देवताओं की चिता : आनंद प्रकाश जैन
Devtaon Ki Chita : Anand Prakash Jain
महान् विजेता सिकंदर के निर्विरोध स्वागत के लिए कुमार
आंभी ने तक्षशिला के द्वार खोल दिए। लंबे-चौड़े राजमार्ग पर, छज्जे और
अटारियों पर झुके हुए संख्यातीत आश्चर्य और उत्सुकतापूर्ण नेत्रों में
चकाचौंध उत्पन्न करती सिकंदर की दुर्दम्य सेनाएँ मार्च करती हुई चल रही
थीं। विचित्र प्रकार के उनके लौह कवच, अनदेखे हथियार और उन्मत्त अरबी
घोड़ों को देख-देखकर तक्षशिला के साधारण जन एक-दूसरे के कानों में
कुछ-न-कुछ फुसफुसा रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर बाद दिखाई पड़ने यवन
सेनापतियों की ओर इशारा करके वे लोग बार-बार आस-पास खड़े लोगों से पूछते
थे-
‘‘यही है अलक्षेंद्र, जिसने सहस्रों ब्राह्मणों को मौत के घाट उतार दिया है ?’’
और उत्तर मिलता था, ‘‘नहीं, यह अलक्षेंद्र् नहीं है।’’
तब इस प्रकार अपनी उत्सुकता शांत करनेवालों के कल्पना-पट पर एक और ऐसे
व्यक्ति की काल्पनिक मूर्ति अंकित हो जाती थी, जिसके रूप में मृत्यु के
देवता यम ने अपने सुंदरतम रूप में अवतार लिया था। यह वह देवता था जो आँधी
और तूफान बनकर पश्चिम से उठा था और राह में पड़नेवाले प्रत्येक उस प्राणी
का अस्तित्व उसने इस दुनिया से उठा दिया था, जिसने सिर ऊँचा करके खड़े
होने का साहस किया था।
तक्षशिला में आए सिकंदर को दो दिन हो गए थे और आगे चढ़ाई के लिए नक्शे बन
रहे थे कि तक्षशिला से दस मील दूर रहनेवाले पंद्रह मानवों ने विचित्र
उद्दंडता से उसकी शक्ति को चुनौती दी।
अपनी शक्ति की महानता स्थापित करने के लिए सिकंदर ने तक्षशिला में एक बड़ा
भारी दरबार किया था, जिसमें आंभी के अधीन सभी राजाओं को निमंत्रण मिला था।
उस दरबार का सबसे बड़ा उद्देश्य था भारत के भूपतियों के सामने यूनानी
सम्राट के प्रताप का दिग्दर्शन। इस दरबार में उसके सामने झुक जानेवालों को
यूनानी भेंट दी जाने वाली थी और विद्रोहियों को ऐसे दंड दिए जाने थे,
जिनसे भावी विद्रोहियों का रोम-रोम काँप जाए।
इस अवस्था में सिकंदर के एक उपसेनापति ने दरबार में उपस्थित होकर अपने
स्वामी के प्रति सिर झुकाया और निवेदन किया, ‘‘तक्षशिला के
कुछ साधु महान् विजेता की आज्ञा मानने से इनकार करते हैं!’’
सारे दरबारी अवाक् रह गए। सिकंदर के माथे पर बल पड़ गए। सबको लगा जैसे
यमराज विक्षिप्त होकर तक्षशिला के प्रांगण में चक्कर काट रहे हैं। उसने
मुट्ठियाँ भींचकर कहा, ‘‘उन्हें हमारे सामने पेश
करो।’’
‘‘वे साधु नंगे हैं।’’ उपसेनापति ने कहा,
‘‘महान् सिकंदर की सेवा में उपस्थित किए जाने के योग्य नहीं
हैं। साथ ही वे अपने स्थान से हिलने से भी इनकार करते हैं। वे कहते हैं,
जिन्हें उनके दर्शन करने की इच्छा हो वे ही उनकी सेवा में उपस्थित
हों।’’
सभी व्यक्तियों की दृष्टि सिकंदर के मुख पर जम गई। इस अवहेलना का केवल एक
ही परिणाम होने वाला था-हत्या,मृत्यु और विनाश। आंभी के दुभाषिए ने उसके
कान में सिकंदर के उपसेनापति के शब्द दोहराए और वह चौंक उठा। उसने देखा कि
आक्रमणकारी का चेहरा तमतमा उठा।
इससे पहले कि वह क्रोध में कुछ आदेश देता, आंभी उठा और बोला-
‘‘अलक्षेंद्र का प्रताप दिन दूना और रात चौगुना बढ़े। वे
साधु, जिन्होंने अलक्षेंद्र की अवहेलना की है, इस संसार से परे के प्राणी
हैं। वे संसार के सुख-दुःख, मोह-माया और जीवन-मरण की चिंता से दूर हैं।
साथ ही वे असंख्य भारतीयों के आध्यात्मिक गुरु हैं। यदि महान् सिकंदर ने
अपने क्रोध का विद्युत् प्रहार उन पर किया तो सारा भारत भभक उठेगा और उसके
निवासी बौखला जाएँगें। मुझे पूरी आशा है कि अलक्षेंद्र की महत्ता व्यर्थ
के हत्याकांड में अपना गौरव नष्ट नहीं करेगी।’’
सिंकदर ने आंभी का एक-एक शब्द ध्यान से सुना। देखते-देखते सूर्य के ताप
में शीतलता आ गई। उसने अपने उपसेनापति की ओर लक्ष्य करके कहा,
‘‘हम वीरों को धरती पर सुलाते हैं, कायरों को नहीं। खाली हाथ
सिकंदर का सामना करनेवाला पागल के सिवा और कुछ नहीं है। हम इस शर्त पर उन
पागल साधुओं को माफ करते हैं कि वे हमारे हजूर में आकर हमें अपना दर्शन
बताएँ। उनके दर्शन से महान् अरस्तू का मनोरंजन होगा।’’
अभी खतरा बिलकुल दूर नहीं हुआ था। आंभी ने कहा,
‘‘यूनानाधीश,इस प्रकार उन साधुओं को यहाँ नहीं लाया जा सकता।
बुद्धिबल को केवल बुद्धिबल परास्त कर सकता है। आप यूनान के दर्शन के किसी
प्रतिनिधि को उनके पास भेजें तो संभव है, वे आ सकें। यदि उन्हें लाने के
लिए किसी तरह की जोर-जबरदस्ती उनके ऊपर की गई तो वे इसे मानवीय उपसर्ग
समझकर मौन धारण कर लेंगे और फिर उनकी जबान नरक की यातना भी नहीं खुलवा
सकेगी।’’
सिकंदर ने दाएँ-बाएँ परडीकस, सैल्यूकस,फिलिप और नियारकस जैसे शक्तिशाली
सामंत एवं सेनापति सीना ताने खड़े थे। आस-पास, इधर-उधर यूनान की अतुल
शक्ति के ये प्रतीक सिकंदर की महत्ता और उसके अधिकार की घोषणा कर रहे थे।
वह हँसा।
‘‘महाराज आर्मीस, यूनान बुद्धिबल में भी संसार का नेता
है।’’ वह एक यूनानी सामंत की ओर घूमा-‘‘ओनेसिक्राइटस, तुम महाराज आर्मीस के
साथ जाकर उन साधुओं को हमारे हजूर में लाओगे। यह विरोध हमारा नहीं, महान्
अरस्तू का है और तुम उनकी बुद्धि का प्रतिनिधित्व अच्छी तरह कर सकते
हो।’’
ओनेसिक्राइटस ने गरदन झुकाई-‘‘ मैं महान् अरस्तू की
निधि की रक्षा करूँगा।’’
निमिष मात्र में सारी यवन सेनाओं में उन अद्भुत साधुओं की चर्चा फैल गई,
जिन्होंने शक्ति के देवता की उपेक्षा की थी। इस उपेक्षा के पीछे जो
दार्शनिक शक्ति थी उसे जानने के लिए प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक
ओनेसिक्राइटस व्यग्र हो उठा।
राजसभा समाप्त हो जाने पर ओनेसिक्राइटस के जाने से पहले सिकंदर ने उसे
अपनी सेवा में बुलवाया। उसके कंधों पर हाथ रखकर यवन विजेता बोला,
‘‘तुम समझ रहे हो, यह यूनान की बुद्धि-परीक्षा है। हमने
शस्त्र के बल से पृथ्वी का आधा भाग जीता है और शेष आधा हमारे कदम चूमने के
लिए सिमटता आ रहा है। यदि तुमने इस जीती हुई पृथ्वी की बुद्धि को जीत लिया
तो यूनान की सत्ता अमर हो जाएगी।’’
ओनेसिक्राइटस ने सिर झुकाया, ‘‘यूनान का दर्शन अज्ञेय
है, अविचल है। जुपिटर का बेटा सिकंदर उसका रक्षक है।’’
फिर सिकंदर ने अपने गुरु भाई के साथ एक परिहास किया,
‘‘हम जानते हैं कि तुम्हारी आधी और उत्तम बुद्धि हम फारस में ही छोड़ आए हैं।
लेकिन हमारा विचार है कि इस अवसर के लिए तुम्हारी वर्तमान शक्ति ही काफी
होगी।’’
ओनेसिक्राइटस की वह आधी बुद्धि, यूनानी सौंदर्य की सर्वोत्तम प्रतीक उसकी
रूपसी पत्नी हेलेना थी, जिसे भारत आते समय सिकंदर ने मार्ग की कठिनाइयों
के विचार से फारस में ही रहने को विवश किया था।
महत्त्वाकांक्षी स्वामी से परिहास पाकर ओनेसिक्राइटस को अपनी शक्ति के
प्रति गर्व हुआ और वह मुसकरा उठा।
महाराज आंभी के साथ यूनानी दार्शनिक पूरे साज-बाज के साथ अपने आध्यात्मिक
प्रतिद्वंद्वियों को परास्त करने के लिए चला। तक्षशिला से दस मील दूर जब
यह छोटा सा राजसी दल अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँचा तो उन्होंने देखा कि जेठ
की तपती दुपहरी में कुछ शिलाखंडों पर पंद्रह नग्न मुनि आँखें मींचे साधना
में तल्लीन थे।
इन लोगों को आगे बढ़ता जानकर महाराज आंभी ने
कहा,‘‘सावधान !
इस पवित्र स्थान में जूते पहनकर जाना वर्जित है।’’
सब लोग सहमकर खड़े रह गए। तत्काल तीन दुभाषिए सामने आए। उन्होंने महाराज
के शब्दों का संस्कृत से अरबी, अरबी से लैटिन और लैटिन से यूनानी भाषा में
रूपातंर कर दिया। ओनेसिक्राइटस ने रुष्ट होकर आंभी की ओर देखा।
आंभी ने कहा,‘‘यहाँ की यही रीति है। विद्वान लोग जहाँ
जाते हैं वहीं की रीति-नीति का पालन करते हैं।’’
यूनानी दार्शनिक ने अपने एक पैर का जूता उतारकर पैर पत्थर के सपाट फर्श पर
रखा ही था कि उसके मुँह से एक ‘सी’ की आवाज निकली और
तत्काल
उसका पैर अपने आवरण के भीतर छिप गया। पत्थर लाल तवे की तरह तप रहा था।
उसने आश्चर्य के साथ उन मुनियों की ओर देखा, जो उन पत्थरों पर नंगे बदन
बैठकर ज्ञान का ओर-छोर पकड़ने के लिए तपस्या कर रहे थे। उसकी आँखों ने आज
तक इस तरह का चमत्कार नहीं देखा था।
वह बोला,‘‘महाराज आर्मीस, आपको विश्वास है कि यह किसी
तरह का शोबदा तो नहीं है ?’’
‘‘नहीं !’’ आंभी ने कहा,
‘‘लेकिन लोग
कहते हैं कि देवता इनकी रक्षा करते हैं। यदि ऐसी दैवी शक्ति हो तो उसे
शोबदे का नाम नहीं दिया जा सकता।’’
ओनेसिक्राइटस की आँखों में साधुओं के प्रति प्रशंसा का भाव उदय हुआ। वह
अपने दुभाषिए से बोला, ‘‘इनसे पूछो कि ये लोग नंगे
क्यों हैं
और यह किस तरह की साधना है, जो अकेले बिना किसी साधन के जंगल में बैठकर की
जाती है ?’’
दुभाषियों ने तुरंत उसके प्रश्न का उल्था कर दिया।
एक मुनि ने उत्तर दिया, ‘‘सब प्रकार की हिंसा का
त्याग करके
ही मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। प्रत्येक कृत्रिम वस्तु को बनाने
में मनुष्य अगणित जीवों की हिंसा करता है। उस हिंसा को स्वयं करने से,
किसी से कराने से अथवा किसी की की हुई हिसां का अनुमोदन करने से या उसका
परिणाम ग्रहण करने से हिंसा का समान पातक लगता है। वस्त्रों के बनाने में
भी इसी प्रकार असंख्य जीवों की हिंसा होती है। मनुष्य की आत्मा पाप और
पुण्य के रूप में कर्मों के बंधनों से जकडी हुई चौरासी लाख योनियों में
भ्रमण कर रही है। जन्म-मरण के अपार-दुःख और बंधन से छुटकारा पाने के लिए
और अखंड आनंद के स्थान मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन कर्मों के बंधनों से
छुटकारा पाना आवश्यक है। शरीर को निष्क्रिय रखकर और ध्यान को एकाग्र करके,
शरीर पर पड़नेवाले दुःखों को निर्विकार भाव से सहने से कर्म-फल नष्ट होते
रहते हैं और नवीन कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती। यही हमारी साधना है।
लेकिन तुम कौन हो?’’
‘‘तुम लोगों का विचार कितना भ्रांतिपूर्ण है
!’’
यूनानी दार्शनिक ने उनकी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा,
‘‘मैं
यूनान का निवासी हूँ, विश्वगुरु अरस्तू का शिष्य हूँ और तुम्हें सही मार्ग
सुझाने के साथ-साथ तुम लोगों की विचित्र बुद्धि का रहस्य जानने आया हूँ।
मेरा नाम ओनेसिक्राइटस है।’’
‘‘आश्चर्य है !’’ मुनि ने कहा,
‘‘इतने विद्वान होते हुए भी तुम लोग वस्त्र-आभूषणों
जैसी
अनावश्यक वस्तुओं के लोभ में पड़े हुए हो। जब तक इन वस्तुओं का मोह
तुम्हें सताता रहेगा, तुम कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुम हमें
ज्ञान की शिक्षा देने आए हो ! हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त हो चुका है।
भगवान् जिनदेव महावीर की कृपा से वह ज्ञान आज शत-शत दिशाओं में फूटकर
मानवमात्र को मुक्ति का संदेश दे रहा है। तुम हमारा रहस्य जानने आए हो। जब
तक लौह कवच, वस्त्राभूषण, शस्त्र और केश व पदत्राण आदि तुम्हारे शरीर के
ऊपर लदे रहेंगे, तुम्हें मुक्ति का रहस्य पता नहीं
लगेगा।’’
यह स्पष्ट वर्जना थी। ओनेसिक्राइटस के लिए प्रबल प्रतिद्वंद्वी की यह एक
चुनौती थी। उसने तिलमिलाकर कहा,‘‘जिन वस्तुओं को तुम
अनावश्यक
बता रहे हो वे प्राकृतिक विपत्तियों से मनुष्य की रक्षा करती हैं और इस
प्रकार उसे उन्नति की ओर बढ़ने की शक्ति देती हैं। जीव, आत्मा, हिंसा,
पातक, कर्मफल, पुण्य, मोक्ष...समाज से दूर जंगल में बैठकर, बिना किसी
प्रयोगशाला के तुम लोगों ने जो मूर्खतापूर्ण कल्पनाएँ स्थापित की हैं,
उनसे तुम लोग स्वयं भी कष्ट पाते हो और अपने देश के मानवों में भी भय एवं
आशंकाओं का संचार करते हो। इस दुनिया से दूर की दुनिया जीतनेवाले पहले इस
संसार को जीतते हैं। यदि तुमसे यह संसार नहीं जीता जाता तो जीतनेवालों के
दर्शन करो। संभव है, उनसे तुम्हें कुछ प्रेरणा मिले।’’
‘‘तुम लोग म्लेच्छ हो।’’ मुनि
महाराज ने कहा।
शांत भाव से वह बोले, ‘‘तुम लोगों की बुद्धि सच्चे
धर्म को
नहीं जान सकती। हमारा मार्ग निश्चित है। जिसे जिनदेव का ज्ञान प्राप्त
करना हो वह जिज्ञासु बनकर हमारी तरह साधना करे, तभी उसे सच्चा ज्ञान
प्राप्त हो सकता है। सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने से पहले सच्चे धर्म में
विश्वास करना होगा, तभी मोक्ष मिलेगा।’’
यूनानी दार्शनिक टकटकी लगाए इन विचित्र साधुओं की ओर देखता रह गया, वह
बोला, ‘‘आश्चर्य है कि जिस वस्तु का ज्ञान तक नहीं
पहले उसपर
विश्वास करने से ही तुम्हारे कल्पित मोक्ष तक पहुँचा जा सकता है ! मालूम
होता है कि तुम लोगों ने बुद्धि का दिवाला निकालकर इस तपस्या के बहाने
आत्मघात पर कमर कसी है। तुम अपने विश्वास को अपने पास ही रखो। यूनान की
प्रयोगशालाओं में रात-दिन सच्चे ज्ञान का उद्भव हो रहा है। हम लोग पहले
ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे तरह-तरह की कसौटियों पर कसते हैं, तब उसपर उस
समय तक विश्वास करने के लिए तैयार होते हैं जब तक कोई बुद्धिमान व्यक्ति
उसे गलत सिद्ध न कर दे। महान् विजेता सिकंदर तो तुम लोगों को उन
प्रयोगशालाओं में सच्चे ज्ञान के दर्शन के लिए एक ऐसा अवसर दे रहा है, जो
इस संसार में बिरलों को ही प्राप्त होता है।’’
मुनि महाराज ने मौन धारण कर लिया। भगवान् जिनदेव से ऊपर किसी व्यक्ति की
महत्ता उन्हें स्वीकार नहीं थी। ओनेसिक्राइटस कुछ देर तक प्रतीक्षा में
खड़ा रहा। तब आंभी ने उसे बताया कि अब उसके प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा।
यूनानी दार्शनिक क्षुब्ध हो गया। उसने एक बार दयापूर्ण दृष्टि से उन
मुनियों की ओर देखा, फिर अपने एक अनुचर को लक्ष्य करके बोला,
‘‘इन संवादों को लिख लो, ताकि महान् विजेता सिकंदर भी
इन
लोगों की बुद्धि पर तरस खाए। चलिए, महाराज आर्मीस, मुझे आपके आध्यात्मिक
गुरुओं से बहुत बड़ी निराशा हुई...ज्ञान से पहले विश्वास, आश्चर्य है
!’’
अभी इस दल ने अपनी पीठ मोड़ी भी नहीं थी कि मुनियों के समूह से एक मुनि
उठे और बोले, ‘‘ठहरो ! मैं तुम लोगों के साथ
चलूँगा।’’
सैकड़ों नेत्र एक साथ उनकी ओर उठ गए। मुनियों के अधिष्ठाता के नेत्र भी
खुल गए। उन्होंने कहा, ‘‘यह क्या करते हो ? समस्त
विश्वास,
ज्ञान और चरित्र का विसर्जन करके तुम इन म्लेच्छों के साथ जाओगे ! क्या
अपने लिए रौरव नरक का द्वार खोलना चाहते हो ?’’
जाने के लिए तत्पर मुनि ने गुरु के सम्मान में हाथ जोड़कर कहा,
‘‘भगवन्, पाँच वर्षों की निरंतर साधना के बाद भी न
मैं सच्चा
विश्वास ही प्राप्त कर सका हूँ और न सच्चा ज्ञान ही, चरित्र की तो बात दूर
रही। मोक्ष अभी मुझसे बहुत दूर है, कभी-कभी मुझे शंका होने लगती है। मुझे
अनुभव होता है कि संसार के सभी दर्शनों का ज्ञान प्राप्त करके ही मैं
सच्चा ज्ञान खोज सकता हूँ। ज्ञान तुलना से प्राप्त होता है, एकांत से
नहीं।’’
‘‘तो जाओ,’’ गुरु महाराज ने कहा,
‘‘अभव्य प्राणी को कोई मोक्ष मार्ग पर नहीं ले जा
सकता।
कल्याण हो !’’
ओनेसिक्राइटस प्रसन्नता से फूल उठा। उसने गुरु के अंतिम शब्दों से मुनि के
नाम की कल्पना करते हुए कहा, ‘‘साधु कल्याणजी, हमारे
साथ चलने
के लिए आपको वस्त्र धारण करने होंगे।’’
मुनि कल्याण ने उत्तर दिया, ‘‘सच्चा ज्ञान प्राप्त
करने के लिए मैं नरक में भी जाने को तैयार हूँ।’’
इस प्रकार यूनान के निवासियों का यह छोटा सा दार्शनिक अभियान अभूतपूर्व
सफलता प्राप्त करके लौटा।
सिकंदर के सामने पहुँचकर मुनि ने अभिवादन के स्थान पर अपना हाथ उठाकर उसे
आशीष दिया, ‘‘कल्याण हो !’’
‘‘यूनानी भाषा में हम तुम्हें कैलानोस
कहेंगे।’’
सिकंदर ने कहा, ‘‘तुमने संसार विजेता के रूप में
जुपिटर के
बेटे के दर्शन किए हैं, यूनान पहुँचकर तुम विश्वबुद्धि के विजेता महान्
अरस्तू के दर्शन करोगे।’’
इसके बाद सिकंदर भारत में बहुत थोड़े दिन ठहरा। पौरव के साथ लड़ने में ही
उसे भारत की वीरता और सैन्य-शक्ति का भली प्रकार अनुमान हो गया और वह
समुद्र के रास्ते भारत छोड़कर वापस लौटने की तैयारी करने लगा। तब तक
कैलानोस ने यूनानी सेनाओं में अपने असंख्य मित्र बना लिये थे। क्रूर मानवी
हिंसा से जिन लोगों के हृदय भर गए थे और जो दूसरों के ऊपर दुःख ढाकर स्वयं
अपने परिजनों की याद में जल रहे थे, उनके ऊपर कैलानोस की मीठी और
शांतिपूर्ण वाणी मरहम का काम करती थी। ओनेसिक्राइटस उसका प्रशंसक और मित्र
था। इस मित्रता की परीक्षा का समय एक दिन विकट रूप में आ पहुँचा।
ओनेसिक्राइटस अपने शिविर में बैठा हुआ बहुत मनोयोग से सामने रखे पट पर
कोयले से बनी हुई एक बड़ी पेंसिल से किसी चित्र का आकार खींच रहा था। उसके
होंठ वक्र हो गए थे और उसके मुख पर अपनी कला की ओर से भारी असंतोष दिखाई
पड़ रहा था। उसी समय मुनि कैलानोस शिविर का परदा हटाकर भीतर आए।
ओनेसिक्राइटस ने नीचे-ही-नीचे द्वार की ओर नजर डालकर मुनि के नंगे पैरों
को देखा और मुसकराकर बोला, ‘‘मालूम होता है, जूतों का
अभ्यास
नहीं हो पा रहा है।’’ फिर भी जब उसे उत्तर न मिला तो
उसने
कहा, ‘‘इस चित्र को देखिए। क्या आप इस आकार को सुंदर
कह सकते
हैं ?’’
इसके उत्तर में कैलानोस का उत्तेजित स्वर सुनाई पड़ा,
‘‘मित्र ओनस !’’
स्वर की तीव्रता का आभास पाकर ओनेसिक्राइटस ने आश्चर्य के साथ मुनि के
मुँह की ओर देखा। उनके मुख पर चिंता की छाया और उत्तेजना की बहुत हलकी
लाली दृष्टिगोचर हुई। वह बोला, ‘‘आपको कभी साधारण
लोगों की
तरह विचलित होते नहीं देखा। क्या बात है ?’’
‘‘मित्र ओनस !’’ कैलानोस ने फिर
कहा, ‘‘क्या आप मेरे कुछ काम आ सकते हैं
?’’
ओनेसिक्राइटस का हाथ रुक गया। इस बार वह पूरी तरह घूम गया।
‘‘मैं आपका मतलब नहीं समझा।’’
उसने आश्चर्य के
साथ कहा,‘‘मित्र का क्रियात्मक रूप कुछ काम आना ही
है। इसमें
पूछने की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘आवश्यकता है, इसीलिए पूछा
है।’’ कैलानोस ने
कहा, ‘‘ यह कोई साधारण काम नहीं है, बहुत बड़ा काम
है। मेरी
और आपकी सारी मित्रता इसमें सार्थक हो जाए तो मित्रता का मान हिमालय की
चोटी पर जा पहुँचेगा।’’
यूनानी दार्शनिक की उत्सुकता तीव्र हो गई, ‘‘अब
भूमिका समाप्त कीजिए।’’
‘‘सम्राट अलक्षेंद्र से एक व्यक्ति का प्राणदान दिलवा
सकेंगे
?’’ कैलानोस ने सीधे शब्दों में अपना मतलब कहा,
‘‘मैं अपनी मित्रता को न्योछावर करता
हूँ।’’
ओनेसिक्राइटस के नेत्र फैल गए- ‘‘किसी व्यक्ति के
प्राणदान पर
आप सारी मित्रता को न्योछावर कर रहे हैं ! क्या वह व्यक्ति बहुत प्रिय है
?’’
मुनि ने अपना सिर झुका लिया- ‘‘पाँच वर्षों की कठोर
तपस्या
करके मैंने मोह का दमन कर लिया था। अब मालूम होता है कि उसने फिर सिर
उठाया है। किंतु मैं पहचान नहीं पाया हूँ कि यह मोह है या
केवल...’’
‘‘दया-भावना।’’ ओनेसिक्राइटस ने
बात पूरी की,
‘‘लेकिन सम्राट एलेग्जेंडर इस समय प्रस्थान की तैयारी
में
हैं। देवताओं की इच्छा जानने के लिए उन्हें भेंट देना बाकी रह गया है। यह
काम आज समाप्त हो जाएगा। किंतु मित्रवर, आपने मेरी उत्सुकता को बहुत तीव्र
कर दिया है। वह व्यक्ति कौन है और उसके प्राणों पर किस प्रकार आ बनी है,
यह जानने से पहले सम्राट के सम्मुख उसके प्राणों के लिए सिफारिश करने से
ही सकता है कि स्वयं के ही प्राणों पर आ बने।’’