छोड़कर ब्राह्मण को ही पकड़ लिया । बोले, " बाबाजी, हम लोगों को भी धन दो ।" ब्राह्मण ने कहा, “बहुत अच्छा, यदि यही चाहते हो तो धनवर्षा का योग साल भर के बाद आता है। साल भर ठहरो । उस योग के आने पर मैं बरसाकर तुम्हें भी दूंगा।” डाकू बिगड़ उठे, बोले, “क्यों रे दुष्ट ब्राह्मण, इनके लिए अभी वर्षा हुई और हम लोगों के लिए होगी साल भर बाद !” यही कहकर उन्होंने उन्हें काटकर रास्ते पर फेंक दिया और साथ ही दौड़कर डाकुओं को भी पकड़ लिया। फिर क्या था? दोनों दलों में भयंकर मारामारी शुरू हुई। कितने ही मरे, कितने ही बचे । जो बचे उनमें फिर गोलमाल शुरू हुआ। इस प्रकार अंत में सिर्फ दो आदमी बच गये और शेष सभी मारकाट में समाप्त हो गये ।
बचे हुए आदमी सारा धन रन लेकर जाते-जाते एक गांव के पास आये। वहां उन्होंने एक वृक्ष के नीचे रुपयों को छिपा रखा। उनमें से एक तलवार लेकर वृक्ष पर चढ़ गया और पहरा देने लगा, दूसरा खाने को भात लेने के लिए गांव में गया। तलवार लेकर पहरा देनेवाले ने सोचा कि अगर वह लौटकर आयेगा तो इस धन को दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा । यह सोचकर उसने तलवार को संभालकर पकड़ लिया और उसके आने की राह देखने लगा । जो गांव में भात लेने गया, वह भी सोचने लगा कि 'यदि वह जीता रहेगा तो आधा हिस्सा ले लेगा । इस भात में विष मिलाकर यदि उसे खिलाया जाये तो वह खाते ही र जायेगा और रुपया सारा-का-सारा मेरा होगा।' यही सोचकर खुद तो उसने आधा खा लिया और बाकी में विष मिलाकर ले आया। पहला आदमी पहले से ही सजधज कर बैठा था। दूसरे के आते ही तलवार से उसके दो टुकड़े कर एक गुप्त स्थान में फेंक आया । फिर खुद भी विषाक्त भात खाकर मर गया ।
इधर गुरु को छुड़ाने के लिए शिष्य रुपया-पैसा लेकर दो-एक दिन के भीतर ही आ पहुंचे । आकर देखा, गुरु वहां नहीं है और धन-रत्न चारों ओर बिखरा पड़ा है। वे समझ गये कि गुरु ने उनकी बात नहीं सुनी। वे धनवर्षा करके सबके साथ स्वयं भी विनष्ट हो गये हैं ।