देहाती समाज (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
Dehati Samaj (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay
अध्याय 16
हर वर्ष रमा दुर्गा पूजा बड़ी धूम-धाम से करती थी - और पूजा के एक दिन पूर्व से ही 'गाँव के सब गरीब किसानों को जी भर कर भोजन कराती थी। चारों तरफ से आदमियों का जमघट हो जाता उसके घर माता का प्रसाद पाने के लिए। आधी रात के बाद भी घर भर में पत्तल पर, पुरवों, सकोरों में भर कर मिठाई का दौर चलता ही रहता। चारों तरफ जूठन बिखर जाता। खाने की सामग्री इस तरह बिखरी रहती कि आदमी के पैर रखने तक की जगह न मिल पाती। यह बात नहीं कि उस उत्सव में केवल हिंदू ही आ कर शामिल होते हों, पीरपुर के मुसलमान भी बड़े चाव से आ कर हिस्सा लेते और माता का प्रसाद बड़ी श्रद्धा से खाते थे।
रमा इस वर्ष दुर्गा पूजा के अवसर पर बीमार थी, फिर भी तैयारी पूरी की गई। सप्तमी की पूजा ठीक समय हुई। उसके बाद सुबह बीती, दोपहर आया, वह भी बीता और शाम होने आई, और चंद्रमा अपना खिलता मुखड़ा दिखा कर आसमान पर ज्योत्स्ना बिखेरने लगा। लेकिन उत्सव प्रांगण में कुछ इने-गिने भद्र पुरुषों के आलावा सुनसान था। भीतर चावल पर पपड़ी पड़ी जा रही थी। भोजन सामग्री भी रखी-रखी अपने भाग्य पर रो कर, स्वयं ही सिकुड़ी-ठिठुरी जा रही थी। पर माता का प्रसाद लेनेवाले किसानों में से एक भी अभी तक नहीं आया।
वेणी बाबू मारे तैश के, पैर फटफटाते कभी बाहर जाते, कभी अंदर आते और चीखते फिर रहे थे - 'इतना मिजाज इन नीच कौमों का कि हमने तो इतना सब कुछ इंतजाम किया इस सबके लिए और ये आए ही नहीं! न इसका मजा चखाया सालों को, तो बात ही क्या रही! चुन-चुन कर ठीक करूँगा ससुरों को - घर उजड़वा दूँगा!' और भी जो कुछ तैश में उनके मुँह में आता गया, सो वे कहते गए।
धर्मदास और गोविंद गांगुली भी आग बबूला हो रहे थे और घूम -घूम कर सोच रहे थे कि किसके बरगलाने से वे ससुरे नहीं आए हैं। सबको यह बड़ा ताज्जुब हो रहा था कि न एक हिंदू आया और न एक मुसलमान! दोनों ही कौमें इसमें एकमत हो गई थीं।
मौसी भी अंदर बैठी-बैठी चिल्ला रही थीं - बस शांतचित्त अगर था कोई तो रमा! उसने किसी पर दोष नहीं मढ़ा और न किसी का बुरा ही चीता। उसमें बिलकुल परिवर्तन आ गया था। न वह पहलेवाला गुस्सा रहा, न जिद रही और न वह अभिमान ही। बीमारी के कारण उसका रूप भी क्षीण हो चला था। चेहरे पर एक व्यथा एवं क्षोभ की कालिमा आ गई थी। आँखों से ऐसा जान पड़ता, मानो विश्व की सारी व्यथा का सागर समा गया हो, उसकी इन दो पुतलियों में! जो दरवाजा चंडी मंडप की तरफ से है उसी तरफ से आ कर वह देवी की मूर्ति के पास खड़ी हो गई। उसे आया देख हितचिंतक उसे सुना -सुना कर, बड़े -बड़े चुने वाक्यों में नीच कौम को कोसने लगे। रमा ने उन्हें सुना और मुस्कान की रेखा खिल गई उसके होंठों पर। उस मुस्कान में एक अजीब व्यथा छिपी थी, जिसमें अपने अवसान के प्रति अपने आप ही एक व्यंग्य था, किसी अन्य के प्रति कुछ भी नहीं! यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि क्या-क्या छिपा था उसकी उस मुस्कान में?
वेणी ने बिगड़ते हुए कहा - 'यह इस तरह हँस कर टाल देने की बात नहीं है! हर्गिज नहीं है! जरा पता तो चले कि आखिर है कौन इस सबकी जड़ में? यों मसल कर फेंक दूँगा उसको!' दाँत किटकिटा कर उन्होंने गुस्से से अपनी दोनों हथेलियाँ मसल डाली।
रमा उनका वह रूप देख कर सिहर उठी।
वेणी बोले - 'जिस रमेश पर इन ससुरों की इतनी हिम्मत पड़ी है, उन्हें नहीं मालूम कि वही खुद जेल में पड़ा चक्की पीस रहा है। इनको तो मैं देखते-देखते ठिकाने लगा दूँगा!'
रमा शांत रही। वह काम करने बाहर निकल आई, चुपचाप करती रही और फिर उसी तरह चुपचाप वहाँ से चली भी गई।
डेढ़ महीने से रमेश भैरव के घर में घुस कर उसे मार डालने के अपराध में जेल काट रहा था। नए मजिस्ट्रेट को पहले कूट-कूट कर भर दिया गया था कि रमेश के लिए ऐसे काम करना रोज की आदत है। उनको यह भी संदेह करा दिया गया था कि उनका हाथ इन डकैतियों में भी रहा है। इस तरह की जो झूठी रिपोर्टें पहले से थाने के रोजनामचे में दर्ज करा दी गई थीं, उन्होंने तो उनके संदेह को और भी पुष्ट करा दिया था, और उन्हें मुकदमे के फैसले में फिर किसी अन्य प्रमाण की जरूरत न रही। सिर्फ रमा को जरूरी गवाही देनी पड़ी थी कि रमेश आया था - भैरव के मकान में घुस कर उसे मारने! पर उसे यह नहीं याद कि उसने छुरी मारी या नहीं, या उसके पास छूरी थी भी या नहीं?
रमा के अदालत के सामने तो हलफ उठा कर यह बात कही थी, पर वास्तविकता क्या थी? परमेश्वर की अदालत में तो वह एक हलफ उठा कर सच पर परदा नहीं डाल सकती! वे तो स्वयं एक -एक बात जानते है। वहाँ क्या जवाब देगी? वह यह अच्छी तरह तरह जानती थी कि रमेश के हाथ में छुरी तो क्या, एक तिनका भी नहीं था! मगर वह झूठ बोलने के लिए विवश कर दी गई थी। वेणी जैसे व्यक्ति जिस समाज के अधिष्ठाता हों, वह सत्य के बल पर नहीं चलता। उसका तो झूठ, दगा, बेईमानी ही एकमात्र आसरा है - उसे यह धमकी दे कर गवाही के लिए विवश किया गया था कि उसे बदनाम कर समाज में मुँह दिखाने लायक न रखा जाएगा जैसे और भी पहले बहुतों के साथ किया जा चुका है! रमा को यह न मालूम था कि रमेश को इस अपराध में इतनी लंबी और कठिन सजा हो सकती है। उसने तो सोचा था कि ज्यादा से ज्यादा सौ-दो सौ रुपए का जुर्माना हो जाएगा। जुर्माने की तो उसने मन से चाह की थी। जब वह उसके बार -बार हठ करने और समझाने पर भी, अपना काम छोड़ अन्यत्र भागने को राजी न हुआ था तब खीझ कर उसने सोचा था कि इस तरह उसे एक सबक मिल जाएगा। पर उसने कभी यह न सोचा था कि अदालत उसके बीमारी से पीत चेहरे को देख कर भी न पसीजेगी और सीधे छह महीने की सजा बोल देगी। उसकी तो हिम्मत ही न पड़ी थी, अदालत में रमेश की तरफ आँख उठा कर देखने की, पर औरों के मुँह से सुन कर उसे मालूम पड़ा था कि वह लगातार उसी के चेहरे की तरफ टकटकी लगाए देखते रहे थे। उसे याद था कि सजा सुन चुकने के बाद, जब गोपाल सरकार ने उनसे आगे अपील करने की बात कही थी तो उसने दृढ़ स्वर में कहा था कि नहीं! अपील करने की कोई जरूरत नहीं, मैं इस तरह छूटना नहीं चाहता! अगर उसे जीवन पर्यन्त कैद की सजा दी जाती, तो भी वह अपील न करता, क्योंकि जेल इस गाँव से कहीं अच्छी होगी!
जिस संसार में इतना फरेब हो कि भैरव ने अपनी सहायता का बदला उन्हें धोखा दे कर दिया और रमा ने भी अदालत के सामने खड़े हो कर झूठी गवाही देने में हिचक न की, तो वे किसलिए छुटकारा चाहें? नि:संदेह जेल इसके अच्छी होगी!
उस समय की उनकी घृणा भरी वाणी रमा के हृदय पर हथौड़े की तरह चोट कर रही थी। रह-रह कर उसका आहत हृदय कराह उठता। उसने झूठी गवाही नहीं दी थी, फिर भी सच बात तो उसने छिपा ही दी! काश, उस समय यह ज्ञात होता कि सच बात न कहने पर उसे रात-दिन इस तरह ग्लानि में जलते रहना होगा। तुरंत उसके सामने भैरव का अपराध इतना गहनतम हो उठा, जिसके कारण रमेश ने उसे वह दण्ड देना चाहा था कि उसे सोचते ही उसके समस्त हृत्तंतु मूक वेदना से झंकृत हो उठे। रमेश ने उसके सिर्फ एक बार के कहने पर ही उसे माफ कर दिया था। उसे खयाल आया कि जितना रमेश ने उसकी बात को इस तरह मान कर उसका सम्मान किया है, उतना आज तक इस जीवन में कभी किसी ने नहीं दिया।
रात-दिन की इस जलन में एक सत्य उसके सामने निखर कर चमक उठा था। एक अमूल्य हस्ती को इस तरह, जिस समाज के भय से उसने गँवा दिया, वह समाज है क्या? क्या उसकी बिसात है? और क्या उसकी कसौटी? उसके ठेकेदार हैं वेणी और गांगुली जैसे लोग, जिनके पल्लों में झूठ और फरेब बँधे रहते हैं। जिसकी बिसात में है धनिकों, समर्थों के हाथों में नाचना, और जिसकी कसौटी है झूठ, फरेब, दगाबाजी! जो जितना बड़ा झूठा है, जितना बड़ा फरेबी है, वह उतना ही बड़ा समाज का ठेकेदार है।
सभी जानते हैं कि गोविंद की विधवा भौजाई का वेणी के साथ नाजायज संबंध है। पर उसका प्रेमी भी समाज का ठेकेदार है और उसका देवर भी! 'सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का' - आज भी उनके बीच नीच कर्म, समाज की छाती को रौंदकर अपना ठेकेदारी की दुंदुभि बजा रहे हैं; ओर उनकी चहेती, समाज की छाती पर बैठी मूँग दल रही है।
इस समाज की चक्की ने नीचे अनेक निरपराध बे-मौत पिस कर चटनी बन गए, इन समाजपतियों के स्वार्थ के शिकार हो गए।
वही तस्वीर है, हमारे आज के समाज की और हिंदुत्व की!
रमा ने जब अपने कृत्य पर दृष्टिपात किया, तो भैरव के ऊपर गुस्से के बजाय अपने ऊपर ही उसे ग्लानि बढ़ गई। भैरव की लड़की की उम्र बारह वर्ष की होने को आई। यही है शादी की उमर! अगर उसकी शादी न हो सकी, इसी उमर में, तो फिर समाज के कुदाल से उसका बचना मुश्किल ही है!
समाज का यह विकराल रूप मनुष्य को क्या-क्या नहीं करने पर मजबूर कर डालता! नारी को समाज में अपने को असली कहने की वेदना से बचने के लिए समाजपतियों के हाथ अपनी लाज गिरवी रखनी पड़ती है; नर को न जाने कितने फरेब और धोखे का जीवन बिताना पड़ता है। जिस समाज के डर ने उसे झूठ बोलने पर विवश कर दिया, उसी के डर से यदि भैरव ने भी रमेश के साथ धोखा किया तो इसमें उनका दोष कैसे कहा जा सकता है?
उसी समय घर के सामने से एक वृद्ध सनातन हाजरा कहीं जा रहा था। गोविंद गांगुली ने बढ़ कर उसे पुकारा, मगर वह न आया, उसने उसकी खुशामद की और अंत में एक तरह से जबरदस्ती हाथ पकड़ कर, वेणी के सामने ला कर उसे खड़ा कर दिया।
उसे देखते ही वेणी ने गुस्से में लाल-पीला हो कर कहा - 'आजकल तो तुम लोगों का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया है। क्यों सनातन, तुम्हारे कंधों पर जान पड़ता है, एक सिर और कुलबुला उठा।'
'जब आप सबके दो सिर नहीं, तो भला और फिर किसके होंगे, बड़े बाबू? हम गरीबों के? कभी नहीं!'
'क्या बक-बक करता है?' मारे क्रोध के वेणी काँप उठे। वेणी के यहाँ सनातन ने सारा मालमत्ता थोड़ा पहले गिरवी रखा था। तब यही सनातन दोनों जून आ कर उनकी चिरौरी करता था। आज उनके मुँह से इतनी बात!
'दो सिर किसी के भी नहीं होते - मैंने तो यही कहा है, बड़े बाबू!'
गोविंद ने बात को बढ़ा कर कहा - 'तुम्हारी छाती में कितना दम-खम है, हम तो यही देख रहे हैं! भला यह भी कोई बात है कि तुम माता का प्रसाद तक लेने नहीं आए?'
सनातन ने हँसते हुए कहा - 'हमारे सीने का दम-खम! कर तो चुके - आपके हाथ में जो कुछ भी था! जाने भी दीजिए उन सब बातों को, पर यह जान लीजिए कि चाहे वह माता का प्रसाद हो और चाहे कुछ भी हो, कोई भी कायस्थ ब्राह्मण के घर नहीं आएगा। भला धरती माता कैसे सहन कर सकती है, इतना बड़ा पाप!'
एक दीर्घनिःश्वास रमा की तरफ देख कर वह बोला - 'बहन, आपको मैं चेताए जाता हूँ, रमेश बाबू को सजा हो जाने के कारण पीरपुर के मुसलमान लड़के खार खाए बैठे हैं। कह नहीं सकता कि जब वे छूट कर आएँगे, तब क्या होगा! पर अभी ही दो-तीन बार वे सब बड़े बाबू के घर चक्कर लगा गए हैं, बस खैरियत ही समझो कि बड़े बाबू उस समय उनकी निगाह में नहीं पड़े!' कह कर उसने वेणी पर एक नजर डाली।
सुनते ही वेणी का सारा गुस्सा काफूर हो गया और मारे भय के पीला पड़ गया उनका चेहरा।
'आप जरा होशियारी से रहें, बड़े बाबू! मैं झूठ नहीं कहता, दुर्गा माई के सामने बैठा हूँ। कहीं रात-बिरात बाहर न निकलिएगा! कहाँ कब कौन बैठा हो, कहा नहीं जा सकता!'
वेणी ने कुछ कहना चाहा, पर जुबान न खुली मारे भय के।
अब रमा बोली - 'सनातन, तुम लोगों की नाराजगी शायद छोटे बाबू के ही कारण है?'
दुर्गा की मूर्ति की तरफ देख कर सनातन ने कहा - 'बात तो ऐसी ही है! झूठ बोल कर नरक का भागी नहीं बनूँगा। मुसलमान तो छोटे बाबू को हिंदुओं का देवता मानते हैं। बास पूछिए मत, उनको गुस्सा बहुत ज्यादा है, प्रमाण भी मौजूद है आपने सामने। जफर अली से भला कभी किसी को आशा थी, एक पैसे की? लेकिन उसी ने - जिस दिन छोटे बाबू को सजा सुनाई गई - स्कूल को एक हजार रुपए दान दिए हैं। मैंने तो यहाँ तक भी सुना है कि मस्जिद में छोटे बाबू के लिए नमाज पढ़ कर दुआ माँगी जाती है!'
सनातन की बात सुन कर रमा का दिल खिल उठा और आनंद से चमकती आँखों से वह समातन की तरफ देखती रही।
सहसा सनातन का हाथ पकड़ कर वेणी ने कहा -'तुम जरा थाने चल कर दारोगा जी के सामने यह बात कह दो, सनातन! मैं तुम्हें मुँह-माँगा इनाम दूँगा! दो बीघे जमीन माँगोगे, तो वह भी तुम्हें दूँगा, देवता के सामने कसम खा कर यह वचन देता हूँ।'
सनातन चकित दृष्टि से वेणी के मुँह की तरफ देखता रहा, बोला - 'अब मैं बुढ़ापे में, लालच में आ कर यह नीच काम करूँ, बड़े बाबू? मरने पर मेरा मुरदा उठाना तो अलग रहा, ठोकर मारने भी कोई पास न फटकेगा! छोटे बाबू ने तो जमाना ही उलट दिया है, अब पहले दिनों के सपने मत देखो, बड़े बाबू!'
'तो तू एक ब्राह्मण की बात टालेगा, क्यों?'
'अगर मैंने कुछ कहा तो आप बिगड़ खड़े होंगे, गांगुली जी। उस दिन पीरपुर के स्कूल में छोटे बाबू ने कहा था - सिर्फ जनेऊ पहन लेने भर से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता! आपकी नस-नस से जानकार हूँ मैं! जिंदगी देखते ही देखते कट गई है, आपकी करतूतें!! आपकी करनी क्या ब्राह्मणों को शोभा देती है! तुम्हीं कहो बहन! मैं झूठ कह रहा हूँ?'
रमा निरुत्तर रही। उसका सिर झुक गया। सनातन बोला - 'छोटे बाबू जब से जेल गए हैं, तभी से जफर अली की चौपाल पर, रोज शाम को दोनों गाँवों के नौजवान लड़के जमा होते हैं, खुलेआम वे कहते-फिरते हैं कि असली जमींदार तो छोटे बाबू ही हैं - बाकी तो सब उचक्के हैं! डरना किस बात का? ब्राह्मण का-सा आचरण करें, तो हम उन्हें ब्राह्मण भी मान सकते हैं। नहीं तो हममें और उनमें अंतर ही क्या है?'
वेणी ने उदास मुँह से कहा - 'वे हम पर इतने नाराज क्यों हैं, सनातन, इसका कारण बता सकते हो?'
'माफ कीजिए, बड़े बाबू! अब उनसे यह बात छिपी नहीं रही है कि इन सब खुराफातों की जड़ में आप ही हैं!!'
वेणी की सारी नसें मारे भय के नीली पड़ गई थीं। नीच कौम के सनातन से यह वाक्य सुन कर भी उनकी नसों में जोश न आया।
'तो जाफर का घर है, उनका अड्डा! बता सकते हो, क्या करते हैं वे सब वहाँ?'
गोविंद के चेहरे की तरफ देखता हुआ, थोड़ी देर तक तो सनातन मौन रहा, मानो कुछ सोच रहा हो। फिर कहा उसने - 'यह तो मैं नहीं जानता कि वे सब वहाँ क्या करते हैं। पर इतना आपको बता दूँ कि अपना भला चाहते हो, तो अब उधर आँखें मत उठाना। सारे हिंदू-मुसलमान नौजवान एकमत हो गए हैं! जब से छोटे बाबू जेल गए हैं, बस नारद ही बने बैठे हैं। तुमने उन्हें छेड़ा कि शिकार बने!'
कह कर सनातन तो चला गया। उसके जाने के बाद, किसी के मुँह से थोड़ी देर तो कोई बात ही न निकली। सभी के चेहरों पर, भय के मारे मुर्दनी छाई थी। रमा को उठ कर जाते देख वेणी ने कहा - 'सुन लिया न सब हाल, रमा?'
रमा के होंठों को मुस्कान की रेखा छू गई। शब्द उसके मुँह से एक भी न निकला। उसकी मुस्कान ने वेणी के शरीर को तीखे तीर की तरह वेध दिया। बोले - 'रमा, तुम तो हँसोगी ही! औरत हो न! तुम्हें तो घर में ही रहना है, हमको तो बाहर सब कुछ भुगतना होगा। न जाने कब कौन सिर फोड़ कर रख दे। उसी भैरव के कारण यह दिन देखना पड़ रहा है। तुमने जा कर बचा दिया उसे, नहीं तो यह सब बखेड़ा क्यों तैयार होता? यही दिन देखने होते हैं, औरतों के साथ काम करने में!'
मारे भय के वेणी का मुँह अजीब हो रहा था। रमा वेणी की नस-नस से परिचित थी, पर उसे यह आशंका न थी कि वे निर्लज्जता से अपना सारा दोष उनके माथे मढ़ देंगे। और थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़ी रह कर वहाँ से वह चली गई।
वेणी भी दो लालटेन ले, पाँच-छह आदमियों की चौकसी में, चौकन्ने हो कर अपने घर चल दिए।
अध्याय 17
विश्वेश्वरी ने कमरे के अंदर आ कर, रुआँसी हो कर पूछा - 'रमा बेटी, कैसी है अब तुम्हारी तबीयत?'
मुस्कराने की कोशिश करते हुए, उनकी तरफ देख कर रमा बोली - 'आज तो कुछ ठीक हूँ, ताई जी!'
रमा को आज तीन महीने से मलेरिया का ज्वर आ रहा है। खाँसी ने उसके बदन की नस-नस ढीली कर दी है। गाँव के वैद्य जी उसका इलाज जी-तोड़ कोशिश से कर रहे हैं, पर सब व्यर्थ। उन बेचारों को क्या मालूम कि रमा केवल मलेरिया के ज्वर से ही आक्रांत नहीं है, उसे तो कोई और अग्नि ही जला कर खाक किए डाल रही है। विश्वेश्वरी को उसकी अव्यक्त अग्नि का कुछ-कुछ ज्ञान हो चला था। वे रमा को अपनी कन्या की तरह प्यार करती थीं, तभी उनकी आँखें रमा के हृदय को पढ़ने में समर्थ हो सकीं। और लोग तो उसे सही तौर पर न जान पाए। तभी मनमानी गलत अनुमान करने लगे, जिसे देख कर विश्वेश्वरी और भी व्यथित हो उठीं।
रमा की आँखें दिन-पर-दिन अंदर को घुसी जा रही थीं, पर आँखों में अब भी एक चमक है, उनकी आँखों में ऐसा जान पड़ता है, मानो वह किसी चीज को देखने की लालसा में अपनी बुझती चमक को एकाग्र कर रही है। उसके सिरहाने बैठ कर, और उसके माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा - 'रमा!'
'हाँ, ताई जी!'
'मुझे तुम अपनी माँ समझती हो न!'
'तुम्हीं तो मेरी माँ हो!'
उसका माथा स्नेह से चूम कर विश्वेश्वरी बोलीं - 'तो मुझे बताओ न सच-सच! तुम्हें क्या हुआ है?'
'मलेरिया का बुखार!'
रमा के पीले चेहरे पर विश्वेश्वरी को थोड़ी देर के लिए लाली की एक क्षीण झलक दिखाई पड़ी। उसके सूखे बालों में, अत्यंत स्नेह से उँगली फिराते हुए उन्होंने कहा - 'यह तो मैं भी देख रही हूँ, बेटी! लेकिन जो तुम्हारे दिल पर गुजर रही है, उसे मत छिपाओ! तुम अच्छी न हो सकोगी, उसे छिपाने से!'
अभी प्रात:काल का प्रथम चरण ही था, धूप भी मंद थी, वायु भी शीतल थी। खिड़की से बाहर देखती हुई रमा चुपचाप चारपाई पर पड़ी रही। थोड़ी देर बाद बोली - 'अब बड़े भैया की तबीयत कैसी है?'
'ठीक ही है! अभी सिर का घाव पुरने में तो दिन लगेंगे ही, पर पाँच-छह दिन में घर आने की छुट्टी मिल जाएगी, अस्पताल से!'
रमा के चेहरे पर व्यथा की रेखाएँ खिंची हुई थीं। उन्हें देख कर वे बोलीं -'दु:खी मत हो बेटी! उसका दिमाग ठिकाने करने को, इस मार की जरूरत ही थी!'
रमा सुन कर विस्मयान्वित हो उठी। उसका चेहरा देख कर वे आगे बोलीं - 'शायद तुमको विस्मय हुआ कि मैं माँ हो कर भी अपने बेटे के लिए ऐसे शब्द निकाल रही हूँ? लेकिन मैं ठीक ही कहती हूँ, बेटी! मैं यह नहीं जानती कि मुझे उसके चोट खाने से दु:ख हुआ है या प्रसन्नता, पर इतना अवश्य जानती हूँ कि इतना पाप करनेवाले को दण्ड अवश्य मिलना चाहिए! मेरी समझ में तो, कल्लू के लड़के ने वेणी को मारा क्या, उसका जीवन ही सँभल गया! उसकी मार ने वह काम किया है वेणी के जीवन के लिए, जो कोई अपना सगे-से सगा भी न कर सकता! बेटी कोयले का रंग बदलने के लिए उसे पानी में धोने भर से काम नही चलता, आग में जलाना भी होता है।'
'घर पर उस समय कोई भी नहीं था?'
'सभी लोग तो थे, पर वह तो जेल जाने की तय करके आया था, तभी उसने आदमियों के बीच मारा! उसने कोई अपनी दुश्मनी के कारण तो उसे मारा नहीं था। जब वेणी बाँक के एक ही वार से बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा, तो वह रुक गया, दूसरा हाथ नहीं उठाया उसने! और जाते-जाते कह गया कि अगर अब भी उनकी अकल दुरुस्त न हुई, तो मैं चाहे जब लौटूँ, पर इनकी अकल फिर जरूर ही दुरुस्त की जाएगी!'
रमा ने अस्फुट स्वर में कहा - 'भैया के पीछे अभी और भी आदमी घात लगाए हैं, इसके मानी हैं कि पहले तो उन नीच कौम के लोगों में इतनी हिम्मत कभी आई नहीं थी! अब कहाँ से आ गई?'
विश्वेश्वरी ने मुस्कराते हुए कहा - 'किसने इनकी हिम्मत बुलंद की, तुम नहीं जानतीं क्या बेटी? लगी आग बुझते-बुझते भी आस-पास को झुलसा जाती है! मेरा बेटा रमेश जुग -जुग जिए। और अब छूट कर जहाँ जी में आए चला जाए। वेणी के लिए तो मैं कभी आह न भरूँगी!'
कहते-कहते विश्वेश्वरी ने अपने गले से निकलती एक आह को जबरदस्ती दबाया, तो रमा की आँखों से छिपा न रहा। उसका हाथ अपनी छाती पर रख कर वह पड़ी रही।
विश्वेश्वरी ने अपने को संयत कर फिर कहा - 'बेटे के लिए माँ का दर्द अभी तुम नहीं जानतीं! जब वेणी को घायल अवस्था में बैठा कर लोग अस्पताल ले गए, तब मेरे दिल पर जो बीती, वह मैं ही जानती हूँ। पर किसी को दोष देने और कोसने की तबीयत मेरी न हुई, बेटी! मैं जानती थी कि माँ होने के कारण मैं चाहे जितना भी दु:ख क्यों न करूँ, पर उसके कुकर्मों के लिए दण्ड तो मिलना ही था!'
कुछ सोचने के बाद रमा के कहा - 'बहस करने की तो हिम्मत है नहीं तुमसे ताई जी, पर इतना पूछती हूँ कि यदि पाप के फलस्वरूप ही दण्ड मिलता है, तो रमेश भैया जो बड़ा दण्ड भोग रहे हैं सो किस पाप के परिणाम में? उन्हें तो हमने ही जेल भिजवाया है!'
'हाँ, बात तो ऐसी ही है! इसी कारण तो वेणी को अस्पताल की चारपाई पकड़नी पड़ी और तुम्हें भी!'
कहते-कहते वे रुक गईं और बात बदल कर बोलीं - 'बेटी, हर एक कार्य यों ही नहीं हो जाता! उसका एक निश्चित कारण होता है और एक निश्चित परिणाम भी! पर यह दूसरी बात है कि सब उसे न जान सकें! तभी यह समस्या आज उलझी है कि एक आदमी के पास का फल अन्य क्यों भोगता है? पर दरअसल भोगना पड़ता है जरूर!'
रमा को अपने किए की याद आ गई, और इसके साथ ही उसके मुँह से एक ठण्डी आह निकल गई।
विश्वेश्वरी बोलीं - 'कहने से ही कोई भला काम नहीं करता, इस मार्ग पर पैर रखने के लिए अनेक और भी मंजिलें पार करनी होती हैं! रमेश ने निराश हो कर एक दिन मुझसे कहा था कि वह इन सबकी भलाई नहीं कर सकता और जाना चाहता है यहाँ से! मैंने ही उसे जाने से मना कर कहा था - 'बेटा, जिस काम में हाथ डाला, उसे बिना पूरा किए जाना ठीक नहीं!' बात तो वह पलट नहीं सकता मेरी किसी तरह, तभी जब मुझे उसके जेल जाने की खबर मिली, तो मैंने सोचा जैसे मैंने ही उसे धकेल कर जेल जाने पर विवश किया हो!' पर जब वेणी अस्पताल गया, तब मैंने समझा कि उसे जेल की बहुत जरूरत थी, और बेटी, जब तक आदमी भले-बुरे में अपने को खो नहीं देता, उन्हीं का हो कर नहीं रहता, तब तक भलाई करना संभव नहीं। लेकिन मैं न जानती थी कि यह मार्ग इतना कंटकाकीर्ण है। वह तो आरंभ से ही अपनी शिक्षा और उच्च संस्कार के बल पर उस उच्च आसन पर आसीन हो गया था जिस तक किसी के लिए पहुँचना असंभव था। अब मैं उसे समझ सकी हूँ। मैंने ही उसे जाने न दिया, और अपना बना कर भी उसे न रख सकी।'
रमा को कुछ कहना चाहते हुए भी रुकते देख कर वे बोलीं - 'इसके लिए मुझे पछतावा भी नहीं, रमा! क्रोघ न करना सुन कर! अपनों के साथ नीचा हो कर शामिल होने की जरूरत महसूस करो! दरअसल तुमने भी उस ऊँचे आसमान से उसे नीचे गिरा कर उसके साथ भलाई की है; और अब मैं निश्चय के साथ कह सकती हूँ कि सोचने पर वह इसकी सत्यता समझ कर आएगा!'
रमा कुछ भी न समझ सकी, बोली - 'गिराया हमने उन्हें नीचे! कैसे? अपने दुष्कमों के फल तो हमीं को भोगने होंगे, उन्हें उसे क्यों भोगना होगा?'
विश्वेश्वरी व्यथित हँसी हँस कर बोली - 'जरूर भोगना पड़ेगा, बेटी! तुम देख लेना कि तुम्हारा रमेश जेल से लौट कर आने पर बिलकुल बदला हुआ होगा! किसी के उपकार के बदले में उसके साथ उपकार करने में भी, उसे नीचे घसीट कर लाने से उसका कुछ होता-जाता नहीं। भैरव ने उसके दान का यह बदला उसे दे कर उसकी दान प्रवृत्ति को निश्चय ही बदल दिया होगा; पर क्या जाने इसमें भी परमात्मा का कुछ खेल छिपा हो, इसमें भी कुछ भला ही हो!' थोड़ा मौन रह कर उन्होंने फिर कहा - 'हो सकता है, अबकी बार सचमुच ही यह गाँव उसकी पहचान कर सदुपयोग कर सके!' कह कर एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ा उन्होंने। रमा चुपचाप उनका हाथ सहलाती रही थोड़ी देर, फिर अत्यंत वेदनायुक्त स्वर में बोली - 'ताई जी, जो झूठी गवाही दे कर किसी निरपराध को सजा दिलाता है, भला उसकी क्या सजा है?'
विश्वेश्वरी उसके रूखे बालों में अँगुलियाँ फेर रही थीं। उसके नेत्रों से अविकल अश्रुधारा बहती देख कर उसके आँसू पोंछती हुई स्नेहसिक्त स्वर में बोलीं - 'तुम्हारा तो कोई दोष नहीं इसमें, बेटी! जिन्होंने तुम्हें बदनामी का डर दिखा कर ऐसा कार्य करने पर विवश किया, असल दोषी तो वे ही हैं! तुम्हें इसकी सजा क्यों भुगतनी होगी?' कह कर फिर उन्होंने रमा के आँसू पोंछे; लेकिन वे तो अविरल बह रहे थे, सो बहते ही रहे। थोड़ी देर बाद रमा बोली - 'वे तो उनके शत्रु हैं! और उनका कहना ही यह है कि हर तरह से, जैसे बन पड़े; शत्रु को नीचा दिखाना ही चाहिए! पर मैं तो ऐसा कह कर अपने को सांत्वना नहीं दे सकती!!'
'कह क्यों नहीं सकती?' - इतना कह कर उसकी ओर नजर डालते ही इतने दिनों से जो उनके दिल में सिर्फ एक क्षीण संदेह मात्र था, अब उनके नेत्रों के सामने साकार हो उठा। व्यथा और विस्मय से उनका अंतर अभिभूत हो उठा। रमा की व्यथा, जलन व बीमारी का सही कारण अब उनसे छिपा न रहा। रमा की आँखें बंद थीं, विश्वेश्वरी की मुख मुद्रा पर उसकी नजर न पड़ सकी। उसने पुकारा - ताई जी!'
विश्वेश्वरी ने चौंक कर उसका माथा सहलाते हुए कहा - 'बोलो!'
'मैं तुम्हारे सामने एक सत्य स्वीकार करती हूँ। रमेश भैया के शिक्षण से प्रेरित हो कर, गाँव के लोग अच्छी-अच्छी बातों पर विचार किया करते थे। लेकिन इधर ये लोग रमेश भैया के अपराध को और बढ़ाने के लिए षड्यंत्र कर रहे थे कि उसे किसी तरह बदमाशों का गुट साबित किया जाए। पुलिस इस मामले में हाथ में आ जाने का फिर उन्हें न छोड़ती। तभी मैंने उन लोगों को चेता दिया था।'
विश्वेश्वरी सुनते ही सहम कर अनायास ही कह उठीं - हैं, यह सब क्या कह रही हो तुम? वेणी ने इस तरह गाँव में पुलिस का जाल बिछाने की साजिश की थी?'
'मेरी समझ में तो, बड़े भैया भी उसी का फल भोग रहे हैं! पर क्या तुम मुझे क्षमा कर सकोगी, ताई जी?'
विश्वेश्वरी ने रमा का माथा चूमते हुए कहा - 'मैं माफ न करूँगी तो कौन करेगा! बल्कि इसके लिए तो ईश्वर तुम्हारे ऊपर अनेक कृपा करें, यह आशीर्वाद देती हूँ।'
आँसू पोंछते हुए रमा ने कहा - 'अब तो उनके प्रयत्न सफल हो गए! उनके देश के गरीब किसानों में जागृति हो गई है। उन्हें भी वे अब अच्छी तरह पहचान कर, अपने से भी ज्यादा प्यार करने लगे हैं। पर क्या वे इस खुशी में मुझे क्षमा न करेंगे, ताई जी?'
विश्वेश्वरी के मुह से कोई शब्द न निकला। आँखों से दो बूँदें अवश्य टपक कर रमा के माथे पर जा गिरीं। काफी देर तक मौन रह कर रमा ने कहा - 'ताई जी।'
'कहो।'
'हम दोनों ही ने तुमको प्यार किया, बस इसी से हम दोनों साथी बन सके!'
विश्वेश्वरी ने फिर उसका माथा चूम लिया। रमा बोली - 'अपने इसी प्यार के जोर पर तुमसे कहती हूँ कि ताई जी, जब मैं इस संसार में न रहूँ और तब भी वे मुझे क्षमा न कर सकें, तो तुम मेरी ओर से इतना कह देना कि मैंने उन्हें जितनी वेदना पहुँचाई है, मैं भी उससे कम वेदना में नहीं जली हूँ। और जितनी बुरी उन्होंने मुझे समझ रक्खा है, कम से कम उतनी बुरी तो मैं नहीं थी!'
विश्वेश्वरी का दिल भर आया और रमा को छाती से कस कर चिपटा कर उन्होंने कहा - 'चल बेटी, रमेश और वेणी की आँखों से दूर, किसी तीर्थ में चल कर अपने जीवन के अंतिम दिन बिताएँ, जहाँ आँख उठते ही भगवान के दर्शन हों! अब मेरी समझ में आ गया है, बेटी! जब मेरा अंत समय ही आ गया है, तो फिर इस जलन से छुट्टी लेनी होगी; नहीं तो भगवान के दरवाजे पर इस जलन को लेकर न जाया जा सकेगा! ब्राह्मणों की तरह ही हमको भगवान के दरबार में जाना होगा!'
दोनों ही काफी देर तक चुप रहीं, फिर एक आह भरते हुए रमा ने कहा -'मेरी भी यही इच्छा है, ताई जी!'
अध्याय 18
जेल की चहारदीवारी के भीतर बंद रमेश को स्वप्न में भी यह आशा न थी कि बाहर उनका विरोधी वातावरण अपने आप ही स्वच्छ हो कर निर्मल हो सकता है। अपनी कैद समाप्त कर, जेल के फाटक से बाहर का दृश्य देख कर विस्मयानंद से उनके दोनों नेत्र विस्फरित हो उठे कि उनके स्वागत के लिए, जेल के फाटक पर लोगों का जमघट खड़ा है। हिंदू -मुसलमानों की भीड़ के आगे विद्यार्थी समुदाय खड़ा है, उनके आगे मास्टर लोग हैं। सबसे आगे, सिर पर चद्दर डाले वेणी बाबू विराजमान हैं।
रमेश को गले से लगाते हुए, भरे गले से वेणी बाबू बोले - 'हमारा-तुम्हारा रक्त एक है! उसमें कैसा आकर्षण है! उसे मैंने पहले जान-बूझ कर अपने से दूर रखा था। मैं जानता तो पहले से भी था, पर जबरदस्ती आँखें मूँद रखीं कि रमा भैरव को बरगला कर, अपनी लाज-शर्म ताक पर रख कर, अदालत में तुम्हारे विरुद्ध झूठी गवाही दे कर तुम्हें इस तरह फँसा देगी। मुझे भी भगवान ने इस पाप का खूब दण्ड दिया है! जेल के भीतर तुम्हारा जीवन इन सब बातों से दूर शांति से तो बीता; मैं तो वेदना की आग में निरंतर छह माह तक जलता रहा हूँ।!'
रमेश तो इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर स्तब्ध रह गया था। खड़े-खड़े कुछ समझ ही न पा रहे थे कि क्या कहें, क्या करें? स्कूल के हेडमास्टर जी ने तो साष्टांग दण्डवत कर, उनकी चरण-रज माथे पर लगा ली। भीड़ में से आगे बढ़ कर किसी ने आशीर्वाद दिया, किसी ने पैर छुए, किसी ने सलाम किया, किसी ने नमस्कार! वेणी का दिल उमड़ पड़ रहा था। भरे गले से वे फिर बोले -'मुझसे अब न रूठो, भैया! चलो, घर चलो! माँ ने रोते-रोते आँखें फोड़ डाली हैं!!'
घोड़ागाड़ी वहीं तैयार खड़ी थी। रमेश चुपचाप जा कर उस पर बैठ गया और वेणी उसके सामनेवाली सीट पर बैठे। उन्होंने अपने सिर से चादर हटा ली थी। चोट का घाव तो सूख गया था, पर अपने निशानों की छाप स्पष्ट छोड़ गया। उस पर नजर पड़ते ही रमेश ने चौंक कर कहा - 'यह क्या हुआ, बड़े भैया?'
दीर्घ निःश्वास छोड़ कर, वेणी ने अपना दाहिना हाथ उलटते हुए कहा - 'मेरे अपने ही कर्मों का फल है भैया, क्या करोगे सुन कर उसे?'
वेणी ने चेहरे पर व्यथा के चिह्न स्पष्ट हो उठे। वे चुप हो गए। उन्हें अपनी गलती स्वयं स्वीकार करते देख कर रमेश का हृदय द्रवित हो उठा उनके प्रति।
रमेश को आशंका हो गई कि कोई घटना अवश्य घटी है। पर उसे जानने के लिए अधिक अनुरोध न किया उन्होंने। रमेश को इसका कारण न पूछते देख, वेणी ने सोचा कि जिस बात को कहने के लिए उन्होंने इतनी सफलता से पृष्ठभूमि तैयार की थी वह जैसी की तैसी ही रही जा रही है, तो थोड़ी देर चुप रह कर, दीर्घ निःश्वास छोड़ स्वयं ही बोले - 'मेरी जन्म से ही आदत है कि जो मन में होता है, वह जुबान से भी साफ कह देता हूँ। कई बार छिपा कर नहीं रख पाता! अपनी इस आदत के कारण, न जाने कितनी बार सजा भुगतनी पड़ी है, पर होश नहीं आता!'
रमेश को सुनते देख आगे कहा - 'भैया, जब मुझसे वेदना का भार न सहा गया, तो मैंने रो कर रमा से कहा कि हमने तुम्हारा ऐसा क्या बिगाड़ा था कि तुमने हमारा घर ही बिगाड़ डाला! रमेश की सजा की बात सुन कर, माँ रो-रो कर जान दे देंगी। हम भाई -भाई हैं, चाहे लड़ते-झगड़ते रहें, कुछ भी करते रहें, फिर भी दोनों भाई हैं; पर तुमने तो एक ही चोट में मेरे भाई को मारा और हमारी माँ को भी! भगवान हमारी भी सुनेंगे!' कह कर वेणी ने गाड़ी के बाहर से आसमान की तरफ देखा, मानो फिर भगवान के सामने कुछ विनती कर रहे हों। रमेश शांत बैठा रहा। थोड़ी देर बाद वेणी ने फिर कहा - 'उस रमा ने तो वह चंडी रूप धारण किया कि रमेश, मैं तो आज भी उसकी याद से सिहर उठता हूँ। उसने दाँत किटकिटा कर कहा था - रमेश के बाबू जी ने भी तो मेरे बाप को जेल भिजवाना चाहा था, और बस चलता तो भिजवा कर ही रहते! मुझसे उसका घमण्ड देखा न गया और मैंने भी कह दिया कि रमेश को छूट कर आ जाने दो, तब देखा जाएगा! बस यही है मेरा दोष, भैया!'
रमेश को वेणी की बातें पूरी तरह समझ में नहीं आ रही थीं। उसे यह भी नहीं मालूम था कि कब उसके पिता ने रमा के पिता को सजा कराना चाहा था! उसे यह याद हो आया कि जब वह गाँव में आया ही आया था, तब भी रमा की मौसी ने ऐसी ही बात कह कर जली-कटी सुनाई थी। इसलिए बड़े ध्यान से सुनने लगा। वेणी ने भी उनकी उत्सुकतापूर्ण लगन देख कर कहा - 'खून-खच्चर तो उसके बाएँ हाथ का काम है! तब तुमको मारने के लिए अकबर लठैत को भेजा था; जब तुमसे बस न चला तो फिर मुझे ही धर -दबाया, सो वह तुम्हारे सामने ही है!'
और उसके बाद कल्लू के लड़के के संबंध में, झूठी-सच्ची नमक -मिर्च मिला कर मनगढ़ंत बातें वेणी ने रमेश को सुना दीं।
'फिर क्या हुआ?'
वेणी ने उदास चेहरे पर हँसी लाते हुए कहा - 'उसके बाद की मुझे भी याद नहीं कि कौन, कैसे, कब अस्पताल ले गया और वहाँ क्या हुआ? मुझे तो पूरे दस दिन बाद होश आया - यह कहो कि मेरा दूसरा जन्म हुआ है और वह भी माँ के प्रताप से! माँ लाखों में एक है हमारी।'
रमेश शांत बैठा रहा। सुनते-सुनते उसके दोनों हाथ एक में गुँथ कर मजबूती से कस उठे। अंदर ही अंदर घृणा, क्षोभ और व्यथा की प्रचंड ज्वाला धधकने लगी। उसका अंत कहाँ होगा, यह रमेश भी स्वयं न जान सका।
वेणी को वह अच्छी तरह समझ गया था कि वह कोई भी नीच से नीच कार्य नि:संकोच कर सकते हैं, पर उसने यह न सोचा था कि नि:संकोच हो, निर्लज्जता से वे झूठ भी हर दर्जे का बोल सकते हैं। तभी तो उसने उनकी बात को सत्य मान कर, अपने मन को दोषी ठहरा लिया, इसी कारण गुस्से से उसे मूर्च्छा तक आ गई थी। उसके गाँव में लौटने पर, चारों तरफ खुशियाँ मनाई जाने लगीं। हर समय कोई न कोई मिलने आता ही रहता। रमेश को सजा सुनते समय या जेल के अंदर पहुँच कर जो ग्लानि हो रही थी, अब वह न रही। उनके पीछे आस-पास के सभी गाँवों में एक सामाजिक नवजागरण हो उठा था। जब ठण्डे दिमाग से बैठ कर उसने सोचा कि इतना बड़ा परिवर्तन इतने से दिनों में ही कैसे संभव हो गया तब उसकी समझ में आया कि वेणी के विरोधी होने के कारण, जो धारा धीरे-धीरे उनके विरोध का सामना करते हुए बह रही थी, उनकी अनुकूलता से वह दोगुने वेग से बह उठी थी। वेणी को कितना मानते हैं गाँववाले! उलटा करने को कहे तो सब साथ, सीधा करने को कहे तो सब साथ! यह बात रमेश ने आज जानी। रमेश ने अब शांति की साँस ली - वेणी के विरोध से छुट्टी पा कर। सभी उनके दुख के प्रति अफसोस, उनके लिए सद्भावना प्रकट कर गए। समस्त गाँव की सद्भावना और वेणी का सहयोग पा कर रमेश की छाती फूल उठी। छह माह पहले जिस काम को छोड़ कर अचानक उन्हें इस तरह जेल चले जाना पड़ा था, उसे बढ़ाने का व्रत लेकर, वह फिर पूरे जोश के साथ उसमें जुट गया।
रमा से संबंधित बातों से, वह अपने को पूरी कोशिश करके अलग ही रखता था। रमा की बीमारी की सूचना उन्हें रास्ते में ही मिल गई थी, लेकिन एक बार भी उन्होंने यह न जानना चाहा कि उसको बीमारी क्या है। गाँव में आते ही अनेक लोगों से सुना था कि रमा ही उनके समस्त दुखों का कारण है। इसने वेणी की बातों को और भी पुष्ट कर दिया।
वेणी और रमा का पीरपुर गाँव की एक जायदाद के बँटवारे के सिलसिले में काफी पहले से ही मनमुटाव चला आ रहा था। उसे हथियाने का यह बड़ा ही उत्तम अवसर जाना, तभी उन्होंने पाँच-छह दिन बाद रमेश को जा घेरा। रमा से उन्हें भी मन ही मन डर लगता था। पर आजकल वह बीमार भी है। दवा-दारू तो हो न सकेगा उससे, और पीरपुर की प्रजा भी रमेश के कहे में है - उसे बेदखल करा कर अपने अधिकार में करने का यही उत्तम अवसर है! रमेश से इसमें साथ देने की उन्होंने जिद की, तब रमेश ने खुले शब्दों में, इस काम में उनका हाथ बँटाने में साफ मना कर दिया। हर तरह से उसे राजी करने की कोशिश कर चुकने के बाद वेणी बोले - 'उसने तो जरा भी कोर-कसर न रखी, तुम्हारे साथ बुराई करने में; तो फिर तुम क्यों न कर सकोगे? तुम सोचते होगे कि आजकल बीमार है - तुम भी तो जब बीमार पड़े थे उस जमाने में, उसने तुम्हें जेल भिजवाया था!'
बात तो सही कही थी वेणी ने, लेकिन फिर भी रमा के विरुद्ध कुछ भी करने को उनका जी न चाहा। जैसे-जैसे वेणी अपनी उत्तेजनापूर्ण बातों से उन्हें प्रभावित करना चाहते, वैसे-वैसे रमा की बीमार तस्वीर उनके सामने आ कर, उसके विरुद्ध कुछ भी करने की पुष्टि करती जाती। ऐसा क्यों हो रहा था, इसे वे स्वयं भी नहीं जानते थे। रमेश ने वेणी की किसी बात का उत्तर न दिया। वेणी भी हार कर चले गए।
रमेश पहले से जानता था विश्वेश्वरी को संसार से अधिक मोह नहीं रहा है। जेल से छूट कर आने पर, संसार से उनकी विरक्तता उसे आज अधिक जान पड़ी। आज जब उसने सुना कि वे काशीवास करने जा रही हैं और उनका विचार अब वहाँ से लौट कर आने का नहीं है, तब वह दंग रह गया। उसे इस संबंध में अब तक कुछ पता ही न था। जब वह पहले उनसे भेंट करने गया था, तब तो उन्होंने इस संबंध में कुछ कहा न था! बस, इन्हीं पाँच-छह दिनों से तो वह उनके पास नहीं जा पाया है!
रमेश को मालूम था कि उन्हें अपनी तरफ से किसी की आलोचना करने की आदत नहीं, और न उनका वैसा स्वभाव ही है। पर इस बात को सुन कर, उनके उस दिन के विरक्त व्यवहार की याद करके, उसकी आँखों के सामने सारी बातें साफ हो गईं। अब उनके जाने में उन्हें जरा भी संदेह न रहा और उनके प्रवास का विचार आते ही उसकी आँखें भर आईं और जरा भी देर न कर वह ताई जी के घर पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही दासी से पता चला कि वे रमा के घर गई हैं।
रमेश को विस्मय हुआ, पूछा - 'इस समय?' दासी काफी पुरानी थी। मुस्कराते हुए उसने कहा - 'आज तो यतींद्र का जनेऊ है न, और फिर उनके लिए समय-असमय की क्या बात है?'
रमेश ने और भी विस्मयान्वित हो कर पूछा - 'यतींद्र का जनेऊ है? यह तो मालूम ही नहीं है किसी को!'
'उन्होंने किसी को निमंत्रण नहीं दिया और दिया भी होता तो भी कोई उनके यहाँ खाने न जाता! उन्हें जाति से अलग जो कर दिया है!'
अब तो रमेश के विस्मय की सीमा न रही। थोड़ी देर तक मौन रह कर उसने पूछा - 'इसका कारण?'
दासी ने शरमा कर गर्दन घुमाते हुए कहा - 'हम तो गरीब आदमी ठहरे, छोटे बाबू! कुछ जानते नहीं। उनकी इधर-उधर ऐसी-वैसी बदनामी जो उड़ी है, उसी कारण। मैं जानती नहीं सब बातें!'
कह कर दासी चली गई और रमेश हक्का-बक्का-सा खड़ा रहा और थोड़ी देर बाद घर लौट आया। बिना पूछे ही, उसकी समझ में इतना तो आ गया कि वेणी के गुस्से का यही परिणाम है, जो रमा भुगत रही है। लेकिन क्यों इतना भयंकर क्रोध हुआ उसे, इसका कारण ही वह न जान सका।
अध्याय 19
कैलाश हज्जाम और मोतीलाल दोनों ही, अपने झगड़े का निबटारा करने के लिए रमेश के पास अपने सारे कागजात और अपने-अपने पक्ष के सबूत लेकर आए। वे अदालत न जा कर रमेश के पास आए थे, यह देख कर रमेश को अत्यंत विस्मय और नए जागरण का आह्लाद हुआ। रमेश ने उनसे पूछा - 'तुम लोग मानोगे भी मेरा फैसला?'
दोनों ने वायदा किया कि जरूर मानेंगे - 'भला आपमें और उस हाकिम में, जो अदालत में बैठ कर फैसला करता है, अंतर ही क्या है? जो इल्म आपने पाया है, वही तो उन्होंने भी पाया होगा! जैसे आप भले घर के हैं, वैसे ही वे भी होंगे - और फिर अगर आप ही हाकिम बन कर आ जाएँ, तो आपका फैसला उस हालत में मानना ही होगा हम लोगों को। तो फिर अभी क्यों न मानेंगे?'
रमेश तो मारे आनंद के विभोर हो उठा।
'हम दोनों ही आपको अपने-अपने पक्ष की बात साफ-साफ कह सकेंगे। अदालत में तो वैसे सच कह नहीं सकते। और फिर वहाँ जा कर तो वकीलों का मुँह रुपयों से भरना होता है। यहाँ तो वैसे ही न्याय होगा। कुछ तवालत भी न उठानी होगी। हम जरूर मानेंगे आपका फैसला, चाहे वह किसी के पक्ष में हो! भगवान की कृपा से हम सबकी समझ में सब बातें आ गई हैं! तभी अदालत को ठुकरा कर आपके पास आए हैं।'
अपने साथ लाए सारे कागजात उन्होंने रमेश के हाथ में रख दिए। एक नाले के संबंध में उन दोनों का झगड़ा था। सुबह न्याय सुनने आने को कह कर, दोनों ही चले गए। रमेश अभिभूत बैठा रहा। उसे आशा भी न थी कि इन अशिक्षितों में इतनी सुबुद्धि आ गई है। अब चाहे वे लोग उसका फैसला भले ही न मानें, लेकिन अदालत को ठुकरा कर उनके पास ये लोग आए हैं, यही क्या कम बात है? इसको सोच-सोच कर उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा। वैसे तो मामला बहुत मामूली-सा था, पर उनके इस बुद्धि परिवर्तन ने उसे बड़ा महत्व प्रदान कर दिया और रमेश उसके सहारे स्वदेश के भविष्य की सुहावनी तस्वीर की कल्पना कर, उसमें ही आत्मविभोर हो उठा। सहसा रमा उनके स्मृति पटल पर अनायास ही आ गई। अगर और किसी दिन इस प्रकार उसकी याद आई होती, तो उनका मन गुस्से से अभिभूत हो उठता, पर आज उनका मन अत्यंत शांत रहा। मन ही मन प्रफुल्लित हो बोला - 'काश, तुम यह जान पातीं रमा, कि तुम्हारा विरोध, द्वेष और विष ही आज मेरे लिए अमृत बन उठा है और वही मेरे जीवन की धारा को बदल कर, मेरे सारे स्वप्नों को सार्थक बना देगा तो विश्वास करता हूँ कि तुम कभी मुझे जेल न भेजना चाहतीं!'
'कौन है?' आहट पा कर उन्होंने पूछा।
'मैं हूँ राधा, छोटे बाबू, रमा बहन ने आपसे कहलाया है कि वे जाते वक्त आपसे मिल कर जाना चाहती हैं!'
रमेश सुन कर विस्मय में पड़ गया। रमेश को मिलने के लिए बुलाने को रमा ने दासी भेजी है? आज यह कैसी-कैसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटित हो रही हैं?
'अगर एक बार आप दया करें, छोटे बाबू!'
'है कहाँ, वह?'
'घर ही में पड़ी हैं।' - थोड़ी देर रुक कर उसने कहा - 'फिर कल शायद समय न मिल सके, इसलिए इसी समय हो सके, तो बहुत अच्छा हो!'
रमेश उठ कर खड़े होते हुए बोला - 'चलो, चलता हूँ।'
रमा भी रमेश को बुला कर, उनके आने की आशा व प्रतीक्षा में तैयार थी। दासी ने रमेश को कमरे में चले जाने को कह दिया। वह कमरे में घुस कर एक कुर्सी पर बैठा ही था कि रमा आ कर उसके पैरों पर झुक गई। एक ओर कोने में दीए की क्षीण लौ टिमटिमा रही थी। रमेश उसकी मंद रोशनी में रमा के क्षीण शरीर को अच्छी तरह न देख सका। उससे कहने की बातें, जो उसने रास्ते में आते समय सोची थीं, सब क्षण भर में हवा हो गईं और अत्यंत स्नेहसिक्त कोमल स्वर में वे बोले - 'कैसी तबियत है, रानी?'
रमा उठ कर पैरों के पास ही सीधी हो कर बैठ गई, बोली -'मुझे आप रमा ही पुकारा करें!'
रमेश को जैसे किसी ने ठोकर मार दी हो, थोड़ा सूखे स्वर में कहा उन्होंने - 'जैसी तुम्हारी मर्जी! तुम्हारी बीमारी की बात सुनी थी मैंने, तभी पूछा था कि अब कैसी है तबीयत! नहीं तो, न मैं चाहता ही हूँ और न मेरी इच्छा ही होती है तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारने की, फिर चाहे वह रमा हो या रानी!'
रमा थोड़ी देर तक मौन बैठी रही, फिर बोली - 'ठीक ही हूँ। मेरे बुलाने पर आपको विस्मय तो जरूर ही हुआ होगा!'
बीच ही में रमेश ने तीव्र स्वर में कहा - 'विस्मय तो बिलकुल नहीं हुआ -क्योंकि अब मुझे तुम्हारे किसी काम से ताज्जुब नहीं होता! बोलो, किसलिए बुलवाया है?'
रमेश अनभिज्ञ रहे कि उनके इस वाक्य ने रमा के अंतर को विदीर्ण कर दिया। थोड़ी देर तक वह सिर झुका कर शांत बैठी रही। फिर बोली - 'मैंने आपको बहुत कष्ट दिया है! आपके सामने मैं कितनी बड़ी अपराधिनी हूँ - यह तो मैं खूब जानती हूँ। पर मुझे यह विश्वास था कि आप आएँगे अवश्य, और मेरे दो अंतिम अनुरोधों को भी अवश्य मानेंगे, रमेश भैया! मेरे दो अनुरोध हैं आपसे - उन्हीं के लिए मैंने आपको कष्ट दिया है।'
कहते-कहते आँसुओं से उसका गला भर उठा, और बातचीत वहीं रुक गई। रमेश का दबा प्रेम भी उमड़ पड़ा। उसे यह देख कर कि इतने थपेड़े खा कर भी वह प्रेम अक्षुण्ण रहा है, बड़ा आश्चर्यानंद हुआ। थोड़ी देर तक शांत बैठे रहने के बाद उसने पूछा - 'बोलो! सुनूँ तो, क्या हैं तुम्हारे अनुरोध!'
रमा का सिर एक बार ऊपर उठ कर फिर नीचा हो गया। बोली - 'आपकी सहायता से बड़े भैया जिस जायदाद को हथियाना चाहते थे, उसमें पंद्रह आना हिस्सा मेरा है और एक आने में आप लोग! मैं उसे आपको सौंप जाना चाहती हूँ।'
रमेश ने कड़े स्वर में कहा - 'न मैंने पहले ही कभी, चोरी में किसी की सहायता की है और न अब ही करने का इरादा है! तुम निश्चिंत रहो! तुम्हारा इरादा अगर उसे दान करने का ही है, तो मैं तो तुम जानती हो कि दान लेता नहीं! और भी तो बहुत-से लोग हैं, जिन्हें दान कर सकती हो!'
और कोई समय होता, तो रमा यह कहने में न चूकती कि घोषाल परिवार को शर्म किस बात की है, मुकर्जी परिवार का दान लेने में? लेकिन आज इतनी कटु बात कहने को उसका मुँह नहीं खुला। उसने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा - 'मैं खूब जानती हूँ कि आप अपने लिए दान नहीं लेंगे और लेंगे तो औरों की भलाई के लिए ही! चोरी में सहायता भी आप न देंगे। लेकिन मेरे अपराधों के दण्डस्वरूप जुर्माने के रूप में ही स्वीकार कर लीजिए उसे!'
थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद रमेश ने पूछा कि उसका दूसरा अनुरोध क्या है?
रमा बोली - 'मेरा दूसरा अनुरोध है कि आप यतींद्र को अपने साथ रखें! मैं उसे आपको सौंप जाना चाहती हूँ - जैसे आप हैं, उसे भी वैसा ही बनाइएगा, ताकि बड़ा होने पर वह भी आपकी ही तरह त्यागी बन सके!'
रमेश का दिल पिघल गया। अपने आँसू पोंछते हुए रमा आगे बोली - 'भले ही मुझे वह दिन देखने को मिले, लेकिन मैं यह विश्वास के साथ जानती हूँ कि उसकी धमनियों में उसके पूर्व पुरुषों का जो रक्त है - उससे वह शिक्षा और आपका साथ पा कर, निश्चय ही आपके समान विशाल हृदय का मनुष्य बन सकेगा!'
रमेश निरुत्तर रहा। बाहर आसमान पर स्वच्छ चाँदनी बिखरी थी, वह उसी तरफ खिड़की से देखता रहा। उसका मन प्रेम-व्यथा से भर उठा था। ऐसा तो पहले कभी उसने अनुभव न किया था! काफी देर तक चुप बैठे रहने के बाद वह बोले - 'क्यों घसीटती हो मुझे इन सबमें? बड़ी मुश्किल के बाद तो एक सफलता प्राप्त कर सका हूँ। मुझे डर है कि इससे कहीं वह फिर नष्ट न हो जाए!'
'डर की अब गुंजाइश नहीं, रमेश भैया! आपके परिश्रम से जो सफलता आज मिली है, वह कभी नष्ट न होगी! एक दिन कहा था ताई जी ने आपसे कि ऊँचाई से आ कर, ऊँचे आसमान पर बैठ कर, देहाती समाज में घुलने-मिलने के बजाय उससे अपना अस्तित्व पृथक रख कर आपने काम शुरू किया था, उसी कारण इतनी बाधाएँ और विघ्न आपको उठाने पड़े! हम लोगों ने अपने बुरे कामों से आपको नीचे गिरा कर, उचित स्थान पर ला कर खड़ा कर दिया, जहाँ से आपके द्वारा जलाई गई लौ निरंतर प्रकाशवान ही होती जाएगी!'
ताई जी का नाम सुन कर रमेश की आँखें चमक उठीं, बोले - 'रमा! क्या तुम्हारा कहना ठीक होगा? क्या मेरी जलाई लौ कभी न बुझेगी?'
'मैं निश्चयपूर्वक कह सकती हूँ, रमेश भैया! ताई जी भविष्य-ज्ञाता हैं। उन्हीं की भविष्यवाणी है। मेरी अंतिम अभिलाषा है, रमेश भैया, कि आप अपने यतींद्र का हाथ पकड़ कर, अपनी रमा को क्षमा कर, चलते समय आशीर्वाद दे कर विदा कर दें, ताकि अपनी सारी व्यथा से मुक्ति पा और निश्चिंत हो कर, इस संसार से अपना जीवन पूरा कर सकूँ!'
रमेश के अंतर में प्रकाश की एक किरण-सी फूट पड़ी। सिर नीचा किए चुपचाप बैठे रमा की बातों को हृदयंगम करता रहा।
'एक बात और भी माननी होगी आपको मेरी! वचन दीजिए कि मानेंगे!' -रमा ने कहा।
रमेश ने नम्र स्वर में कहा - 'कौन-सी बात है वह?'
'बड़े भैया से आप मेरी कोई बात लेकर कभी झगड़ा न करना!'
रमेश रमा का मंतव्य न समझ सके, पूछा - 'तुम्हारा मतलब?'
'जब कभी समझ सको, इसका मतलब तब यह याद कर लेना कि मैं अपनी व्यथा में जलती हुई, मूक रह कर सब कुछ सहती चली गई। एक दिन जब यह सब कुछ मेरी सहन शक्ति से बाहर हो रहा था, तब ताई जी ने मुझसे कहा कि बेटी, झूठ को जितना कुरेदा जाता है, वह उतना ही भयंकर रूप धारण करता है; और स्वयं एक बहुत बड़ा पाप है, अपने लिए। उनके इसी उपेदश को शिरोधार्य कर, अपनी सारी व्यथा को कलेजे में दबाए, उससे स्वयं ही जलती हुई अब तक दिन काटती आई हूँ। तुम भी याद रखना रमेश भैया, इस बात को!'
रमेश शांत भाव से रमा की तरफ देखता रहा।
थोड़ी देर बाद वह फिर बोली - 'हो सकता है कि आज तुम मुझे क्षमा न कर सको! रमेश भैया, इस बात का खयाल कर अपने दिल में दुखी भी मत होना; क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन तुम्हारे अंत:करण का आशीर्वाद मुझे प्राप्त होगा ही! तभी मेरा मन आज पूर्ण रूप से शांत है। तुम निश्चय ही मेरे सारे अपराधों को क्षमा करोगे! मैं कल जा रही हूँ, रमेश भैया?'
रमेश ने चौंक कर पूछा - 'कहाँ?'
'वहीं, जहाँ ताई जी ले जाएँगी।'
'पर वे तो लौट कर नहीं आएँगी शायद!'
'तो मैं भी नहीं आऊँगी! मैं तुम्हारे चरणों की धूलि अब अंतिम बार लेती हूँ।'
कह कर रमा ने रमेश के पैरों पर अपना सिर टेक दिया। रमेश ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा और उठ कर खड़े होते हुए कहा - 'जाओ! पर क्या मुझे इतना भी न बताओगी कि मुझे छोड़ कर इस तरह क्यों चली जा रही हो?'
रमा ने कोई उत्तर न दिया।
'तुम अपनी सारी बातें मुझसे गोपनीय रख कर क्यों जा रही हो, रमा? मैं नहीं जानता - क्या है इसका कारण? मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि मुझे वह दिन दिखा दे जल्दी से कि जब मैं तुम्हें अपने सारे अंत:करण से क्षमा कर सकूँ। कितना कष्ट हो रहा है, तुम्हें क्षमा न कर सकने के कारण, यह मैं ही जानता हूँ।'
रमा की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली, मंद प्रकाश होने के कारण उस पर रमेश की निगाह न पड़ सकी।
रमा ने फिर एक बार रमेश को प्रणाम किया और रमेश वहाँ से चला गया। रास्ते में उसे अपना सारा उत्साह तिरोहित-सा होता प्रतीत हुआ।
दूसरे दिन सबेरे रमेश जब विश्वेश्वरी के घर, उनके अंतिम दर्शन करने को गया, तो वे उस समय जाने को पालकी में बैठ रही थीं। रमेश ने आँखों में आँसू भर कर पास आ कर कहा - 'हमारे किस अपराध के दण्ड में, हम सबको इतनी जल्दी छोड़ कर जा रही हो, ताई जी?'
अपना दाहिना हाथ रमेश के सिर पर रखते हुए उन्होंने कहा - 'अपराध की बात मत पूछ, बेटा! उसे कहने लगूँगी, तो वह खतम न होगी। यहाँ मरने पर, वेणी के हाथ से अपना अंतिम संस्कार मैं नहीं कराना चाहती। उसके हाथ से मेरी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। इस लोक का जीवन तो व्यथा में मन जलते -जलते बीता ही है बेटा! परलोक में शांति से जीवन बिताने की साध में यहाँ से भाग कर जा रही हूँ मैं!'
रमेश स्वब्ध खड़ा रहा। विश्वेश्वरी के हृदय की व्यथा को रमेश ने आज से पहले कभी इतना स्पष्ट रूप से न जाना था और न समझा ही था। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद पूछा - 'क्या रमा भी जा रही है, ताई जी?'
एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ कर विश्वेश्वरी ने उत्तर दिया - 'अब उसके लिए संसार में भगवान के चरणों के सिवा कोई स्थान नहीं रहा है, तभी भगवान के चरणों में इसे ले जा रही हूँ। कहा नहीं जा सकता कि वहाँ पहुँचने पर वह जीवित भी रहेगी या नहीं! यदि जीवित रह सकी, तो उससे मैं यही अनुरोध करूँगी कि वह शेष जीवन यही जानने का प्रयास करे कि भगवान ने क्यों तो उसे इतना रूपवान और गुणवान बना कर संसार में भेजा और फिर क्यों उसे संसार से अपने हृदय पर व्यथा का भार लेकर, उसमें जलने को दूर फेंक दिया? इसमें भगवान का कोई अदृश्य अभिप्राय है या फिर हमारे समाज की ही विडंबना इसका कारण है? बेटा रमेश, वह तो संसार में सबसे बड़ी दुखिया है!'
कहते-कहते विश्वेश्वरी का गला भर आया। इतना व्यग्र और विकल आज तक कभी किसी ने उन्हें नहीं देखा था। रमेश स्तम्भित खड़ा रहा।
थोड़ी देर बाद विश्वेश्वरी फिर बोलीं - 'रमेश बेटा, मेरी एक बात मानना कि कभी उसे गलत मत समझना! मैं नहीं चाहती कि चलते-चलते किसी को दोषी कहूँ, पर इतना तुमसे जरूर कहती हूँ - मेरा विश्वास करो कि संसार में उससे बढ़ कर तुम्हारा हित चिंतक और कोई नहीं!'
'पर ताई जी...'
बीच में ही रमेश की बात काटते हुए विश्वेश्वरी ने कहा - 'पर-वर कुछ नहीं, रमेश! तुमने जो कुछ जाना, सुना या समझा है सब एकदम झूठ है! लेकिन अब इसका वितंडा खड़ा करने की जरूरत नहीं। उसकी भी यही अंतिम अभिलाषा है कि तुम जीवन भर इसी तरह पूरे उत्साह के साथ, द्वेष, मिथ्याभिमान और हिंसादि से परे रह कर अपने सुकार्य में रत रहो! इसलिए उसने अपने को अंदर-ही-अंदर जलाते हुए भी, सब कुछ सहन किया है। उसको जान का खतरा हो गया, फिर भी उसकी जुबान से न निकला!'
तभी रमेश के स्मृति-पटल पर, कल रात को रमा द्वारा कही गई बातें भी ताजी हो गईं और उनके होंठ रुदनावेग से कांप उठे । सिर नीचा कर पूरी शक्ति से अपने को स्थिर रखकर उन्होंने कहा 'ताईजी, उसे मेरी तरफ से विश्वास दिला दीजिएगा, कि मैं उसकी अभिलाषा अवश्य पूरी करूंगा!'
हाथ बढ़ाकर उन्होंने ताईजी की चरण-रज माथे पर लगाई और जल्दी से बाहर चले गए।
(शरतचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित उपन्यास “देहाती समाज” समाप्त)