डेड लाइन : प्रेम प्रकाश

Dead Line : Prem Parkash

सतपाल, एस.पी. आनन्द, सत्ती या पाली - मरनेवाले के ही नाम थे। जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी तो सामाजिक संबंध में वह मेरा देवर था – आँगन में गेंद से खेलनेवाला, छोटी-छोटी बात पर रूठनेवाला, और जो भी सब्ज़ी बनती, उसे न खानेवाला, लेकिन भावनात्मक संबंध से वह मेरा बेटा था, भाई था और प्रेमी भी।

आज उसकी पहली बरसी थी। ब्राह्मणों को भोज कराया गया। दान-पुण्य किया गया और घर में उसकी जो भी निशानी बची थी, दान कर दी गई ताकि उसकी माँ-जैसी भाभी, देवता स्वरूप वीर (भाई) और अधरंग के मरीज़ पिता की आत्मा को शांति मिल सके। मरनेवाले की आत्मा क्या मालूम कहाँ जन्म ले चुकी हो या अभी भी इस घर में अथवा अपनी मंगेतर के घर में भटकती घूम रही हो! हो सकता है, ताया की पुत्रवधू संतोष के चौबारे पर आ बैठती हो। आनंद साहब से कहूँगी - ''चलो, पहोवा जाकर एक बार गति करवा आएँ। पिताजी की आत्मा तो चैन से रहेगी।''

दिनभर रिश्ते-नातेदारों और संबंधियों की व्यर्थ-सी बातें सुन-सुनकर, उन्हें चाय-पानी पूछ-पूछकर मुश्किल से फुर्सत मिली है। थककर निढाल-सी पड़ी हुई सोच रही हूँ - परमात्मा ने पिछले नौ महीनों में क्या लीला दिखा दी! सत्ती अपनी उम्र के आख़िरी नौ माह पिछले तेईस वर्षों से भी अधिक लंबे करके जी गया।

गले के कैंसर के बारे में डॉक्टर पुरी की रिपोर्ट मिलने के बाद उसने नौ महीने की आयु कैसे गुजारी, यह मरनेवाला ही जानता था या फिर मैं। कैंसर के रोगियों के विषय में मैंने जो कुछ पढ़ रखा था, वह आधा झूठ था। सच तो वह था जो हम पर बीता था।

बी.ए. करके एक साल की बेकारी के बाद सत्ती को नौकरी मिले और कुड़माई(मंगनी) हुए अभी पूरा साल भी नहीं बीता था कि गले में हो रही खारिश का नाम कैंसर बन गया, जिसकी रिपोर्ट देते हुए डॉक्टर पुरी, जो रिश्ते में मामा भी लगते थे, की पूरी चाँद पर पसीने की बूँदें चमकने लगी थीं। उन्होंने मेरे और आनन्द साहब के कंधे पर हाथ रखकर कहा था, ''बेटा, छह महीने बाद यह अपना नहीं रहेगा। इलाज का कोई लाभ नहीं। यदि पैसे ख़र्च करना ही चाहते हो तो कहीं धर्मार्थ लगा दो। मात्र नाम के लिए मैं दवा देता रहूँगा।”

लेकिन डॉक्टर पुरी को क्या मालूम कि बिना कोई चारा किए जीना कितना कठिन होता है। शाम के समय मैंने सत्रह हज़ार रुपये वाली साझे खाते की पासबुक उसके वीर के आगे रखकर कहा, ''यह पैसा हम किसके लिए बचाकर रखेंगे ?''

विवाह के सालभर बाद मुझे सिजेरियन ऑपरेशन से एक बच्ची हुई थी लेकिन मैं उसे छह महीने भी दूध न पिला सकी। जिसने दी थी, उसी ने वापस बुला ली। तभी, मैंने नौकरी छोड़ दी थी। किसके लिए इतना धन इकट्ठा करना था ?

सत्ती की रिपोर्ट लाकर हम पिताजी के कमरे में दरवाजे क़े पास खड़े थे, काग़ज़ थामे। वह हमें इस तरह देख रहे थे, मानो हम शॉपिंग करके लौटे हों और उनके लिए फल लाए हों। हम उनकी वह नज़र झेल नही सके। जल्दी ही अपने कमरे में चले गए।

सत्ती अभी दफ्तर से लौटा नहीं था। 'उसे कैसे बताएँगे ?' यह सवाल आनन्द साहब ने मुझसे किया और फिर खुद ही आँखों पर हाथ रखकर रो दिए। मेरे भी आँसू निकल आए। लेकिन मैंने जल्दी ही आँखें पोंछकर पति को दिलासा दिया कि यह काम मैं करूँगी। मुझे लगा कि सास के बाद यह ज़िम्मेदारी मेरी ही है। मैं इस घर की माँ हूँ। सोचा - यदि मैं भी रो पड़ी तो फिर सत्ती रोएगा, पिताजी रोएँगे, यह घर कैसे चलेगा ?

रात में आनन्द साहब सैर करने चले गए। पिताजी खा-पीकर सो गए तो मैं सत्ती के साथ कैंसर की बातें करने लगी। हम रोगियों के विषय में पहेलियाँ-सी बूझते रहे। आख़िर हम उस जगह पहुँच गए, जहाँ रोगी बाकी बचे जीवन को सुखी बनाने के लिए संघर्ष करते हैं और बिना दु:ख के ही मौत कबूल कर लेते हैं। और फिर मैंने डॉक्टर पुरी का फ़ैसला शक बनाकर कह डाला।

सुनकर वह डरा नहीं, लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान लुप्त हो गई। बोला, ''मैं खुद ही डॉक्टर पुरी से पूछूँगा।'' मैंने रिपोर्ट उसके आगे रख दी। उस पर कैंसर तो नहीं लिखा था, डॉक्टर की भाषा में कुछ और ही था। उसने एक बार देखकर रिपोर्ट उसी तरह तह करके टिका दी। एक बार खाँसा और उठकर अपने कमरे में चला गया।

मैं खड़ी देखती रही। वह दो-तीन मिनट अपनी मेज़ का सामान इधर-उधर करता रहा और फिर बाहर बरामदे में आकर रुक गया। सामने गेट के पास क्यारी में लगे फूलों की ओर देखता रहा। मुझे लगा कि लो, यह मौत का चक्कर शुरू हो गया!

रात में आनन्द साहब आए। पलँग पर लेटकर सिगरेट सुलगाकर बोले, ''हम सत्ती का इलाज करवाएँगे। कई मरीज़ दस-दस साल जी जाते हैं।'' वे अपने मित्रों से सलाह-मशवरा करके आए थे।

मैंने दो हज़ार रुपये निकालकर उनके सामने रख दिए। वे खीझ उठे। गुस्से में बोले तो मुझे ख़याल आया कि ख़र्च तो मुझे ही करना है। इलाज भी मैंने ही करना है। पति से माफ़ी माँगकर मैं सत्ती के कमरे में गई तो देखा, वह सो रहा था।

सुबह सत्ती के लिए पाय लेकर गई तो वह अभी उठा नहीं था। उसके लंबे घुँघराले बाल उसके सुनहरे माथे पर आए थे। चौड़ा मस्तक, घने पर छोटे बालोंवाली भौंहें और उनके बीच बारीब-बारीक रोएँ-से मुझे शुरू से ही अच्छे लगते थे। कहते हैं - परमात्मा जिसे बहुत रूप देता है, उसे जल्दी ही उठा लेता है। मन हुआ - बालों को हटाकर उसका माथा चूम लूँ।

जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी तो वह गोद में खेलता बच्चा था। अंबालावाली मौसी ने उसे पकड़कर मेरी गोद में बिठा दिया था। यह कोई रीति थी या फिर प्रार्थना कि परमात्मा इस गोदी में लड़के बिठाए। पर मुझे लगा था कि मुझे याद कराया गया है कि तू इसकी माँ भी है।
अपने घर में मैं अपने छोटे भाई सुभाष को स्कूल भेजने के लिए तैयार किया करती थी, यहाँ आकर सत्ती को करने लग पड़ी थी।

सत्ती सोकर उठा। मुझे देखकर मुस्कराया। पर तभी उदास हो गया। शायद उसे मेरे मुस्कराते चेहरे के नीचे छिपी उदासी दिखाई दे गई थी। आनन्द साहब भी पास आकर खड़े हो गए थे, लेकिन उनका मुख खिड़की की ओर था। बोले, ''सत्ती, तू फिकर न कर, इसका इलाज हो सकता है। हम आज क्रिश्चियन अस्पताल चलेंगे।''

अस्पताल में डॉक्टर जोसफ़ का यह कहना -''जान बख्शना तो खुदा का काम है, इलाज करना बंदे को, आओ खुदा के नाम से शुरू करें।'' - हमें कोई तसल्ली न दे सका। फिर भी इलाज चलता रहा। नोट काग़ज़ के पुर्जों की भाँति उड़ते रहे। एक महीने के इलाज के बाद जब रोग खूब बढ़ गया तो फिरोज़पुर के एक साधु का इलाज चला। फिर एक इश्तहारी हकीम की हल्दी से बनाई गई दवा चली। फिर कुरुक्षेत्र के वैद्य की, और फिर पी.जी.आई....।

मेरी हमेशा यही कोशिश रहती थी कि सत्ती अकेला न रहे। हम ताश, कैरम व अन्य खेल खेलते या फिल्में देखने चल पड़ते। ताश वह अंगूठे और उँगली को थूक लगाकर बाँटता था। रोटी खाता तो मेरी कटोरी में से बुर्की लगा लेता। शर्त लगाता तो मेरे हाथ पर हाथ मारता, मैं डर जाती।
एक दिन डॉक्टर पुरी के पास गई। वे बोले, ''कैंसर छूत का रोग नहीं है, लेकिन परहेज़ में क्या हर्ज है।''
मैं ऊपर से हँस देती लेकिन अन्दर से डरती। पर कभी-कभी मेरा प्यार इतना ज़ोर मारता कि मैं सब-कुछ भूल जाती।

एक दिन हम दोनों इंग्लिश मूवी देखकर लौटे। चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते सत्ती ने फिल्मी स्टाइल में सहारे के लिए अपना हाथ पेश कर दिया। मैंने भी फिल्मी अंदाज़ में सहारा लेकर अंतिम स्टेप पर जाकर उसका हाथ चूम लिया। वह अजीब-सी नज़रों से मुझे देखने लगा। मैं बेपरवाह-सी कुर्सी पर बैठकर अल्मारी के शीशे में उसके चेहरे के बदलते रंग देखती रही। वह सुर्ख होकर पीला पड़ने लगा था।
''क्या बात है, उदास क्यों हो ?'' मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर प्यार से पूछा तो वह मेरी गोद में सिर देकर रो पड़ा। मैंने उसके सिर और पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे दोनों बांहों में कस दिया, ''तुम तो मेरी जान हो, प्यारी-प्यारी!''
उसने नि:श्वास छोड़कर अंग्रेजी में कहा, ''मैं ज़िन्दगी खो चुका हूँ।''
उसकी इतनी-सी बात से मेरी जान निकल गई। मौत के बारे में यह पहली बात थी, जो उसने कही थी, खुद अपने मुँह से। मैंने उसका माथा चूमते हुए अंग्रेजी में ही कहा, ''मेरा सब कुछ तुझे अर्पित है, माई डियर!''
डर के कारण सत्ती की नींद उड़ गई। वह अब देर रात तक जागता रहता। यह बात हमारी नींद भी उड़ाने के लिए काफ़ी थी।

एक रात डेढ़-एक बजे आवाज़ आई, जैसे सत्ती ने पानी माँगा हो। मैंने जल्दी में बीच का दरवाज़ा खोलकर देखा। सत्ती तकिये में मुँह दिए औंधा पड़ा था। उसके शरीर का बड़ा हिस्सा रजाई से बाहर था। इतनी ठंड में भी प्यास लग सकती है ? न जाने अन्दर क्या तूफान मच रहा होगा! यही सोचकर मैं उसके पास पहुँची। सिरहाने बैठकर उसका सिर सहलाते हुए पूछा, ''क्या बात है, नींद नहीं आती ?''
''नहीं, दो घंटे से जाग रहा हूँ।''
मैंने उसे काम्पोज़ दी जो अब आनन्द साहब को, और कभी कभी मुझे भी खाने की आदत पड़ गई थी।
''भाभी, मेरा शराब पीने को दिल करता है।'' उसने नज़रे उठाए बिना ही धीमे से इस तरह कहा कि कहीं वीर जी न सुन लें।
''अच्छा, डॉक्टर से पूछेंगे। अब तू सो जा।'' कहकर मैं उसे रजाई से ढककर अपने बिस्तर पर आकर करवटें बदलने लगी।

सुबह काम निबटाकर डॉक्टर पुरी के पास गई। उन्होंने फौरन कह दिया, ''वह जो माँगता है, दो। उसकी आत्मा तृप्त रखो और समझो कि यही नियति-क्रम है। चिंता ताकी कीजिए...।''

डॉक्टर पुरी का व्याख्यान दूसरों के लिए ही है - सोचकर मैं तेज़ी से क्लीनिक से बाहर आ गई। वह क्या जाने किसी नौजवान की मौत कैसे अन्दर से कमज़ोर और खोखला करती है! कैसे मौत का डर हमारे घर की ईंट-ईंट पर बैठ गया था! हर चेहरे पर मातमी हाशिया चस्पाँ था। एक पिताजी ही नहीं जानते थे लेकिन पराजित-से चेहरे देखकर वे भी डरे रहते थे। मैं उनके कई प्रश्नों का उत्तर कैसे देती - ''तू उदास क्यूँ रहती है ? सत्ती दफ्तर क्यों नहीं जाता ? तुम लोग उसे कहाँ लेकर जाते हो ?''

एक दिन दिल में आया कि बता दूँ - पिताजी, तुम्हारे लाडले के मरने में अब कुछ समय ही शेष है। हम उसे हर उस जगह पर लेकर जाते हैं, जहाँ कैंसर का इलाज होता है।

एक शाम सत्ती पीकर आया। लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे में जाता हुआ वह दहलीज़ पर गिर पड़ा। मैंने सहारा देकर उठाया। उसने मेरे गले में बांह डाल ली और बिस्तर पर गिरते हुए मेरी चुन्नी खींचकर अपने मुँह पर लपेट ली। आधी चुन्नी मेरे कंधे पर थी और आधी उसके मुँह पर। वह रो रहा था - शायद मौत के डर से। मौत से पहले आदमी अपनी असफल कामनाओं के बारे में क्या सोचता है, मैंने सोचा और डर गई।

डेढ़ेक घंटे बाद उसका वीर उसे देखने आया तो वह उल्टियाँ कर रहा था। उसमें खून के धब्बे थे, जो मैंने आनन्द साहब की नज़र से बचाकर जल्दी से पोंछ दिए।

अगले दिन इतवार था। हमेशा की तरह हवन करने बैठे तो सत्ती का मन टिक नहीं रहा था। पहले वह श्रद्धापूर्वक बैठा करता था। शाम के समय संध्या भी करता था, आचमन करता था और उसका वीर तथा मैं बड़े दिल से मंत्रोच्चार करते - जीवेम शरद: शतम्। पिताजी पिल्लर के सहारे बैठे सिर्फ़ सुनते रहते।

सत्ती ने अनमने भाव से हवनकुंड में अग्नि प्रज्वलित की और हर मंत्र के बाद स्वाहा कहकर आहुति डालता-डालता अचानक रुक गया। पीछे हटकर दीवार का सहारा लेकर बैठ गया और आँखें बंद कर लीं।

शाम को वह फिल्म देखकर लौटा। थोड़ी देर बैठकर दवा खाई और बाहर जाने लगा। मैंने रोक लिया। अल्मारी में से शराब का क्वार्टर निकालकर मेज़ पर टिका दिया। वह मुस्करा दिया। मैंने कहा, ''घर में बैठकर पी ले। तायाजी के यहाँ नहीं जाना। जाने वहाँ क्या-क्या खा आता है!''

सच, मुझे अच्छा नहीं लगता था कि वह रिश्तेदारों के यहाँ खाए-पिए, उनके आवारा लड़कों के संग बैठकर शराब पिए, बाद में बातें मुझे सुननी पड़ें। उनकी बहू संतोष की जुबान गज़भर की है। और वैसे भी उसका चाल-चलन ठीक नहीं। पता नहीं किसको चौबारे पर लिए बैठी रहती है।
मैं रसोई का काम निपटाकर आई तो वह सारी बोतल खत्म किए बैठा था। उसने पूछा, ''भाभी, वीरजी कितने बजे आएँगे ?''
''शायद सवेरे आएँ। रास्ते में उन्हें अम्बाला भी जाना है, मौसी के पास।''
''और है क्या ?'' उसने नज़र गिलास की ओर करते हुए हिचकिचाते हुए पूछा।
मन हुआ, जवाब दे दूँ - अधिक नुकसान ही करेगी। फिर सोचा - अब दो-ढाई महीनों में क्या होना है !
''है, पर दूँगी नहीं।'' मैंने हँसते हुए कहा।

वह निराश-सा हो गया तो मुझे एकदम-से उस पर प्यार आ गया। मरनेवाले से झूठ बोलना, उसे धोखा देना, मुझे पाप-सा लगा। मैंने उठकर अल्मारी खोल ली। वह मेरे साथ आ खड़ा हुआ। उसकी साँस तेज़ हो रही थी। मैंने उसे क्वार्टर में से बचाकर रखी हुई भी दे दी। उसने शीशी पकड़कर मेरे कंधे चूमकर रस्मी तौर पर धन्यवाद किया। शायद कुछ और भी कहा था, लेकिन मैंने वह सुना नहीं। एक लहर मेरे शरीर को कँपाती हुई-सी निकल गई थी।

मैं सामने कुर्सी पर बैठ गई थी। वहाँ बैठकर उसे देखती रही। उसने दूसरा गिलास रखकर उसमें भी उँडेल दी। न जाने उसे मेरे दिल की बात कैसे मालूम हुई! आदमी ज्यों-ज्यों मौत के करीब होता जाता है, उसकी छठी ज्ञानेन्द्रि तेज़ होती जाती है शायद।

मेरे न-न करते भी उसने मुझे बांहों में कसकर दवा की तरह वह तीखी कड़वी चीज़ पिता दी। जीवन में दो बार पहले भी मैंने यह पी थी। एक बार कुँआरी थी मैं तब, सहेली के घर। तब तो कुछ पता ही नहीं चल पाया था। और दूसरी बार आनन्द साहब के साथ मिलकर पी ली थी। अच्छी-खासी चढ़ गई थी। बहुत कड़वे-मीठे अनुभव हुए थे। लेकिन सुबह उठने के बाद मेरी तबीयत इतनी खराब हो गई थी कि फिर तो कभी मुँह लगाने से मैं डरती रही।

लेकिन उस दिन प्यारे सत्ती का कहना न ठुकरा सकी। यूँ लगता था कि मैं उसकी कोई भी बात ठुकराने योग्य नहीं रही। वह कहकर तो देखे।
मैं रोटी परोस कर लाई तो उसके हाथ बुर्की तोड़कर मुँह में डालते हुए ग़लतियाँ कर रहे थे। दरअसल बुर्की तोड़ते हुए, सब्ज़ी लगाते हुए भी उसकी नज़र मुझे पर टिकी थी। उसने खाना बंद कर दिया। सहसा, तेज़ स्वर में भाभी जी कहकर मेज़ पर बांहें टिकाकर बैठ गया।
मैंने प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहा, ''सत्ती, चल उठ। लेट जा, सो जा।''

उसने चेहरा ऊपर उठाया तो लाल सुर्ख हो रहा था। आँखें भी लाल थीं। मैं समझ गई कि वह क्या चाहता है। मेरा दिमाग सुन्न होता जा रहा था। मैं सोच रही थी कि हिंदू धर्म उस आत्मा के लिए क्या कहता है, जो नारी-प्रेम के लिए भटकती हुई अपना शरीर छोड़ जाए ?
मैं उसे सहारा देकर उसकी बिस्तर तक ले गई। मुझे लगा, मेरे पैर भी ठीक से नहीं टिक रहे थे।
रजाई उस पर ठीक करके मैं हटने लगी तो उसने मेरी बांह पकड़ ली। बोला, ''भाभी, मुझे एक बार निर्मल से मिला दो।''
मेरे अन्दर से हूक निकल गई।

''मैं कहाँ से लाऊँ तेरे लिए निर्मल ? मेरे प्यारे सत्ती, वह तो तुझे एक बार भी देखने नहीं आई। तेरा ससुर आया था, हालचाल पूछकर चला गया।''
विवश होकर, दिल पर एक बोझ लेकर मैं उसके बिस्तर पर बैठ गई। उसे चूमा और प्यार से उसका सिर उठाकर अपनी गोद में ले लिया। उसने बेबसी में बांहें फैलाईं और मुझे बांहों की सख्त पकड़ में ले लिया, जैसे डरा हुआ बच्चा अपनी माँ से चिपट जाता है।

एक बार तो मैं जड़ हो गई। फिर न उसे भान रहा, न मुझे कि हम कौन थे। मैं उसकी भाभी थी, बहन थी, माँ थी या पत्नी।
मेरे सामने उसका चमकता माथा, घनी भवों और पतले होंठोंवाला चेहरा था, या चेहरा भी नहीं, केवल शरीर था... अग्नि में तपे लोहे-सा, या केवल आत्मा थी - निश्छल, निर्विकार और न जाने क्या-क्या, जिस पर कोई आवरण नहीं था। आत्माएँ नंगी थीं, कपड़े तो शरीरों पर थे... बस, हवन हो रहा था। आहुति पड़ रही थी। हर आहुति पर अग्नि प्रचंड होती थी, ‘स्वाहा-स्वाहा’ की ध्वनि हो रही थी।

शांतिपाठ हुआ तो वह थकान से चूर-सा सोने लगा। मैं उसके साथ लेटी उसके मासूम चेहरे की ओर देखती रही। मुझे तब याद आया कि उसके नक्श उस लड़के से मिलते-जुलते थे जिसे एक बार देखने के लिए मैं कितनी देर मुंडेर पर खड़ी रहती थी। मैंने उठकर उसे भवों के बीच चूमा। रजाई देकर अपने बिस्तर पर आ पड़ी। सोचती रही - हमने क्या किया है ? क्या हम धर्म की नज़र में पथभ्रष्ट हो गए हैं ? नरक के भागी बन गए हैं ? मुझे लगा, मैंने धर्मग्रंथों में जो कुछ पढ़ा, वह झूठ है। सच यही है जो परिस्थितियाँ हमें देती हैं, जिसमे ब्रह्महत्या भी पाप नहीं हो सकती।

सुबह इतवार था। आनन्द साहब सात बजे ही आ गए। शायद वे हर इतवार के हवन करने के नियम को भंग नहीं करना चाहते थे। इसके साथ उनका कोई वहम जुड़ा होगा। मैंने सत्ती को जगाया कि उठकर नहा ले।

हवनकुंड के इर्द-गिर्द आनन्द साहब मेरे बाएँ बैठे थे, सत्ती दाएँ। सामने पिताजी बैठे थे, पिलर का सहारा लेकर। हवनकुंड के इर्द-गिर्द चारों दिशाओं में पानी गिराकर शरीर के सभी अंगों के लिए शक्ति की प्रार्थना करके मैंने अंजुरी में से पानी के कतरे ऊपर फेंकने के साथ-साथ सत्ती पर भी फेंक दिए। तभी मुझे लगा - हम इतनी उम्मीदें बाँधते हैं शारीरिक अंगों की शक्ति के लिए, सौ साल जीने के लिए, सत्ती के पास तो अब तीस दिन भी बाकी नहीं रहे!
दूसरे कमरे में जाकर मैंने आनन्द साहब से पूछा, ''कुरुक्षेत्र वाले वैद्य ने क्या बताया ?''
''क्या बताता! बोला - बीमारी पक चुकी है, दवा लेनी हो तो ले जाओ, वरना न सही। मैं पंद्रह दिन के लिए दवा ले आया हूँ।''
बरामदे में हवनकुंड में से ज्वाला प्रज्वलित हो रही थी। पिताजी पिलर के सहारे बैठे थे। उनकी नज़र कभी सत्ती की ओर उठती, कभी अग्नि की ओर तो कभी आसमान की तरफ़।

मैंने गहरा नि:श्वास छोड़ा तो आनन्द साहब ने पूछा, ''क्यों न पी.जी.आई., चंडीगढ़ ले चलें। एक नया इलाज होने लगा है वहाँ। रान पर लकीरें डालकर दवाई पेट में कर देते हैं, सप्ताह भर उसका असर देखते हैं। साथ ही, बिजली भी लगाते हैं। कितने रुपये बचे हैं ?''

''बहुत हैं... जैसी आपकी इच्छा।'' कहकर मैं रसोई में चली गई। सोचती रही - मालूम नहीं, किसे कहाँ-कहाँ की दवा खाकर, कहाँ किस बिस्तर पर मरना है। चंडीगढ़ क्या बनेगा ? चलो, हर्ज ही क्या है ?

शाम के समय सत्ती दिनभर घूमकर आया तो उसका दिल टिकता ही नहीं था। वह संकेत करके मुझे चौबारे में ले गया। घुमा-फिराकर बात करने लगा। मैं समझ गई, उसका दिल पीने को हो रहा है। लेकिन आनन्द साहब का डर था। मैं उसे सब-कुछ वहीं पकड़ा आई।

आनन्द साहब साबूदाना लेने बाज़ार गए तो सत्ती तुरन्त नीचे उतर आया। रसोई में मेरे पीछे खड़ा हो गया। उसकी साँस बहुत तेज़ चल रही थी। मैंने पलटकर देखा, उसकी आँखें भी लाल थीं। उसने अंग्रेजी में कहा, ''प्लीज़, किस मी।''

मैंने उसके माथे पर से बाल हटाए और कसकर उसे चूम लिया और कुछ देर उसे उसी तरह सीने से सटाकर खड़ी रही। तभी महसूस हुआ कि यहीं से पाप शुरू होता है, जब मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कुछ करता है। मैं एकदम पीछे हट गई। लेकिन वह नहीं हट रहा था। मैंने समझाया, उसे आनन्द साहब का डर दिया व तसल्ली दी तो वह बरामदे में जाकर बैठ गया। इसी कारण मैंने सफ़ाई और बर्तनों के लिए घर पर काम करने आने वाली लड़की हटा दी थी। इसी डर से मैं उसे ताया की बहू संतोष के पास नहीं जाने देती।

खाना खाकर आनन्द साहब सैर करने निकले तो सत्ती फिर से बच्चों की तरह जिद्द करने लगा। मेरे रोकते-रोकते उसने बेडरूम की बत्ती बुझा दी।
वह शांत होकर सुस्ताने लगा तो मुझे लगा मानो मेरा मरनेवाला बच्चा मेरे साथ लेटा है। मैं उछलते दूध वाली छाती उसके मुँह में दे देती हूँ, लेकिन उसमें चूँघने की शक्ति नहीं... मुझे होश आया तो मैं उसी तरह सत्ती को लिए बैठी थी, जैसे कोई माँ अपने दूध-पीते बच्चे को दूध पिलाती सो चली हो और फिर बच्चा भी।

उठकर मैं तेज़ी से बाथरूम में गई। ब्रश लेकर कुल्ला किया। मेरे अन्दर डर बैठ गया। शुरू-शुरू में मैं अपने होंठ बचाने के लिए मुँह पर कपड़ा रखती थी, लेकिन कुछ उसके ज़ोर डालने पर व कुछ अपनी बेबसी में मैं यह भूल ही बैठी कि वह कैंसर का रोगी था।

दोपहर में डॉक्टर पुरी के पास गई। उन्हें नई आई नौकरानी के साथ सत्ती की बात जोड़कर बताई तो वे बोले, ''कोई बात नहीं। नो इन्फेक्शन।'' लेकिन मेरा वहम दूर न हुआ।

चंडीगढ़ में हमारे कई संबंधी हैं, लेकिन हम किसी के यहाँ नहीं गए। रोगी के साथ जाना क्या अच्छा लगता ? अस्पताल के पास पंद्रह सेक्टर में एक कमरा-रसोई किराये पर लेकर रहने लगे। अस्पताल से फारिग होकर हम देवर-भाभी पकाते, खाते, ताश खेलते, शाम को सैर के लिए निकल जाते। शॉपिंग सेंटरों में लोगों की भीड़ में सत्ती का मन लगता था। वह जो भी पसंद करता, मैं खरीद देती। कई कॉस्मेटिक्स वह मेरे लिए भी पसंद करता, मैं वह भी खरीद लेती। एक दिन उसने एक स्कॉर्फ पसंद किया। इतने गहरे लाल, नीले, पीले रंगों का वह स्कॉर्फ मुझे क्या अच्छा लगता भला, लेकिन सत्ती की ख्वाहिश थी या जिद्द, मुझे दुकान से वही बाँधकर उसके साथ चलते हुए घर तक आना पड़ा। उसी को बाँधकर बिस्तर पर लेटना पड़ा।

सर्दी जा चुकी थी, तो भी वह चाहता था कि रात को दरवाजे-खिड़कियाँ बंद रहें। नारी को देखने की उसकी भूख मिटती नहीं थी। कभी-कभार वह मुझे देखता, सोचता और फिर मेरी छातियों में नाक घुसाकर रोने लग जाता।

अस्पताल में मुझसे कोई पूछता, ''क्यों बीबी, यह तेरा भाई है ? मैं 'हाँ' कह देती। यदि कोई पूछता, ''तेरा बेटा है ?'' मैं तब भी 'हाँ' कह देती। यदि कोई पूछती, ''यह तेरा क्या लगता है ?'' मैं चुप ही रहती। क्या बताती ? चंडीगढ़ में वह मेरा पति बनकर रह रहा था, मेरे शरीर का स्वामी।

अब औरत उसके लिए कोई भेद, कोई रहस्य नहीं रही थी, एक रूटीन बन गई थी। उसका अपना शरीर दिनोदिन कमज़ोर होने लगा था - बिजली के इलाज के कारण या उसकी मानसिक अवस्था के कारण, कुछ निश्चित कहा नहीं जा सकता। उसकी जिद्द व माँग भी कम होने लगी थी।
खाने-पहनने से भी उसका जी उचाट होने लगा था। वह कभी शराब पीता, कभी समाधियाँ लगाता, तो कभी गीता के श्लोक उच्च स्वर में पढ़ता रहता - नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। मैं सोचती कि बार-बार उसका यह श्लोक-पाठ किसी को कैसे सहारा दे सकता है! आत्मा के अमर-अजर होने से उसे क्या फ़र्क पड़ता है!

पी.जी.आई. का कोर्स पूरा करके हम घर लौटे तो अब उसे दलिया खाना भी मुहाल हो गया था। कभी-कभी हालत एकदम बिगड़ जाती। साँस लेना मुश्किल हो जाता। वह सुबह से शाम तक बरामदे में अपनी खाट पर लेटा गेट की ओर देखता रहता। कभी-कभी अचानक डर जाता। उसकी बांह, टाँग या सारा शरीर काँप् जाता, जैसे बच्चे सपना देखकर डर जाते हैं।

शाम को चाय के समय पिताजी ने सत्ती को बुलाया। वह सामने कुर्सी पर आ बैठा। पिताजी देखते रहे। फिर कुछ फुसफुसाकर हाथ जोड़कर उन्होंने आँखें मींच लीं। मैंने सत्ती को संकेत करके उठा दिया।

एक दिन बरामदे में सत्ती को सिगरेट पीते हुए छोड़कर रसोई में गई तो चीख सुनाई दी। मैं दौड़कर आई - वह आरामकुर्सी से गिर पड़ा था, सिगरेट फर्श पर पड़ी सुलग रही थी। तनिक सहारे से वह उठ बैठा, बोला, ''भाभी, मेरी साँस रुकने लगी थी।''
मैं उसके गले पर देसी घी मलती रही।
आख़िर डेड लाइन भी आ गई। वह आख़िरी रात थी। मुझे नींद नहीं आ रही थी। आनन्द साहब गायत्री मंत्र का पाठ कर रहे थे। लेकिन सत्ती सो रहा था। मैं इसी दौरान दो बार उसे देख चुकी थी।

अचानक उसकी कठिन साँसों की आवाज़ रुक गई। कुछ क्षण मैं साँस रोककर लेटी रही। फिर उठकर उसके कमरे में गई। धीमे-से चादर का पल्लू हटाकर देखा - उसकी साँस चल रही थी। लेकिन उसका चेहरा पीला हो गया था। झुककर मैं उसके चेहरे को निहारती रही, चेहरा जो कभी लाल गुलाब था।
वह रात निकल गई - डॉक्टर पुरी की डेड लाइन।

सुबह उठकर आनन्द साहब ने फिर हवन किया। पिताजी के हुक्म के अनुसार कितना सारा अनाज व वस्त्र सत्ती के हाथ से दान करवाया। तीसरे पहर सत्ती आरामकुर्सी पर बैठा-बैठा गिर पड़ा। आनन्द साहब घर पर ही थी। हम जल्दी में उठाकर डॉक्टर पुरी के क्लीनिक ले गए। उन्होंने न जाने कैसे व क्या किया कि साँस ठीक हो गई। फिर दस ही दिन में सेहतमंद होकर उसने डॉक्टर पुरी को भी हैरान कर दिया। वह घोड़े-जैसा तगड़ा हो गया था। सब कुछ खाता-पीता और आवारागर्दी करता। फिर वह वही सब काम करने लगा, जो मुझे पसंद नहीं थे, जिनके कारण मुझे उस पर और खुद पर शर्म आती। अक्सर वह संतोष के पास उसके चौबारे में बैठा रहता। तायाजी के लफंगे लड़कों के साथ पीता व लचर-सी हरकतें करता।

ज़बरदस्ती मेरे पर्स में से पैसे निकालकर ले जाता। यहाँ तक कि कभी मैं उसे प्यार करती तो उसकी नज़र में वह प्यार ही न दिखाई देता। लगता, जैसे कोई बदमाश देखता हो, जैसे मुझे पकड़ना उसका अधिकार हो, जैसे किसी से भी कोई चीज़ उधार ले लेना या माँग लेना उसका हक बन गया हो। वह दूसरों के सिर पर पलने वाला बदमाश बन गया था, जिसकी बदमाशी का कारण शक्ति नहीं, कैंसर था। कैंसर उसे मार रहा था और कैंसर द्वारा वह हमें मार रहा था।

डेढ़-एक माह बाद उसकी तबीयत फिर बिगड़ने लगी। थूक में खून जैसा कुछ निकलता तो वह दहल जाता। आनन्द साहब घबरा जाते। मैंने फिर दवाइयों पर ज़ोर दिया।
एक शाम थके-हारे आनन्द साहब सोचते हुए बोले, ''न जाने और कितनी देर यह...नरक...?''

''परमात्मा का नाम लो, सब दु:ख कट जाएँगे।'' उनकी बात का उत्तर मैंने दे तो दिया, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह किसके नरक की बात करते थे - सत्ती के, पिताजी के या अपने ? मन में आया कि कह दूँ, जो कुछ तुम भोग रहे हो, वह नरक है तो जो मैं भोग रही हूँ, वह क्या है ?

सत्ती दिन में न जाने कहाँ घूमता रहता लेकिन अँधेरा होते ही घर लौट आता। वह डरा-सा होता और रात को बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धर्मग्रंथ पढ़ता रहता। उसका चेहरा सदा गेट की ओर होता था। कभी-कभी उसके चेहरे पर इतनी शांति होती कि भक्तों के चेहरों पर भी क्या होती होगी। लेकिन कभी इतनी व्याकुलता होती कि लगता, जैसे वह बहुत जल्दी में है। मानो वह किसी की प्रतीक्षा में हो। मानो कोई प्लेटफॉर्म पर बैठा गाड़ी का इंतज़ार कर रहा हो या मानो गाड़ी निकल गई हो और प्लेटफॉर्म सूना पड़ा हो।

एक दिन वह पालथी मारे बैठा था, आँखें मूँदे। मैं उसके सामने जा खड़ी हुई। उसने आँखें खोलीं, फिर बंद कर लीं और हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।
मरने से एक रात पहले न जाने उसे कैसे मालूम हो गया था। उसने संकेत से मुझे अपने पलंग पर बुलाया। बीचवाले दरवाजे क़ी बोल्ट लगाकर मैं उसके पास बैठ गई। फिर उसके आग्रह पर साथ लेट गई। वह मेरी ओर देखता रहा, देखता ही रहा। फिर उसकी बुझी-सी आँखों में आँसू आ गए। एकाएक मैंने उसका चेहरा अपनी छाती से लगा लिया। ''क्या बात है मेरे बच्चे ?'' मेरे मुख से अकस्मात् निकल पड़ा।
उसने आँखें मींच लीं जैसे ध्यान में चला गया हो।

दूसरी सुबह उसने बेट-टी नहीं पी। नहाकर अगरबत्ती जलाई और पाठ करने बैठ गया। अभी प्रारंभिक मंत्र ही पढ़ा होगा कि उसके हाथ में से पुस्तक गिर गई और वह फ़र्श पर टेढ़ा हो गया।

मैं रसोई में से भागते हुए आई। उसे संभाला तो मेरी चीख़ निकल गई। आनन्द साहब काँपते हुए-से दौड़े आए। लेकिन वह घटित हो चुका था जिसकी प्रतीक्षा सत्ती को थी, आनन्द साहब को भी और मुझे भी। आज इस घटना को हुए कोई एक साल बीत गया। लेकिन मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि वह मेरा कौन था ?

(पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव)

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