देहाती समाज (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Dehati Samaj (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अध्याय 11

दो दिनों से बराबर पानी बरस रहा था, आज कहीं जा कर थोड़े बादल फटे। चंडी मंडप में गोपाल सरकार और रमेश दोनों बैठे जमींदारी का हिसाब-किताब देख रहे थे कि सहसा करीब बीस किसान रोते-बिलखते आ कर बोले - 'छोटे बाबू, हमारी जान बचा लो, नहीं तो गली-गली भीख माँगनी पड़ेगी! बाल-बच्चे दर-दर की ठोकरें खाएँगे।'

रमेश ने स्तब्ध हो कर पूछा - 'मामला क्या है?'

'हमारी सौ बीघे जमीन में पानी भर गया है। यदि पानी न निकला, तो सारा धान सड़ जाएगे और गाँव-का-गाँव भूखा मर जाएगा!'

रमेश की समझ में कुछ नहीं आया, तब सरकार जी ने किसानों से एक के बाद एक विस्तार से सारा मामला पूछ कर रमेश को समझा दिया। इन्हीं सौ बीघों पर सारे गाँव की आस लगी थी। गाँव के सभी किसानों की कुछ-न-कुछ जमीन इस हिस्से में पड़ती है। इस जमीन के पूरब में सरकारी बाँध है, और उत्तर-पश्‍चिम में ऊँचा बसा गाँव और दक्षिण की तरफ एक बाँध है, जिसके मालिक हैं मुकर्जी और घोषाल परिवार। इसी तरफ से खेतों का पानी बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन उस बाँध के करीब, इन्हीं दोनों परिवारों का एक तालाब है, जिसमें से हर वर्ष लगभग दो सौ मछलियाँ निकाली जाती हैं। ये किसान आज सबेरे से ही बाँध पर धारना दिए बैठे थे। वेणी बाबू ने भी सवेरे से ही बाँध पर पहरा लगा रक्खा है। ये सब अभी-अभी वहीं से उठ कर रोते हुए आए हैं, रमेश भैया से अपनी फरियाद करने।'

रमेश को अब और कुछ सुनने की जरूरत न थी। वह सीधे उठा और वेणी के घर की तरफ चल दिए। जब वहाँ पहुँचा, जो शाम हो चुकी थी। वेणी बाबू मसनद के सहारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उनके पास ही हालदार बैठे, संभवतः इसी विषय की चर्चा कर रहे थे।

रमेश ने बिना कुछ भूमिका बाँधे कहा - 'अब बाँध बिना तोड़े काम नहीं चलने का। उसे तोड़ना ही होगा!'

वेणी ने हुक्का हालदार के हाथ में देते हुए पूछा - 'किस बाँध के बारे में कह रहे हो?'

रमेश आवेश में तो था ही, वेणी की इस अन्यमनस्कता ने उसे और भी तीखा कर दिया - 'ऐसे कितने बाँध हैं आपके तालाब के, तो आप समझ नहीं पा रहे हैं! वेणी भैया, अगर यह बाँध न काटा गया, तो सारा धान सड़ जाएगा। कृपया आप उसे काट देने की इजाजत दे दीजिए!'

'और बाँध टूटने के साथ ही हमारी दो-तीन सौ की मछलियाँ जो बह जाएँगी, उसका नुकसान कौन देगा - तुम या तुम्हारे किसान?'

'किसान तो बेचारे दे ही क्या सकेंगे; और मैं दूँ - यह मेरी समझ में नहीं आता!'

'तो फिर बाँध काट कर अपना नुकसान करूँ? यह बात मेरी भी समझ में नहीं आती! हालदार चाचा, अब तुम्हीं देख लो हमारे छोटे भाई साहब इसी तरह चलाएँगे जमींदारी! रमेश! वे ससुरे सब-के-सब यहाँ रो रहे थे; और जब यहाँ कुछ बस नहीं चला, तब तुम्हारे यहाँ जा पहुँचे। मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे यहाँ दरवाजे पर कोई चौकीदार नहीं या उसके पैर में जूता नहीं, जो वे इस तरह अंदर घुस गए! घर जा कर इसका प्रबंध करो। तुम पानी की फिकर मत करो, वह आप ही निकल जाएगा!'

वेणी बाबू अपनी बात पूरी कर, अपने आप ही ठहाका मार कर हँस दिए, और हालदार ने भी उनका साथ दिया। बात रमेश के सब्र के बाहर हुई जा रही थी, पर अपने को किसी कदर संयत करके विनीत स्वर में बोला - 'बड़े भैया, जरा सोचिए तो - हमारा दो सौ का ही नुकसान हो गया, पर इन गरीबों का तो सारा अनाज मारा जाएगा। करीब पाँच-सात हजार का नुकसान हो जाएगा बेचारों का!'

'हो तो उससे हमें क्या मतलब? चाहे पाँच हजार का हो, चाहे पचास हजार का, हमारी बला से! मैं क्यों उन सालों के लिए दो सौ का नुकसान सहूँ?'

'फिर ये लोग खाएँगे क्या, साल भर तक!'

रमेश की इस बात पर वेणी बाबू फिर एक बार खूब जोर से, अपने सारे बदन को हिलाते हुए हँसे, और फिर खाँस-खँखारकर सुस्थिर हो बोले - 'पूछते हो, खाएँगे क्या? देखना, साले अभी हमारे पास दौड़ कर आएँगे, जमीन गिरवी रख कर उधार लेने! रमेश, जरा ठण्डे दिमाग से काम लो! हमारे बुजुर्ग इसी तरह राई-राई कर हमारे लिए कुछ जुटा कर रख गए हैं, और हमें भी उन्हीं की तरह बहुत समझ-बूझ कर, खा-पी कर भी कुछ और जोड़ कर, अपने बच्चों के लिए छोड़ जाना है।'

रमेश का अंतर क्षोभ, लज्जा और घृणा से विदीर्ण हो उठा। फिर भी उसने संयत स्वर में कहा - 'जब आपने फैसला ही कर लिया है, तो और कुछ कहना ही बेकार है! जाता हूँ, रमा से कहूँगा! अगर वह मान गई, तो फिर आप मानें या न मानें, उससे क्या होता है?'

वेणी का चेहरा गंभीर हो उठा और उन्होंने कहा - 'जाओ, कह देखो - उससे भी! जो मेरी राय है, सो उसकी होगी, और फिर वह ऐसी-वैसी लड़की नहीं, जो तुम्हारे चरके में आ जाए! उसने तो तुम्हारे बाप की नाक में दम कर दिया था। फिर तुम तो लड़के हो!'

रमेश इस अपमान की बात को सुन कर वहाँ और न ठहर सका और बिना कुछ उत्तर दिए चला गया।

जब वह रमा के यहाँ पहुँचा, उस समय रमा तुलसी चौके के आगे दीपक जला कर, प्रणाम करके खड़ी थी। उसे आया देख कर वह दंग रह गई। उसका आँचल गले से लिपटा हुआ था, और उसकी मुद्रा ऐसी थी मानो रमेश को ही प्रणाम कर रही हो। रमेश को उस समय यह भी याद न रहा, कि कभी मौसी ने उसे यहाँ आने को मना कर दिया था। वह धड़धड़ाता हुआ सीधे अंदर घुसा चला गया था। जब रमा को उस अवस्था में देख कर चुपचाप खड़ा रहा। करीब एक महीने के बाद, उन दोनों की आज भेंट हुई थी।

'तुमने बातें तो सब सुन ही ली होंगी! मैं बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकालने के लिए तुमसे पूछने आया हूँ।'

रमा ने आँचल सिर पर सम्हालते हुए कहा -'बड़े भैया की तो इसमें राय नहीं है, फिर भला कैसे हो सकता है?'

'उनकी राय नहीं है, मुझे मालूम है! पर अकेले उनकी राय नहीं हो, तो उससे क्या?' थोड़ी देर चुप रह कर रमा ने कहा - 'माना कि आपका कहना ठीक है कि बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकाल देना ही इस समय उचित है! पर ताल की मछलियाँ कैसे रोकी जा सकेंगी?'

'वे तो नहीं रोकी जा सकेंगी इतने पानी में! उनका नुकसान तो सहना ही होगा हम लोगों को नहीं सहेंगे, तो सारा गाँव भूखों मर जाएगा।'

रमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। रमेश ने ही कहा - 'तो फिर तुम्हारी स्वीकृति है न?' रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'नहीं, मैं नहीं सह सकती, इतने रुपयों का नुकसान!'

रमेश को न जाने कैसे यह विश्‍वास था, कि रमा उसके कहने को कभी नहीं टालेगी! पर आशा के विपरीत यह उत्तर सुन, वह अवाक खड़ा रहा। रमा ने भी उसकी इस मनोदशा का अनुभव किया और कहा - 'यह जायदाद मेरी तो है नहीं, मेरे छोटे भाई की है! मैं सिर्फ उसकी तरफ से देखभाल करती हूँ।'

'इसमें तुम्हारा भी तो हिस्सा है!'

'वह तो सिर्फ नाम के लिए! पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि अंत में सारी जायदाद यतींद्र को ही मिलेगी।'

रमेश ने सानुग्रह कहा - 'रमा, हम सब में तुम्हारी अवस्था अच्छी मानी जाती है। थोड़े-से रुपयों की तो बात ही है! मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ, रमा! इन गरीब किसानों पर दया करो, वे भूखों मर जाएँगे! मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि तुम इतनी कठोर हो सकती हो!'

रमा ने सुकोमल किंतु दृढ़ स्वर में कहा - 'इतना नुकसान सहना मेरे काबू के बाहर है, और इसके लिए अगर आप मुझे कठोर कहते हैं तो कोई बात नहीं! मैं कठोर ही सही! और फिर आप ही क्यों नहीं सह लेते यह नुकसान?'

रमा के कोमल स्वर में भी कितना व्यंग्य छिपा था, इसका अनुभव कर, व्यथा की अग्नि से रमेश का अंतर जल उठा। वह बोला - 'आदमी की आदमियत तभी कसौटी पर कसी जाती है, जब वह रुपए के संपर्क में आता है! यहीं मनुष्य की असलियत खुल गई है! मेरी निगाहों में तो तुम - आज से पहले सदैव - बहुत ही ऊँची थीं; पर आज तुम मेरी नजर में वह न रहीं, जो पहले थीं! आज मैंने जाना कि तुम सिर्फ कठोर ही नहीं हो, बल्कि नीयत की भी ओछी हो!'

रमा का भी सारा हृदय व्यथा से विदीर्ण हो उठा। उसने रमेश की तरफ विस्फरित नेत्रों से देख कर कहा - 'क्या कहूँ अब मैं?'

'रमा, तुम्हारी कितनी ओछी नीयत है कि तुमने मुझे इस मामले में इतना व्यग्र देख कर, मुझसे पूरा नुकसान उठाने की बात कही! पुरुष होने पर भी, बड़े भैया के मुँह से ऐसी ओछी बात न निकल सकी, जो एक स्त्री होते हुए तुम्हारे मुँह से निकल सकी! नुकसान तो मैं इससे भी अधिक सह सकता हूँ। पर रमा, मेरी एक बात याद रखना कि दुनिया में किसी की दया से अपना स्वार्थ पूरा करने से बड़ा और कोई पाप नहीं! आज तुमने वही किया है!'

रमा स्तब्ध -विस्फरित नेत्रों से देखती की देखती रह गई, एक शब्द भी न निकला उसके मुँह से। रमेश ने शांत, संयत, दृढ़ स्वर में फिर कहा - 'रमा इस तरह तुम मुझसे नुकसान पूरा नहीं करा सकतीं और न बाँध तोड़ने से ही रोक सकती हो! मैं जाता हूँ अभी और जा कर बाँध तोड़ दूँगा! जो हो सके तुम लोगों से, वह कर लेना!' रमेश यह कह कर आगे बढ़ गया। रमा ने विह्नल हो कर पुकारा। वह लौट आया। रमा ने कहा - 'आपने मेरे घर में ही खड़े हो कर मेरा अपमान किया है - इसके संबंध में तो मैं आपसे कुछ नहीं कहती, पर आपको यह बताए देती हूँ कि आप बाँध तोड़ने की कोशिश किसी तरह भी न करें!'

'क्यों?'

'इसलिए कि मैं आपसे झगड़ा नहीं करना चाहती!'

रमेश ने अँधेरा होते हुए भी, इस वाक्य को कहते-कहते रमा के सफेद होते हुए चेहरे और काँपते हुए होंठों को देखा। पर उस समय उसके पास किसी का मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण करने का न तो समय ही था और न इच्छा। इसलिए बोला - 'मैं भी नहीं चाहता झगड़ा करना, लेकिन मेरे निकट तुम्हारे इस भाव की कोई कद्र नहीं, मैं जानता हूँ। व्यर्थ की बातों के लिए मेरे पास समय नहीं!' मौसी उस समय ठाकुर जी के कमरे में थीं, तभी उन्हें इन सब बातों का पता नहीं चला। जब वह नीचे आईं, तो उन्होंने देखा कि दासी के साथ रमा बाहर जा रही है। मौसी ने विस्मित हो पूछा - 'रमा! आँधी-मेह की रात में कहाँ चली?'

'बड़े भैया के यहाँ जा रही हूँ जरा?'

'मौसी, छोटे बाबू की कृपा से, रास्ता तो ऐसा बन गया है कि कहीं कीचड़ का नाम तक नहीं! अगर कहीं सिंदूर भी गिर जाए, तो उठा लो। भगवान, उनकी बड़ी उमर करे!' दासी बोली।

करीब ग्यारह बजे थे रात के। वेणी के चंडी मंडप में बहुत-से लोग आपस में बातें कर रहे थे। आकाश भी बादलों से साफ हो गया था और चंद्रमा की ज्योत्स्ना बरामदे में छिटक रही थी। वहीं एक खंबे के सहारे, एक अधेड़ मुसलमान आँखें बंद किए बैठा था। अजीब भीषण काया थी उसकी। उसके मुँह पर ताजा खून के छींटे थे और कपड़े भी खून से तर हो रहे थे। वह शांत-नि:शब्द बैठा था। वेणी उससे धीरे-धीरे विनीत स्वर में कह रहे थे -'अकबर, देखो बात मान लो मेरी, थाने चले चलो! सात बरस से कम को जेल न भेजा, तो घोषाल वंश का नहीं!' और पीछे रमा की तरफ मुड़ कर कहा - 'रमा, तुम समझाओ न इसे, चुप क्यों हो?'

रमा नि:शब्द रही। अकबर अली ने आँखें खोल कर सीधे बैठ कर कहा -'वाह, छोटे बाबू को मान गया, उन्होंने पिया है अपनी माँ का दूध! खूब चलाना जानते हैं लाठी!'

वेणी ने थोड़ा तेवर चढ़ा कर कहा - 'बस, यही कहने को तो मैं तुमसे कह रहा हूँ, अकबर! तुम उस लौंडे की लाठी से जख्मी हुए न, या उस पछइयाँ की लाठी से?'

अकबर के होंठों पर गर्व भरी मुस्कराहट खेल उठी। उसने कहा - 'वह साला ठिगना पछइयाँ लाठी चलाना क्या जाने! वह तो गौहर की पहली चोट से ही बैठ गया था। क्यों गौहर, ठीक है न!'

अकबर के दो लड़के थोड़ी दूर सहमे-सिकुड़े बैठे थे। वे भी आहत थे। गौहर ने सिर हिला कर अकबर की बात का समर्थन कर दिया, मुँह से कुछ नहीं बोला, अकबर फिर कहने लगा - 'मेरे हाथ की चोट खा कर तो साले की जान ही निकल जाती! उसका कचूमर तो गौहर की लाठी ने ही निकाल दिया!'

रमा भी उन लोगों के पास आ कर खड़ी हो गई। अकबर पीरपुर गाँव की उनकी जमींदार में बसता था। उसकी लाठी के जोर ने इन लोगों की बहुत -सी जायदाद पर कब्जा दिला दिया था। रमेश की बात के अपमानित हो कर, रमा ने उसे बुलावा दे कर बाँध पर पहरा देने को भेजा था। पर रमा की इच्छा थी, कि एक बार देखें कि रमेश उस पछइयाँ नौकर के बल पर क्या करते हैं; लेकिन उसे यह आशा न थी कि रमेश खुद भी जबरदस्त लठैत है।

रमा की तरफ देखते हुए अकबर ने कहा - 'रमा, जब वह साला गिर गया, तब छोटे बाबू ने उसकी लाठी उठा ली और फिर खुद जा कर बाँध रोक कर खड़े हो गए, और हम तीनों बाप-बेटों से हटाए भी न हटे। उस वक्त अँधेरे में भी उनकी आँखें चमक रही थीं। उन्होंने कहा था - अकबर, तुम बुङ्ढे ठहरे! अगर बाँध न काटा जाए, तो गाँव भर के आदमी भूखे मर जाएँगे, और उसमें तुम भी नहीं बचोगे! मैंने भी अदब से झुक कर सलाम करके कहा था -'बस, एक बार हट आओ छोटे बाबू -रास्ते से; फिर जरा देख लूँ इन लोगों को, जो तुम्हारे पीछे खड़े बाँध काट रहे हैं!'

वेणी आवेश में आ कर बीच में ही चिल्ला पड़े - 'बेईमान कहीं का! उसे ही सलाम झुका कर, यहाँ डींग मार रहा है?'

वेणी बाबू के इतना कहते ही तीनों बाप-बेटों के हाथ उठ गए। अबकर ने तीखे स्वर में कहा - 'होश में रहो बड़े बाबू, हम मुसलमान हैं। बेईमान मत कहना हमें! हम सब सह सकते हैं, बस यही नहीं सह सकते!' और माथे का खून पोंछ कर रमा की तरफ देखते हुए बोला - 'मालकिन, घर में बैठ कर बड़े बाबू मुझे बेईमान कहते हैं, वहाँ होते तो देखते - क्या हस्ती है छोटे बाबू की!'

मुँह बिचका कर वेणी ने कहा - 'तो फिर थाने ही चल कर बताओ न कि क्या है उसकी हस्ती! कहना कि हम बाँध कर खड़े पहरा दे रहे थे कि छोटे बाबू हम पर चढ़ आए और हमको उन्होंने मारा।'

अकबर ने जीभ दबा कर तोबा करते हुए कहा - 'आप तो रात को, दिन बताने के लिए मुझसे कहते हैं, बड़े बाबू! यह भला कैसे हो सकता है?'

'तो फिर और कुछ कह देना! पर जा कर घाव तो दिखला आओ अपने! कल ही वारंट निकलवा कर थाने में बंद करवा दूँगा उसे। जरा तुम भी समझाओ न इसे रमा! ऐसा अच्छा मौका फिर कभी हाथ न लगेगा!'

रमा से एक शब्द भी न बोला गया। उसने सिर्फ एक बार अकबर की तरह देख भर लिया।

'यह न होगा मुझसे, मालकिन!'

वेणी बाबू ने डपट कर कहा - 'क्यों नहीं होगा?'

अकबर ने भी तीव्र स्वर में कहा - 'क्या कहते हैं यह बाप बड़े बाबू! क्या मुझे जरा भी हया-शर्म नहीं है! मुझे चार गाँव के लोग सरदार कहते हैं। मालकिन, आप चाहें तो मैं जेल जा सकता हूँ, लेकिन फरियाद नहीं कर सकता!'

अब रमा ने कोमल स्वर में उससे पूछा -'अकबर, क्या एक बार भी थाने नहीं जा सकोगे?'

अकबर ने सिर हिलाते हुए, दृढ़ स्वर में कहा - 'नहीं! किसी तरह भी शहर जा कर अपने बदन के घाव नहीं दिखा सकता। चलो गौहर, चलें! फरियाद न बन सकेंगे हम लोग!'

और वे लोग जाने को उद्यत हो गए! वेणी क्रोध से आँखें लाल-पीली कर, मन-ही-मन बुरी-बुरी गालियाँ बकने लगे और रमा की इस असमर्थता की चुप्पी से जल कर खाक हुए जा रहे थे। जब उसकी कोई तरकीब अकबर और उनके लड़कों को न रोक सकी, तब रमा के अंतरतम से एक ठण्डी आह निकल पड़ी और आँखों में अनायास की आँसू छलछला आए। इतनी बड़ी पराजय, अपमान और नाकामयाबी मिलने पर भी, मानो उसके हृदय-पुट से एक बहुत पड़ा भार हट गया। इसका कारण वह अंत तक न जान सकी। उसकी सारी रात जागते ही कटी। रह -रह कर उसकी आँखों के सामने वही दृश्य घूमने लगा, जब उसने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया था। और जैसे-जैसे वह रमेश के कोमल स्वभाव, बल और क्षमता की कल्पना करती गई, त्यों-त्यों उसकी आँखों से और भी आँसू बहते गए।

अध्याय 12

हालाँकि उस प्यार में कोई गंभीरता न थी - लड़कपन था, पर रमेश को रमा से अपने बचपन में अत्यंत गहरा प्रेम था, जिसकी गहराई का अनुभव सर्वप्रथम उन्होंने तारकेश्‍वर में किया था। पर उस शाम को रमेश अपने सारे लगाव तोड़कर रमा के घर से चला आया था, और तब से रमा के घर की दिशा भी उनको बालू की तरह नीरस और दहकती माया-सी जान पड़ने लगी। लेकिन उनकी आशा के विपरीत उनका सोना-जगना, खाना-पीना, उठना-बैठना, पढ़ना, काम-धंधा, सारा-का-सारा जीवन ही नीरस हो उठा था। तब उन्होंने अनुभव किया कि रमा ने उनके हृदय के कितने गहरे में स्थान बना लिया था। उसका मन अब गाँव से ही उचाट हो गया और वे गाँव छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने का विचार फिर करने लगे। लेकिन सहसा एक घटना हो गई, जिसने उनके उखड़े पैर फिर एक बार को जमा दिए।

ताल के उस पार, वीरपुर गाँव उसी परिवार की जमींदारी में है। अधिकांश आबादी मुसलमान किसानों की है। एक दिन वहाँ के कुछ लोग गुट बाँध कर, रमेश के पास अपनी एक अरज लेकर आए और बोले - 'हम आपकी रिआया है, पर हमारे बच्चों को स्कूल में पढ़ने की इजाजत नहीं, सिर्फ इसलिए कि हम मुसलमान है! हमने कई बार अरज करके देख लिया, पर हमारी कोई नहीं सुनता। मास्टर भरती ही नहीं करते हमारे बच्चों को!'

रमेश को इस पर विस्मय भी हुआ और गुस्सा भी, बोले - 'मेरे तो देखने-सुनने में भी कभी ऐसा अन्याय नहीं आया! मैं चलूँगा, तुम सबके साथ! आज ही अपने लड़कों को ला कर, मेरे सामने स्कूल में भरती करवा दो!'

किसानों ने कहा - 'वैसे तो हम डरनेवाले नहीं! लगान देते हैं, तब खेत जोतते हैं - किसी के एहसान में नहीं रहते! फिर भी यह नहीं चाहते कि नाहक में बात बतंगड़ बने, इससे न हमारा ही फायदा होगा, न और किसी का। हमारी तो मंशा है कि एक स्कूल हमारा भी अलग खुल जाता, तो हम बेखौफ अपने बच्चों को वहाँ तालीम दिला सकते। उसमें हमें आपकी मदद की दरकार है। अगर आपकी मेहरबानी हो जाए तो…।

रमेश भी बेकार की लड़ाई-झगड़ा नहीं चाहते थे। वैसे ही वे इससे आजिज आ गए थे। अतः उनकी राय ही उन्होंने मान ली। जोर-शोर के साथ एक नए स्कूल की नींव पड़ने की तैयारी होने लगी। इन किसानों की संगति और साथ से, रमेश के नीरस जीवन में फिर ताजगी आ गई और उनका हौसला दूना हो गया। उन्हें अपनी शक्ति भी अब बढ़ती मालूम हुई। उन्होंने अनुभव किया कि ये लोग उनके गाँववालों की तरह, बात-बात के लिए झगड़ा नहीं करते। और अगर खुदा न खास्ता झगड़ा हो भी जाता है तो फिर दवा-दरपन अदालत-साखी तक की नौबत नहीं आती, और गाँव के चौधरी की अदालत में ही फैसला हो जाता है। इस गाँव के मुसलमान किसानों के आपसी संबधों से रमेश को जो अनुभव हुआ, वह अपने गाँव के लोगों के अनुभव से विपरीत था। अगर एक पर कोई मुसीबत आ कर पड़ती, तो सारा गाँव, पास-पड़ोस एक हो, मिल कर उसका साथ देता था।

रमेश स्वयं भी जात-पाँत का भेदभाव नहीं मानता था; और जब इन्हें आस -पास के गाँव में ही जात-पाँत के भेद और अभेद की विषमता का अनुभव और जात-पाँत के प्रति उनकी घृणा और भी तीव्र हो उठी। उन्होंने समझा कि आपसी भेदभाव, धर्म-विभेद और जात-पाँत की छुआछूत के आधार पर पैदा हुआ द्वेष भाव हिंदुओं के पतन का मुख्य ही नहीं, बल्कि एकमात्र कारण है! और इसके विपरीत मुसलमानों में जात-पाँत, धर्म आदि का भेदभाव नहीं होता; अभी उनमें भाईचारा, एकता, आपकी सौहार्द् हिंदुओं से कहीं अधिक पाया जाता है। अपने गाँव में आपसी भेदभाव को मिटाना असंभव है। इसी कारण जब तक उनके जात-पाँति के भेदभाव नहीं मिट सकते, तब तक आपस में भाईचारा, आपसी प्रेम और सौहार्द भी पैदा नहीं हो सकता। अतः इस ओर प्रयास करना भी अपनी शक्ति को व्यर्थ खर्च करना है! पिछले वर्षों के अनुभव से रमेश ने यही निष्कर्ष निकाला था और अपने इन वर्षों के व्यर्थ जाने का विचार कर उन्हें बड़ा पछतावा होने लगा था। वैसे उन्हें यह विश्‍वास भी हो चला था, कि इस गाँव के लोगों के जीवन में तो इसी तरह आपसी ईष्या-द्वेष की चक्की में पिसते हुए दिन बिताना लिखा है। इसी तरह इनके दिन कटते आए हैं, कटने जाएँगे। अतः अब अपनी शक्ति दूसरी ओर लगानी ही उचित है। पर ताई जी से इस संबंध में बात कर लेना जरूरी था, और काफी दिन से उनके दर्शन भी करने का अवसर नहीं मिला था - इसी बहाने दर्शन भी हो जाएँगे।

और सबेरे-ही-सबेरे रमेश उनके दरवाजे पर जा पहुँचा। वह ताई जी की बुद्धि पर कितना विश्‍वास करता है, इसका स्वयं भी उसे ज्ञान नहीं था। जब वह वहाँ पहुँचा, तो ताई जी सबेरे के सब जरूरी कार्यों से निवृत्त हो, स्नान-ध्यान कर, अपनी कोठरी में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थीं। उनकी आँखों पर चश्मा था। रमेश को आया देख कर ताई जी को भी विस्मय हुआ। किताब बंद कर, उसे अंदर बुला कर बैठाया और कौतूहलपूर्ण आँखों से उनकी तरफ देखती रहीं। फिर बोलीं - 'कैसे भूल पड़े आज इधर सबेरे ही?'

'आपके दर्शन को! कई दिनों से नहीं आ पाया था न! ताई जी, मैंने वीरपुर गाँव में एक नया स्कूल खोलने का निश्‍चय किया है।'

'सुना तो मैंने भी है; पर आजकल तुम अपने स्कूल में पढ़ाने भी नहीं जाते, सो क्यों?'

'ताई जी! इन लोगों की भलाई के लिए कुछ करना नेकी कर कुएँ में डालना है! ये लोग नहीं बर्दाश्त कर सकते कि किसी की भलाई हो, मदद हो! अहंकार ने इन्हें नितांत अंधा बना दिया है। ऐसे लोगों के लिए मेहनत करना बेकार में अपनी जान खपाना है! ताई जी! और तो और, जो इनकी भलाई करे - उसी से शत्रुता निभाने लग जाते हैं। मैं तो अब उनकी भलाई करूँगा, जिनकी भलाई करने से वास्तव में कुछ लाभ भी हो!'

'रमेश! यह तो संसार का आदि नियम-सा चला आ रहा है। जिसने भलाई करने का बीड़ा उठाया, उसी के शत्रुओं की संख्या का पार नहीं रहा। अगर भलाई करने का बीड़ा उठानेवाला ही इसी डर से अपना रास्ता छोड़ कर हट जाए, तो फिर उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जाए! और न फिर संसार की गति ही चल सकती है। भगवान ने जिनको जीवन में जो भार सौंपा है, उसे तो हर हालत में उठाना ही होगा! उसी तरह यह भार तुम्हारे उठाने का है। इससे तुम मुँह नहीं मोड़ सकते! अच्छा, यह तो बता बेटा! क्या तू उनके हाथ का छुआ पानी भी पीता है?'

रमेश ने मुस्करा कर कहा - 'बस यही बात है? तुम्हारे पास शिकायत आ ही गई न! अभी तो पिया नहीं है उनके हाथ का पानी, पर पीने में भी कोई एतराज नहीं है मुझे! मेरे नजदीक जात-पाँत के भेद-भाव कोई मानी नहीं रखते!!'

विश्‍वेश्‍वरी आश्‍चर्यान्वित हो कर बोलीं - 'नहीं मानते जात-पाँत, क्यों? क्या जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं?'

'मानता हूँ, जाति का अस्तित्व है - आज के समाज में! पर यह भी मानता हूँ - पूरे विश्‍वास के साथ कि यह अच्छा नहीं है! और इस पर तुम्हारी राय पूछने आया हूँ।'

'क्यों?'

रमेश ने आवेश में कहा - 'क्या यह भी तुम्हें बतलाना होगा ताई जी! क्या समाज में द्वेष-भाव, आपसी फूट, मन-मुटाव और तमाम लड़ाई -झगड़ों की जड़ केवल यह जाति भेद ही नहीं है? छोटी-बड़ी जाति और खानदान सारी र्ईष्या की जड़ है! छोटी जाति के कहे जानेवालों के लिए यह नितांत स्वाभाविक है कि वे ऊँची जातिवालों से द्वेष रखें, उनसे बैर करें और अवसर की ताक में रहें उन्हें नीचा दिखानें के लिए। उनके दिल में नीचेपन से निकलने के विद्रोह की भावना हर समय काम करती रहती है। और यही कारण है कि हिंदू जाति दिन-पर-दिन पतन की ओर गिरती जा रही है। उसके माननेवाले, उसे छोड़ कर दूसरे धर्मों को अपनाते जा रहे हैं। अगर ताई जी, तुम्हें जनसंख्या के आँकड़े पढ़ने को मिलते, तो तुम्हारी आँखें खुल जातीं कि कितने हिंदू इसी विषमता के कारण दूसरे धर्मों में चले गए हैं। फिर भी हिंदू जाति के ठेकेदारों को होश नहीं आ रहा है!'

'सच ही तो है! तुमने इतना सारा व्याख्यान दे डाला, पर मुझे ही होश नहीं आया! गणना करनेवाले अगर यह बता सकते कि कितने हिंदू केवल इसी कारण धर्म परिवर्तन के लिए विवश हुए, क्योंकि उन्हें नीच जाति का समझा जा है, तो शायद उन आँकड़ों पर विश्‍वास कर मुझे भी होश आता। बेटा, इसका कारण तो कुछ दूसरा ही है! माना कि यह भी समाज का दोष है, पर यह कारण तो निश्‍चय ही नहीं है कि उसे छोटी जाति का समझा जाता है!'

'ताई जी, यह मेरा ही कहना नहीं है, हमारे पण्डित लोगों का भी यही विश्‍वास है।'

'तो फिर विश्‍वास के विरुद्ध तो कुछ कहा नहीं जा सकता! लेकिन इन पण्डितों में से ही कोई यदि यह बताए कि फलाँ गाँव के इतने हिंदू जाति परिवर्तन कर गए, क्योंकि उन्हें छोटी जाति का समझा जाता था, तो मैं समझूँ! मेरा तो विश्‍वास है कि कोई पण्डित इसे नहीं बता सकता!'

'पर यह बात तो निश्‍चय ही सोची जा सकती है कि जो लोग छोटी जाति के माने जाते हैं, वे बड़ी जातिवालों के साथ वैमनस्य रखते हैं।'

विश्‍वेश्‍वरी को रमेश की इस आवेगपूर्ण बात पर फिर हँसी आ गई। बोली -'गलत! सरासर गलत बात है तुम्हारा तर्क! गाँव के किसी को इसकी चिंता नहीं कि अमुक ऊँची जाति का है और अमुक नीची जाति का! जिस प्रकार छोटे भाई के मन में यह द्वेष नहीं होता कि वह क्यों बड़े भाई के बाद पैदा हुआ - पहले क्यों नहीं पैदा हुआ, उसी तरह छोटी जाति के लोगों में भी यह द्वेष नहीं होता कि वे क्यों छोटी जाति में पैदा हुए! कायस्थ कभी यह ईर्ष्या नहीं करता कि मैं ब्राह्मण क्यों न पैदा हुआ और न कहार ही यह क्षोभ करता है कि वह कायस्थ घर में क्यों न जन्मा! और बेटा, जिस प्रकार बड़े भाई की चरण-रज में कोई संकोच नहीं होता, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मणों की चरण-रज लेने में, कायस्थों को भी लज्जा आने का कोई कारण नहीं! यह जात-पाँत किसी भी तरह आपस के मनोमालिन्य, वैमनस्य तथा ईर्ष्या-द्वेष का कारण नहीं है। और कम-से-कम बंगाली देहाती समाज में हर्गिज ही नहीं!'

रमेश मन-ही-मन चकित रह गया। बोला - 'ताई जी, फिर इसका कारण क्या है? वीरपुर के किसी मुसलमान के घर में तो इस तरह इतने लड़ाई -झगड़े होते नहीं! उलटे एक-दूसरे की मुसीबत में सभी मिल कर मदद करते हैं। यहाँ की तरह कोई उन पर अत्याचार नहीं करता। तुम्हें मालूम तो है ही कि उस दिन बेचारे द्वारिका पण्डित की अर्थी पड़ी रही, क्योंकि उसका प्रायश्‍चित नहीं हुआ!'

'मालूम है! लेकिन इसकी जड़ में जाति नहीं है। मुसलमान आज भी अपने धर्म को सच्चे रूप में मानते हैं और हम लोग नहीं! सच्चा धर्म आज हमारे देहातों से प्राय: खो गया है; अब उसकी जगह रह गया है थोथा आचार -विचार और कुसंस्कार, जिनको लेकर आज हमारे बीच में गुट बने हुए हैं।'

रमेश ने दीर्घ निःश्‍वास लेते हुए कहा - 'क्या इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं?'

'है, इसका उपाय है ज्ञान, जिसे तुमने अपनाया है! तभी तो तुमसे बार -बार कहती हूँ कि अपनी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं भी न जाना!'

रमेश ने इसके उत्तर में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि विश्‍वेश्‍वरी ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा - 'शायद तुम यही कहना चाहते हो कि अज्ञानता तो मुसलमानों में भी पाई जाती है! हाँ, पाई जरूर जाती है, लेकिन उनमें धर्म के प्रति अब भी जागरूकता है, वह हर तरह से उनकी रक्षा करते हैं और साथ ही उनका धर्म भी सजीव है! वीरपुर गाँव में जाफर नाम का एक धनी -मानी आदमी है, जिसने अपनी सौतेली माँ को खाने-पीने से तंग कर दिया था, तो उनके समाज में इसी कारण उसे बिरादरी से निकाल दिया। तुम यह बात वहाँ पूछ कर पता कर सकते हो। और हमारे यहाँ इन्हीं गोविंद गांगुली ने अपनी विधवा बड़ी भौजाई को इतना मारा कि बेचारी अधमरी हो गई। पर हमारे समाज की तरफ से क्या मजाल कि उन्हें कोई दण्ड दिया जा सके! वह खुद ही उसके कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। हमारे यहाँ इन सारे कर्मों को व्यक्तिगत माना गया है, जिसका दण्ड भगवान की अदालत में उसे मिलता है, और दूसरे जन्म में कहीं उसका फल भोगना पड़ता है। हमारे देहाती समाज को उन पर कुछ कहने-सुनने का कोई अधिकार नहीं!'

रमेश चित्र-लिखित-सा यह सब सुन रहा था। उसका मन ताई जी के इस तर्क को अंतिम सत्य मान कर स्वीकार नहीं कर पा रहा था। विश्‍वेश्‍वरी ने यह बात तोड़ते हुए कहा - 'बेटा, कहीं भूल मत कर बैठना! फल को ही उपाय समझने की वजह से, तुम जाति की ऊँच-नीच को ही इसका प्रधान कारण मानते हो, और यह सोचते हो कि जब तक इसमें कोई सुधार नहीं किया जाएगा, तब तक कोई सुधार होना संभव नहीं! लेकिन उससे दोनों ही पक्षों की हानि होगी। मगर यदि तुम मेरे कथन की सत्यता की परख करना चाहो, तो जरा शहर के आस-पास कुछ गाँवों में जा कर घूम आओ, और फिर कुआँपुर गाँव की स्थिति से उसकी तुलना कर देखो, तब आप ही सब बातें साफ हो जाएँगी।'

रमेश को कलकत्ता के पास के कुछ गाँवों का अनुभव था। उसने मन-ही-मन उनकी कल्पना की, और सहसा उनकी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया, और वे विस्मयान्वित नेत्रों से विश्‍वेश्‍वरी के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगे।

रमेश के इस परिवर्तन की ओर ध्यान न देते हुए विश्‍वेश्‍वरी बोलीं - 'मैं तुमसे अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर कहीं न जाने के लिए बार-बार जो कहती हूँ, सो इसीलिए! जो लोग अपने गाँव के बाहर जा कर अनुभव प्राप्त करते हैं, अगर वे ही लोग अपने गाँव में लौट आएँ, उनसे अपना संबंध-विच्छेद न कर, तुम्हारी ही तरह उनके सुधार में लग जाएँ, तो हमारे देहाती समाज की यह बुरी हालत न रहे, जो आज है - और न फिर ये लोग तुम जैसों को ठुकरा कर, गोविंद गांगुली जैसों को सिर पर चढ़ाते।'

रमेश को उसी समय रमा का स्मरण हो आया और फिर अनमने से स्वर में उसने कहा - 'यहाँ से दूर जाने में मुझे कोई दुख नहीं होगा!'

विश्‍वेश्‍वरी उसके इस वाक्य का कारण तो न समझ पाईं, लेकिन स्वर का उन्होंने पूरी तरह अनुभव किया। बोलीं - 'यह कभी नहीं हो सकता, रमेश! अगर तुम अपना काम बीच ही में छोड़ कर चले जाओगे, तो तुम्हारी मातृभूमि तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी!'

'मातृभूमि अकेले मेरी ही तो है नहीं, ताई जी!'

विश्‍वेश्‍वरी ने कुछ नाराज होते हुए कहा - 'वह तुम्हारी ही माता है, तुमने आते ही उसके दुख को पहचाना! माँ कभी अपने मुँह से अपने बेटों से कुछ नहीं माँगती। आज तक उसकी व्यथा किसी ने भी नहीं समझी सिवा तुम्हारे!'

उसके बाद रमेश ने बात और आगे न चलाई। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद, अत्यंत आदर और भक्ति से विश्‍वेश्‍वरी की चरण-रज उन्होंने माथे पर लगा ली, और फिर धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।

रमेश के हृदय में कर्तव्य, करुणा, दया और भक्ति की भावनाएँ उमड़ रही थीं।

भगवान भास्कर प्रात:काल की अँगड़ाई लेते हुए, अलसाई मुद्रा में मंथर गति से आकाश मार्ग पर बढ़ रहे थे। रमेश अपने कमरे की पूरब तरफ की खिड़की के पास खड़े, शून्य की तरफ एकटक देख रहे थे। सहसा किसी बालक की पुकार से चौंक कर पीछे मुड़ कर देखा, तो रमा के छोटे भाई यतींद्र को खड़े पाया। वह पुकार रहा था -'छोटे भैया! छोटे भैया!'

रमेश उसे बड़े प्यार से, हाथ पकड़ कर अंदर ले आए और बोले - 'किसे पुकार रहे थे, यतींद्र?'

'आपको ही?'

'मुझे? और छोटे भैया कह कर?' किसने बताया कि मुझे छोटे भैया कह कर पुकारा करो?'

'दीदी ने!'

'दीदी ने? क्या कुछ कहलाया है उन्होंने मेरे लिए?'

'वे मेरे साथ यहाँ आई हैं। वहाँ खड़ी हैं!' और उसने दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया।

रमेश ने आश्‍चर्यान्वित हो कर देखा कि रमा एक खंभे की आड़ में खड़ी है। उसके पास पहुँच कर रमेश ने बड़े विनम्र और स्नेहसिक्त स्वर में कहा - 'आओ, अंदर आओ! मेरे अहोभाग्य कि तुम मेरे यहाँ आईं। पर मुझे ही बुला लिया होता। तुमने नाहक तकलीफ की!'

रमा ने इधर -उधर देखा कि यतींद्र का हाथ पकड़ रमेश के पीछे-पीछे चल दी, और उसके कमरे की चौखट के पास आ कर बैठ गई। बोली - 'मैं एक भीख माँगने आई हूँ आपके पास? कहिए, दीजिएगा?' और रमेश के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगी। उस दृष्टि ने रमेश के सुप्त हृतस्वरों को झंकृत कर दिया, और दूसरे क्षण ही उनके समस्त तार झनझना कर एकबारगी टूट गए। थोड़ी देर पहले उनके मन में जो निश्‍चय आया और मनोकामनाएँ हिलोरें मार रही थीं, वे प्राय: लुप्त-सी हो गईं। उन्होंने पूछा - 'बोलो, तुम क्या चाहती हो?'

रमेश के स्वर में अन्यमनस्कता और उदासी थी। रमा ने भली प्रकार उसका अनुभव किया। बोली - 'वायदा कीजिए कि देंगे!'

कुछ देर तक मौन रह कर रमेश ने कहा - 'वचन तो नहीं दे सकता! बिना किसी हिचक के, तुम्हारी हर बात मान लेने की जो शक्ति थी, उसे तुमने अपने ही हाथों तोड़ -फोड़ डाला।'

रमा ने स्तब्ध हो कर कहा -'मैंने भला कैसे?'

'रमा, मैं आज तुमसे एक बात कहूँगा कि इस संसार में वह शक्ति, जिस पर मैं सम्पूर्ण विश्‍वास कर सकूँ, जिसकी कोई बात न टाल सकूँ, वह केवल तुम्हीं में थी! अब तुम्हें चाहे इस पर विश्‍वास हो या न हो और यदि वह शक्ति नियति के थपेड़े से नष्ट न हो गई होती, तो मैं यह बात कहता भी नहीं!' और थोड़ी देर तक मौन रह कर फिर उन्होंने कहा - 'आज इस बात को कहने में न मेरा ही नुकसान है, न तुम्हारा ही! उस दिन तक ऐसी कोई चीज न थी, जिसे तुम माँगो और मैं तुम्हें न दूँ! जानती हो, ऐसा क्यों था?'

रमा ने सिर हिला कर ही संकेत किया -'नहीं।' रमा का चेहरा किसी अव्यक्त लज्जा से आरक्त हो उठा।

'सुन कर लजाना भी मत, और न मेरे ऊपर नाराज होना! सोच लेना कि बीते जमाने की एक कहानी सुन रही हूँ।'

रमा के मन में हुआ भी कि उसे रोक दे, पर रोक न सकी और उसका सिर झुका ही रहा गया।

रमेश ने शांत-सुकोमल स्वर में कहा - 'मैं तुम्हें प्यार करता था और ऐसा करता था, जैसा मानो कभी किसी ने किसी को भी न किया होगा! जब मैं बच्चा था, तब मेरी माँ कहा करती थी कि हम दोनों का ब्याह होगा; और जब मुझे उससे निराश होना पड़ा, उस दिन मैं ऐसा रोया कि इसकी याद आज भी ताजा है।'

रमा का हृदय इन सब बातों को सुन कर बिलख उठा। उसका सारा अंतर विदीर्ण हो कर टुकड़े -टुकड़े हो रहा था। पर वह रमेश को न रोक सकी; मूर्तिवत शांत बैठी रही। रमेश ने आगे कहा - 'तुम सोचती होगी कि तुमसे यह बातें कहना तुम पर अन्याय करना है! सोचता मैं भी पहले ऐसा ही था, और तभी तारकेश्‍वर में, जब तुम्हारे सामीप्य ने मेरे समस्त जीवन को एक नवीनता प्रदान कर दी, उस समय मैं यह सब न कह सका। मैंने बड़े कष्ट से, अपने दिल में इस बात को दबा रखा था।'

रमा से अब चुप न रहा गया। बोली - 'आज फिर क्यों, अपने मकान में अकेला पा कर लज्जित कर रहे हैं?'

'नहीं, बिलकुल नहीं! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता, जिससे तुम्हें अपमान का अनुभव हो। न तुम वह पहले की रमा रही, और न मैं पहले का वह रमेश ही! फिर भी सुनो! मुझे उस दिन यह पूर्ण विश्‍वास हो गया था कि तुम सब सह सकती हो, सब कुछ कर सकती हो, लेकिन मेरा अहित नहीं सह सकती; और इसीलिए मुझे यह विश्‍वास हो चला था कि तुम्हारे ऊपर अपने हृदय के समस्त विश्‍वास को आधारित कर, शांति के साथ इस जीवन के सारे कामों को पूरा कराता चला जाऊँगा! लेकिन, जब उस रोज रात को मैंने अपने कानों से अकबर को यह कहते सुना कि तुमने स्वयं...! अरे कोई है! बाहर इतना हल्ला किसलिए मच रहा है?'

तभी गोपाल सरकार ने हाँफते हुए आ कर कहा - 'छोटे बाबू!' सुनते ही रमेश बाहर निकला। गोपाल सरकार ने उससे कहा - 'छोटे बाबू, पुलिसवालों ने भजुआ को पकड़ लिया।' कहते हुए उनके होंठ काँप उठे और जैसे-तैसे उन्होंने बात पूरी की - 'परसों रात को राधानगर में तो डकैती हुई, उसी में उसे शामिल बताया जाता है।'

कमरे की तरफ देखते हुए रमेश ने कहा - 'रमा, अब एक क्षण भी तुम्हारा यहाँ ठहरना ठीक नहीं! खिड़की के रास्ते तुरंत बाहर चली जाओ! पुलिस जरूर ही मकान की तलाशी लेगी।'

रमा का चेहरा एकदम सुस्त हो गया, खड़े होते हुए उसने कहा - 'तुम्हारे लिए तो कोई डर नहीं है न?'

'कहा नहीं जा सकता! मुझ तो यह भी नहीं मालूम कि मामला क्या है और किस हद तक पहुँच गया है।'

रमा के होंठ काँप उठे। उसे याद हो आया कि उस दिन थाने में रिपोर्ट उसी ने कराई थी। याद आते ही वह रोने लगी और बोली - 'मैं नहीं जाने की!'

रमेश चकित-से थोड़ी देर को देखता रहा, फिर व्यग्र हो कर बोले - 'नहीं रमा, तुम्हारा एक क्षण भी यहाँ ठहरना ठीक नहीं! फौरन चली जाओ!' और रमा को कहने का अवसर दिए बिना ही, यतींद्र का हाथ पकड़ कर, जबरदस्ती भाई -बहन को खिड़की के रास्ते बाहर कर उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया।

अध्याय 13

दो महीने से, कई दूसरे डाकुओं के साथ भजुआ हवालात में बंद है। उस दिन रमेश के घर में तलाशी हुई; पर कोई ऐसी चीज न मिली, जिससे संदेह किया जा सकता हो। आचार्य ने भजुआ की तरफ से गवाही दी कि वह घटनावाली रात को उनके साथ उनकी लड़की के लिए वर देखने गया था, फिर भी भजुआ की जमानत नहीं हुई।

वेणी ने रमा के घर आ कर कहा - 'शत्रु को यों ही नहीं नीचा दिखाया जा सकता! बड़े-बड़े पैतरे चलने पड़ते हैं, तब कहीं काम बन पाता है! अगर उस दिन तुम थाने में रिपोर्ट न लिखाती कि मछलियों का हिस्सा लेने के लिए भजुआ घर पर लाठी लेकर चढ़ आया था, तो भला आज वह हवालात में बंद होता? उसी रिपोर्ट के साथ तुमने रमेश का नाम भी लिखा दिया होता, तो फिर देखती मजा! लेकिन उस समय तो तुमने मेरी एक भी बात नहीं मानी!'

रमा का चेहरा फक्क पड़ गया। वेणी ने कहा - 'तुम चिंता मत करो, तुम्हें गवाही देने नहीं जाना पड़ेगा। और अगर जाना भी पड़ा, तो इसमें एतराज ही क्या है? जमींदारी चलानी है, तो ऐसे-वैसे बहुतेरे काम करने ही पड़ेंगे।'

रमा चुप रही।

'रमेश यूँ आसानी से हाथ नहीं आने का! उसने भी तगड़ी चाल चली है। उसके नए स्कूल की वजह से हम लोगों को बड़े दुख उठाने पड़ेंगे। मुसलमान किसान एक तो वैसे ही हम लोगों को जमींदार नहीं मानते; पढ़-लिख जाएँगे तो फिर जमींदार रहना भी बेकार ही समझो!'

रमा जमींदारी का हर काम वेणी बाबू की राय से ही करती थी। जमींदारी के मामले में आज तक उनमें कभी दो मत नहीं हुए थे। आज ही पहला मौका था, जब रमा ने उनकी बात को काट दिया। उसने कहा - 'रमेश भैया का भी तो इसमें नुकसान ही है!'

वेणी को संदेह था कि रमा विवाद करेगी, इसलिए पहले से ही उन्होंने सारी बातें सोच रखी थीं। बोले - 'तुम यह बातें नहीं जानती! उसे तो हम लोगों को परेशान करने में ही खुशी है, फिर चाहे इसमें उसे नुकसान ही क्यों न उठाना पड़े। देखती तो हो, जब से आया है, पानी की तरह रुपए लुटा रहा है। नीच कौम में, चारों तरफ छोटे बाबू के नाम की ही तूती बोल रही है - यही उनके लिए सब कुछ हैं, हम कुछ नहीं! अब यह और अधिक दिन नहीं चलने का! तुमने पुलिस की आँखों में उसे खटका दिया है, अब वही उससे सुलझ लेगी!'

वेणी ने बड़े गौर से रमा की तरफ देखा, कि उनके इस कथन से रमा को जो उत्साह और प्रसन्नता होनी चाहिए थी वह नहीं हुई। बल्कि उसके चेहरे का रंग एकदम सफेद पड़ गया।

'मैंने ही थाने में रिपोर्ट कराई थी, क्या यह बात रमेश भैया को मालूम पड़ गई है?'

'ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता, लेकिन एक दिन तो पता लगेगा ही! सभी बातें खुलेंगी न, भजुआ के मुकदमे में!'

रमा चुप ही, मानों मन -ही -मन किसी बड़ी चोट से आहत हो कर अपने को संयत कर रही हो। रह-रह कर उसे यही खयाल होने लगा कि एक दिन रमेश को पता चलेगा ही कि उसको संकट में डालनेवालों में सबसे आगे मैं हूँ। थोड़ी देर बाद सिर उठा कर उसने पूछा - 'आजकल तो सभी के मुँह पर उनका नाम है न?'

'अपने ही गाँव में नहीं, बल्कि इसकी देखा-देखी आस-पास भी पाँच-छह गाँवो में स्कूल खुलने और रास्ते बनने की तैयारी सुनी जा रही है! आजकल तो नीच कौम के हर आदमी के मुँह से यह बात सुन लो - अन्य देश इसलिए उन्नति कर रहे हैं कि गाँव-गाँव में स्कूल हैं! रमेश ने यह वायदा किया है कि जहाँ भी नया स्कूल खुलेगा, वह दो सौ रुपए उस स्कूल के लिए देगा। उसे चाचा जी की जितनी संपत्ति मिली है, वह सब इसी तरह के कामों में लुटा देगा! मुसलमान लोग तो उसे पीर और पैगम्बर समझते हैं!!'

रमा को एकबारगी खयाल आया कि काश, उनके इस पुण्य कार्य में उसका नाम भी शामिल हो सकता! लेकिन दूसरे क्षण यह खयाल गायब हो गया, और उसका समस्त हृदय अंधकार से अभिभूत हो उठा।

'मैं भी उसे सहज में नहीं छोड़ने का! कोई धोखे में भी न रहे कि वह हमारी सारी रिआया को इस तरह बरगला कर बिगाड़ता रहेगा, और हम इसी तरह हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहेंगे! भजुआ की तरफ से भैरव गवाही दे आया। अब मुझे यही देखना है कि वह अपनी लड़की की शादी कैसे करता है! तरकीब तो एक और भी है, लेकिन उसमें गोविंद चाचा की राय ले लूँ। डाके तो जब-तब यहाँ-वहाँ पड़ते ही रहते हैं! इस बार तो नौकर को फँसाया है, अबकी उसी को किसी मामले में धर लपेटने में कोई खास मुश्किल न पड़ेगी! मैं नहीं समझता था कि तुम्हारी बात इतनी ठीक निकलेगी! तुमने तो पहले ही दिन कह दिया था कि वह भी शत्रुता निभाने में किसी से पीछे नहीं रहेगा!'

रमा निरुत्तर रही। वेणी यह न समझ सके कि उनकी उत्साहवर्द्वक, उत्तेजनापूर्ण बातें और अपनी भविष्यवाणी सही बैठने की भूरि-भूरि प्रशंसा भी रमा के मन को प्रफुल्लित न कर सकी, बल्कि उसके चेहरे पर कालिमा घनी हो उठी। उस समय उसके हृदय में कैसा द्वंद्व छिड़ा होगा! लेकिन वेणी की दृष्टि से रमा के चेहरे की कालिमा न छिप सकी। इस पर वेणी को विस्मय भी काफी हुआ। वहाँ से उठ कर वे मौसी के पास दो-चार बातें कर अपने घर जाने को उद्यत हुए कि रमा ने उन्हें इशारे से अपने पास बुलाया और धीरे से पूछा -'छोटे भैया को अगर जेल हो गई, तो क्या इससे हमारे नाम पर धब्बा न लगेगा!'

वेणी ने विस्मयान्वित हो कर पूछा - 'हमारे नाम पर क्यों धब्बा लगेगा?'

'वे अपने ही सगे जो हैं! अगर हम ही उन्हें न बचाएँगे, तो दुनियावाले हमको क्या कहेंगे!'

'जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा! हम उसमें क्या कर सकते हैं?'

'यह बात तो दुनिया ही जानेगी कि रमेश भैया का काम डाका डालने का नहीं है - वे तो परोपकार में ही अपना जीवन बिता रहे हैं। आस-पास के सभी गाँवों में इस बात की खबर उड़ेगी, तब उन सबके सामने हम अपना मुँह कैसे उठा सकेंगे?'

वेणी ठहाका मार कर हँसने लगे और बोले - 'आज यह कैसी बातें कर रही हो?'

एक बार रमा ने मन-ही-मन वेणी और रमेश के चेहरे की तुलना की और उसका सिर नीचा हो गया। उसने कहा - 'मुँह पर चाहे गाँववाले डर के मारे कुछ न कहें, पर पीछे-पीछे तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता! शायद तुम कहो कि पीठ पीछे तो राजमाता को भी भला-बुरा कहा जा सकता है। लेकिन भगवान भी तो देखेंगे! वे हमें किसी निरपराधी को झूठ-मूठ फँसाने पर क्षमा न करेंगे!'

'बाप रे! वह लड़का तो न देवी-देवता को मानता है न ईश्‍वर को ही। पूरा नास्तिक है! शीतलाजी का मंदिर टूट रहा है, उसकी मरम्मत कराने के लिए उसके पास आदमी भेजा, तो कहा कि जिन्होंने तुम्हें भेजा है, उन्हीं से जा कर यह कह दो कि ऐसे बेकार के कामों में खर्च करने के लिए उसके पास फालतू पैसे नहीं हैं, और उसे भगा दिया। शीतला जी के मंदिर की मरम्मत करना -उनके लिए बेकार का काम है, और मुसलमानों के लिए खर्च करना उचित है! ब्राह्मण की संतान हो कर भी संध्या-वंदना कुछ नहीं करता। मुसलमानों के हाथ का पानी भी पी लेता है। थोड़ी-सी अंग्रेजी क्या पढ़ ली कि धरम-करम भूल बैठा। परमात्मा के यहाँ से उसे इस सबकी सजा मिलेगी!'

रमा ने आगे विवाद बढ़ाना उचित न समझा, लेकिन रमेश के नास्तिक होने की बात से उसका मन क्षुब्ध हो उठा। वेणी अपने आप से ही कुछ अस्फुट स्वर में बुदबुदाते हुए चले गए। रमा थोड़ी देर तक चुपचाप खड़ी रही और फिर कोठरी में जा कर जमीन पर निश्‍चल बैठ गई। उसका एकादशी का व्रत था उस दिन, यह सोच कर बड़ी शांति मिली।

अध्याय 14

वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी थी। बंगाल के ग्रामवासियों को एक तरफ दुर्गा पूजा का आगमन आनंदित कर रहा था, तो उसके साथ मलेरिया के आगमन का भय भी सबको व्याकुल बना रहा था। रमेश को भी इस मलेरिया का शिकार होना पड़ा था। गत वर्ष तो वे उसके चंगुल से बच गए थे, पर इस वर्ष उसने उन्हें धर दबाया था। तीन दिन के बाद आज उनका बुखार उतरा था। वे उठ कर खिड़की के सहारे खड़े हो कर सबेरे की धूप ले रहे थे, और मन-ही-मन सोच रहे थे कि गाँव के बाहर जो गड्‍ढों में कीचड़ और पानी जमा है और बेकार झाड़ियाँ गंदगी बढ़ा कर मलेरिया के कीड़ों को जन्म दे रही हैं, उनसे गाँववालों को कैसे सचेत किया जाए। तीन दिन के बुखार ने उन्हें मलेरिया को गाँव से जड़-मूल से नष्ट करने पर बाध्य कर दिया था। वे सोच रहे थे कि मैं समझ-बूझ कर भी अगर इस महामारी से लोगों को सचेत नहीं करूँगा, तो ईश्‍वर कभी मुझे इसकी सजा दिए बिना नहीं रह सकते! उन्होंने पहले भी इस संबंध में गाँववालों से बात चलाई थी, पर यह चाह कर भी कि इस भीषण बीमारी से छुटकारा मिले, गड्‍ढों और झाड़ियों की गंदगी दूर करने को कोई भी साथ देने को तैयार न था। वे इसे व्यर्थ का काम समझ कर इसकी जरूरत को महसूस नहीं कर रहे थे। वे तो सोचते थे कि जिसे गरज होगी, वह अपने आप करेगा ही - और फिर ये गड्‍ढे और झाड़ियाँ आज की तो हैं नहीं, पुराने जमाने से चली आ रही हैं। और फिर, जो भाग्य में होगा, वह तो हो कर रहेगा ही, हम क्यों नाहक इस काम में अपना पैसा खर्च करें? रमेश को मालूम हुआ कि पास का एक गाँव तो इस महामारी के कारण प्रायः श्मशान हो गया है; और ताज्जुब यह है कि उसके पास एक दूसरा गाँव है, जहाँ अमन-चैन है। इस सूचना के पाते ही उन्होंने मन-ही-मन यह तय कर लिया था कि उनकी दशा ठीक होगी, तो वे निश्‍चय ही उस गाँव में जा कर, वहाँ की हालत का निरीक्षण करेंगे। उन्हें यह विश्‍वास हो गया था कि वहाँ मलेरिया न होने का कारण यही हो सकता है कि वहाँ पानी जमा न होता होगा और गाँव में सफाई रहती होगी। लोगबाग का ध्यान उस ओर न गया होगा; पर जब उन्हें यह बात समझाई जाएगी, तो निश्‍चय ही उनकी समझ में आएगी। उन्हें सबसे बड़ी प्रसन्नता इस समय इस बात की हो रही थी, कि आज उनकी इंजीनियरिंग शिक्षा के इस्तेमाल का समय आया है -और वे परोपकार में उसका इस्तेमाल कर सकेंगे।

वे इसी सोच में लगे थे कि किसी ने पीछे से रोनी आवाज में पुकारा -'छोटे बाबू!'

रमेश ने चौंक कर, पीछे मुड़ कर देखा कि भैरव जमीन पर औंधे पड़े फूट-फूट कर स्त्रियों की तरह बिलख रहे हैं। उनके साथ उनकी एक कन्या भी है, जिसकी उम्र लगभग आठ साल की है। वह भी अपने बाप के साथ, बिलख-बिलख कर कमरे को सिर पर उठाए है। थोड़ी देर में ही घर के सभी लोग जमा हो गए। रमेश स्तब्ध हो रहा था। उसकी कुछ समझ में न आया कि आखिर क्या मामला है! कोई मर गया है क्या? या कोई दुर्घटना हो गई है? कैसे उन्हें सांत्वना दें? गोपाल सरकार भी आ गए और भैरव का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश करने लगे। भैरव ने उसके दोनों हाथों से कस कर पकड़ते हुए, जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। भैरव का इस तरह रोना देख कर रमेश व्यग्र हो उठा और असमंजस में पड़ गया।

भैरव ने गोपाल सरकार की सांत्वना से स्वस्थ हो अपना दुख रोया। रमेश सुन कर अवाक रह गया। बात यह थी कि भजुआ तो भैरव की गवाही देने से छूट आया था। पर भैरव से पुलिसवाले तभी खार खा उठे थे। भजुआ को तो रमेश ने तभी अपने देश भेज दिया था, ताकि पुलिस की वक्र दृष्टि से वह बच सके। वह तो बच गया, लेकिन भैरव चक्कर में आ गए। जब उन्हें अपने संकट का हाल मालूम हुआ, तो वे दौड़ कर शहर गए और मामले की पूरी खोज-बीन की। उन्हें पता लगा कि राधानगर के संत मुकर्जी ने, जो वेणी के चचिया ससुर होते हैं, पाँच -छह रोज हुए तभी, सूद और मूल मिला कर ग्यारह सौ छब्बीस रुपए सात आने की डिगरी भैरव के नाम निकलवाई है। एक दिन के अंदर ही उसका सारा घर कुर्क करके रकम की अदायगी की जाएगी; और सबसे बड़ा ताज्जुब तो यह था कि भैरव के नाम से किसी ने उनका सम्मन भी तामील कर लिया था और अदालत में जा कर रुपया भरने का वायदा भी कर लिया था।

सारा का सारा मामला फर्जी था। यह था, एक गरीब से अपना प्रतिशोध लेने के लिए, समर्थों का जाल! अब मामले की अपील-पैरवी करने का वक्त बाकी न रहा था, और न भैरव के पास इतने रुपए ही थे कि अदालत में रुपए भर कर, इस जालसाजी के खिलाफ मामला आगे बढ़ाए। उसके सामने तो इस तरह झूठे जाल में फँसकर बरबादी के सिवा कुछ और न था।

बात साफ थी कि यह जाल गोविंद गांगुली और वेणी बाबू ने मिल कर बिछाया था! लेकिन किसी की हिम्मत न थी भैरव की बरबादी को देखते हुए भी, उनके विरुद्ध कुछ भी कह सके। रमेश ने साफ-साफ समझा कि इनके इस जाल के पीछे, एक दरिद्र ब्राह्मण की बरबादी में सबसे तगड़ा हाथ उनके पैसे का है, जिसके जोर पर आज सरकारी कानून का भी अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने में वे समर्थ हो सके। उनकी इस कुटिलता के लिए समाज में भी कोई विधान नहीं है। तभी अनेक अत्याचार करने पर भी वे देहाती समाज में सिरमौर बने बैठे हैं। ताई जी की बातें रह-रह कर उनके मस्तिष्क में टकराने लगीं, उन्हें उनकी उस दिन की बात याद आई, जब उन्होंने हँसते हुए कहा था कि बेटा, यह गाँववाले अंधकार के गर्त में पड़े हैं - बस, तुम एक बार जात-पाँत का, भले-बुरे का ध्यान न कर इनके मार्ग को प्रकाशित कर दो। इनको अँधेरे से निकाल कर उजाले में खड़ा कर दो, ताकि ये उजाले में अपना सही रास्ता पहचान सकें!! यह समझने में तब वे स्वयं ही समर्थ हो जाएँगे कि किसमें उनका हित है और किसमें अहित! और उन्होंने उनसे कहा था कि इस समय समाज को छोड़ कर कहीं भी न जाएँ! आज अपने यहाँ रहने की आवश्यकता को उन्होंने स्पष्ट ही महसूस किया।

रमेश ने एक ठण्डी आह भरते हुए मन-ही-मन कहा - 'यही है हमारा बंगाली देहाती समाज, जिसकी न्यायप्रियता, सहिष्णुता और आपसी मेल-मुहब्बत पर हमें गर्व है! हो सकता है कि कभी इसमें भी सजीवता रही हो, जब यहाँ सहिष्णुता, सद्‍भावना और न्यायप्रियता रही हो। लेकिन आज तो वह कुछ निश्‍चय ही नहीं है! लेकिन सबसे दुख की बात तो यह है कि बेचारे भोले-भाले ग्रामीण इस विकृत और मृतप्राय समाज से ही संतुष्ट हैं, इसके प्रति उनकी ममता छोड़े नहीं छूटती; और वे आँखें रहते हुए भी नहीं देख पा रहे कि इनकी यह मृग-संतुष्टि ही उनको पतन की ओर खींचे लिए जा रही है!'

थोड़ी देर तक तो रमेश अपने मनोभाव में ही खोया रहा। उससे जागने पर वे उठ कर खड़े हो गए, और गोपाल सरकार को भैरव के जाली कर्जेवाली सारी रकम के भुगतान के लिए एक चेक दिया और बोले - 'आप सारी बातें समझ कर शहर जाइए! ये रुपए जमा कीजिए और अपील का भी जैसे बन पड़े इंतजाम करके आइए! इंतजाम ऐसा हो कि झूठे जाल बिछानेवालों को अच्छा सबक मिल जाए!' भैरव और गोपाल दोनों ही, रमेश के इस साहसिक काम से दंग रह गए। रमेश ने फिर गोपाल सरकार को सारी बातें विस्तार से समझा दीं, तो भैरव को विश्‍वास हुआ कि रमेश मजाक नहीं कर रहा है, बल्कि उसने जो कुछ किया है, वह सत्य है! आत्म-विस्मृत भैरव ने रोते हुए रमेश के पैर पकड़ लिए और रो-रो कर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। रमेश को उन्होंने इस तरह पकड़ लिया कि अगर कोई दुबला -पतला कमजोर आदमी होता, तो अपने को छुड़ाने में उसे बड़ी मुश्किल पड़ जाती। बिजली की तरह यह बात सारे गाँव में फैल गई। सभी ने सोचा कि अब वेणी और गांगुली, दोनों की जान साँसत में पड़ जाएगी। सभी का खयाल था कि रमेश ने भैरव की मदद में जो इतने रुपए दिए हैं, सो इसलिए कि वेणी और गांगुली से वे अपनी शत्रुता का बदला लेना चाहते हैं। किसी ने स्वप्न में भी यह न सोचा कि रमेश ने भैरव की यह सहायता एक निर्धन के प्रति अपने कर्तव्य पालन के नाते की है!

इस घटना को बीते करीब एक महीना हो गया। मलेरिया के प्रतिरोध कार्य में उन्होंने अपने को इस बुरी तरह जुटा रखा था कि उन्हें यह याद ही न रहा कि कब भैरव के मुकदमे की तारीख है! आज शाम को रोशन चौकीदार की आवाज सुन कर उन्हें एकाएक तारीख की याद आई।

उन्हें नौकर से पता चला कि आज भैरव के धोवते का अन्नप्राशन है। उन्हें इसका कोई निमंत्रण ही नहीं मिला था, यह जान कर वे एकदम चकित रह गए। नौकर से उन्हें यह भी पता चला कि भैरव ने आज गाँव भर को दावत दी है और खूब जोर-शोर से तैयारी की है। उन्होंने घरवालों से पूछा, पर किसी ने यह नहीं बताया कि उनके नाम भी कोई निमंत्रण आया था। उन्हें यह खयाल आते ही भैरव के मुकदमे की तारीख भी कल ही होते हुए भी, वे उनसे पिछले बीस-पच्चीस दिनों से मिलने नहीं आए थे। फिर भी किसी तरह उनका मन यह विश्‍वास न कर सका कि उन्हें दावत देने में वह चूक गया है। अपने इस संदेह पर उन्हें स्वयं ही लज्जा आने लगी और तुरंत एक दुपट्टा कंधे पर डाल कर वे भैरव के घर की तरफ चल पड़े। घर के बाहर पहुँचकर उन्होंने देखा कि बहुत-से आदमी वहाँ जमा हैं। आँगन में एक पुराना शामियाना तना हुआ है, और शामियाने में मुकर्जी और घोषाल बाबू के घर से पाँच-छह पुरानी-सी लालटेनें ला कर जलाई गई हैं। लालटेनों से रोशनी कम और धुआँ इतना निकल रहा है कि वहाँ किसी आदमी का खड़ा होना भी दूभर है। सारा वातावरण असीम दुर्गंध से भर गया है - खाना-पीना समाप्त हो चुका है और अधिकतर आदमी अपने-अपने गाँव को जा रहे हैं, गाँव के बड़े-बूढ़े 'जाऊँ-जाऊँ' कर रहे हैं। हरिदास और धर्मदास उनसे कुछ और देर बैठने के लिए विनती कर रहे हैं! और गोविंद गांगुली वहाँ से थोड़ी दूर पर किसान के लड़के के साथ अकेले में गप कर रहे हैं। रमेश को वहाँ आया देख कर सबके होश फाख्ता हो गए। भैरव खुद भी किसी काम से बाहर निकल आए, रमेश को वहाँ खड़ा देख कर सहमते हुए-से, फिर तेजी से अंदर चले गए। यह सब देख का रमेश उलटे पैर बाहर लौट आया। बाहर उन्हें किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी - 'रमेश भैया!'

रमेश ने रुक कर पीछे मुड़ कर देखा कि दीनू हाँफते हुए चले आ रहे हैं। पास आ कर उन्होंने कहा - 'आइए भैया जी, घर में पधारिए!'

रमेश ने हँसने की कोशिश की, लेकिन न हँस सका। रास्ता चलते दीनू ने कहा - 'भैरव के साथ जो आपने उपकार किया है वह भैरव के माँ-बाप भी नहीं कर सकते! लेकिन उसका भी विशेष दोष नहीं है। घर-गृहस्थी के साथ हम लोगों को समाज में दिन काटने पड़ते हैं। अगर आपको निमंत्रण दिया जाता, तो फिर...आप तो स्वयं ही सब बातें समझते हैं। तुमने शहर की आबहवा में जिंदगी बिताई है, तभी तुम्हें जात-पाँत का कोई विशेष विचार नहीं है न! उस बेचारे को तो अभी लड़कियों का ब्याह करना है! अपने समाज का हाल तो तुम जानते ही हो!'

रमेश ने उद्विग्न हो कर कहा - 'मैं सब समझ गया!'

रमेश के मकान के दरवाजे पर खड़े हो कर ये बातें हो रही थीं। दीनू से प्रसन्न होते हुए कहा - 'तुम कोई बच्चे तो हो नहीं, जो समझोगे नहीं! समझोगे क्यों नहीं? और फिर हम बुड्‍ढों को तो अपने परलोक की भी चिंता है - उस बेचारे गरीब ब्राह्मण को दोष नहीं दिया जा सकता!'

रमेश जल्दी से घर में घुसते हुए यह कहते हुए चला गया - 'हाँ, बात तो ठीक कह रहे हैं आप!'

रमेश को अब समझने के लिए कुछ बाकी न रहा था कि उसे जाति से अलग कर दिया गया है। उसकी आँखों से क्रोध की अग्नि निकलने लगी और हृदय व्यथा से भर उठा। सबसे ज्यादा बात जो उन्हें खटक, वह यह थी कि भैरव को, मुझे न बुलाने पर; पिछले व्यवहार के लिए क्षमा कर दिया है और अब वह उनका आदमी हो गया है। रमेश कुर्सी पर बैठते हुए, एक ठण्डी आह भर कर अपने-आपसे बोला - 'भगवान, इस कृतघ्न को कोई दण्ड भी है? क्या तुम क्षमा कर सकोगे इसे?'

अध्याय 15

वैसे तो रमेश को भी संदेह हो गया था कि भैरव ने उसके साथ धोखा किया है, और दूसरे दिन गोपाल सरकार ने शहर से लौट कर इस बात की पुष्टि भी कर दी कि भैरव ने अपने को अदालत में न हाजिर करके हमारे साथ दगा की है, और मुकदमा खारिज हो गया है। उसने जो कुछ रुपए जमा किए थे, वे सब वेणी के हाथ लगे। सुनते ही रमेश ऊपर से नीचे तक आग-बबूला हो उठा। रमेश ने भैरव को जाल से बचाने के लिए ही रुपए जमा किए थे, लेकिन उसने कृतघ्नता की हद कर दी! कल के अन्नप्राशन में निमंत्रित न किए जाने और आज की इस कृतघ्नता ने उनके समस्त तंतुओं को गुस्से से झनझना दिया। जिस अवस्था में वह बैठा था वैसे ही उठ कर बाहर जाने लगा। उसकी आँखों से रक्त बरस रहा था। गोपाल सरकार ने उनकी लाल आँखों को देख कर, डरते हुए धीरे से पूछा - 'कहीं जा रहे हैं क्या आप?'

'कहीं नहीं, अभी आया!' और जल्दी से वे भैरव के घर की ओर चले गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा - चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। वे घर में घुसे चले गए। उस समय भैरव की स्त्री तुलसी का दीपक जलाने के लिए खड़ी थी। रमेश को इस तरह अकस्मात आया देख कर, भैरव की स्त्री मारे डर के सिहर उठी। रमेश ने उससे पूछा - 'कहाँ हैं आचार्य जी?' रमेश के शरीर पर एक कुर्ता भी नहीं था और अँधेरे में केवल उनका चेहरा ही स्पष्ट दिखाई दे रहा था। रमेश के प्रश्‍न पर, भैरव की स्त्री ने अपने मुँह में ही बुदबुदा कर उत्तर दिया, जो स्पष्ट न होने के कारण रमेश को पूरा तो न सुन पड़ा, पर उसका निष्कर्ष उन्होंने यह निकाला कि भैरव घर पर नहीं है। तभी एक छोटे लड़के को गोद में लिए हुए भैरव की बड़ी लड़की लक्ष्मी बाहर निकली। अँधेरे में रमेश को न पहचान सकने के कारण उसने अपनी माँ से पूछा कि कौन हैं? माँ भी कुछ कह न सकी और रमेश भी मौन खड़ा रहा। लक्ष्मी दोनों में से किसी को बोलता न देख भयभीत हो चिल्ला पड़ी - 'बाबू! देखो, यह न जाने कौन आँगन में खड़ा है? कुछ बोलता भी नहीं!'

'कौन है। कहते हुए भैरव निकल आए। रमेश को इस अँधेरे में भी पहचानने में उन्हें देर न लगी। उनके हाथ-पैर सुन्न हो गए।

रमेश ने कर्कश स्वर में कहा - 'इधर तशरीफ लाइए!' और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, आगे लपक कर अपनी मजबूत मुट्ठी से उसके हाथ पकड़ लिए और तीव्र स्वर में पूछा -'तुमने ऐसा क्यों किया?'

भैरव रोने लगा - 'बाप रे बाप! मार डाला! दौड़ो रे दौड़ो! अरे, लक्ष्मी, जल्दी जा, वेणी बाबू से कह दे!'

घर भर के सारे बच्चे रोने-चीखने लगे और सारा मुहल्ला उनके रोने-बिलखने से गूँज उठा। रमेश ने उसे जोर से झटका देते हुए चुप रहने को कहा और डाँट कर फिर पूछा - बोलो, तुमने ऐसा क्यों किया?'

भैरव जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते ही रहे। रमेश की बात का उत्तर न दिया और बराबर रमेश से अपने को छुड़ाने के लिए खींचातानी करते रहे। हल्ला-गुल्ला सुन कर अड़ोस-पड़ोस के औरत-मर्द आँगन में जमा हो गए और देखते-देखते वहाँ भीड़-सी लग गई। लेकिन आवेशोन्मत्त रमेश ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और बराबर भैरव को दबोचते ही रहे। भीड़ अवाक् हो, चुपचाप खड़ी देखती रही। रमेश की शक्ति के बारे में लोग वैसे ही भयभीत थे। अनेक कहानियाँ उनके दल के बारे में प्रचलित हो गई थीं। उनके इस समय के रुद्र रूप को देख कर, उनको रोकने का किसी में साहस न हुआ। गोविंद तो पहले ही भीड़ में छिप गए थे। वेणी भी यह तमाशा देख-छिपने के लिए इधर-उधर ताकने लगे। लेकिन भैरव की नजर उन पर पड़ गई और वह एकदम चिल्ला पड़े - 'बड़े बाबू!' लेकिन उन्होंने उनकी एक व्यग्र पुकार की ओर ध्यान न दे, भीड़ में अपने को झट से छिपा लिया। तभी भीड़ में एक तरफ से खलबती-सी मची और दूसरे क्षण ही रमा रास्ता करते हुए रमेश के पास आ, उसका हाथ पकड़ कर बोली -'छोड़ दो अब! बहुत हो लिया!'

रमेश ने क्रोधित आँखों से उसकी ओर देखते हुए कहा - क्यों?'

रमा ने दाँत भींच कर गुस्से से स्वर में कहा - 'तुम्हें शर्म नहीं आती जो इतने आदमियों के बीच ऐसा कर रहे हो! मैं तो मारे शर्म के गड़ी जा रही हूँ।'

अब रमेश ने आँगन की तरफ उठ कर देखा और तुरंत ही भैरव को छोड़ दिया।

रमा ने अत्यंत कोमल सानुरोध स्वर में कहा - 'तुम घर जाओ अब!'

रमेश बिना एक भी शब्द बोले वहाँ से चला गया, मानो एक जादू-सा हो गया। रमेश के जाने के पश्‍चात रमा के कहने पर इस तरह शांतिपूर्वक चले जाने के प्रति, भीड़ में एक-दूसरे की आँखें मूक आलोचना करने लगीं। मानो वे नहीं चाहते थे कि यह घटना इस तरह समाप्त होती!

धीरे-धीरे सभी लोग वहाँ से जाने लगे। गोविंद गांगुली ने खतरा टला देख निश्‍चिंतता की साँस ले, भीड़ से निकल, गंभीर मुद्रा में उँगली नचाते हुए कहा, 'यह जो घर में आ कर वह भैरव को मार-मार कर अधमरा कर गया, इसके लिए क्या उपाय किया जाए, अब जरा इसका उपाय सोच लो!'

भैरव मुँह नीचा किए सिसक रहे थे। उन्होंने वेणी की तरफ दीनभाव से मुँह उठा कर देखा। रमा भी वहाँ मौजूद थी। वेणी का मंतव्य समझ कर बोली - 'बड़े भैया! वैसी तो कोई विशेष बात हुई नहीं है, जिनके कारण मामले को तूल दिया जाए, और फिर इधर भी दोष तो कम नहीं है!'

वेणी ने आश्‍चर्यान्वित हो कर कहा - 'यह तुम क्या कहती हो?'

लक्ष्मी भी खंभे के सहारे खड़ी रो रही थी। वहीं से तड़प कर बोली - 'तुम तो उसका पक्ष लोगी ही, रमा बहन! अगर तुम्हारे बाप को, तुम्हारे घर में घुस कर कोई मार जाता इस तरह, तो तुम क्या करतीं, जरा यह बताओ?'

रमा चौंक पड़ी उसका स्वर सुन कर। उसने आ कर इसके पिता की जान बचा दी थी। इसका एहसान वह माने, न माने, इसकी रमा को परवाह न थी, लेकिन उसका यह व्यंग्य वाक्य रमा के दिल में तीर की तरह चुभ गया। फिर भी वह अपने को संयत कर बोली - 'लक्ष्मी, ऐसी बात मत कहो! मेरे और तुम्हारे बाप में कोई समानता नहीं, और फिर मैंने तो तुम्हारा भला ही किया है!'

लक्ष्मी भी जवाब देने में किसी से कम न थी। गाँव की औरत जो ठहरी, तीव्र स्वर में बोली - 'बड़े घर की हो न! डर के मारे इसलिए कोई कुछ कहता नहीं! नहीं तो जग जाहिर है कि तुम क्यों उसका पक्ष ले रही हो? तुम्हारी जगह और कोई होती तो इतने पर फाँसी लगा लेती।'

वेणी ने लक्ष्मी को डाँटते हुए कहा - 'अरे चुप भी रह न! क्यों व्यर्थ में उखाड़ती है इन बातों को?'

'उखाड़ूँ क्यों नहीं? यह उसी का पक्ष लेकर बात जो कह रही है, जिसने बाबू को अधमरा कर दिया! कहीं कुछ हो जाता तो?'

रमा स्तब्ध हो गई। लेकिन लक्ष्मी को वेणी की इस डाँट ने उसके क्रोध को फिर सजग कर दिया। लक्ष्मी की तरफ देखते हुए उसने कहा -'ऐसे मनुष्य के हाथ से मौत पाना भी बड़े सौभाग्य की बात है, लक्ष्मी! अगर वे इनके हाथ से मर गए होते, तो निश्‍चय ही उनको स्वर्ग मिलता।'

लक्ष्मी के जले पर नमक लग गया। तिलमिला कर बोली - 'तभी तो तुम फिदा हुई हो उस पर!'

रमा ने इस बात का लक्ष्मी को तो कोई उत्तर दिया नहीं, वेणी की ओर उन्मुख हो बोली - 'यह क्या बात है, बड़े भैया? जरा साफ-साफ बताओ न!' वह एकटक प्रश्‍नात्मक नेत्रों से उनकी ओर देखती रही। मानो उसके नेत्र, वेणी के अंतर में भीतर तक आर-पार हो कर उसके दिल को टटोलना चाहते हों।

वेणी ने व्यग्र हो कर कहा - 'मैं तो कुछ जानता नहीं बहन! ये लोग ही ऐसी न जाने क्या-क्या लगाते फिरते हैं। उन पर ध्यान मत दो।'

'पर कहते क्या हैं ये लोग?'

वेणी ने अन्यमनस्क हो कर कहा - 'कहते फिरें, उनके कहने भर से ही तो किसी की दोष लग नहीं जाएगा!'

रमा ने यह अनुभव किया कि वेणी की वह बातें कोरी बनावटी सहानुभूति मात्र हैं। थोड़ी देर चुप रह कर उसने कहा - 'तुम्हें तो किसी बात के कहने से दोष नहीं लगता, लेकिन सब तो तुम्हारी तरह से हैं नहीं! लेकिन कहता कौन है, लोगों से यह सब बातें तुम?'

'मैं?'

रमा भीतर-ही-भीतर मारे गुस्से के सुलग रही थी। लेकिन ऊपर से बड़ी कोशिशों से अपने को संयत बनाए रही। आवेश में वह अब भी न आई, बोली - 'हाँ, तुम्हीं कहते हो! तुम्हारे अलावा और कोई नहीं कह सकता! भला दुनिया में ऐसा कोई काम है, जिसे तुम न कर सकते हो? चोरी, जालसाजी, आग, फौजदारी आदि सभी तो हो चुके हैं, अब इसी की कसर क्यों रह जाए?'

वेणी सकते में रह गए। उनके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका।

'तुम नहीं समझ सकते कि एक स्त्री के लिए उसके चरित्र पर दोष ही उसका सर्वनाश है! पर जानना तो मैं भी यही चाहती हूँ कि भला इसमें तुम्हारा क्या लाभ है मेरी बदनामी करने में?'

वेणी ने सहम कर काँपते स्वर में कहा - 'मैं क्या लाभ प्राप्त करूँगा?' लोगों ने स्वयं अपनी आँखों से, तुम्हें सवेरे के समय रमेश के घर में से निकलते देखा है!'

रमा ने उसकी इस बात को अनसुनी कर कहा - 'यहाँ इतनी भीड़ में और कुछ मैं कहना नहीं चाहती, पर इतना तो अवश्य ही कहे देती हूँ बड़े भैया कि तुम्हारे मन में क्या है सो मैं सब जानती हूँ। और यह भी तुम्हें चेताए देती हूँ कि तुम्हें मार कर ही मरूँगी!'

भैरव की पत्नी स्तब्ध खड़ी सब तमाशा देख रही थी। उसने रमा का हाथ पकड़ कर अत्यंत कोमल स्वर में कहा - 'पागल न बनो बेटी! सब जानते हैं कि तुम क्या हो? लक्ष्मी औरत हो कर भी, तू एक औरत की बदनामी क्यों करती है? मेरे ऊपर दया कर। इन्होंने जो तेरे बाप की जान बचाई है, उसे अगर सचमुच तेरे अंदर जरा भी अक्ल होती तो समझती!' और रमा को वह अपनी कोठरी में लिवा ले गई। उपस्थित लोग उसकी यह व्यंग्य भरी बात सुन, धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।

रमेश इस घटना के बाद अपने आवेश पर स्वयं ही इतने खीझा कि उनसे उसके बाद, दो दिन घर से बाहर न निकला गया। रह-रह कर उनके मानस पटल पर, रमा ने स्वयं आ कर भीड़ के सामने उनके इस अवांछनीय आवेशपूर्ण कार्य की लज्जा को जो बताया, उसका विचार बार-बार अपनी झलक दिखाता रहा, और अपने कृत्य की लज्जा से मस्तक पर एक ओजस्वी आभा अंकित करता रहा। अत: उनके अंतर में जहाँ एक ग्लानि की भीषण जलन थी, वहीं पर रमा के इस प्रकार के आचरण का शीतल मलहम उन्हें शांति भी प्रदान कर रहा था। उन्हें यह भी ज्ञात न था कि जिस समय वे यह विचार कर रहे थे कि अभी और कुछ दिनों तक बाहर नहीं निकलना चाहिए, उसी समय विश्‍व प्रांगण में एक अन्य प्राणी भी इसी प्रकार की जलन से पीड़ित हो रहा था।

पर वे और अधिक अज्ञातवास न कर सके। पीरपुर गाँव की आज शाम की पंचायत में शरीक होने के लिए कई आदमी उन्हें बुलाने आए थे। रमेश ने ही स्वयं इस पंचायत की योजना बनाई थी। यह सुन कर कि आज उसकी बैठक हो रही है, उसमें जाने से वे किसी प्रकार न रुक सके और तैयार हो गए।

आस-पास के सभी गाँवों में गरीबों की संख्या बेशुमार है। अनेक तो उसमें से ऐसे हैं, जो खेतहीन मजदूर हैं, जिसके पास अपने जोतने-बोने के लिए एक बीघा भी जमीन नहीं है। दूसरों के खेतों पर मेहनत-मजदूरी कर पेट पालना ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है। यह नहीं कि वे हमेशा से गरीब ही रहे हों, पर समाज के आर्थिक ढाँचे ने उन्हें इस दशा में पहुँचा दिया है। महाजनों के कर्ज में दब कर, उनके सूद की चक्की में पिस कर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति गँवा दी और वे महाजन इनकी बेबसी पर ही धनी बन बैठे। महाजन रुपए के सूद में, नकद न लेकर फसल के रूप में सूद लेते, जिससे कभी-कभी तो उन्हें मूल धन के बराबर फायदा हो जाता। जीवन में एक बार भी अगर कोई किसान - चाहे वर्षा की कमी के कारण अथवा किसी सामाजिक कार्य के लिए - कर्ज लेने पर विवश हो जाता तो फिर जीवन भर ही क्यों पुश्त-दर-पुश्त तक वह उसके जाल से छुटकारा न पाता। इस जाल में हिंदू-मुसलमान दोनों ही किसानों के जीवन छटपटा रहे हैं।

किताबों में रमेश ने थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त की थी इस विषय की। पर उसका वीभत्स रूप उसने गाँव में ही आ कर, स्वयं अपनी आँखों से देखा, तो मारे विस्मय और क्षोभ के उसकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। उसने सोचा कि जो रुपए बैंकों में पड़े हैं, उनसे ही इन महाजनी जोंकों से उद्धार किया जाए। पर इस मार्ग में उन्हें ठोकर खानी पड़ी थी, जिसके अनुभव के कारण उन्होंने अपना इरादा बदल दिया और उनकी कुछ-कुछ धारणा ऐसी हो चली कि ये लोग जितने निर्धन और लाचार हैं, उतनी ही उनमें बुराइयाँ भी कूट-कूट कर भरी हैं। कर्ज लेकर न चुकाना तो उनके लिए साधारण-सी बात है! यही नहीं कि सभी ऐसे हैं! कुछ अच्छे लोग भली प्रकृति के भी हैं। पास-पड़ोस की सुंदर स्त्रियों और कुमारियों के बारे में बातें करना भी इनकी दिनचर्या में शामिल है। विधवा तो सभी घरों में प्राय: किसी-न-किसी अवस्था की है ही। पुरुषों के विवाह में दिक्कत पेश आने लगी है, तभी इनके समाज का नियमन काफी बड़ा है। कुछ भी हो, पर इनकी दुर्दशा देख कर किसी भी दिलवाले के लिए उधर से आँख फेरना मुश्किल है, जैसे बुराई में फँसे पुत्र की तरफ पिता की भावना होती है, वैसा ही रमेश की भावना भी इन लोगों के प्रति हो रही थी। पीरपुर की आज की पंचायत का उद्देश्य भी यही था।

शाम हो चली थी। चाँदनी बाहर के मैदानों पर अपनी शीतल चादर बिछा रही थी। रमेश तैयार हो कर खड़ा था वहीं जाने को, पर पैर नहीं बढ़े थे उधर अभी। कुछ सोच के वहीं खड़ा था कि रमा आ गई। उजाला न होने के कारण रमेश पहचान न सका, घर की नौकरानी समझ कर बोला - 'क्या चाहिए?'

'बाहर जा रहे हैं क्या आप?'

रमेश चौंक कर बोला - 'कौन, रमा? कैसे आईं इस समय?'

वह इस समय क्यों आई थी, यह बताना तो बेकार था, पर जिस काम से आई, उसके बारे में बहुत-सी बातें कहने को थीं। वह समझ नहीं पा रही थी कि बात कैसे शुरू हो। वह चुपचाप खड़ी रही, रमेश भी चुप रहा। थोड़ी देर बाद रमा बोली - 'कैसी है अब आपकी तबीयत?'

'ठीक नहीं है! रात को रोज ही बुखार आता है।'

'तो फिर आपके लिए तो यही अच्छा है कि कहीं बाहर घूम आइए जा कर!'

'होगा तो अच्छा! लेकिन कैसे जाऊँ?' कह कर थोड़ी व्यंग्य भरी मुस्कान खिल उठी उनके होंठों पर।

रमा उनकी हँसी से क्रोधित हो कर बोली - 'मैं जानती हूँ कि आप बहाना करेंगे कि यहाँ काम बहुत जरूरी है। पर मैं पूछती हूँ कि ऐसा कौन-सा जरूरी काम है, जो स्वास्थ्य से भी बहुत अधिक जरूरी है!'

रमेश ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा - 'स्वास्थ्य को गैरजरूरी तो मैं भी नहीं कहता, पर दुनिया में मनुष्य के सामने कभी-कभी ऐसे भी अवसर आते हैं, जब उनके सामने के काम का मूल्य जीवन से भी अधिक होता है! पर वह तो सब कुछ तुम्हारी समझ से परे है, रमा!'

'वह कुछ भी समझना-सुनना मैं नहीं चाहती! बस, इतना जानती हूँ कि आपको कहीं बाहर जाना ही होगा! आप सरकार बाबू को सहेज जाइएगा, मैं देखभाल करती रहूँगी सब काम-धंधो की।'

रमेश ने आश्‍चर्यान्वित हो कहा - 'तुम करोगी देखभाल? और मेरे काम की? पर...!'

'पर-वर क्या?'

'मैं क्या विश्‍वास कर सकूँगा तुम पर?'

रमा ने सरल भाव से कहा - 'चाहे कोई और न भी कर सके, पर आप तो कर ही सकते हैं!'

रमा के इस नि:संकोच दृढ़ उत्तर से रमेश विस्मय में पड़ गया। थोड़ी देर मौन रह कर बोले - 'देखो, सोचूँगा!'

रमा ने उसी दृढ़ता से कहा - 'सोचने का समय अब नहीं है! आपको तो आज ही कहीं बाहर जाना होगा, और यदि नहीं गए तो...।'

रमा का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि रमेश के चेहरे पर लगी उसकी दृष्टि ने उसे व्यग्र होते अनुभव किया, क्योंकि रमा का यह अधूरा वाक्य ही भावी आशंका की सूचना के लिए काफी था। रमेश ने कहा - 'समझ लो, मैं चला गया! पर तुम्हें क्या लाभ होगा मेरे जाने से? तुमने स्वयं भी तो मुझे संकट में फँसाने में कोई कसर उठा नहीं रखी! तो फिर आज ही ऐसी क्या बात है, जो आगाह करने चली आईं? अभी सब घाव ताजा ही हैं! तुम स्पष्ट कहो कि अगर मैं चला जाऊँ तो तुम्हें क्या लाभ होगा? हो सकता है, तुम्हारा लाभ जान कर मैं जाने को तैयार हो भी जाऊँ!'

और रमा के उद्विग्न चेहरे की तरफ रमेश उत्तर की प्रतीक्षा में टकटकी लगा कर देखने लगे। पर रमा ने कोई उत्तर न दिया। रमेश अँधेरा होने के कारण न देख सका कि उनके व्यंग्यात्मक वाक्यों से रमा का स्वाभिमान कितना आहत हो उठा है! जितनी वेदना से उसका चेहरा विकृत हो उठा है। थोड़ी देर तक मौन रह कर अपने को सचेत कर रमा ने कहा - 'स्पष्ट ही कहती हूँ कि तुम्हारे जाने से लाभ तो मेरा कुछ भी न होगा, पर नुकसान अवश्य ही बड़ा होगा, गवाही देनी पड़ेगी मुझे!'

रमेश के स्वर में नीरसता थी, बोला - 'तो यह मामला है? लेकिन गवाही न दो तो क्या होगा?'

थोड़ी देर रुक कर रमा ने कहा - 'दो दिन बाद हमारे यहाँ पूजन है -महामाया का। गवाही न देने से कोई भी हमारे उस पूजन में शरीक न होगा और न फिर कोई यतींद्र के यज्ञोपवीत संस्कार के समय हमारे यहाँ भोजन ही करेगा!' कहती हुई रमा सिहर उठी।

इतना ही काफी था सारी परिस्थिति समझने के लिए पर रमेश से न रहा गया; पूछा - 'फिर क्या होगा?'

रमा ने तिलमिलाते हुए कहा - 'फिर...? नहीं-नहीं! जाना ही होगा तुम्हें! तुम चले जाओ! मैं विनती करती हूँ तुम्हारी, रमेश भैया! मैं बरबाद हो जाऊँगी, अगर तुम न गए तो!'

थोड़ी देर बाद तक दोनों में से कोई भी न बोल सका! अब से पहले रमा के मिलते ही रमेश आवेश से भर उठता था और लाख कोशिशें करने पर भी उसका मन शांत न हो पाता था। अपने इस आवेश और उन्मत्तता पर तब वह स्वयं ही खीज उठता, हृदय शांत न हो पाता था। इस समय भी, रमा को अपने घर के एकांत में पा कर, और पिछले दिन की घटना याद करके वह फिर आवेशोन्मत्त हो उठा। लेकिन रमा के अंतिम वाक्य ने उसके उन्मत्त ज्वार को वहीं शांत कर दिया। रमा के इस आग्रह में रमेश की स्वास्थ्य-चिंता के बहाने में अपना कितना जबरदस्त स्वार्थ छिपा था - इसे सुनते ही रमेश पर कटे पक्षी की तरह अपने भीतर-ही-भीतर तिलमिला उठा और एक दीर्घ नि:श्‍वास छोड़ कर बोला -'चला जाऊँगा! पर आज तो हो नहीं सकता! समय नहीं रहा अब और फिर मेरे यहाँ से चले जाने पर तुमको जितना बड़ा लाभ होगा - उससे कहीं जरूरी है मेरा आज रात को यहीं करना! तुम अपनी दासी को बुला कर जाओ। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ।'

'आज नहीं जा सकते क्या, किसी भी तरह?'

'नहीं!...दासी कहाँ गई तुम्हारी?'

'मैं अकेली ही आई हूँ।'

रमेश चकित रह गया, बोले - 'क्यों? साहस कैसे किया तुमने, यहाँ अकेले आने का?'

रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'क्या फायदा होता - उसे ला कर भी? वह होती भी तो तुम्हारे हाथ से मेरी रक्षा नहीं हो सकती थी। मैं आ सकी इसलिए, क्योंकि तुम पर मेरा विश्‍वास था!'

'वह ठीक है, लेकिन इस तरह जो झूठी बदनामी उड़ सकती है, उसकी ढाल तो वह बन सकती थी, रानी! रात भी काफी हो गई!'

रमेश बचपन में रमा को इसी नाम से पुकारता था। अपने उसी पुराने संबोधन को सुन कर रमा आत्मविभोर हो उठी, पर संयत हो कर बोली - 'वह भी बेकार ही होता, रमेश भैया! उजली रात है, अकेली ही जा सकती हूँ।'

और बिना किसी बात की प्रतीक्षा किए, रमा वहाँ से चली गई।

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