ढलान : मूल एवं अनुवाद - बलजीत सिंह रैना

Dhalan : Baljeet Singh Raina

बहुत सोच-विचार करने के पश्चात् वह चलने के लिए तैयार हो गया था। वह दिसंबरी पौष मास के ठंडे दिन थे और मुट्ठी भर धूप तक पास नहीं थी। दिन भर धुंध और कोहरे का वातावरण बना रहता और इस कड़ाके की ठंड ने उसे पत्नी के साथ विश्वासघात करने के लिए उकसा दिया था।

गरम कपड़ों से लदा हुआ वह अपने अर्दली के साथ क्वार्टर से निकल पड़ा था। पहाड़ी पगडंडी से उतरते हुए वह अच्छे दिनों को याद करने लगा था।

वह गरमियों के दिन थे और उसका उस पहाड़ी इलाके में अभी नया-नया तबादला हुआ था। उसकी पत्नी शोभा भी साथ आई थी और इस बात के लिए खुश थी कि जम्मू की अपेक्षा यहाँ गरमी अधिक नहीं थी और सुबह-शाम ठंडी हवा बहती रहती थी। बड़े मजेदार दिन थे। लेकिन ठंडे मौसम के आते ही शोभा की पुरानी कई बीमारियाँ सुरजीत हो उठी थीं और वह वापस जम्मू लौट गई थी।

शोभा लौट गई, लेकिन उसे वहीं रहना था, उस पहाड़ी इलाके में...अकेले, तन्हा, जहाँ चीड़ और देवदारों के पेड़ को रुई जैसी सफेद बर्फ अब वस्त्रों सी ढकने लगी थी।

उसका अर्दली छज्जूराम अच्छी तरह से जानता है कि साहब लोगों को खुश कैसे रखा जाता है। शायद वह उससे पहले दूसरे अफसरों को भी ऐसे ही खुश रखा करता था।

सामने ढलान में बने एक घर की ओर इशारा करते हुए वह बताने लगा कि लाजो वहीं उस घर में अपनी बच्ची के साथ रहती है, उसकी बच्ची अब पाँच वर्ष की हो गई है, उसे एक धोखेबाज ने कुँवारी माँ बना दिया था, उसके पिता ने गुस्से में आकर उस धोखेबाज को कुल्हाड़ी से मार डाला था, उसके पिता को फाँसी लग गई थी, बाद में बच्ची को जन्म देने के बाद वह साहब लोगों से रुपया-पैसा लेकर उन्हें खुश करने लगी थी, वह बड़ी खूबसूरत और कामुक औरत है, मैंने उससे आपके लिए बात कर ली थी।

घर के पास पहुँचकर छज्जूराम ने पुकारा, ‘‘लाजो!’’

एक छोटी सी बच्ची ने दरवाजे के पीछे से सिर निकालकर बाहर देखा और फिर बाहर आकर सामने बरामदे में खड़ी हो गई।

छज्जूराम ने बताया, ‘‘यह लाजो की बेटी चंदा है।’’

‘‘माँ पानी लेने गई है।’’ चंदा ने बताया।

‘‘कोई बात नहीं, हम इंतजार करेंगे। अभी आती ही होगी।’’ घर में घुसते हुए छज्जूराम ने उसे अंदर बुला लिया था, ‘‘आइए न साहब!’’

घर के भीतर कदम रखते हुए एकाएक उसे लगा कि यहाँ आकर उसने अच्छा नहीं किया और उसे अपने अर्दली के साथ इस तरह से इतना अनौपचारिक नहीं हो जाना चाहिए था।

कुरसी वगैरह तो उस घर में कोई थी नहीं, हाँ एक खटिया पर मैला सा बिस्तर जरूर बिछा हुआ था, जिसमें से अजीब सी सीलन भरी महक आ रही थी। चारपाई पर बैठने के बाद उसने महरास किया कि दरवाजे के साथ लगकर खड़ी बच्ची की आँखें लगातार उसे देखे जा रही थीं। उसे लगा कि वह अधिक समय तक इन नन्हीं मासूम आँखों के सामने नहीं बैठ पाएगा और एकाएक उठ खड़ा हुआ। ‘‘चलो छज्जूराम, फिर कभी...’’

‘‘पर साहब, आती ही होगी लाजो।’’

लेकिन तब तक वह कमरे से बाहर निकल चुका था। बाहर ड्योढ़ी से एक खूबसूरत औरत पानी से भरे दो मटके लिये घर में दाखिल हुई। एक मटका सिर पर और दूसरा कमर में कूल्हे पर टिका हुआ। उसे देखकर वह मुसकराई, ‘‘आप आ गए, साहब!’’

‘‘साहबजी, यही लाजो है जी!’’ छज्जूराम की आवाज उसके कानों में पड़ी।

उस बला की पहाड़ी खूबसूरती ने उसके कदमों को जैसे बाँध लिया था। वह पहाड़न तो अपने आप में ही पहाडि़यों का खूबसूरत सा एक सिलसिला थी। ‘‘आप बाहर क्यों खड़े हैं, अंदर आइए न, साहब?’’ कहते हुए वह थोड़ा झुककर बरामदे से होती हुई कमरे में दाखिल हो गई थी।

वह कमरे की ओर बढ़ने ही वाला था कि दरवाजे के पीछे से बाहर उसकी तरफ देखता हुआ बच्ची का चेहरा उभरा। ‘आह! इतना मासूम सा खूबसूरत चेहरा!’ जाने क्यों वह आगे नहीं बढ़ पाया था। झट से वह छज्जूराम की ओर घूमा, ‘‘इसे क्वार्टर में भेज देना।’’ कहा और ड्योढ़ी में से बाहर निकल गया।

छज्जूराम को कुछ समझ में नहीं आया।

‘‘कहाँ गए, साहब?’’ लाजो ने बाहर निकलकर पूछा तो छज्जूराम ने कंधे उचका दिए।

‘‘मुझसे कोई गलती हो गई क्या?’’ उसने फिर पूछा।

‘‘मालूम नहीं, तुम्हें क्वार्टर में आने को बोले हैं।’’

‘‘हाँ भई, बड़े साहब हैं, गरीब के घर में कैसे बैठेंगे?’’

‘‘अरे ऐसे कामों में अमीरी-गरीबी का सवाल कहाँ आता है बीच में? फिर क्या कारण रहा होगा?’’

‘‘यही तो समझ में नहीं आया। खैर, तुम शाम को बँगले पर चली जाना।’’

शाम को लाजो जब साहब के बँगले पर पहुँची तो वह छत पर से दूर ढलानों पर फैले देवदार के जंगल को देख रहे थे। छज्जूराम ने लाजो को आते ही छत पर भेज दिया था और वह बड़ी देर से साहब के पीछे खड़ी उनके मुड़ने का इंतजार कर रही थी। लेकिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया था, ‘‘क्या देख रहे हैं, साहब?’’

वह एकाएक चौंककर घूमा था, ‘‘ओह तुम! कब आई?’’

‘‘मैं तो कब से आकर खड़ी हूँ, लेकिन आप इतनी देर से क्या देख रहे थे?’’

‘‘ढलान।’’ कहते हुए वह फिर ढलान की ओर घूम गया था।

लाजो भी उसके नजदीक चली गई थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसा साहब है! कब से आकर खड़ी हूँ और यह ढलान की ओर ही देखे जा रहा है! पहलेवाला साहब तो उसे सामने पाते ही दबोच लेता था। अजीब आदमी है!

‘‘यह ढलान देख रही हो न, लाजो!’’ उसने सामने इशारा करते हुए कहा था।

लाजो ने मुँह बिदकाते हुए लापरवाही से उत्तर दिया था, ‘‘यह ढलान तो रोज ही देखती हूँ।’’

‘‘रोज देखती हो?’’ उसे जैसे विश्वास न हुआ हो, ‘‘यह ढलान तुम्हें कुछ नहीं कहती?’’

‘‘यह आप कैसी बातें कर रहे हैं, बाबू साहब? भला पहाड़ी ढलान भी किसी से कुछ कहती है!’’

‘‘क्यों नहीं कहती? जरूर कहती है। पहाड़ों में जिंदगी का फलसफा छुपा है।’’

‘‘क्या छुपा हुआ है, बाबू?’’

‘‘फलसफा।’’ उसने स्पष्ट किया था।

‘‘यह कौन सा फल होता है?’’

हँस पड़ा था वह। फिर समझाते हुए बोला, ‘‘यह फल नहीं होता है बल्कि फल का दर्शन होता है।’’

‘‘आप भी पहेलियाँ बुझाते हैं, बाबू साहब। जो फल ही नहीं होता है, उसका दर्शन कैसे हो सकता है?’’

‘‘क्यों, इनसान एक फल नहीं है? जैसे पेड़ के साथ फल लगता है, वैसे ही औरत-मर्द की गृहस्थी के पेड़ पर भी बच्चे-सा फल लगता है।’’

लाजो को लगा जैसे बात उसकी समझ में आ गई है, तपाक से बोली, ‘‘तो ऐसे कहिए न औरत-मर्द वाला फल। पर ऐसे फल छत पर इस तरह दूर-दूर खड़े रहने से थोड़े ही लग जाते हैं।’’

वह उसकी बात सुनकर मुसकरा दिया था। फिर जब लाजो ने कहा, ‘‘नीचे कमरे में चलते हैं।’’ तो उसने ‘न’ में सिर हिला दिया था।

‘‘पहले मेरी बात का जवाब तो दे दो।’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि...यह पहाड़ी ढलान तुमसे क्या कहती है?’’

लाजो खीझ उठी थी, ‘‘फिर ढलान! मुझे नहीं मालूम।’’

लाजो के चेहरे पर उभरे भाव देखकर उसने जैसे इरादा बदलकर कहा था, ‘‘आओ, नीचे चलें।’’

कमरे में पहुँचते ही लाजो निर्लज्जता से पलंग पर कुछ इस तरह से फैल गई, जैसे उसकी देह एक जिस्म होने के साथ-साथ ही एक भरपूर निमंत्रण भी हो, कि आगे बढ़ो और मुझ में समा जाओ।

उसने लाजो के जिस्म पर एक भरपूर नजर डालने के बाद कहा, ‘‘तुम क्या समझती हो, मैं तुम्हारे जिस्म का भूखा हूँ?’’

‘‘मर्द तो औरत के जिस्म के ही भूखे होते हैं।’’ स्पष्ट कह गई लाजो।

‘‘लेकिन मेरी भूख इतनी छोटी नहीं है। मैं बहुत ज्यादा भूखा हूँ। मुझे तन की भूख के साथ-ही-साथ मन की भूख भी लगती है। इसलिए मैंने छत पर तुमसे कहा था कि यह पहाड़ी ढलान कुछ कहती है। जानती हो क्या कहती है?’’ लाजो ने लेटे-लेटे ही ‘नहीं’ में सिर हिलाया था।

‘‘यह कहती है कि आज तुम जवानी की चोटी पर खड़ी हो और इस चोटी पर पहुँचने के लिए इनसान को पहाड़-सी जिंदगी के नीचे बचपन से शुरू करना पड़ता है। आहिस्ता-आहिस्ता इनसान उम्र के कई सालों की सीढि़याँ चढ़ता हुआ इस जवानी की चोटी पर पहुँचता है और चोटी के बाद ढलान शुरू होती है। जिंदगी की इस ढलान में जब कोई हमें पुराना-बूढ़ा समझकर देखना भी पसंद नहीं करेगा, तब भी तुम मुझे प्रेम करो और मैं भी तुम्हें आज की तरह ही चाहता रहूँ। एक ऐसे अटूट रिश्ते की कल्पना देती है यह ढलान।’’

लाजो उठकर बैठ गई थी। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि उसके कानों ने जो कुछ भी सुना है, वह बाबू साहब ही कह रहे हैं। सचमुच कैसा बाबू है यह!

उसने फिर कहा था, ‘‘लाजो, मुझसे प्रेम करना है तो इतना करो कि हम उम्र की ढलान में अंत तक साथ दे सकें।’’

एकाएक लाजो को महसूस हुआ कि जिंदगी में पहली बार किसी मर्द से पाला पड़ा है, जिसने बुढ़ापे तक साथ देने की, सहारा बनने की बात कही है।

और फिर जब इस नए रिश्ते की गरमाहट उनके जिस्मों में घुल-मिल गई तो शांत होते ही उसने लाजो को बताया कि वह शादीशुदा जरूर है, लेकिन वह अपनी पत्नी से खुश नहीं है, उसकी पत्नी अभी तक माँ नहीं बन सकी, उसका सबसे बड़ा सपना पिता बनने का है, उसकी शादी को चार वर्ष हो चुके हैं, आज वह उसे पाकर बहुत खुश है, उसे अब किसी और के साथ सोने की जरूरत नहीं है, वह उसकी सारी जिम्मेदारियाँ ले लेगा, वह उससे मंदिर में गुप्त विवाह भी कर लेगा, इस विवाह के बारे में किसी को पता नहीं चलना चाहिए, उसकी नौकरी जा सकती है।...

आज लाजो की बेटी दूर कहीं किसी बोर्डिंग स्कूल में पढ़ती है। साल में एक बार छुट्टियों में घर आती है। उसका साहब भी अपनी जुबान का पक्का निकला। हालाँकि उसकी बदली हो चुकी है, लेकिन वह तीन-चार महीने में एक बार प्रायः उसके पास आता रहता है। चाहे दो दिन के लिए ही आए, मगर आता जरूर है।

बस एक ही अफसोस रह गया है लाजो को, वह भी साहब की पत्नी की तरह साहब के लिए बाँझ ही निकली। दस साल कम नहीं होते। जब जरूरत नहीं थी तो बिन ब्याही ही माँ बन गई थी और पिछले दस सालों में चाहकर भी नहीं बन पाई। यह परमेश्वर भी अजीब खेल खेलता है। वह प्रायः सोचती है।

ऐसा नहीं कि उसे साहब से गर्भ ठहरा ही नहीं। एक बार ठहरा था। तब साहब की बदली नहीं हुई थी। कितने खुश हुए थे साहब। हमेशा अपने बचपन की तसवीर देखते रहते। तसवीर के एक-एक नक्श को अपनी यादों में सँभालते रहते। कहते, ‘लाजो, अब मुझे लोग गलत नहीं समझेंगे। मैं उनको बताऊँगा कि मैं भी बाप बनने के काबिल हूँ। शोभा भी मुझे ही गलत कहती है। मैं उसको बताऊँगा।’

पर तीसरे महीने ही गर्भपात हो गया था। कितने दुःखी हुए थे साहब तब! उनका सपना टूट गया था। उनका सबसे बड़ा सपना, पिता बनने का सपना!

अब तो चंदा बेटी भी जवान हो गई है। मैट्रिक की परीक्षा देगी इस बार। खुशी से उसकी आँखों से आँसू छलक आए थे। उसके खानदान में कोई भी तो मैट्रिक तक नहीं पहुँचा था।

हाय! कितनी सुंदर निकली है चंदा! किसी की नजर न लग जाए। किस्मत अच्छी थी, जो साहब जैसा आदमी पिता के रूप में मिल गया। वरना क्या पता उसकी गरीबी उससे क्या कुछ करवा डालती। लाजो एकाएक सिहर उठी थी।

‘‘कहाँ खोई हुई हो?’’

साहब की आवाज सुनकर एकाएक उसके चेहरे पर चमक आ गई थी। झट से स्वागत के लिए उठती हुई बोली, ‘‘दो ही जन तो ऐसे हैं इस दुनिया में, जिनकी याद में खो जाना अच्छा लगता है।’’

‘‘चंदा को याद कर रही थी?’’ चारपाई पर बैठते हुए पूछ लिया था साहब ने।

लाजो ने साहब के पास बैठते हुए कहा, ‘‘हाँ, चंदा को भी और चंदा के ईश्वर समान पिता को भी।’’

कुछ परेशान हो गए थे साहब। चारपाई पर पीठ लगाकर पसरते हुए बोले, ‘‘अब चंदा याद करने लायक कहाँ रह गई है!’’

लाजो का माथा ठनका था। ‘यह साहब आज कैसी बातें कर रहे॒हैं।’

‘‘क्या हुआ चंदा को?’’

‘‘जवानी चढ़ गई है उसे और क्या होना है?’’

‘‘सच सच बताओ, क्या हुआ उसे?’’

उत्तर में साहब ने जेब से एक चिट्ठी निकालकर लाजो की ओर बढ़ा दी थी, ‘‘लो पढ़ो इसे। मिलते ही सीधा तुम्हारे पास चला आया हूँ।’’

लाजो ने जल्दी से चिट्ठी खोली थी, ‘‘पर यह तो अंग्रेजी में है।’’

‘‘हाँ, अब अंग्रेज हो गई है तुम्हारी बेटी! अंग्रेजी संस्कृति वाला प्यार हो गया है उसे। अपने साथ पढ़नेवाले एक लड़के को वह अपना मन ही नहीं, तन भी समर्पित कर चुकी है और उसके बच्चे की माँ बननेवाली है!’’

लाजो के तो पाँव के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई थी। ‘यह क्या कर दिया चंदा ने! भगवान् ने उसे साहब जैसे पिता का आसरा देकर जिंदगी सँवारने का इतना अच्छा अवसर दिया था, लेकिन उसकी किस्मत में भी अपनी माँ की तरह बिन ब्याही माँ बनना ही लिखा था।’

‘‘हे भगवान्। अब क्या होगा?’’ उसके मुँह से इतना ही निकला।

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता लाजो, कुछ नहीं। वह लड़का बड़े घराने का था और आगे पढ़ने के लिए विदेश चला गया है। उस पर यह भेद चंदा ने इतनी देर के बाद खोला है कि अब डॉक्टर भी कुछ नहीं कर सकते। अब तो उसे हर हाल में बच्चे को जन्म देना ही होगा?’’

लाजो की आँखें भर आई थीं, ‘‘अब मेरी बेटी पर भी बिन-ब्याही माँ होने का दोष लगेगा।’’ वह सुबकने लगी तो साहब ने उठकर उसके कंधे पर अपना स्नेह भरा हाथ रख दिया। फिर उसकी आँखों से बहते हुए आँसुओं को पोंछते हुए साहब बोले, ‘‘तुम चिंता क्यों करती हो? मैं हूँ न, सब सँभाल लूँगा। मैंने सब सोच लिया है। वह बच्चे को किसी दूसरे शहर में जन्म देगी। जहाँ उसे कोई नहीं जानता होगा। तुम्हें दो-तीन महीने वहाँ उसके साथ रहना होगा। मैं खुद दोनों को वहाँ छोड़कर आऊँगा। चिंता की जरूरत नहीं। अब कुछ-न-कुछ तो करना ही है।’’

लाजो ने श्रद्धाभाव से साहब की ओर देखा, ‘कैसा देवता स्वरूप इनसान है साहब! जरूर पिछले जन्म में उसने कुछ पुण्य किए होंगे, जो साहब जैसा आदमी उसकी जिंदगी में आ गया है।’ सोचते-सोचते वह स्वतः बोल उठी थी, ‘‘लेकिन होनेवाले बच्चे का क्या करेंगे?’’

‘‘उसे मैं अपना लूँगा।’’

लाजो ने साहब की आँखों में झाँका तो साहब ने पलकें झुकाकर ‘हाँ’ में गरदन हिलाई थी, ‘‘शायद भगवान् ने मेरी झोली में इसी तरह से किसी बच्चे को डालना था।’’

लाजो तन से चाहे साहब की बाँहों में समा गई थी, लेकिन मन से वह उनके चरणों में जा पड़ी थी।

दूर-दराज के एक शहर में चंदा ने एक बच्ची को जन्म दिया और कुछ दिन वहाँ रहने के बाद लाजो चंदा और उसकी बच्ची को साथ लेकर अपने पहाड़ पर लौट आई थी। आने से पहले उसने साहब को चिट्ठी डालकर बच्ची के जन्म की खबर कर दी थी और जल्दी आने के लिए भी लिखा था।

लेकिन साहब के आने से पहले ही एक दुर्घटना घट गई। चंदा एक पथरीली ढलान पर से फिसल गई और लहू से लथपथ होती हुई दूर उन दरख्तों तक फिसलती चली गई थी, जिनकी एक टूटी हुई नुकीली शाख ने पेट में घुसकर उसे और अधिक फिसलने से रोक लिया था।

...और मरने से पहले जो कुछ उसने अपनी माँ को बताया, वह उसे पागल बना देने के लिए काफी था। लाजो की बाँहों में ही दम तोड़ा था चंदा ने। चंदा के अंतिम संस्कार से पहले ही वह मुक्त हो जाना चाहती थी उस बोझ से, जो चंदा के अंतिम शब्दों ने उसकी छाती में किसी कील सा गाड़ दिया था।

एकाएक वह उठ खड़ी हुई थी। उसने लेटी हुई बच्ची को उठाया और उसी पथरीली ढलान की ओर चल पड़ी, जहाँ उस बच्ची की माँ चंदा फिसलकर मौत के मुँह में जा पड़ी थी।

कुछ ही देर में वह ढलान के बीच में खड़ी उन नुकीली चट्टानों को देख रही थी, जिन्होंने उसकी फूल-सी बेटी के जिस्म की चमड़ी को यहाँ-वहाँ से छील दिया था। सहसा उसने अपने कंधे पर एक जाने-पहचाने हाथ का स्पर्श महसूस किया और झट से वह कंधा झटककर अलग जा खड़ी हुई थी।

‘‘मुझे मालूम पड़ा, अभी-अभी कि हमारी बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही।’’ साहब ने गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा, ‘‘छज्जूराम ने बताया अभी-अभी, समझ में नहीं आता, मैं इस दुःख की घड़ी में तुम्हें किस प्रकार समझाऊँ! मैं तो खुद अपने ही मन को नहीं समझा पा रहा कि हमारी बेटी, अब इस दुनिया नहीं है।’’

‘‘हमारी बेटी मत कहो, मेरी चंदा को!’’ एकाएक लाजो फट पड़ी, ‘‘वह सिर्फ मेरी बेटी थी...मेरी। एक दिन तुमने मुझ से पूछा था न! ‘यह ढलान तुम्हें क्या कहती है लाजो’, आज मैं फिर वही सवाल तुम से पूछती हूँ बाबू साहब, यह ढलान तुम्हें क्या कहती है? बताओ-बताओ मुझे, चुप क्यों हो तुम? यही सवाल तूने मेरी बेटी से भी पूछा था न? मेरे शरीर की तरह उसके शरीर को भी पहाडि़यों का खूबसूरत सिलसिला कहता था तू? यह देख एक और पहाडि़यों का खूबसूरत सिलसिला मेरी बाँहों में साँस ले रहा है। इससे भी पूछेगा कि यह पहाड़ी ढलान इसे क्या कहती है?’’

‘‘लाजो, तुम होश में नहीं हो।’’ उसने उसे शांत करते हुए कहा था, ‘‘बेटी के गम ने तुम्हें पागल बना दिया है। सँभालो अपने आपको।’’ कहते हुए साहब उसकी ओर बढ़ा तो वह चिल्ला पड़ी थी, ‘‘मेरे नजदीक मत आना तुम। बाप बनने का बड़ा शौक था न तुम्हें? शक के कीड़े, तू अपने बचपन की तसवीर बार-बार सिर्फ इसलिए देखा करता था कि जब मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनूँ तो तुम देख सको कि उसका चेहरा तुम्हारे बच्चे के चेहरे से कितना मिलता है। लेकिन मैं तुम्हें तुम्हारी बच्ची का चेहरा देखने नहीं दूँगी। बहुत पूछता था तू ढलान के बारे में। पर आज मैं पूछती हूँ तेरे को बाबू साहब, देखो इस पथरीली ढलान को और बताओ कि यह आज तुम्हें क्या कह रही है? बता धोखेबाज...बोल?’’

‘‘लाजो!’’ इस बार साहब गुस्से में चिल्लाया था।

‘‘चिल्लाओ मत बाबू साहब, मैं बताती हूँ यह ढलान तुम्हें क्या कहती है। आज यह ढलान तुम्हें कहती है, बाबू साहब कि जैसे इस पगली लाजो की बेटी नहीं बची, वैसे ही तेरी बेटी भी नहीं बचेगी। नहीं बचेगी, बाबू साहब!’’ और इससे पहले कि वह आगे बढ़कर उसकी बाँहों में से अपनी बच्ची को छीन पाता, लाजो ने वह बच्ची पथरीली ढलान की ओर उछाल दी थी।

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