देशहित मर जाएँगे (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग
Deshhit Mar Jayenge (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang
स्टाम्प विक्रेता मुरलीधर सुबह-सवेरे सबसे पहले कचहरी पहुँच जाते। उन्हें अपने काम की भारी चिंता रहती। उनके बिना वकीलों का और तहरीर लेखकों का काम शुरू भी तो नहीं हो पाता था। शाम को बड़ी देर से घर पहुँचते । अपने पुत्र रामप्रसाद को वकील बनाने का विचार था। कभी सोचते, अपनी पहुँच से ऊँचे सपने क्या देखने ! उर्दू, अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान हो जाए, तो तहरीर लेखक तो बन ही जाएगा। अतः उर्दू के मदरसे में पढ़ने भेज दिया। वह शुरू में तो पढ़ने में तेज था, परंतु पिता की देखभाल में लापरवाही के कारण बुरी संगत में पड़ गया। मुसलिम बच्चों के साथ खेल - कूद में लग जाता। कई बार मदरसे से फरार हो जाता। बीड़ी आदि पीने लगा। लड़ाई भिड़ाई की शिकायतें तो रोज आने लगीं। माँ को पुत्र की चिंता हुई। उनके प्रयास से पुत्र रामप्रसाद को उस मदरसे से निकालकर एक हिंदी माध्यम के विद्यालय में दाखिला करवा दिया। माँ उसे अपने साथ पूजा- पाठ में लगाती और महापुरुषों की कहानियाँ भी सुनाती । उर्दू पढ़ी थीं। प्रतिभा और शक्ति थी, अतः शेर और गजल सुनने और कहने का शौक तब से बरकरार रहा ।
11 जून, 1897 को रामप्रसाद 'बिस्मिल' का जन्म एक साधारण परिवार में शाहजहाँपुर (उ.प्र.) में हुआ था। स्कूल बदलने से और माताजी के प्रभाव से उनकी संगति सुधर गई। इसमें एक छात्र सुशील चंद्र सेन का विशेष योगदान रहा। वह निरंतर पढ़ने और सदाचार की शिक्षा देता रहा । उर्दू स्कूल में पड़ी सब गंदी आदतें धीरे-धीरे छूट गईं और रामप्रसाद की प्रतिभा निखर आई। बचपन से ही भावुक और संवेदनशील स्वभाव का था । अतः देशभक्त भाई परमानंदजी को फाँसी का आदेश हुआ तो नौजवानों में प्रतिक्रिया हुई। रामप्रसाद तब दसवीं कक्षा का छात्र था। भावुक मन पर वज्रपात जैसा हुआ। अंग्रेजी शासन के प्रति विद्रोह का ज्वार उठा और प्रतिज्ञा ली - "अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने के लिए सबकुछ करूँगा । प्राण भी देने पड़े तो कोई परवाह नहीं।" कविमन ने अपने भावों को एक कविता में अभिव्यक्त कर दिया-
" देश हित पैदा हुए हैं, देश हित मर जाएँगे ।
मरते-मरते देश को, जिंदा मगर कर जाएँगे ।"
इन्हीं भावों का पूरा गीत लिखकर उन्होंने अपने गुरुदेव स्वामी सोमदेवजी को अर्पित किया। स्वामीजी ने पहले तो उन्हें इस क्रांति की राह की कठिनाइयों से आगाह किया। जब देखा कि रामप्रसाद का निर्णय दृढ़ निश्चय बन चुका है तो उन्होंने मन से आशीर्वाद देकर उस पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरणा और सहायता देने का वचन दिया। स्वामी सोमदेवजी ने अपना लाइसेंसी रिवॉल्वर भी उनकी झोली में रख दिया। रामप्रसाद को राह मिल गई। छत्रपति शिवाजी को जैसे माँ भवानी ने तलवार दी थी, उसी प्रकार गुरुदेव के द्वारा आशीर्वाद में रिवॉल्वर पाकर रामप्रसाद कृतकृत्य हो गए।
इस प्रकार बिस्मिल केवल कवि नहीं रहे। कलम और पिस्तौल दोनों में उन्होंने अपनी कला के जौहर दिखाए। श्री गेंदालाल दीक्षित के द्वारा मैनपुरी षड्यंत्र में जो सशस्त्र एक्शन हुआ, उसमें रामप्रसादजी का भारी योगदान था। गिरफ्तार होने से पहले ही वे भूमिगत हो गए थे। घरवालों ने तो उन्हें मृत ही समझ लिया था। वारंट निरस्त होने पर जब वे पुनः प्रकट हो गए तो सबकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।
भूमिगत रहकर भी वे अपना कार्य करते रहे। लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे । लेखन कार्य निरंतर चलता रहा। अपनी पुस्तकें स्वयं छपवाकर स्वयं ही बेचीं तथा प्राप्त धन को क्रांतिकारी गतिविधियों में ही लगा दिया। तब तक पूरा उत्तर भारत बिस्मिल के नाम से सुपरिचित हो चुका था। क्रांतिकारी युवक उन्हें अपना आदर्श मानकर प्रेरणा लिया करते थे। उनकी लेखनी और रिवॉल्वर एक-दूसरे के सहयोग के लिए चला करती थीं। लेखन कला में कुशल रामप्रसाद युद्धकला में भी निपुण थे। संगठन - कला में भी अनुपम और ओजस्वी वक्ता के नाते अद्वितीय थे। वे बोलने को खड़े होते तो आपसी बातचीत या शोर-शराबा स्वयं बंद हो जाता था। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश ही नहीं, उनका प्रभाव बिहार, बंगाल तथा महाराष्ट्र तक भी फैल चुका था।
क्रांति की राह में जो जितना प्रसिद्ध होता है, उसका जीवन उतना ही खतरों से भरा रहता है। सरकार भी उसकी तलाश उतनी ही तीव्रता से किया करती है। रामप्रसाद बिस्मिल को लगा कि हथियारों तथा धन के अभाव में क्रांतिकारी साथी सरकार को हिला नहीं पा रहे हैं, अतः उन्होंने 'काकोरी कांड' की योजना बनाई। देश के प्रमुख क्रांतिकारियों को संगठित करके 9 अगस्त, 1925 को काकोरी स्टेशन के पास ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया। दुनिया भर में कोहराम मच गया। ब्रिटिश सरकार ने देश भर से लगभग चालीस क्रांतिकारी गिरफ्तार किए। बिस्मिल भी पकड़ लिये गए। किसी मुखबिर ने उन्हें पकड़वा दिया। मुकदमा चला। 18 लोगों को चार साल की जेल हुई। चार लोगों को फाँसी का आदेश सुनाया गया। गोरखपुर जेल में फाँसी से पूर्व बिस्मिल ने अपनी 'आत्मकथा' लिखी। 16 दिसंबर, 1927 को वह किसी के हाथ बाहर भेज दी गई और 'प्रताप' प्रेस कानपुर से प्रकाशित हुई। आत्मकथा क्या थी - क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत थी। प्रतिबंध लगना ही था। सरकार ने सब प्रतियाँ जब्त कर लीं। दोबारा भी छपी और जब्त कर ली गई। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने संपादित करके उस आत्मकथा को जनता को पढ़ने के लिए उपलब्ध करवाया। 'सरफरोशी की तमन्ना' और 'काकोरी के शहीद' दोनों पुस्तकें भी हाथोहाथ बिक गईं। 'मन की लहर', 'स्वदेशी रंग', 'क्रांतिकारी जीवन' सभी पुस्तकें देशप्रेम की प्रबल भावना से ओतप्रोत हैं। उन्होंने कुछ अनुवाद करके भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहयोगी साहित्य प्रस्तुत किया।
19 दिसंबर, 1927 को प्रातः 6.30 बजे गोरखपुर की जेल में ही हँसते- हँसते उन्होंने फाँसी का फंदा चूम लिया। उन्होंने अपनी गजल का शेर दोहराया-
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है |"
'वंदेमातरम्' और 'भारतमाता की जय' बोलते हुए वे मातृभूमि के लिए शहीद हो गए। गोरखपुर की जनता जेल के फाटक पर उमड़ पड़ी। लाखों की भीड़ ने राप्ती नदी के तट पर उन्हें अंतिम विदाई और श्रद्धांजलि दी। स्वयं तो आजादी की सुबह नहीं देख पाए, परंतु बाद की पीढ़ी को यह दिन देखने के लिए रास्ता आसान बना गए।