Deeh Baba (Hindi Story) : Rahul Sankrityayan

डीह बाबा (अकाल की बलि) : राहुल सांकृत्यायन

जीता भरजाति के थे । कौन सी भर जाति ? ईसा से प्राय; दो हजार वर्ष पूर्व जब आर्य भारत में आये, तब से हजारों वर्ष पूर्व जो जाति सभ्‍यता के उच्‍च शिखर पर पहुंच चुकी थी, जिसने सुख और स्‍वच्‍छतायुक्‍त हजारों भव्‍य प्रासदों वाले सुदृढ़ नगर बसाये थे, जिसके जहाज समुद्र में दूर दूर तक यात्रा करते थे, वही जाति । व्‍यसन निमग्‍न पाकर आर्यों ने उसके सैंकड़ों नगरों को ध्‍वस्‍त किया, तो भी उसके नाम की छाप आज भारत देश के नाम में है । वही भरत-जाति या भरजाति ।

पराजित होने पर भी भर जाति आर्यों को सभ्‍यता सिखलाने में गुरु बनी । दुनिया में ऐसे अनेक दृष्‍टान्‍त हैं, जहां पराजित जाति विजेता असभ्‍य जाति को अपनी सभ्‍यता द्वारा पराजित करने में सफल हुई । सिन्‍धु की उपत्‍यका (जहां इन दोनों जातियों का संघर्ष हुआ) में भी सैंकड़ों वर्ष पीछे भर जाति शासन, वाणिज्‍य कला कौशल सिखलाती और दास वृत्ति करती बसी रही । सभ्‍य बन जाने पर दीर्घकाय, गौरवर्ण, भूरे केश, लम्‍बी खोपड़ी और नीली आंखों वाले आर्यों को ये श्‍याम वर्ण चिपटी नाकों और, खर्वकाय लोग बुरे लगने लगे । बढ़ती हुई जनसंख्‍या, पास-पड़ोस में रहने से सन्‍तति में वर्णसंकरता और आर्थिक प्रतिद्वन्दिता –ये बातें थीं जिनके कारण आर्य लोग सिन्‍धु उपत्‍यका से उन्‍हें निकालने पर मजबूर हुए । धीरे धीरे भर लोग पश्चिम से पूर्व की ओर हटने लगे । आर्य भी सभ्‍यता वृद्धि के साथ नये प्रदेशों की खोज में पूर्व की ओर फैलने लगे । जैसे जैसे समय बीतता गया और समय पाकर भरत जाति ने अपनी भाषा छोड़कर आर्यों की भाषा छोड़कर आर्यों की भाषा को अपना लिया, लेकिन इन बातों ने भिन्‍नता की खाई पाटने में मदद न पहुंचाई ।

सिन्‍धु उपत्‍यका की इस सभ्‍य जाति ( जिसके प्राचीन नगरों के भव्‍य ध्‍वंशावशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्‍पा के रूप में आज भी जगत को चकित कर रहे हैं ) की एक प्रधान शाखा पूर्वीय युक्‍तप्रान्त और बिहार में बसकर भर नाम से प्रसिद्ध हुई ।

जीता भर के पूर्वज कनैला में कब पहुंचे ? इसका निश्चित करना आसान काम नहीं है । बड़ी पोखर की सील सी लम्‍बी चौड़ी ईंटें बतलाती हैं कि वह गुप्‍तकाल से पीछे नहीं हो सकता । संभव है ईसा पूर्व दूसरी शताब्‍दी (शुंग काल) वे ईंटें वहां मौजूद हों, जबकि पतंजलि जैसे ब्राहमणों ने बुद्ध के समता के उपदेश एवं मौर्यों के सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव से नष्‍ट होने वाली वर्ण-भेद की भयंकर व्‍याधि को फिर से उज्‍जीवित किया । ब्राहमणशाही ने अब पुरानी जातियों को फिर सिर न उठाने का मौका न देने का पक्‍का इरादा कर लिया था । फलत; माण्‍डलिक राजा या बड़ा सामन्‍त बनने के लिए अब गौरवर्ण या ब्राहमणों का अनुयायी होना अनिवार्य हो पड़ा ।

उस समय जीता के पूर्वज कनैला और उसके आसपास के कितने गांवों के मालिक थे ।

बारहवीं शताब्‍दी में भी कनैला जीता के पूर्वजों का था किन्‍तु गुप्‍त, वैस, प्रतिहार, गहड़वार सभी के शासन काल ने बराबर भर जाति को नीचे गिराने का प्रयत्‍न किया गया । ऐसा क्‍यों न होता, जबकि इस शूर जाति ने चाहे कुद भी हो ब्राहमणशाही के सामने सिर न झुकायेंगे –की कसम खा रखी थी । ब्राहमणों का फतवा निकला, बड़ी जाति वाले न सुअर पालें और न खायें । भरों ने कहा कल तक तो इनके पुरखे भी सुअर के मांस का भोग लगाते थे, आज यह नई बात क्‍यों ? पास के मठ के बौद्ध भिक्षुकों की सम्‍मति अपने अनुकूल पाकर उनकी धारणा और भी पक्‍की हो जाती थी । उन्‍हें क्‍या मालुम था कि एक दिन उनकी सन्‍तान का इन्‍हीं ब्राहमण न्‍यायाधीशों से पाला पड़ेगा और उस समय कोई भिक्षु उनकी हिमाकत करने के लिए नहीं बच रहेगा ।

काशीपति जयचन्‍द तुर्क़ों से युद्ध करते मारे गये । उनके पुत्र हरिश्‍चन्‍द्र कितने ही वर्षों तक अपने राज्‍य के पूर्वीय भाग पर शासन करते रहे । पश्चिम के तुर्क़ आगे बढ़ते आ रहे थे और तेरहवीं सदी के समाप्‍त होने से बहुत पहले ही पूर्व भी तुर्क़ों के हाथ से चला गया ।

कनैला के भर सामन्‍त निश्‍चय ही वीर थे, परन्‍तु वे समझदार न थे । कई बार छोटी मोटी सैनिक टुकड़ियों को हरा देने से उनका मन बढ़ गया था । आखिर एक बड़ी तुर्क़ सेना ने चढ़ाई की । पहले की लड़ाइयों के कारण उनकी संख्‍या बहुत कम हो गई थी, तो भी भर सैनिकों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुकाबला किया । वह एक एक कर युद्ध क्षेत्र में काम आए । उनके कोट पर तुर्क़ी फौजी चौकी बैठा दी गई । उनके फौजी सरदार ने हुक्‍म दिया, सभी मुसलमान हो जायें, नहीं तो कत्‍ल कर दिए जायेंगे । चूड़ी वाले पहले तैयार हुए । दर्जियों एवं धुनियों ने भी कुछ आगा पीछा कर अपनी स्‍वीकृति दे दी । दूसरी जाति वालों में से कुछ घर छोड़कर भाग गये, कुछ अपने विश्‍वास के लिए बलिदान हुए, और कितनों ने इसलाम धर्म को अपनाकर अपनी प्राण रक्षा की । तुर्क़ फौज ने अनाथ भर स्‍त्री, बच्‍चों पर भी अपनी तलवार आजमाई, लेकिन पीछे उसे अपनी हृदय हीनता नर लज्‍जा आई ।

कनैला में तुर्क़ों की छावनी कितने दिनों तक रही, यह निश्‍चय से नहीं कहा जा सकता । हां, उनके अत्‍याचारों का एक उदाहरण वहां अब भी विद्यमान है । तुर्क़ अफसर की आज्ञा थी कि उसके शासित प्रदेश में जो कोई नवविवाहिता स्‍त्री मिले, उसे एक दिन के लिए जबर्दस्‍ती महल में लाया जाय । एक समय एक अभागा ब्राहमण अपनी नवविवाहिता पत्नि को डोले पर लिए उधर से आ निकला । जिस समय वह और उसके साथ कहार कोट से पूर्व दलसागर पर जलपान कर रहे थे, उसी समय तुर्क़ी सिपाही आ पहुंचे । उन्‍होंने डोले को महल ले चलने को कहा । थोड़ी देर तक ब्राहमण भौचक सा रहा । पीछे सोचकर उसने कहा –मुझे अपनी स्‍त्री को जरा समझा लेने दें, जिससे वह डर न जाय, पीछे आप डोले को ले जायें ।

देर तक प्रतीक्षा कर सिपाहियों ने डोले के पर्दे को खोलकर उठाया, देखा वहां दो तरुणों के धड़ से अलग हुए सिर पड़े हैं ।

दलसगड़ा (दलसागर) के पश्चिमी तट पर एक विशाल बरगद के नीचे रखी दूध से सिक्‍त मिट़टी की दो पिण्डियां आज भी उन तरुणों के प्रेम और तुर्क़ों के अत्‍याचार का स्‍मरण दिला रही हैं ।

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किसकी सदा एक सी बनी रही ? तुगलकों और खिल्जियों का अन्‍त होते होते कनैला के तुर्क़ शासकों का भी अन्‍त हो गया । निर्वाह का सुभीता न होने से बहुत से निवासी जहां तहां चले गये । पीछे रह गये चूड़ी वाले, दर्जी, धुनिया, कोइरी और थोड़ी सी बची हुई भर सन्‍तान । लेकिन इन तीन शताब्दियों की बारह पीढ़ियों में भर कुछ से कुछ हो चुके थे । न उनके पास धरती थी, न धन और न उनका समाज में पहले के समान स्‍थान ही था । ब्राहमणों का विरोध कर उन्‍होंने उन्‍हें अपना शत्रु बना लिया था कि अब ब्राहमण का अनुयायी होने पर भी उन्‍हें क्षमा न कर सकते थे । उन्‍होंने अपनी बेवसी को तुरन्‍त स्‍वीकार नहीं किया, लेकिन सैंकड़ों वर्षों तक बागी बनकर, छापा मारकर भी देख लिया कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता । तो भी पूर्वजों का उष्‍ण रक्‍त उनकी नसों में बह रहा था । जब अपने बच्‍चों को पेट की ज्‍वाला में जलते देखते, तब वे और न सह सकते थे । इसीलिए जीविका के लिए मजदूरी और सुअर पालने के अतिरिक्‍त उनमें से किन्‍हीं-किन्‍हीं को चोरी का पेशा भी करना पड़ता था ।

वे अपने पूर्वजों को कितना भूल चुके थे, यह इसी से स्‍पष्‍ट है कि भर माताएं कनैला की पुरानी गाथा सुनाते वक्‍त बच्‍चों से कहती थीं—‘’पहले इस कोट पर एक राजा रहता था। उसकी बड़ी रानी ने एक पोखरा (तालाब ) खुदवाया, जिसके नाम पर पोखरे का नाम बड़ी पड़ा । लहुरी (छोटी) रानी ने वह पोखरा खुदवाया, जिसे आजकल लहुरिया कहते हैं । राजा की एक लाण्‍डी ने भी एक पोखरा खुदवाया जो उसकी जाति के नाम पर नाउर कहा जाता है ।‘’ वे यह न जानती थीं कि कनैला का वह राजा उन्‍हीं का पूर्वज था ।

शेरशाह, अकबर, जहांगीर और शाहजहां के प्रशान्‍त शासन में भारत की—विशेषत; उत्‍तरी भारत की अवस्‍था बहुत अच्‍छी थी । लूट-पाट और छोटे छोटे सामन्‍तों की मारकाट रुक गई थी । यद्यपि औरंगजेब ने अकबर की शांति और सहिष्‍णुता की नीति त्‍याग दी थी, किन्‍तु उसका युद्ध क्षेत्र प्राय; दक्षिण भारत रहा । इस प्रकार सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दियों में जनसंख्‍या बढ़ने लगी । लोग अनुकूल भूमि की खोज में घर छोड़कर दूर दूर जाकर बसने लगे ।

सत्रहवीं शताब्‍दी के अन्‍त में मलांव के पण्डित चक्रपाणि पांडे काशी से विद्या पढ़कर घर लौट रहे थे । रास्‍ते में एक हिन्‍दू सामन्‍त के यहां ठहरे । लोग तो कहते हैं, पण्डित जी की धोती को आकाश में सूखती देख सामन्‍त उनका भक्‍त हो गया, लेकिन वास्‍तविक बात थी, पण्डित का अद़भुत पाण्डित्‍य । सामन्‍त ने ब्राहमण चक्रपाणि को बहुत सी भूमि दान में दी, और पण्डित जी सरवार (सरयूपार) से आकर यहीं बस गये । उन्‍हीं के नाम पर उस गांव का नाम चक्रपाणिपुर (चक्रपान पुर) पड़ा ।

चक्रपाणि की चौथी या पांचवीं पीढ़ी (प्राय;1750 ईस्‍वी) में उनके ज्‍येष्‍ठतम वंशज अपने गांव की भूमि को अपर्याप्‍त समझ पास के कनैला गांव में जा बसे । नहीं कहा जा सकता, उन्‍होंने कनैला का स्‍वामित्‍व जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति से प्राइज़ किया या अन्‍य किसी शान्तिमय ढंग से । यह तो निश्‍चय है कि कनैला चक्रपाणि की भूमि में सम्मिलित न था, अन्‍यथा चकरपानपुर वालों का मार्ग कनैला में क्‍यों न होता, जबकि कनैला वालों का हक चकरपानपुर में था ।

कनैला में आकर बसने वाले प्रथम ब्राहमण देवता में न पण्डिताई थी और न किसान बनने की इच्‍छा । उन्‍होंने अपन रहने के लिए एक छोटा कोट बनवाया । उस समय डाकुओं और शत्रुओं से रक्षा पाने के लिए इसकी बड़ी आवश्‍यकता थी । गांव में नौ सौ एकड़ भूमि थी । ब्राहमणों के अतिरिक्‍त चूड़ी वाले, दर्जी, धुनिया, कोइरी, चमार और भर वहां की प्रजा थे । कनैला की आधी से अधिक जमीन उसर या परती थी । बाकी में खेत थे । जौ, गेहूं के खेतों का अधिकतर भाग उस जगह पर था जहां पुरानी बस्‍ती का कोट और डीह था । प्रथम पुरुष के तीनों पुत्रों की बढ़ती सन्‍तानों की भूमि का बंटवारा कर लेने पर पहले जैसा ठाकुरी ठाठ नहीं चल सकता था । अगर उन्‍होंने धान के खेतां को खास अपनी जोत में न रखा, क्‍योंकि उसमें परिश्रम कम करना पड़ता था । दूसरे खेतों को अपने भर मजदूरों के जिम्‍मे कर दिया ।

भर अपने अतीत के गौरव को भूल चुके थे । बीच के चार सौ वर्षों में जिस दुरवस्‍थाओं से होकर उन्‍हें गुजरना पड़ा, उन्‍हें यादकर अब वे वर्तमान अवस्‍था में ही सन्‍तुष्‍ट थे । उन्‍हें नये मालिकों का वर्ताव अच्‍छा मालुम होता था । मालिकों ने अपना सारा काम उनके उपर छोड़ रखा था । यद्यपि भरों का सुअर पालना उन्‍हें अच्‍छा न लगता था, तो भी वे उनकी स्थिति काफी उंची समझते थे । इसीलिए, वे भर के भरे पानी से मिश्रित गन्‍ने के शरबत को नि:संकोच पीते थे ।

ब्राहमणों की चौथी पीढ़ी (1825 ईस्‍वी के करीब) की अवस्‍था बहुत ही भयावह थी । पूर्व दिशा में भदया के राजपूत और दक्षिण दिशा में बेलहा के वैस उनकी बहुत सी भूमि हड़प लेना चाहते थे । अंग्रेजी राज्‍य कायम हो जाने पर भी लाठी और तलवार का जमाना था । यदि उस समय जीता के पूर्वजों का बाहुबल ब्राहमणों के साथ न होता, तो कौन कह सकता है, कनैला वाले अपनी बहुत सी भूमि खो न बैठे होते । बेलहा वाले जब कितनी ही बार लोहा लेने में असफल हुए, तब उन्‍होंने सीमा के झगड़े का निर्णय पंच द्वारा कराना चाहा । कनैला वालों ने भी इसे मंजूर किया । किन्‍तु घूस लेकर सीमा की रेखा खींचते वक्‍त पंच कनैला बस्‍ती के पास की ओर बढ़ने लगे । अधिक चुप रहने का मतलब था और भी भूमि से हाथ धोना, इसलिए भर अपने मालिकों के साथ हथियार ले निकल पड़े । पंच भी संभल गये और वे और आगे न बढ़े । इस पंचायत में कनैला वालों के सैंकड़ों बीघे धान के खेत निकल गये ।

अतीत की शताब्दियों की मार खाते खाते उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अनत में कनैला के भर तीन टोलों में बसे थे । सबसे पश्चिम वाले टोले के मुखिया जीता भर थे । इसीलिए उसे जीता भर का टोला कहा जाता था । वह कुल नौ घरारें की बस्‍ती थी । सभी घर फूस के थे । प्रत्‍येक घर में सुअरों के रहने के लिए एक छोटा सा झोपड़ा रहता था । सावन-भादों और माघ-पूस में सभी के घरों में अनाज का अभाव हो जाता था, लेकिन जीता की अवस्‍था औरों से कुछ अच्‍छी थी । सुअर पालने, थोड़ी से खेती तथा मालिकों की मजदूरी करने के अतिरिक्‍त जीविका के लिए जीता के भाई बन्‍दों ने कुछ काम महुए और तार के वृक्ष भी लगा रखे थे । ताड़ी के मौसम में शाम को मटकियों में ताड़ी भर वे अपनी पान गोष्‍ठी रखते थे । थोड़ी ही देर में वे अपनीवर्तमान अवस्‍था को भूल जाते थे । उस समय यदि आप वहां रहते तो उनके मुंह से भली बुरी बातों के अतिरिक्‍त सैंकड़ों वर्षों के पुराने गीत और कथाएं भी सुनते । ब्‍याह और होली के अवसर पर भर स्‍त्री-पुरुष नृत्‍य करते थे । चरित्रहीन धनिकों ने जब नृत्‍य की दिव्‍य कला को वेश्‍याओं के हाथ में दे उसे लज्‍जा की बात बना दिया तब भी इन जैसी कुछ जातियों ने सभी फतवों को ताक में रख इस कला के कुछ अंश जीवित रखा ।

सन 1304 फसली (1897 ईस्‍वी) का समय था । रोहिणी नक्षत्र में एक भी बूंद न पड़ी । मृगसिरा को तपते देख लोगों को आशा हुई कि आर्द्रा वर्षा लायेगी, लेकिन आर्द्रा भी चली गई । कुछ लोगों ने वर्षा की आशा से कुंए से पानी भरकर धान का बीज डाल दिया । पुनर्वसु और पुष्‍य आए और चुपचाप चले गये । दिन को आकाश में जहां तहां बादलों को मंडराते और रात को नंगे नीले आकाश को देखकर जब कोई कह उठता- "रात निबद्दर दिन में छाया, कहें घाघ अब बरसा गया" तो किसानों के कलेजे में बज्र सा लग जाता था । आश्‍लेषा को मौन देख लोगों का धैर्य विचलित होने लगा । मघा, पूर्वा, उत्‍तरा, हस्‍त, चित्रा सभी में पानी का पता था, सिर्फ ज्‍योतिषियों के पन्‍ने में ।

सन चार का घोर अकाल अपना विकराल रूप धारण कर रहा था । कितने ही कुंए सूख गये । लोगों ने वृक्षों की पत्तियां पशुओं को खिला दी । दूसरे मजदूरों की भांति जीता के टोलों वालों को भी चैत की फसल की कमाई आषाढ़ के पहले खतम हो जाती थी । सावन, भादों कुछ उपवास और मजदूरी पर कटते थे । अब की भी उन्‍होंने उसी तरह बिताया, किन्‍तु बहुत भेद था । कहां और सालों का फांका, निकट भविष्‍य की आशा सामने रखता था और कहां इस साल का घोर अन्‍धकारमय भविष्‍य ।। भदई (खरीफ) की फसल बोई ही नहीं गई । खेतों की भूमि पत्‍थर सी कड़ी थी । ताल पोखरों में जल की बूंद न थी । ऐसी अवस्‍था में रबी (जौ, गेहूं) की फसल होने की कौन आशा करता ? सावन, भादों और क्‍वांर के तीन महीनों के नब्‍बे दिन, जिनके लिए नब्‍बे युग की भांति कटे हों, अगले जेठ तक के ढाई सौ दिनों का क्ष्‍याल मन में आते ही क्‍यों न कांप उठें । जीता के मालिकों ने कुछ सहायता जरूर की किन्‍तु वे कहां तक सहायता करते । उनके पास भी तो अन्‍नपूर्णा का अटूट भण्‍डार न था ।

सूखे मुंह कृशगात्र बच्‍चों के लिए भूखे माता पिता अपने सरदार जीता के पास जमा होते थे । उनकी वेदना को प्रकट करने के लिए शब्‍दों की आवश्‍यकता न थी । जीता बहुत सहृदय और चतुर थे । उनका चिज्‍ज यह सब देखकर विकल हो उठता था । वे दिल थामकर कहते थे - "आगम अंधकार में है-तो भी देव की बड़ी बांह है । क्‍या जाने स्‍वाती बरस जाय ! "

जब उनमें से कोई विदेश जाने की बात कहता तो जीता कह उठते, "हमारी सैंकड़ों पीढ़ियां इसी धरती में गल गईं । अपनी जन्‍म धरती छोड़कर विदेश में भागें ? धीरज धरो, भगवान कोई रास्‍ता निकालेंगे । फिर बोलते –अच्‍छा आज भूरा सुअर मारो । लेकिन थोड़ा-थोड़ा खाना । बच्‍चों को अधिक देना सयानों को कम ।"

जीता की दृढ़ता और आश्‍वासन से सबका चित्‍त कुछ देर के लिए शांत हो जाता, किन्‍तु स्‍वयं जीता के अपने चित्‍त में प्रलय का दावानल दहक रहा था । वे अगले आठ मास की भयंकरता को भलीभांति समझते थे । हर तीसरे चौथे दिन लोग फिर पहुंचते थे । जीता ने अपने दादा के वक्‍त के आभूषण ख्‍अपनी प्रिय अकबरी ताबीज को ही नहीं बेंच डाला, बल्‍िक घर में चांदी-कांसे का जो भी जेवर, जो भी बर्तन या चीज थी, सभी को बेंचकर अपने टोले को जिलाया । हर तीसरे चौथे दिन एक सुअर मारा जाता था । जैसे जैसे सुअरों और चीजों की संख्‍या कम हो रही थी, वैसे ही वैसे उनकी चिन्‍ता भी पराकाष्‍ठा को पहुंचती जा रही थी । अब तक भूख के कारण रोगी होकर तीन आदमियों की मृत्‍यु हो चुकी थी ।

अगहन मास के साथ ही अन्‍न के सभी साधनों का भी अन्‍त हो रहा था । एक अंगुल भी खेत न बोये जाने से अब दूसरी वर्षा तक कोई आशा न थी । इसी समय जीता के कान में उड़ती हुई खबर आई कि दूर के गांव के उनके एक सम्‍बंधी से किसी ने आसाम के चाय बगान में नौकरी दिलाने की बात पक्‍की की है, और वह परिवार वहां जा रहा है । जीता वैसे चाय बागान और टापू के आरकाटियों की बात से बड़ी घृणा करते थे किन्‍तु उनका ममन बदल गया था।

सम्‍बंधी के घर जाने पर उन्‍हें वह आदमी मिल भी गया । उसने जीता से कहा—"तुम भी अपने आदमियों को लेकर चल सकते हो । रास्‍ते में खाने पीने का खर्च हम देंगे । आसाम में चलकर सबको तनख्‍वाह मिलेगी, रहने को घर मिलेगा । पांच वर्ष काम करनेपर वहां बस जाने पर मुफ़त भूमि लेकर खेती भी कर सकोगे ।"

जीता के चारों ओर अंधकार था । यही उन्‍हें प्रकाश की एक पतली सी रेखा दिखाई पड़ी । वे समझते थे-यदि कनैला में रहे, तो भूख के मारे सारे परिवार की मृत्‍यु होगी । यदि आसाम जाते हैं तो कल से ही भूख की यातना दूर होती है । मृत्‍यु का पथ छोड़कर उन्‍होंने जीवन के पथ को स्‍वीकार किया । आदमी ने घर के लोगों को लाने के लिए पांच रुपये दिए ।

जीता के टोले के नवों घरों के सभी लोग स्‍त्री-बच्चों-सहित यात्रा के लिए तैयार थे । जीता जबसे पूरब जाने का संदेशा लेकर आये तभी से उनका मन तरह तरह के विचारों में डूब गया था । रह रहकर ठण्‍डी हवा का एक झोंका उनके कलेजे के अन्‍तरतल तक घुस जाता था । ऐन चलते वक्‍त उन्‍होंने कहा—"थोड़ा ठहरो, डीह बाबा की वन्‍दना कर आवें ।"

डीह बाबा जीता के घर के दक्खिन और थोड़ी ही दूर पर थे । वहीं पास में वह कोट था, जिस पर जीता के पूर्वज कभी शासक के तौर पर रहा करते थे । पीछे वह तुर्क़ सामन्‍त का निवास हुआ । डीह बाबा के स्‍थान को देखते ही जीता अपने को संभाल न सके । उन्‍होंने रुद्ध कण्‍ठ से कहा—हे । डीह बाबा, हमने कौन अपराध किया, जो तुम हमारे परिवार को अपनी शरण से हटा रहे हो ? क्‍या अपनी सैंकड़ों पीढ़ियों की तरह हमने हर साल तुम्‍हें सुअर और कढ़ाई नहीं चढ़ाई ? क्‍या भले बुरे में कभी भी हमने तुम्‍हें बिसराया ? अरे । अपने सेवकों के इन दुधमुंहे बच्‍चों पर भी तुम्‍हें दया नहीं आई ? अच्‍छा हम तुम्‍हारे बाल गोपाल जहां जायें तहां रछपाल करना । लेकिन, हाय । यह पुरखों का चौरा फिर कहां दर्शन करने को मिलेगा .....!!

जीता को अधीर देख सारा परिवार रोने लगा । उन्‍हें जान पड़ता था, उनकी कोई प्राण-सम वस्‍तु उस स्‍थान पर दबी हुई है । सहस्राब्दियों के अत्‍यावार, अपमान, भूख और यातना की कटुतम स्‍मृति को विदीर्ण कर आज उस भूमि के साथ का वह अतीत सम्‍बंध अपने प्रभाव को अविरल अश्रुधाराओं के रूप में प्रकट कर रहा था । लेकिन क्‍या उससे क्षुधा शान्‍त हो सकती थी ?

महीनों के कड़े सफर के बाद जीता अपने बचे-खुचे साथियों के साथ आसाम पहुंचे । रास्‍ते में चार आदमियों की मृत्‍यु हुई । चाय-बागान में रहते जीता को आज चौंतीस बरस हो गये । उनके अधिकांश साथी मर चुके हैं । अस्‍सी बरस के उपर पहुंचकर जीता भी पके आम की तरह गिरने की बाट जोह रहे हैं । अब भी वे अपने लड़कों को कभी कभी गद़-गद़ स्‍वर से कनैला के अपने डीह की कथा सुनाते हुए कहते हैं-"बेटा एक बार जरूर डीह बाबा को पूजने कनैला जाना ।"

कुछ वर्ष हुए कनैला का एक अनपढ़ ब्राहमण उनके यहां पहुंचा । उन्‍होंने बड़े समारोह से सत्‍यनारायण की कथा दूसरे से कहलवाई । कथावाचक को थोड़ा सा पैसा दे, 40 रुपये नकद और कपड़े-लत्‍ते का चढ़ावा अपने ब्राहमण को दिया । उसी के हाथ अपने डीह बाबा की पूजा के लिए उन्‍होंने एक पीली धोती और होम का सामान भी भिजवाया ।

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