देवी (बांग्ला कहानी) : प्रभातकुमार मुखोपाध्याय

Devi (Bangla Story) : Prabhat Kumar Mukhopadhyay

आज से करीब सौ वर्ष पहले की बात है। पूस महीने की लम्बी रात किसी भी तरह समाप्त होना नहीं चाहती थी। उमाप्रसाद की नींद टूट गई। रजाई के भीतर उसने स्त्री को ढूँढा । लेकिन वहाँ नहीं मिली। पूरा बिछौना ढूँढने पर उसने देखा, उसकी षोडषी पत्नी एक कोने में दुबक कर सो रही है। उमाप्रसाद ने अति सावधानी से रजाई को पत्नी पर डाल दिया और भीतर हवा आने के सभी छिद्र भी सतर्कता से ढक दिए। उमाप्रसाद बीस वर्ष का युवक है। हाल ही में उसने संस्कृत भाषा छोड़कर फारसी पढ़ना शुरू किया है। उसके माँ नहीं है, पिता परम पण्डित, धार्मिक और निष्ठावान शक्ति-उपासक हैं। वे गाँव के जमींदार भी हैं। लोगों का विश्वास यह है कि उमाप्रसाद के पिता कालीकिंकर राय प्रकृत सिद्ध पुरुष हैं, और उन पर आद्या शक्ति की विशेष कृपा है। गाँव के आबाल-वृद्ध-वनिता उन्हें देवता की तरह मानते हैं।

उमाप्रसाद अपने नवजीवन में कुछ दिनों से नव प्रणय की मादकता अनुभव करने लगा है। पाँच-छः वर्ष पहले उसका विवाह हुआ था लेकिन पत्नी के साथ घनिष्ठता अभी हुई है। स्त्री का नाम है, दयामयी।
उमाप्रसाद ने स्त्री के कपोलों पर अपना एक हाथ रखकर देखा, वे बहत ठंडे हो गए हैं। उसने धीरे से पत्नी का मुँह चूम लिया।

जिस तरह नियमित रूप से दयामयी का स्वाँस आ-जा रहा था, उसमें व्यतिक्रम हुआ। उमा ने जान लिया कि दयामयी जाग गई है। उसने धीरे से कहा, 'दया।'
दया ने कहा, 'क्या है?'
'तुम जाग रही हो? दया ने घूँट पीकर कहा, 'नहीं, सो रही थी।'

उमाप्रसाद ने स्नेह से स्त्री को नजदीक खींच लिया, और बोला, 'सो रही थी तो जवाब किसने दिया? दया मानो अपनी गलती समझकर अप्रतिभ हो गई। बोली, 'पहले सो रही थी, अब जाग गई हूँ'
उमाप्रसाद ने बालक की तरह कहा, 'अब कैसे जाग गई हो।'

दया ने खूब जल्दी-जल्दी कह दिया-'जब तुमने मेरा मुँह चूमा था तो जाग गई। बाप रे! कितना घुमा-फिरा कर यही पूछना चाहते थे।'

तब भी एक पहर से अधिक रात थी। दोनों बातें करने में लग गए। कई प्रसंगों के बाद उमाप्रसाद ने कहा, 'देखो, मैं पश्चिम में नौकरी करने जाऊँगा।'

दया ने कहा, 'तुम्हें नौकरी करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी है? तुम्हें कष्ट ही कौन सा है? जमींदार के बेटे कहीं नौकरी करते हैं?'
'मुझे दुःख क्यों नहीं है?'
'कैसा?'
'तुम यदि मेरे दुःख को समझो तो फिर मुझे दुःख किस बात का रहे?'

यह सुनकर दया ने सोचा कि दुःख कैसा है। लेकिन कुछ समझी नहीं। फिर उसने हास्य करते हुए कहा, 'तुम्हारा दुःख कैसा? मैं तुम्हारे मन-पसन्द जैसी नहीं हूँ, इस बात का?' दया जानती थी कि ऐसी बातें कहने से उमाप्रसाद को बहुत कष्ट होता है।

उमाप्रसाद ने प्रिया के मुँह पर अजस्र चुम्बनों की बौछार करके इसका प्रतिशोध लिया। फिर बोला, 'मेरा दुःख तुम्हें लेकर ही तो है। दिनभर तुम मेरे पास नहीं रहती हो। सिर्फ रातभर से मन नहीं भरता है। विदेश में नौकरी करने जाऊँगा, वहाँ तुम्हें ले जाऊँगा! वहाँ दोनों दिन-रात साथ रहेंगे।'
दया ने कहा, 'तुम तो ले जाओगे, लेकिन यहाँ के लोग मुझे जाने क्यों देंगे?'
'यहाँ से थोड़े ही ले जाऊँगा! जब सुनूंगा, तुम मायके चली गई हो तो चुपचाप वहाँ आकर ले जाऊँगा।'
यह सुनकर दया हँसने लगी। 'यह भी कहीं संभव हो सकता है?'
'कितने दिन हम वहाँ रहेंगे?'
'बहुत से वर्ष एक साथ रहेंगे।'
दया मन्द-मन्द हँसने लगी। सहसा एक बात याद आते ही बोली, 'लेकिन मुन्ने को छोड़कर विदेश में इतने वर्ष रहूँगी कैसे?'

उमाप्रसाद ने स्त्री के गाल पर अपना गाल रखते हुए कहा, 'तब तक तेरे भी एक मुन्ना हो जाएगा। यह सुनते ही दया के ओठों से लेकर कान तक लज्जा की लाली फैली गई। लेकिन अंधेरे में यह कोई देख नहीं पाया।

दयामयी ने जिस मुन्ने की बात कही है, वह उमाप्रसाद के बड़े भाई ताराप्रसाद की एकमात्र संतान है। स्वयम् उमाप्रसाद इस घर का आखिरी मुन्ना है। इस घर में इसीलिए मुन्ने का राजसिंहासन बहुत दिनों से खाली पड़ा है। मुन्ना यहाँ सभी के आँखों की मणि है। और मुन्ने की माँ, हरसुन्दरी-उसके तो गर्व से जमीन पर पैर ही नहीं पड़ते हैं।

दयामयी ने सहसा कहा, 'आज मुन्ना अभी तक नहीं आया?' प्रतिदिन रात रहते ही मुन्ना काकी के पास आया करता है। यह उसका नित्य-नैमित्तिक काम है। उमाप्रसाद ने कहा, 'शायद अभी भी बहुत रात बाकी है। ठहरो, देखता हूँ।'

उमाप्रसाद ने बिछौने से उठकर खिड़की खोली। बाहर आम के पेड़ों का बगीचा था। पेड़ों के झुरमुट से चाँद अस्त होता हुआ दिखाई पड़ रहा था। दयामयी चुपचाप पति के पास आकर खड़ी हो गई। उसने कहा, 'रात अधिक कहाँ रही है।'

शीतकाल की ठंडी हवा घर के भीतर आने लगी। लेकिन फिर भी वे दोनों उस स्वल्पालोक में एक दूसरे की ओर देखते हुए खड़े रहे। बहुत देर से उनकी आँखें जो उपवासी थीं!

दयामयी ने कहा, 'देखो, मेरा मन आज जाने कैसा हो गया। भारी ‘सूनापन' लग रहा है; मुन्ना अभी तक नहीं आया।'

उमाप्रसाद ने कहा, 'मुन्ने के आने का वक्त अभी नहीं हुआ है। तुम्हारा मन खिन्न क्यों है, यह मैं जानता हूँ।'
'क्यों हैं, बताओ न?'
'मैंने कहा है न कि मैं पश्चिम में नौकरी करने जाऊँगा, तभी तुम्हारा चित्त ठीक नहीं है।'

दया ने एक छोटा-सा दीर्घ स्वाँस लेकर कहा, 'मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है मानो अब हम दोनों बिछुड़ रहे हैं। मानो मैं तुमसे फिर कभी नहीं मिल सकूँगी।'

बाहर अतिशय म्लान ज्योत्स्ना छिटकी हुई थी। पत्नी की बात सुनकर उमाप्रसाद का कलेजा मुँह पर आ गया।

बहुत देर तक फिर दोनों खड़े रहे। चाँद डूब गया। पेड़ अंधकार में खो गए। खिड़की बन्द करके दोनों बिछौने
पर आकर बैठ गए।
धीरे-धीरे चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ी। परस्पर आलिंगनबद्ध होकर वे सो गए थे।
खिड़कियों से प्रभात का आलोक जब कमरे में फैल गया तो भी दोनों सो रहे थे।

सहसा बाहर से उमाप्रसाद के पिता ने पुकारा, 'उमा!' पहले दयामयी की नींद टूटी। उसने पति को जगाया।
कालीकिंकर ने फिर पुकारा, 'उमा!' उनका स्वर काँप रहा था।

इतने सुबह तो पिता कभी पुकारते नहीं हैं। और इस तरह उनका स्वर क्यों काँप रहा है? उमाप्रसाद ने जल्दी से उठकर दरवाजा खोल दिया।

उसने देखा, पिता ने रक्तवर्ण कोषेय वस्त्र धारण कर रखे हैं, कंधे पर नामावली का उत्तरीय, गले में रुद्राक्ष की माला! इतने सुबह पिता ने पूजा के वस्त्र क्यों पहन लिए हैं। हमेशा तो गंगास्नान करके पूजा किया करते हैं। उमाप्रसाद क्षण भर के लिए चिन्तित हो गया। दरवाजा खोलते ही कालीकिंकर ने पूछा, 'बेटा! छोटी बहू कहाँ है?'

उनका स्वर पूर्ववत काँप रहा था। उमाप्रसाद ने कमरे के चारों ओर देखा। दयामयी बिछौने से उठकर एक कोने में खड़ी थी। कालीकिंकर ने उस ओर देखा। बहू को देखकर वे उसके नजदीक गए और सहसा उसके पैरों के पास लेटकर साष्टांग प्रणाम करने लगे।

यह दृश्य देखकर विस्मय से उमाप्रसाद वाक्हीन हो गया। दयामयी ससुर के इस व्यवहार पर स्तम्भित रह गई।

प्रणाम करके कालीकिंकर बोले, 'माँ, मेरा जन्म आज सफल हो गया। लेकिन इतने दिनों क्यों नहीं बताया, माँ!'
उमाप्रसाद ने कहा, 'पिताजी, पिताजी!'
कालीकिंकर बोले, 'बेटा, इन्हें प्रणाम करो।'
उमाप्रसाद ने कहा, 'पिताजी! आप क्या पागल हो गए हैं।'
'पागल नहीं हुआ हूँ, बेटा! अब तक पागल था। आज माँ की कृपा से स्वस्थ हो गया हूँ।'
उमाप्रसाद पिता की कोई भी बात नहीं समझा। इसलिए बोला, 'पिताजी! आप यह सब क्या कह रहे हैं?'

कालीकिंकर बोले, 'बेटा, मेरा बड़ा सौभाग्य है। जिस वंश में जन्म लिया, वह धन्य हो गया। बचपन में ही काली मंत्र से दीक्षित हुआ हूँ। इतने दिनों की मेरी तपस्या निष्फल नहीं हुई है। माँ जगन्मयी भी अनुग्रह करके मेरे घर में छोटी बहू के रूप में स्वयं अवतीर्ण हुई हैं। गत रात्रि में मुझे स्वप्न में यही प्रत्यादेश मिला है। मेरा जीवन धन्य हो गया।'

दयामयी मानवी थी-सहसा देवी में परिणत हो गई। उपरोक्त घटना के बाद तीन दिन व्यतीत हो चुके हैं। इन तीन दिनों में यह संवाद बहुत दूर तक फैल गया। आस-पास के बहुत से लोग नित्य-प्रसिद्ध शाक्त-जमींदार कालीकिंकर राय के मकान में दयामयी के रूप में देवी आद्याशक्ति के दर्शनार्थ आने लगे।

दयामयी की अब सचमुच पूजा होने लगी। धूप-दीप जलाकर, शंख-घंटे बजाकर षोडशोपचार से उसकी पूजा होने लगी। इन कई दिनों में दयामयी के सामने असंख्य बकरों का बलिदान हो गया है।

लेकिन इन तीन दिनों में दयामयी केवल रोती ही रही है। भोजन और निद्रा उसने एक प्रकार से त्याग ही दी है। इस आकस्मिक घटना से वह इतनी अभिभूत हो गई है कि दो दिन पहले जिन ससुर और जेठ के सामने बाहर नहीं निकलती थी, वह सब उसे याद नहीं रहा। अब उसके मुंह पर आवरण नहीं रहता-हर किसी की ओर वह पागल जैसी दृष्टि से देखती रहती। उसका कंठ स्वर अत्यन्त मृदु भावापात्र हो गया है; आँखें लाल होकर फूल गई हैं, वेश-वास का भी कोई ठीक नहीं रहता।

रात्रि के दूसरे पहर पूजा-गृह में घी का दीया टिमटिमा रहा था। मोटे कंबलों के बिछौने पर रेशमी चादर बिछी हुई थी। उसी पर दयामयी लेटकर कुछ सोच रही थी। तन पर एक दुशाला था। दरवाजा बन्द नहीं था।

धीरे-धीरे अति सावधानी से उमाप्रसाद भीतर दाखिल हुआ। भीतर आकर उसने दरवाजा बन्द कर लिया।
उमाप्रसाद दयामयी के बिछौने पर आकर बैठ गया। उस दिन सुबह की घटना के बाद यही उसका स्त्री से प्रथम गोपन मिलन था।

दयामयी जाग रही थी। स्वामी को देखकर उठकर बैठ गई। उमाप्रसाद ने कहा, 'दया, यह क्या हुआ?'
पति के मुँह से ऐसा स्नेह वाक्य सुनकर दयामयी के हृदय में मानो सुधा की वृष्टि हो गई। वह उमाप्रसाद से लिपट गई।

उमाप्रसाद ने स्त्री के शरीर का दुशाला हटा कर उसे अंक में भर लिया। फिर उच्छ्वसित स्वर में कहने लगा, 'दया, दया, यह क्या हो गया?'
दया क्या जवाब देती!

उमाप्रसाद थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, 'तुम क्या सोचती हो कि यह सब सच है? क्या तुम मेरी स्त्री नहीं हो? देवी हो?'

अब दयामयी ने कहा, 'नहीं, मैं तुम्हारी स्त्री छोड़ कर और कुछ नहीं हूँ। मैं तुम्हारी दया के अलावा और कुछ नहीं हूँ। मैं...देवी नहीं हूँ।'
यह सुनकर उमाप्रसाद ने साग्रह स्त्री के मुंह को चूम लिया और बोला, 'दया, तो चलो, हम यहाँ से भाग चलें। ऐसे स्थान पर जाकर रहेंगे, जहाँ हमें ढूँढ़ता हुआ कोई पहुँच न सके।'
दया ने कहा, 'तो चलो! लेकिन जाओगे कैसे?' उमाप्रसाद ने कहा, 'वह सब मैं ठीक कर लूँगा। बस, थोड़ा वक्त लगेगा।'
दया ने कहा, 'कब होगा! जल्दी करो, नहीं तो मैं मर जाऊँगी! मेरे प्राण गले में अटके हुए हैं। यदि मृत्यु भी नहीं हुई तो पागल जरूर हो जाऊँगी।'

उमाप्रसाद ने कहा, 'नहीं दया, ऐसा मत सोचो। आज शनिवार है। अगले शनिवार की रात को मैं फिर आऊँगा। उसी दिन हम दोनों यहाँ से चले जाएँगे। इन सात दिनों तक तुम जरा धीरज धर कर रहो।'
दया ने कहा, 'अच्छा।'

उमाप्रसाद ने कहा, 'अब मैं जाता हूँ, कोई कहीं से आ न जाए।-' कहकर एक बार फिर उसने पत्नी को कसकर आलिङ्गन में बाँध लिया। फिर धीरे-धीरे अंधकार में अदृश्य हो गया।

दूसरे दिन, दयामयी की पूजा जब समाप्त हो गई तो गाँव का एक अति वृद्ध व्यक्ति लाठी टेकता हुआ आया। उसकी धंसी हुई आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। उसने आकर दयामयी के सामने घुटने टेककर और हाथ जोड़कर कहा, 'माँ, मैंने जीवन भर तेरी पूजा की है। आज मेरे ऊपर संकट आ गया है। देवी! आज भक्त को बचाओ!'
दयामयी वृद्ध की ओर उदास दृष्टि से देखने लगी। पुरोहित ने पूछा, 'क्यों दादा, तुम्हारे ऊपर कैसा संकट आ गया है?'

वृद्ध ने कहा, 'मेरा नाती कई दिनों से बीमार है। आज सुबह कविराज भी जवाब दे गए हैं। वह यदि नहीं बचेगा तो मेरा वंश ही लोप हो जाएगा। तभी देवी के पास उसकी प्राण-भिक्षा के लिए आया हूँ।'

कालीकिंकर चंडी का पाठ कर रहे थे। वृद्ध के दुःख से विगलित होकर दयामयी की ओर देखते हुए बोले, 'माँ, बूढ़े के नाती को जीवन दे दो! फिर वृद्ध से बोले, 'भाई, तुम अपने नाती को यहाँ लाकर देवी के चरणों में रख दो। फिर देखें, वह कैसे मरता है। यहाँ रहने पर यमराज भी उसके प्राण नहीं ले सकता।' यह सुनकर वृद्ध लाठी टेकता हुआ जल्दी-जल्दी घर की ओर चला गया।

थोड़ी देर बाद वह अपनी विधवा पुत्रवधु और नाती को लेकर लौट आया। दयामयी के पैरों के पास बिछौना करके मृतकल्प शिशु को रखा गया। कभी-कभी पुरोहित थोड़ा चरणामृत बालक के मुँह में डाल देता था।

शिशु की विधवा युवती माता दयामयी की सखी थी। उसके व्यथातुर मुंह की ओर देखकर दयामयी का हृदय भर आया। शिशु को देखकर उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे। एकान्त मन से उसने प्रार्थना की, 'हे भगवान! मैं देवी होऊँ, काली होऊँ, मनुष्य होऊँ, या, जो भी होऊँ-इस बच्चे को जीवन दे दो, प्रभो !'

दयामयी की आँखों में आँसू देखकर सभी चिल्ला उठे, 'जय हो! देवी की जय हो-माँ की कृपा हो गई! देखो, देवी की आँखों में आँसू आ गए हैं।'

कालीकिंकर दुगने जोश से चण्डी का पाठ करने लगे। दिन ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, शिशु की अवस्था उतनी ही अच्छी होती गई। संध्या को उसकी हालत देखकर वृद्ध खुशी मन से उसे घर ले गया।

दयामयी के देवी होने का समाचार जितनी तेजी से फैला था, उससे कहीं शीघ्र मुमूर्ष शिशु की प्राण-रक्षा की घटना चारों ओर फैल गई। दूसरे दिन सुबह ही और एक व्यक्ति ने आकर निवेदन किया, 'देवी, मेरी कन्या को आज तीन दिन से प्रसव-पीड़ा हो रही है। उसकी हालत हर क्षण खराब होती जा रही है। उसे बचाओ, जगन्माता!!'
कालीकिंकर बोले, 'अरे! सब ठीक हो जाएगा। 'देवी का चरणामृत ले जाकर उसे पिला दो।'

उस व्यक्ति ने भक्ति से दयामयी के चरणों में प्रणाम किया और चरणामृत लेकर चला गया। दोपहर को खबर आई कि उस व्यक्ति की कन्या ने चरणामृत पीकर एक राजकुमार जैसे बच्चे को जन्म दिया है।

आज शनिवार है। उमाप्रसाद आज दयामयी को लेकर छिपकर गृह त्याग करने वाला है। उसने सारा आयोजन ठीक कर लिया है। आवश्यक अर्थ संग्रह भी किया है। आधी रात के समय जब सब सो गए तो उमाप्रसाद चोर की तरह पूजागृह की ओर गया। कमरे के कोने में घी का दीया उसी तरह टिमटिमा रहा था। दयामयी के बिछौने पर उमाप्रसाद जाकर बैठ गया। दयामयी सो रही थी।

उमाप्रसाद ने पहले सस्नेह दयामयी के कपोलों को चूम लिया। फिर देह को झकझोर कर उसे जगाया। नींद टूटते ही वह हड़बड़ा कर बिछौने पर उठ कर बैठ गई।
उमाप्रसाद ने कहा, 'इतनी नींद? उठो, चलो।' दया ने पूछा, 'कहाँ?'
'कहाँ?-जाने के समय पूछती हो?-चलो, आज रात को ही हम नौका से पश्चिम की ओर भाग जाएँगे।'
दया कुछ देर चुपचाप सोचती रही।

उमाप्रसाद ने कहा, 'उठो, उठो, रास्ते में चलते-चलते सोचना! मैंने सब ठीक कर लिया।' यह कहकर उसने स्त्री का हाथ पकड़ लिया। सहसा दया ने हाथ छुड़ाकर कहा, 'तुम मुझे स्त्री के रूप में और स्पर्श मत करना। मैं देवी नहीं हूँ, ऐसी बात मैं जोर देकर नहीं कह सकती।'

यह सुनते ही उमाप्रसाद हँसने लगा। स्त्री का मुँह दोनों हाथों से पकड़ कर चुम्बन लेने जा रहा था, लेकिन सहसा दयामयी उससे दूर हो गई। फिर बोली, 'नहीं, नहीं, इससे शायद तुम्हारा अकल्याण हो।'
यह सुनकर उमाप्रसाद पर मानो बज्रपात हुआ। उसने कहा, 'दया, तुम भी पागल हो गई।'
दया ने कहा, 'फिर इतने लोग अच्छे कैसे हो गए? क्या इतने सभी लोग पागल हैं।'

उमाप्रसाद ने कई तरह से समझाया, बहुत मिन्नतें की, और आखिर में रोने लगा।
दयामयी के मुँह में केवल एक ही शब्द था, 'नहीं, नहीं, तुम्हारा अकल्याण होगा। मैं शायद तुम्हारी स्त्री नहीं हूँ, शायद देवी हूँ।'

अन्त में उमाप्रसाद ने कहा, 'तुम देवी होतीं तो ऐसी पाषाणी न होती। इतने पर भी तुम्हारा मन अटल रहा!'
अब दयामयी ने रोते-रोते कहा, 'तुम मुझे समझने की कोशिश नहीं करते हो।'

उमाप्रसाद दयामयी के बिछौने से उठकर विक्षप्त की तरह अस्थिर भाव से चहलकदमी करने लगा। फिर सहसा दयामयी के नजदीक आकर बोला, 'दया, मेरे साथ तुम्हारा विवाह हुआ था न?'
दया ने कहा, "हाँ, हुआ था।
'तुम यदि देवी और काली हो तो मैं महादेव हुआ, नहीं तो तुम्हारे साथ मेरा विवाह कैसे हो सकता है?'

ऐसे प्रश्न का दयामयी क्या जवाब देती? वह चुप रही। उमाप्रसाद कहता गया, 'तुम यदि देवी भगवती हो, तो नरलोक में किस व्यक्ति का साहस है कि तुमसे विवाह करे? मैं जो इतने दिनों तुम्हारा पति रहा हूँ, इसी से समझना चाहिए कि मैं भी मनुष्य नहीं हूँ-देवता हूँ, स्वयं महेश्वर!'
दयामयी ने कहा, 'यदि ऐसा ही है तो मैं तुम्हारी स्त्री ही हूँ। देवी होऊँ या मनुष्य, मैं तुम्हारी स्त्री ही हूँ।'
यह सुनकर उमाप्रसाद को मानो मनचाही वस्तु मिल गई। स्त्री को हदय से लगाकर कहा, 'चलो, हम चलें। यहाँ जितने दिन रहेंगे, उतने दिन हमारा-तुम्हारा विच्छेद रहेगा ही।'
दया ने कहा, 'तो, चलो!'
थोड़ी दूर पैदल चल कर गंगा के किनारे नाव पर चढ़ना था। लेकिन थोड़ी दूर जाकर दया सहम कर खड़ी हो गई।
फिर पूर्ववत् दृढ़ स्वर में कहा, 'नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।' उमाप्रसाद ने फिर अनुनय-विनय की, लेकिन दया किसी भी तरह राजी नहीं हुई।

दयामयी ने कहा, 'मैं यदि देवी होऊँ, तुम यदि मेरे पति महेश्वर हो तो चलो हम दोनों लौट चलें। दोनों एक साथ पूजा ग्रहण किया करेंगे, भागें क्यों? इतने लोगों की भक्ति को धक्का क्यों लगाएँ? मैं नहीं भागूंगी। चलो, हम लौट चलें।' मर्माहत होकर उमाप्रसाद ने कहा, 'तुम अकेली ही लौट जाओ। मैं नहीं जाऊँगा।'

ऐसा ही हुआ। दयामयी अकेली ही देवीत्व पर लौट आई। उमाप्रसाद उस अंधेरी रात में जो कहीं चला गया, फिर उसका कोई संवाद नहीं मिला।

दयामयी के देवीत्व में सभी को विश्वास था, केवल नहीं था उसकी जेठानी हरसुन्दरी, मुन्ने की माँ को। इसलिए पहले जब अपने देवी होने पर दयामयी को ही विश्वास नहीं हो रहा था तो वह एक दिन बड़ी बहू, हरसुन्दरी, के पास जाकर रोने लगी, 'दीदी, यह मुझे क्या हो गया है?' उस वक्त बड़ी बहू ने कहा था, 'क्या करूं बहन? ससुरजी पागल हो गए हैं।'

उमाप्रसाद के चले जाने के बाद दो सप्ताह बीत गए। तीसरे सप्ताह में मुन्ने को बुखार हो गया। दिन-प्रतिदिन बच्चा सूखता गया।
वैद्य आए। लेकिन कालीकिंकर ने उन्हें चिकित्सा नहीं करने दी। बोले, 'मेरे घर में जब स्वयं देवी का अधिष्ठान् है तो यहाँ वैद्य का क्या काम? माँ के चरणामृत को पीकर न जाने कितने लोग अच्छे हो गए।'
बड़ी बहू ने अपने पति ताराप्रसाद से कातर प्रार्थना की, 'लड़के को कविराज को दिखाकर कोई दवा दो। नहीं तो वह नहीं बचेगा। वह राक्षसी, डाइन, मेरे बच्चे को खा जाएगी।'

ताराप्रसाद अत्यन्त पितृभक्त थे। पिता का विश्वास, पिता का विधान, इन्हें वे वेद की तरह मानते थे। इसलिए बोले, 'खबरदार! ऐसी बातें मत करो। मुन्ने का अकल्याण होगा। देवी जो करेगी, वही होगा।'
लेकिन बड़ी बहू के प्रतिदिन के रोने-धोने से एक दिन कालीकिंकर ने दयामयी से पूछा, 'देवी! मुन्ने का बुखार तेज होता जा रहा है। उसे वैद्य की दवा देनी जरूरी है क्या?'
दयामयी ने कहा, 'नहीं। उसे मैं ही ठीक कर दूँगी।' कालीकिंकर निश्चिन्त हो गए। ताराप्रसाद भी चिन्तामुक्त हुए।
केवल मुन्ने की माँ, जिसे देखती उसे ही रोकर कहती, 'कोई दवाई बताओ। मेरा मुन्ना नहीं बचेगा!'
सभी कहते, 'भाई, ऐसी बात मत कहो। तुम्हारे घर में देवी का अधिष्ठान है! तुम्हें चिन्ता किस बात की है?'

मुन्ने की बीमारी जब बहुत बढ़ गई तो दया ने कहा, 'मुन्ने को मेरी गोद में लाकर दो।'
मुन्ने को गोद में लेकर दयामयी दिन-भर बैठी रही। मुन्ना दिन में कुछ अच्छा रहा। लेकिन रात को बुखार फिर तेज हो गया।
दयामयी ने असंख्य बार एकान्त भाव से मुन्ने को आशीर्वाद दिया, उसके तप्त देह पर हाथ फेरा। लेकिन फिर भी मुन्ना नहीं बचा।

जब मुन्ने को मृत्यु का संवाद घर के भीतर पहुँचा तो ताराप्रसाद अधीर भाव से आकर बोले, 'राक्षसी! मुन्ने को ले ही लिया न? किसी भी तरह नहीं छोड़ा गया?'

मुन्ने की माँ पहले तो शोक से अत्यन्त विह्वल हो गई। बाद में जब थोड़ी सम्भली तो जो मुँह में आया वही दयामयी से कह दिया। उसने गाली देते हुए कहा, 'वह देवी कहाँ है? वह तो राक्षसी है। देवी कहीं बच्चे खाती है?'
कालीकिंकर ने छल-छल नेत्रों से कहा, 'देवी! मुन्ने को लौटा दे। अब भी उसका देह नष्ट नहीं हुआ।'

दयामयी रोने लगी। मन ही मन यमराज को हुक्म दिया, 'अभी मुन्ने की आत्मा उसके शरीर में लौटा दो।'
आदेश का जब कोई फल नहीं निकला तो विनती करने लगी। आद्याशक्ति की विनती से भी यमराज ने मुन्ने के प्राण नहीं लौटाए।तब दया को अपने देवीत्व पर अविश्वास हुआ। आज उसकी पूजा वगैरह नहीं हुई। दिनभर कोई उसके नजदीक नहीं आया। वह अकेली बैठी सोचती रही।
सन्ध्या हुई। जैसे-तैसे आरती समाप्त कर दी गई।

दूसरे दिन कालीकिंकर उठ कर जब पूजा-गृह में गए तो स्तम्भित रह गए। पहनने के वस्त्र को रस्सी की तरह गले में बाँधकर छत से लटक कर देवी ने आत्महत्या कर ली थी!

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