ढाँचा (कहानी) : आशापूर्ण देवी

Dhaancha (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

केशव राय को सबसे पहले यह खबर नीलकण्ठ से मिली। इसे सुनकर वे हैरान रह गये।

हाँ, यह सही है कि इसे सुनकर वे पहली बार कोई नाराज नहीं हुए थे। अचरज में अवश्य ही पड़ गये थे। अपनी नयी घरवाली की हेठी देखकर उन्हें जैसी हैरानी हुई थी-उसे वह झेल नहीं पा रहे थे और उन्होंने चुप्पी साध ली थी। लेकिन बाद में, गुस्से में आपे से बाहर हो गये थे। उन्होंने चीखते हुए कहा था, "अच्छा...! तो वो हरामजादी अपने काले और कुबड़े भाई के भरोसे कोर्ट-कचहरी के खन्दक में कूद रही है। ठीक है...मैं भी उसे बता दूँगा कि मैं भी कोई ऐरा-गैरा नहीं, राघव राय का जना केशव राय हूँ ?"

केशव राय ने जिसे हरामजादी की मर्यादित उपाधि दी थी. वह उनकी नयी पत्नी भले में ही दर्ज हों कानूनी तौर पर वह केशव राय के लिए एक आदरणीय महिला थीं। वह केशव राय के पिता राघव राय की दूसरी पत्नी थीं। नाम था कदम। बात यह थी कि अपनी वृद्धावस्था में राघव राय अपनी किसी पौत्री के विवाह में अपने एक मित्र के यहाँ आमन्त्रित थे। माँ-बाप के मर जाने के कारण और कन्धे पर अपनी एक अनाथ भतीजी के बोझ को सँभाल न पाने के कारण राघव राय ने उस लड़की से शादी कर ली थी। इस तरह घर वालों को कुछ बताये बिना उसे घर लिवा लाये। अपनी पत्नी के मर जाने के लगभग अठारह साल बाद उनके विधुर जीवन के । अधःपतन की यह शुरुआत भर थी।

उनके बेटे केशव राय के भी तब चार-पाँच बच्चे हो चुके थे। केशव के मुकाबले कदम कोई पन्द्रह-साल छोटी थी।

यह विवाह, सचमुच बड़ा ही अटपटा और विचित्र-सा था। बाद में यह भी सुना गया कि कदम का बाप राघव राय के घराने से कुल-गोत्र में निचले स्तर का था। और यही वजह थी कि केशव राय अपने बाप की बडभस को कभी भी ऊँची निगाह से नहीं देख पाते थे। उनके पिता माधव राय गाँव-कस्बे के एक छोर पर रहनेवाली और गाने-बजानेवाली स्त्रियों को जिस तरह तफरीह की नजर से देखा करते थे, केशव राय के दिल में कदम की औकात लगभग वैसी ही थी।

लेकिन मुश्किल तब हुई थी जब राघव राय ने उसे घर के अन्तःपुर में ला बिठाया। इस बात से केशव राय और चिढ़ गये थे। उनके मन में इस औरत के प्रति घृणा का भाव और भी बढ़ गया।

बहुत सम्भव था कि बात यहाँ तक नहीं बढ़ती...अगर कदम विनम्र और सरल स्वभाव की होती...अपनी उड़ान के दौरान इस घोंसले को पाकर या अपनाकर मन-ही-मन इस कुण्ठा से शर्मिन्दा होती रहती कि उसने यहाँ अनधिकार प्रवेश किया है...या फिर केशव की पत्नी को सास की तरह सम्मान दिया होता...तो सम्भव है देर-अबेर केशव राय का भी मन पिघल जाता। लेकिन बात इसके ठीक उल्टी होती चली गयी।

कदम ने लगातार पचीस वर्षों तक मामा के घर अपमान का घूँट चुपचाप पीते हए वहाँ का खाना गले के नीचे उतारा था। कभी तो उसका दिन भी आएगा। और तभी तो वह पाँच-पाँच नाती-पोते वाले बूढ़े के एक बार कहते ही उसके साथ शादी करने को राजी हो गयी थी। कभी तो वह सारा कछ प्राप्त कर सकेगी। मामी ने भी अपनी भांजी को उसके पति के घर विदा करते हुए गहने और कपड़े जैसी बेकार की चीजे न देकर दो-चार तरह का भारी-भरकम उपदेश भर दिया था और अपनी जान छुड़ायी थी।

उन्हीं उपदेशों को माता अष्टमंगला का आशीर्वाद मानकर कदम पति के घर की नौकरानी, महाराजन और यहाँ के टुकड़े पर पलनेवाली स्त्रियों पर दया का भाव दिखाती हुई कहा करती थी, “अरे तुम लोगों ने यह नयी बहू...नयी बहू...की क्या रट लगा रखी है...मैं इस घर की बहू थोड़े न हूँ..."
"तो फिर तुम्हें नयी बहूरानी कहूँ?" महाराजन ने घबराकर पूछा था।

"अरे बहू-बहू कहकर बुलाने की जरूरत भी क्या है ? मैंने तो सुना है कि तुम यहाँ बहुत दिनों से हो।...केशव की माँ-माने बाबू की पहली घरवाली को क्या कहा करते थे?"
महाराजन की आँखें फटी रह गयी थीं। उसने बताया, "उन्हें तो सभी मालकिन माँ कहा करते थे।"
“ठीक है, मुझे भी तुम लोग नयी 'गिन्नी' (गृहिणी) माँ या मालकिन माँ कहकर ही बुलाना।"

कहना न होगा, यह दिलचस्प मामला धीरे-धीरे बेहद दिलचस्प हो गया और सबकी जुबान पर इसकी चर्चा रहने लगी। इसके बाद मजाक-ही-मजाक में सही 'नयी मालकिन...नयी मालकिन' का सम्बोधन उसके लिए रूढ़ हो गया। बात यह थी कि एकदम सामने पड़ जाने पर ही माँ शब्द जोड़कर लोग उसे पुकार लेते थे...वैसे नहीं।
लेकिन कदम ने भी इस बात की बहुत परवाह नहीं की।

उसने बिना किसी परेशानी या दुराव के केशव को 'केशव' और उसकी पत्नी को 'बहूरानी' कहकर अपनी पद-मर्यादा को बनाये रखा। केशव ने अपने जीते-जी कदम के साथ सीधे कोई बात नहीं की थी लेकिन अपनी उम्र से पाँच-सात साल छोटी सास को केशव की पत्नी ने एक दिन टोका था, "वे उमर में तुमसे इतने बड़े हैं उनका नाम लेते लाज नहीं आती तुम्हें ?"

कदम ने मुँह बिचकाकर जवाब दिया था, “इसमें लाज किस बात की ? जब इतने बड़े आदमी के बाप के कान पकड़कर उठाती-बिठाती हूँ तो उसके बेटे का नाम लेने में काहे की शरम ?"
इस जवाब को सुनकर बहूरानी के कान लाज से दिप उठे थे जिसे छिपाने के लिए वह वहाँ से भाग खड़ी हुई थी।

यहाँ इस बात का हवाला देना जरूरी नहीं है कि भण्डार-घर की चाबी को अपने आँचल से बाँध लेने में कदम को कोई खास देर नहीं हुई। उसके आचरण को देखकर किसी की समझ में भी आ सकता था कि वह तमाम हथियारों से लैस होकर लड़ाई के मैदान में उतरी है। और इन सारी बातों को भी सात-आठ साल बीत गये।
अब तो और भी बुरा हाल है।

राघव राय को गुजरे भी दो साल बीत चुके हैं। इसी के साथ कदम का सौभाग्य-सूर्य अस्त हो गया था। केशव की घरवाली अपने छिने हुए गौरव को प्राप्त करने में लग गयी थी। केशव भी यही सोचने लगे थे कि कदम को उसके पाँच साल के बेटे के साथ उसके ममेरे भाई के पास भेज दिया जाए...और हर महीने खाने-पीने का कोई इन्तजाम कर दिया जाए। ठीक ऐसी ही घड़ी में यह खबर उसके कानों में पड़ी थी जिसे सुनकर उसके तन में आग-सी लग गयी थी मानो बिच्छू ने काट खाया हो।
अपने नाबालिग बेटे के हक में कदम ने जमीन-जायदाद का मामला उठाया था। केशव राय के साथ रुपये में आठ आने का हिस्सा पाने के लिए।

आठ आना हिस्सा...? उस लड़के के लिए जिसकी नाक बहती रहती है, पेट में जोंक है, हाथ में कड़ा है, गले में बाघ का नाखून जड़ा है...केशव राय तो यह सुनते ही आग-बबूला हो उठे...बोले, “ठीक है, मैंने तो सोचा था कि हर महीने सारी व्यवस्था कर दूंगा। लेकिन अब...अब तो एक पैसा नहीं दूंगा। जरा मैं भी तो देखू गिन्नी की औकात। में कचहरी में यह साबित कर दूँगा कि राघव राय ने उससे कभी कोई विवाह किया ही नहीं था...बड़ी आयी रखैल कहीं की ? इस वंश में उस बात का कोई गवाह है...कोई पुरोहित गया था वहाँ ? कोई देखा-सुनी हुई थी...कुछ भी नहीं और यह लड़का...राघव राय की अवैध...नाजायज सन्तान है।

केशव राय की घरवाली ने आँखें चौड़ी कर पूछा, “और इस घर में इतने सालों तक नयी गिन्नी रहकर गयी है...इसका कोई जवाब है तुम्हारे पास?"
केशव राय ने उसके सवाल को अनदेखी करते हुए बोले, “आ...दुर... । तुम भी क्या कह रही हो ? मर्द का बच्चा जिन्दा रहता है तो ऐसी ढेर सारी कारस्तानी करता रहता है। लोग हाड़ी-बागदी की छोरियाँ लाकर घर में डाल लेते हैं...यह तो फिर भी ब्राह्मण थी।...और हर कोई तुम्हारे पति की तरह बेदाग चाँद तो होता भी नहीं ?"

इस निष्कलंक चाँद की महिमा सुनकर घरवाली और बिछल गयी और कृतार्थ भाव से बोली, “हाँ...सो तो है...लेकिन क्या अदालत में ही यह फैसला होगा कि उसका सचमुच हम पर कोई दावा नहीं है?"

"और नहीं तो क्या ? ब्राह्मण होने पर भी वे लोग किस पाँत के ब्राह्मण हैं ? कर्मकाण्डी...आचारजी ब्राह्मण । उनके साथ हमारा कोई लेना-देना नहीं है...लो इतनी बड़ी गवाही तो मेरे ही हाथ में है। इसके अलावा सारे गाँव के लोग गवाह हैं...मेरे साथ हैं।"

केशव राय का घराना पिछली सात पीढ़ियों से मामला-मुकद्दमेबाज रहा है। और यही वजह थी कि कदम की आसमान से टकरा जानेवाली हेठी से केशव राय के तन-बदन में आग लग गयी थी। उन्हें कोई डर-वर नहीं था। लेकिन वक्त बदल गया है...कहते हैं...कानून भी अब कमजोरों का ही पक्ष लेता है।

धीरे-धीरे यह भी जान पड़ा कि केशव राय मामले की जितनी अनदेखी कर रहे थे और उसे जितना रफा-दफा करना चाह रहे थे...बात बन नहीं पा रही थी। केस भी आहिस्ता-आहिस्ता पेचीदा होता गया और इससे जुड़ी चीजें बद से बदतर होती चली गयीं।

इधर कदम का ममेरा भाई, उसका साला और उसका बहनोई किसी नाते-रिश्तेदार की तरह इस गृहस्थी में आकर शामिल हो गये। इस युवक ने अभी-अभी कानून की पढ़ाई पूरी की थी और वकालत शुरू की थी। अपनी तैयारी, उत्साह, हर काम में तेजी और मुस्तैदी से इस पक्ष की आँखों में वे बुरी तरह चुभते रहने लगे थे। घर का बँटवारा तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन राघव राय के मरते-मरते चूल्हे-चौके अलग हो गये थे। साथ ही खिड़की और दरवाजे की सहायता से ही दोनों फरीक के बीच ऊँची दीवार खींचने का काम, जहाँ तक सम्भव था, लिया जा रहा था।

आजकल कचहरी से आते ही केशव राय बिछावन पर लुढक जाया करते थे। इस गर्मी से वहाँ जाते-आते उनके सिर में दर्द हो जाया करता था।
"हाँ जी...आज क्या-क्या हुआ?" घरवाली छूटते ही पूछती।
"वह सब तुम नहीं समझोगी," केशव राय गम्भीर स्वर में कहते।
“कम-से-कम हार-जीत के बारे में तो जान सकती हूँ...आखिर कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है ?"

"जब तक अन्तिम तौर पर फैसला नहीं हो जाता...यह सब कोई नहीं जान पाता। एक नया जज आया है...धर्म का अवतार बनता है साला...बस...इसी बात का डर है। और अगर वह कँगला...हरामजादा खून की उल्टी करके मर-मरा जाए तो हर तरफ से बात बन जाए।" इतना कहते-कहते केशव राय उठ जाते हैं।

कहना न होगा, यह कँगला और हरामजादा और कोई नहीं, कदम का पाँच साल का बेटा माणिक लाल है। माणिक केशव राय के पूज्य पिताजी का पुत्र है लेकिन उसका जिक्र जब कभी भी आ जाता है, केशव राय उक्त दोनों सभ्य और विशिष्ट विशेषण के सिवा और किसी शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। और अगर बात कदम की हो रही हो तो वे इन दोनों शब्दों को ही स्त्रीलिंग में बदल दिया करते थे...बस। उन दोनों के बारे में इन खूबसूरत गालियों के सिवा उनके होठों पर और कोई शब्द कभी आते भी नहीं थे।

केशव राय की पत्नी, जो ढेर सारे बेटे-बेटियों की माँ भी थी, मन-ही-मन सिहर उठी थी...यह सब सुनते-सुनते। उसके होठों पर 'पाट...पाट..." अनायास ही आ गया था। उसके बाद ठोढ़ी उठाकर बोली, “मामले की हार-जीत के साथ यह मरने-मारने की बात क्यों है?"

"क्यों है...? है...तुम यह सब नहीं समझोगी। यह सब तुम्हारे मैके की ठिठोली नहीं है। कचहरी और कठघरे में खड़े होकर तुम्हें अपना ऊँचा सिर नीचे भी नहीं करना है," केशव राय तमककर बोलते।

"लेकिन तुम तो कह रहे थे उनको कुछ लेना-देना नहीं है ?"
"अरे एक बार कह दिया न...नहीं !" और केशव राय आँखें लाल किये घर के आँगन में टहलने लगते।
"तो वे वकील और बैरिस्टर न्याय-अन्याय के बारे में कुछ नहीं समझते-बूझते...?"

"नहीं...नहीं समझते-बूझते...स्साले...” केशव राय जैसे फट पड़ते, "जिस बात को समझती नहीं हो उसमें अपनी टाँग मत घुसेड़ो। अब यही सोचकर अफसोस होता है कि जब वह छोरा...कँगला पैदा हुआ था तब उस हरामखोर बुढ़िया धाय से कह-सुनकर और उससे नमक चटवाकर मैंने मरवा क्यों नहीं डाला ?"
फिर भी...जब तक साँस तब तक आस।...
बात चाहे रोग-बलायी की हो या मुकद्दमे की।

रोगी की हालत बिगड़ जाने पर लोग दूर-दराज से डॉक्टर बुलाने को दौड़ते हैं और केस बिगड़ जाता है तो उसकी पैरवी के लिए दूर-दूर से वकील और बैरिस्टर बुलाये जाते हैं। इसी तरह जब कस्वे के वकील से काम नहीं चला तो केशव राय ने कलकत्ता से एक वकील बुलाने की मन में ठान ली। लेकिन उन्हें कोई भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं कर पाया। कदम के साथ राघव राय का विवाह वैध साबित हो चुका था और ऐसा लग रहा था कि इस अबला विधवा और नाबालिग बच्चे के मामले में अदालत का रवैया सौ फीसदी सहानुभूतिपूर्ण है।

अदालती सहानुभूति बटोर लेने में कदम की ओर से जरा-सी भी कोताही नहीं हुई। अदालत में हाजिर होने के दिन वह सोडा लेकर अपने सिर के बाल धोती...कोई मटमैली-सी साड़ी पहनती और चेहरे का हाव-भाव, जहाँ तक सम्भव था, इतना कातर और दयनीय बना लेती थी कि फिर कुछ बताने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी।

'जब तक साँस...आस' वाली कहावत के मुताबिक ही केशव राय एक बड़े कानूनी सलाहकार की सलाह लेने गये थे। डेढ़ बजेवाली गाड़ी से वापस लौटे। उनका जी बुरी तरह खट्टा था।

इधर सुबह से ही...टिपर...टिपर...बारिश हो रही थी और आकाश बादलों से भरा था। स्टेशन पर उतरे तो पाया कि बारिश और तेज हो गयी है। आसमान वैसा ही भरा-पूरा था। उन्होंने यह बताया नहीं था कि किस ट्रेन से लौटेंगे इसलिए स्टेशन पर गाड़ी का कोई इन्तजाम न था। उन्होंने सोचा, घर कोई खास दूर नहीं है, भाड़े पर गाड़ी नहीं लेंगे...पैदल ही चले जाएंगे। उन्हें इस घड़ी किसी की बात न तो अच्छी लग रही थी और न किसी के बारे में वह कुछ कहना-सुनना ही चाहते थे।

सामनेवाली आम सड़क छोड़कर वह घोष घराने की तालाब की साथ वाली पगडण्डी पर से चलने लगे। इसलिए नहीं कि यह रास्ता कहीं छोटा था बल्कि सूना था। अपनी ही धन में चले जा रहे थे वह। अचानक उनकी नजर सामने पड़ी और वह हैरान रह गये। तालाब के एकदम पास ही कौन घूम रहा है...इस समय ? गोपला तो नहीं? हाँ...वही तो है। यह तो अजीब बात है ? इन लोगों ने आखिर क्या समझ रखा है ? और आज के दिन...अपने बेटे को छोड़कर किस इतमीनान के साथ बैठी है। 'इन लोगों से उनका मतलब था केशव की घरवाली। गोपला या गोपाल केशव का छोटा लड़का था। वह घर से यहाँ तक चलकर आखिर आया कैसे ?

केशव तेजी से आगे बढ़ आये बच्चे को पकड़ने के लिए। लेकिन उसके पास आते ही वह ठहर गये और एक अजीब तरह की विरक्ति और खीज भरी सिहरन से उनकी देह लरजने लगी।
उन्हें ऐसा लगा कि उन्होंने ढेर सारा केंचुआ देख लिया हो।
वह गोपाल नहीं था, मानिक था।
मानिक आँधी में पेड़ से गिरी कच्ची इमली बीन रहा था। आस-पास से गुजरने वालों से पूरी तरह बेखबर।

इस घृणाभरी सिहरन के साथ ही, केशव राय के तन-मन में आक्रोश की आग भी धधक उठी थी। यही...यही तो उनके मुकाबले खड़ा है। सारी जमीन-जायदाद का आधा दावेदार। उनके पिछले जनम का दुश्मन। उन्हें याद आया कि पिछले कई दिनों से उन्होंने उसे देखा नहीं है... । दूसरे शब्दों में, देखना नहीं चाहते। कदम अपने बेटे को अपने सबसे बड़े दुश्मन की बुरी निगाह से बचाकर रखना चाहती थी और सहमी रहती थी। उन्हें लगा कि उनके कलकत्ता जाने की खबर उस पक्ष को मिल गयी थी इसीलिए मानिक को घूमने की छूट मिली हुई थी। इसके अलावा एक दूसरा कारण भी था...मुकद्दमा जीतने की मनौती माँगने के लिए कदम माँ आनन्दमयी के आश्रम में फल-फूल चढ़ाने और होम चढ़ाने गयी हुई थी। अगर तीन दिन और तीन रात तक लगातार उस होम की आग को जलाया रखा जा सका तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि जीत उसकी ही होगी।

केशव राय को इन सारी बातों की खबर नहीं थी। उन्होंने तो बस इतना ही देखा कि वह लड़का पता नहीं कैसे अपनी माँ की घेरेबन्दी से छिटककर यहाँ तक आ गया है।
गीली बहती नाक...पेट में जोंक...बाँह पर तावीज और गले में बघनखा।

अचानक केशव राय के मन में एक खूखार हिंस्र भाव पैदा हुआ। प्रतिशोध की यह आग गैर-कानूनी, सभ्यता-विरोधी और मानवता के सर्वथा विपरीत थी। गले में बघनखा डाले उसकी गौरैया जैसी गर्दन को अपने नाखूनी पंजों से दबोच लेने की एक अजीब-सी हवस उठी थी उनके मन में।
बस आधे मिनट का ही तो काम था। सिर्फ तीस सेकेण्ड में उसका सबसे बड़ा शत्रु ढेर हो जाएगा।

केशव राय ने चारों तरफ देखा। बदली घिरी दुपहरिया और तेज चलती हवा ने गाँव-जवार के लोगों को घर के अन्दर बैठे रहने को मजबूर कर दिया था। आस-पास किसी आदमी की छाया तक नहीं थी। वह रास्ता वैसे भी सुनसान पड़ा रहता था और आज तो यहाँ से वहाँ तक एकदम खाली पड़ा था। केशव के जबड़े किटकिटाकर तालु से चिपक गये। उसके हाथों के साथ दसों उँगलियों के नाखूनों में एक अजीब-सी हरकत होने लगी। हथेलियों में मचल रही एक नामालूम बहशी ताकत धीरे-धीरे पूरे तन-बदन में फैल गयी और उस बच्चे की घिनौनी देह को मोड़-मचोड़कर पोखर के कंजे पानी में फेंक देने को तड़प उठी।

यही तो मौका था।
किसी को पता तक नहीं चलेगा।

इस केंचुए को एक ही झटके में कुचलकर पोखर में फेंक दिया जाए और वह लौटती ट्रेन से कलकत्ता लौट जाएँ तो कैसा रहे ? वहाँ किसी भरोसे के परिचित के यहाँ टिक जाएँ, यह बहाना बनाकर कि काम बहुत ज्यादा है और निपटाकर ही जाना है। बस...फिर क्या है...किला फतह।

इस बात की तो बहुत-से लोगों को खबर है कि वह सवेरे वाली गाड़ी से कहीं बाहर गये थे। दिन के बारह बजे तक तो वह वकील के यहाँ ही थे और सफाई में यही सबसे बड़ा सबूत होगा। शाम से अगली रात तक कहाँ थे, इस बात के लिए कोई चश्मदीद गवाह जुटा लें तो फिर तय है कि वह कृष्णनगर में थे ही नहीं। अब्बल तो यह नौबत आएगी नहीं।
और ऐसा हो भी तो केशव राय को भला इस मामले में कौन फंसा सकेगा ?

इस कँगले...हरामजादे...स्साले के टेंटुए की तरफ केशव राय ने खड़े होकर ध्यान से देखा। वह कच्ची इमली चूस रहा था...सबसे बेखबर... ।
केशव राय आहिस्ता-आहिस्ता उसकी तरफ बढ़ आये।
इसके बाद घटित होने वाले सारे दृश्य-एक-एक कर उनके दिमाग में उभरने लगे।

कलेजा पीटती हुई कदम बिलख रही है...बालों को नोच रही है। इसके बाद अपना-मुँह लिये वह चुपचाप सिर झुकाये अपने ममेरे भाई के साथ गाड़ी पर बैठने को जा रही है।
अगर वह नाबालिग लड़का ही आँखें मूंद ले तो वह अदालत में किसके लिए अपना दावा ठोंकेगी।

कदम का बझा और उतरा हुआ चेहरा...हार की बदौलत उसकी नीचे झकी हुई गर्दन की कल्पना कर केशव राय का जी बल्लियों उछलने लगा।...वह चुपचाप आगे बढ़े...एक-एक कदम नापकर और चार कदम।

लेकिन तभी जैसे बिजली के झटके के साथ उसके दिमाग में एक बात आ गयी...गला दबाने पर उँगलियों के गहरे निशान...ये तो बड़े खतरनाक साबित हो सकते हैं। उन निशानों की बुनियाद पर ये स्साले पुलिस वाले हत्यारे को पाताल से भी ढूंढ़ निकालते हैं।...इससे तो अच्छा है कि इस पोखर के पानी में ठेल-धकेल दिया जाए।
यही सबसे अच्छा तरीका होगा।...ठीक है।

पोखर के किनारे ही अभागा छोकरा खड़ा है। पीछे से हलका-सा धक्का लगाने की ही तो बात है...बस काम-तमाम । चूं तक नहीं होगी और होगी भी तो कौन जान पाएगा?
सब लोग यही कहेंगे कि असावधानी के चलते डूब मरा...और क्या...बस यही तो चाहिए। वाह...गजब हो गया।

केशव राय आगे बढ़ते गये।...नजदीक...और नजदीक...। उनकी साँसें तेज होती गयीं...छाती जोर-जोर से धड़कने लगी।..किसे पता है कि किसी की जान लेने पर उतारू हत्यारे का चेहरा कैसा होता है ? कोई नहीं जानता कि उस समय केशव राय की मुख-मुद्रा कैसी हो चली थी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि तब उनके होठों से कोई शब्द फूटा भी था या नहीं ?

अचानक मानिक पोखर की तरफ से मुँह फिराकर खड़ा हो गया लेकिन सामने खड़ी यमराज की मूर्ति देखकर बुरी तरह डर गया और उसने पाँव पीछे हटाना शुरू किया।
एक-दो कदम हटाते हुए वह एकदम पोखर के धार तक चला आया था।
सचमुच...बड़े भैया को वह किसी यमराज की तरह ही देखता था और सहमा-सहमा रहता था।
और इधर...केशव राय ?
उसके एक-एक रोम में अजीब-सा रोमांच था...किसी की हत्या के मामले में नहीं फँसना पड़ेगा। इस लड़के ने उनका काम और भी आसान कर दिया।
बस...दो-तीन कदम...और...

सिर्फ मुँह फाड़कर आतंकित करने भर की ही तो बात है।...फिर सारा खेल तमाम... । नहीं...चीखने या धमकाने की भी जरूरत नहीं। क्या पता यह हवा ही दुश्मन हो जाए।

...बस आँखें तरेरकर देखने से ही काम हो जाएगा। केशव राय की गिद्ध-दृष्टि को देखते ही मानिक की सुध-बुध वैसे ही गुम हो जाती है। यह सब जानी-सुनी-देखी बात है।

अलाव की तरह सुलगती आँखें फाड़कर केशव और भी आगे बढ़ते आये...और मानिक भी एक-एक कदम पीछे हटता गया...डरे से...।

दिन भर की बारिश की वजह से कीचड़ भरे पोखर के किनारे की गीली माटी भहरकर गिर पड़ी...और पलक झपकते केशव राय ने लड़के को एक झटके के साथ अपनी तरफ खींच लिया और उसके गाल पर एक चपत जमाते हुए उसे जोर से झिड़का, “तू किस चूल्हे में कूद रहा था हरामजादे...मरना है क्या ?"

(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)