देशप्रेम ने बनाई लोकमाता (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग

Deshprem Ne Banai Lokmata (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang

महाराष्ट्र में औरंगाबाद जनपद का एक छोटा सा गाँव था चाँदी। मुश्किल से तीन सौ की आबादी रही होगी। गाँव तो छोटा था, परंतु गाँव में परस्पर भाईचारा आसपास के गाँवों में उसे विशिष्ट स्थान दिला रहा था। गाँव के बीचोबीच चौपाल और शिव मंदिर गाँव की शोभा थे। मानकोजी शिंदे वहाँ के प्रतिष्ठित और सम्मानित निवासी थे। गाँव के आसपास खेत तो होते ही हैं, परंतु चाँदी निवासियों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। आसपास का जंगल और पहाड़ी मानो परमात्मा ने पशुपालन के लिए सुविधा जुटाई थी। मानकोजी शिंदे के पास भी सैकड़ों गायें और बकरियाँ थीं। उनकी छोटी सी प्यारी बिटिया उनको यथासंभव सहयोग दिया करती थी। 31 मई, 1725 में जनमी पुत्री का नाम उन्होंने 'अहिल्याबाई' रखा था। अपनी माता से अहिल्या ने न केवल घर का कामकाज सीखा था, बल्कि सादगी, धर्मनिष्ठा, बड़ों का आदर-सम्मान, सबसे प्यार का बरताव जैसे अच्छे संस्कार भी ग्रहण किए थे।

एक बार महाराज मल्हारराव होल्कर वन विहार से लौट रहे थे। सूरज छिपता देख उन्होंने उसी गाँव में रात बिताने का निश्चय किया। मानकोजी शिंदे के लिए यह सौभाग्य की बात थी। उनके गाँव में राजा विश्राम करें तो उन्हें सेवा का इससे अच्छा अवसर और कब मिलता ? चौपाल पर राजा मल्हारराव के विश्राम की व्यवस्था की गई। सामने शिव भगवान् का मंदिर था। आरती में बच्चे-बूढ़े सभी आते थे। शिंदेजी की पुत्री अहिल्या ने आरती - पूजा में बड़े प्रेम से, तन्मय होकर भाग लिया। फिर महाराज ने प्रमुख लोगों से परिचय किया। भोजन आदि की व्यवस्था उत्तम - से- उत्तम की गई। हर प्रकार की खातिरदारी में राजा मल्हारराव को अहिल्या की भूमिका सराहनीय लगी। उन्हें लगा, इतनी अल्पायु में इतनी समझदार, संस्कारशील, गुणवंती बालिका एक छोटे से गाँव में रहती है। विवाह हो जाने के बाद और फिर रोजी-रोटी में लगकर एक प्रतिभा की ज्योति मद्धिम पड़ जाएगी। उसके विकास की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है। प्रातः जाने से पूर्व महाराज ने मानकोजी शिंदे को रात्रि विश्राम की उत्तम व्यवस्था के लिए धन्यवाद दिया। साथ ही प्रस्ताव रखा कि यदि वे अपनी बालिका अहिल्या का हमारे राजकुमार खांडेराव के साथ विवाह स्वीकार करें तो अच्छा रहेगा।

'भूखे को क्या चाहिए ? दो रोटी' कहावत सटीक बैठी। मानकोजी शिंदे को तो पुत्री के लिए वर खोजना ही था। घर बैठे, बिना प्रयास के राजकुमार खांडेराव जैसा वर मिल जाए तो भला क्यों इनकार करें ? थोड़ा-बहुत अपनी गरीबी का जिक्र करके संकोच दिखाया। उनके स्तर के अनुसार उनकी आवभगत भी कुछ न कर पाने की असमर्थता भी जताई। दान-दहेज की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते आदि सब बातें कहते हुए प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। राजा मल्हारराव ने विश्वास दिलाया, "आप किसी प्रकार की चिंता न करें। हमें आपसे दान-दहेज पाने की कोई अपेक्षा नहीं। न ही हम आप पर किसी रस्म- रिवाज का बोझ डालना चाहते हैं। आप कन्या और बंधु-बांधवों सहित इंदौर आ जाइए। विवाह का समस्त प्रबंध हम स्वयं कर देंगे।"

शुभ दिन आया । अहिल्याबाई का विवाह खांडेराव के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ। ससुर ने इतनी प्रशंसा कर दी थी कि जल्दी ही अहिल्याबाई सबकी प्रिय बन गई। सच बात तो यह थी कि मल्हारराव अपने पुत्र खांडेराव के स्वच्छंद आचरण से संतुष्ट नहीं थे अहिल्याबाई जैसी संस्कारित कन्या से विवाह करके वह उसके मुक्त आचरण पर अंकुश लगाना चाहते थे। उनकी योजना शत-प्रतिशत सफल रही। अहिल्याबाई की सेवा, विनम्रता, कर्तव्यपरायणता और पातिव्रत्य से खांडेराव में सचमुच परिवर्तन आने लगा। वह राजकाज में रुचि लेने लगा और अहिल्याबाई भी राज्य संचालन में सहयोग देने लगी। महाराज ने समस्त कार्यभार दोनों को सौंप दिया।

24 मार्च, 1754 को पड़ोसी राज्य से युद्ध छिड़ गया। खांडेराव ने कुशलतापूर्वक युद्ध का संचालन किया, परंतु स्वयं शहीद हो गए। अहिल्याबाई के लिए यह समाचार कष्टप्रद था, परंतु उसने धैर्य नहीं खोया । ससुरजी ने भी उसको धीरज बँधाया और राज्य की बागडोर सँभालने का आदेश दिया। अहिल्या ने शासन-भार सँभाल लिया। भालेराव पुत्र अभी बालक था । अतः स्वयं ही वह सब प्रकार के कार्यों का संचालन करती थी। न्यायशीलता और प्रजापालन में वह राजा भोज के समान लोकप्रियता को प्राप्त होती रही । अहिल्याबाई का दृढ़ निश्चय था कि उसे सारी प्रजा का पुत्रवत् पालन करना है। धर्म तथा समाज के हित के लिए ही जीवन भर कार्य करना है। वह अपने प्रण का आजीवन पालन करती रही। ससुरजी का आशीर्वाद और स्नेह अहिल्या का संबल था ।

समय की गति सबसे प्रबल है। उसके सम्मुख किसी का वश नहीं चलता । उसके निर्णय के आगे स्वीकृति के सिवाय और कुछ नहीं किया जा सकता। पुत्रवधू को सदैव पुत्र की तरह स्नेह, सम्मान और सलाह देनेवाले ससुर राजा मल्हारराव भी 20 मई, 1766 को स्वर्ग सिधार गए। रानी के लिए अब पथ - प्रदर्शक भी कोई न रहा । अहिल्याबाई का पुत्र भालेराव भी रोगी होकर भगवान् को प्यारा हो गया। उसने पुत्री मुक्ताबाई का विवाह कर दिया था, लेकिन उसका पुत्र बथ्याजी भी अल्पायु में ही काल के गाल में समा गया। एक पर एक विपत्तियों के आघात उनको आतंकित कर रहे थे। दामाद यशवंतराव भी परलोक गमन कर गए। पुत्री मुक्ताबाई ने कठोर निर्णय लिया और वह भी पति के साथ सती हो गई ।

इतने आघात सहकर साधारण व्यक्ति आत्मविश्वास खो बैठता है। परमात्मा पर से उसका विश्वास डगमगा जाता है। वह धर्म-कर्म पर भरोसा करना छोड़ देता है। नित्य के कार्यों में उसका मन नहीं लगता। वह विरक्त और उदास हो जाता है। दैनिक जीवन में भी उसका व्यवहार असहिष्णु हो जाता है। बात-बात पर क्रोधित होना और चिड़चिड़ा हो जाना स्वाभाविक सा लगता है। परंतु आश्चर्य, अहिल्याबाई की धर्म के प्रति आस्था रत्ती भर कम नहीं हुई। उन्होंने प्रजा के उपकार के इतने कार्य किए कि जनता में वह एक विधवा रानी नहीं, देवी के समान पूजनीय बन गईं। प्रजा उन्हें लोकमाता कहकर सम्मानित करने लगी। उन्होंने केवल अपने ही राज्य की प्रजा के लिए कार्य नहीं किया, अपितु पूरे देश से प्रेम किया। नए मंदिर बनवाए। तीर्थों पर नए घाट बनवाए। स्नान के लिए, पूजन के लिए, मार्गों के लिए, यात्रियों के लिए सब प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। राज्य का धन कभी भी अपने स्वार्थ के लिए अपव्यय नहीं किया। सबकी भलाई के लिए निरंतर कार्य किया। उत्तर और पश्चिम भारत में तो शायद ही कोई ऐसा तीर्थ होगा, जहाँ अहिल्याबाई ने सेवा न की हो। कहीं मंदिर, कहीं घाट, कहीं तालाब, कहीं कुंड और कहीं धर्मशाला बनाकर समाज की सेवा करके उन्होंने बखूबी राजधर्म निभाया।

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