देवों की घाटी (उपन्यास) : बलराम अग्रवाल

Devon Ki Ghati (Hindi Novel) : Balram Agarwal

(सांस्कृतिक यात्रापरक बाल उपन्यास)

बात बताने की उतावली

दीदी...ऽ...ऽ...दीदी...ऽ...!!

बाहर लॉन में धूप सेंक रहे दादा जी के पास से उठकर निक्की मणिका को पुकार उठा। वहाँ खड़े रहकर उसने एक-दो आवाज़ें और लगाईं, फिर भागकर घर के अन्दर आ गया। यह कमरा, वह कमरा, स्टोर, बाथरूम—उसने सब देख डाले; लेकिन मणिका का कहीं कोई पता न चला ।

‘‘मम्मी! दीदी किधर है ?’’ हताश होकर वह रसोई में गया और ममता से पूछा।

‘‘क्यों, दोनों की कुट्टी दोबारा दोस्ती में बदल गई क्या ?’’ आटा गूँथती हुई ममता ने मुस्कराते हुए पूछा।

‘‘बताओ न मम्मी।’’ निक्की ने पैर पटकते हुए पुनः पूछा।

‘‘पहले तुम बताओ।’’ ममता उसी तरह मुस्कराती रही।

‘‘बताओ न!’’ निक्की रसोई के अन्दर आकर उनकी टाँगों से लिपट गया और नोंचने लगा।

‘‘अरे-अरे, चप्पलें बाहर उतारो।’’

‘‘पहले बताओ।’’

‘‘वह अपनी सहेली के पास गयी है, उसकी एक किताब वापस करने के लिए।’’

‘‘कौन-सी सहेली के पास?’’

‘‘नाम नहीं मालूम। बस, आती ही होगी।’’

‘‘ओफ्फो! यह दीदी भी बस... ।’’

‘‘बात क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं।’’ हताश होकर वह रसोईघर से बाहर जाने लगा था कि तभी हाथ में झाड़ू लिए मणिका सामने से आती दिखाई दी और पलभर में वहाँ आ गयी।

‘‘छतें तो बुहार दी मम्मी।’’ पास आकर वह बोली, ‘‘और क्या करूँ?’’

‘‘बस। अब तुम अपनी सफाई करो, नहाने के लिए जाओ।’’ ममता ने कहा, ‘‘और देखो, भैया तुम्हें ढूँढ रहा है।’’

‘‘दीदी, तू छत पर थी!’’ चकित होकर निक्की ने मणिका से पूछा।

‘‘हाँ।’’

‘‘अपनी सहेली के पास नहीं गई थी?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उसकी किताब वापस करने।’’

‘‘यह किसने कहा तुझसे?’’

‘‘मम्मी ने।’’

‘‘मुझको तो मम्मी ने ही ऊपर भेजा था। छतें बुहारने के लिए ।’’ मणिका बड़े भोलेपन से बोली,‘‘पूछ ले।’’

निक्की का तो पारा ही चढ़ गया उसका जवाब सुनकर। त्यौरियाँ चढ़ाकर उसने ममता की ओर देखा।

‘‘मम्मी...!!’’ गुस्से से चिल्लाता हुआ वह उसकी ओर दौड़ा और उनकी टाँगों से लिपटकर अपने दाँत गड़ा दिये।

‘‘आ...ऽ...!’’ हँसती हुई ममता के गले से हल्की-सी एक चीख निकली और उसे पीटने के लिए ऊपर उठा उसका हाथ आकर जब तक निक्की की कमर पर पड़ता तब तक उसे छोड़कर वह यह जा, वह जा।

‘‘ठहर जा बदमाश!’’ टाँग को सहलाते हुए उसने पीछे से हाँक लगाई।

मौका देखकर मणिका भी निक्की के पीछे-पीछे ही दौड़ गई।

दौड़ता हुआ निक्की सीधा लॉन में बैठे दादा जी के पास जाकर रुका।

‘‘भैया, मैं भी आ गई।’’ पीछे से आकर मणिका ने उसकी आँखों को अपनी अँगुलियों से ढँकते हुए कहा।

‘‘तो मैं क्या करूँ?’’ उसके हाथों को अलग झटककर वह बोला।

‘‘तू मुझे ढूँढ रहा था न!’’

‘‘हाँ...’’ उसके मुँह से निकला, फिर सँभलकर बोला, ‘‘नहीं।’’

‘‘बता न भैया!’’ मणिका उसके एकदम सामने आकर गिड़गिड़ाई।

‘‘हुँह!’’

‘‘दादा जी, आप बताइए न!’’

‘‘नहीं दादा जी! आप नहीं बताना।’’ निक्की ने तुरन्त टोका।

‘‘ठीक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मैं कुछ नहीं बताऊँगा। तुम ही बता दो।’’

‘‘दादा जी ने कहा है दीदी कि...’’ पुलककर निक्की ने बताना शुरू किया लेकिन तुरन्त ही सँभलकर बोला, ‘‘तू पहले दो उट्ठक-बैठक लगा कान पकड़कर।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैंने जोर-जोर से इतनी बार पुकारा, तुझे क्या सुनाई नहीं दिया होगा?’’ वह बोला, ‘‘जवाब क्यों नहीं दिया?’’

‘‘अरे बाबा, मैंने एक बार भी तेरी आवाज सुनी हो, तब न!’’ मणिका बोली।

‘‘फिर भी, ’’ वह नाराज़गी-भरे अन्दाज़ में बोला, ‘‘पहले उट्ठक-बैठक लगा।’’

‘‘दो नहीं, सिर्फ एक लगाऊँगी।’’ समझौता करने वाले अन्दाज़ में मणिका ने कहा।

‘‘नहीं, दो।’’ निक्की ज़िद पकड़ता बोला।

‘‘मत बता। मैं दादा जी से पूछ लेती हूँ।’’ मणिका ने धमकी दी और दादा जी की ओर घूम गई, ‘‘बताइए न दादा जी!’’

‘‘नहीं दादा जी...’’ निक्की तेजी-से चिल्लाया और बाजी को अपने हाथ से खिसकने से बचाने की गरज़ से समझौता करता-सा बोला, ‘‘ठीक है, एक ही लगा।’’

मणिका ने अपने दोनों कान पकड़े और झटके-से बैठकर उठ खड़ी हुई। अपनी इस जीत पर निक्की उछल-सा पड़ा और रौबदार आवाज में बोला, ‘‘आगे कभी-भी अगर मेरी एक ही आवाज़ पर नहीं बोली तो मैं दो से कम उट्ठक-बैठक पर नहीं मानूँगा, बताए देता हूँ।’’

‘‘ठीक है, ठीक है...’’ उसकी इस धमकी पर मणिका उसे झिड़कती-सी बोली, ‘‘ज्यादा भाव मत खा। जो भी बताना है, जल्दी बता।’’

‘‘तेरा आखिरी पेपर किस तारीख को है ?’’ सीधे-सीधे न बताकर निक्की ने उससे सवाल किया।

‘‘इसी सोमवार को है।’’ मणिका ने जवाब दिया।

‘‘उसके कुछ दिन बाद रिजल्ट मिलेगा।’’ अपने द्वारा दी जाने वाली सूचना को मणिका के सामने कुछ-और रहस्यात्मक बनाता हुआ निक्की बोला।

‘‘ठीक इकत्तीस मार्च को।’’ मणिका ने स्पष्ट किया।

‘‘उसके बाद, कुछ दिनों तक दोबारा स्कूल चलेगा।’’ उसके स्पष्टीकरण से अप्रभावित निक्की पूर्ववत् बोलता रहा।

‘‘कुछ दिनों तक नहीं बुद्धू,’’ उसके इस अंदाज से चिढ़ने के बावजूद मणिका लगभग शांत स्वर में बोली, ‘‘पूरे अप्रैल भर।’’

‘‘पूरे अप्रैल भर ही सही।’’ निक्की अपनी लय में बोलता गया, ‘‘उसके बाद मई और जून...पूरे दो महीने की छुट्टी।’’

यों कहकर वह ताली बजाता हुआ उछलने लगा।

‘‘वो तो हर साल ही होती है।’’ मणिका नाराज होती-सी बोली, ‘‘इसमें नई बात क्या है?’’

‘‘नई बात यह है कि मई के अन्त में...’’ वाक्य को अधूरा ही छोड़कर निक्की चुप खड़ा हो गया।

‘‘मई के अन्त में क्या ?’’ मणिका ने पूछा ।

‘‘मई के अन्त में...’’ वाक्य को शुरू करके निक्की पुनः चुप खड़ा हो गया ।

रहस्य बुनने के निक्की के इस अतिरेक से चिढ़कर मणिका पैर पटकते हुए जाती हुई बोली, ‘‘मत बता। मैं भीतर जा रही हूँ।’’

उसको इस तरह जाते देख निक्की थोड़ा घबरा गया। उसे रोकने की गरज से दौड़कर वह उसके सामने जा खड़ा हुआ और बोला, ‘‘सॉरी दीदी, बताता हूँ, रुक जा।’’

मणिका रुक गई।

‘‘मई के अन्त में...’’ निक्की ने बताना शुरू किया लेकिन बताने का अन्दाज़ उसका पहले-जैसा किसी गहरे रहस्य पर से परदा हटाने की तरह का ही रहा। मणिका ने इस बार कुछ सब्र से काम लिया। उसने निक्की की चुप्पी पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। कुछ पल बाद अन्ततः निक्की स्वयं ही बोला, ‘‘मई के अन्त में दादा जी हमें ले जाएँगे...ऽ......ऽ...देवभूमि...गढ़वाल यानी...बदरीनाथ धाम की यात्रा पर।’’

‘‘हुर्रे...ऽ...!’’ यह सुनते ही मणिका खुशी से उछल पड़ी । दौड़ती हुई वह वापस दादा जी के निकट जा पहुँची और पूछने लगी, ‘‘निक्की सच कह रहा है दादा जी?’’

‘‘एकदम सच!’’ दादा जी मुस्कराते हुए बोले।

‘‘हुर्रे...ऽ...!’’ दादा जी का जवाब सुनते ही मणिका एक बार पुनः किलक उठी ।

‘‘आप कितने अच्छे हैं दादा जी!’’ दादा जी को अपनी नन्हीं बाहों में घेरने की कोशिश करते हुए वह बोली, ‘‘यह बात मम्मी को बता दूँ?’’

‘‘अभी नहीं।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘पहले अपनी परीक्षाएँ समाप्त करो। अच्छा ग्रेड लेकर अगली कक्षा में पहुँचो। पहले सेशन की एक महीना पढ़ाई करो। उसके बाद गर्मी की छुट्टियों में तय करेंगे कि कहाँ जाना है—बदरीनाथ या कहीं-और!...और, तुम लोगों को साथ ले चलना है या नहीं।’’

‘‘दादा जी!!’’ दोनों बच्चों ने शिकायती स्वर में एक-साथ कहा ।

‘‘अब जाओ। घर की, और अपने शरीर की सफाई करो। खाओ-पीओ और पढ़ो।’’ दादा जी ने हँसते हुए कहा।

निक्की और मणिका दोनों दादा जी के पास से उठ खड़े हुए। एक-दूसरे की गरदन में बाँहें डालकर वे बुझे मन से घर के भीतर की ओर चल दिए। उन्हें इस तरह जाते देखकर दादा जी धीरे-से मुस्कराए और कुर्सी को धूप में खिसकाकर अखबार पढ़ने में तल्लीन हो गए।

स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम

परीक्षाएँ समाप्त हुईं। परिणाम घोषित हुए। मणिका और निक्की दोनों ही अपनी-अपनी कक्षाओं में ए-प्लस ग्रेड लेकर पास हुए। एक भव्य समारोह में स्कूल के प्राचार्य ने उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सभी छात्र-छात्राओं को पुरस्कार तथा प्रशस्तिपत्र प्रदान किये।

आगामी दिन से स्कूल पुनः खुला। अत्यन्त प्रफुल्लित मन से बच्चे नयी कक्षाओं में जाकर बैठे। नयी पुस्तकों के बीच उनका चहकना उनकी खुशी की गवाही देता था। लेकिन उनके मन पर यह दबाव भी हमेशा बना रहता था कि कब एक महीने का यह नया सेशन समाप्त हो और कब पढ़ाई के इस बंधन से मुक्त हो कुछ दिनों के लिए वे सैलानी बन जाएँ।

इस चिन्ता के चलते दोनों बच्चों ने बड़ी बेसब्री के साथ पहले सेशन की पढ़ाई समाप्त की।

छुट्टियाँ घोषित करने वाले दिन प्राचार्य महोदय के लिखित अनुरोध को स्वीकार कर अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ स्कूल पहुँचे। सभी अभिभावकों को अध्यापकों व स्कूल के अन्य स्टाफ की मदद से आदर सहित स्कूल-भवन के सेमिनार कक्ष में निर्धारित सीटों पर बैठाया गया। छात्र-छात्रएँ अपनी-अपनी कक्षा में बैठे। प्राचार्य महोदय ने सभी छात्रों को पंक्तिबद्ध होकर स्कूल-भवन के सेमिनार कक्ष में इकट्ठा होने का आदेश भिजवाया था। अध्यापकों ने अपनी अनुपस्थिति में इस कार्य को सम्पन्न करने का जिम्मा प्रत्येक कक्षा के मॉनीटर को सौंपा था। लाइन में लगकर सभी बच्चे कक्षा-मॉनीटर्स की देखरेख में वहाँ पहुँच गये। निगम पार्षद और इलाके के विधायक सहित क्षेत्र के कुछ अन्य गण्यमान्य लोग भी स्कूल-प्रशासन के आमन्त्रण पर आए हुए थे। उन सबको मंच के ठीक सामने सोफों पर बैठाया गया था। प्राचार्य एवं अध्यापकगण भी सोफों पर बैठे तथा समस्त छात्र उनके पीछे लगी कुर्सियों पर।

कार्यक्रम शुरू हुआ।

सबसे पहले आमन्त्रित गण्यमान्य लोगों द्वारा विद्या की देवी ‘माँ सरस्वती’ की ताम्र-प्रतिमा के आगे रखे दीपों को प्रज्वलित कर उन्हें पुष्प अर्पित किए गए। तत्पश्चात् विद्यालय की संगीत अध्यापिका के निर्देशन में तैयार कुछ छात्र-छात्रओं द्वारा संगीतमय सरस्वती-वन्दना प्रस्तुत की गई :

माँ शा...ऽ...रदे! वर दे।

वरदे...ऽ...! वर दे।

श्वे...ऽ...त पद्मा......ऽ...सने! चरणों...ऽ... में शरण दे।

वरदे...ऽ...! वर दे।

उसके बाद अन्य छात्र-समूहों ने अनेक रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिनमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि अनेक राज्यों के लोकनृत्य तथा सामयिक, सामाजिक व राजनीतिक समस्याओं पर आधारित कुछ लघु एकांकी लोगों को बहुत भाए।

सांस्कृतिक कार्यक्रम समाप्त हुआ।

निगम पार्षद व विधायक आदि प्रमुख मेहमानों ने अपने-अपने भाषण में स्कूल-प्रशासन के इस सद्प्रयास की, कि बच्चों में पढ़ाई के साथ-साथ उसने कलाओं के प्रति भी उनकी रुचि को बनाए रखने वाले कार्यक्रमों से उन्हें जोड़कर रखा है, भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा कार्यक्रम में भाग लेने वाले सभी बच्चों को उत्साहवर्द्धन हेतु कुछ-कुछ नगद राशि भी भेंट की।

अन्त में, प्राचार्य महोदय ने घर में, विद्यालय में तथा शेष समाज में अनुशासन एवं आचार-विचार संबंधी कुछ बातें बच्चों से कही तथा अभिभावकों व आगन्तुकों का आभार व्यक्त कर जून माह के तीसरे रविवार तक विद्यालय की छुट्टियाँ घोषित कर दीं।

छुट्टियाँ घोषित होते ही सभागार में एकदम मौन बैठे छात्र-छात्रओं में खुशी की लहर दौड़ गई। कुछ बच्चे प्राचार्य महोदय व अपने अध्यापक की अनुशासन बनाए रखने की बात को ध्यान में रखते हुए शान्त बैठे रहे लेकिन अधिकतर छात्र-छात्र कुर्सी से उछल ही पड़े—हुर्रे...ऽ...!

सभागार में उपस्थित अध्यापकगण व मॉनीटर्स भी जैसे इस खुशी में शामिल हो गये हों। उनमें से किसी ने भी उनसे शान्त हो जाने और अनुशासन बनाए रखने का न तो अनुरोध किया और न ही आदेश दिया। प्राचार्य भी गणमान्य लोगों को साथ ले चुपचाप सभागार से बाहर निकल गए, जैसे कि वे भी जानते और मानते हों कि स्कूल की छुट्टियाँ हो जाने की घोषणा सुनकर बच्चों द्वारा प्रफुल्लित होना स्वाभाविक है और अपनी इस खुशी को खुलकर प्रकट करने का उन्हें पूरा अधिकार है।

निक्की और मणिका के साथ मम्मी-पापा के स्थान पर दादा जी स्कूल आए थे। विद्यालय प्रशासन ने बुजुर्ग आगन्तुकों के बैठने का इन्तजाम आमन्त्रित अतिथियों के साथ ही विशेष रूप से डाले गए सोफों पर किया था। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद छुट्टियों की घोषणा होने के साथ ही निक्की और मणिका अन्य बुजुर्ग अभिभावकों के साथ बैठे दादा जी के पास जा पँहुचे और उनकी गरदन में लटक गए।

घर लौटते हुए

दादा जी के साथ स्कूल से घर लौटते हुए दोनों बच्चे रास्तेभर आगामी यात्रा के बारे में ही परस्पर चर्चा करते और खुश होते रहे। घर पहुँचकर वे चहकते हुए ममता के पास पहुँचे और एक-एक कर उन्होंने विद्यालय में हुए सारे रंगारंग कार्यक्रमों के बारे में बताना शुरू कर दिया। कभी निक्की बताते हुए बीच में कुछ भूल जाता तो मणिका उसमें संशोधन करती और मणिका कुछ भूल जाती तो निक्की उसमें संशोधन करता।

दादा जी ने मना न कर रखा होता तो एक ही झटके में वे लम्बी यात्रा पर ले जाने की उनकी बात भी बोल ही चुके होते। सारी बातें मम्मी को बताने के दौरान उन्होंने कैसे अपनी जुबान पर काबू रखा, इसे बस वे ही समझ सकते थे।

मणिका को जब यह महसूस होने लगा कि अब अगर वे थोड़ी देर भी मम्मी के पास रुके तो मन की बात जुबान पर आ ही जायगी, तब बहाना बनाकर वह निक्की को वहाँ से खींचकर बाहर ले गयी।

यात्रा की तैयारियाँ

उसके बाद बाकी ग्यारह दिनों तक दादा जी ने उन्हें यात्रा के दौरान काम आने वाली जरूरी चीजें बताने और उन्हें इकट्ठा करने में व्यस्त रखा। रस्सी, चाकू, एक छोटा और एक बड़ा ताला, टॉर्च, लाइटर, दो इलैक्ट्रॉनिक लालटेनें, मोमबत्तियाँ, दो-चार क्लिप्स, बैंड-एड्स, नेपकिन्स, टिश्यू पेपर, नहाने व कपड़े धोने के लिक्विड साबुन, टूथपेस्ट, हाजमे की गोलियाँ और चूर्ण। पहनकर चलने के लिए कपड़े के जूते, सिर ढँकने के लिए गर्म टोपियाँ व मफलर, स्कार्फ। और-भी पता नहीं क्या-क्या।

“एक काम और करना है…” दादा जी ने एक दिन कहा।

“क्या दादा जी?” दोनों ने एक-साथ पूछा।

“ममता से कहना—तुम्हारे कपड़ों को इस तरह सेट करे कि जो कपड़े इस्तेमाल हो चुके हों, उन्हें वापस उसी ब्रीफकेस में न रखना पड़े।”

“तो?” निक्की ने पूछा।

“तो यह कि साफ कपड़े एक ब्रीफकेस में और गन्दे कपड़े दूसरे ब्रीफकेस में।”

“मैं समझ गयी दादा जी।” मणिका बोली, “ऐसा करने से हमें हर बार सारे के सारे कपड़े उलटने-पलटने नहीं पड़ेंगे। है न !”

“बहुत समझदार लड़की है।” उसकी बात पर दादा जी खुश होकर उसके सिर पर हाथ फिराते हुए बोले।

ठीक पहली जून को हुआ, उनकी यात्रा का शुभारम्भ। जल्दी करते-करते भी ये लोग दोपहर के बाद ही घर से निकल पाए। प्रसन्न मन से निक्की और मणिका टैक्सी में सवार हो गए। उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि मम्मी और डैडी भी दादा जी के साथ आ रहे हैं।

‘‘मम्मी, डैडी आप भी!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।

‘‘जी हाँ, हम भी।’’ सुधाकर ने रौब के साथ कहा। ममता केवल मुस्कराकर रह गई।

‘‘दादा जी, आपने तो हमसे कहा था कि यात्रा पर जाने की बात लीक आउट नहीं करनी है!...’’ इस पर मणिका ने शिकायतभरे अन्दाज में दादा जी से कहा, ‘‘सरप्राइज़ देना है।’’

‘‘हाँ तो, मिल गया न सरप्राइज़।’’ सुधाकर बोला,‘‘हमें न सही, तुम्हें।’’

‘‘दिस इज़ चीटिंग दादा जी!’’ निक्की दादा जी से रूठने के अन्दाज़ में बोला।

‘‘मैंने कोई चीटिंग नहीं की।’’ दादा जी बोले, ‘‘मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने जो बात छिपाए रखने को कहा था, उसे दोनों पक्षों ने निभाया।’’

बच्चों ने इसके बाद कोई शिकायत नहीं की क्योंकि वास्तव में तो वे खुश थे कि मम्मी-डैडी भी उनके साथ यात्रा पर चल रहे हैं।

यात्रा की शुरुआत

यात्रा शुरू हुई।

‘‘पहली बार अब से दस साल पहले गए थे हम इस यात्रा पर, है न बाबूजी?’’ टैक्सी आगे बढ़ी तो सुधाकर ने बात शुरू की, ‘‘निक्की तो तब पैदा भी नहीं हुआ था।’’

‘‘ठीक कहता है।’’ दादा जी ने हामी भरी, ‘‘लेकिन तब हम टैक्सी से नहीं, ट्रेन से गए थे और तेरी मम्मी और बच्चों का चाचा विभाकर भी साथ थे।’’

‘‘मम्मी जी इस बार विभाकर भैया के साथ मैसूर, ऊटी की यात्रा का आनन्द लेने गई हैं।’’ ममता बोली, ‘‘वे इस बार भी हमारे साथ ही रहतीं तो कितना मज़ा आता।’’

‘‘ठीक है बहू, वह साथ रहती तो परेशान ही ज्यादा करती।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘तुम्हें तो पता ही है कि यात्रा में उसे उल्टियाँ आने की बहुत तगड़ी बीमारी है।’’

‘‘वह बीमारी भी झेल ही ली जाती बाबूजी।’’ ममता ने कहा, ‘‘अब विभाकर भैया भी तो उसे झेलेंगे ही।’’

‘‘चलो अब मज़ा किरकिरा न करो बार-बार उसका नाम लेकर।’’ दादा जी शरारती अन्दाज़ में बोले।

‘‘बाबूजी...!’’ ममता ने बनावटी तौर पर आँखें दिखाते हुए तुरन्त उन्हें टोका, ‘‘आने दो मम्मी जी को...उन्हें बताऊँगी यह बात।’’

‘‘अरे, तू सीरियसली मत लिया कर मज़ाक को।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘...और आप लोग जो मज़ाक-मज़ाक में कह जाते हो सीरियस बात को, उसका क्या?’’ ममता ने तर्क पेश किया। फिर सुधाकर की ओर इशारा करके बोली, ‘‘पता है, ये कितनी सीरियस बातें कर जाते हैं मुझसे? और पकड़े जाने पर कहेंगे—मैं तो मज़ाक कर रहा था। एकदम आप ही पर गए हैं...।’’

‘‘अरे, उनका बेटा हूँ तो उन्हीं पर जाऊँगा न!’’ उसकी बात सुनकर सुधाकर बीच में बोल उठा।

‘‘बेटे तो मम्मी जी के भी हो, उन पर क्यों नहीं गए?’’ ममता ने पूछा।

‘‘कुछ बातों में तो उन पर भी गया हूँ।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘वो तुमसे डरती हैं, मैं भी डरता हूँ।’’

‘‘हे भगवान! माफ कर देना अगर मैंने एक पल के लिए भी उन्हें डराए रखना चाहा हो...’’ सुधाकर की इस बात पर ममता अपने दोनों कानों को हाथ लगाकर रुआँसी आवाज में बोली।

‘‘बस हो गई छुट्टी!’’ पीछे बैठी मणिका के मुँह से निकला, ‘‘आपने मम्मी का मूड ऑफ कर दिया डैडी।’’

‘‘अब मज़ाक की बात को सीरियसली लेगी तो इसका क्या हमारा भी मूड आफ हो जाएगा।’’ सुधाकर ने कहा, फिर ममता की ओर कान पकड़कर बोला, ‘‘सॉरी यार!’’

‘‘मम्मी, कम ऑन यार!’’ पीछे से निक्की बोला, ‘‘मै आपके साथ हूँ।’’

‘‘मैं भी।’’ मणिका ने कहा।

‘‘और मैं भी...’’ दादा जी बोले।

‘‘और मैं तो बैठा ही इनके साथ हूँ।’’ सुधाकर ने कहा। फिर ममता से बोले, ‘‘नो टियर्स ड्यूरिंग द जर्नी माई डियर...यात्रा पर निकले हैं, हँसती-मुस्कराती रहो।’’

ममता ने सिर्फ गरदन हिलाकर हामी भरी और लम्बी साँस खींचकर तनकर बैठ गई।

‘‘मान गई!’’ उसकी मुखमुद्रा से प्रसन्न होकर सुधाकर बच्चों की तरह ताली बजा उठा।

ममता हँस दी।

पुरानी यादें

‘‘हाँ, तो बात यह चल रही थी कि पिछली बार टैक्सी से नहीं, ट्रेन और बसों से यात्रा की थी हमने।’’ माहौल को पुनः पहले-जैसा रूप देने की नीयत से दादा जी बोले।

‘‘हाँ,’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘टैक्सी से जाने लायक तब अपनी आमदनी ही कहाँ थी बाबूजी?’’

‘‘रेलवे-स्टेशन पर पहुँचकर करीब दो घण्टे तक ट्रेन का इन्तज़ार करना पड़ा था, याद है?’’ दादा जी ने पूछा ।

‘‘खूब याद है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘उन दिनों आज की तरह यह सुविधा भी तो नहीं थी कि ट्रेन के आने का सही समय रेलवे की इंटरनेट साइट पर देख लें। अब तो मोबाइल सेट पर ही मालूम हो जाता है सब कुछ।’’

‘‘हाँ, रेलवे स्टेशन पहुँचने पर जब ट्रेन के लेट आने की खबर मिलती थी तो कितनी कोफ्त होती थी।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा लगता था कि सारी भागदौड़ बेकार गई।’’

‘‘बिल्कुल यही बात थी।’’ सुधाकर बोला, ‘‘यह भी होता था कि रेलवे स्टेशन पर अभी, कुछ देर पहले ट्रेन के आने की उद्घोषणा भी हो चुकी होती थी, लेकिन ट्रेन नदारद। उसका इन्तज़ार तब बोरियत में बदलने ही लगता था।’’

‘‘और फिर, प्लेटफार्म पर अचानक हलचल-सी मचती थी। प्लेटफार्म के किनारे पर खड़े होकर उत्सुकता से ट्रेन के आने की दिशा में झाँक रहे लोग स्फूर्ति से भर उठते थे। बहुत दू...ऽ...र, सामने से आती गाड़ी का इंजन काले धब्बे-सा दिखाई देता था। उसे देखते ही वे वापस अपने सामान और बीवी-बच्चों की ओर लपकते थे।’’ दादा जी ने जोड़ा ।

‘‘मर्द की झिड़कियों से डरे-सहमे बीवी-बच्चे सामान के पास खड़े रहते थे। बीवी सोचती थी कि उसे जब न घर में इज्जत मिलनी है और न बाहर, तो औरत को ऊपर वाले ने बनाया ही क्यों? और बच्चे सोचते थे कि जब पापा जितने बड़े हो जाएँगे तब वे भी प्लेटफार्म के किनारे खड़े होकर गाड़ी को झाँकेंगे और बाँह पकड़कर अपने बच्चों को भी झाँकवाएँगे। यह नहीं कि खुद तो मज़ा लेते रहें और बच्चों को डराते-धमकाते, पीटते रहें।’’ सुधाकर बोला।

‘‘यह, तूने बचपन से अपने मन में दबी बात आज बोल ही दी।’’ सुधाकर की इस बात पर दादा जी ने चुटकी ली।

‘‘अरे नहीं बाबूजी, मैं तो नारी-मन और बाल-मन में उभरने वाली एक सामान्य-सी इच्छा को शब्द दे रहा था।’’ दादा जी के टोकने पर सुधाकर ने संकोचभरे स्वर में कहा।

सभी हँस दिए।

टैक्सी धीरे-धीरे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी।

‘‘अच्छा छोड़।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘फिर से पुरानी कमेन्ट्री पर आजा।...ट्रेन तेजी से आई और धीमी होते-होते प्लेटफार्म पर आकर रुक गई।’’

‘‘बाबूजी भी पूरे मूड में नज़र आ रहे हैं!’’ दादा जी की इस बात पर ममता ने चुटकी ली।

‘‘मूड में क्यों न नज़र आऊँ बहू...’’ ममता की बात पर दादा जी तपाक-से बोले,‘‘इसके कई फायदे हैं। पहला यह कि पुरानी बातें ताज़ा हो जाएँगी वरना हम बूढ़ों के ज़माने की बातें आजकल सुनता कौन है? दूसरा यह कि इस तरह सफ़र मज़े में कट जाएगा, क्यों बच्चो?’’

‘‘जी दादा जी, मज़ा आ रहा है।’’ दोनों बच्चे करीब-करीब एक साथ बोले, ‘‘आप दोनों पुराने दिनों की बातें करते रहिए।’’

‘‘चलो, चलो...सामान उठाओ और रिज़र्वेशन वाले डिब्बे की ओर बढ़ो।’’ बच्चों की बात खत्म होने से पहले ही सुधाकर इस तरह बोले कि टैक्सी में बैठे दादा जी, ममता और बच्चे, यहाँ तक कि टैक्सी का ड्राइवर भी एकबारगी चौंक पड़ा। उसने टैक्सी के ब्रेक दबाकर उसकी रफ्तार काफी धीमी कर दी और बायीं ओर का सिग्नल देकर उसे साइड में ले आया।

‘‘बीवी और बच्चों से यह कहता हुआ बाप सामान को अपने सिर और कंधों पर लादना शुरू करता था...या फिर, पहले से ही तय कर रखे कुली को पुकारता था और बच्चों को इधर-उधर यानी बाँह, कन्धा, कॉलर जो हाथ में आ जाए वहाँ से उन्हें पकड़कर तेजी-से गाड़ी की ओर लपकता था।’’ यों कहते हुए जब उन्होंने अपनी बात पूरी की तो सड़क के एक ओर खड़ी हो चुकी टैक्सी में पसरा सन्नाटा जोर के ठहाके के साथ टूट गया।

‘‘इतना सीरियसली बोला यार तू...कि मैं तो डर ही गया।’’ ठहाका रुका तो दादा जी ने सुधाकर से कहा।

‘‘मेरा तो पैर ब्रैक को तेजी से दबाते-दबाते किसी तरह बस रुक गया...’’ टैक्सी-ड्राइवर नाराज़़गी के स्वर में चहका, ‘‘आप जितनी चाहो बातें करो सर जी, लेकिन इतना सीरियस ड्रामा न क्रिएट करो कि मुझसे कोई चूक हो जाए।

‘‘सॉरी यार,’’ उससे माफी माँगते हुए सुधाकर बोला, ‘‘दरअसल, मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि हम टैक्सी में बैठे हैं। उधर बाबूजी ने आदेश दिया और इधर मैं तुरन्त शुरू हो गया।’’

ड्राइवर ने उसके बाद कुछ नहीं कहा। गाड़ी को स्टार्ट कर गियर में डाला और आगे बढ़ चला।

‘‘अच्छा, एक बात जो हमें शुरू में ही कर लेनी थी, अब कर लें?’’ सुधाकर ने उससे कहा।

‘‘क्या बात?’’ ड्राइवर ने पूछा।

‘‘अरे भाई, पहली गलती तो यह कि हमने आपसे आपका मोबाइल नम्बर नहीं लिया और दूसरी यह कि आपका नाम अभी तक नहीं जाना।’’

‘‘मोबाइल नम्बर तो आपके मोबाइल पर आया हुआ है ही।’’ ड्राइवर बोला,‘‘घर के पास पहुँच जाने की सूचना देने के लिए मैंने आपको फोन किया था।’’

‘‘हाँ...’’ जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसके ऑपरेशन्स को खोलते हुए सुधाकर बोला,‘‘नाम बताओ, सेव कर लेता हूँ।’’

‘‘अल्ताफ।’’

‘‘ए एल टी ए एफ...’’ मोबाइल में उसका नाम सेव करते हुए सुधाकर बुदबुदाया फिर उससे बोला, ‘‘ठीक है?’’

‘‘जी।’’ उसने कहा।

‘‘अब हम आपको ‘आप’ नहीं, छोटे भाई की तरह ‘तुम’ कहेंगे और अल्ताफ कहकर ही पुकारेंगे।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘जी।’’

‘‘अब, कल्पना कीजिए बाबूजी कि पुराना ज़माना है, आप निक्की और मणिका को लेकर रेलवे स्टेशन पर आ बैठे हैं...मम्मी जी साथ में हैं। वही, पुराने जमाने वाला सीन।’’ अल्ताफ को छोड़कर सुधाकर ने दादा जी से बातें करना शुरू किया, ‘‘अचानक ट्रेन आ जाती है और आप इन्हें लेकर अपना कम्पार्टमेंट ढूँढने लगते हैं...’’

‘‘कर ली कल्पना...’’ दादा जी अपनी आँखें मूँदकर बोले, ‘‘भागती हुई भीड़ में इन दोनों का हाथ थामे मैं और तेरी मम्मी कुली के पीछे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं ।’’

‘‘तभी आपको मेरी आवाज़ सुनाई देती है—बाबू जी...मम्मी जी...इधर...इधर...आप दोनों से भी पहले बच्चे मेरी आवाज़ की दिशा में देखते हैं।...उसी दौरान आपका भी ध्यान मेरी ओर चला आता है। आप सब मेरी ओर दौड़ आते हैं।...’’

‘‘तू हमारे रिज़र्वेशन वाले डिब्बे के बाहर खड़ा है।’’ दादा जी ने आँखें मूँदे-मूँदे ही बोलना शुरू किया, ‘‘हम तेरे पास जा पहुँचे हैं। कुली के सिर से बिस्तरबंद व सूटकेस उतरवाकर तूने शीघ्रता से डिब्बे में रख दिया है और एक-एक कर बच्चों को और अपनी मम्मी को उसमें चढ़ा दिया है। सब के बाद मैं भी डिब्बे में चढ़ गया हूँ। तूने आगे बढ़कर मेरे और अपनी मम्मी के पाँव छुए हैं और अब बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहा है।’’ यों कहकर दादा जी एक पल को चुप हुए, फिर बोले, ‘‘तुम कैसे आ गए?…मैंने तुझसे पूछा।’’

कार में नाटक

ममता और दोनों बच्चे चलती हुई टैक्सी में उन बाप-बेटे द्वारा बैठे-बैठे खेला जा रहा यह ड्रामा देखते-सुनते रहे। अल्ताफ हालाँकि तन्मयता से गाड़ी चला रहा था तथापि ड्रामे का मज़ा वह भी ले रहा था। इस बात का प्रमाण उसके होठों पर बीच-बीच में आ जाने वाली मुस्कान थी। टैक्सी में अब भूतकाल का ड्रामा शुरू हो चुका था।

‘‘अचानक ही रेलवे इन्क्वायरी पर पूछताछ की थी,’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘पता चला कि गाड़ी दो घण्टे लेट है। बड़ा मलाल हुआ। सोचा, घर से आपके निकलने से पहले ही मालूम कर लेता तो अच्छा रहता। आप बेकार ही प्लेटफार्म पर बोर हो रहे होंगे। बस, ऑटो किया और चला आया।’’

‘‘चलो अच्छा हुआ ।’’ दादा जी बोले, ‘‘तुम न आते तो हमें शायद सारे डिब्बे झाँकने पड़ते।’’

‘‘अरे नहीं बाबूजी, इन कुलियों को सारे डिब्बों की पोजीशन और लोकेशन मालूम रहती है कि कौन-सा कम्पार्टमेंट इंजन से कितना पीछे लगता है और प्लेटफार्म पर किस जगह पर आकर रुकता है।’’

‘‘हम लोग अभी ये बातें कर ही रहे हैं कि गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी। उसकी आवाज़ सुनकर ट्रेन में सबसे पीछे लगे अपने डिब्बे के गेट पर खड़े होकर गार्ड ने हरी झंडी हिला दी है और गाड़ी ने प्लेटफार्म से खिसकना शुरू कर दिया है।’’ दादा जी उसी अवस्था में बोलते रहे, ‘‘अरे, गाड़ी चल दी! तेरी मम्मी ने चौंककर अचानक कहा है। तुम कम्पार्टमेंट से उतरने के लिए चल दिए हो। सँभलकर उतरना—मैं तुमसे कह रहा हूँ। जी बाबूजी—कहकर तुम नीचे उतर गए तथा प्लेटफार्म पर खड़े होकर हमें विदा देने के लिए अपना दायाँ हाथ हिलाने लगे हो। बच्चों ने भी प्लेटफार्म पर खड़े अपने पापा को अपना-अपना हाथ हिलाते हुए ‘टा-टा’ कहना शुरू कर दिया है।’’ यों कहकर दादा जी ने अपनी आँखें खोल लीं और बोले, ‘‘ट्रेन ने गति पकड़ ली है। प्लेटफार्म और उस पर खड़े तुम दू...ऽ...र, बहुत दू...ऽ...र छूट गए हो, हम अपनी सीट पर बैठ गए हैं।’’

‘‘वा...ऽ...व! क्या लाइव ड्रामा क्रिएट किया डैडी जी और दादा जी ने मिलकर। मज़ा आ गया।’’ मणिका बोली।

‘‘आखिर डैडी और दादा हैं किसके...’’ निक्की अपनी पीठ आप थपथपाता हुआ बोला, ‘‘मेरे!’’

‘‘अकेले तेरे नहीं,’’ मणिका ने कहा, ‘‘मेरे भी।’’

‘‘हम दोनों के।’’ निक्की ने कहा।

‘‘हाँ।’’ वह बोली और तपाक-से उससे हाथ मिलाया।

ममता उन दोनों की बातें सुनती मुस्कराती रही।

टैक्सी तेज़ गति से आगे बढ़ती जा रही थी।

‘‘नजीबाबाद आ गया सर जी।’’

यात्रा रातभर चलती रही।

बातें करते और सुनते मणिका तथा निक्की को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। ममता भी उनके कुछ ही देर बाद सो गई थी। न सोए तो केवल सुधाकर और दादा जी। दरअसल, ड्राइवर के मनोबल को बनाए रखने और उसे नींद के झटकों से बचाए रखने के लिए उसके साथ बैठी सभी सवारियों का जागे रहना जरूरी होता है। यों तो अनुभवी ड्राइवरों को अपनी नींद पर काबू पाना आ जाता है, इसलिए वह सवारियों के सोने-न सोने की ज्यादा चिन्ता नहीं करते। फिर भी, समझदारी इसी में है कि साथ बैठी सवारियाँ जागती रहकर उसका साथ निभाएँ।

सुबह के लगभग चार-साढ़े चार बज गए थे। बाहर अभी भी काफी अँधेरा था, लेकिन यह आभास होने लगा था कि कुछ शहरी -सा इलाका शुरू हो गया है। सुधाकर अपनी आँखें फाड़-फाड़कर कभी-कभार नज़र आने वाले साइन बोर्ड्स पर उस जगह का नाम पढ़ने की कोशिश करने लगा; लेकिन बाहर के अंधकार और गाड़ी की तेज रफ्तार के कारण किसी भी बोर्ड पर कुछ पढ़ नहीं पा रहे थे। किंचित चहल-पहल भरे एक चौराहे के निकट अल्ताफ ने टैक्सी को सड़क किनारे बने एक पेट्रोल पंप पर जा खड़ा किया और बोला,‘‘नजीबाबाद आ गया सर जी। मैं जरा फ्रेश होकर आता हूँ। आप लोग बैठिए।’’

यों कहकर वहाँ के एक कर्मचारी से टॉयलेट का रास्ता पूछकर वह पेट्रोल पंप के पिछवाड़े चला गया।

‘‘पेट्रोल पंप तो पीछे भी कई नजर आए थे, वहाँ क्यों नहीं रुक गया यह?’’ सुधाकर दादा जी को सुनाता हुआ बुदबुदाया।

‘‘समझदार है इसलिए।’’ दादा जी बोले।

‘‘बाबू जी, बुजुर्गों ने कहा है कि भीतर के किसी भी दबाव को रोकना नहीं चाहिए।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘वह चाहे छींक का दबाव हो, खाँसी का दबाव हो, हवा पास होने का दबाव हो या कोई और...।’’

‘‘इसका मतलब हुआ कि अल्ताफ की जगह तुम गाड़ी चला रहे होते तो फ्रेश होने के लिए पिछले किसी भी पेट्रोल पंप पर गाड़ी को रोक देते?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘बेशक।’’ सुधाकर बोला।

‘‘यानी कि तुम वह बेवकूफी करते जिसकी उम्मीद कम से कम मैं तो तुमसे नहीं करता।’’

‘‘कैसी बेवकूफी?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘देखो बेटा, किसी बात को सिर्फ इसलिए नहीं मान लेना चाहिए कि उसे बुजुर्गों ने कहा है या हमारे ऋषि-मुनियों ने उसे शास्त्रों में लिखा है। उन सबको जो बुद्धि मिली थी, वही तुम्हें भी मिली है। इसलिए किसी काम को करने-न करने का निर्णय अपने विवेक के अनुसार करना चाहिए, किताबी ज्ञान के अनुसार नहीं। शास्त्राीय-ज्ञान पाकर काशी से अपने घर की ओर लौट रहे चार ब्राह्मण-पुत्रों की कथा तो तुमने पढ़ी ही होगी?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘नहीं तो।’’

‘‘नहीं! तो सुनो —

ब्राह्मण कुमारों की कथा

काशी के एक ऊँचे दर्जे के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त करके चार ब्राह्मण-पुत्र अपने-अपने घर को लौट रहे थे। चलते-चलते वे एक घने जंगल से गुजरे। जब वे उसके बीचों-बीच पहुँचे तो रास्ते में उन्हें हड्डियों का एक ढेर पड़ा मिला। वे वहाँ रुक गए और आपस में विचार करने लगे कि हड्डियों का यह ढेर किस प्राणी का हो सकता है? काफी माथापच्ची करने पर भी उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब, उनमें से एक ने कहा, ‘अरे, हम बेकार ही इतनी देर से माथापच्ची कर रहे हैं। हमारी विद्या आखिर किस दिन काम आएगी?’

यह कहकर उसने अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज की एक पुड़िया निकाली। उसमें से चुटकीभर राख निकालकर उसने अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखी। आँखें मूँदकर कोई मंत्र पढ़ा और हथेली पर रखी राख को फूँक मारकर हड्डियों के ढेर पर उड़ा दिया।

आश्चर्य! राख पड़ते ही सारी की सारी हड्डियाँ आपस में जुड़ र्गईं और किसी जानवर के कंकाल में बदल गईं।

यह देखकर वे दोबारा आपस में विचार करने लगे कि सामने पड़ा कंकाल किस जानवर का हो सकता है? कुछ देर बाद उनमें से एक अन्य बोला, ‘चलो, मैं भी अपने शास्त्रा-ज्ञान को परखता हूँ।’

यों कहकर उसने भी अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज की कुछ पुड़ियाँ निकाल लीं। उनमें से छाँटकर एक पुड़िया से उसने लाल रंग का कुछ चूर्ण अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखा, आँखें मूँदकर किसी मंत्र का जाप किया और फूँक मारकर चूर्ण को कंकाल पर उड़ा दिया।

कमाल हो गया। कंकाल पर खाल की परत चढ़ गयी। उन सबके देखते-देखते वह कंकाल एक बबर शेर का शव बन गया।

‘अरे वाह! देखो, मैं भी अपनी विद्या में सफल हो गया।’ कहता हुआ वह खुशी से उछल पड़ा। अपने दो साथियों के प्रयोग की सफलता को देखकर तीसरे ब्राह्मण-पुत्र के मन में भी अपनी विद्या के प्रदर्शन का भाव जाग उठा। वह बोला, ‘तुम दोनों ने अपनी-अपनी विद्या की परख सफलतापूर्वक कर ली। अब मेरी बारी है।’

‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।’ वे दोनों बोले; लेकिन चौथे ने टोका, ‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं अपनी विद्या से इस शव में प्राण डाल दूँगा।’ तीसरा बोला।

‘यह शव बकरी का नहीं, शेर का है मेरे भाई। प्राण डाल दोगे तो यह हमें खा नहीं जाएगा?’ चौथे ने चेताया।

‘अपने जीवनदाताओं को ही खा जाएगा!!’ पहले दो एक साथ बोल उठे, ‘आदमी जितना कृतघ्न प्राणी नहीं होता शेर।’

‘अरे छोड़ो।’ तीसरा उपहासपूर्वक बोला, ‘यह तो दो पोथियाँ ज्योतिष और भविष्यवाणी की पढ़कर आया है। इस बेचारे को प्राणिशास्त्र का क्या पता?’ यह कहकर उसने कमण्डल से थोड़ा जल अपनी दायीं हथेली में डालकर मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया।

‘रुको, ’ चौथा बोला, ‘पहले आप सब उस पेड़ पर चढ़ जाओ। इतने भयंकर जानवर को जीवित करने का खतरा यों ही मत उठाओ।’

‘हमारा यह कुछ नहीं बिगाड़ने वाला।’ वे हँसकर बोले, ‘तूने इस पर कोई अहसान नहीं किया, इसलिए यह तुझे ही खाएगा। जा, उस पेड़ पर चढ़ जा।’

यह जानकर कि अपने ज्ञान के अहंकार में वे तीनों अपना विवेक खो चुके हैं, चौथा दौड़कर गया और पेड़ पर चढ़ गया। तीसरे ने उसके बाद मंत्र पढ़ा और हथेली में ले रखे जल को शेर के शव पर छिड़क दिया। शेर जीवित हो उठा। यह देखते ही तीसरा जोरों से चिल्लाया, ‘मैंने कर दिखाया। देखो, मैंने कर दिखाया।’

उसकी आवाज़ सुनकर शेर ने उधर गरदन घुमाई। तीन अनजान मनुष्यों को वहाँ खड़ा पाकर वह जोर से गुर्राया। उसने एक ही छलाँग में उन्हें एक साथ धर दबोचा और खा गया।’’

यह कहानी सुनाकर दादा जी चुप हो गए।

‘‘फिर?’’ कुछ देर तक उनके पुनः बोलने का इंतज़ार करने के बाद सुधाकर ने पूछा।

‘‘तू निरा बुद्धू है।’’ इस सवाल से किलसकर दादा जी उसे झिड़कते-से बोले, ‘‘फिर क्या?...सीधी-सादी बात है कि जो किताबी ज्ञान पर चलते थे, वे तीनों मारे गए और जो समझदारी का, अपने विवेक का सहारा लेकर पेड़ पर चढ़ गया था, वो बच गया।’’

‘‘हाँ, लेकिन आपकी कहानी का उस बात से क्या सम्बन्ध है कि अल्ताफ पिछले किसी पेट्रोल पंप पर क्यों नहीं रुका?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘पहली बात तो यह सुन ले कि यह कहानी मेरी बनाई हुई नहीं है, पंचतन्त्र की है।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘दूसरे, कहानी उस बात पर नहीं, बल्कि तेरी इस बात पर सुनाई थी कि अल्ताफ ने पेट के प्रेशर को इतनी देर क्यों रोका जबकि बुजुर्गों ने किसी भी प्रेशर को रोकने की मनाही की हुई है।’’ बात में सुधार करते हुए दादा जी बोले।

‘‘चलिए, यही सही।’’

‘‘देखो, सबसे पहली बात तो यह है कि वह पेट के प्रेशर को कुछ देर तक बर्दाश्त कर सकने की हालत में था, सो उसने उसे बर्दाश्त किया और यहाँ तक चला आया। अगर वह बुजुर्गों की कही बात पर यानी किताबी ज्ञान पर चलता तो बर्दाश्त करने-न करने की बात ही खत्म हो जाती। गाड़ी को वह कहीं भी खड़ी करता और फ़ारिग हो लेता; लेकिन उसे पता था कि उसकी गाड़ी में दो छोटे बच्चे, एक औरत और एक बूढ़ा आदमी बैठा है जो ख़तरा आने पर न तो ज्यादा लड़ सकते हैं और न ही ज्यादा भाग सकते हैं। रहा तुझ-जैसा जवान आदमी, सो तुझ पर वो इसलिए भरोसा नहीं कर सकता कि तू उसके लिए अनजान है। यही वज़ह है कि गाड़ी को उसने थोड़ा शहरी इलाका आ जाने पर रोका। आया समझ में?’’

‘‘बात तो आपकी ठीक है।’’ सहमति में सिर हिलाते हुए सुधाकर बोला।

‘‘देखो बेटा, ये लोग दिन-रात सड़कों पर ही चलते हैं। हजार तरह के लोगों से रोज़ाना मिलते हैं, कितने ही अच्छे-बुरे किस्से सुनते हैं। इसलिए छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने की तमीज़ इनमें पैदा हो जाती है।’’ दादा जी ने बताया।

सुबह की चाय

इसी दौरान अल्ताफ फ्रेश होकर लौट आया। आते ही बोला,‘‘सर, आप लोगों में से भी किसी को, भाभी जी को, बच्चों को फ्रेश होकर आना हो तो हो आइए। यहाँ एकदम साफ-सुथरा और सुरक्षित है। आगे आपको या तो नदी किनारे या किसी होटल वगैरा में किराए का कमरा लेकर फ्रेश होने के लिए जाना पड़ेगा। वैसे तो आठ-नौ बजे तक हम श्रीनगर पहुँच ही जाएँगे।’’

‘‘सुनो, ’’ उसकी बात सुनकर दादा जी ने सुधाकर से कहा, ‘‘ठीक कहा इसने। पहले मैं फ्रेश हो आता हूँ। तब तक तुम बहू को जगाकर रखो। मेरे आने के बाद तुम दोनों चले जाना। बच्चों को अभी सोने दो, वापस आकर मैं जगा लूँगा।’’

‘‘जी, ठीक है।’’ सुधाकर ने कहा।

दादा जी गाड़ी से उतरकर उधर चले गए जिधर पहले अल्ताफ गया था।

‘‘सड़क के उस पार चायवाले ने दुकान खोल ली है।’’ यों कहकर अल्ताफ ने सुधाकर से पूछा, ‘‘मैं चाय पी आऊँ?’’

‘‘हाँ-हाँ, ज़रूर।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘...और, वो अगर यहाँ देने आ सके तो दो चाय हमारे लिए भी भेजवा देना।’’

‘‘जी।’’ कहकर वह चला गया।

उसके जाते ही सुधाकर ने धीमे-से आवाज़ देकर ममता को जगा दिया। जागते ही उसने अचरज से चारों ओर देखा, फिर पूछा, ‘‘कौन-सी जगह है?’’

‘‘नजीबाबाद का आउटर है।’’ सुधाकर ने बताया।

‘‘गाड़ी यहाँ क्यों रोक दी?’’ ममता ने दूसरा सवाल किया।

‘‘अल्ताफ को फ्रेश होने जाना था इसलिए।’’

‘‘बाबूजी किधर हैं?’’

‘‘अल्ताफ के बाद वो फ्रेश होने गए हैं।’’

‘‘मुझे क्यों जगाया?’’

‘‘अल्ताफ ने बाबूजी को घुट्टी पिला दी है कि यहीं फ्रेश हो लो। यहाँ फ्री है, आगे पैसे खर्च करने पड़ेंगे।’’

‘‘हे भगवान! आपको तो पता है कि मुझे चाय पिये बिना प्रेशर बनता नहीं है।’’

‘‘मँगा ली है, लाता ही होगा।’’ शरारती मुस्कान के साथ सुधाकर बोला।

‘‘आप भी बस...’’ ममता नाराज़गी भरे स्वर में बोली।

‘‘मैं भी बस नहीं, बाबू जी भी बस...’’ सुधाकर अपना बचाव करते हुए बोला, ‘‘मेमसाब, इस समय हम सफर में हैं; वो भी बाबूजी के साथ। एक कहानी सुनाकर सुबह-सुबह मुझे ‘बेवकूफ’ कहने का अपना पैतृक-अधिकार तो वे जता ही चुके हैं। इसलिए घर की बातें घर पर। यहाँ वो...जो बाबू जी हुक्म करें। चायवाला चाय लेकर आने वाला है। सुस्ती छोड़ो और तनकर बैठ जाओ। थोड़ी ही देर में बाबू जी भी आते ही होंगे।’’

ममता ने गहरी अँगड़ाई लेकर सुस्ती को जैसे दूर फेंक दिया और सीट पर सीधी बैठ गई।

चायवाला जल्दी ही दो गिलासों में चाय लेकर दौड़ता चला आया। सुधाकर के हाथों में गिलास पकड़ाते हुए उसने पूछा, ‘‘बिस्कुट वगैरा कुछ-और लेंगे साब?’’

‘‘नहीं।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘कोई बात नहीं...’’ गाड़ी में सोते बच्चों की ओर देखकर उसने पूछा, ‘‘बच्चा-लोगों के लिए भी बनाऊँ?’’

‘‘वो अभी सो रहे हैं।’’ सुधाकर ने टाला।

‘‘कोई बात नहीं...’’ वह दाँत निपोरता-सा बोला, ‘‘जाग जाएँ तो आवाज़ लगा देना। दो मिनट में बना लाऊँगा।’’

यों कहकर वह चला गया।

वे दोनों चाय पीने लगे। अल्ताफ चायवाले के खोखे के पास पड़ी लकड़ी की बेंच पर ही बैठ गया था।

ममता और सुधाकर ने अपनी-अपनी चाय खत्म करके गिलास अभी नीचे रखे भी नहीं थे कि दादा जी आ गए। उनके हाथों में चाय के गिलास देखकर एकदम-से बोले, ‘‘अरे वाह, यहाँ भी बेड-टी मिल गई!’’

‘‘जी बाबू जी, आपके आशीर्वाद से।’’ ममता ने कहा, ‘‘पाँव छूती हूँ।’’

‘‘सदा सुखी रहो बेटा।’’ दादा जी बोले, ‘‘देर न करो, जल्दी जाओ। मैं इस बीच बच्चों को जगाता हूँ।’’

‘‘बच्चों को सोने दीजिए बाबू जी।’’ ममता ने कहा, ‘‘ये लोग तो वैसे भी देर तक सोने के आदी हैं।’’

‘‘देर तक सोने के आदी घर में हैं या सफ़र में?’’ दादा जी तीखे स्वर में बोले, ‘‘इनकी बात तुम मुझ पर छोड़ दो और इस बुद्धू को लेकर फ्रेश होने को जाओ।’’

ममता ने सुधाकर की ओर देखा और केवल मुस्कराकर रह गईं। सुधाकर भी चुपचाप टॉयलेट्स की ओर बढ़ गया।

जाग गए बच्चे भी

‘‘मणिका-निक्की! उठो।...उठो बेटे, देखो नजीबाबाद आ गया।’’ उनके चले जाने के बाद दादा जी ने सीटों पर पसरे पड़े बच्चों को जगाने के लिए हिलाना शुरू कर दिया।

‘‘नजीबाबाद!...यहाँ से बद्रीनाथ कितनी दूर है दादा जी?’’ थोड़ी-बहुत कुनन-मुनन करने के बाद निक्की ने फुर्ती के साथ बैठते हुए पूछा।

‘‘वह तो अभी बहुत दूर है।’’ दादा जी बोले, ‘‘तुम लोग फटाफट पेस्ट वगैरा से निबटो।...दिन अभी निकल ही रहा है बेटे। देर करोगे तो टॉयलेट के बाहर लाइन लगनी शुरू हो सकती है। सफर के दौरान इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए।’’

‘‘पहले आप हो आइए न दादा जी।’’ मणिका अपनी सीट पर करवट बदलकर बोली, ‘‘जैसे ही आप आएँगे, हम चले जाएँगे।’’

‘‘अरे, तू भी जाग गई चुहिया?’’

‘‘गुड मार्निंग दादा जी।’’ वह आलस्यभरी आवाज़ में बोली।

‘‘वेरी गुड मार्निंग बेटा। मैं तो हो भी आया। कुल्ला-मंजन करके मुँह-हाथ धोकर एकदम तैयार खड़ा हूँ तुम्हारे सामने।’’ दादा जी बोले।

‘‘ठीक है, पहले मैं जाता हूँ।’’ निक्की खड़ा होकर बोला।

‘‘बड़ा फुर्तीला बच्चा है।’’ दादा जी खुश होकर बोले, ‘‘अभी रुक थोड़ी देर। फिलहाल मम्मी-पापा गए हुए हैं। उन्हें आने दो, तब जाना।...या फिर ऐसा कर, तू जा।’’

‘‘मेरा ब्रश, पेस्ट, तौलिया और साबुन किधर है दादा जी ?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘उस सूटकेस के भीतर, एकदम ऊपर।’’

सामान लेकर निक्की टॉयलेट की ओर बढ़ गया।

‘‘गाड़ी यहाँ कितनी देर रुकेगी दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘कुछ देर तो रुकेगी ही। क्यों ?’’

‘‘नजीबाबाद के बाद कोटद्वार ही आएगा न, प्लेन का आखिरी स्टेशन?’’

‘‘ठीक कहा। वहीं से हम उत्तराखण्ड राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं।’’ दादा जी बोले।

‘‘कोटद्वार में भी कुछ देखने लायक स्थान हैं दादा जी?’’ उठकर सीधी बैठते हुए मणिका ने पूछा।

‘‘देखने लायक भी और जानने लायक भी।’’ दादा जी बोले, ‘‘लो, निक्की तो इतनी जल्दी लौट भी आया। उधर तुम्हारी मम्मी शायद तुम्हारे इन्तज़ार में खड़ी रह गई है, अब तुम जाओ।’’

‘‘जाती हूँ; लेकिन मेरे आने तक भैया को आप कुछ नहीं बतायेंगे दादा जी।’’ मणिका अधिकारपूर्वक बोली और टॉयलेट की ओर चल दी।

‘‘दीदी, तेरा ब्रश-पेस्ट।’’ गाड़ी के निकट आकर निक्की ने सूटकेस को देखा और मणिका का ब्रश उठाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

मणिका ब्रश लेकर आगे बढ़ गई।

अल्ताफ अभी भी चायवाले की बेंच पर ही बैठा था। वह दरअसल, इन लोगों के पूरी तरह तैयार होने का इन्तज़ार कर रहा था। दादा जी ने जैसे ही मणिका को टॉयलेट से बाहर आकर ब्रश करते देखा, आवाज़ लगाकर तीन चाय ले आने का ऑर्डर चायवाले को दे दिया।

‘‘दो मिनट में लाया बाऊ जी।’’ आर्डर सुनते ही चायवाले ने जवाब दिया और जैसा कि उसने कहा था, अगले दो ही मिनट में तीन गिलास चाय लेकर वह उपस्थित हो गया।

‘‘बच्चा-लोग के लिए बिस्कुट वगैरा कुछ लाऊँ बाऊ जी?’’ चाय का एक गिलास दादा जी के हाथ में पकड़ाते हुए उसने पूछा।

‘‘वह सब है हमारे पास।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘वैसे भी, इतनी सुबह ये लोग कुछ खायेंगे नहीं।’’

गाड़ी में पहले रखे चाय के खाली गिलासों को लेकर चायवाला चला गया।

‘‘अब बताइए दादा जी।’’ मणिका चाय की चुस्की लेकर बोली।

‘‘अभी नहीं।’’ दादा जी बोले, ‘‘गाड़ी चलना शुरू होगी तब।’’

वह बेचारी चुप हो गई। ममता और सुधाकर इस दौरान इधर-उधर चहल-कदमी करने लगे थे।

विश्वामित्र-मेनका की कथा

दोनों बच्चों ने अपने-अपने गिलास की चाय खत्म की। दादा जी ने भी। वहीं बैठे-बैठे उन्होंने अल्ताफ को इशारा किया, अल्ताफ ने चायवाले को। वह दौड़कर आया और खाली गिलासों को हाथ में पकड़ते हुए अल्ताफ की ओर इशारा करके बोला, ‘‘पैसे उन्होंने दे दिये हैं बाऊ जी।’’

‘‘ठीक है।’’ दादा जी ने कहा।

अल्ताफ को चायवाले के पास से उठकर गाड़ी की ओर बढ़ता देखकर ममता और सुधाकर भी चले आए।

गाड़ी आगे चल दी।

बच्चों ने उत्सुकतापूर्वक दादा जी के चेहरे को निहारना शुरू किया।

‘‘महर्षि विश्वामित्र का नाम सुना है?’’ बच्चों की उत्सुकता को भाँपकर गाड़ी चलने के कुछ देर बाद ही दादा जी ने उनसे पूछा।

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।’’ मणिका तपाक-से बोली, ‘‘वही, जो अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम और लक्ष्मण को उनके पिता दशरथ से माँगकर ले गए थे।’’

‘‘बेटे, श्रीराम को ले जाने की घटना से बहुत पहले उन महर्षि विश्वामित्र ने एक बार घोर तपस्या की थी।’’ दादा जी ने धीरे-धीरे बताना शुरू किया, ‘‘देवताओं के राजा इन्द्र को उनकी तपस्या देखकर बड़ा डर लगा। उसने सोचा कि विश्वामित्र की तपस्या अगर सफल हो गई तो देवता उसे हटाकर कहीं विश्वामित्र को ही स्वर्ग का राजा न बना दें। यह सोचकर उसने अपने दरबार से मेनका नाम की एक अप्सरा को विश्वामित्र का ध्यान तपस्या की ओर से हटाकर घर-गृहस्थी की ओर लगा देने के लिए उनके पास भेज दिया। बहुत सुंदर तो थी ही मेनका, बहुत चतुर भी थी। आखिर अप्सरा थी इन्द्र के दरबार की। चालाकीभरी बातें बनाकर वह विश्वामित्र की पत्नी जा बनी और घर-गृहस्थी के कामों में उलझाकर उन्हें तपस्या करने से रोक दिया। कई वर्षों तक साथ रहने के बाद मेनका को जब यह पता चला कि वह माँ बनने वाली है, तब वह यह सोचकर डर गई कि विश्वामित्र को अगर उसकी चालाकी और उनके साथ रहने के लिए आने की उसकी असलियत का पता चल गया तो शाप देकर उसे एक ही क्षण में भस्म कर डालेंगे। बस, एक दिन अचानक वह विश्वामित्र के चरणों से लिपट गयी और रोने लगी। विश्वामित्र की समझ में कुछ न आया। उन्होंने उससे उसके रोने का कारण पूछा लेकिन रोने का कारण बताने की बजाय वह यही कहती रही कि पहले वे उसे क्षमा कर दें, तभी वह कुछ बताएगी। विश्वामित्र तो उसके मोहजाल में पूरी तरह फँसे हुए थे। उस पर प्रसन्न होकर उन्होंने उसे क्षमा कर देने का वचन दे दिया। वचन पाकर मेनका ने बहुत दुःखी होने का नाटक करते हुए उनसे कहा—स्वामी! मुझ पापिन पर दया करने के कारण आप तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। यह सोच-सोचकर मेरा मन कई दिनों से मुझे धिक्कार रहा है। स्वामी! जैसे आपने अपने राज्य का मोह त्यागकर संन्यास ग्रहण किया था, मेरी प्रार्थना है कि वैसे ही मेरा मोह त्यागकर आप पुनः अपनी तपस्या में लग जायँ।’’

महर्षि कण्व का आश्रम

कहानी सुनाने का दादा जी का तरीका इतना अधिक रोचक था कि ममता और सुधाकर भी उनकी ओर मुँह करके बैठ गए।

‘‘बेटे, आराम से ही चलाना गाड़ी।’’ दादा जी अल्ताफ से बोले।

‘‘आप बेफिक्र होकर कहानियाँ सुनाते रहिए बाबू जी।’’ अल्ताफ ने कहा, ‘‘हम लोगों को बातें सुनते और बातें करते हुए गाड़ी चलाते रहने की आदत बनी होती है।’’

‘‘विश्वामित्र ने मेनका की इस बात को उसका महान त्याग समझकर उसे पूरी तरह क्षमा कर दिया।’’ दादा जी ने आगे बताना शुरू किया, ‘‘उनकी तपस्या को भंग करने का अपना काम बड़ी चतुराई और सफलता से पूरा करके मेनका उनका आश्रम छौड़कर चली गई। कुछ समय बाद उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया जिसे लेकर वह इन्द्र के लोक में जा पहुँची।’’

‘‘फिर क्या हुआ दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘फिर, लालन-पालन के लिए इन्द्र ने उस कन्या को धरती पर मालिनी नदी के किनारे आश्रम बनाकर रहने वाले उस समय के महान ऋर्षि कण्व के आश्रम में भेज दिया। बड़ी होने पर वही कन्या शकुन्तला कहलाई।’’ दादा जी बोले, ‘‘जानते हो, शकुन्तला कौन थी?’’

‘‘हाँ दादा जी ।’’ मणिका तपाक से बोली, ‘‘इन्द्रलोक की अप्सरा मेनका और महर्षि विश्वामित्र की पुत्री!’’

‘‘धत् तेरे की...’’ दादा जी अपने माथे पर हथेली मारकर बोले, ‘‘यह बात तो अभी-अभी मैंने ही तुमको बताई है। इसके अलावा बताओ कि शकुन्तला कौन थी?’’

‘‘राजा दुष्यन्त की पत्नी और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत की माँ।’’ गाड़ी चलाते हुए अल्ताफ ने मुस्कराते हुए बताया फिर बोला, ‘‘कभी-कभार आप लोगों के बीच में मैं भी कुछ बोल सकता हूँ न सर जी?’’

‘‘भई, मेरी तरफ से तो ‘हाँ’ है, बाकी तुम बच्चों से तय कर लो।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘तुमने बिल्कुल ठीक बताया लेकिन यह भरत भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत नहीं हैं।’’

‘‘पता है।’’ इस बार निक्की ने कहा, ‘‘भगवान राम के छोटे भाई भरत की माता का नाम शकुन्तला नहीं, कैकेयी था।’’

‘‘वेरी गुड।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘भई तुम लोगों का सामान्य ज्ञान तो बड़ा उत्तम है!’’

‘‘फिर क्या हुआ दादा जी?’’ अपनी प्रशंसा के शब्दों में न उलझकर बच्चों ने कथा के तारतम्य को जोड़े रखने का प्रयास करते हुए पूछा।

‘‘फिर जो हुआ, वह बहुत लम्बी कहानी है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मैंने जिस उद्देश्य से शकुन्तला के जन्म की कहानी तुमको सुनाई है, उसे सुनो—मालिनी नदी और महर्षि कण्व का आश्रम, दोनों इस कोटद्वार क्षेत्र में ही हैं। मालिनी नदी को बहुत-से लोग मालन नदी भी कहते हैं। उसी के आधार पर इस घाटी को मालन घाटी कहा जाता है। कहा जाता है कि अपने वीर पुत्र भरत को शकुन्तला ने इस मालन घाटी में ही जन्म दिया था। ...और यह भी कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने महान् काव्य ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ की रचना इस मालिनी नदी के किनारे बैठकर ही की थी। ...’’

‘‘कोटद्वार आने वाला है सर जी,’’ अल्ताफ आत्मीय स्वर में बोला।

गाड़ी हॉर्न देती हुई तेजी से दौड़ रही थी। बातों-बातों में कई छोटे स्टेशन पीछे निकल गए थे। खिड़कियों के सहारे बैठे बच्चे दूर खड़े पहाड़ों को देखकर पुलकित होने लगे। अब से कुछ समय बाद ही वे इन पहाड़ों के बीच से गुजरने वाले थे।

रेलवे स्टेशन कोटद्वार

उनकी गाड़ी कोटद्वार रेलवे-स्टेशन के बाहर जा पहुँची थी। उधर, कोटद्वार पहुँचने वाली एक रेलगाड़ी भी धीरे-धीरे प्लेटफार्म के सहारे जा रुकी थी। आगे पता नहीं कोई गाय आ खड़ी हुई थी या कोई-अन्य रुकावट थी कि अल्ताफ टैक्सी को रोककर खड़ा हो गया। यह रेलवे स्टेशन के बाहर की जगह थी और कुछ प्राइवेट बसों के ड्राइवर व कंडक्टर आदि ने मुख्य सड़क पर ही अपनी बसें टेड़ी-तिरछी खड़ी करके रास्ते को रोका हुआ था। वह जगह रेलवे प्लेटफार्म से काफी ऊँचाई पर और काफी नज़दीक थी इसलिए प्लेटफार्म का सारा दृश्य कार के भीतर से साफ सुनाई व दिखाई दे रहा था। टैक्सी में बैठे बच्चे वहाँ से रेलवे प्लेटफॉर्म का नज़ारा देखने लगे। दादा जी की उम्र के एक आदमी ने जैसे ही कम्पार्टमेंट से निकालकर अपना सामान प्लेटफार्म पर रखा, कुली-जैसे दिखाई देने वाले तीन-चार गोरखे उसके निकट दौड़ आए। अभी उसने सामान उठाकर ले चलने के बारे में किसी से कुछ कहा नहीं था, फिर भी वे सब आपस में एक-दूसरे को पीछे धकेलने-से लगे। कुछ देर उनका तमाशा देख लेने के बाद आखिर उसने कहा, ‘‘झगड़ा क्यों करते हो भाई, एक-एक अदद तीनों-चारों लोग उठा लो।’’

‘‘किदर चलना ए शाबजी?’’ उनमें से एक ने पूछा।

‘‘बदरीनाथ जाने वाली बस में।’’ उसने कहा।

‘‘बद्रीनाथ को जाने वाली बश तो शुबह जल्दी ही निकल जाती है शाबजी!’’ उनमें से एक कुली तुरन्त बोला, ‘‘आप कहें तो आपका शामान हम श्रीनगर वाली बश में चढ़ा दें।’’

‘‘श्रीनगर!’’ उसकी बात पर बच्चे आश्चर्यपूर्वक बोल उठे।

‘‘यह उत्तराखण्ड का श्रीनगर है बच्चो, कश्मीर का नहीं।’’ दादा जी ने उन्हें बताया।

उधर, वह आदमी कुली से बोला, ‘‘ठीक है, उसी में ले चलो।’’

सामान उठाकर कुली स्टेशन से बाहर आया। बस-स्टेंड सामने ही था। टिकिट-खिड़की पर जाकर उसने श्रीनगर की बजाय पौड़ी तक की टिकिट ली और कुली को बस की छत पर सामान सुरक्षित तरह से रखने और बाँध देने का आदेश दिया। दोनों बच्चे यह सब देखकर आनन्दित होते रहे। सामान को बाँधे जाने तक वह व्यक्ति स्वयं बाहर खड़े रहकर बस की छत पर रखे सामान की देखभाल करता रहा। जैसे ही बस चलने को हुई, अन्दर जाकर सीट पर बैठ गया।

दुगड्डा

‘‘श्रीनगर यहाँ से कितनी दूर होगा दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘श्रीनगर! होगा करीब एक सौ पेंतीस किलोमीटर।’’

‘‘इसका मतलब यह कि वहाँ पहुँचने में हमें करीब तीन घंटे लगेंगे?’’

‘‘हमें तो शायद तीन ही घंटे लगें; लेकिन बस को लगेंगे चार या पाँच घंटे...’’ दादा जी ने कहा।

‘‘चार या पाँच!!’’ आश्चर्यपूर्वक उसके मुँह से निकला।

‘‘यह पहाड़ी जगह है बेटा।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘प्लेन नहीं कि गाड़ी को दौड़ाते जाओ, दौड़ाते जाओ। फिर, बस वालों को लोकल सवारियों को भी तो उतारते-चढ़ाते रहना पड़ेगा।’’

‘‘सबसे पहले कौन-सी जगह आएगी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘सबसे पहले आएगा दुगड्डा।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘यहाँ से सिर्फ पन्द्रह किलोमीटर दूर है।’’

‘‘यानी दस-बारह मिनट में हम दुगड्डा पहुँच जाएँगे!’’ निक्की बोला।

‘‘हम तो शायद दस-बारह मिनट में ही पहुँच जाएँ, लेकिन बस को वहाँ पहुँचने में लगेंगे कम से कम पच्चीस-तीस मिनट।’’ इस बार मणिका बोली।

‘‘दादा जी की नकल उतारती है चुहिया?’’ सुधाकर ने मुस्कराकर उसकी इस सकारात्मक शरारत पर हल्की-सी एक चपत उसके सिर पर लगाई।

‘‘मणिका ठीक कह रही है। ये मैदानी सड़कें नहीं हैं।’’ दादा जी बोले, ‘‘पहाड़ी रास्ते हैं। कहीं-कहीं तो इतनी चढ़ाई होती है कि पूरी ताकत लगाने पर भी बस पन्द्रह या बीस किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा की चाल पकड़ ही नहीं पाती है। ...और जहाँ ढलान है वहाँ भी ड्राइवर को कम ही स्पीड रखनी पड़ती है।’’ फिर अल्ताफ से कहा, ‘‘ठीक बोल रहा हूँ न बेटे?’’

‘‘जी बाबा जी।’’ उसने कहा ।

‘‘क्यों?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘कोटद्वार से दुगड्डा तक तो कोई खास चढ़ाई नहीं है। उससे आगे हर दूसरे-चौथे किलोमीटर पर आने वाले मोड़ों को भी देखोगे और चढ़ाइयों को भी।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘अगर ड्राइवर तेज स्पीड में गाड़ी रखे और मोड़ पर सामने से अचानक दूसरी गाड़ी आ जाए तो?...वह अगर इधर गाड़ी को बचाने की कोशिश करेगा तो गया गहरी खाई में, और अगर उधर बचाएगा तो पहाड़ से टकराएगा। इसलिए हर ड्राइवर स्पीड पर काबू रखता है। यहाँ, पहाड़ में, एक नियम और है बेटे!’’

‘‘क्या दादा जी?’’

‘‘अगर दो गाड़ियाँ किसी ढलान पर अचानक आमने-सामने पड़ जाएँ तो ढलान से उतरने वाली गाड़ी ढलान पर चढ़ने वाली गाड़ी को रास्ता देगी।’’

थोड़ी देर बाद ही उनकी टैक्सी एक नदी के पुल पर से गुजरी।

‘‘यह कौन-सी नदी है दादा जी?’’ बच्चों ने पूछा।

‘‘यह भील नदी है।’’

बच्चे तेज गति से बहने वाली उस नदी की धारा को देखते रह गए। कुछ ही देर में टैक्सी दुगड्डा में जाकर रुक गई। बाहर फल और दूसरी चीजें बेचने वालों की आवाज़ों ने बच्चों का ध्यान भंग किया।

वे मुस्कराकर दादा जी की ओर देखने लगे।

चन्द्रशेखर आज़ाद की अभ्यास स्थली

‘‘मैं अच्छी तरह से समझ रहा हूँ तुम दोनों के इस तरह मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखने का मतलब।’’ दादा जी भी उनकी ओर मुस्कराते हुए बोले, ‘‘बच्चो, दुगड्डा वो ऐतिहासिक जगह है जहाँ के जंगलों ने मौन रहकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ भारत की आज़ादी की लड़ाई में सहयोग दिया था।’’

‘‘दादा जी, यहाँ के जंगलों से मतलब उन लोगों से है न, जो यहाँ के जंगलों में रहते थे?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘अक्सर तो ऐसा बोलने का वही मतलब होता है जो तू कह रही है मणिका; लेकिन यहाँ पर जंगल का मतलब वास्तव में जंगल ही है।’’

‘‘तब तो बड़ा मजेदार किस्सा होना चाहिए।’’ उनकी बात सुनकर ममता ने कहा, ‘‘सुनाइए बाबू जी।’’

‘‘यह मज़ेदार उतना शायद न लगे ममता, ’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन हमारे इतिहास का सुनहरा पन्ना जरूर है। चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम तो तुमने सुन ही रखा होगा।’’

‘‘आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं बाबू जी!’’ उनके इस सवाल पर ममता नाराज़गीभरे स्वर में बोली, ‘‘मैं क्या मणिका जितनी बच्ची हूँ जो मैंने देश की आज़ादी के लिए मर मिटने वाले अपने शहीदों के नाम भी नहीं सुन रखे!!’’

‘‘आप मेरा नाम क्यों ले रही हो मम्मी?’’ ममता की बात से नाराज़ मणिका तुरन्त बोल उठी, ‘‘दादा जी की अलमारी में रखी किताबों से उठाकर मैंने भगतसिंह, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी...और भी पता नहीं कितने ऐसे शहीदों के बारे में पढ़ रखा है जिनके आपने नाम भी नहीं सुने होंगे।’’

ममता उसके इस जवाबी हमले से हारकर चुप रह गई।

‘‘नाराज़ न हो...नाराज़ न हो बेटा, ’’ दादा जी उसके सिर पर हाथ घुमाते हुए उसे शांत करने की कोशिश करते बोले, ‘‘उसके कहने का मतलब सिर्फ यही बताना था कि उसने चन्द्रशेखर आज़ाद का नाम सुन रखा है। अब गुस्सा थूको और मेरी बात सुनो—चन्द्रशेखर आज़ाद अचूक निशानेबाज़ थे, इस बात को तो उनके समय के अंग्रेज पुलिस अफसरों ने भी माना है; लेकिन निशानेबाजी में खुद को इतना पारंगत उन्होंने कैसे बनाया, इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं।’’

‘‘पारंगत माने दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘पारंगत माने परफेक्ट।’’ दादा जी के बजाय सुधाकर ने बताया। फिर बोला, ‘‘आप आगे बताइए बाबू जी।’’

‘‘पिस्तौल और गोलियाँ लेकर वे अपने साथियों के साथ इस दुगड्डा के घने जंगलों में आ रुके। खाना, पीना, सोना—सब, मनुष्यों की आबादी से कोसों दूर, जानवरों और मच्छरों से भरे इन्हीं जंगलों में। आज़ाद का मानना था कि अंग्रेज सिर्फ गोली की भाषा समझता है। महात्मा गाँधी की अहिंसा वाली नीति में उनका विश्वास नहीं था। तो यहाँ रहते हुए वे दिनभर गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे।’’

‘‘...और रात में?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘रात में चारों ओर सन्नाटा पसरा रहता है मणि बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘आवाज़ दूर तक जाती है। इसलिए रात में वे दण्ड-बैठक लगाते थे या अपने किसी साथी के साथ कुश्ती के दावपेंचों का अभ्यास करते थे। एक बात और बता दूँ—जंगल के जिस पेड़ पर टारगेट निश्चित करके वे निशाना लगाया करते थे, उसके अवशेष पिछले कुछ वर्ष पहले तक यहाँ के जंगल में मौजूद थे और लोग उसे देखने भी आते थे; लेकिन दो बातों की वजह से वह पेड़ अब शायद समाप्त हो चुका है।’’

‘‘किन बातों की वजह से बाबू जी?’’ ममता ने पूछा।

‘‘पहली तो यह कि स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी ज्यादातर धरोहरों को संजोए रखने में किसी भी आम या खास व्यक्ति ने रुचि नहीं दिखाई। दूसरी यह कि भले ही मनुष्यों से कहीं ज्यादा होती हो, लेकिन पेड़ों की भी एक खास उम्र होती ही है। ...और फिर, बेचारे उस पेड़ ने तो हजारों गोलियाँ खाई थीं। वह अपने समय से शायद पहले ही काल के गाल में समाने लगा था। इसीलिए, उसे देखने को आने वाले लोग उसके अवशेषों को ही इस तरह प्रणाम अर्पित किया करते थे जिस तरह अपने पूजनीय बुजुर्गों के चरणों में किया जाता है।’’

‘‘वह पेड़ यहाँ से कितनी दूरी पर होगा दादा जी?’’ निक्की ने पूछा, ‘‘क्या हम उसे देखने को चल सकते हैं?’’

‘‘उस पेड़ के अब शायद अवशेष भी नहीं बचे हैं बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘जंगलों की अधाधुंध कटाई में उसके अवशेष भी काम आ गए होंगे। दूसरी बात यह है कि जंगल के बीच उस जगह तक पहुँचाने के लिए इस इलाके का कोई जानकार व्यक्ति हमारे साथ होना चाहिए; और तीसरी यह कि टैक्सी को यहीं छोड़कर पहाड़ पर पैदल चढ़ने और उतरने का मन बनाना पड़ेगा।’’

‘‘इस वक्त उतना समय हमारे पास नहीं है निक्की।’’ ममता ने कहा, ‘‘आगे भी हमें बहुत लम्बा रास्ता तय करना है।’’

निक्की ने मम्मी की बात मान ली; कहा, ‘‘ठीक है, आगे चलो।’’

उसकी इस सहमति के साथ ही टैक्सी आगे बढ़ चली।

‘‘अब एक बात सामान्य ज्ञान की और सुनो—’’ दादा जी ने कहा, ‘‘दुगड्डा साहित्य के क्षेत्र की भी एक हस्ती का निवास स्थान रहा है।’’

‘‘किनका?’’ इस बार सुधाकर ने पूछा।

‘‘डॉ. शिवप्रसाद डबराल का। यहाँ रहकर उन्होंने इतनी साहित्य साधना की कि उन्हें इन्साइक्लोपीडिया ऑफ गढ़वाल कहा जाने लगा। उन्होंने अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के महान कवि व चित्रकार मौलाराम की ब्रजभाषा की कविताओं के अलावा गढ़वाल के बहुत-से प्राचीन साहित्य को खोजकर उसे प्रकाशित कराया है।’’

गुमखाल और सतपुली

‘‘दुगड्डा के बाद हम कहाँ रुकेंगे?’’ वहाँ से आगे बढ़े तो मणिका ने पूछा।

‘‘रुकते-चलते तो हम रहेंगे ही बेटी।’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन जानने की बात यह है कि हमारी गाड़ी अब किस महत्त्वपूर्ण जगह से होकर गुजरेगी?’’

‘‘किस जगह से?’’

‘‘गुमखाल से।’’

‘‘कौन-सी खाल?’’ इस बार निक्की या मणिका की बजाय ममता ने पूछा।

‘‘खाल नहीं, गुमखाल। जगह का नाम है।’’

‘‘यह जगह किस तरह से महत्त्वपूर्ण है दादा जी?’’

‘‘गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है। इसलिए यहाँ से हिमालय की पर्वत-शृंखला के दूर-दूर तक दर्शन होते हैं।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘दूसरी बात यह कि, गुमखाल के पास ही भैरोंगढ़ी नाम की जगह है जहाँ पर भगवान भैरों का बहुत पुराना मंदिर है। भैरों जी को गढ़वाल का द्वारपाल माना जाता है। भारतभर से साधु लोग यहाँ आकर साधना करते हैं और सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।’’

‘‘सिद्धियाँ क्या होती हैं दादा जी?’’

‘‘सिद्धियाँ!’’ यह सवाल सुनकर एकदम से चक्कर में पड़ गए दादा जी। क्या बताएँ? वास्तव में तो उन्होंने भी किसी सिद्ध पुरुष को अब तक नहीं देखा था। सिर्फ सुना या पढ़ा था। लेकिन बच्चों के सवाल को टाला तो नहीं जा सकता था। बहुत देर तक वे सोचते रहे कि क्या जवाब दें? फिर बोले, ‘‘साधना के द्वारा, घोर तपस्या के, गहरे अभ्यास के द्वारा, अपने अन्दर की सारी शक्तियों और क्षमताओं को...अपने आत्मविश्वास को जगा लेने को ही सिद्धि पा लेना कहते हैं।’’ यों कहकर वे चुप हो गये; फिर थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने पुन: समझाने लगे, ‘‘हालाँकि बहुत-से लोग सिद्धियों को जादुई या चमत्कार दिखानेवाली विद्या मान लेते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं।’’

इसके बाद काफी देर तक किसी के बीच कोई बात नहीं हुई। अल्ताफ ध्यानपूर्वक गाड़ी चलाता रहा और बाकी सब के सब बाहर के दृश्यों को देख-देख विभोर होते रहे।

‘‘गुमखाल से ही एक रास्ता लैंसडाउन की ओर कट जाता है और दूसरा सतपुली की ओर।’’ कुछ देर बाद दादा जी ने बताया, ‘‘उस मोड़ पर पहुँचकर कुछ देर हम रुक भी सकते हैं।’’

‘‘उस मोड़ पर हम पहुँचने ही वाले हैं सर जी।’’ यह सुनते ही अल्ताफ बोला, ‘‘गाड़ी वहाँ रोकनी है क्या?’’

‘‘हाँ।’’ दादा जी ने कहा।

अगले ही पल सड़क किनारे थोड़ी खुली-सी जगह देखकर अल्ताफ ने टैक्सी रोक दी। दादा जी खिड़की खोलकर बाहर आ खड़े हुए। उनके पीछे-पीछे ही बाकी सब भी।

जयहरिखाल और बाबा नागार्जुन

‘‘यह रास्ता लैंसडाउन की ओर जाता है।’’ अपने दायें हाथ की ओर जाने वाली सड़क की ओर इशारा करके दादा जी ने बताने लगे, ‘‘घने जंगल के बीच से गुजरते हुए पहले जहरीखाल नाम की जगह आती है। इसका वास्तविक नाम जयहरिखाल है लेकिन बोला इसे जहरीखाल जाता है। हिन्दी और मैथिली भाषा के सुप्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन ने गर्मियों के अनेक मौसम जहरीखाल के महाविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष व अपने एक प्रशंसक साहित्यकार प्रोफेसर वाचस्पति के घर रहकर गुजारे थे। यहाँ रहते हुए बाबा ने अनेक कविताओं की रचना की थी। सन् 1984 में जहरीखाल को इंगित करके अपनी यह कविता उन्होंने लिखी थी—’’

इतना कहकर दादा जी उस कविता का मौखिक पाठ कर उठे,

‘‘मानसून उतरा है

जहरीखाल की पहाड़ियों पर

बादल भिगो गये रातों-रात

सलेटी छतों के

कच्चे-पक्के घरों को

प्रमुदित हैं गिरिजन

सोंधी भाप छोड़ रहे हैं

सीढ़ियों की

ज्यामितिक आकृतियों में

फैले हुए खेत

दूर-दूर

दूर-दूर

दीख रहे इधर-उधर

डाँड़े की दोनों ओर

दावानल दग्ध वनांचल

कहीं-कहीं डाल रही व्यवधान

चीड़ों की झुलसी पत्तियाँ

मौसम का पहला वरदान

इन तक भी पहुँचा है

जहरीखाल पर

उतरा है मानसून

भिगो गया है

रातों-रात

इनको

उनको

हमको

आपको

मौसम का पहला वरदान

पहुँचा है सभी तक।’’

यह कविता बोलते-बोलते दादा जी भावुक हो उठे। उनका गला भर्रा गया। आँखों में पानी छलक आया।

‘‘क्या हुआ बाबू जी!’’ यह देखकर सुधाकर ने चिन्तित स्वर में पूछा।

‘‘कुछ नहीं।’’ दादा जी ने हथेली से पलकें पोंछते हुए कहा, ‘‘बाबा के संग कुछ पल गुजारने का मौका मुझे भी मिला था। उनकी इस कविता का पाठ करते हुए बस, उन पलों की याद हो आयी...और कुछ नहीं।’’

‘‘चलिए, इस जगह खड़े होकर बाबा की यहीं के बादलों पर केन्द्रित कविता का पाठ करके आपने उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे दी। अब चलें?’’

‘‘नहीं।’’ दादा जी संयत होकर बोले, ‘‘दो बातें लैंसडाउन के बारे में और सुन लो...’’

‘‘जी।’’

लैंसडौन

‘‘लैंसडौंन का पुराना नाम कालूडाँड़ा है। कालू का मतलब काला और डाँड़ा का मतलब पहाड़; यानी काले पहाड़ों का क्षेत्र। अठारह सौ अस्सी में भारत का अण्डर सेक्रेटरी बनकर आए लार्ड लैंसडौन ने अठारह सौ सतासी में कालूडाँडा का नाम बदलकर अपने नाम पर रख दिया। उसने इस जगह को गढ़वाल राइफल्स के ट्रेनिंग सेंटर के तौर पर विकसित किया और बसाया। लार्ड लैंसडौन को अठारह सौ अठासी में भारत का वायसराय बनाया गया। वह अठारह सौ चौरानवें तक वायसराय बना रहा। बाद में इंग्लैंड वापस बुला लिया गया। तब से आज तक यह सुरम्य पर्यटन स्थल और संस्कृति का केन्द्र है।’’

विशेषतः सुधाकर ने दादा जी की इन बातों को ध्यान से सुना। बच्चों की रुचि शायद इतिहास की घटनाओं को जानने में नहीं थी। वे तो ऊपर, आसमान में तैरते बादलों को देख-देखकर एक ही लाइन गा रहे थे—मानसून उतरा है, जहरीखाल की पहाड़ियों पर। लैंसडौन के बारे में कुछ बातें बताकर दादा जी जब कुछ देर चुप खड़े रह गए, तब सुधाकर ने उनसे पूछा, ‘‘अब चलें?’’

‘‘हाँ।’’ उन्होंने कहा।

उनके मुँह से यह सुनकर सब गाड़ी में बैठने को चल पड़े। सब बैठ चुके तो अल्ताफ ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

‘‘गुमखाल के बाद तो गाड़ी नीचे की ओर उतरना शुरू हो जाएगी न?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘हाँ।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘यह तूने कैसे जाना दीदी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘कॉमनसेंस!’’ मणिका मुस्कराकर बोली।

‘‘बता न।’’

‘‘कहा न, कॉमनसेंस!’’

‘‘आप बताइए दादा जी, इसने कैसे जाना कि गुमखाल के बाद टैक्सी ढलान पर उतरेगी?’’ निक्की दादा जी से बोला।

‘‘उसने जाना, क्योंकि वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही है।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘ध्यान से तो मैं भी आपकी बातें सुन रहा हूँ!’’ निक्की ने कहा ।

‘‘तब तुम्हें यह भी ध्यान होगा कि मैंने बताया था कि गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है।’’ दादा जी बोले।

‘‘जी।’’

‘‘क्या ‘जी’? तू भी एकदम अपने बाप पर ही गया है...निरा बुद्धू।’’ दादा जी क्षोभ-भरे स्वर में बोले, ‘‘अरे भाई, टैक्सी जब पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाएगी तो आगे बढ़ने के लिए ढलान के अलावा रास्ता ही क्या होगा।’’

‘‘बच्चों के बीच में बिना बात ही आप मुझे क्यों घसीट रहे हैं बाबू जी?’’ इस बात पर सुधाकर ने उन्हें टोका।

‘‘इसलिए कि यह तेरे-जैसी बेसिर की बातें कर रहा है।’’ दादा जी ने सफाई दी।

‘‘अरे, मेरी बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया आप लोगों ने।’’ मणिका तुनककर बोली, ‘‘मेरी बात पर आ जाइए दादा जी, उसके बाद हम कहाँ पहुँचेंगे?’’

‘‘सतपुली...उसके बाद हम सतपुली पहुँचेंगे।’’

‘‘और उसके बाद?’’

‘‘मैंने बताया न, रुकते-चलते तो हम रहेंगे ही।’’ दादा जी बोले, ‘‘देखने लायक रास्ते में बहुत-सी जगहें आएँगी...बहुत-सी दाएँ-बाएँ छूट जाएँगी। जैसे,कृएकेश्वर महादेव की ओर जाने वाला रास्ता, शृंगी ऋषि का आश्रम, ताराकुण्ड ताल और कंडारस्यूं पैठाणी का सुप्रसिद्ध शनि-मंदिर जो नवीं शताब्दी का माना जाता है। पाटीसैण नाम का सुन्दर शहरी इलाका आएगा। उसके बाद ज्वाल्पा देवी का बड़ा ही प्रसिद्ध मंदिर है। नवरात्र के दिनों में वहाँ माँ के भक्तों का बड़ा भारी मेला लगता है।’’

टैक्सी के हिचकोले बच्चों को पालने में झूलने-जैसा सुख दे रहे थे। यह सुख उन्हें बार-बार निद्रा-देवी की गोद में चले जाने को विवश कर रहा था, लेकिन प्रकृति की अद्भुत् छटा को बन्द आँखों से तो देखा नहीं जा सकता था। सो, नींद को वे बार-बार ‘सलाम’ कहते रहे। दादा जी से कुछ पूछने से ज्यादा अब उन्हें प्रकृति-दर्शन अच्छा लग रहा था। कम से कम सतपुली पहुँचने तक तो वे कुछ पूछने वाले थे नहीं। मौका ताड़कर दादा जी ने भी अपने शरीर को जरा ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्द करके सो जाने की कोशिश करने लगे।

टैक्सी जैसे ही सतपुली के निकट पहुँची, ऊपर की सड़कों पर बच्चों को विकसित शहर-जैसा कुछ नजर आने लगा। उसे देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि वे पहाड़ पर बसे किसी नगर को देख रहे हैं। कोशिश करने के बावजूद दादा जी सो नहीं पाए थे। ऊपर की सड़कों पर नजर पड़ते ही वे बोल उठे, ‘‘हम सतपुली पहुँचने वाले हैं। यह नगर नयार नदी के किनारे बसा हुआ है। आसपास के सभी गाँवों का यह मुख्य बाजार है। उन्नीस सौ इक्यावन में आई भयानक बाढ़ ने इस शहर को पूरी तरह से तबाह कर दिया था। जन और धन दोनों की बड़ी हानि इस शहर ने झेली थी। लोक गायकों ने उस घटना पर बहुत-से गीत बनाए थे। गढ़वाली साहित्य में उन गीतों को बड़ा सम्मान दिया जाता है।’’

अन्धा मोड़

सतपुली को पीछे छोड़कर टैक्सी इस समय आगे बढ़ चली थी। दादा जी की आँखें लग गयी थीं। प्रकृति-दर्शन में बच्चे भी ऐसे मग्न हुए कि सारी जिज्ञासाएँ, सारे सवाल भूल बैठे। प्राकृतिक सौंदर्य और सम्पदा से भरी हिमालय की इस शृंखला का यही महात्म्य है। समस्त जिज्ञासाओं से परे। मानव-मन यहाँ खुद-ब-खुद कविता गा उठता है। इस यात्रा में कदम-कदम पर अगर आनन्द और रोमांच है तो कभी-कभी कुछ मोड़ों पर भय की सिहरन भी है। ‘अन्धा मोड़’ लिखे साइन बोर्ड बच्चों ने यहाँ से पहले कहीं और नहीं देखे थे।

‘‘अन्धा मोड़ का क्या मतलब होता है डैडी?’’ दादा जी को सोया हुआ देखकर मणिका ने सुधाकर से पूछा।

‘‘अन्धा मोड़ का मतलब है वह मोड़ जो एकदम गोला आकार का हो...’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘करीब-करीब ज़ीरो की तरह का।’’

इतना बताकर वह चुप हो गए ।

किसी जमाने में घने और डरावने जंगलों के बीच हिंसक पशुओं और दैवी आपदाओं से टकराते मजबूत इरादों वाले यायावर कदमों ने इन दुरूह पहाड़ियों पर पगडंडियाँ बनाई थीं तो आज मजबूत और मेहनती कन्धों व लोहे के हाथों वाले उनके वंशजों ने पतली पगडंडियों को लम्बी-चौड़ी सड़कों में तथा सँकरी पुलियाओं को भारी-भरकम सुविधाजनक पुलों में बदल डाला है।

एक अन्धे मोड़ पर सामने से आती तेज रफ्तार कार को बचाने के चक्कर में अल्ताफ ने टैक्सी को तेजी से काटा। उससे झटका खाकर दादा जी जाग उठे। बाहर के दृश्यों को देखकर उन्होंने जगह को पहचानने की कोशिश की। फिर बच्चों से पूछा, ‘‘पौड़ी पीछे छूट गया क्या?’’

‘‘नहीं दादा जी!’’ निक्की ने बताया, ‘‘पौड़ी तो अब आने वाला है।’’

‘‘अच्छा! तुमने कैसे जाना?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘कॉमनसेंस से, और कैसे?“ वह बोला ।

‘‘बाप पर गया है पूरी तरह!’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘सड़क-किनारे के एक बोर्ड को पढ़कर मुझे चीट कर रहा है बदमाश।’’

‘‘जो भी हो, है तो इंटेलीजेंट ही न!’’ उनकी इस बात पर सुधाकर बोला।

‘‘मान गया यार, तुम बाप-बेटा दोनों ही बहुत इंटेलीजेंट हो।’’ दादा जी ने कहा, फिर पूछा, ‘‘अच्छा यह बताओ कि पौड़ी-क्षेत्र का देवता कौन है?’’

सुधाकर उनके इस सवाल को जैसे सुना ही नहीं, वह खिड़की से बाहर प्राकृतिक दृश्यों को देखने में मशगूल हो गया। बच्चे दादा जी की सूरत देखने लगे ।

‘‘नाग देवता।’’ कुछ देर इंतज़ार के बाद दादा जी ने स्वयं ही बताया, ‘‘ऊपर, एक पहाड़ी पर कंडोलिया गाँव है जहाँ नाग-देवता की थाती है। थाती मतलब—पुरखों के जमाने से चली आ रही जगह। बड़ा भारी मेला भी लगता है वहाँ पर। पौड़ी की एक-और भी विशेषता है...।’’ दादा जी आगे बोले, ‘‘गुमखाल के बाद आसपास के पहाड़ों में यह नगर सबसे ऊँची जगह पर बसा है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई जानते हो?’’

‘‘नहीं।’’ दोनों बच्चों ने सिर हिलाया।

‘‘तू जानता है रे बुद्धू?’’ दादा जी ने सुधाकर से पूछा जो अब ऊँघते हुए यात्रा कर रहे थे।

‘‘आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें ‘बुद्धू’ मत कहा करो बाबू जी।’’ ममता ने बनावटी नाराज़गी के स्वर में कहा।

‘‘देखा?’’ उसकी बात पर सुधाकर एकदम-से चहक उठा, ‘‘वैसे तो मन में पटाखे फूट रहे होंगे कि बाबू जी ने सरेआम मुझे बुद्धू कहा, लेकिन दिखावे के लिए कहेंगी, आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें बुद्धू मत कहा करो। मतलब कि जब कहो इनके सामने कहो ताकि इनके कलेजे को ठण्डक मिला करे।’’

ममता यह बात सुनकर नीचे ही नीचे मुस्कराती रही। बच्चे भी खुश होते रहे और अल्ताफ भी। दादा जी भी सब समझ रहे थे। उन्होंने कुछ नहीं कहा। सिर्फ इतना बोले, ‘‘भई, वह तो मैं इसे लाड़ में कहता हूँ...और वह भी इसके जन्म के समय से।’’

‘‘जन्म के समय ही इनकी यह ‘खूबी’ आप ने कैसे जान ली थी बाबू जी?’’ सब-कुछ जानते हुए भी ममता ने मुस्कराते हुए सवाल किया।

‘‘वो ऐसे कि इसका जन्म बुधवार को हुआ था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘उसी समय मैंने सोच लिया था कि इसका नाम मैं बुधप्रकाश रखूँगा।’’

‘‘बुध को तो यह निक्की भी पैदा हुआ था।’’ सुधाकर बोला, ‘‘अपने पोते का नाम तो आपने ‘बुद्धू’ नहीं सोचा।’’

‘‘यों तो मैं खुद भी बुध को ही पैदा हुआ था...’’ दादा जी ने कहा, ‘‘अब एक ही घर में तीन-तीन बुद्धू तो नहीं रह सकते थे।’’

‘‘क्यों नहीं रह सकते थे?’’ सुधाकर ने दलील दी, ‘‘प्रथम, द्वितीय, तृतीय कर देते, अंग्रेजों की तरह।’’

‘‘मुझे अंग्रेजों के चलन का पता नहीं था न बेटा।’’ दादा जी व्यंग्यपूर्वक बोले, ‘‘खैर। बहू, तू आगे की बात सुन—इसे स्कूल में दाखिल कराने को ले जाने से पहले तक यह नाम घर में चलता रहा। लेकिन जब दाखिला कराने को स्कूल ले जाने लगा तो इसकी मम्मी ने कहा—कोई और नाम लिखवाना लड़के का, वरना सारे साथी और अध्यापक बुधप्रकाश को बिगाड़कर तुम्हारी तरह ‘बुद्धू’ कहने लगेंगे। मुझे भी उनकी यह दलील जँच गई और इसका नाम ‘सुधाकर’ लिखवा आया। लेकिन इसका जन्मज़ात नाम मैंने नहीं बिगड़ने दिया।’’

‘‘नहीं बिगड़ने दिया बाबूजी या नहीं सुधरने दिया?’’ सुधाकर बोला।

‘‘बेटा, मैं तुझे बुद्धू कहता जरूर हूँ लेकिन मानता थोड़े ही हूँ। मैं क्या जानता नहीं हूँ कि तू अपने फ़न में माहिर है और मेरे जैसे तो सौ आदमियों के कान एक-साथ काटता है।’’ दादा जी सुधाकर की प्रशंसा करते हुए बोले।

‘‘कान या बाल?’’ ममता ने चुटकी ली। उसकी इस चुटकी पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस ही पड़ा। बाकी सब भी हँसे बिना न रह सके।

‘‘अच्छा सुनो।’’ बात के तारतम्य को जोड़ते हुए दादा जी ने बताना शुरू किया, ‘‘समुद्रतल से पौड़ी की ऊँचाई है—करीब साढ़े पाँच हजार फुट। इसलिए हिमालय की बहुत-सी चोटियाँ यहाँ से साफ नजर आती हैं। एकदम सवेरे, उषाकाल में, ऊपर उठते अरुण की रक्तवर्णी किरणें जब बर्फीली चोटियों को अपनी आभा से सुशोभित करती हैं तो देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं।’’

‘‘क्या बात है।’’ यह सुनकर सुधाकर एकदम बोल उठे, ‘‘हमें गर्व है बाबूजी कि हम आपकी सन्तान हैं। महाकवि कालिदास के बाद एक आप ही हैं जो कभी-कभी इतनी गहरी भाषा बोल सकते हैं कि आसपास बैठे लोगों के सिर पर से गुजर जाए।’’

दादा जी उसके इस जुमले पर कुछ बोल पाते, उससे पहले ही मणिका शिकायती-स्वर में बोल उठी, ‘‘यह क्या दादा जी! सादा और सरल भाषा बोलिए न! आसानी से हम बच्चों की समझ में आने वाली।’’

‘‘सॉरी बेटे, कभी-कभी मन बहुत भावुक हो उठता है और ध्यान नहीं रहता कि हमें भारी-भरकम नहीं, बोलचाल की सीधी-सादी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए।’’

पौड़ी

टैक्सी अब तक पौड़ी पहुँच चुकी थी। यह अच्छा-खासा उन्नत नगर है। ठहरने के लिए बहुत-से साधन हैं। आसपास कोई ऊँची पर्वत-शृंखला न होने के कारण यहाँ झरने नहीं हैं और इसीलिए पानी की व्यवस्था नीचे, घाटी में बसे श्रीनगर से पाइप-लाइन बिछाकर की गई है।

नजीबाबाद और कोटद्वार से पौड़ी तक बस द्वारा आने वाली सवारियाँ कई घण्टे लगातार बैठी रहने के कारण थक जाती हैं और बस के रुकते ही नीचे उतर पड़ती हैं। प्राकृतिक सुन्दरता का चहेता न हो तो पहाड़ी रास्तों की यात्रा आदमी के शरीर के साथ-साथ मन को भी बेहद थका डालती है। मणिका,-निक्की, ममता,-सुधाकर और दादा जी भी चहल-कदमी के लिए टैक्सी से उतर पड़े। दादा जी से अलग दोनों बच्चे नीचे, घाटी की ओर उतरने वाली सड़क के बायें किनारे पर बने खेतों को देखने लगे।

‘‘दीदी! देख—किताब में छपे-जैसे सीढ़ीदार खेत!’’ निक्की चहक उठा, ‘‘...और उधर, नीचे देख—कितने छोटे-छोटे बैल...गुलीवर की कहानी-जैसे!’’

‘‘धत्, ये छोटे नहीं हैं बुद्धू।’’ मणिका बोली, ‘‘बहुत दूर से देखने के कारण ये ऐसे नजर आ रहे हैं।...वह सड़क देख, घुँघराले बालों जैसी लहरदार! और उस पर खिलौनों-जैसी दौड़ती रंग-बिरंगी बसें!!’’

‘‘कितनी छोटी-छोटी!!!’’ निक्की तालियाँ बजाता उछला, ‘‘ऐसा तो एक खिलौना भी है न हमारे पास।’’

‘‘तू क्या समझता है, सचमुच ये खिलौने हैं?’’ मणिका बुजुर्गों की तरह बोली, ‘‘क्योंकि हम बहुत ऊँचाई से इन्हें देख रहे हैं इसलिए ये सब हमें इतने छोटे नजर आ रहे हैं।’’

‘‘मैं समझ गया दीदी।’’

इतने में उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस के ड्राइवर ने बस को आगे बढ़ाने का संकेत देने के लिए हॉर्न बजाया। उसमें बैठकर जाने वाली, आसपास टहल रही सभी सवारियाँ एक-एक कर बस में जा बैठीं।

दोनों बच्चे और दादा जी भी बस को देखते खड़े रहे।

‘‘हाँ भाई, किसी का कोई साथी, कोई पड़ोसी, कोई बच्चा बाहर तो नहीं छूट गया बस से?’’ कण्डक्टर ने बस में बैठी सवारियों से पूछा, फिर बाहर की ओर आवाज़ लगाई, ‘‘है कोई इस की सवारी?’’ और बस को आगे बढ़ाने के लिए सीटी बजा दी।

बस आगे श्रीनगर की ओर जानेवाली ढालू सड़क पर मुड़ गई।

‘‘यह बस किधर जा रही है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘यह रास्ता श्रीनगर की ओर जाता है। कुछ देर बाद हम भी इसी रास्ते पर चलेंगे।’’

‘‘आपको यहाँ न रुककर सीधे श्रीनगर में ही रुकना चाहिए था न दादा जी।’’ निक्की बोला।

‘‘देखो बेटे, लम्बी पहाड़ी यात्राओं में, जहाँ तक बन सके, छोटी-छोटी दूरियाँ ही तय करते हुए चलना चाहिए। दूसरी बात यह कि यात्रा के दौरान किसी वजह से अगर कहीं रुकने का मन करे तो सोचो मत, रुक जाओ।’’

निक्की कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर इधर-उधर घूम-घामकर ममता, सुधाकर, दादा जी और निक्की-मणि...सब के सब पुनः टैक्सी में आ बैठे। टैक्सी उसी रास्ते पर आगे बढ़ चली जिस पर कुछ समय पहले उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की बस गई थी।

श्रीनगर

आधे घण्टे से भी कम समय में टैक्सी श्रीनगर बस स्टैंड पर जा खड़ी हुई। घाटी में बसा हुआ यह नगर एकदम मैदानी नगर जैसा आधुनिक लगता है। बड़े-बड़े होटल,-रेस्तराँ और बाज़ार। ऊँची इमारतें और चौड़ी सड़कें। गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर, आई.टी.आई., पॉलीटेक्नीक, पर्यटक-भवन और धर्मशालाएँ। इन सबसे ऊपर, सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते चारों तरफ खड़े हरे-भरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़। एक किनारे पर तेज गति से दौड़ती अलकनन्दा। सीढ़ी-दर-सीढ़ी ऊपर को चढ़ते धान के खेत। अनगिनत मन्दिर। बदरीनाथ की ओर जाने वाले पर्यटकों के लिए श्रीनगर एक जरूरी और आरामदेह हॉल्ट है।

‘‘आज का दिन हम यहीं पर बिताएँगे बच्चो!’’ दादा जी बोले, ‘‘चलो, उतरो।’’

‘‘लेकिन, हम तो भगवान बदरीनाथ के दर्शन को जा रहे हैं न दादा जी?’’ मणिका बोली।

‘‘बेशक।’’

‘‘तब, यहीं पर क्यों उतर रहे हैं आप?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘देखो बेटे! भगवान बदरीनाथ के दर्शन जितना ही महत्त्वपूर्ण विचार यह भी है कि हम बदरीधाम की यात्रा पर निकले हैं।’’ दादा जी बोले, ‘‘सुन्दर और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर तीर की तरह पहुँच जाने को यात्रा नहीं कहते। बीच में पड़ने वाली जरूरी जगहों के बारे में जानते हुए, उनके सौन्दर्य का पान करते हुए... उसे आत्मसात् करते हुए, वहाँ के छोटे से छोटे, गरीब से गरीब बाशिंदे से बातें करते हुए, उस बातचीत के जरिए वहाँ की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हुए, यह जानने की कोशिश करते हुए कि वहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन क्या है, उनका रहन-सहन कैसा है, उनकी परम्पराएं और रीति-रिवाज़ क्या हैं, हमें आगे बढ़ना चाहिए। इस यात्रा में यह श्रीनगर हमारा पहला पड़ाव है।’’

‘‘अच्छा चलिए, ’’ दादा जी की इस बात पर सुधाकर ने कहा, ‘‘यह बताइए कि यहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन क्या है और उनका रहन-सहन कैसा है?’’

‘‘बहुत अच्छी बात पूछी तूने।’’ दादा जी ने हँसते हुए कहा, ‘‘सुधाकर, यहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन तो खेती ही है। रही रहन-सहन की बात। तो मैं समझता हूँ कि ये बहुत कम में सन्तुष्ट हो जाने वाले लोग हैं। ...और तुम तो जानते ही हो कि सन्तुष्ट व्यक्ति का रहन-सहन दिखावे वाला नहीं होता। हालाँकि आधुनिकता के कदम यहाँ की धरती पर भी पड़ चुके हैं; यहाँ के बच्चे भी इंटरनेट की दुनिया से जुड़ चुके हैं; ऊँची-ऊँची इमारतें यहाँ भी बनने लगी हैं; फिर भी, रहन-सहन यहाँ के लोगों का सादा ही है।’’ इतना कहकर दादा जी कुछ देर को रुक गए। फिर एकाएक दोबारा बोले, ‘‘जीविका के बारे में तुम्हें एक बात और बता दूँ—उत्तराखण्ड की रचना कुमायूँ और गढ़वाल, इन दो अंचलों को जोड़कर हुई है। अंग्रेजों के जमाने से ही यहाँ के ज्यादातर लोग सेना में भर्ती होकर जीविका कमाते आए हैं। यह परम्परा आज भी यहाँ के अनेक परिवारों में ही नहीं, अनेक गाँवों में भी कायम है।’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं बाबू जी।’’ सुधाकर सहमति जताता हुआ बोला, ‘‘इतिहास की किताबों में मैंने गढ़वाल रेजीमेंट और कुमायूँ रेजीमेंट के बारे में पढ़ा था।’’

‘‘यहाँ हम किस होटल में रुकेंगे दादा जी?’’ निक्की ने बीच में टोकते हुए दादा जी से पुनः पूछा।

‘‘रुकने के लिए होटलों-धर्मशालाओं और यात्री-निवासों की यहाँ कोई कमी नहीं है बेटे।...फिलहाल हम बाबा काली कमली वाले के यात्री-निवास में रुकेंगे।’’ यह कहकर वे अल्ताफ से बोले, ‘‘गाड़ी उधर ले चलो अल्ताफ, उधर, जहाँ वह बोर्ड लगा है।’’

‘‘जिस पर ‘विश्रामगृह’ लिखा है बाबा जी?’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘हाँ,’’ दादा जी ने कहा, ‘‘उसी के बराबर में बाबा काली कमली वाले का यात्री-निवास है, वहाँ रोकना।’’

अल्ताफ ने टैक्सी को वहाँ लेजाकर रोक दिया। आसपास घूम रहे बहुत-से कुलियों में से एक को आवाज़ लगाकर दादा जी ने टैक्सी से सामान उतारकर बाबा काली कमली वाले के यात्री निवास में भीतर तक ले चलने का आदेश दिया।

बाबा काली कमली वाले

‘‘यह काली कमली वाले बाबा कौन हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘हैं नहीं, थे।’’ दादा जी बोले, ‘‘कुछ लोग कहते हैं कि पंजाब के जिला गुजरांवाला के जलालपुर कीकना में सन् 1831 में उनका जन्म हुआ था। लेकिन मैंने कुछ और ही पढ़ा है।’’

‘‘क्या?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘मैंने पढ़ा है कि इनका जन्म बंगाल प्रांत के वर्धमान जिले के अन्तर्गत बंडुल नामक गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था…सन् 1853 ईस्वी में। बचपन में ही पिता अखिलचन्द्र चटोपाध्याय की मृत्यु हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनकी माता राजेश्वरी देवी और चाचा चन्द्रनाथ जी ने किया था। इनका बचपन का नाम ‘भोलानाथ’ था। बचपन में ही ये स्वामी निमानन्द नाम के एक सिद्ध-पुरुष के सत्संग में आ गये थे। इनके गुरु का नाम भृगुराम देव बताया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि सिर्फ 32 साल की उम्र में वे संन्यासी हो गये थे। लेकिन प्रमाण यह भी मिलता है कि सन् 1892 में कृष्णभामिनी देवी से इनका विवाह हुआ था। इनके दो पुत्र—दुर्गादास तथा विष्णुपद व एक पुत्री विश्वेश्वरी देवी का जन्म हुआ। डॉक्टरी का व्यवसाय अपनाकर ये वर्धमान जिले के गुष्करा नामक स्थान में चले गये। सन् 1911 तक वहीं रहे। संन्यास के बाद ‘भोलानाथ’ स्वामी विशुद्धानन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार बदरी-केदार यात्रा पर आए तो उत्तराखण्ड से उन्हें बेहद प्यार हो गया। यहाँ आने वाले यात्रियों की विश्राम सम्बन्धी परेशानियों को महसूस करके सन् 1880 में उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया। उस ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने यहाँ के हर तीर्थ पर धर्मशालाएँ बनवाईं।’’

‘‘काली कमली का क्या मतलब है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘स्वामी विशुद्धानन्द हमेशा काला कम्बल ओढ़े रहते थे, इसलिए लोग उन्हें काली कमली वाले बाबा कहने लगे थे।’’ दादा जी ने बताया।

बातें करते हुए वे भीतर तक जा पहुँचे। एकदम साफ-सुथरा था यात्राी-निवास। इस बीच सुधाकर ने मैनेजर से बातें करके दो कमरे बुक कर लिये थे। सोचा, एक में ममता और बच्चे रह लेंगे और दूसरे में वह और दादा जी। लेकिन दादा जी ने सुधाकर से कहा, ‘‘नहीं, खुद को और तुम्हें एक कमरे में, और ममता और बच्चों को दूसरे कमरे में रखने का मतलब होगा कि ताकतवरों को एक कमरे में और कमज़ोरों को दूसरे कमरे में रख दिया। यह गलत है। औरतों और बच्चों को कभी भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा करो, एक कमरे में तुम और ममता रुको और दूसरे कमरे में मैं और बच्चे रहेंगे।’’

अल्ताफ ने अपना बसेरा गाड़ी में बना लेने की बात पहले ही उनसे कह दी थी।

स्नान-ध्यान और नाश्ता

दादा जी के कहे अनुसार, ममता और सुधाकर अपने कमरे में जा चुके थे। अपने कमरे की ओर बढ़ते दादा जी बच्चों से बोले, ‘‘देखो भाई, सुबह का समय है और रातभर बैठे रहने के कारण हम सब थके हुए भी हैं। इसलिए सबसे पहला काम है अपने-आप को नहा-धोकर तरोताज़ा करना। उसके बाद अपुन तो हल्का-फुल्का खाना खाकर कुछ देर के लिए सोएँगे।’’

‘‘और कहानी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘कहानी तरोताज़ा होने के बाद।’’

‘‘ठीक है।’’ मणिका बोली।

कमरे को अन्दर से बन्द करके दादा जी ने अटैची से अपने और बच्चों के पहनने के कपड़े निकालकर पलंग पर डाले। अपने कपड़े लेकर वे बाथरूम में घुस गए। उनके नहा आने के बाद निक्की नहाने को गया और अन्त में, मणिका। दादा जी इस बीच आँखें मूदँकर जाप करने को बैठ गए थे।

जैसे ही मणिका नहाने के लिए बाथरूम में घुसी, दादा जी के मोबाइल पर हनुमान चालीसा का पाठ सुनाई देने लगा। निक्की ने उठाकर देखा, सुधाकर की ओर से कॉल थी। कॉल बटन को पुश करके उसने मोबाइल को कान से लगाया और बोला, ‘‘हलो डैड!’’

‘‘हलो बेटे!’’ सुधाकर ने पूछा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘नहाकर बैठे हैं।’’

‘‘सब नहा लिए?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘दादा जी क्या कर रहे हैं?’’

‘‘पूजा।’’

‘‘ठीक है।’’ उधर से आवाज़ आई, ‘‘मैंने चाय ऑर्डर कर दी है। वह लाता ही होगा। हम लोग भी तैयार होकर तुम्हारे कमरे में ही आ रहे हैं। साथ चाय पियेंगे। दादा जी से कह देना।’’

‘‘ओ. के. डैड।’’ निक्की ने कहा और कॉल काट दी।

जैसे ही दादा जी ने पूजा समाप्त की, निक्की ने सुधाकर का संदेश उन्हें सुना दिया। कुछ ही देर में मणिका भी नहाकर बाथरूम से बाहर निकल आई। तभी कमरे की घंटी बजी। निक्की ने दरवाज़ा खोला। मम्मी-डैडी थे। वे अन्दर आकर कुर्सियों पर बैठ गए और वेटर के आने का इंतज़ार करने लगे। जब काफी देर तक वह नहीं आया तो सुधाकर खुद उठकर बाहर गया और काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से कुछ कहा।

‘‘आप अपने कमरे में चलिए सर, मैं अभी भिजवाता हूँ।’’ वह उनसे बोला।

सुधाकर वापस आ गया। उनके पीछे-पीछे ही लम्बे कद का एक युवक चाय की केतली, प्याले और प्लेटें ट्रे में रखकर चला आया। बोला, ‘‘शॉरी शर जी। आज रश कुछ ज्यादा है। लाने में देर हो गई।’’

‘‘कोई बात नहीं।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘कुछ और लाऊँ शर जी ?’’ उसने पूछा।

‘‘नहीं।’’ सुधाकर बोला, ‘‘जाते समय दरवाज़ा बन्द कर देना।’’

‘‘जी शर जी।’’ उसने कहा और बाहर निकलकर दरवाज़ा बन्द कर गया।

सुधाकर ने कपों में चाय उँढ़ेलनी शुरू की। ममता ने बैग खोलकर घर से लाया हुआ नाश्ता प्लेटों में लगाया।

सबने चाय-पान शुरू किया।

नरबलि और आदि शंकराचार्य

‘‘अभी तुम लोग थक गए होगे, आराम करो। दिन तो अभी सारा ही बाकी है। दो-तीन बजे तक आराम करके उठने के बाद हम श्रीनगर में घूमेंगे।’’ चाय-पान के बाद दादा जी ममता व सुधाकर से बोले।

‘‘जी बाबू जी।’’ ममता ने कहा और बच्चों से बोली, ‘‘भाई-बहन दोनों आराम करना, तंग मत करना दादा जी को।’’

‘‘अब आप भी तो हमें तंग मत करो मम्मी, जाओ प्लीज़।’’ मणिका ने ममता से कहा।

‘‘दिस इज़ नॉट योर बिजनेस यार।’’ सुधाकर ममता से बोला,‘‘बाबूजी खुद इन्हें देख लेंगे।’’

‘‘यह घर नहीं है जी कि बच्चे बाबू जी को परेशान करें और हम यह सोच लें कि ये जानें। बाहर का मामला है, यहाँ तो हमें ही इनकी खबर लेनी पड़ेगी।’’ ममता ने सख्ती से कहा।

सुधाकर इस पर कुछ न बोल सके और चुपचाप कमरे से निकलकर बाहर जा खड़े हुए। बच्चों को समझाकर ममता भी चली गई।

‘‘समझ गए दोनों?’’ उसके जाते ही दादा जी ने चुटकी ली।

‘‘समझ गए।’’ मणिका मुँह बनाकर बोली, ‘‘नॉट अ फ्रेंडली वन, शी इज़ अ प्रीचिंग मॉम।’’

‘‘और अपनी मम्मी के बारे में आपका क्या विचार है शहजादा सलीम?’’ दादा जी ने निक्की से पूछा।

‘‘सेम।’’ वह बोला।

‘‘दिल से बोल रहे हो या दीदी का बचाव कर रहे हो?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘दोनों।’’ उसने कहा।

‘‘अब आप भी ज्यादा स्मार्ट न बनो दादा जी।’’ मणिका दादा जी से बोली, ‘‘मम्मी ने आपको परेशान न करने की हिदायत दी है, बस। कमरे में लेटे-लेटे भी तो आप हमें काफी कुछ बता सकते हैं न!’’

‘‘सो तो मैं जानता हूँ...’’ हँसते हुए दादा जी बोले, ‘‘कि तुम लोग मुझे आराम नहीं करने दोगे। ठीक है, उधर वाले बिस्तर पर लेटो। मैं इस पलंग पर पड़ा-पड़ा तुम्हें कुछ-न-कुछ सुनाता हूँ।’’

यह सुनते ही बच्चे कमरे में पड़े दो बिस्तरों में से एक पर जा लेटे। दूसरे पर दादा जी लेट गए।

‘‘किसी ज़माने में यह श्रीनगर, पूरे गढ़वाल की राजधानी हुआ करता था।’’ दादा जी ने बताना शुरू किया।

‘‘किस ज़माने में?’’

‘‘कहते हैं कि सन् 1358 में, राजा अजयपाल के ज़माने में। यहाँ से कुछ ही दूरी पर एक जगह है—देवलगढ़। उसने उस देवलगढ़ को छोड़कर श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘उसके बाद जो भी राजा बना, उसने श्रीनगर को ही राजधानी बनाए रखना ठीक समझा।’’

‘‘कब तक दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘सन् 1803 यानी करीब साढ़े चार सौ साल तक यह श्रीनगर ही गढ़वाल की राजधानी रहा।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘अच्छा दादा जी, इस जगह का नाम श्रीनगर किस तरह पड़ा?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘यहाँ से कुछ दूरी पर छोटा-सा एक गाँव है बेटे, उफल्डा।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘वहाँ एक बहुत बड़ी शिला पर ‘श्रीयन्त्र’ खुदवाया गया था। सुना जाता है कि पुराने समय के राजा विधि-विधान से उस श्रीयन्त्र की पूजा करते थे। उस पूजा में नरबलि भी दी जाती थी। हजारों साल तक यह पाप उनके द्वारा किया जाता रहा। बाद में, जब आदि शंकराचार्य अपने भारत-भ्रमण के दौरान यहाँ पहुँचे, तो उन्हें इसका पता चला। वह तुरन्त उफल्डा गए और श्रीयन्त्र-शिला को अलकनन्दा में धकेल दिया।’’ यह कहकर दादा जी चुप हो गए।

बच्चे भी चुप पड़े रहे; लेकिन दादा जी को देर तक चुप देखकर मणिका बोली, ‘‘यहाँ के बारे में कुछ और भी बताइए न दादा जी!’’

‘‘कुछ और? सुनो—एक-एक करके मैं तुमको यहाँ की सभी प्रसिद्ध जगहों और महत्त्वपूर्ण मन्दिरों के बारे में बताता हूँ।’’ दादा जी बोले, ‘‘श्रीनगर अलकनन्दा नदी के बायें किनारे पर बसा है और उसी के एक किनारे पर कमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यहाँ पर भारी तप किया था। ऊँची चोटियों से लाकर उन्होंने एक हज़ार ब्रह्मकमल उनके चरणों में चढ़ाए थे। तभी से भगवान शंकर का और उस जगह का नाम कमलेश्वर महादेव पड़ गया। यह भी कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान शंकर ने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र दिया था। उस मन्दिर के पास ही कपिल मुनि की समाधि भी है।’’

‘‘ब्रह्मकमल क्या होता है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘नाम से ऐसा लगता है जैसे हम आम तौर पर देखे जाने वाले कमल की बात कर रहे हैं: लेकिन ऐसा है नहीं।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘ब्रह्मकमल होता तो एक तरह का फूल ही है बेटे; लेकिन यह सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में होता है और वह भी बारह-चौदह हज़ार फुट ऊँची किसी पहाड़ी पर। यह पत्थरों के बीच खिलता है। इससे कम ऊँचाई पर यह नहीं होता। जानने-समझने की बात यह है कि ब्रह्मकमल ऐसा कमल है जो कीचड़ में नहीं पत्थरों में खिलता है।’’ फिर कुछ पल रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘मठ तो तुम लोग समझते हो न?’’

‘‘जी हाँ, दादा जी।’’ मणिका बोली, ‘‘संन्यासियों के रहने की जगह।’’

‘‘श्रीनगर में कुछ प्राचीन मठ भी हैं; जैसे—केशोराय का मठ, शंकर मठ और बदरीनाथ मठ। इनके अलावा एक जैन मन्दिर है, गुरु गोरखनाथ की गुफा है, वैष्णवी शिला है तथा लक्ष्मीनारायण, कल्याणेश्वर, नागेश्वर, भैरों, किलकिलेश्वर महादेव...और भी न जाने कितने मन्दिर हैं।’’

‘‘यह क्या बात हुई दादा जी।’’ निक्की अपने बिस्तर से उठकर दादा जी के पास आ लेटा, ‘‘आप तो मन्दिरों के नाम गिनाने लगे! कोई मज़ेदार बात बताइए न!’’

‘‘मज़ेदार बात!’’ दादा जी कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘...ठीक है। लेकिन उसके बाद तुम चुप रहकर आराम करोगे, वादा करो।’’

‘‘क्यों?’’ मणिका चिहुँकी और कूदकर वह भी दादा जी के साथ ही आ लेटी।

‘‘इसलिए कि आराम नहीं करोगे तो घूमोगे कैसे?’’

‘‘ठीक है, वादा किया।’’ दोनों बोले।

‘‘तो सुनो—कला और काव्य के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं—मौलाराम। सन् 1743 में उनका जन्म हुआ था। वे श्रीनगर के ही रहने वाले थे।’’

‘‘यह भी तो जनरल नॉलेज बढ़ाने वाली बात ही आपने बताई दादा जी।’’ मणिका रूठे-से स्वर में बोली, ‘‘हम लोग वैकेशन टूर पर निकले हैं या एजूकेशन टूर पर?’’

‘‘हाँ, ’’ निक्की भी तुरन्त बोला, ‘‘आपने मज़ेदार बात सुनाने का वादा किया था, जनरल नॉलेज बढ़ाने वाली बात सुनाने का नहीं।’’

उनकी इस बात पर दादा जी जोर-से हँस पड़े और बोले, ‘‘एक नहीं, मैं तुमको कई मजेदार बातें सुनाऊँगा; लेकिन आराम करके उठने के बाद। अब आप दोनों अपने बिस्तर पर जाकर सो जाओ।’’

लेकिन दोनों में से एक ने भी उनकी बात पर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया। आखिरकार, दादा जी को कहानी सुनाना शुरू करना ही पड़ा।

कथा नारद जी की

‘‘सुनो—नारद जी को...’’ दादा जी ने सुनाना शुरू किया; फिर टोकते हुए पूछा,‘‘नारद जी के बारे में तो जानते हो न?’’

‘‘हाँ,’’ निक्की तुरन्त बोला, ‘‘गंजा सिर, ऊँची खड़ी हुई चोटी, हाथ में एकतारा...तुन-तुन बजने वाला।’’

‘‘...और मुँह में ना...ऽ...रायण-ना...ऽ...रायण!’’ मणिका उपहास के अन्दाज़ में बोली, ‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर करने वाले चुगलखोर ऋषि।’’

मणिका के इस अन्दाज़ पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस दिया लेकिन दादा जी गम्भीरतापूर्वक उसका चेहरा ताकते रह गए। कुछ देर बाद वह बोले, ‘‘देखो बेटा, नारद जी ब्रह्मज्ञानी ऋषि हैं और उनके-जैसा निश्छल और निष्कपट व्यक्ति सृष्टि में दूसरा नहीं हुआ। वे ऐसे ऋषि हैं जो न नीति जानते हैं न राजनीति; उनके मन में केवल एक बात रहती है, वो यह कि दूसरों का भला कैसे किया जाय। दूसरों का भला करने की इस भोली-भाली कोशिश में ही उनसे दूसरों का अहित हो जाता है। इस दुनिया में आज भी ऐसे निष्कपट लोगों की कमी नहीं है जो अपनी बातों से करना तो दूसरों का भला चाहते हैं लेकिन अज्ञानतावश धूर्त और चालाक लोगों की बदौलत दूसरों का अहित कर बैठते हैं।’’

बच्चे कान लगाकर उनकी बातें सुन रहे थे।

‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर पहुँचाने की नारद जी की आदत में और चुगली करने की आदत में सबसे बड़ा फर्क यही है कि चुगली करने में अपना हित और दूसरे का अहित करने की भावना छिपी रहती है। चुगली करने वाले को पता रहता है कि इस व्यक्ति से जो मैं उस व्यक्ति के बारे में बातें कह रहा हूँ उसका उद्देश्य अपना हित साधना है; भले ही उन दोनों के बीच झगड़ा पैदा हो जाए। जबकि नारदजी वे सब बातें समाज का हित करने की भावना से करते थे। उन्हें लगता था कि इस व्यक्ति से ये बातें मैं इसका या किसी अन्य का भला करने की नीयत से कह रहा हूँ।’’

‘‘जबकि हो उसका उल्टा जाता था ।’’ मणिका ने कहा।

‘‘सभी के साथ उलटा नहीं होता था। तुम्हें मालूम है, पार्वती जी जब छोटी थीं, नारद जी ने संकेत की भाषा में तभी उन्हें बता दिया था कि उनका विवाह भगवान शंकर से होगा इसलिए वो अभी से उनकी आराधना करें और पार्वतीजी ने वैसा ही किया था। इसलिए उनकी बात को सुनकर जो लोग उसकी गहराई को नहीं समझते थे उनके साथ उलटा हो जाता था और फिर वे लोग नारद जी को भला-बुरा कहते थे।’’

‘‘अच्छा, अब आगे की कहानी सुनाइए दादा जी।’’ निक्की बोला।

‘‘मैं तुम लोगों को सुना रहा था कि नारद जी को एक बार इस बात का बड़ा घमण्ड हो गया कि एक मामले में वे ब्रह्माजी, शिवजी और विष्णुजी इन तीनों से कहीं ज्यादा महान हैं।’’

शुरू-शुरू में हँसी-मजाक

‘‘यह कहानी है न दादा जी?’’ निक्की ने बीच में टोका।

‘‘टोका-टाकी अब बन्द।’’ दादा जी बोले, ‘‘सुनते जाओ बस।...तो नारदजी को घमण्ड हो गया कि इस पूरी सृष्टि में सिर्फ वही हैं जिसके मन में कभी विवाह करने का लालच नहीं जागा। विष्णुजी को इस घमण्ड का पता चला तो उन्होंने चला दिया उनके इस घमण्ड को तोड़ने का चक्कर। नारद जी को एक सुन्दर राजकुमारी भा गई। पता करने पर मालूम हुआ कि कुछ दिन बाद ही उसके विवाह के लिए स्वयंवर होने वाला है। दौड़े-दौड़े वे पहुँच गए विष्णुजी के पास; और बोले—बहुत जल्दी एक स्वयंवर होने वाला है भगवन्। ‘टिप-टॉप हीरो’ बना दो...तुरन्त।’’

‘‘आप भी क्या खूब सुनाते हैं दादा जी।’’ मणिका हँसी।

‘‘दीदी! ‘टिप-टॉप हीरो’।’’ निक्की भी हँसा।

‘‘विष्णुजी ने तो जाल फैलाया ही था। वह तुरन्त उन्हें ले गए एक नदी के किनारे और बोले—‘इस नदी के बीचों-बीच खड़े होकर मन ही मन उस कन्या का ध्यान करिए जिससे आप विवाह करना चाहते हैं और लगाइए तीन डुबकियाँ इस नदी के जल में। बहुत ही सुन्दर होकर निकलेंगे।’ नारद जी फटाफट धारा में उतरे और उसके बीचों-बीच पहुँचकर तीन डुबकियाँ जो लगाईं उस कन्या के रूप का ध्यान करके, तो कितना सुन्दर चेहरा लेकर जल से बाहर निकले, जानते हो?’’

‘‘बन्दर जितना।’’ दोनों बच्चे एक-साथ बोले।

‘‘रामचरितमानस पढ़ते समय यह कहानी एक बार पहले भी सुनाई थी आपने।’’ मणिका ने कहा।

‘‘हाँ, लेकिन तब मैं बहुत छोटा था। बात पूरी तरह समझ में नहीं आई थी।’’ निक्की ने कहा।

‘‘तू पूरी बात समझता ही कब है, हाफ माइंड!’’ मणिका ने ताना कसा।

‘‘...और तू क्रेक!’’ निक्की ने पलटवार किया।

‘‘तू महाक्रेक!!’’ मणिका उसकी ओर जीभ निकालकर चिढ़ाती हुई बोली।

और अंत में मुक्का-लात

अब, महाक्रेक से आगे की उपाधि निक्की जानता नहीं था। फिर भी बोला,‘‘तू महा-महा-महाक्रेक!!!’’ और यह कहकर उसने एक मुक्का मणि की कमर पर दे मारा। दादा जी कुछ समझ पाते, उससे पहले ही दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। इस काम में दोनों काफी माहिर थे। निक्की ‘हाथा’ में माहिर था और मणि ‘पाई’ में यानी निक्की के हाथ ज्यादा चलते थे और मणि के पैर। लड़ते-लड़ते दोनों पलंग से नीचे जा गिरे। यह देख दादा जी थोड़ा घबराए कि किसी को चोट न लग जाए, लेकिन जब देखा कि दोनों ठीक-ठाक हैं तो निश्चिंत बैठे रहे। यह तो इन दोनों का रोज़ का काम है—मिलना-जुलना, चिढ़ाना-चिढ़ना, कभी मारपीट और कभी हाथापाई पर उतर आना, कुछ घण्टों के लिए आपस में बोलचाल बन्द कर देना...और उसके बाद? उसके बाद पुनः एकजुट हो जाना। मम्मी, डैडी या दादा जी में से जो भी हत्थे चढ़ जाए उसकी जान खाना। दादा जी अब उस पल का इन्तज़ार करने लगे जब थक-हारकर दोनों में से कोई एक रोता हुआ उठ खड़ा होगा और औंधे मुँह अपने पलंग पर जा पड़ेगा।

दूसरा कहाँ जाएगा? वे सोचने लगे घर में तो कई कमरे हैं, जिसमें चाहो घुस जाओ। यहाँ तो सिर्फ दो कमरे लिए हैं, जिनमें से दूसरे को अन्दर से बन्द करके ममता और सुधाकर सो भी चुके होंगे। हे भगवान! जाकर इनमें से कोई उनके कमरे को न खटखटाने-बजाने लगे। थके-हारे हैं, कच्ची नींद में बाधा पड़ेगी तो नाराज़ हो उठेंगे। यह भी हो सकता है कि पिटाई ही कर डालें बाहर आकर। सुधाकर में धीरज की बड़ी कमी है।

लेकिन दादा जी के सोचने-जैसा कुछ नहीं हुआ। जो हुआ वो ये कि मणि की एक लात खाकर निक्की भैया पलंग से नीचे जा गिरे और लड़ाई को आगे ज़ारी रखने की अपनी घरेलू आदत से उलट, चुपचाप खड़े होकर औंधे मुँह दादा जी के पलंग पर जा पड़े। लड़ाई को आगे ज़ारी रखने की बजाय चुपचाप जा लेटने की उनकी हरकत से मणिका दीदी भी सकते में आ गईं और दूसरी ओर मुँह करके आँखें बन्दकर शान्त पड़ गईं।

दोनों के इस तरह चुपचाप अलग-अलग लेट जाने को देखकर दादा जी ने चैन की साँस ली। उन्होंने शव-आसन की मुद्रा में अपना शरीर ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्दकर वे भी सो जाने की कोशिश करने लगे। थकान के कारण वे शीघ्र ही गहरी नींद में डूब गए।

सुलह की कोशिश

ज्यादा नहीं, सिर्फ दो या तीन घण्टे आराम करके दादा जी उठ बैठे। मणिका और निक्की तो जैसे उनके जागने का इन्तज़ार ही कर रहे थे। वे भी बैठ गए; लेकिन वैसे ही अलग-अलग जैसे वे सोए थे। निक्की दादा जी के पलंग पर और मणिका दूसरे पलंग पर। दादा जी ने उन दोनों की ओर एक-एक बार उड़ती-सी नज़र से देखा और पलंग से उतरकर वॉशरूम की ओर चले गए।

‘‘यह मत समझना दीदी कि मैं तुझसे डरकर दादा जी के पास आ लेटा था।’’ उनके जाते ही निक्की मणिका से बोला, ‘‘वह तो मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहता था इसलिए इधर चला आया। घर पहुँचकर आज की इस पिटाई का बदला तुझसे जरूर लूँगा मैं।’’

‘‘मैं भी तो इसीलिए चुपचाप इसी पलंग पर लेटी रह गई थी कि तुझ बेवकूफ की वजह से यात्रा के दौरान कोई टेंशन नहीं पालनी है...’’ मणिका ने कहा, ‘‘वरना तू क्या समझता है कि मैं तुझे दादा जी के पास इतनी आसानी से सो जाने देती?’’

यह सेर को सवा-सेर वाली बात थी। निक्की तो समझ रहा था कि लात खाकर पलंग से नीचे गिर जाने के बावजूद मणिका से जो उसने कुछ नहीं कहा, उसका वह अहसान मानेगी; लेकिन यहाँ तो उल्टे मणिका ही उस पर अहसान जता रही थी कि उसने चुपचाप उसे दादा जी के पास सो जाने दिया! यानी कि न केवल अपनी गलती नहीं मान रही है बल्कि निक्की द्वारा भलाई करने का कुछ अहसान भी नहीं मान रही है!!

‘‘ठीक है...’’ उसकी बात से निरुत्तर हुआ-सा निक्की बोला, ‘‘अब दादा जी ही फैसला करेंगे कि सही किसने किया और गलत किसने?’’

नींद से जागने के बाद तरोताज़ा होने के लिए वॉशरूम में हाथ-मुँह धो रहे दादा जी उन दोनों की सारी बातें सुन रहे थे। वे समझ गए कि उन्होंने अगर जरूरत से थोड़ी भी ज्यादा देर वॉशरूम में लगा दी तो इन दोनों के बीच हाथापाई दोबारा शुरू हो जाएगी। इसलिए वे वहीं से बोले, ‘‘आप दोनों अब चुप हो जाइए, फैसला करने के लिए मजिस्ट्रेट साहब वॉशरूम से बाहर आने ही वाले हैं।’’

यों कहकर तौलिये से मुँह पोंछते हुए दादा जी वॉशरूम से बाहर निकले। अपने-अपने पलंग पर बैठे दोनों बच्चे उनकी ओर आशाभरी नजरों से ताकते हुए तनकर बैठ गए।

‘‘देखो भाई,’’ मुँह पोंछने के बाद दादा जी अपनी बाँहों को पोंछते हुए बोले, ‘‘लड़ते-लड़ते किसने किसको कम पीटा और किसने ज्यादा पीटा, यह बात तो हो गई खत्म। हमने यह मान लिया कि दोनों ने एक-दूसरे की बराबर पिटाई की, न कम न ज्यादा। अब, आखिर में मणिका की लात लगी निक्की को और वह पलंग से नीचे गिर गया। इस बात पर उसे बहुत गुस्सा आया होगा; लेकिन उसने लड़ाई को आगे बढ़ाने की बजाय चुप रहकर सो जाना बेहतर समझा। इसलिए मणिका को उसका अहसान मानकर सॉरी बोलना चाहिए।’’

‘‘क्यों?’’ मणिका एकदम-से त्यौरियाँ चढ़ाकर बोली, ‘‘...और मैंने जो इसको चुपचाप आपके पास सो जाने दिया उसका कुछ नहीं?’’

‘‘चुपचाप नहीं सो जाने दिया बल्कि पीटकर भगाया था इसलिए सो जाने दिया...डरकर।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘मैं इससे डरती हूँ क्या?’’

‘‘इससे नहीं, मुझसे और अपने मम्मी-डैडी से।’’ दादा जी ने स्पष्ट किया, ‘‘तुम अगर उसके बाद भी झगड़ा बढ़ाती तो मैं तुम्हें डाँटता, मुझसे भी न मानती तो मम्मी-डैडी से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ती। इस बात को तुम अच्छी तरह समझती थीं। इसलिए निक्की भैया पर तुमने वह अहसान किया।’’

यह एक सचाई थी, इसलिए मणिका को चुप रह जाना पड़ा।

‘‘देखो बेटा, कोई भी आदमी उम्र से नहीं, काम करने के अपने तरीके से बड़ा होता है। लड़ाई को बढ़ाए रखने की बजाय उसे खत्म करने का तरीका अपनाकर निक्की ने बड़ा काम किया है। इसलिए आज वह तुमसे बड़ा हो गया है।’’

दादा जी का यह फैसला मणिका को एकतरफा-जैसा लगा। वह बोली तो कुछ नहीं लेकिन मुँह बिचकाकर फैसले के खिलाफ अपना विरोध जरूर प्रकट कर दिया। दूसरी ओर फैसले को अपने पक्ष में हुआ देख निक्की जी तनकर बैठ गए।

दादा जी दोनों की बॉडी-लेंग्वेज को देखते-परखते रहे। कुछ देर बाद बोले, ‘‘निक्की बेटे, आज क्योंकि बड़ा काम करके तुमने अपने-आप को बड़ा सिद्ध कर दिया है, इसलिए तुम्हारी यह जिम्मेदारी बनती है कि आज की बात के लिए अपनी दीदी से तुम कभी लड़ोगे नहीं।’’

दादा जी की यह बात सुनकर निक्की थोड़ा चौंका। अपने आप को ‘बड़ा’ सुनकर जो खुशी उसे हुई थी, वह एकाएक गायब-सी हो गई। उसे लगा कि उसे बड़ा सिद्ध करके दादा जी ‘घर पहुँचकर आज की इस पिटाई का बदला’ दीदी से लेने की उसकी मंशा पर पानी फेरने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात के लिए मन से वह तैयार नहीं था। इसलिए बोला, ‘‘नहीं दादा जी, दीदी ही बड़ी है।’’

‘‘पक्का?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘पक्का।’’ निक्की ने कहा।

‘‘पलट तो नहीं जाओगे अपनी बात से ?’’

‘‘पलटूँगा कैसे? दीदी तो है ही बड़ी।’’

‘‘बड़ी है तो इससे लड़ते क्यों हो?’’ दादा जी ने पूछा।

निक्की इस सवाल का तुरन्त कोई जवाब नहीं दे पाया। कुछ देर बाद बोला, ‘‘यह भी तो लड़ती है।’’

‘‘अगर मैं तुमसे लड़ाई करूँ, तुम्हारे मम्मी-डैडी तुमसे लड़ाई करें तो उनसे भी ऐसे ही झगड़ा करोगे क्या?’’ दादा जी ने पूछा, ‘‘हमें बड़ों के साथ छोटों-जैसा और छोटों के साथ बड़ों-जैसा व्यवहार करना पड़ता है।’’

निक्की चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा।

‘‘देखो बेटा, अभी तो यात्रा का पहला ही पड़ाव है। आप लोग अगर अभी से कुछ टेंशंस पालकर रखोगे तो दूसरे,-तीसरे पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते उनका बोझ आपके दिमागों पर इतना ज्यादा हो चुका होगा कि यात्रा का सारा मज़ा किरकिरा कर देगा।’’

‘‘आप ठीक कहते हैं दादा जी।’’ उनकी बातें सुनकर मणिका ने कहा, ‘‘आय’म सॉरी। मैं अब पूरे रास्ते निक्की से झगड़ा नहीं करूँगी।’’

‘‘दादा जी से क्यों?’’ निक्की तुनककर बोला, ‘‘मुझसे सॉरी बोल न।’’

‘‘तुझसे क्यों?’’

‘‘लात तो तूने मुझको ही मारी थी न, इसलिए।’’

‘‘ठीक है, ’’ मणिका उसकी ओर देखकर बोली, ‘‘सॉरी।’’

‘‘अब तुम दोनों गले मिलो और मेरे सामने वादा करो कि इस यात्रा में ही नहीं, इसके बाद भी आपस में कभी नहीं लड़ोगे।’’ मणिका की बात सुनकर दादा जी ने निक्की की ओर देखते हुए कहा।

निक्की कुछ नहीं बोला। दादा जी के पलंग से उठकर चुपचाप मणि के पलंग पर जा बैठा और बोला, ‘‘अब आप नारद जी वाली अपनी वह कहानी पूरी कीजिए जो सोने से पहले अधूरी रह गई थी।’’

‘‘हाँ दादा जी।’’ उसकी बात के समर्थन में मणिका बोली।

पहले कहानी

‘‘यानी कि सुलह हो गई।’’ मुस्कराकर दादा जी ने कहा और आगे की कथा का तारतम्य जोड़ने से पहले बोले, ‘‘वैसे...थोड़ा-बहुत झगड़ा कर भी सकते हो, मेरी ओर से इजाजत है। भई, वह बचपन ही क्या जिसमें शरारतें और उछल-कूद न हों।’’ फिर, कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले, ‘‘पहले घूम-घाम या कहानी?’’

दोनों बच्चे एक-साथ चीखे, ‘‘पहले कहानी...।’’

‘‘श्श्श्श्......’’ अपने होठों पर उँगली रखकर दादा जी फुसफुसाए, ‘‘धीरे...बहुत धीरे।’’

‘‘पहले कहानी...।’’ उनकी नकल करते हुए बच्चे भी फुसफुसाए और जोरों से हँस दिए ।

दादा जी ने पुनः अपने होठों पर उँगली रखी और आवाज निकाली, ‘‘श्श्श्श्...!’’ फिर पूछा, ‘‘कहाँ थे हम?’’

‘‘विष्णुजी का कहना मानकर नारदजी ने अपनी मनपसन्द कन्या का ध्यान मन में किया और नदी के जल में तीन डुबकियाँ लगाकर जो बाहर निकले तो बन्दर-जैसा चेहरा लेकर।’’ मणिका ने बताया।

‘‘हाँ।’’ दादा जी ने तुरन्त पूछा, ‘‘जानते हो वह घटना कहाँ घटी थी?’’

‘‘कहाँ दादा जी?’’

‘‘कहा जाता है कि इस श्रीनगर में ही।’’ दादा जी बोले, ‘‘यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव है—भक्तियाना। उस गाँव में जिस जगह पर इन दिनों लक्ष्मीनारायण मन्दिर है, लोग कहते हैं कि वहीं पर नारदजी के मन में ब्याह करने का लालच जागा था और उसी के आसपास अलकनन्दा के मोड़ पर ‘नारदकुण्ड’ है जहाँ पर डुबकी लगाकर उन्होंने बन्दर की शक्ल पाई थी।’’

‘‘बाप रे! कितना पुराना है यह नगर! रामायण-के समय से भी पहले का!’’ मणिका आश्चर्यपूर्वक बुदबुदाई।

‘‘हाँ, लेकिन उस जमाने में इस जगह का नाम श्रीनगर की बजाय कुछ और रहा होगा।’’ दादा जी बोले।

‘‘सो तो है।’’ निक्की ने हूँकरा भरा।

घूमने के लिए जाने का प्रस्ताव

‘‘अच्छा, एक काम करते हैं...’’ उसकी बात पर ध्यान दिए बिना दादा जी ने प्रस्ताव रखा, ‘‘तुम्हारे मम्मी-डैडी को आराम करने देते हैं और हम लोग थोड़ी देर बाहर घूम आते हैं।’’

‘‘और अगर इस बीच जागकर वे हमें ढूँढने लगे तो?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘तो क्या, हम गेस्ट-हाउस के मैनेजर को बताकर जाएँगे।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘नहीं,’’ निक्की बोला, ‘‘उन्हें सोया छोड़कर अकेले घूमने जाना अच्छा नहीं लगेगा दादा जी।’’

‘‘निक्की ठीक कह रहा है दादा जी,’’ इस बार मणिका धीमे से बोली, ‘‘इस तरह अकेले-अकेले घूमने में मजा नहीं आएगा। सभी साथ रहने चाहिए।’’

उन दोनों की बातें सुनकर दादा जी कुछ देर तक उनका चेहरा निहारते रहे; फिर बोले, ‘‘शाब्बाश। मैं तो दरअसल तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। हमेशा याद रखो, जब भी ग्रुप के साथ कहीं जाओ, अकेले घूमने मत निकलो; और किसी वजह से अगर निकलना पड़ भी जाए तो बाकी लोगों के लिए संदेश ज़रूर छोड़ जाओ कि किस कारण से, कहाँ जा रहे हो और कितनी देर में वापस लौट आओगे।’’

वे अभी ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। उन तीनों की निगाहें एक-साथ दरवाज़े की ओर घूम गईं।

‘‘कौन?’’ दादा जी का इशारा पाकर मणिका ने पूछा।

‘‘दरवाज़ा खोलिए बाबूजी, हम हैं।’’ बाहर से सुधाकर की आवाज़ आई।

निक्की फुर्ती से उठा और जाकर दरवाज़ा खोल दिया। ममता और सुधाकर अन्दर आ गए।

‘‘आप लोग सोये नहीं?’’ उन तीनों को जागते और तरोताज़ा बैठे देखकर सुधाकर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा।

‘‘ये लोग लड़ भी लिए और सो भी लिए।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘और आप?’’

‘‘भई ये सो गए तो कुछ देर मैं भी सो लिया।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘अभी हम लोग आप दोनों को ही याद कर रहे थे।’’

‘‘हम तो काफी देर से जागे पड़े थे बाबूजी, यही सोचकर नहीं आए कि आप लोग आराम कर रहे होंगे।’’ ममता ने कहा।

‘‘तो...चलें कुछ देर के लिए कहीं घूमने?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘अभी मैंने खाने का ऑर्डर दिया है।’’ सुधाकर ने बताया।

‘‘ठीक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा करो, मोबाइल पर अल्ताफ को बता दो कि वह खाना खाकर तैयार रहे। हम लोग 40-45 मिनट बाद घूमने को निकलेंगे।’’

सुधाकर ने वैसा ही किया जैसा दादा जी ने बताया था।

देवप्रयाग

खाना खा चुकने के बाद वे सब बाहर निकले। दादा जी ने उन्हें श्रीनगर के आसपास की अनेक जगहों पर घुमाया। विद्युत परियोजना का डैम दिखाया। देवलगढ़ और सुमाड़ी के मंदिर दिखाए और पौराणिक महत्व की अन्य भी अनेक जगहें। जब तक वे वापस यात्राी-निवास के निकट पहुँचे, आसमान पर तारे चमकने लगे थे।

‘‘कितना मनोरम दृश्य है!’’ आसमान की ओर देखते हुए सुधाकर के मुख से निकला, ‘‘ऐसा लग रहा है कि तारों की चादर एकदम हमारे सिर पर तनी हुई है।’’

‘‘विधि का यही तो विपरीत विधान है बेटे।’’ उनकी बात सुनकर दादा जी ने कहा, ‘‘पहाड़ के दृश्य मनोरम होते हैं और जीवन कठिन। जीवनयापन की कठोरता यहाँ के वासी के शरीर को पत्थर बना देती है लेकिन नैसर्गिक सुषमा उसके मन को कोमल बनाए रखती है।...’’ फिर अपनी भावुकता पर काबू पाकर बोले, ‘‘यह बाईं ओर वाला रास्ता देख रहे हो?’’

उस समय वे गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर की ओर मुँह करके खड़े थे। सभी उनके द्वारा इंगित दिशा में देखने लगे। दादा जी बताने लगे, ‘‘हरिद्वार और ऋषिकेश के रास्ते से इधर आने वाले यात्राी इस, सामने वाली सड़क से यहाँ पहुँचते हैं। उत्तर प्रदेश से गढ़वाल में प्रवेश के ये ही प्रमुख द्वार हैं—ऋषिकेश और कोटद्वार।’’

‘‘इस रास्ते से आने पर भी पौड़ी बीच में पड़ता है क्या?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘नहीं बेटे, ये दोनों रास्ते यहाँ श्रीनगर में आकर एक होते हैं।’’

‘‘इधर से आने पर कौन-कौन सी जगहें बीच में पड़ती हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘इधर से ?...हरिद्वार और ऋषिकेश तो तुमने देख ही रखे हैं। मैं उनके बाद की जगहें तुमको बताऊँगा।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऋषिकेश के बाद बस ब्यासी नाम की जगह पर रुकती है। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से यह बड़ा रमणीक स्थान है। उसके बाद देवप्रयाग आता है। देवप्रयाग में बदरीनाथ की ओर से आनेवाली अलकनन्दा धारा का और गंगोत्री से आनेवाली भागीरथी धारा का संगम होता है और वहीं से उस संयुक्त धारा का नाम ‘गंगा’ पड़ता है।’’ यह बताते हुए दादा जी यात्री-निवास के अपने कमरे तक आ पहुँचे। उनके पीछे-पीछे बच्चे और उनके मम्मी-डैडी यानी ममता और सुधाकर भी चले आए। दादा जी ने कमरे का ताला खोला और अन्दर प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘देवप्रयाग तीन पहाड़ों के ढलान पर बसा हुआ नगर है। पहला ‘नरसिंह’ जो पौड़ी की सीमा में आता है तथा दूसरा ‘दशरथाचल’ और तीसरा ‘गृध’ पर्वत; ये दोनों टिहरी की सीमा में आते हैं। ये तीनों ही पर्वत आपस में झूला-पुलों से जुड़े हुए हैं।’’

‘‘तब तो यह बड़ा खूबसूरत नज़ारा बनता होगा दादा जी?’’ निक्की बोला।

‘‘बेहद खूबसूरत। कहतें हैं कि देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण को भगवान विष्णु ने वर दिया था कि त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लेने पर मैं तुम्हारे क्षेत्र में आकर तप करूँगा। रावण व कुम्भकरण आदि राक्षसों को मारने के बाद जब भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने देवप्रयाग क्षेत्र में आकर तप किया था, तब देवशर्मा ने उन्हें पहचान लिया। तभी से उस नगर का नाम देवप्रयाग हो गया।’’

‘‘उससे पहले उस जगह का क्या नाम था बाबूजी?’’ ममता ने पूछा।

‘‘हाँ, तू किसी बच्चे से कम थोड़े ही है।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘तू भी पूछ, जो मन में आए।’’

‘‘बताइए न दादा जी।’’ निक्की बोला,‘‘ठीक ही तो पूछा है मम्मी ने।’’

‘‘भई, पूछा तो ठीक है,’’ दादा जी हकलाकर बोले,‘‘लेकिन यह रामायण-काल की घटना है और किसी ने भी इस सवाल का जवाब कहीं लिखा नहीं है। दरअसल, कुछ नाम, कुछ घटनाएँ बीतते समय के साथ-साथ इतनी ज्यादा अप्रासंगिक हो जाती हैं कि याद रखने लायक भी नहीं रह पातीं; यानी बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। पहले क्या नाम रहा होगा, कोई नाम रहा भी होगा या नहीं कौन जाने। अब तो उसका नाम देवप्रयाग है, बस। घूमने और देखने लायक यों तो और-भी बहुत-सी जगहें देवप्रयाग में हैं; लेकिन मुख्य जगह है देवप्रयाग के पास ‘सीतावनस्यू’ नाम का वन। कहा जाता है कि अयोध्या की जनता द्वारा उल्टी-सीधी बातें सीता जी के चरित्र के बारे में कही जाने के कारण जब राम ने सीता जी को त्याग दिया था, तब वे इसी वन में रही थीं। और अंत में, इसी के पास ‘फलस्वाड़ी’ गाँव के बाहर वह धरती माता की गोद में समायी थीं।’’

‘‘इसका मतलब तो यह निकला कि लव और कुश का जन्म भी इसी वन में हुआ होगा दादा जी?’’

‘‘नहीं बेटे। इसका मतलब यह निकला कि भगवान राम ने अश्वमेध यज्ञ यहाँ किया था।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि सीताजी ने भूमि में समाधि अश्वमेध यज्ञ वाली जगह पर ली थी; जब कि कुश और लव का जन्म वाल्मीकि आश्रम में हुआ था।’’

‘‘देवप्रयाग के बाद कौन-सी जगह आती है?’’

‘‘उसके बाद कीर्तिनगर आता है और उसके बाद यह श्रीनगर।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘आपने देवप्रयाग को भी देखने के बारे में हमारी जिज्ञासा जगा दी बाबूजी।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘चिंता न करो।’’ दादा जी बोले, ‘‘बदरीनाथ धाम से वापस घर लौटते समय हम देवप्रयाग वाले रास्ते से ही जाएँगे।...सुनो, आज का दिन तो ढल ही गया।’’ उन्होंने सुधाकर से कहा, ‘‘ऐसा करो, यात्राी-निवास के मैनेजर से कहो कि हम लोग सवेरे जल्दी यहाँ से निकलेंगे इसलिए सुबह तक के लेन-देन का अपना हिसाब वह आज ही हमसे कर ले। अल्ताफ को भी बोल दो कि सुबह चार बजे वह टैक्सी में तैनात मिले। हम लोग रुद्रप्रयाग की ओर जाने वाली सड़क पर टैक्सी को आगे बढ़ाएँगे। ठीक है?’’

‘‘जी बाबूजी, ठीक है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘आप लेन-देन की चिन्ता न करो। वह सब मैं निपटा लूँगा। लेकिन आज्ञा हो तो एक बात कहूँ?’’

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं?’’

‘‘सवेरे आराम से न निकलें; जल्दी किस बात की है?’’

‘‘तू वास्तव में ही बुधप्रकाश है।’’ यह सुनकर दादा जी प्रसन्नतापूर्वक बोले, ‘‘बुद्धि खराब है जो तुझे मैं बुद्धू कहता हूँ। बच्चों को तो समझाता आ रहा हूँ कि यात्रा का आनन्द लेते हुए, हर जगह को जानते-समझते हुए यात्रा करनी चाहिए और खुद भागमभाग में लगा हूँ। ठीक है, हम कल यहाँ से निकलेंगे, वह भी आराम के साथ।’’

आने वाले कल का कार्यक्रम अलसुबह से आगे खिसकवाकर सुधाकर ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और अल्ताफ का नम्बर तलाश करते हुए कमरे से बाहर निकलने लगा। बाबूजी के चरण स्पर्श कर ममता भी उसके पीछे ही निकलकर अपने कमरे की ओर बढ़ चली। उसको जाता देख बच्चे बोले, ‘‘गुड नाइट मम्मी जी।’’

‘‘वेरी वेरी गुड नाइट मेरे बच्चो!’’ मम्मी ने मुस्कराकर कहा और बाहर निकल गई।

अगला दिन

दादा जी तो अपने नियम के अनुसार सुबह के लगभग साढ़े चार बजे जाग ही गए थे। बच्चों को उन्होंने सोता रहने दिया। ‘ठीक ही रहा जो सुधाकर ने आगे की यात्रा आराम से करते हुए चलने का सुझाव दिया’—वे सोचने लगे। बच्चों को कमरे में अकेले सोया हुआ छोड़कर वे घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकते थे। इसलिए शौच आदि से निवृत्त होकर कमरे में ही हल्का-फुल्का व्यायाम करने लगे। काफी देर बाद, जब उन्हें बाहर से कुछ अधिक आवाजें आने लगीं तो उन्होंने घड़ी देखी। सुबह के छः बज रहे थे। बच्चे कल काफी थक गए थे इसलिए अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे। ममता और सुधाकर तो छुट्टी के दिन से पहली रात को सोते ही घोड़े बेचकर हैं—यह सोचकर वे मुस्करा-से दिए। अपने आराम में रुकावट न आए, इस बदमाश ने इसीलिए आराम से यात्रा करने का सुझाव दिया होगा—वे सोचने लगे—जो भी हो, सुझाव उसका है ठीक ही।

आगामी एक घण्टा उन्होंने स्नान-ध्यान आदि में बिता दिया। सात बजे के करीब सुधाकर का फोन आया, ‘‘चरण छूता हूँ बाबूजी।’’

‘‘सुखी रहो बेटा।’’ वे बोले।

‘‘जागने में देर हो गई, माफी चाहता हूँ।’’

‘‘देर कहाँ हुई? यह तो तेरा रोज़ाना का ही टाइम है।’’ दादा जी ने चुटकी ली।

‘‘आप भी बस...’’ सुधाकर ने शरमाकर कहा। फिर पूछा, ‘‘बच्चे तो अभी सो ही रहे होंगे?’’

‘‘मेरा बच्चा होकर जब तू जल्दी बिस्तर छोड़ना नहीं सीख पाया तो तेरे बच्चे होकर ये कैसे जल्दी बिस्तर छोड़ देंगे?’’

‘‘अरे, आप मुझे नहीं सुधार पाए, इन्हें तो सुधार लीजिए!’’ सुधाकर ने ताना कसा, ‘‘इन दिनों तो ये शत-प्रतिशत आपके चार्ज में हैं।’’

‘‘उड़ा ले मेरी कमज़ोरी का मज़ाक बेटा।’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘बड़े-बूढ़ों का लाड़ बच्चों को आरामतलब बना देता है, मैं जानता हूँ।’’

‘‘मैं चाय आर्डर कर रहा हूँ।’’ बात को विराम देते हुए सुधाकर ने कहा, ‘‘बच्चों को भी जगा दीजिए। अपने लिए हमने इधर ही मँगा ली है।’’

‘‘ठीक है बेटे।’’ दादा जी ने कहा और फोन को रखकर बच्चों को जगाने लगे।

रुद्रप्रयाग की ओर

खा-पीकर पूरी तरह तैयार होने और यात्री-निवास से बाहर निकलने में उनको दस बज गए। सुधाकर ने अल्ताफ को फोन कर दिया था। उसने जैसे ही टैक्सी को यात्राी-निवास के गेट पर लगाया, कई कुली उधर दौड़ आए। सुधाकर से तय करके एक कुली यात्री-निवास के अन्दर से सामान उठाकर टैक्सी में रखवाने लगा। ममता, मणिका और निक्की के साथ दादा जी टैक्सी में बैठ गए। कुली को उसकी मजदूरी चुकाकर सुधाकर भी उसमें जा बैठा।

टैक्सी रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ चली।

‘‘यह आप दोनों ने अच्छा किया।’’ दादा जी बच्चों से बोले, ‘‘पूरे रास्ते अलकनन्दा उसी ओर बहती नजर आएगी।’’

‘‘टैक्सी को आराम-आराम से चलाना अल्ताफ अंकल!’’ मणिका ने अल्ताफ से कहा।

‘‘हाँ,’’ निक्की बोला, ‘‘ और दादा जी, आप रास्ते में आनेवाली जगहों के बारे में हमें बताना नहीं भूलना।’’

‘‘अच्छा! अरे भाई, मैं तो आप लोगों के साथ आया ही इसलिए हूँ। सुनो, ’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘यहाँ से कुछ ही आगे शकुरना गाँव आएगा। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने इस गाँव में कठोर तप किया था। उसके बाद आएगा फरासू। इस गाँव के पास अलकनन्दा के किनारे परशुराम कुण्ड है। कहते हैं कि भगवान परशुराम ने इस जगह के निकट बहुत समय तक तपस्या की थी।’’

‘‘उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘उसके बाद आने वाली जगह प्रसिद्ध भी है और बरसात के दिनों में भयानक रूप धारण कर लेने वाली भी।’’

‘‘वह कौन-सी जगह है दादा जी?’’ दोनों बच्चों ने एक साथ पूछा।

‘‘वह है कलियासौड़। लेकिन कलियासौड़ से भी पहले धारीदेवी का बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर आता है। श्रद्धालुओं ने अब उस मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर उसे आकर्षक बना दिया है। कलियासौड के आसपास कुछ गुफाएँ हैं जिनमें जगद्माता महाकाली के बहुत-से भक्त तपस्या में लीन रहते हैं। कलियासौड़ के पास सड़क के ऊपर वाला एक पहाड़ बरसात के दिनों में दलदल के रूप में बहने लगता है जिसके कारण कभी-कभी यातायात कई-कई दिनों तक ठप पड़ा रहता है।’’

‘‘यानी इधर के यात्री इधर और उधर के यात्री उधर!’’

‘‘हाँ, रुकना ही पड़ता है।’’ दादा जी बोले, ‘‘कोई दूसरा रास्ता तो जाने-आने के लिए है नहीं।’’

बातें करते और अलकनन्दा की रमणीयता का आनन्द लेते उन्हें पता ही नहीं चला कि उनकी टैक्सी कलियासौड़ तक आ पहुँची है। अब इसे दुर्भाग्य कहा जाए या सौभाग्य कि जिस पहाड़ी के बारे में दादा जी ने कुछ समय पहले बताया था, कल रात उस पर बारिश हो गई और भारी मात्र में उससे बहकर आई हुई कच्ची मिट्टी सारी सड़क पर फैलती हुई नीचे नदी की ओर जा रही थी।

‘‘रात तीन बजे के करीब हुई थी बारिश।’’ आसपास के लोगों ने बताया, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि कोई वाहन उस समय यहाँ से नहीं गुजर रहा था।’’

यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। हालाँकि बारिश अब बन्द हो चुकी थी लेकिन दलदल अभी भी तेजी से नीचे की ओर आ रहा था। उसके चलते कोई वाहन तो क्या, पैदल व्यक्ति भी एक ओर से दूसरी ओर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। स्थानीय लोगों ने बताया कि आई.टी.बी.पी. यानी इंडो तिबतन बॉर्डर पुलिस के जवान इस सारे दलदल को कुछ ही घण्टों की मशक्कत के बाद नीचे नदी में धकेल देंगे और रास्ते को जाने-आने लायक साफ कर देंगे।

बच्चों को इस बहाने एक नया अनुभव प्राप्त हो रहा था। डैडी की देखरेख में वे उस सारे दृश्य को नजदीक से देखकर आए।

करीब तीन घण्टे की कड़ी मशक्कत के बाद सुरक्षा जवानों ने सड़क को पूरी तरह साफ कर दिया। पहले उन्होंने बायीं ओर खड़ी बसों और कारों की सब सवारियों को उतरवा दिया, फिर खाली बसों को धीरे-धीरे दूसरे ओर भेजना शुरू किया। अल्ताफ भी मुस्तैदी के साथ अपनी सीट पर जा बैठा। उसकी टैक्सी एक बस के पीछे खड़ी थी। उसे वह धीरे-धीरे चलाता हुआ उस पार ले गया। बूढ़े व कमज़ोर यात्रियों, बच्चों तथा महिलाओं को सैनिकों व स्थानीय नागरिकों ने सहारा देकर दूसरी ओर पहुँचाने का काम किया। कुछ समय तक सुधाकर ने भी इस काम में उनका हाथ बँटाया। जब एक ओर की सारी गाड़ियाँ व सवारियाँ दूसरी ओर पहुँच गईं, तब दूसरी ओर की गाड़ियों व सवारियों को इस ओर लाने का काम शुरू हुआ।

‘‘ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।’’ दूसरी ओर पहुँचकर टैक्सी में बैठने के बाद दादा जी बोले, ‘‘श्रीनगर के यात्राी-निवास को छोड़कर सुबह जल्दी चल दिए होते तो हमें बहुत परेशान होना पड़ सकता था।’’

‘‘दरअसल, गढ़वाल का पहाड़ ज्यादातर कच्चा पहाड़ है बाबूजी।’’ सुधाकर बोला, ‘‘इसलिए जरा-सी बारिश में ही दलदल बनकर बहने लगता है।’’

‘‘जो भी हो, तेरी राय मानने से लाभ ही हुआ।’’

‘‘भूल न जाना, आगे भी ध्यान रखना यह बात।’’

‘‘जरूर।’’

बूढ़े गढ़वाली का दर्द

कलियासौड़ से चलकर टैक्सी रुद्रप्रयाग की सीमा में प्रवेश कर चुकी थी। बच्चे इस समय एकदम चुप थे। कलियासौड़ का भयावह दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। वहाँ कई घण्टे बरबाद हो चुके थे।

‘‘भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना देखने-सुनने को नहीं मिली।’’ दादा जी कह रहे थे।

दिन करीब-करीब ढल ही चुका था। ज़ाहिर था कि वे सब आज की रात रुद्रप्रयाग में ही रुकेंगे। बस-स्टैंड के निकट पहुँचे ही थे कि अल्ताफ ने देखा—दुबला-पतला एक बूढ़ा गढ़वाली गुस्से में बोलता हुआ सड़क के बीचों-बीच तेजी के साथ इधर से उधर और उधर से इधर घूम रहा है। उसकी चाल-ढाल और बर्ताव से डरकर अल्ताफ ने गाड़ी को आगे बढ़ाने की बजाय किनारे लगा दिया।

‘‘क्या हुआ?’’ दादा जी ने पूछा, ‘‘गाड़ी किनारे क्यों लगा दी?’’

‘‘सामने इस भले आदमी को छेड़ दिया लगता है किसी मनचले ने...’’ अल्ताफ बोला, ‘‘काफी गुस्से में है। कहीं गाड़ी पर ही पत्थर-उत्थर न दे मारे, इसलिए साइड में लगा दी है कुछ देर के लिए।’’

सड़क पर उसे उकसाने वालों की भीड़-सी लग गई थी। थोड़ा शांत होते ही कोई न कोई तुरन्त उससे कुछ कह देता और वह फिर शुरू हो जाता।

‘‘बोड़ा जी, वो टूरिस्ट कह रहे थे कि आगे कभी नहीं आना इधर...’’ किसी ने छेड़ा।

‘‘मत आना जी, मत आना... ये कोई पिकनिक स्पाट नहीं है ...देवताओं की भूमि है... देवों की घाटी है ये... रहकर देखो कुछ दिन इधर ...नानी-दादी सब याद आ जायेंगी जब चढ़ना-उतरना पड़ेगा ढलानों पर... सावन के महीने में पवन ऐसा सोर करता है लालाजी कि जियरा झूमना बंद कर देता है... अच्छे-अच्छे की आँखें बंद हो जाती हैं डर के मारे ...भाई मेरे, यहाँ के पेड़ों पर झूले नहीं पड़ते ...उन पर मवेशियों के लिए घास रखी जाती है सँजोकर...’’

‘‘कह रहे थे कि रास्ते बड़े खतरनाक हैं।’’ उसे सुनाता हुआ कोई दूसरा बोला।

‘‘खतरनाक ! इन खतरनाक रास्तों पर चलकर ही स्कूल जाते हैं हमारे बच्चे... माँएँ, बेटियाँ और बहुएँ इन्हीं रास्तों से घास काटने और मवेसी चराने को जाती हैं... तुम्हारा क्या, तुमने तो अंकल चिप्स के खोल और बिसलरी की बोतलें और पोलीथीन फेंक जानी हैं यहाँ... गंदा कर जाना है सारे माहौल को...’’ यों कहता हुआ वह बूढ़ा सड़क पर दूसरी ओर को चला गया। किसी ने पुनः उकसाया तो उसने सुना नहीं, चलता चला गया।

‘‘चलो, जान बची।’’ गाड़ी स्टार्ट करते हुए अल्ताफ बुदबुदाया, ‘‘बोलता रहता तो पता नहीं कितनी देर और गाड़ी को यूँ ही खड़ी किये रखना पड़ता।’’

‘‘जो भी हो, बातें तो वह ठीक ही कह रहा था बेचारा।’’ पीछे बैठे दादा जी अल्ताफ से बोले।

‘‘वह सब तो ठीक है बाबू जी, ’’ सुधाकर बोला, ‘‘लेकिन इस समय हम ये सब शिकायतें सुनते हुए समय बरबाद करने की हालत में नहीं हैं न।’’

‘‘यह एक अलग बात है।’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन हम घूमने आने वालों से उसकी शिकायतें सब की सब जायज थीं।’’

‘‘आप तो यहाँ के रंग में रंगे हुए हो,’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘आप नहीं समझोगे।’’

‘‘...और तुम इसलिए नहीं समझोगे कि तुम इस रंग के असर को जानते ही नहीं हो। खैर, गाड़ी चलाओ अल्ताफ; साहब को किसी का दुःख-दर्द सुनने की फुर्सत नहीं है, देर हो रही है।’’ दादा जी व्यंग्यपूर्वक बोले।

अल्ताफ ने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। कुछ ही आगे गाड़ी पार्क की जा सकने लायक जगह देखकर उसने उसे रोक दिया क्योंकि उसे पहले ही बता दिया गया था कि रुद्रप्रयाग जाना है। बच्चों को साथ लेकर दादा जी नीचे उतरे। सुधाकर ने कुली को आवाज़ दी और सामान उठाकर ‘बदरी केदार सेवा समिति’ के विश्रामघर की ओर ले चलने को कहा।

रुद्रप्रयाग

विश्रामघर में सामान रखने के बाद दादा जी आराम से लेटने की बजाय कमरे को ताला लगाकर बच्चों को बाज़ार घुमाने ले चले। ममता और सुधाकर भी साथ चले।

‘‘रुद्रप्रयाग में बाबा काली कमली वाले की धर्मशाला नहीं है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘है...लेकिन वह बाज़ार से दूर है। अलकनन्दा के पुल के उस पार।’’

घूमते और बातें करते वे अलकनन्दा के पुल तक गए। फिर वापस विश्रामघर के अपने कमरे की ओर लौट चले। खाना खाने के मूड में न तो बच्चे थे और न ही दादा जी। इसलिए कमरे पर पहुँचकर उन्होंने अन्दर से उसे बन्द किया और लाइट बन्द करके बिस्तर में घुस गए।

‘‘रुद्र तो भगवान शिव का ही एक नाम है न दादा जी।’’ मणिका ने अँधेरे में ही बातचीत शुरू की।

‘‘हाँ बेटे।’’ दादा जी बोले, ‘‘भगवान रुद्र को प्रसन्न करके नारद जी ने यहीं पर उनसे ‘वीणा’ प्राप्त की थी और यहीं पर उनसे संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उससे पहले नारद के हाथों में वीणा नहीं रहती थी।’’

‘‘यहाँ भी कई प्रसिद्ध मन्दिर होंगे दादा जी।’’ मणिका ने पुनः पूछा।

‘‘उत्तराखण्ड का तो चप्पा-चप्पा मन्दिर है बेटे।’’ दादा जी बोले, ‘‘यहाँ से चार-साढ़े चार किलोमीटर की दूरी पर कोटेश्वर महादेव नाम की एक गुफा है। उस गुफा के भीतर अनेक शिवलिंग हैं, जिन पर गुफा की छत से लगातार पानी टपकता रहता है।...कल सवेरे रास्ते में एक जगह मैं तुमको दिखाऊँगा। सवेरे जल्दी उठना है। अब सो जाओ।’’

‘‘सिर्फ एक बात और दादा जी...’’ निक्की बोला ।

‘‘पूछो।’’

‘‘अरे, पूछना कुछ नहीं है...मेरे कहने का मतलब है कि सोने से पहले अपनी ओर से सिर्फ एक कहानी और बता दीजिए।’’

‘‘एक कहानी और!...’’ उसकी याचना पर दादा जी कुछ सोचने लगे, फिर बोले, ‘‘सुनो, यह रुद्रप्रयाग, हमारी तरह नीचे, मैदान की तरफ से आने वाले यात्रियों के लिए बदरीनाथ और केदारनाथ का संगम है। जो लोग केदारनाथ के दर्शन के लिए जाना चाहते हैं वे यहाँ से गौरीकुंड को जाते हैं और जिन्हें बदरीनाथ के दर्शन के लिए जाना होता है वे हमारी तरह इसी रास्ते पर आगे की ओर बढ़ते हैं।’’

उनकी बातें सुनते हुए बच्चे उत्सुक आँखों से उन्हें निहारते बैठे थे कि दादा जी बोले, ‘‘आज बस इतना ही।...गुड नाइट!’’

बच्चों ने धीमे स्वर में ‘गुड नाइट’ कहा। लेटे तो थे ही, चुपचाप सो गए।

मैनेजर से बातचीत

बदरीनाथ की ओर जाने वाली पहली बस रुद्रप्रयाग से सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे चल देती है। चलने से पहले सभी बसों के ड्राइवर बार-बार इतनी तेज हॉर्न बजाते हैं कि आसपास की इमारतों के मालिक और उनके बीवी-बच्चे अपने-आप को कोसने लगते हैं कि उन्होंने क्यों इतनी गलत जगह पर मकान बनवा लिया?

दादा जी की भी नींद खुल गई। उनके मन में एक बार तो यह विचार अवश्य आया कि बच्चों को भी जगा दें और बाहर का नज़ारा दिखाने को ले जाएँ लेकिन अन्ततः उन्हें लगा कि बच्चों को सोने देना चाहिए अन्यथा दिन के समय वे टैक्सी में सोते हुए जाएँगे और यात्रा का पूरा मज़ा नहीं ले पाएँगे। यह सोचकर वे अकेले ही कमरे से बाहर निकले तो देखा कि विश्रामघर का मैनेजर भी तैयार होकर अपनी कुर्सी पर आ जमा है।

‘‘जय बद्री विशाल बाबूजी!’’ उन्हें देखकर मैनेजर ने अभिवादन किया।

‘‘जय बदरी विशाल भाई मैनेजर साहब!’’ उसकी मेज के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए दादा जी ने उससे पूछा, ‘‘इतनी जल्दी जाग जाते हो?’’

‘‘माताजी-पिताजी ने बचपन से ही चार बजे जाग जाने की आदत डाल दी है बाबूजी...’’ मैनेजर ने कहा, ‘‘नित्यकर्म से निबटकर सुबह पाँच बजे भगवान बद्रीनाथ को स्नान कराके, पुष्प अर्पित करते हैं और अगर-धूप दिखाकर, प्रणाम करके जनता की सेवा के लिए इस कुर्सी पर आ बैठते हैं।’’

‘‘अभी पाँच तो बजे भी नहीं हैं!’’ दादा जी ने घड़ी की ओर इशारा किया।

‘‘नहीं बजे हैं तो बज जाएँगे...’’ मैनेजर मुस्कराकर बोला। फिर पूछा, ‘‘चाय लेंगे बाबूजी?’’

‘‘आसानी से मिल जाए तो ले लेंगे।’’

मैनेजर ने तुरन्त अपनी मेज पर रखे टेलीफोन का चोगा उठाया और कोई नम्बर डायल करके कहा, ‘‘दो चाय इलायची वाली।’’

दस मिनट बाद ही कम उम्र की एक लड़की चाय से भरे काँच के दो गिलास लोहे के तारों से बने एक छीके में रखकर ले आई।

मैनेजर ने छींके से निकालकर एक गिलास बाबूजी की ओर बढ़ाया और दूसरा अपने हाथ में लेकर उनसे बोला, ‘‘शुरू कीजिए।’’

‘‘धन्यवाद।’’ बाबूजी ने कहा और चाय पीना शुरू कर दिया।

काफी देर तक वे दोनों उत्तराखण्ड की संस्कृति पर बातें करते रहे। मैनेजर उत्तराखण्ड की संस्कृति सम्बन्धी दादा जी के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। उनकी यह मीटिंग तब समाप्त हुई जब जागने के बाद बाबूजी की आवाज़ सुनकर सुधाकर अपने कमरे से निकलकर इनके पास आ गया।

अलविदा रुद्रप्रयाग

सुबह के सारे कर्म रुद्रप्रयाग में निबटाकर यह कारवाँ दस-ग्यारह बजे आगे की यात्रा पर चला।

‘‘दो नदियों के संगम को ही प्रयाग कहते हैं न दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘बिल्कुल सही।’’ दादा जी उसके सिर पर हाथ घुमाकर बोले, ‘‘यह रुद्रप्रयाग भी मंदाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’

‘‘बदरीनाथ यहाँ से कितनी दूर होगा?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘होगा करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर।’’

‘‘डेढ़ सौ कितना होता है?“

‘‘एक सौ पचास।“ दादा जी बोले।

इस पर निक्की ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन ऐसे देखा जैसे उसकी समझ में अभी भी कुछ नहीं आया हो।

‘‘वन हण्ड्रेड फिफ्टी।“ उसकी मुख-मुद्रा को पहचानकर दादा जी ने स्पष्ट किया और थोड़ा नाराज़गी भरे स्वर में बोले, ‘‘कितनी बार समझाता हूँ कि हिन्दी गिनतियाँ भी सीख लो। अंकों को अपनी ही बोली में नहीं जानोगे-सीखोगे तो उन्नति का क्या अचार डालोगे?“

‘‘अंक मतलब दादा जी?“ उनकी इस बात पर निक्की ने पुनः पूछा तो उनका गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर ही चढ़ गया।

‘‘मेरा सिर!“ वे चीखे; लेकिन इसके साथ ही निक्की के मासूस सवाल पर अल्ताफ की हँसी भी छूट गयी जिससे माहौल भारी होने से बच गया।

‘‘अब रुद्रप्रयाग के बाद कौन-सी जगह आएगी?’’ टैक्सी ने नदी का पुल पार किया तो निक्की ने अगला सवाल किया।

‘‘घोलतीर।’’ अन्यमनस्क-से दादा जी मंद-स्वर में बोले।

‘‘लेकिन...अभी थोड़ी देर पहले तो आपने ‘मेरा सिर’ बोला था!“ निक्की बोला।

उसके इस प्रश्न पर तो ममता और सुधाकर भी अपनी हँसी नहीं रोक पाये। दादा जी भी हँस पड़े। वे सब क्यों हँस रहे हैं, निक्की की कुछ समझ में नहीं आया।

‘‘और उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘उसके बाद आएगा—गौचर।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘यह भी तुमको एकदम प्लेन... समतल मैदान में बसे नगर-जैसा लगेगा।’’

बच्चे अब प्रकृति के सौंदर्य का आनन्द लेते हुए चुपचाप चलने लगे थे। तेज गति से बहती अलकनन्दा की धारा उनका मन मोह रही थी। धारा के बीच में पड़ी शिलाओं से टकराकर जल में लहरें पैदा होतीं और पीछे से आ रही लहरों की दौड़ में शामिल हो जातीं। ऐसा लग रहा था जैसे लहरें नदी में एक-दूसरे को छूने-पकड़ने का खेल खेलती आगे बढ़ रही हों ! कहीं किसी गहरे मोड़ पर अलकनन्दा यदि आँखों से ओझल हो जाती तो बच्चे बेचैन हो उठते। ऐसा अद्भुत खेल तो उन्होंने कभी सोचा भी न था। काश! टैक्सी चलती रहे, अलकनन्दा की धारा, ऊँचे-ऊँचे पर्वत और शुद्ध सफेद बादलों में बनते-बिगड़ते आकार दिखाई देते रहें तथा वे देखते रहें, देखते रहें... बस यों ही!

टैक्सी गौचर पहुँच गई। जैसा कि दादा जी ने बताया था, गौचर में काफी बड़ा मैदान उन्हें नजर आया। यह नगर भी उनको श्रीनगर जैसा ही विकसित लगा।

‘‘दरअसल, जब से उत्तराखण्ड राज्य बना है, तब से इस क्षेत्र में विकास के अनेक कार्य हुए हैं। जहाँ तक गौचर की बात है—सन् 1943 में गढ़वाल के एक अंग्रेज डिप्टी कलक्टर ने यहाँ पर आसपास के लोगों के लिए एक मेला लगाना शुरू किया था।’’ दादा जी ने पुनः गौचर के बारे में बताया, ‘‘वह मेला अब नेहरू जी के जन्मदिन 14 नवम्बर से लगाया जाता है। दूर-दूर के व्यापारी और मेला देखने के शौकीन लोग इस मेले में आते हैं। यह चमोली जिले में पड़ता है और इस जिले का सांस्कृतिक केन्द्र है। एक बात और, गौचर में एक हवाई अड्डा भी बन चुका है।’’

कहानी कर्णप्रयाग की

‘‘यहाँ से चलकर हम कहाँ पहुँचते हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘जहाँ के लिए चलते हैं वहीं।’’ दादा जी बोले।

‘‘ओह दादा जी, ठीक-ठीक बताइए न।’’

‘‘ठीक-ठीक बताने के लिए मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ—कुन्ती कौन थी?’’

‘‘पाण्डवों की माँ।’’ निक्की तेजी से बोला।

‘‘कितने बेटे थे उनके?’’ दादा जी ने पुनः पूछा।

‘‘पाँच।’’ उसी तेजी के साथ निक्की पुनः बोला।

‘‘गलत।’’ मणिका बोली।

‘‘तुम बताओ।’’ दादा जी ने उससे पूछा।

‘‘तीन।’’ वह बोली, ‘‘युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन।’’

‘‘शाबाश।’’ दादा जी ने उसकी पीठ थपथपाई।

‘‘नकुल और सहदेव भी तो थे दादा जी।’’ निक्की ने याद दिलाया।

‘‘चल बुद्धू, वे तो माद्री के बेटे थे।’’ मणिका बोली।

‘‘मणिका ठीक कहती है निक्की।’’ दादा जी ने उसे समझाया, ‘‘महाराज पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं—कुन्ती और माद्री। कुन्ती को बचपन से ही साधुओं-संन्यासियों की सेवा करने का शौक था। उसकी इस सेवा से प्रसन्न होकर एक संन्यासी ने उसे एक ऐसा मन्त्र सिखा दिया जिसे पढ़कर वह जिस देवता को चाहे अपने पास बुला सकती थी। कुन्ती बड़ी खुश हुई। संन्यासी के जाने के बाद उसने मन्त्र की शक्ति को जाँचने के लिए भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए मन्त्र पढ़ा। सूर्यदेव तुरन्त उसके सामने प्रकट हो गए। बोले—जो कुछ चाहिए, माँग लो। उस समय बहुत-कम उम्र थी कुन्ती की...नासमझ थी। घबराकर बोली—बेटा चाहिए। बस, सूर्य भगवान एक बच्चा उसकी गोद में रखकर अन्तर्धान हो गए। उनके जाने के बाद कुन्ती एकदम डर गई। सोचने लगी—लोग क्या कहेंगे, एक कुँआरी कन्या के बेटा हो गया!! मन्त्र की बात पर तो कोई विश्वास करेगा नहीं। शर्म और बेइज्जती से बचने के लिए उसने एक टोकरी में उस बच्चे को अच्छी तरह से रखकर नदी में बहा दिया।’’

‘‘हाँ दादा जी,’’ निक्की इस बार फिर तेजी से बोल उठा, ‘‘आपने एक बार पहले भी सुनाई थी यह कहानी। कुन्ती के उस बेटे का नाम कर्ण रखा गया था।’’

‘‘शाबाश!’’ प्रसन्न होकर अबकी बार दादा जी ने निक्की के सिर पर हाथ फिराया, ‘‘बड़ा होकर इस कर्ण ने सूर्य भगवान की कड़ी तपस्या की थी। जिस जगह पर रहकर उसने तपस्या की थी, गौचर के बाद हम वहीं पहुँचेंगे—कर्णप्रयाग।’’

‘‘यह भी प्रयाग!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।

‘‘हाँ बेटे! ऋषिकेश की ओर से यात्रा शुरू करें तो देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग और विष्णुप्रयाग—बदरीनाथ यात्रा में उत्तराखंड के ये प्रमुख प्रयाग रास्ते में पड़ते हैं। इन्हें पंच प्रयाग कहा जाता है।’’ दादा जी बोले, ‘‘ये सभी अलग-अलग नदियों के संगम पर बसे हुए हैं। कर्णप्रयाग अलकनन्दा और पिंडर नदी के संगम पर बसा हुआ है।’’

‘‘आप कर्ण की तपस्या के बारे में बता रहे थे न दादा जी।’’ निक्की ने याद दिलाया।

‘‘हाँ। कहते हैं कि कर्ण के शरीर पर जन्म से ही एक दिव्य ‘कवच’ था और उसके दोनों कानों में भी दिव्य ‘कुण्डल’ जन्म से ही थे। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इसी क्षेत्र में सूर्यदेव ने कभी भी खाली न होने वाला एक तरकश यानी ‘अक्षय तूणीर’ भी उसे दिया था। इन तीन चीजों का स्वामी होने के कारण वह अपने समय का अजेय योद्धा था। इसके बावजूद भी वह दानप्रिय व्यक्ति था। कहते हैं कि कर्ण के दरवाजे से कोई भी याचक कभी खाली हाथ वापिस नहीं गया। उसके इसी गुण का लाभ भगवान् कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय उठाया था। उन्होंने एक दिन याचक के वेश में इन्द्र को उस समय कर्ण के सामने भेज दिया जब वह गंगानदी में खड़ा होकर संध्या-उपासना कर रहा था। इन्द्र ने दान में उससे उसके कवच और कुण्डल माँग लिए। ऐसी अद्भुत माँग सुनकर कर्ण समझ गया कि इस समय कोई साधारण याचक नहीं, स्वयं इन्द्र उसके सामने खड़े हैं। उसने कहा—भगवन्, मैं जान गया हूँ कि आप साधारण याचक के वेश में स्वयं देवराज इन्द्र हैं और अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए मेरे शरीर से कवच और कुण्डल उतरवाने के लिए यहाँ आए हैं। पहचानकर भी, मैं आपको निराश नहीं करूँगा। यों कहकर उसने अपने जन्मजात कवच और कुण्डल उतारकर इन्द्र को दान कर दिए। ऐसे महादानी कर्ण का मन्दिर, कर्णशाला और कर्णकुण्ड अभी भी पिंडर नदी के किनारे पर कर्णप्रयाग में स्थित हैं।’’

‘‘सारे महापुरुष इसी इलाके में तपस्या क्यों करते थे दादा जी?’’

‘‘सारा हिमालय क्षेत्र तपस्वियों और संन्यासियों का क्षेत्र रहा है। यह क्षेत्र भी हिमालय की ही पर्वत शृंखला है। देवता तक यहाँ विचरण के लिए आते हैं। इसी कारण इसे देवभूमि और स्वर्गभूमि भी कहा जाता है।’’

‘‘कर्णप्रयाग में देखने-सुनने लायक और क्या-क्या है?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘बहुत-कुछ है...लेकिन कर्णप्रयाग का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यहाँ केवल नदियों का नहीं, रास्तों का भी संगम होता है। कुमाऊँ के जिलों यानी अल्मोड़ा, रानीखेत, हल्द्वानी और नैनीताल आदि को गढ़वाल से जोड़ने वाला यह प्रमुख स्थान है। यहीं से हम नन्दादेवी धाम, आदिबदरी और रूपकुण्ड जैसी विश्वप्रसिद्ध जगहों के लिए भी जा सकते हैं।’’

‘‘रूपकुण्ड में क्या है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘बेटे, प्राकृतिक सुषमा से प्रेम करने वालों के लिए रूपकुण्ड विशेष आकर्षण की जगह है। सागरतल से उसकी ऊँचाई करीब पन्द्रह हज़ार फुट है और गहराई!...उसका तो आज तक पता ही नहीं है। प्रकृति के प्रेमी वहाँ पहुँचकर अपना-आपा भूलकर उसी जगह के हो जाते हैं। संसारभर में ऐसी मनभावन जगहें गिनी-चुनी ही हैं। उसके पास ही बर्फ की एक नदी बहती है। चारों तरफ बर्फ से ढँकी ऊँची चोटियाँ हैं। एक तरफ त्रिशूली यानी तीन चोटियोंवाला पूरे वर्ष बर्फ से ढँका रहनेवाला पर्वत। उसकी गिनती हिमालय की ऊँची चोटियों वाले अनेक पर्वतों में होती है। अगर सही कहा जाय तो उस त्रिशूल पर्वत के नीचे ही ‘रूपकुण्ड’ है। त्रिशूल से निकलने वाली जलधारा ‘नन्दाकिनी’ नदी के नाम से जानी जाती है।

कर्णप्रयाग बातों-बातों में पीछे छूट गया था। हालाँकि कुछ खरीदने के लिए अल्ताफ ने टैक्सी को वहाँ थोड़ी देर के लिए रोका भी था। लेकिन बाहर के खुशनुमा दृश्यों और दादा जी द्वारा सुनाई जा रही रोचक व ज्ञानवर्द्धक कथाओं में बच्चे कुछ इस कदर तल्लीन थे कि वह जगह कब पीछे छूट गई, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला।

लम्बी और महत्त्वपूर्ण यात्राओं में एक आदमी अगर सम्बन्धित स्थानों की जानकारी देनेवाला साथ में हो तो यात्रा का आनन्द असीम हो जाता है। यात्रा की इस जरूरत ने ही ऐतिहासिक महत्त्व की जगहों के बारे में यात्रियों को विस्तार से बताने वाले गाइडों का चलन शुरू किया होगा।

पीला पहाड़

‘‘आप तो चुप बैठ गए दादा जी।’’ अल्ताफ ने जब टैक्सी को एक जगह अचानक ब्रेक लगाए तो उससे उत्पन्न झटके से ध्यान भंग होने पर निक्की ने कहा।

‘‘आप लोग भी तो चुप थे!’’ दादा जी मुस्कराए।

‘‘तो क्या हुआ, आप बताते रहिए न!’’ मणिका बोली।

‘‘यह खूब रही! आप सब तो बाहर प्रकृति का मज़ा लेते रहें और मैं कुछ न देखूँ!...बकझक किए जाऊँ!!’’

‘‘अपने बच्चों को ज्ञान की बातें बताने को ‘बकझक’ कैसे कह सकते हैं आप?’’ मणिका ने निक्की का पक्ष लेते हुए दादा जी को टोका।

‘‘अच्छा बाबा, ठीक है।’’ उसके इस तर्क के आगे हार ही गए दादा जी, ‘‘सुनो, अब हमारी टैक्सी नन्दप्रयाग पहुँचेगी।’’

‘‘इसको भगवान कृष्ण के नन्दबाबा ने बसाया होगा।’’ निक्की तुरन्त बोला, ‘‘या फिर यहाँ पर उन्होंने तपस्या की होगी।’’

‘‘नहीं।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘तुक्का हर जगह फिट बैठ जाए, जरूरी नहीं है। पीछे मैंने त्रिशूल पर्वत और रूपकुण्ड की बात बताई थी।’’

‘‘जी दादा जी।’’

‘‘त्रिशूल से निकलने वाली नन्दाकिनी नदी के बारे में भी बताया था।’’

‘‘जी।’’

‘‘उस नन्दाकिनी और इस अलकनन्दा का जहाँ संगम होता है, उस स्थान पर ही यह नन्दप्रयाग बसा है।’’

‘‘दीदी,’’ अचानक निक्की चिल्लाया, ‘‘उधर...वहाँ देख—पीला पहाड़!’’

‘‘अरे वाह!!’’ पीला पहाड़ देखकर मणिका पुलकित स्वर में चीख-सी पड़ी।

‘‘ऐसे अलग-अलग रंगों वाले बहुत-से पहाड़ तुमको आगे भी नजर आएँगे।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘दरअसल घास के साथ ही इस पहाड़ पर एकाध पौधा गैंदा का भी उग आया होगा। कच्चे फूलों को तोड़ने के लिए कोई चढ़ता तो है नहीं पहाड़ पर। इसलिए पक जाने पर उनकी पंखुड़ियाँ वहीं पर झर जाती हैं और अनुकूल मौसम आने पर अंकुरित होकर अनेक पौधे बन जाती हैं जिन पर पहले की तुलना में कई गुना फूल खिलते हैं। इस तरह खिलते, पकते, झरते और अंकुरित होकर बढ़ते-बढ़ते दो-तीन सालों में फूलों के ये पौधे पूरी पहाड़ी पर छा जाते हैं। यह सामने वाला पहाड़ भी गैंदे के फूलों से लदा-फदा है।’’

दादा जी के मुख से यह तर्कपूर्ण रहस्योद्घाटन सुनकर बच्चों के साथ-साथ ममता और सुधाकर भी उत्सुकतापूर्वक ऐसी अन्य पहाड़ियाँ तलाशने को निगाहें चारों ओर घुमाने लगे। नन्दप्रयाग अब आने ही वाला था।

नन्दप्रयाग और दसौली

‘‘नन्दप्रयाग के निकट ही दसौली गाँव पड़ता है।’’ दादा जी ने आगे बताया, ‘‘कहते हैं कि लंका के राजा रावण ने इसी जगह पर शंकर भगवान को प्रसन्न करके दस सिर पाए थे। बस, तभी से इस जगह का नाम दसौली पड़ गया।’’

बातें करते, पहाड़ों की नैसर्गिक सुन्दरता का आनन्द लेते वे नन्दप्रयाग पहुँच गए। टैक्सी को एक ओर रुकवाकर सुधाकर ने ठण्डे पानी की बोतलें खरीदीं क्योंकि उनके पास जो पानी था वह काफी गर्म हो गया था। थोड़ा-बहुत बच्चों को भी इधर-उधर घुमाकर उन्होंने टैक्सी को आगे बढ़वाया।

‘‘एक बात बताइए सर!’’ टैक्सी को आगे बढ़ाते हुए अल्ताफ ने पूछा, ‘‘इस इलाके में बोली कौन-सी बोली जाती है?’’

‘‘इस इलाके की अपनी बोली को गढ़वाली कहते हैं अल्ताफ। कुछ नेपाली मजदूर भी गढ़वाल में रहते हैं; वे लोग नेपाली में बातें करते हैं। उसे गोरखाली भी कहते हैं। पूरे उत्तराखण्ड की बात करें तो गढ़वाल वाले इलाके में बोली जाने वाली बोली को गढ़वाली कहते हैं और कुमाऊँ इलाके में बोली जाने वाली बोली को कुमायूँनी।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लेकिन गढ़वाली, कुमायूँनी या गोरखाली को ये लोग आपस में, अपने लोगों के साथ ही बोलते हैं। हमारे-तुम्हारे साथ ये हिन्दी में ही बातें करते हैं।’’

चमोली

‘‘नन्दप्रयाग के बाद अब चमोली आएगा।’’ आगे बढ़े, तो दादा जी खुद ही बताने लगे, ‘‘जिस तरह हम रुद्रप्रयाग से गौरीकुण्ड के रास्ते केदारनाथ को जा सकते हैं, उसी तरह चमोली भी केदारनाथ और बदरीनाथ को जाने वाले रास्तों का संगम है। चमोली से गोपेश्वर, ऊखीमठ आदि के रास्ते हम केदारनाथ पहुँच सकते हैं और पीपलकोटी, जोशीमठ आदि के रास्ते से बदरीनाथ जाते हैं।’’

‘‘चमोली तो जिला है न बाबू जी?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘हाँ बेटे,’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन कुछ अजीब तरह से।’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘सो ऐसे कि चमोली नामभर को ही जिला रह गया है। इसके सारे के सारे प्रशासनिक मुख्यालय ऊपर गोपेश्वर में ही हैं।’’

‘‘तो चमोली में कुछ नहीं है क्या?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘है। बाज़ार है। जिला जेल है और... अलकनन्दा का पावन किनारा है।’’

‘‘दीदी!’’ निक्की अचानक एक बार पुनः चहका।

‘‘क्या!!’’ मणिका ने टैक्सी की विंडो से बाहर झाँकते हुए पूछा।

‘‘उधर देख, ऊपर। कितने छोटे-छोटे घर!’’

‘‘ओह दादा जी, कितने छोटे-छोटे घर, देखिए।’’ एक पहाड़ी पर ऊपर की ओर उँगली से इशारा करती हुई मणिका भी चहकी।

‘‘इसका मतलब है कि इस समय हम चमोली के निकट ही हैं।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘आपने कैसे जाना?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘आप लोग जिन्हें छोटे-छोटे मकान कह रहे हैं वह चमोली से गोपेश्वर की ओर जाते हुए रास्ते की एक पहाड़ी पर बसा गाँव है—नेग्वाड़।’’ दादा जी बोले, ‘‘अपनी जवानी के दिनों में, तुम्हारे डैडी जब तुमसे भी कम उम्र के और बुआजी मणिका जितनी थी, तब हम लोग उस नेग्वाड़ में ही किराए का एक मकान लेकर रहते थे।’’

‘‘अच्छा! और चाचाजी कितने बड़े थे?’’

‘‘चाचाजी तब तक पैदा नहीं हुए थे। मकान की बालकनी में बैठकर हम लोग इस अलकनन्दा से पैदा होकर आसमान की ओर उठते बादलों को देखने का आनन्द लूटा करते थे।’’ दादा जी अतीत को याद कर उठे, ‘‘दू...ऽ...र पहाड़ों के पीछे से त्रिशूल की बर्फीली चोटी दिखाई देती थी। कभी लाल, कभी पीली तो कभी हंस के परों-सी सफेद। जिस तरह इस जगह से उन छोटे मकानों को देखकर तुम खुश हो रहे हो, उसी तरह उस बालकनी में बैठकर इस सड़क पर दौड़ने वाली बसें और कारें हमको खिलौनों-सी दिखाई देती थीं। संसारभर में कुछ गिने-चुने भाग्यशालियों को ही यह सब देखने का सुख मिलता है बेटे।’’

बच्चे विस्मयपूर्वक एक बार फिर जादूनगरी-जैसे उस गाँव और उसके उन प्यारे-प्यारे मकानों को देखने लगे।

दादा जी ने टैक्सी को चमोली में भी कुछ देर के लिए रुकवाया। उसके बाद वे आगे बढ़े।

‘‘सही अर्थ में तो हमारी बदरीनाथ यात्रा अब शुरू होती है।’’ टैक्सी के चमोली से चलते ही दादा जी ने कहा, ‘‘अब सबसे पहले हम पीपलकोटी पहुँचेंगे।’’

दादा जी की इस बात पर बच्चों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस समय वे जैसे किसी स्वप्नलोक की सैर कर रहे थे। अभी, कुछ देर पहले उन्होंने वह परीलोक देखा था, किसी जमाने में जहाँ उनके दादा-दादी और डैडी के सुनहरे दिन गुजरे थे। काश, उनके पास समय होता और वे नेग्वाड़ के उसी मकान की उसी बालकनी में कुछ दिन बिता पाते । नीचे फैले पड़े चमोली के कैनवास पर बहती अलकनन्दा के निर्मल जल से उठते बादलों को चारों ओर दूर-दूर तक सिर उठाए खड़े पर्वतों को और उनके पीछे बर्फ का ताज सिर पर बाँधे खड़े त्रिशूल को देख पाते। देख पाते कि सूर्य की गति के साथ-साथ उसका हिम-मुकुट किस तरह हर पल रंग बदलकर अपनी छटा बिखेरता है।

टैक्सी से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों और दादा जी के अतीत की कल्पनाओं ने मणिका और निक्की के मन में एक अनोखा ही चित्र खींच दिया। टैक्सी दौड़ती रही और बच्चे चुपचाप बैठे बाहर की दुनिया को देखते रहे। पीपलकोटी, गरुड़गंगा सब पीछे छूट गए और टैक्सी जोशीमठ पहुँच गई।

जोशीमठ और विश्वप्रसिद्ध औली

‘‘जोशीमठ वह जगह है बेटे, जहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे आदि-शंकराचार्य को दिव्य-ज्योति के दर्शन हुए थे। इसी कारण उन्होंने इस स्थान को ‘ज्योतिर्मठ’ नाम दिया जो बिगड़कर अब जोशीमठ हो गया है।’’ दादा जी काफी देर बाद पुनः बोले तो बच्चे जैसे तन्द्रा से जाग उठे।

‘‘यह तो बेहद खूबसूरत नगर है दादा जी।’’ मणिका बोली।

‘‘यह सच है बेटे । जोशीमठ को गढ़वाल का हर दृष्टि से सुन्दर और विकसित नगर माना जा सकता है। इससे कुछ ही दूर ‘औली’ नाम का बुग्याल है।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘बुग्याल क्या होता है?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘बुग्याल...सही बात तो यह है कि बुग्याल का अर्थ बताने वाला कोई एक शब्द हिन्दी में है ही नहीं है।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘शब्दकोश में देखोगे तो बुग्याल का अर्थ चरागाह लिखा मिलेगा। परन्तु चरागाह इसके अर्थ को पूरी गहराई के साथ ध्वनित नहीं कर पाता है। फिर भी, तुम लोग इसे इस तरह समझ सकते हो कि विशेष तरह की अपेक्षाकृत मोटी पत्तियोंवाली परस्पर गुँथी हुई-सी घास के मैदान सर्दी के मौसम में बर्फ की मोटी तह से ढँक जाते हैं। महीनों बर्फ में दबी रहने के कारण वह घास बेहद मुलायम और घनी गद्देदार हो जाती है। इतनी गद्देदार कि बहुत ऊपर से भी इस पर कूदो तो चोट न लगे। गर्मी के मौसम में बर्फ की परत पिघलकर बह जाती है और घास की मोटी तह वाला बुग्याल उभर आता है। औली-जैसे बड़े बुग्याल बहुत-कम पहाड़ों पर मिलते हैं। यहाँ पिछले कई सालों से सर्दी के मौसम में स्कीइंग आदि के प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं। जिसमें कई देशों के प्रशिक्षार्थी भाग लेते हैं।’’

‘‘तब तो जोशीमठ को एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन-स्थल माना जाना चाहिए दादा जी।’’ मणिका बोली।

‘‘इतनी ही बात नहीं है।’’ दादा जी ने बताया,‘‘जोशीमठ धार्मिक दृष्टि से भी अच्छा और महत्त्वपूर्ण नगर है। नरसिंह भगवान का यहाँ पर बेहद प्राचीन मन्दिर है। सर्दी के मौसम में जब बदरीनाथ का सारा क्षेत्र बर्फ से ढँक जाता है, मन्दिर के कपाट भी बन्द कर दिए जाते है, तब यहाँ, जोशीमठ में ही, भगवान बदरी विशाल की आरती उतारी जाती है। उस दौरान बदरीनाथ कमेटी के सारे पदाधिकारी भी यहीं रहते हैं।’’

जोशीमठ के बाद बदरीनाथ तक का रास्ता या तो निरा ढलान है या निरा उठान, बीचबीच में बस्तियाँ और खेत हैं। लेकिन पीछे देखे जा चुके पहाड़ों के मुकाबले कम और दूर-दूर। इसलिए प्रकृति की सुरम्यता और रमणीयता का आनन्द विशेष रूप से अब ही आना प्रारम्भ होता है।

बच्चे इस सारे आनन्द से अभिभूत थे। इससे पहले हालाँकि वे महामाता वैष्णोदेवी के दर्शनों के लिए जम्मू से कटरा तक पहाड़ों के बीच से गुजर चुके थे लेकिन उस यात्रा से कहीं अधिक आनन्द और रोमांच का अनुभव वे इस यात्रा में कर रहे थे।

विश्व धरोहर ‘रम्माण’

‘‘यहाँ के एक विश्व प्रसिद्ध उत्सव के बारे में मै भी आप सब को बताता हूँ।’’ एकाएक सुधाकर बोला।

‘‘अरे वाह!’’ दादा जी तुरन्त बोले, ‘‘नेकी और पूछ-पूछ? जल्दी बता।’’

‘‘देहरादून में मेरे एक दोस्त हैं—डॉ. नंद किशोर हटवाल। यह जानकारी मुझे उनसे मिली।’’ सुधाकर ने बताना शुरू किया, ‘‘जोशीमठ विकास खण्ड के सलूड़-डुंग्रा गाँव में हर साल अप्रैल के महीने में एक लोक उत्सव का आयोजन होता है। सन् 2009 में उस उत्सव को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर घोषित किया है।’’

‘‘यह तो वाकई एकदम नई जानकारी है!’’ दादा जी बोले।

‘‘बाबू जी, यह उत्सव इस गाँव के अलावा आसपास के डुंग्री, बरोशी, सेलंग गाँवों में भी होता है। लेकिन इन सब में सलूड़ गाँव का ही ज्यादा लोकप्रिय है।’’ सुधाकर ने बताना जारी रखा, ‘‘यह पूरे पन्द्रह दिनों तक चलता है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नाचना, गाना, प्रहसन, स्वांग, मेला तरह-तरह के आयोजन होते हैं। आखिरी दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को पेश किया जाता है। इसी वजह से यह सारा आयोजन ‘रम्माण’ नाम से जाना जाता है। रामायण के प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक व ऐतिहासिक चरित्रों और लोककथाओं में वर्णित घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से पेश किया जाता है। इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और भारी मेला जुड़ जाता है।’’

‘‘अप्रैल में किसी खास तारीख को शुरू होता है यह या...’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘इसकी शुरुआत बैसाखी के दिन से मानी जा सकती है।’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘इस दिन इस क्षेत्र के भुम्याल देवता को बाहर निकाला जाता है। 11 फुट लम्बे बाँस के ऊपरी भाग पर उस देवता की चाँदी की मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्ति के पीछे गाय की पूँछ के बालों से बना चँवर लगा होता है। लम्बे लट्ठे पर ऊपर से नीचे तक रंग-बिरंगे रेशमी साफे बँधे होते हैं। यहाँ की भाषा में इसे ‘लवोटू’ कहते हैं। भुम्याल के लवोटू को अपने कंधे के सहारे खड़ा करके लोक कलाकार नाचते हैं। इन कलाकारों को ‘धारी’ कहते हैं।’’

‘‘बड़ी मजेदार कहानी है सर।’’ यह सब सुनकर अल्ताफ झूमता-सा बोला, ‘‘इसे सुनाकर तो बड़े बाबू जी से आगे निकल गए आप।’’

‘‘बीच में मत टोक अल्ताफ।’’ प्रशंसा सुनकर सुधाकर ने उससे कहा, ‘‘मुझे बाबू जी की तरह कहानी सुनाने की आदत नहीं है, टोकेगा तो भूल जाऊँगा।’’

‘‘तारीफ सुनकर ज्यादा इतराओ मत।’’ उसकी इस बात पर ममता ने टोका, ‘‘आगे बढ़ो।’’

‘‘शुक्र है भगवान का कि तुमने ‘आगे बको’ नहीं कहा।’’ चुटकी लेते हुए सुधाकर ने कहा, ‘‘अच्छा, आगे सुनो—तीसरे दिन भुम्याल देवता गाँव के भ्रमण पर जाता है। यह भ्रमण पाँच-छः दिन में पूरा होता है। आखिरी दिन से पहली रात को ‘स्यूर्तू’ होता है। ‘स्यूर्तू’ का मतलब है पूरी रात चलने वाला कार्यक्रम। ‘स्यूर्तू’ की रात को सभी पात्र आकर नृत्य करते हैं। इस रात गढ़वाल का सुप्रसिद्ध ‘पाण्डव नृत्य’ भी होता है। रम्माण के बाजे लगते हैं और इस पर रम्माणी नाचते हैं। इसमें अठारह साल से कम उम्र के वे बच्चे भी नाचते हैं जिन्हें दूसरे दिन आयोजित होने वाले मुख्य रम्माण मेले के लिए राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के रूप में चुना जाना होता है। इसी रात को ‘मल्ल’ भी चुने जाते हैं। आखिरी दिन रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को नृत्य के माध्यम से पेश किया जाता है।’’

‘‘जैसे?’’ ममता ने पूछा।

‘‘भई, हटवाल जी तो इस क्षेत्र की संस्कृति और कलाओं के गहरे जानकारों में एक हैं।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘उनकी बताई सारी बातें मुझे याद नहीं हैं। जहाँ तक मुझे याद है रम्माण में राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न के जन्म, राम-लक्ष्मण का जनकपुरी में भ्रमण, सीता स्वयंवर, राम वनवास, सोने के हिरन का वध, सीता हरण, लंका दहन और राजतिलक के प्रसंग तो दिखाते ही हैं। इसकी विशेषता यह है कि पूरी प्रस्तुति में कोई संवाद नहीं होता; सिर्फ नृत्य के द्वारा सारी कथा की जाती है। यह नृत्य ढोल के तालों पर होता है। हर नृत्य के बाद रामायण के पात्र विश्राम करते हैं। इसी बीच अन्य पौराणिक, ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र आकर अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। बीच-बीच में भुम्याल देवता का ‘लवोटू’ भी नचाया जाता है।’’

‘‘पहले पता होता तो इस तरह भी कार्यक्रम बना सकते थे कि हम ‘रम्माण’ के दौरान यहाँ से गुजर रहे होते।’’ दादा जी ने अफसोस भरे स्वर में कहा।

‘‘क्यों फिकर करते हैं बाबू जी, अगले साल ‘रम्माण’ भी सही।’’ ममता ने कहा।

‘‘थैंक्यू बेटा।’’ दादा जी बोले।

‘‘जब भी आओ, मेरी ही गाड़ी में आना सर जी।’’ अल्ताफ ने कहा, ‘‘मेरी भी इच्छा है उसे देखने की।’’

‘‘ये लो, पेंठ अभी जुड़ी नहीं है कि गँठकटे आ भी जमे।’’ यह सुनते ही सुधाकर ने चुटकी ली, ‘‘भाई, अगला साल तो शुरू होने दे।’’

इस पर अल्ताफ बेचारा क्या बोलता? चुपचाप गाड़ी चलाता रहा।

‘‘उदास मत हो बेटे, ’’ दादा जी उससे बोले, ‘‘समय से साथ दिया तो हम तेरे ही साथ आएँगे।’’

‘‘थैंक्यू बाबा जी।’’ अल्ताफ प्रसन्न होकर बोला।

गाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ती रही।

फूलों की घाटी और हेमकुण्ट साहिब

‘‘यह विष्णुप्रयाग है।’’ काफी देर बाद कार जब एक छोटे पुल पर से गुजरने लगी तो दादा जी ने बताया, ‘‘नारद जी ने यहाँ पर भी भगवान विष्णु की आराधना की थी। यह धौली गंगा और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’

कार इस समय किसी सँकरी गली-जैसे रास्ते से गुजर रही थी। दोनों तरफ बेहद ऊँची पहाड़ियाँ और बीच में एक गहरी दरार के तल पर कतार लगाकर जूँ की तरह रेंगती हुई बसें और कारें। एकदम ऐसा रास्ता, जैसे किसी ऊँचे केक के बीच से एक पतली फाँक पूरी गहराई तक काटकर अलग निकाल दी गई हो। विष्णुप्रयाग के बाद कार गोविन्दघाट पहुँचकर रुकी। पहले से ही वहाँ खड़ी कुछेक बसों और अन्य वाहनों से उतरे सभी श्रद्धालु यात्रियों के साथ-साथ दादा जी, ममता, सुधाकर, मणिका और निक्की ने भी यहाँ स्थित एक सुन्दर राम मन्दिर में मत्था टेका।

‘‘काफी समय पहले इस जगह का नाम चट्टीघाट था।’’ दादा जी ने बताना शुरू किया, ‘‘बाद में, गुरु गोविन्द सिंह जी को सम्मान देते हुए इस जगह का नाम गोविन्दघाट कर दिया गया। …यहाँ से कुछ दूर उधर, अलकनन्दा के पुल को पार करने के बाद एक गाँव आता था—पुलना भ्यूँडार।’’

‘‘पुलना भ्यूँडार!’’

‘‘हाँ।’’ दादा जी इस बार जरा तनकर बैठ गए। उनकी आँखों में पुरानी यादों की चमक-सी नजर आने लगी।

‘‘वह मेरे एक जिगरी दोस्त का गाँव था।’’ वे आगे बोले, ‘‘भगतसिंह चौहान का गाँव। हमारा और उनका परिवार गोपेश्वर के नेग्वाड़ गाँव में आसपास ही रहता था। उनका बेटा चन्द्रशेखर उन दिनों मणिका जितनी उम्र का था। वह भी बहुत अच्छा लड़का था। एकदम अपने माता-पिता की तरह सीधा-सच्चा और ज़हीन।’’ इतना कहकर वे एक पल को रुके, फिर बोले, ‘‘आजकल वह इन पहाड़ों की खूबसूरती और संस्कृति का चितेरा फोटोग्राफर है। साथ ही, अपने इलाके में आने वाले तीर्थयात्रियों और सैलानियों द्वारा लापरवाही से इधर-उधर फेंक दी गई पॉलिथीन वगैरा की तरह के पर्यावरण को बिगाड़ने वाले कूड़े को इकट्ठा करके नीचे मैदान के कूड़ाघरों को भेजने वाले एक एन. जी. ओ. का सक्रिय सदस्य भी है।’’

यह सब बताते हुए भावावेश से उनकी आँखें भर आईं।

‘‘आगे बताइए न!’’ उन्हें चुप देखकर निक्की बोला।

‘‘2013 में जून की 14 तारीख से पहले का हाल बताता हूँ।’’ दादा जी गहरी पीड़ा से भरे स्वर में बोले, ‘‘भ्यूँडार से कुछ आगे घंघरिया नाम का एक गाँव था। घंघरिया के बायें किनारे पर पुष्पतोया नाम की नदी बहती थी, वह अब भी बहती है। इस नदी के किनारे-किनारे करीब पाँच किलोमीटर तक का इलाका अनगिनत तरह के फूलों से भरा होता था। सन् 1931 में स्माइल नाम के एक अंग्रेज घुमक्कड़ ने फूलों से भरे इस इलाके की भव्यता से चकाचौंध होकर इसे ‘फ्लावर वैली ऑफ गढ़वाल’ यानी गढ़वाल की ‘फूलों की घाटी’ नाम दिया था। तब से यह इसी नाम से जानी जाती थी और दुनियाभर से लोग इसे देखकर आनन्दित होने यहाँ आते थे।’’

‘‘14 जून 2013 के बाद उस इलाके को क्या हुआ सर?’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘गढ़वाल घाटी के कई इलाकों में बादल फटा। चारों तरफ तबाही मच गई। केदारनाथ घाटी में कई हजार लोग मारे गए। भ्यूंडार और घंघरिया जैसे कितने ही गाँव हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गए।’’

‘‘और उनके बाशिंदे?’’ अल्ताफ ने पुनः पूछा।

‘‘कुछ बाढ़ में बह गए, कुछ बच गए।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘बचे हुए लोगों को राज्य सरकार अब नई जगहों पर बसा रही है।’’

‘‘फूलों की घाटी समुद्रतल से कितनी ऊँचाई पर होगी दादा जी?’’ दादा जी की उदासी को दूर करने की दृष्टि से मणिका ने पूछा।

‘‘होगी करीब दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर।’’

‘‘उससे ऊपर भी कोई जगह है?’’

‘‘हाँ है...’’ दादा जी बोले, ‘‘और वह भी संसारभर में प्रसिद्ध है—हेमकुण्ट साहिब, सिख भाइयों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ। यह करीब तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर बना है। पहले इस जगह का नाम हेमकुण्ट लोकपाल था। लोकपाल यानी भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण जी ने यहाँ तपस्या की थी। सिखों के गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं द्वारा लिखित ‘विचित्र नाटक’ में एक स्थान पर कहते हैं कि सप्तशृंग नाम की पर्वत श्रेणियों के बीच हेमकुण्ट नाम की पर्वत चोटी पर किसी समय में उन्होंने तप किया था। बाद में इसी आधार पर सिखों ने गुरुदेव की याद में यहाँ पर गुरुद्वारा बना दिया। तभी से इस ‘चट्टीघाट’ का नाम भी ‘गोविंदघाट’ पड़ गया।’’

बदरीनाथ या हेमकुण्ट साहिब की यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्री गोविंदघाट के श्रीराम मन्दिर में मत्था टेकने के बहाने कुछ देर आराम कर लेते हैं। वे आराम करते हैं तो उनकी गाड़ियों के इंजनों को भी कुछ देर आराम मिल जाता है। लम्बी दूरी तय करने वाले ड्राइवर गाड़ी के इंजन की सेहत का उतना ही ध्यान रखते हैं जितना कि अपनी खुद की सेहत का। सुरक्षित यात्रा के लिए यह बहुत जरूरी है कि गाड़ी और उसके इंजन की सेहत का पूरा ध्यान रखा जाय।

बाबा नन्दा सिंह चौहान

‘‘हेमकुण्ट साहिब में सर्वधर्म समभाव की भावना को सिद्ध करने वाले एक सच के बारे में आप सब को बताता हूँ—’’ दादा जी आगे बोले, ‘‘अभी-अभी पुलना भ्यूंडार के भगत सिंह चौहान का जिक्र किया था न!’’

‘‘जी।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘उनके पिताजी थे—श्री नन्दा सिंह चौहान। उन्नीस सौ छियासी में मैंने एक बार उनको देखा था। केदारनाथ यात्रा के उद्देश्य से वे भगत सिंह चौहान के पास नेग्वाड़ में आकर रुके थे। गुरवाणी उन्हें जुबानी याद थी। वे रोजाना गुरु नानक देव जी द्वारा लिखित टीका का पाठ करते थे। उन्होंने सनातन धर्मी होने के बावजूद करीब 18 वर्षों तक मुख्य ग्रंथी के तौर पर गुरद्वारा हेमकुण्ट साहिब की सेवा की। उसके बाद घंघरिया के गुरद्वारा गोविंद धाम में पधारने वाले तीर्थ यात्रियों की संगत के सामने हेमकुण्ट साहिब की खोज से जुड़े इतिहास पर प्रवचन देने लगे थे।’’

‘‘यह तो आपने वाकई आश्चर्यजनक बात बताई बाबू जी।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘बेटे, साम्प्रदायिक सोच को धर्म नहीं, धर्म से जुड़ी राजनीति जन्म देती है। धर्म तो समानता और बराबरी का सन्देश देता है।’’ दादा जी बोले, ‘‘संगत के लोग उन्हें बड़ा सम्मान देते थे और ‘बाबा नन्दा सिंह चौहान’ के नाम से पुकारते थे।’’

इस तरह बातें करते हुए आराम करने के बाद जब सभी टैक्सी में आ बैठे तो अल्ताफ ने उसे स्टार्ट कर दिया। सभी लोग गोविंदघाट की सुन्दरता का आस्वाद मन ही मन ले रहे थे, इसीलिए चुप थे। अल्ताफ तो रहता ही अक्सर चुप था, सो वह टैक्सी चलाता रहा। कुछ ही देर में टैक्सी को उसने पाण्डुकेश्वर के निकट पहुँचा दिया।

पंचकेदार और पंचबदरी

‘‘सुनो,’’ दादा जी अचानक बोले, ‘‘मैंने उत्तराखण्ड के प्रयाग यानी संगम तुमको गिनाए थे न।’’

‘‘जी।’’

‘‘उनमें पाँच उत्तराखण्ड के प्रमुख प्रयाग कहलाते हैं। उसी तरह केदारनाथ और बदरीनाथ की भी पाँच-पाँच शाखाएँ हैं जिन्हें पंचकेदार और पंचबदरी के नाम से जाना जाता है। आगे, पंचबदरी में से एक, पाण्डुकेश्वर आने वाला है।’’

‘‘आप उन सभी के नाम बताइए न!’’ मणिका बोली।

‘‘ठीक है। सुनो, पहले मैं तुमको पंचकेदार के नाम गिनाता हूँ। पहला, केदारनाथ तो प्रमुख है ही। दूसरा, मध्यमहेश्वर। यह केदारनाथ जाने वाले रास्ते में कालीमठ नाम की जगह के पास पड़ता है। तीसरा, तुंगनाथ। यह गोपेश्वर-ऊखीमठ मार्ग पर चौपता के पास पड़ता है। चौथा, रुद्रनाथ। यह भी उसी मार्ग पर गोपेश्वर से करीब बारह किलोमीटर दूर मण्डलचट्टी गाँव से पैदल मार्ग पर बीस-पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर बड़े मनोहर स्थान पर स्थित है; और पाँचवाँ कल्पेश्वर। पैदल यात्रा कर सकने वाले साहसी लोग रुद्रनाथ से ही उरगम घाटी में स्थित कल्पेश्वर केदारनाथ के दर्शन के लिए जाते हैं।’’

‘‘अब पंचबदरियों के नाम गिनवाइए बाबूजी।’’ इस बार ममता बोली।

‘‘सुनो—बदरीनाथ, आदि बदरी, भविष्य बदरी, योगध्यान बदरी और वृद्ध बदरी; ये पाँचों पंचबदरी कहलाते हैं। धार्मिक लोग, विशेष रूप से संन्यासी, इन पाँचों ही बदरी स्थानों के दर्शन करके अपने ज्ञान, अनुभव और तप को सार्थक करते हैं।’’

सुखी परिवार

टैक्सी के पाण्डुकेश्वर की सीमा में प्रवेश करते ही दादा जी ने पुनः उसी के बारे में बताना शुरू कर दिया, ‘‘हस्तिनापुर के राजा पाण्डु एक शाप के कारण अपना सारा राज्य अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को सौंपकर वन को चले गए थे और अपने अन्तिम दिन उन्होंने वन में ही गुज़ारे थे। अपनी दोनों पत्नियों—कुन्ती और माद्री के साथ। कहते हैं कि वह इसी क्षेत्र में आकर रहे थे जिससे इस समय हमारी टैक्सी गुजर रही है।’’

‘‘हमारी टैक्सी इस समय किस क्षेत्र से गुजर रहे हैं बाबूजी?’’ ममता ने पूछा; और इससे पहले कि दादा जी उसके सवाल का जवाब दें, सुधाकर बोल उठा, ‘‘पाण्डुकेश्वर से।’’

‘‘अरे वाह! आपको कैसे पता चला डैडी?’’ निक्की ने आश्चर्यपूर्वक पूछा।

‘‘भाई बचपन में अम्मा और बाबूजी के साथ आखिर मैं भी रहा हूँ इस इलाके में। सब-कुछ थोड़े ही भूल गया हूँ।’’ सुधाकर ने बड़बोले अन्दाज़ में कहा।

‘‘आ...ऽ...हा-हा-हा, बाहर लगे लैण्डमार्क को पढ़कर इस जगह का नाम बता दिया तो ‘जानकार’ बन बैठे!’’ तुरन्त ही उनकी बात को काटते हुए ममता बोली, ‘‘आप खिड़की के सहारे वाली सीट छोड़कर जरा उधर बैठिए, पीछे वाली सीट पर। तब देखती हूँ कि इस इलाके के बारे में कितनी अच्छी जानकारी अभी भी बाकी है जनाब के भेजे में।’’

‘‘लो यार,’’ सुधाकर बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोले, ‘‘न घर में कुछ बोलने देती है न बाहर। कैसी लड़की से आपने मेरी शादी करा दी है बाबू जी? हर समय पति की इज़्ज़त का फलूदा बनाने पर तुली रहती है!’’

बाबू जी ही नहीं, अल्ताफ भी उनके इस अभिनय पर मुस्करा दिया।

‘‘मुझे नहीं बैठना इसके पास।’’ अपनी सीट से उठकर खड़े होने की कोशिश करते वह बोले, ‘‘इधर आप आ बैठिए।’’

‘‘दादा जी कैसे उधर बैठ सकते हैं डैडी?’’ उनकी एक्टिंग को वास्तविकता मानकर मणिका घबराए स्वर में बोली।

‘‘वैसे ही बैठ सकते हैं जैसे मैं बैठा हूँ। वो मुझसे ज्यादा मोटे हैं क्या?’’

‘‘बात मोटे या दुबले होने की नहीं है डैडी,’’ मणिका ने समझाते हुए कहा, ‘‘आपके इधर आ जाने और दादा जी के उधर चले जाने से हमारा तो कॉम्बीनेशन ही बिगड़ जाएगा।’’

‘‘कैसा कॉम्बीनेशन ?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘वो ऐसा कि यहाँ, पीछे तो हम और दादा जी आमने-सामने की सीटों पर बैठे हैं, जैसे कि सुनाने वाले और सुनने वाले को वास्तव में बैठना चाहिए। वो सुना रहे हैं और हम सुन रहे हैं। दादा जी की जगह आप आ बैठे तो आप इतना कुछ बताने से रहे...और दादा जी को हमसे बातें करने के लिए बार-बार पीछे को गरदन घुमानी पड़ेगी। उस तरह तो बात करने का सारा मज़ा ही खत्म हो जाएगा न।’’

‘‘यानी कि मैं यहीं बैठा रहूँ?’’

‘‘जी।’’

‘‘ठीक है।’’ सुधाकर ने ऐसे कहा जैसे वहाँ बैठने को उसे मजबूर किया जा रहा हो, और सामने की ओर मुँह करके पहले की तरह अपनी सीट पर बैठ गया।

‘‘हाँ, तो क्या बता रहा था मैं?’’ वह सीधा बैठा तो दादा जी ने बात का सिलसिला जारी रखने की दृष्टि से पूछा।

‘‘आप नहीं बता रहे थे बल्कि बच्चे आपसे पूछ रहे थे कि जिस क्षेत्र में हम प्रवेश कर रहे हैं, उसका नाम क्या है?’’ सुधाकर उनकी बात पर बोले, ‘‘सो तो मैंने बता ही दिया कि हम पाण्डुकेश्वर क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं। अब आप आगे बताइए।’’

‘‘आगे भी आप ही बता दीजिए स्वामी!’’ सुधाकर की बात सुनकर ममता ने हाथ जोड़कर विनयभरे अन्दाज़ में मुस्कराते हुए कहा।

‘‘स्वामी लोग सिर्फ शुरुआत करते हैं बालिके!’’ सुधाकर प्रवचन करने वाले स्वामियों के अन्दाज़ में बोला, ‘‘मुख-कपाट बन्द करके अपने कर्ण-कपाटों को खोलो और पीछे से आनेवाली मनभावन कथा को ताज़ा हवा के झोकों की तरह मस्तिष्क में घुसने दो...हरिओ...ऽ...म!’’

उनका यह वाक्य समाप्त होते-न-होते अल्ताफ ने टैक्सी को पहाड़ की ओर किनारे पर लगाया और नीचे उतरकर जोर-जोर से हँसने लगा।

‘‘इसे क्या हुआ!’’ टैक्सी को एकाएक रोककर इस तरह हँसते हुए देखकर सुधाकर आश्चर्यपूर्वक बुदबुदाया। बच्चे भी मुँह बाए उसकी ओर देखते रह गए। कुछ देर तक हँस लेने के बाद अल्ताफ मुस्कराता हुआ-सा पुनः स्टेयरिंग पर आ बैठा और गाड़ी को स्टार्ट करने की कोशिश करने लगा।

‘‘क्या हुआ अल्ताफ?’’ सुधाकर ने भोलेपन के साथ पूछा, ‘‘कोई पुराना चुटकुला याद आ गया था क्या? अगर सुनाने लायक हो तो सुनाओ, हम भी हँस लें थोड़ी देर।’’

अल्ताफ कुछ न बोला। स्टेयरिंग से हटा और दोबारा हँसने लगा पेट पकड़कर। जब सामान्य हो गया तब आकर अपनी सीट पर बैठ गया। बोला, ‘‘आप भी, इतनी सीरियस कॉमेडी करते हैं सर, कि मुझे अपनी हँसी पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है कभी-कभी।’’

‘‘मैंने तो कोई कॉमेडी नहीं की।’’ सुधाकर बोला, ‘‘सीधी-सादी बातें कर रहा हूँ यार, और तू इसे कॉमेडी कह रहा है!’’

‘‘यह कॉमेडी तो हमारे घर में चौबीसों घण्टे चलती रहती है अल्ताफ।’’ पीछे बैठे दादा जी उससे बोले, ‘‘रिश्तों और बातों को हम बोझ की तरह सिर पर लादकर नहीं घूमते, मज़ा लेते हैं उनका।’’

‘‘मैं पिछले पन्द्रह साल से टैक्सी चला रहा हूँ बाबा जी।’’ टैक्सी को स्टार्ट करते हुए अल्ताफ बोला, ‘‘एक से एक नकचढ़ी फैमिली को झेला है मैंने; लेकिन आपकी जैसी खुले दिमाग वाली फैमिली के साथ इतने सालों में पहली ही बार सफर कर रहा हूँ। आप लोगों के बीच आपस में इज्ज़त का जज़्बा भी है और बात कहने-झेलने का सलीका भी।’’

‘‘भई, कहने-झेलने का सलीका पनपाना पड़ता है परिवार में। जब तक हम खुद कहना-झेलना नहीं सीखेंगे, बच्चे कैसे सीखेंगे?’’ दादा जी ने कहा।

‘‘सो तो है,’’ अल्ताफ बोला, ‘‘लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी, कि सर जी जैसे मान-सम्मान देने वाले बहू-बेटे आज के समय में हर बुजुर्ग को नसीब नहीं हैं।...आप लकी हैं बाबा जी।’’

‘‘तेरा मतलब है कि अकेला मैं ही लकी हूँ!’’ दादा जी तुनककर बोले, ‘‘ये लोग लकी नहीं हैं जिन्हें मुझ-जैसा सहनशील बाप मिला है?’’

‘‘लो सुन लो...’’ सुधाकर तपाक-से बोला, ‘‘अल्ताफ, जब से होश सँभाला है, शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो जिसकी शुरुआत इन्होंने मुझे ‘बुद्धू’ कहकर और मैंने इनके चरण छूकर न की हो। अब तू ही बता कि सहनशील ये हुए कि मैं?’’

‘‘अरे आप दोनों ही बहुत लकी हो सर जी!’’ अल्ताफ इस बार भावुक स्वर में बोला, ‘‘और आप दोनों से ज्यादा लकी मैं हूँ, जिसे टैक्सी ड्राइवर के तौर पर ही सही, आपके साथ रहने का एक मौका मिल रहा है।’’

‘‘अब हँसते-हँसते तू रोने वाले रोल में मत आ यार।’’ सुधाकर बोला, ‘‘बाबू जी ने हमें यह सिखाया है कि टेंशन वाली चीजों को चुप रहकर पीछे सरकाते रहो, बड़ों की इज्जत करो और बच्चों को प्यार दो।’’

‘‘...और बराबर वालों को?’’ ममता ने पूछा।

‘‘बराबर वालों के लिए दुआ करो कि हे ईश्वर! इनकी सेहत ठीक रख और इनके हाथों को मजबूती दे ताकि किसी के सिर और पैर दबाते हुए वे जल्दी थक न जाएँ।’’ सुधाकर ने गम्भीर स्वर में कहा तो ममता ने अपनी बायीं कोहनी उनके पेट में दे मारी।

‘‘उई बाबूजी!’’ सुधाकर के मुँह से निकला।

‘‘उई बाबूजी नहीं, शुक्रिया भगवान बोल।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘अरे, कितने जोर से पेट में कोहनी मारी है इसने!’’ सुधाकर ने रुआँसी आवाज बनाकर कहा, ‘‘शुक्रिया किस बात का?’’

‘‘शुक्रिया इस बात का कि ऊपर वाले ने तेरी दुआ इतनी जल्दी सुन ली। अभी कोहनी तक पहुँची है ताकत, शाम होते-होते हाथों तक जरूर पहुँच जाएगी।’’

उन तीनों की इस शरारत भरी बातचीत पर अल्ताफ होठों ही होठों में मुस्करा दिया। उसने तो पहली बार ऐसा परिवार देखा था जिसमें बड़े ही नहीं, बच्चे और बेटा-बहू भी बेतकल्लुफ हों।

‘इस हँसी-दिल्लगी को सबकी जिन्दगी में बरकरार रख मेरे अल्लाह!’ उसने मन ही मन दुआ पढ़ी।

पाण्डुकेश्वर

टैक्सी तेज गति से आगे बढ़ती रही।

‘‘तो इस समय हम पाण्डुकेश्वर से गुजर रहे हैं!’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘पीछे जो पंच बदरी तुम्हें गिनाए थे, उनमें से योगध्यान बदरी इसी क्षेत्र में है। कहा जाता है कि यु्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव—सभी पाण्डव इसी क्षेत्र में पैदा हुए थे। यहाँ के एक प्राचीन मन्दिर में आज भी पाण्डवों की अनेक मूर्तियाँ विराजमान हैं।’’

इस बीच अल्ताफ ने टैक्सी को रोककर इंजन बन्द कर दिया था।

‘‘क्या हुआ ? गाड़ी क्यों रोक दी?’’ दादा जी ने उससे पूछा।

‘‘आगे वाली बस में कुछ लोकल सवारियाँ चढ़-उतर रही हैं बाबा जी। सामान भी काफी है, देर लगेगी।’’ वह बोला।

बच्चों के रोमांच का ठिकाना न था। वे ऐसी-ऐसी जगहों से गुजर रहे थे जिन्हें अपने कल्पना-लोक में भी कभी महसूस नहीं कर सकते थे। उन्हें लग रहा था कि इसे स्वर्गभूमि कहने की दादा जी की बात एकदम सही है। अब तक उन्होंने सिर्फ सुना था, लेकिन अब वे फूलों से लदे पहाड़, झरने और घाटियाँ स्वयं देख रहे थे। जगह-जगह पर सैकड़ों फुट ऊपर से गिरने वाले झरने उनके मन को झंकृत कर रहे थे।

‘‘अब मैं आपको एक कहानी और सुनाता हूँ।’’ दादा जी बोले।

‘‘कुछ देर तक आप चुप बैठो बाबूजी।...अब कोई कहानी मत सुनाओ।’’ आगे बैठी ममता बोल उठी, ‘‘निक्की-मणि! सुनो, अब दादा जी को भी बाहर का कुछ देख लेने दो। इनसे ज्यादा बोलवाओगे तो ये थक जाएँगे।’’

‘‘मम्मी ठीक कह रही हैं दादा जी,’’ निक्की ने तुरन्त कहा, ‘‘अब आप भी कुछ देर बाहर का मजा ले लीजिए और हम भी लेते हैं।’’

बात दरअसल यह थी कि बैठे-बैठे उसे नींद-सी आने लगी थी और वह कुछ समय के लिए सो जाना चाहता था। उधर, मणिका की स्थिति उससे अलग थी। वह बाहर के दृश्यों को तन्मयतापूर्वक देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी ठीक कह रही हैं, अब कोई कहानी नहीं।’’

‘‘ठीक है, अब आगे जिस महत्त्वपूर्ण स्थान से हमारी यह टैक्सी गुजरने वाली है उसके बारे में आप लोग मुझसे कुछ नहीं पूछेंगे।’’ दादा जी ने अनमनेपन से कहा।

‘‘उसके या किसी भी दूसरे स्थान के बारे में बताने से आपको हम रोक थोड़े ही रहे हैं बाबू जी।’’ ममता ने कहा, ‘‘बाकी जगहों के बारे में आप कुछ देर बाद भी तो हमें बता सकते हैं।’’

‘‘लेकिन जो स्थान पीछे छूट जाएगा मैं उसके बारे में कुछ कैसे बताऊँगा?’’ दादा जी ने कहा।

‘‘ओफ् दादा जी, डोंट डिस्टर्ब!’’ मणिका ने उन्हें झिड़का।

‘‘लो सुनो,’’ उसकी झिड़की सुनकर दादा जी ने निक्की से कहा।

‘‘वैसे तो औरतें बदनाम हैं बाबूजी, लेकिन...’’ ममता बोली और बीच में ही रुक गई।

‘‘बोल,-बोल...वैसे तो मैं समझ गया कि तू कहना क्या चाहती है,’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन बात को रोक मत। दिल के अरमान निकल जाने दे। तुझे यह शिकायत नहीं रहनी चाहिए कि ससुराल वाले तुझे मुँह नहीं खोलने देते।’’

‘‘आप चुप हो जाओ बाबू जी, वरना पता चलेगा कि उल्टे यही ससुराल वालों को मुँह नहीं खोलने दे रही है...’’ कहकर सुधाकर हँसा। इस पर ममता ने फिर एक कोहनी उनके पेट में जड़ दी लेकिन धीरे-से। इस बार उनके मुँह से ‘उई बाबू जी’ की चीख नहीं निकली। टैक्सी में चुप्पी पसर गई।

अल्ताफ अन्दर ही अन्दर मुस्कराता हुआ गाड़ी चलाता रहा।

हनुमानचट्टी

‘‘दुर्योधन ने एक बार पाण्डवों को जुए में हराकर बारह साल के लिए वनवास में भेज दिया था।’’ काफी लम्बी चुप्पी के बाद दादा जी ने एकाएक सुनाना प्रारम्भ किया, ‘‘अपने उस वनवास के दौरान भीम जब एक जंगल में घूम रहे थे तब रास्ते में पूँछ फैलाकर लेटे पड़े एक बूढ़े और कमज़ोर-से दिखने वाले बंदर पर उनकी नजर पड़ी। उन दिनों किसी प्राणी के शरीर को लाँघकर आगे बढ़ने को अशिष्टता माना जाता था। इसलिए भीम ने उस बंदर से अपनी पूँछ समेट लेने को कहा ताकि वे अपने रास्ते पर सीधे चलते चले जाएँ।’’

‘‘क्यों ?’’ निक्की ने दादा जी को टोका, ‘‘वह पूँछ जितना रास्ता छोड़कर दूसरी ओर होकर भी तो निकल सकते थे।’’

‘‘अरे वाह!’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘हम तो समझ रहे थे कि हमारा बेटा अभी भी नींद की दुनिया में डूबा है, कहानी सुन ही नहीं रहा!...दरअसल यही बात उस समय उस बंदर ने भी भीम से कही थी कि दूसरी तरफ होकर निकल जाओ। और अगर इसी रास्ते से सीधे निकलने की जिद है तो खुद ही पूँछ को हटा दो और चले जाओ। भीम उसकी यह बात सुनकर गुस्सा खा गए। बोले, ‘अरे नासमझ बंदर, तू नहीं जानता कि मैं पवनपुत्र हनुमान का छोटा भाई हूँ—महाबली भीम।’

यह सुनकर बंदर बोला, ‘तब तो यह पूँछ तुम्हें खुद ही हटानी पड़ेगी। जरा देखें तो सही कि कितने महाबली हो!’

उसके बाद भीम ने अपनी सारी ताकत लगा दी लेकिन उस बंदर की पूँछ को उसकी जगह से हटाना तो दूर, तिलभर हिला तक न सके। एक बूढ़े और कमज़ोर-नजर आने वाले बंदर की पूँछ में इतनी ताकत! इसका मतलब है कि यह कोई साधारण बंदर नहीं है—यों सोचते हुए भीम गए और उसके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।

बंदर ने कहा, ‘जाओ, क्षमा किया।’ और अपनी फैली हुई पूँछ समेटकर भीम को चले जाने का रास्ता दे दिया। लेकिन क्षमा पाए हुए भीम ने जाने से पहले उस बूढ़े बंदर से उसका परिचय पूछा। पता चला कि वह साधारण बंदर नहीं, बल्कि स्वयं महाबली हनुमान थे। भीम का खुद को ‘महाबली’ समझने का घमण्ड दूर करने के लिए उन्होंने यह नाटक रचा था।

बेटे! आगे आने वाला स्थान हनुमानचट्टी है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘कहते हैं कि यही वो जगह है जहाँ पर भीम को उनके बड़े भाई महाबली हनुमान ने दर्शन दिए थे। सड़क के किनारे यहाँ हनुमान जी का एक मन्दिर है। तीर्थयात्री उनका दर्शन करके ही बदरीधाम की ओर बढ़ते हैं।’’

‘‘हम हनुमानचट्टी आ पहुँचे दादा जी!’’ मणिका बाहर देखते हुए ही चिल्लाई, ‘‘हनुमान जी का मन्दिर वह रहा!’’

उसकी बात सुनकर अल्ताफ से कहकर दादा जी ने गाड़ी किनारे लगवायी और हनुमान बाबा का दर्शन करने के लिए सब के साथ लाइन में जा लगे।

‘‘आने वाले पन्द्रह-बीस मिनटों में हम बदरीधाम भी पहुँचने वाले हैं।’’ बजरंगबली के दर्शन से लौटकर दादा जी बोले।

‘‘इतनी जल्दी!’’ निक्की बोला।

‘‘हाँ बेटे! हनुमानचट्टी से बदरीधाम सिर्फ ग्यारह किलोमीटर दूर है।’’ दादा जी बोले, ‘‘आगे कंचन गंगा की धारा आएगी और उसके बाद थोड़ा-सा आगे चलते ही हमें बदरीधाम के दर्शन होने लगेंगे।’’

‘‘बदरीनाथ से आगे भी कोई शहर है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘धरती का कोई नगर, कोई गाँव आखिरी नहीं है मणि बेटे। यह गोल है।’’

‘‘उससे आगे चीन है न दादा जी?’’ निक्की ने कहा।

‘‘उसके बाद चीन नहीं तिब्बत है निक्की बेटे...’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘और तुम क्या पूछ रही थीं मणिका? बदरीनाथ से आगे भी कोई शहर है या नहीं? तो बदरीनाथ से आगे भारतीय सीमा का अन्तिम गाँव मणिभद्रपुरम् है जिसे आम बोलचाल में माणा कहते हैं। यह राजपूत जाति के मारछा लोगों का गाँव है। आम बोलचाल में इन्हें ‘भोटिया’ कहा जाता है।’’

जयकारा

‘‘बोल भगवान बदरी विशाल की ...जय!’’ उनके आगे-पीछे चल रही बसों के भीतर से अचानक जयकारा सुनाई दिया तो दादा जी ने अपनी बातें बन्द कर दीं।

‘‘दादा जी! हम बदरीधाम पहुँच गए दादा जी!!’’ इन आवाज़ों को सुनते ही मणिका दादा जी से लिपट गई। इतनी लम्बी, थकाऊ और भयावह यात्रा को सफलता के साथ तय कर लेने पर अल्ताफ भी कम खुश नहीं था। दादा जी ने भी अपनी खुशी और श्रद्धा को ‘जय बाबा बदरी विशाल’ कहकर व्यक्त किया।

‘‘बर्फ का वह पहाड़ देख रहे हो?’’ टैक्सी रुकी तो नीचे उतरते ही दादा जी ने हरे-भरे विशाल पर्वतों के पीछे दू...ऽ...र किसी बहादुर बुजुर्ग की तरह सिर उठाए खड़े एक पहाड़ की ओर संकेत करके बच्चों से पूछा। फिर बताया, ‘‘यह नीलकण्ठ पर्वत है। अब, सबसे पहले हम अपने ठहरने की व्यवस्था करेंगे। उसके बाद मैं तुमको आसपास की कुछ महत्त्वपूर्ण जगहों पर घुमाने ले चलूँगा। ठीक है?’’

‘‘जी दादा जी।’’ दोनों बच्चे एक-साथ बोले।

कुली को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ी। कई स्थानीय नौजवान टैक्सी को देखते ही सामान उठाकर ले चलने के लिए उसके निकट आ खड़े हुए। दादा जी ने सामान को किसी अच्छी और साफ-सुथरी धर्मशाला में ले चलने को कहा।

‘‘अल्ताफ, इस इलाके में ठंड ज्यादा रहती है, इसलिए एक कमरा तुम्हारे लिए भी धर्मशाला में ही ले देंगे।’’ दादा जी ने अल्ताफ से कहा, ‘‘गाड़ी को कहीं पर सड़क किनारे खड़ी करने से अच्छा है कि इसे पार्किंग में खड़ी कर आओ। हम यहीं पर तुम्हारे आने का इंतजार करते हैं।’’

‘‘जी, सर जी।’’ कहकर अल्ताफ वहाँ से चला गया और गाड़ी को पार्किंग में खड़ी करके जल्दी ही लौट आया। धर्मशाला में पहुँचकर एक बड़ा कमरा दादा जी ने अपने परिवार के लिए और एक छोटा कमरा अल्ताफ के लिए लेकर अपने कमरे में सामान को रखवाया। अल्ताफ ने भी अपना सामान अपने कमरे में रख दिया। उसके बाद अपने-अपने कमरे में बाहर से ताला लगाकर वे लोग घूमने के लिए निकल पड़े।

‘‘सुनो, दिन अभी आधा बाकी है।’’ सड़क पर खड़े होकर दादा जी बोले, ‘‘मन्दिर के कपाट तो इस समय बन्द होंगे। आप लोगों को मैं आसपास की मुख्य-मुख्य जगहों पर घुमा लाता हूँ। ज्यादा दूर की जगहों के बारे में वैसे ही बता देंगे।’’

पर्यावरण की रक्षा

यों तय करके, अभी वे दो ही कदम आगे बढ़े थे कि सड़क पर पानी की एक खाली बोतल और आलू के चिप्स की एक खाली पन्नी पड़ी दिखाई दे गयी। दादा जी झुके और दोनों चीजों को उठाकर कूड़ेदान की तलाश करने लगे।

‘‘पहाड़ पर पॉलिथीन और प्लास्टिक की चीजें इधर फेंक देना कितने बड़े खतरे को बुलावा दे सकता है, लोग नहीं जानते।’’ वे जैसे अपने-आप से बोले।

‘‘पहाड़ पर ही क्यों बाबू जी, ’’ उनकी बात सुनकर सुधाकर बोल उठा, ‘‘इन चीजों को इधर-उधर फेंक देना तो मैदानी इलाकों में भी बराबर का खतरनाक है। आपको पता है कि 2005 में मुम्बई में आई बाढ़ का बड़ा कारण ये प्लास्टिक और पॉलिथीन ही थीं। पानी को शहर से बाहर निकालने वाली नालियों में इनके फँस जाने की वजह से बारिश का सारा पानी शहर में ही रुक गया और बाढ़ आ गई।’’

‘‘सर, 2013 में केदारनाथ वगैरा में जो तबाही आई थी, क्या वो भी...?’’ सुधाकर की बात सुनकर अल्ताफ ने संकोच के साथ पूछा।

‘‘उसके तो इनके अलावा और भी कई कारण थे अल्ताफ।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘एक बात तो तुम यह समझ लो कि ये प्लास्टिक और पॉलिथीन फेंकी तो जमीन पर जाती हैं, लेकिन असर आसमान पर डालती हैं।’’

‘‘यह कैसे हो सकता है डैड!’’ उसकी यह बात सुनकर मणिका ने टोका।

‘‘बेटे, हमारे जीवन की हर घटना पर्यावरण को प्रभावित करने वाली होती है।’’ सुधाकर ने चलते-चलते बताया, ‘‘विज्ञान जितनी भी प्रगति करता है, उस सबका अच्छा या बुरा असर पर्यावरण पर जरूर पड़ता है। जितना अधिक हम प्रदूषण फैलाते हैं, उतना ही अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे होते हैं।’’

‘‘लेकिन, केदारनाथ में तबाही तो ऊपर के हिस्सों से आने वाली नदी का जल-स्तर बढ़ जाने और बादल फटने से आई थी!’’ इस बार ममता ने अपनी शंका पेश की।

‘‘यही...यही समझाने की कोशिश तो मैं कर रहा हूँ भाई, ’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘कि प्रदूषण जमीन पर फैलाया जाता है और असर आसमान पर पड़ता है। अपने रहन-सहन में सुधार के लिए हम बस, रेल, हवाई जहाज, सारे के सारे इलैक्ट्रॉनिक सामान...मतलब कि जितनी भी चीजें बनाते हैं वे सब की सब प्राकृतिक पर्यावरण को असंतुलित करती हैं। अब, पर्यावरण असंतुलित होगा तो जलवायु में भी बदलाव जरूर आएगा। जलवायु में बदलाव आएगा तो मौसम का मिजाज बदलेगा। वह बहुत ज्यादा गर्म या बहुत ज्यादा ठंडा रहना शुरू कर देगा। कहीं पर बारिश बिल्कुल नहीं होगी तो कहीं पर इतनी ज्यादा हो जाएगी कि...सब-कुछ तबाह करके रख दे।’’

‘‘सर जी, ये प्लास्टिक अगर इतनी ज्यादा नुकसानदेह और खतरनाक है तो सरकार इसके प्रोडक्शन पर रोक क्यों नहीं लगा देती है।’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘प्लास्टिक आज जीवन का हिस्सा बन चुकी है अल्ताफ।’’ सुधाकर बताने लगा, ‘‘इसके नुकसान और खतरे जान जाने के बावजूद न तो इसको बनाना रोका जा सकता है और न ही इसको इस्तेमाल करना रुक सकता है। हाँ, दो सावधानियाँ जरूर बरती जा सकती हैं।’’

‘‘क्या?’’

‘‘पहली यह कि इसे कम से कम इस्तेमाल किया जाए; और दूसरी यह कि इस्तेमाल करने के बाद इसे लावारिस की तरह सड़क पर या नदी-नाले में न फेंक दिया जाए। इन जगहों पर फेंकी जाने पर ये अपनी ताकत से दस गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं।’’

‘‘मैंने तो सुना है कि, ’’ उसकी बात खत्म हो जाने के बाद अल्ताफ बोला, ‘‘कूड़े से बीनकर ले जाई गई प्लास्टिक और पॉलिथीन को कैमिकल और मशीनों से गुजारकर दोबारा इस्तेमाल करने लायक बना लिया जाता है!’’

‘‘ठीक ही सुना है।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘इस तरह बनाई हुई पॉलिथीन तो और-भी ज्यादा नुकसानदेह होती होगी?’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘बेशक।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘अरे भाई, केदारनाथ की बाढ़ पर याद आया...’’ उन दोनों की बातचीत के बीच में दादा जी बोले, ‘‘मैंने शुरू से अब तक रास्ते के जिन-जिन गाँवों, मंदिरों और गुफाओं वगैरा के बारे में बताया है, उनमें से बहुत-सी जगहें उस बाढ़ में तबाह हो चुकी हैं।’’

‘‘फिर आपने उन जगहों के बारे में हमें बताया ही क्यों दादा जी?’’ आगे-आगे चलती मणिका दादा जी की बात को सुनकर शिकायती स्वर में बोली।

‘‘भई, बताया इसलिए कि इस समय मुझे न तो उनके पूरी तरह नष्ट हो जाने की जानकारी है; और न ही पूरा या आधा-अधूरा बच जाने की।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘किसी-किसी का तो पता होगा।’’ सुधाकर ने टोका, ‘‘वही सुधार बताते चलते।’’

‘‘उनमें से एक के बारे में तो चलो बता ही देता हूँ; क्योंकि उसके बारे में एक अफवाह मैंने बाढ़ से तबाही के दिनों में उड़ती-उड़ती-सी सुनी थी।’’

‘‘चलो, एक ही सही।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘मम्मी जी कहा करती हैं कि ‘भागते भूत का लंगोट पकड़ में आ जाए तो वह भी सबूत के तौर पर पेश करने के लिए काफी होता है।’’’

‘‘तो सुन—वह जो श्रीनगर के पास उफल्डा नाम के गाँव की बात बताई थी न!’’ दादा जी ने बताना शुरू किया।

‘‘हाँ।’’ इस बार निक्की बोला।

‘‘वहाँ आदि शंकराचार्य ने श्रीयंत्र वाली जिस ऐतिहासिक शिला को नीचे नदी में धकेल दिया था; उसे बाढ़ के पानी ने काफी नुकसान पहुँचाया है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि वह शिला या तो पूरी या फिर अधूरी, 2013 की बाढ़ में पानी के दबाव से टूट-फूटकर बह गई। जो भी हो, उस बाढ़ ने बहुत-सी प्राचीन गुफाओं, इमारतों, मंदिरों और शिलाओं को ही नहीं बहुत-से गाँवों और बुग्यालों को भी सिरे से नष्ट ही कर दिया।’’

ओजोन परत की कहानी

‘‘आप बुरा न मानना सर जी, ’’ अल्ताफ सुधाकर से बोला, ‘‘लेकिन मेरी समझ में अभी भी नहीं आया कि यहाँ बद्रीनाथ के बाजार में पड़ी प्लास्टिक की यह बोतल या आलू चिप्स का यह खाली रैपर केदारनाथ में बाढ़ कैसे ला सकते हैं।’’

‘‘सच में, इस बात को तो मेरा भी मन मान नहीं पा रहा है।’’ ममता ने अपनी शंका जोड़ी। पहाड़ी रास्ते पर ऊपर की ओर चलते हुए उसकी साँस फूलने लगी थी, इसलिए वह एक बड़ी शिला का सहारा लेकर जहाँ की तहाँ खड़ी हो गई।

उसे थकी हुई देखकर बाकी लोग भी रुक गए। दादा जी भी मौके के मुताबिक एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने लगे और सुधाकर उनके पास पड़े दूसरे पत्थर पर बैठ गया। बच्चे आसपास के पौधों का निरीक्षण करने लगे और अल्ताफ अपने सवाल का जवाब पाने के इंतजार में सुधाकर की ओर मुँह किए खड़ा हो गया।

‘‘आप दोनों की बात का जवाब देने के लिए मुझे कुछ बातें समझानी पड़ेंगी।’’ दो पल रुककर सुधाकर ने बोलना शुरू किया, ‘‘सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना होगा कि हमारे चारों ओर का यह वातावरण बहुत नन्हें-नन्हें, किसी भारी-भरकम लैंस की मदद लिए बिना नंगी आँखों से न दीख पाने वाले कणों से भरा पड़ा है।’’

‘‘हाँ सर जी, ’’ इस बात को सुनकर अल्ताफ बोला, ‘‘कम उजाले में धूप की लाइन में बहुत-से कण नंगी आँखों से दिखाई भी देते हैं।’’

‘‘हाँ, ’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘लेकिन जिन कणों की बात मैं कर रहा हूँ, वे तुम्हारे देखे इन कणों से हजार गुना छोटे होते हैं और नंगी आँखों से बिल्कुल भी दिखाई नहीं दे सकते। वे हमारी साँस के साथ शरीर के भीतर जाते हैं और खून में घुलकर पूरे बदन की यात्रा करते हैं। इस तरह वे हमारे स्वास्थ्य पर भी असर डालते हैं और सोचने-समझने के तरीके पर भी। ज्यादा गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। हवा में तैरते हुए ये लगातार आपस में टकराते रहते हैं और बहुत तेज गति से चलते रहते हैं। आप बस यह समझ लीजिए कि अच्छी चीजों के सम्पर्क में आने पर ये कण अच्छे गुणों वाले और गंदी चीजों के सम्पर्क में आने पर बुरे गुणों वाले बन जाते हैं तथा दूर तक के वातावरण को प्रभावित करते हैं।’’

‘‘ओ...ऽ...’’ अल्ताफ के मुँह से निकला।

‘‘मुझे लगता है कि हमारे ऋषि-मुनि हवन और यज्ञ करने के बहाने वातावरण में तैरते इन अणुओं को ही शुद्ध किया करते थे।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘हमारे यहाँ भी लोबान की धूनी देने का चलन है।’’ अल्ताफ बोला।

‘‘सड़न और दुर्गंध ही नहीं, तेज आवाजें भी इन कणों को नुकसानदेह बना देती हैं। इसीलिए तेज आवाजों को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाली कहा गया है।’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘एक बात यह भी है कि ये कण जितने ज्यादा छोटे होते हैं, उतने ही ज्यादा ताकतवर भी होते हैं। परमाणु बम इन्हीं की ताकत का इस्तेमाल करके तबाही मचाते हैं और रासायनिक हथियार भी इन्हीं के कन्धे पर रखकर अपनी बन्दूक चलाते हैं।’’

इस बीच बच्चे भी वहीं आकर बैठ गए थे। सुधाकर की बात सुनकर मणिका ने कहा, ‘‘डैडी, हमारी किताब में ओजोन लेअर का पाठ है। उसमें बताया गया है कि हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए और ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे उसमें छेद हो जाने का खतरा हो।’’

‘‘यह ओजोन लेअर क्या है सर जी?’’ मणिका की बात पर अल्ताफ ने सुधाकर से पूछा।

‘‘अल्ताफ, हमारे वायुमंडल में एक खास अनुपात में हजारों ऐसी गैसें मौजूद हैं जो धरती पर जीवन के लिए जरूरी हैं। अनुपात से उनकी कम या ज्यादा मौजूदगी जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। लेकिन, धरती की सतह के ऊपर दस से पचास किलोमीटर की दूरी तक इसको घेरे हुए ओजोन गैस की मोटी परत मौजूद है। इसकी मोटाई मौसम के और भौगोलिक दृष्टि के मद्देनजर बदलती रहती है। ओजोन की यह परत सूरज की ऐसी किरणों को धरती पर आने से रोकती है जो हर प्राणी को रोगी बना सकती हैं। साइंस की भाषा में उन्हें पराबैंगनी किरणें कहा जाता है। ओजोन की परत उन किरणों की 93 से 99 प्रतिशत तक मात्र सोख लेती है। पृथ्वी के वायुमंडल का 91 प्रतिशत से ज्यादा ओजोन उस परत में मौजूद है। हमारी गलती से जब वातावरण के कण प्रदूषित होते हैं तो ओजोन की इस परत में छेद हो जाने का खतरा बढ़ जाता है। अगर वहाँ छेद हो गया तो कितने लाइलाज रोगों से धरती के प्राणी मरने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता।’’

‘‘ओ...ऽ...’’ अल्ताफ के मुँह से पुनः निकला।

‘‘अब तुम समझ गए होओगे कि बद्रीनाथ में पड़ी गंदगी किस तरह केदारनाथ में तबाही की वजह बन सकती है या कश्मीर में बहने वाली झेलम में बाढ़ ले आने की वजह बन सकती है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘यह जो जरूरत से ज्यादा गर्मी, सर्दी या बरसात पड़ने लगी है; या बेमौसम गर्मी, सर्दी या बरसात पड़ने लगी है उस सब की वजह प्रदूषण के कारण गर्म हो चुके वातावरण के कण ही हैं। साइंस की भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग से इस धरती को बचाने की जिम्मेदारी खास और आम हर व्यक्ति की है।’’

यों कहकर वे अपनी जगह से उठकर आगे बढ़ने लगे। बाकी सब भी पीछे-पीछे चलने लगे।

महिमामयी अलकनन्दा

वहाँ से चलकर दादा जी सबसे पहले असीम और अक्षय जल की स्वामिनी अलकनन्दा की ओर उन्हें ले गए। जिस सुन्दर नदी को वे सब श्रीनगर से यहाँ तक निहारते आए थे और जिसमें अब तक कितनी ही अन्य नदियों और सैकड़ों झरनों को समाहित होते वे देखते आए थे, इस समय उसे वे एकदम उसके ऊपर बने पुल पर खड़े होकर देख रहे थे। पानी का इतना तेज बहाव तथा इतना चौड़ा पाट किसी दूसरी नदी का अब से पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था।

इतना जल! और एकदम निर्मल!!

भारतीय सीमा का आखिरी गाँव

उसके बाद दादा जी ने बच्चों को माणा गाँव भी दिखाया। कितना मनोरम, कितना मनोहर है माणा। भारतमाता के माथे पर सुहाग की बिन्दी-जैसा शुभ। भोले-भाले और मासूम बच्चे, स्त्रियाँ, तकली घुमाते, स्वेटर बुनते या उँगलियों के बीच बीड़ी फँसाए धूप सेंकते बूढ़े। बड़ी-बड़ी आँखों वाली छोटी-छोटी सरला गायें, भेड़ें, मेमने, घने बालों वाले भेड़िये-जैसे नजर आते कद्दावर कुत्ते।

गढ़वाल के ज्यादातर नौजवान भारतीय सेना की सेवा में जाना पसन्द करते हैं। देश-सेवा उनके लिए सबसे बड़े गौरव की बात है।

माणा गाँव के प्रवेश द्वार के तौर पर ऊँचा-सा गेट बनाया हुआ है जिस पर देवनागरी हिन्दी में लिखा है—सुस्वागतम। इस गेट के अलावा इधर-उधर अन्य कई बोर्ड भी माणा की सड़कों के किनारे लगे थे। उन सभी पर गाँव का नाम ‘माणा’ के स्थान पर ‘माना’ लिखा देखकर दादा जी को थोड़ा अटपटा लगा लेकिन उन्होंने इस बारे में गाँव के किसी व्यक्ति से कुछ कहना उचित नहीं समझा। उन बोर्डों पर लिखी इबारत के अनुसार माणा गाँव समुद्रतल से 3118 मीटर यानी 10230 फुट की ऊँचाई पर बसा है। गाँव के भीतर जाने पर उन्हें कुछ दुकानों पर ‘हिन्दुस्तान की अन्तिम दुकान’ लिखे बोर्ड भी दिखाई दिए। एक दुकान पर लिखा था—‘हिन्दुस्तान की सीमा पर चाय की अन्तिम दुकान। सेवा का एक मौका अवश्य दें। यहाँ पर एक बार चाय अवश्य पीयें।’

उन बोर्डों को देखकर मणिका सुधाकर से बोली, ‘‘डैड, इस दुकान के सामने खड़ी करके मेरी एक फोटो उतारिए।’’

‘‘ताकि सबूत रहे कि मणिका वाकई हिन्दुस्तान की आखिरी दुकान को छूकर आई है?’’ सुधाकर ने हँसते हुए कहा।

‘‘नहीं, बल्कि इसलिए कि इस गाँव के लोगों को एक दिन खुद पर यह गर्व हो कि एक बार हिन्दुस्तान की जानी-मानी हस्ती मणिका मित्तल माणा में भी अपने चरण रख चुकी हैं।’’ मणिका ने गरदन उठाकर विश्वास के साथ कहा।

उसकी इस बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। सुधाकर ने कैमरा तैयार किया और बोला, ‘‘माननीया मणिका मित्तल जी, मैं आपकी फोटो नहीं खींचूँगा बल्कि वीडियो बनाऊँगा और उस वीडियो से तैयार फिल्म का नाम होगा—माणा में मणिका।’’

सुधाकर की इस बात का सभी ने तालियाँ बजाकर स्वागत किया। मणिका ने उसी पल से एक सधी हुई अभिनेत्री की तरह चलना और बोलना शुरू कर दिया। सबने चुप रहकर उसके इस अन्दाज को प्रोत्साहित किया। इस घटना के बाद सुधाकर ने मणिका की लगभग हर गतिविधि को शूट किया।

उन सब ने गणेश गुफा, व्यास गुफा और भीम पुल के भी दर्शन किए।

‘‘यह पुल देख रहे हो? एक पूरी शिला को उठाकर नदी के दोनों छोरों पर टिका दिया गया है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘किसी जमाने में, लोग कहते हैं कि नदी को पार करने के लिए भीम ने इस शिला को नदी पर टिकाया था। तभी से इसका नाम ‘भीम पुल’ पड़ गया।’’

‘‘और गणेश गुफा?’’ निक्की ने व्यंग्यपूर्वक पूछा, ‘‘इसे क्या गणेश जी ने खोदा था?’’

‘‘महाभारत का नाम सुना है तुमने?’’ दादा जी ने उससे पूछा।

‘‘क्यों नहीं।’’ निक्की विश्वासपूर्वक बोला।

‘‘किसने लिखा है उसे?’’

‘‘महर्षि व्यास ने।’’ उसी ऐंठ के साथ उसने उत्तर दिया।

‘‘गलत। महर्षि व्यास ने महाभारत को लिखा नहीं बल्कि डिक्टेट किया था; यानी सिर्फ बोला था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लिखा तो उसको था गणेश जी ने।’’

‘‘यानी व्यास जी रहे बॉस और गणेश जी बने उनके स्टेनो!’’ मणिका हँसी।

‘‘ठीक कहा तुमने।’’ दादा जी बोले, ‘‘इस पुरानी कहानी पर विश्वास करें तो गणेश जी इस सृष्टि के पहले स्टेनो हैं। महाभारत ग्रंथ को लिखते समय जिस गुफा में गणेश जी बैठते थे उसे गणेश गुफा कहते हैं और जिसमें बैठकर व्यास जी डिक्टेट करते थे उसे व्यास गुफा कहते हैं।...’’

‘‘यानी कि गणेश जी लिखित साहित्य के पहले आशुलेखक हैं।’’ शूटिंग करते हुए कभी आगे तो कभी पीछे चल रहे सुधाकर ने चलते-चलते रुककर कहा।

वसुधारा जल प्रपात

‘‘अभी-अभी तो यह बात मैं बता चुका हूँ।...’’ दादा जी बोले, ‘‘अब मैं तुमको वसुधारा प्रपात के बारे में बताता हूँ।’’

‘‘प्रपात का मतलब क्या है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘झरना…वाटर फॉल1’’ इस बार जवाब दादा जी की बजाय सुधाकर ने दिया।

‘‘ओ…ऽ…नियाग्रा फॉल्स की तरह का?’’

‘‘हाँ लेकिन नियाग्रा फॉल्स अलग तरह का मामला है बेटे।’’ सुधाकर ने समझाया, ‘‘नियाग्रा फॉल्स तीन झरनों का समूह है जो अमेरिका और कनाडा की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर है।’’

‘‘तीन झरनों का समूह?’’

‘‘हाँ। इनमें से एक का नाम है—हॉर्स शू फॉल्स; दूसरे का नाम है—अमेरिकन फॉल्स और तीसरे का—ब्राइडल वील फॉल्स। कनाडा के टोरंटो शहर से ये मात्र 1 घंटे की दूरी पर पड़ते हैं और कनाडा जाने वाले लोग इन्हें देखे बिना आ जाएँ, यह हो नहीं सकता। कनाडियन साइड से इन तीनों को आसानी से देखा भी जा सकता है।’’

‘‘सुधाकर, ’’ दादा जी ने बीच में टोका, ‘‘नियाग्रा अपने विस्तार के कारण भी चर्चा में अधिक है।’’

‘‘केवल विस्तार के कारण नहीं बाबू जी, ’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘जल के बहाव की अद्भुत गति के कारण भी। मैं आपको बताऊँ कि इनमें हॉर्स शू फॉल्स करीब 180 फुट की ऊँचाई से गिरता है। इसकी चौड़ाई करीब 2600 फुट है यानी 790 मीटर। पीक सीज़न में इससे गिरने वाले जल की गति लगभग सवा दो लाख क्यूबिक फुट प्रति सेकेंड होती है। इन तीनों में इसी को सबसे ज्यादा खूबसूरत माना जाता है। अमेरिकन फॉल 70 से 100 फुट के बीच की ऊँचाई से गिरता है। इसका पाट 1060 फुट यानी 320 मीटर चौड़ा बताया जाता है। इन दोनों के बीच करीब एक किलोमीटर से ऊपर का जलीय फासला बताया जाता है।’’

‘‘बेटे, वही बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ—नियाग्रा की खूबसूरती उसके विस्तार में ही अधिक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मेरी बात को तुम नकारात्मक मत समझो। तुम हॉर्स शू फॉल्स को दुनिया का सबसे अधिक प्रसिद्ध जलप्रपात बता रहे हो। मैंने हालाँकि उसे देखा नहीं है, लेकिन मैं भी मान लेता हूँ कि वह बेहद खूबसूरत होगा। लेकिन वह गिरता कितनी ऊँचाई से है? सिर्फ 180 फुट की ऊँचाई से। और अपना यह वसुधारा जलप्रपात? यह गिरता है—लगभग तीन सौ पिचहत्तर फुट की ऊँचाई से। इसके जल-कणों के गिरने का विस्तार, मुझे नहीं मालूम किसी ने अभी तक नापा है या नहीं; लेकिन मुझे यकीन है कि वह भी कई सौ फुट के घेरे में अवश्य होगा। इतनी अधिक ऊँचाई से धरती पर गिरने वाला यह झरना अपनी खूबसूरती के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। हिन्दुस्तान के आखिरी गाँव माणा से यह ज्यादा नहीं, करीब 5 किलोमीटर ऊपर है। रास्ता कठिन है लेकिन है बहुत प्यारा।’’

‘‘आपकी इच्छा हो तो वसुधारा-दर्शन के लिए भी निकालें समय।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘इच्छा तो बहुत है बेटा, ’’ दादा जी ने कहा, ‘‘लेकिन मुझे साथ ले चलोगे तो परेशान ही ज्यादा रहोगे; आनन्द नहीं ले पाओगे यात्रा का। तुम ऐसा कर सकते हो कि कभी अकेले, या अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर वसुधारा और इससे भी ऊपर की यात्रा का कार्यक्रम बना सकते हो।’’

‘‘अनन्त विस्तार है इस पर्वत-माला का।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा कहा जाता है कि अपने अन्तिम समय में, पांडव जब स्वर्ग की ओर जाने लगे, तब अन्तिम बार माणा गाँव में ही रुके थे।’’

‘‘आप वसुधारा से ऊपर भी कुछ होने की बात बता रहे थे न1’’ सुधाकर ने टोका।

‘‘हाँ, ’’ दादा जी बोले, ‘‘लक्ष्मी-वन है उससे आगे।’’

‘‘लक्ष्मी-वन।’’

‘‘और भी कई जगहें हैं; लेकिन वहाँ पहुँचने के लिए ट्रेकर्स की मदद से जाना बेहतर है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लक्ष्मी वन तो वसुधारा से ज्यादा नहीं< सिर्फ 4 किलोमीटर ही और आगे है; लेकिन उससे भी आगे सतोपंथ ग्लेशियर है। उसी के रास्ते में, ग्लेशियर से पहले आती है सतोपंथ झील। न तो कहीं कोई बस्ती है और न ही कोई फलदार पेड़। इसलिए खाने और रुकने का इंतजाम अपने साथ लेकर चलना पड़ता है।’’

‘‘सतोपंथ ग्लेशियर1 लक्ष्मी वन11’’ सुधाकर रोमांच के साथ बुदबुदाया।

‘‘सतोपंथ झील, सतोपंथ ग्लेशियर और लक्ष्मी वन की तो बात ही अलग है; ’’ उसकी बुदबुदाहट पर ध्यान दिये बिना दादा जी बोलते रहे, ‘‘वसुधारा तक भी जाना हो तो एक सावधानी जरूर बरतनी चाहिए।’’

‘‘क्या/’’

‘‘एकदम सुबह निकल लेना चाहिए।’’ दादा जी बोले, ‘‘सतोपंथ झील बदरीनाथ से करीब 25 किलोमीटर दूर पड़ती है। ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए इस क्षेत्र में अनगिनत पाइंट हैं—एक से बढ़कर एक रोमांचक और दर्शनीय। यहाँ मत्था टेककर घर लौट जाने वालों के लिए अनेक तीर्थ भी हैं और प्रकृति मे सौंदर्य को देखने और उसी में रम जाने का हृदय रखने वाले पर्यटकों के लिए अनेक सौंदर्य-स्थल भी। हर जगह ऐसी कि यहीं रुक जाने को मन करने लगे।...बहुत से प्रकृति प्रेमी सदा-सदा के लिए यहाँ रुक भी जाते हैं। तुमने फूलों की घाटी का नाम तो सुन ही रखा होगा/’’

‘‘हाँ, आपने बताया भी था पीछे।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘उसकी खोज सन् 1931 में तीन अंग्रेज घुमक्कड़ों ने ही की थी।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘और वे उसे खोजने को यहाँ नहीं आए थे, वे तो पर्वतारोहण के समय रास्ता भटक गये थे और अचानक ही फूलों से भरी उस घाटी में पहुँच गये थे। उन्होंने ही दुनिया भर में उस इलाके को ‘फूलों की घाटी’ के नाम से मशहूर किया। एक बात और बताता हूँ—सन् 1939 में इंग्लैंड के क्यू नामक इलाके से जॉन मार्ग्रेट लेगी नाम की एक वनस्पति शोधार्थी उस घाटी में खिलने वाले फूलों पर शोध के लिए आई थी। उसने वहाँ से कितने ही तरह के फूलों के नमूने इकट्ठे किए। एक दिन एक चट्टान से अचानक पैर फिसल जाने की वजह से वह गहरी खाई में गिर गयी और वहीं उनकी मौत हो गयी।’’

‘‘ओह1’’ सुधाकर के साथ-साथ ममता के भी गले से निकला।

‘‘प्रकृति का प्रेम मनुष्य कि जुनूनी बना देता है बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘बाद के वर्षों में मार्गेट की बहन यहाँ घूमने आयी थी। अपनी बहन के मरने की जगह पर भी वह गयी और उसकी याद में उसकी समाधि उसने वहाँ बनवा दी।’’

इसके बाद दादा जी ने सभी को अनेक पर्वत-चोटियाँ वहाँ खड़े होकर दिखाईं—चौखम्बा, नर और नारायण, और भी पता नहीं कौन-कौन-सी…। कहानियाँ सुनाते, जगहें दिखाते, घूमते-घुमाते दादा जी बच्चों को धर्मशाला में वापस ले आए।

सभी थक गए थे। इसलिए आराम करने के लिए बिस्तरों पर जा पड़े। ममता की तो साँस ही बुरी तरह फूल चुकी थी। कुछ देर बाद दादा जी की नजर अपनी कलाई-घड़ी पर पड़ी। उसे देखते ही वे चौंककर बोल उठे, ‘‘अरे! भगवान बदरी विशाल की शाम की आरती होने में एक ही घण्टा बाकी है। चलो-चलो, तैयारी करो। देर करोगे तो बेहद भीड़ बढ़ जाएगी द्वार पर।’’

यों कहकर उन्होंने नहाने के बाद पहनने वाले कपड़े जल्दी-जल्दी एक छोटे बैग में रखे और सबको साथ लेकर अग्नितीर्थ कहे जाने वाले गर्म पानी के कुण्डों की ओर चल पड़े।

अग्नितीर्थ यानी तप्त जलकुण्ड

अलकनन्दा के पुल को पार करके वे दूसरी ओर पहुँचे। दादा जी उन्हें तप्त जलकुण्डों की ओर ले गए।

‘‘गर्म पानी का स्रोत!’’ मणिका आँखें फाड़कर चीख उठी।

‘‘गर्म पानी की नहीं दीदी, खौलते पानी का।’’ निक्की बोला।

‘‘हाँ, और एकदम प्राकृतिक।’’ दादा जी बोले, ‘‘इस स्थान को अग्निपीठ भी कहते हैं। भगवान बदरी विशाल के दर्शन से पहले इन कुण्डों के जल से स्नान करना शुभ माना जाता है।’’

समीप पहुँचकर निक्की ने कुण्ड के जल में हाथ डाला और तुरन्त बाहर खींच लिया।

‘‘क्या हुआ?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘इतना गर्म पानी! एकदम खौलता हुआ, बाप रे!! ’’ निक्की चिल्लाया।

स्वयं नहाने से पहले दोनों बच्चों को नहला देना ठीक समझकर मणिका को ममता ने और निक्की को दादा जी ने नहलाना शुरू किया। कुण्ड से निकलकर जल खौलते पानी की तरह छलककर एक नाली से होता हुआ नीचे बहती अलकनन्दा में समाए जा रहा था। एक-एक मग में पानी लेकर फूँक से ठण्डा कर-करके दोनों बच्चों को नहलाया गया। उन्हें कपड़े पहनने को कहकर दादा जी, ममता और सुधाकर ने नहाना शुरू किया।

‘‘तुम भी इस गर्म जल से नहाने का आनन्द ले लो, अल्ताफ।’’ सुधाकर ने अल्ताफ के निकट जाकर धीमे-से कहा।

‘‘मन तो है सर जी,’’ वह बोला, ‘‘मैं तो इस संकोच में दूर खड़ा हूँ कि एक मुसलमान का यहाँ पर नहाना कहीं एतराज की वजह न बन जाए।’’

‘‘अबे, तेरे क्या माथे पर मुसलमान लिखा है? और ये कुण्ड क्या किसी के बाप ने खुदवाए हैं जो यह तय करेगा कि कौन इनके पानी से नहा सकता है कौन नहीं। कपड़े उतार और चुपचाप नहा ले।’’ उसके पास जाकर सुधाकर ने उसे लगभग डाँटते हुए फुसफुसाकर कहा; लेकिन अल्ताफ मन को मारे अलग ही खड़ा रहा, नहाया नहीं। वह बोला, ‘‘हम ड्राइवर लोग पूरे हिन्दुस्तान में घूमते हैं सर जी; लेकिन ऐसा कोई काम नहीं करते जिसमें किसी के एतराज की गुंजाइश बनती हो। आपने बराबर का समझने जितना प्यार दिखाया, यही बहुत है मेरे लिए।...’’

मुंशी नसरुद्दीन उर्फ़ बाबा बदरुद्दीन

‘‘अल्ताफ, घर से निकलने से लेकर यहाँ पहुँचने तक बाबू जी ने अनगिनत जानकारियाँ हम सब को दी हैं; लेकिन एक जानकारी ऐसी है जो या तो इन्हें मालूम नहीं है या उसे ये बताना भूल गए हैं।’’ सुधाकर ने उससे कहा।

‘‘कौन-सी जानकारी?’’ उसकी बात पर दादा जी ने तुरन्त पूछा।

‘‘बाबू जी, यह जानकारी पिछले दिनों आपके दोस्त बी. मोहन नेगी जी से फोन पर बातें करते हुए मुझे अचानक ही मिली।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘हाँ-हाँ, लेकिन वह जानकारी है कौन-सी?’’ दादा जी जानने को उत्सुक स्वर में बोले।

‘‘बताता हूँ।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘इस अल्ताफ के संकोच की वजह से वह बात मुझे एकाएक याद आ गई। नेगी अंकल ने बताया था कि नन्दप्रयाग के रहने वाले नसरुद्दीन जी ने सन् 1867 में ‘श्री बद्री महात्म्य’ नाम से भगवान बद्रीनाथ की आरतियों आदि का संग्रह छपवाने के लिए अंग्रेजी शासन से रजिस्टर्ड कराया था। कोई भी किताब छपवाने से पहले उन दिनों सरकार से इजाजत लेनी पड़ती थी। वह किताब सन् 1889 के आसपास छपकर आई थी और अब लगभग दुर्लभ है। वे इस इलाके के डाकखाने में मुंशी थे। भगवान बद्रीनाथ में गहरी श्रद्धा होने के कारण लोग उन्हें मुंशी नसरुद्दीन की बजाय बाबा बदरुद्दीन ही कहने लगे थे। बहुत-से लोग तो यह भी मानते हैं कि भगवान बद्रीनाथ जी की जो आरती इन दिनों गाई जाती है, वह मुंशी नसरुद्दीन की ही लिखी हुई है, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।’’ इतना बताकर वह पुनः अल्ताफ से मुखातिब हुआ, ‘‘इसलिए अपने मुसलमान होने के डर को तू दिल से निकाल दे। ‘हरि को भजै सो हरि का होई’ याद रख और निडर होकर कुण्ड के जल से नहा।’’

‘‘यह रहस्य तो वाकई मुझे भी आज ही पता चला है।’’ सुधाकर की यह बात सुनकर दादा जी ने कहा।

‘‘अच्छा, एक बात तुझे और बता दूँ, ’’ सुधाकर ने पुनः अल्ताफ से कहा, ‘‘दुनियाभर में गर्म पानी निकालने वाले ऐसे लाखों स्रोत हैं। अनपढ़ लोगों के सामने धन्धेबाज लोग इन्हें भगवान का चमत्कार बताकर पैसे ऐंठते हैं। असलियत यह है कि यह धरती के भीतर होने वाली कुछ रासायनिक उथल-पुथल का करिश्मा है, भगवान का चमत्कार नहीं। दरअसल, जमीन के भीतर गन्धक वगैरा की अधिकता के कारण यह पानी गर्म होकर निकलता है और उसी की वजह से दाद-खुजली वगैरा चमड़ी की बीमारियों को ठीक भी करता है। अगर तुझे दाद-खाज है तो चल, उसे ठीक करने के लिए ही नहा ले।’’

उसकी इस दलील पर अल्ताफ हल्का-सा मुस्करा दिया और बोला, ‘‘नहीं सर जी, ऊपर वाले की दुआ से मैं पूरी तरह निरोग हूँ। आप इंजोय करिए।’’

जय हो...

स्नान से निवृत्त होकर वे सब भगवान बदरी विशाल के दर्शन के लिए मन्दिर के सिंहद्वार पर लगी श्रद्धालुओं की लम्बी लाइन में जा खड़े हुए। लाइन जैसे-जैसे आगे खिसकती रही, वैसे-वैसे उनका तन और मन दोनों रोमांच महसूस करने लगे। जैसे ही सिंह-द्वार पर पहुँचे, उन्होंने अपना-अपना माथा वहाँ टेक दिया। फिर खड़े होकर दादा जी अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर अभिभूत स्वर में बोले—

‘‘आपकी शरण में आ गए हैं, हे बाबा बदरी विशाल! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!’’

नहाने से पहले पहने हुए इन सबके कपड़ों से भरा बैग कन्धे पर लटकाए अल्ताफ श्रद्धालुओं की लाइन से काफी अलग कुछ दूर खड़ा था। यह सब देखकर श्रद्धावश उसने भी अपने हाथ जोड़ दिए।

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