Desh-Gyan (Hindi Lekh/Nibandh) : Rahul Sankrityayan
देश-ज्ञान (हिंदी निबंध) : राहुल सांकृत्यायन
आज जिस प्रकार के घुमक्कड़ों की दुनिया को आवश्यकता है, उन्हें अपनी यात्रा केवल ''स्वांत: सुखाय'' नहीं करनी है। उन्हें हरेक चीज इस दृष्टि से देखनी है, जिसमें कि घर बैठे रहनेवाले दूसरे लाखों व्यक्तियों की वह आँख बन सके। इसीलिए घुमक्कड़ को अपनी यात्रा के आरंभ करने से पहले उस देश के बारे में कितनी ही बातों की जानकारी प्राप्त कर लेनी आवश्यक है। सबसे पहले जरूरी है रास्ता और देश के ज्ञान के लिए नक्शे का अध्ययन। पुराने युग के घुमक्कड़ों के लिए यह बड़ी कठिन बात थी। उस वक्त नक्शे जो थे भी, वे अंदाजी हुआ करते थे। यद्यपि मोटी-मोटी बातों और दिशाओं का ज्ञान हो जाता था, किंतु देश का कितना थोड़ा ज्ञान होता था, यह तालमी या दूसरे पुराने नक्शाकारों के मानचित्रों को देखने से मालूम हो जायगा। उस नक्शे का आज के देश से संबंध जोड़ना मुश्किल था। ईसवी सदी के बाद जब रोमक, भारतीय और अरब ज्योतिषियों ने भिन्न-भिन्न नगरों के अक्षांश और देशांतर बेध द्वारा मालूम किए, तो भौगोलिक जानकारी के लिए अधिक सुभीता हो गया। तो भी अच्छे नक्शे 18 वीं सदी से ही बनने लगे। आज तो नक्शा-निर्माण एक उच्च-कला और एक समृद्ध विज्ञान है। किसी देश में यात्रा करने वाले घुमक्कड़ के लिए नक्शे का देखना ही नहीं, बल्कि उसके मोटे-मोटे स्थानों को हृदयस्थ कर लेना आवश्यक है। जिन नगरों और स्थानों में जाना है, वहाँ की भूमि पहाड़ी, मैदानी या बालुकामयी है, इन बातों का ज्ञान होना चाहिए। पहाड़ी भूमि की कम-से-कम और अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई है, यह भी मालूम होना चाहिए। अक्षांश और उन्नतांश (भूमि की ऊँचाई) के अनुसार सर्दी बढ़ती-घटती है। ऋतुओं का परिवर्तन सुमात्रा के बीच से जाने वाली भूमध्यरेखा के उत्तर और दक्खिन में उल्टा होता है। जावा और बाली की ओर जाने वाले घुमक्कड़ों का इसकी ओर ध्यान होना आवश्यक है। हमारे यहाँ यह तो कथा थी, कि देवों के देश में छ महीने का दिन और छ मीहने की रात होती है, लेकिन भौगोलिक तथ्य के तौर पर इसका ज्ञान आधुनिक काल ही में हुआ। रात्रि और दिन का इतना विस्तार हो जाना कि वह एक-दूसरे की जगह ले लें, इसका पता काफी पहले से हो चुका था। 1395 ई. में तैमूर रूस के मंगोल शासकों पर चढ़ाई करते हुए मास्को तक गया। उसकी सेना उत्तर में बढ़ते-बढ़ते बहुत दूर चली गई, जहाँ रात्रि नाम मात्र की रह गई। तैमूर के सौभाग्य से रोजे का दिन नहीं था, नहीं तो या तो धर्म छोड़ना होता था प्राण देना पड़ता। तो भी ये समस्या थी कि 20 घंटे के दिन में पाँचों नमाजों को कैसे बाँटा जाय। तैमूर ने तीन साल बाद 1398 ई. में दिल्ली भी लूटी, लेकिन शायद उस वक्त के दिल्ली वालों को तैमूर के सिपाहियों की इस बात पर विश्वास नहीं होता। बहुत दूर उत्तरी ध्रुव में छ महीने का दिन और छ महीने की रात होती है। मैंने तो लेनिनग्राद में भी देखा कि गर्मियों के प्राय: तीन महीने, जिसमें जुलाई और अगस्त की शामिल हैं, रात्रि होती ही नहीं। दस बजे सूर्यास्त हुआ, दो घंटा गोधूलि ने लिया और अगले दो घंटों को उषा ने। इस प्रकार रात बेचारी के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता, और रात को भी आप घर से बाहर बिना चिराग के अखबार पढ़ सकते हैं।
इन भौगोलिक विचित्रताओं का थोड़ा-बहुत ज्ञान घुमक्कड़ को अपनी प्रथम यात्रा से पहले होना चाहिए। जब वह किसी खास देश में विचरने जा रहा हो, तो उसके बारे में बड़े नक्शे को लेकर सभी चीजों का भली भाँति अध्ययन करना चाहिए। तिब्बत और भारत के बीच में उत्तुंग हिमालय की पर्तवमालाएँ हैं, लेकिन वह कभी मनुष्य के लिए दुर्लघ्य नहीं रहीं। कश्मीर से लेकर आसाम तक कई सौ ऐसे पर्वत-कंठ हैं, जिनसे पर्वत-पृष्ठों को पार किया जा सकता है। हाँ, सभी सुगम नहीं हैं, न सभी रास्तों में बस्तियाँ आसानी से मिलती हैं, इस लिए अपरिचित व्यक्ति को ऐसे ही डांडों को पकड़ना पड़ता है, जिनसे प्रधान रास्ते जाते हैं। जहाँ राज्य की तरफ से दिक्कतें हैं, वहाँ भेस बदलकर रास्तों को पार किया जा सकता है, अथवा अप्रचलित रास्तों को स्वीकार करना पड़ता है।
नक्शे को देखकर आसाम, भूटान, सिक्किम, नेपाल, कुमायूँ, टिहरी, बुशहर, काँगड़ा और कश्मीर से तिब्बत की ओर जाने वाले रास्तों, उनकी बस्तियों तथा भिन्न-भिन्न स्थानों की पहाड़ी ऊँचाइयों को जिसने देख लिया है, उसके लिए कितनी ही बातें साफ हो जाती हैं। एक डांडा पार कर लेने पर तो दूसरे रास्ते की जानकारी स्वयं ही बहुत-सी हो जाती है। जिसमें घुमक्कड़ी का अंकुर निहित है, उसे दो-चार मर्तब, देखा नक्शा आँख मूँदने पर भी दिखलाई पड़ता है। कम-से-कम नक्शे के साथ उसका अत्यधिक प्रेम तो होता ही है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि छिपकर की गई यात्राओं में अक्सर नक्शे का पास रखना ठीक नहीं होता, कभी-कभी तो उसका कारण विदेशी गुप्तचर माना जाने लगता है, इसलिए घुमक्कड़ यदि नक्शे को दिमाग में बैठा ले, तो अच्छा है। कभी-कभी सुगरिचित-सी साधारण पुस्तक के छपे नक्शे से भी काम लिया जा सकता है। नक्शा ही नहीं, बाज वक्त तो पुस्तक को भी छोड़ देना पड़ता है। प्रथम तिब्बत-यात्रा में, पहले जिस अंग्रेजी पुस्तक से मैंने तिब्बती भाषा का अध्ययन किया था, उसे एक स्थान पर छोड़ देना पड़ा, और नक्शों को नदी में बहाना पड़ा।
नक्शों के उपयोग के साथ-साथ थोड़ा-बहुत नक्शा बनाने का अभ्यास हो तो अच्छा है। दूसरे नक्शे से काम की चीजें उतार लेना, तो अवश्य आना चाहिए। जो घुमक्कड़ भूगोल के संबंध में विशेष परिश्रम कर चुका है, और जिसे अल्पपरिचित से स्थानों में जाना है, उसको उक्त स्थान के नक्शे के शुद्ध-अशुद्ध होने की जाँच करनी चाहिए। तिब्बत ही नहीं आसाम में उत्तरी कोण पर भी कुछ ऐसे स्थान हैं, जिनका प्रमाणिक नक्शा नहीं बन पाया है। नक्शों में बिंदु जोड़ कर बनाई नदियाँ दिखाई गई होती हैं, जिसका अर्थ यही है कि वहाँ के लिए अभी नक्शा बनाने वाले अपने ज्ञान को निर्विवाद नहीं समझते। आज के घुमक्कड़ का एक कर्त्तव्य ऐसी विवादास्पद जगहों के बारे में निर्विवाद तथ्य का निकालना भी है। ऐसा भी होता है कि घुमक्कड़ पहले से किसी बात के लिए तैयार नहीं रहता, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर वह उसे सीख लेता है। आवश्यकताओं ने ही बलात्कार करके मुझे कितनी ही चीजें सिखलाई। मेरे घुमक्कड़ मित्र मानसरोवर-वासी स्वामी प्रणवानंद जी को आवश्यकता ही ने योगी परिव्राजक से भूगोलज्ञ बना दिया, और उन्होंने मानसरोवर प्रदेश के संबंध की कुछ निर्भ्रांत समझी जाने वाली भ्रांत धारणाओं का संशोधन किया। हम नहीं कहते, हरेक घुमक्कड़ को सर्वज्ञ होना चाहिए, किंतु घुमक्कड़ी-पथ पर पैर रखते हुए कुछ-कुछ ज्ञान तो बहुत-सी बातों का होना जरूरी है।
सभी देशों के अच्छे नक्शे न मिल सकें, और सभी देशों के संबंध में परिचय-ग्रंथ भी अपनी परिचित भाषा में शायद न मिलें, किंतु जो भी साहित्य उपलब्ध हो सके, उसे देश के भीतर घुसने से पहले पढ़ लेना बहुत लाभदायक होता है। इससे आदमी का दृष्टिकोण विशाल हो जाता है, सभी तो नहीं लेकिन बहुत से धुँधले स्थान भी प्रकाश में आ जाते हैं। अपने पूर्वज घुमक्कड़ों के परिश्रम के फल से लाभ उठाना हरेक घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है।
घुमक्कड़ के उपयोग की पुस्तकें केवल अंग्रेजी में ही नहीं हैं, जर्मन, रूसी और फ्रेंच में भी ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं। हमारी हिंदी तो देश की परतंत्रता के कारण अभी तक अनाथ थी। किंतु अब हमारा कर्त्तव्य है कि हिंदी में इस तरह के साहित्य का निर्माण करें। हमारे देशभाई व्यापार या दूसरे सिलसिले में दुनिया के कौन से छोर में नहीं पहुँचे हैं? एसिया और यूरोप का कोई स्थान नहीं, जहाँ पर वह न हों। उत्तरी अमेरिका और दक्खिनी अमेरिका के राज्यों में कितनी ही जगहों में हजारों की तादाद में वह बस गये हैं। जिसके हाथ में लेखनी है और जिनकी आँखों ने देखा है, इन दोनों के संयोग से बहुत-सी लोकप्रिय पुस्तकें तैयार कर सकती हैं। अभी तक अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी में जो पुस्तकें भिन्न-भिन्न देशों के बारे में लिखी गई हैं, उनका अनुवाद तो होना ही चाहिए। अरब-पर्यटकों ने आठवीं से चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी तक दुनिया के देशों के संबंध में बहुत-से भौगोलिक ग्रंथ लिखे। पश्चिमी भाषाओं में विशेष ग्रंथमाला निकाल इन ग्रंथों का अनुवाद कराया गया। हमारे घुमक्कड़ों को पर्यटन में पूरी सहायता के लिए यह आवश्यक है, कि आदिमकाल से लेकर आज तक भूगोल के जितने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ किसी-भाषा में लिखे गये हैं, उनका हिंदी में अनुवाद कर दिया जाय। ऐसे ग्रंथों की संख्या दो हजार से कम न होगी। हमे आशा है, अगले दस-पंद्रह सालों में इस दिशा में पूरा कार्य हो जायगा; तब तक के लिए हमारे आज के कितने ही घुमक्कड़ अंग्रेजी से अनभिज्ञ नहीं हैं। भूगोल-संबंधी ज्ञान के अतिरिक्त हमें गंतव्य देश के लोगों के बारे में भी पहले से जितनी बातें मालूम हो सकें, जान लेनी चाहिए। भूमि के बाद जो बात सबसे पहले जानने की है, वह है वहाँ के लोगों के वंश का परिचय। तिब्बत, मंगोलिया, चीन, जापान, बर्मा आदि के लोगों की आँखों और चेहरे को देखते ही हमें मालूम हो जाता है, कि वह एक विशेष जाति का है। लेकिन ऐसी आँखें नेपाल में भी मिलती हैं। छोटी नाक, गाल की उठी हड्डी, कुछ अधमुँदी-सी आँखें तथा जरा-सी ऊपर की ओर तनी भौंहें - यह मंगोल वंश के चिह्न हैं। इसी तरह मानववंश-शास्त्र द्वारा हमें नीग्रो, द्रविड़, हिंदी यूरोपीय तथा भिन्न-भिन्न मिश्रित वंशों के संबंध की बहुत सी बातें मालूम हो जायँगी। यह आँख, हड्डी, नाक तथा खोपड़ी की बनावट का ज्ञान आगे फिर उस देश के लोगों का इतिहास जानने में सहायक होगा। स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य जंगम प्राणी है, वह बराबर घूमता रहा है। मनुष्य-मनुष्य का समिश्रण खूब हुआ है। आज के दोनों मध्य-एसिया और अल्ताई के पच्छिम के भाग में आज मंगोलीय जाति का निवास दिखाई पड़ता है, किन्तु 2100 वर्ष पहले वहाँ उनका पता नहीं था। उस समय वहाँ वह लोग निवास करते थे, जिनके भाई-बंद भारत-ईरान में आर्य और वाल्गा से पच्छिम में शक कहे जाते थे। इसी तरह लदाख के लोग आजकल तिब्बती बोलते हैं, ईसा की सातवीं सदी से पहले वहाँ मंगोल-भिन्न जाति रहती थी, जिसे खश-दरद कहते थे। नृवंश का थोड़ा-बहुत परिचय गंतव्य देश की यात्रा को अधिक सुगम बना देता है।
गंतव्य देश की भाषा का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करके घुमक्कड़ को उस देश में जाना चाहिए, यह नियम अनावश्यक है। यदि घुमक्कड़ को आवश्यकता हुई और अधिक समय तक रहना पड़ा, तो वह अपने आप भाषा को सीख लेगा। जहाँ जो भाषा बोली जाती है, वहाँ जाकर उसे सीखना दस गुना आसान है। जिन भाषाओं के लिखने की वर्णमालाएँ हैं, उनका लिखना-पढ़ना आसान है। लेकिन चीनी और जापानी की बात दूसरी है। उनकी लिखित भाषा को सीखना बहुत कम घुमक्कड़ों के बस की बात है, किंतु चीनी-जापानी भाषा बोलना मुश्किल नहीं है - चीनी तो और भी आसान है। भाषा सीखकर न जाने पर भी घुमक्कड़ को गंतव्य देश की भाषा का थोड़ा परिचय तो अवश्य होना चाहिए। अति प्रयुक्त दो सौ शब्द यदि सीख लिए जायँ, तो उनसे यात्रा में बड़ी सहायता होगी। कम-से-कम दो सौ शब्द तो अवश्य ही सीख कर जाना चाहिए। कुछ देशों की भाषाओं के शब्द हमें पुस्तकों से मालूम हो सकते हैं। हिंदी में तो अभी तक इस तरफ काम ही नहीं हुआ है। यदि भारत फिर प्राचीन काल की तरह प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों को पैदा करना चाहता है, तो यह आवश्यक है कि हिंदी में प्रत्येक देश को सौ - डेढ़ सौ पृष्ठ के परिचय-ग्रंथ लिखे जायँ, जिनमें नक्शे के साथ दो-चार सौ शब्द भी हों।
नए देश में जो बातें सबसे पहले हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं, उनके बारे में हम कह चुके। लेकिन देश के ज्ञान के लिए आँखों से देखी जाने वाली बातें ही पर्याप्त नहीं हैं। हरेक देश और समाज सदियों-सहस्राब्दियों के विकाश का परिणाम है। इसलिए वहाँ के इतिहास के बारे में भी कुछ ज्ञान होना चाहिए। यदि वह ऐसा देश है, जहाँ की प्रचलित या धार्मिक भाषा का घुमक्कड़ तो परिचय है, तो उसे वहाँ के इतिहास और ऐतिहासिक सामग्री को विशेष ध्यान से देखना होगा। सुमात्रा, जावा, बाली, मलाया, बर्मा, स्याम और कंबोज में जाने वाले भारतीय घुमक्कड़ को तो इस तरफ अधिक ध्यान देना बहुत आवश्यक है। इन देशों के लोग भारतीय घुमक्कड़ से इस विषय में कुछ अधिक आशा रखेंगे। ये देश भारतीय संस्कृति के विस्तार-क्षेत्र हैं, इसलिए वहाँ के लोग अपनी संस्कृति का भारत को उद्गम स्थान मानते हैं, अत: भारतीय से कुछ अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहेंगे। जिस ज्ञान की कमी को किसी यूरोपीय यात्री में पाकर वह कोई संतोष या आश्चर्य नहीं प्रकट करेंगे, उसी कमी को भारतीय घुमक्कड़ में देखकर उन्हें आश्चर्य और ग्लानि भी हो सकती है। इसलिए हमारे घुमक्कड़ को पहले ही से आवश्यक हथियारों से लैस होकर जाना चाहिए।
इतिहास के निर्माण में लिखित सामग्री का भी उपयोग होता है। प्रत्येक सभ्य देश में कितने ही पूर्ण-अपूर्ण इतिहास-ग्रंथ पुराने काल से लिखे जाते रहें हैं। ऐसे ग्रंथों का महत्व कम नहीं है, किंतु इतिहास की सबसे ठोस प्राकृतिक सामग्री समकालीन अभिलेख और सिक्के होते हैं। वैसे ईंटें और मूर्तियाँ भी महत्व रखती हैं, किंतु वह काल के बारे में शताब्दी के भीतर का निश्चय नहीं कर सकतीं, जब कि अभिलेख, सिक्के अपनी बदलती लिपि के कारण समय का संकेत स्पष्ट कर देते हैं, चाहे उनमें सन्-संवत् न भी लिखा हो। बृहत्तर भारत के देशों में वही लिपि प्रचलित थी, जो उस समय हमारे देश में चलती थी। जिनको पुरा-लिपि से प्रेम है, उन्हें तो बृहत्तर भारत में जाते समय पुरा-लिपि का थोड़ा ज्ञान कर लेना चाहिए, और ब्राह्मी-लिपि से जितनी लिपियाँ निकली हैं, उनका चार्ट से मौजूद हो तो और अच्छा है। यह ज्ञान सिर्फ अपने संतोष और जिज्ञासा-पूर्ति के लिए सहायक नहीं होगा, बल्कि इसके कारण वहाँ के लोगों के साथ हमारे घुमक्कड़ की बहुत आसानी से आत्मीयता हो जायगी।
वास्तु-निर्माण और उसकी ईंट पत्थर की सामग्री इतिहास के ज्ञान में सहायक होती है। बृहत्तर भारत में ईसा की प्रथम शताब्दी से 11वीं शताब्दी तक भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों से धर्मोपदेशक व्यापारी और राजवंशिक जाते रहे तथा उन्होंने वहाँ की वास्तुकला के विकास में भारी भाग लिया था। वास्तुकाल का साधारण परिचय तुलना करने के लिए अपेक्षित होगा। बृहत्तर भारत में जिन लोगों ने पुरातत्व या वास्तुकला के संबंध में अनुसंधान किया है, उनको हमारे देश का उतना ज्ञान नहीं रहा कि वह सब चीजों की गहराई में उतर सके, यह हमारे घुमक्कड़ को ध्यान में रखना चाहिए।
किसी भी बौद्ध देश में जाने वाले भारतीय घुमक्कड़ के लिए आवश्यकता है कि वह जाने से पूर्व भारत, बृहत्तर भारत तथा बौद्ध साहित्य और इतिहास का साधारण परिचय कर ले और बौद्ध-धर्म की मोटी-मोटी बातों को समझ ले। कितने ही हमारे भाई उत्साह के साथ बौद्ध-देशों में जा बुद्ध के प्रति अपनी श्रद्धा - जो सचमुच बनावटी नहीं होती - दिखलाते हुए ईश्वर, परमात्मा, यज्ञ-हवन की बातें कर डालते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि इन विवादास्पद बातों के विरुद्ध भारत में बौद्धों की ओर से बहुत-से प्रौढ़ ग्रंथ लिखे गये, जिनमें से कितने ही बौद्ध देशों में अनुवादित हो मौजूद ही नहीं हैं, बल्कि अब भी वहाँ के विद्वान उन्हें पढ़ते हैं। तिब्बत का थोड़ा-सा भी अपने शास्त्र को पढ़ा हुआ विद्वान 'धर्मकीर्ति' के इस श्लोक को जानता है -
''वेद प्रामाण्यं कस्यचित् कर्तृवाद:
स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेप:।
संतापारांभ: पापहानाय चेति
ध्वस्तप्रज्ञानां पंच लिंगानि जाड्ये॥'' (प्रमाणघार्त्तिक 1/34)
(1. वेद को प्रमाण मानना, 2. किसी (ईश्वर) को कर्त्ता कहना, 3. (गंगादि) स्नान से धर्म चाहना, 4. (छोटी-बड़ी) जाति की बात का अभियान करना, 5. पाप नष्ट करने के लिए (उपवास आदि) करना - ये पाँच अकलमारे हुओं की जड़ता के चिह्न हैं।)
किसी विद्वान के सामने यदि कोई भारतीय घुमक्कड़ अपने को बुद्ध-प्रशंसक ही नहीं बौद्ध कहते हुए इन पाँचों बेवकूफियों में से किसी एक का समर्थन करने लगे, तो वहाँ का विद्वान अवश्य मुस्करा देगा। बहुत-से हमारे भाई अपनी मनगढ़ंत धारणा के कारण समझ बैठते हैं कि बौद्ध भ्रम में हैं, और उनकी अपनी धारणाएँ सही हैं। लेकिन उनको स्मरण रखना चाहिए कि बुद्ध की शिक्षा क्या थी, इसकी जानकारी के सारे साधन बौद्धों के पास हैं, इनकी सारी परंपराएँ उनके पास हैं, और बौद्ध-धर्म को उन्होंने जीवित रखा। हमारे यहाँ जब बौद्ध-धर्म के दस-बीस ग्रंथ भी नहीं बच रहे, उस समय भी चीन और तिब्बत ने हमारे यहाँ से विलुप्त आठ-दस हजार ग्रंथों को अनुवाद रूप में सुरक्षित रखा। इसलिए अपने अधिकार और विचार के रोब जमाने का ख्याल छोड़कर यदि घुमक्कड़ थोड़ा-सा बौद्ध धर्म के बारे में जान लेने की कोशिश करे, तो उपहासास्पद गलतियाँ करने से बच जायगा, चाहे पीछे वह बौद्ध-दर्शन का खंडन भी करे।
हरेक गंतव्य देश के संबंध में तैयारी भी अलग-अलग तरह की होगी। यह आवश्यक नहीं है कि एक-एक देश को देखकर घुमक्कड़ फिर भारत लौटकर तैयारी करे। जिसने यहाँ रहकर 20-21 वर्ष तक आवश्यक शिक्षा समाप्त कर ली और कालेज के पाठ्यक्रम तथा बाहर से घुमक्कड़ी से संबंध रखने वाले विषयों की पुस्तकों को पढ़ लिया है, यदि वह छ साल लगा दे तो सिंहल, बर्मा, स्याम, मलाया, सुमात्रा, जावा, बाली, चंपा, तोङ्किन, चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, चीनी तुर्किस्तान और तिब्बत की यात्रा एक बार में पूर्ण कर भारत लौट आ सकता है, और इतनी बड़ी यात्रा के फलस्वरूप हमारे देश को ज्ञानपूर्ण ग्रंथ भी दे सकता है।
उपरोक्त देशों में जिन साधनों की आवश्यकता है, वही साधन सभी देशों में काम नहीं आ सकते। रूस और पूर्वी यूरोप की जानकारी के साधनों का संचय तो होना ही चाहिए, साथ ही यदि घुमक्कड़ संस्कृत के भाषा-तत्व का ज्ञान रखना है, तो स्लाव-भाषाओं के महत्त्व को ही नहीं समझ सकता, बल्कि स्लाव-जातियों के साथ आत्मीयता का भाव भी पैदा कर सकता है। किसी जाति के इतिहास के जानने से ही आदमी उस जाति को समझ सकता है। जातियों के प्राग्-ऐतिहासिक ज्ञान के लिए भाषा बड़ा महत्व रखती है।
इस्लामी देशों में घुमक्कड़ी करने वाले तरुणों को इस्लाम के धर्म और इतिहास का परिचय होना चाहिए। साथ ही जहाँ अधिक रहना हो, वहाँ की भाषा का भी परिज्ञान होना जरूरी है। पश्चिमी एसिया और मध्य एसिया की मुस्लिम जातियों के साथ अधिक सुभीते से परिचय करने के लिए केवल तीन भाषाओं की आवश्यकता होगी - तुर्की, फारसी और अरबी। संस्कृत जानने वाले के लिए भाषातत्व की कुंजी के साथ फारसी बहुत सुगम हो जाती है।
भाषा-तत्व, पुरातत्व आदि बातों पर ध्यान आकृष्ट करने का यह अर्थ नहीं कि जब व्यक्ति इन विषयों पर अधिकार प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह घुमक्कड़ बनने का अधिकारी नहीं। घुमक्कड़-शास्त्र सभी रुचि और क्षमता वाले भावी घुमक्कड़ों के लिए लिखा गया है, इसलिए इसमें अधिक-से-अधिक बातों का समावेश है, जिसका यह अर्थ नहीं कि आदि से इति तक सभी चीजें हरेक को जान कर ही घर से पैर निकालना चाहिए।