दासी (कहानी) : जयशंकर प्रसाद
Dasi (Hindi Story) : Jaishankar Prasad
यह खेल किसको दिखा रहे हो बलराज?-कहते हुए फिरोज़ा ने युवक की कलाई पकड़ ली। युवक की मुठ्ठी में एक भयानक छुरा चमक रहा था। उसने झुँझला कर फिरोज़ा की तरफ देखा। वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। फिरोज़ा युवती से अधिक बालिका थी। अल्हड़पन, चञ्चलता और हँसी से बनी हुई वह तुर्क बाला सब हृदयों के स्नेह के समीप थी। नीली नसों से जकड़ी हुई बलराज की पुष्ट कलाई उन कोमल उँगलियों के बीच में शिथिल हो गई। उसने कहा-फिरोज़ा, तुम मेरे सुख में बाधा दे रही हो!
सुख जीने में है बलराज! ऐसी हरी-भरी दुनिया, फूल-बेलों से सजे हुए नदियों के सुन्दर किनारे, सुनहला सवेरा, चाँदी की रातें इन सबों से मुँह मोड़कर आँखे बन्द कर लेना! कभी नहीं! सबसे बढक़र तो इसमें हम लोगों की उछल-कूद का तमाशा है। मैं तुम्हें मरने न दूँगी।
क्यों?
यों ही बेकार मर जाना! वाह, ऐसा कभी नहीं हो सकता। जिहून के किनारे तुर्कों से लड़ते हुए मर जाना दूसरी बात थी। तब मैं तुम्हारी क़ब्र बनवाती, उस पर फूल चढ़ाती; पर इस गजनी नदी के किनारे अपना छुरा अपने कलेजे में भोंक कर मर जाना बचपना भी तो नहीं है।
बलराज ने देखा, सुल्तान मसऊद के शिल्पकला-प्रेम की गम्भीर प्रतिमा, गजनी नदी पर एक कमानी वाला पुल अपनी उदास छाया जलधारा पर डाल रहा है। उसने कहा-वही तो, न जाने क्यों मैं उसी दिन नहीं मरा, जिस दिन मेरे इतने वीर साथी कटार से लिपट कर इसी गजनी की गोद में सोने चले गये। फिरोज़ा! उन वीर आत्माओं का वह शोचनीय अन्त! तुम उस अपमान को नहीं समझ सकती हो।
सुल्तान ने सिल्जूको से हारे हुए तुर्क और हिन्दू दोनों को ही नौकरी से अलग कर दिया। पर तुर्कों ने तो मरने की बात नहीं सोची?
कुछ भी हो, तुर्क सुल्तान के अपने लोगों में हैं और हिन्दू बेगाने ही हैं। फिरोज़ा! यह अपमान मरने से बढ़ कर है।
और आज किसलिये मरने जा रहे थे?
वह सुनकर क्या करोगी?-कहकर बलराज छुरा फेंककर एक लम्बी साँस लेकर चुप हो रहा। फिरोज़ा ने उसका कन्धा पकड़कर हिलाते हुए कहा-
सुनूँगी क्यों नहीं। अपनी....हाँ, उसी के लिए! कौन है वह! कैसी है? बलराज! गोरी सी है, मेरी तरह वह भी पतली-दुबली है न? कानों में कुछ पहनती है? और गले में?
कुछ नहीं फिरोज़ा, मेरी ही तरह वह भी कंगाल है। मैंने उससे कहा था कि लड़ाई पर जाऊँगा और सुल्तान की लूट में मुझे भी चाँदी-सोने की ढेरी मिलेगी, जब अमीर हो जाऊँगा, तब आकर तुमसे ब्याह करूँगा।
तब भी मरने जा रहे थे! ख़ाली ही लौट कर भेंट करने की, उसे एक बार देख लेने की, तुम्हारी इच्छा न हुई! तुम बड़े पाजी हो। जाओ, मरो या जियो, मैं तुमसे न बोलूँगी।
सचमुच फिरोज़ा ने मुँह फेर लिया। वह जैसे रूठ गई थी। बलराज को उसके इस भोलेपन पर हँसी न आ सकी। वह सोचने लगा, फिरोज़ा के हृदय में कितना स्नेह है! कितना उल्लास है? उसने पूछा-फिरोज़ा, तुम भी तो लड़ाई में पकड़ी गई ग़ुलामी भुगत रही हो। क्या तुमने कभी अपने जीवन पर विचार किया है? किस बात का उल्लास है तुम्हें?
मैं अब ग़ुलामी में नहीं रह सकूँगी। अहमद जब हिन्दुस्तान जाने लगा था, तभी उसने राजा साहब से कहा था कि मैं एक हज़ार सोने के सिक्के भेजँूगा। भाई तिलक! तुम उसे लेकर फिरोज़ा को छोड़ देना और वह हिन्दुस्तान आना चाहे तो उसे भेज देना। अब वह थैली आती ही होगी। मैं छुटकारा पा जाऊँगी और ग़ुलाम ही रहने पर रोने की कौन-सी बात है? मर जाने की इतनी जल्दी क्यों? तुम देख नहीं रहे हो कि तुर्कों में एक नयी लहर आई है। दुनिया ने उसके लिए जैसे छाती खोल दी है। जो आज ग़ुलाम है; वही कल सुल्तान हो सकता है। फिर रोना किस बात का, जितनी देर हँस सकती हूँ, उस समय को रोने में क्यों बिताऊँ?
तुम्हारा सुखमय जीवन और भी लम्बा हो, फिरोज़ा; किन्तु आज तुमने जो मुझे मरने से रोक दिया, यह अच्छा नहीं किया।
कहती तो हूँ, बेकार न मरो। क्या तुम्हारे मरने के लिए कोई....?
कुछ भी नहीं, फिरोज़ा! हमारी धार्मिक भावनाएँ बटी हुई हैं, सामाजिक जीवन दम्भ से और राजनीतिक क्षेत्र कलह और स्वार्थ से जकड़ा हुआ है। शक्तियाँ हैं, पर उनका कोई केन्द्र नहीं। किस पर अभिमान हो, किसके लिए प्राण दूँ?
दुत्त, चले जाओ हिन्दुस्तान में मरने के लिए कुछ खोजो। मिल ही जायगा, जाओ न....कहीं वह तुम्हारी....मिल जाय तो किसी झोपड़ी ही में काट लेना। न सही अमीरी, किसी तरह तो कटेगी। जितने दिन जीने के हों, उन पर भरोसा रखना।
‘....’
बलराज! न जाने क्यों मैं तुम्हें मरने देना नहीं चाहती। वह तुम्हारी राह देखती हुई कहीं जी रही हो, तब! आह! कभी उसे देख पाती तो उसका मुँह चूम लेती। कितना प्यार होगा उसके छोटे से हृदय में? लो, ये पाँच दिरम, मुझे कल राजा साहब ने इनाम के दिये हैं। इन्हे लेते जाओ! देखो, उससे जाकर भेंट करना।
फिरोज़ा की आँखों में आँसू भरे थे, तब भी वह जैसे हँस रही थी। सहसा वह पाँच धातु के टुकड़ों को बलराज के हाथ पर रखकर झाड़ियों में घुस गई। बलराज चुपचाप अपने हाथ पर के उन चमकीले टुकड़ों को देख रहा था। हाथ कुछ झुक रहा था। धीरे-धीरे टुकड़े उसके हाथ से खिसक पड़े। वह बैठ गया-सामने एक पुरुष खड़ा हुआ मुस्करा रहा था।
बलराज!
राजा साहब! -जैसे आँख खोलते हुए बलराज ने कहा, और उठकर खड़ा हो गया।
मैं सब सुन रहा था। तुम हिन्दुस्तान चले जाओ। मैं भी तुमको यही सलाह दूँगा। किन्तु, एक बात है।
वह क्या राजा साहब?
मैं तुम्हारे दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। जो बातें तुमने अभी फिरोज़ा से कहीं हैं, उन्हें सुनकर मेरा हृदय विचलित हो उठा है। किन्तु क्या करूँ? मैंने आकांक्षा का नशा पी लिया है। वही मुझे बेबस किये है। जिस दु:ख से मुनष्य छाती फाड़कर चिल्लाने लगता हो, सिर पीटने लगता हो, वैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मैं केवल सिर-नीचा कर चुप रहना अच्छा समझता हूँ। क्या ही अच्छा होता कि जिस सुख में आनन्दातिरेक से मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, उसे भी मुस्करा कर टाल दिया करूँ। सो नहीं होता। एक साधारण स्थिति से मैं सुल्तान के सलाहकारों के पद तक तो पहुँच गया हूँ। मैं भी हिन्दुस्तान का ही एक कंगाल था। प्रतिदिन की मर्यादा-वृद्धि, राजकीय विश्वास और उसमें सुख की अनुभूति ने मेरे जीवन को पहेली बनाकर... जाने दो। मैंने सुल्तान के दरबार से जितना सीखा है, वही मेरे लिए बहुत है। एक बनावटी गम्भीरता! छल-पूर्ण विनय! ओह, कितना भीषण है, यह विचार! मैं धीरे-धीरे इतना बन गया हूँ कि मेरी सहृदयता घूँघट उलटने नहीं पाती। लोगों को मेरी छाती में हृदय होने का सन्देह हो चला है। फिर मैं तुमसे अपनी सहृदयता क्यों प्रकट करूँ? तब भी आज तुमने मेरे स्वभाव की धारा का बाँध तोड़ दिया है। आज मैं....।
बस राजा साहब, और कुछ न कहिए। मैं जाता हूँ। मैं समझ गया कि......
ठहरो, मुझे अधिक अवकाश नहीं है। कल यहाँ से कुछ विद्रोही ग़ुलाम, अहमद नियाल्तगीन के पास लाहौर जानेवाले हैं, उन्हीं के साथ तुम चले जाओ। यह लो-कहते हुए सुल्तान के विश्वासी राजा तिलक ने बलराज के हाथों में थैली रख दी। बलराज वहाँ से चुपचाप चल पड़ा।
तिलक सुल्तान महमूद का अत्यन्त विश्वासपात्र हिन्दू कर्मचारी था। अपने बुद्धि-बल से कट्टर यवनों के बीच में अपनी प्रतिष्ठा दृढ़ रखने के कारण सुल्तान मसऊद के शासन-काल में भी वह उपेक्षा का पात्र नहीं था। फिर भी वह अपने को हिन्दू ही समझता था, चाहे अन्य लोग उसे कुछ समझते रहे हों। बलराज की बातें वह सुन चुका था। आज उसकी मनोवृत्तियों में भयानक हलचल थी। सहसा उसने पुकारा-फिरोज़ा!
झाड़ियों से निकलकर फिरोज़ा ने उसके सामने सिर झुका दिया। तिलक ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कोमल स्वर में पूछा-फिरोज़ा, तुम अहमद के पास हिन्दुस्तान जाना चाहती हो?
फिरोज़ा के हृदय में कम्पन होने लगा। वह कुछ न बोली। तिलक ने कहा-डरो मत, साफ-साफ कहो।
क्या अहमद ने आपके पास दीनारें भेज दीं-कहकर फिरोज़ा ने अपनी उत्कण्ठा-भरी आँखे उठाईं। तिलक ने हँसकर कहा-सो तो उसने नहीं भेजीं, तब भी तुम जाना चाहती हो, तो मुझसे कहो।
मैं क्या कह सकती हूँ? जैसी मेरी...।-कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू छलछला उठे। तिलक ने कहा-फिरोज़ा, तुम जा सकती हो। कुछ सोने के टुकड़ों के लिए मैं तुम्हारा हृदय नहीं कुचलना चाहता।
सच! -आश्चर्य-भरी कृतज्ञता उसकी वाणी में थी।
सच फिरोज़ा! अहमद मेरा मित्र है, और भी एक काम के लिए तुमको भेज रहा हूँ। उसे जाकर समझाओ कि वह अपनी सेना लेकर पंजाब के बाहर इधर-उधर हिन्दुस्तान में लूट-पाट न किया करे। मैं कुछ दिनों में सुल्तान से कहकर ख़ज़ाने और मालगुजारी का अधिकार भी उसी को दिला दूँगा। थोड़ा समझकर धीरे-धीरे काम करने से सब हो जायगा। समझी न, दरबार में इस पर गर्मागर्मी है कि अहमद की नियत ख़राब है। कहीं ऐसा न हो कि मुझी को सुल्तान इस काम के लिए भेजें।
फिरोज़ा, मैं हिन्दुस्तान नहीं जाना चाहता। मेरी एक छोटी बहन थी, वह वहाँ है? क्या दु:ख उसने पाया? मरी या जीती है, इन कई बरसों से मैंने इसे जानने की चेष्टा भी नहीं की। और भी.... मैं हिन्दू हूँ, फिरोज़ा! आज तक अपनी आकांक्षा में भूला हुआ, अपने आराम में मस्त, अपनी उन्नति में विस्मृत, गजनी में बैठा हिन्दुस्तान को, अपनी जन्मभूमि को और उसके दु:ख-दर्द को भूल गया हूँ। सुल्तान महमूद के लूटों की गिनती करना, उस रक्त-रंजित धन की तालिका बनाना, हिन्दुस्तान के ही शोषण के लिए सुल्तान को नयी-नयी तरकीबें बताना, यही तो मेरा काम था, जिससे आज मेरी इतनी प्रतिष्ठा है। दूर रह कर मैं सब कुछ कर सकता था; पर हिन्दुस्तान कहीं मुझे जाना पड़ा-उसकी गोद में फिर रहना पड़ा-तो मैं क्या करूँगा! फिरोज़ा, मैं वहाँ जाकर पागल हो जाऊँगा। मैं चिर-निर्वासित, विस्मृत अपराधी! इरावती मेरी बहन! आह, मैं उसे क्या मुँह दिखलाऊँगा। वह कितने कष्टों में जीती होगी! और मर गई हो तो... फिरोज़ा! अहमद से कहना, मेरी मित्रता के नाते मुझे इस दु:ख से बचा ले।
मैं जाऊँगी और इरावती को खोज निकालूँगी-राजा साहब! आपके हृदय में इतनी टीस है, आज तक मैं न जानती थी। मुझे यही मालूम था कि अनेक अन्य तुर्क सरदारों के समान आप भी रंग-रलियों में समय बिता रहे हैं, किन्तु बरफ से ढकी हुई चोटियों के नीचे भी ज्वालामुखी होता है।
तो जाओ फिरोज़ा! मुझे बचाने के लिए, उस भयानक आग से, जिससे मेरा हृदय जल उठता है, मेरी रक्षा करो!-कहते हुए राजा तिलक उसी जगह बैठ गये। फिरोज़ा खड़ी थी। धीरे-धीरे राजा के मुख पर एक स्निग्धता आ चली। अब अन्धकार हो चला। गजनी के लहरों पर से शीतल पवन उन झाड़ियों में भरने लगा था। सामने ही राजा साहब का महल था। उसका शुभ्र गुम्बद उस अन्धकार में अभी अपनी उज्ज्वलता से सिर ऊँचा किये था। तिलक ने कहा-फिरोज़ा, जाने के पहले अपना वह गाना सुनाती जाओ।
फिरोज़ा गाने लगी। उसके गीत की ध्वनि थी-मैं जलती हुई दीपशिखा हूँ और तुम हृदय-रञ्जन प्रभात हो! जब तक देखती नहीं, जला करती हूँ और जब तुम्हे देख लेती हूँ, तभी मेरे अस्तित्व का अन्त हो जाता है-मेरे प्रियतम! सन्ध्या की अँधेरी झाड़ियों में गीत की गुञ्जार घूमने लगी।
यदि एक बार उसे फिर देख पाता; पर यह होने का नहीं। निष्ठुर नियति! उसकी पवित्रता पंकिल हो गई होगी। उसकी उज्ज्वलता पर संसार के काले हाथों ने अपनी छाप लगा दी होगी। तब उससे भेंट करके क्या करूँगा? क्या करूँगा? अपने कल्पना के स्वर्ण-मन्दिर का खण्डहर देख कर! -कहते-कहते बलराज ने अपने बलिष्ठ पंजों को पत्थरों से जकड़े हुए मन्दिर के प्राचीर पर दे मारा। वह शब्द एक क्षण में विलीन हो गया। युवक ने आरक्त आँखों से उस विशाल मन्दिर को देखा और वह पागल-सा उठ खड़ा हुआ। परिक्रमा के ऊँचे-ऊँचे खम्भों से धक्के खाता हुआ घूमने लगा।
गर्भ-गृह के द्वारपालों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वे तेल से चुपड़े हुए काले-काले दूत अपने भीषण त्रिशूल से जैसे युवक की ओर संकेत कर रहे थे। वह ठिठक गया। सामने देवगृह के समीप घृत का अखण्ड-दीप जल रहा था। केशर, कस्तूरी और अगरु से मिश्रित फूलों की दिव्य सुगन्ध की झकोर रह-रहकर भीतर से आ रही थी। विद्रोही हृदय प्रणत होना नहीं चाहता था, परन्तु सिर सम्मान से झुक ही गया।
देव! मैंने अपने जीवन में जान-बूझ कर कोई पाप नहीं किया है। मैं किसके लिए क्षमा माँगूं? गजनी के सुल्तान की नौकरी, वह मेरे वश की नहीं; किन्तु मैं माँगता हूँ.....एक बार उस, अपनी प्रेम-प्रतिमा का दर्शन! कृपा करो। मुझे बचा लो।
प्रार्थना करके युवक ने सिर उठाया ही था कि उसे किसी को अपने पास से खिसकने का सन्देह हुआ। वह घूम कर देखने लगा। एक स्त्री कौशेय वसन पहने हाथ में फूलों से सजी डाली लिए चली जा रही थी। युवक पीछे-पीछे चला। परिक्रमा में एक स्थान पर पहुँच कर उसने सन्दिग्ध स्वर से पुकारा-इरावती! वह स्त्री घूम कर खड़ी हो गई। बलराज अपने दोनों हाथ पसारकर उसे आलिङ्गन करने के लिए दौड़ा। इरावती ने कहा-ठहरो। बलराज ठिठक कर उसकी गम्भीर मुखाकृति को देखने लगा। उसने पूछा-क्यों इरा! क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पत्नी नहीं हो? क्या हम लोगों का वह्निवेदी के सामने परिणय नहीं होने होने वाला था? क्या...?
हाँ, होने वाला था किन्तु हुआ नहीं, और बलराज! तुम मेरी रक्षा नहीं कर सके। मैं आततायी के हाथ से कलंकित की गयी। फिर तुम मुझे पत्नी-रूप में कैसे ग्रहण करोगे? तुम वीर हो! पुरुष हो! तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत-सी महत्वाकांक्षाएँ हैं। उन्हें खोज लो, मुझे भगवान् की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन, अनुताप की ज्वाला से झुलसा हुआ मेरा मन, अब स्नेह के योग्य नहीं।
प्रेम की, पवित्रता की, परिभाषा अलग है इरा! मैं तुमको प्यार करता हूँ। तुम्हारी पवित्रता से मेरे मन का अधिक सम्बन्ध नहीं भी हो सकता है। चलो, हम.... और कुछ भी हो, मेरे प्रेम की वह्नि तुम्हारी पवित्रता को अधिक उज्ज्वल कर देगी।
भाग चलूँ, क्यों? सो नहीं हो सकता। मैं क्रीत दासी हूँ। म्लेच्छों ने मुझे मुलतान की लूट में पकड़ लिया। मैं उनकी कठोरता में जीवित रहकर बराबर उनका विरोध ही करती रही। नित्य कोड़े लगते। बाँध कर मैं लटकाई जाती। फिर भी मैं अपने हठ से न डिगी। एक दिन कन्नौज के चतुष्पथ पर घोड़ों के साथ ही बेचने के लिए उन आततायियों ने मुझे भी खड़ा किया। मैं बिकी पाँच सौ दिरम पर, काशी के ही एक महाजन ने मुझे दासी बना लिया। बलराज! तुमने न सुना होगा, कि मैं किन नियमों के साथ बिकी हूँ। मैंने लिखकर स्वीकार किया है, इस घर कुत्सित से भी कुत्सित कर्म करूँगी और कभी विद्रोह न करूँगी,-न कभी भागने की चेष्टा करूँगी; न किसी के कहने से अपने स्वामी का अहित सोचूँगी। यदि मैं आत्महत्या भी कर डालूँ, तो मेरे स्वामी या उनके कुटुम्ब पर कोई दोष न लगा सकेगा! वे गंगा-स्नान किये-से पवित्र हैं। मेरे सम्बन्ध में वे सदा ही शुद्ध और निष्पाप हैं। मेरे शरीर पर उनका आजीवन अधिकार रहेगा। वे मेरे नियम-विरुद्ध आचरण पर जब चाहें राजपथ पर मेरे बालों को पकड़ कर मुझे घसीट सकते हैं। मुझे दण्ड दे सकते हैं। मैं तो मर चुकी हूँ। मेरा शरीर पाँच सौ दिरम पर जी कर जब तक सहेगा, खटेगा। वे चाहें तो मुझे कौड़ी के मोल भी किसी दूसरे के हाथ बेच सकते हैं। समझे! सिर पर तृण रखकर मैंने स्वयं अपने को बेचने में स्वीकृति दी है। उस सत्य को कैसे तोड़ दूँ?
बलराज ने लाल होकर कहा-इरावती, यह असत्य है, सत्य नहीं। पशुओं के समान मनुष्य भी बिक सकते हैं? मैं यह सोच भी नहीं सकता। यह पाखण्ड तुर्की घोड़ों के व्यापारियों ने फैलाया है। तुमने अनजान में जो प्रतिज्ञा कर ली है, वह ऐसा सत्य नहीं कि पालन किया जाये। तुम नहीं जानती हो कि तुमको खोजने के लिए ही मैंने यवनों की सेवा की।
क्षमा करो बलराज, मैं तुम्हारा तर्क नहीं समझ सकी। मेरी स्वामिनी का रथ दूर चला गया होगा, तो मुझे बातें सुननी पड़ेंगीं क्योंकि आज-कल मेरे स्वामी नगर से दूर स्वास्थ्य के लिए उपवन में रहते हैं। स्वामिनी देव-दर्शन के लिए आई थीं।
तब मेरा इतना परिश्रम व्यर्थ हुआ! फिरोज़ा ने व्यर्थ ही आशा दी थी। मैं इतने दिनों भटकता फिरा। इरावती! मुझ पर दया करो।
फिरोज़ा कौन?-फिर सहसा रुककर इरावती ने कहा-क्या करूँ! यदि मैं वैसा करती, तो मुझे इस जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता मिलती; किन्तु वह मेरे भाग्य में है कि नहीं, इसे भगवान् ही जानते होंगे? मुझे अब जाने दो।-बलराज इस उत्तर से खिन्न और चकराया हुआ काठ के किवाड़ की तरह इरावती के सामने से अलग होकर मन्दिर के प्राचीर से लग गया। इरावती चली गई। बलराज कुछ समय तक स्तब्ध और शून्य-सा वहीं खड़ा रहा। फिर सहसा जिस ओर इरावती गई थी, उसी ओर चल पड़ा।
युवक बलराज कई दिन तक पागलों-सा धनदत्त के उपवन से नगर तक चक्कर लगाता रहा। भूख-प्यास भूलकर वह इरावती को एक बार फिर देखने के लिए विकल था; किन्तु वह सफल न हो सका। आज उसने निश्चय किया था कि वह काशी छोड़कर चला जायगा। वह जीवन से हताश होकर काशी से प्रतिष्ठान जानेवाले पथ पर चलने लगा। उसकी पहाड़ के ढोके-सी काया, जिसमें असुर-सा बल होने का लोग अनुमान करते, निर्जीव-सी हो रही थी। अनाहार से उसका मुख विवर्ण था। यह सोच रहा था-उस दिन, विश्वनाथ के मन्दिर में न जाकर मैंने आत्महत्या क्यों न कर ली! वह अपनी उधेड़-बुन में चल रहा था। न जाने कब तक चलता रहा। वह चौंक उठा-जब किसी के डाँटने का शब्द सुनाई पड़ा-देख कर नहीं चलता! बलराज ने चौंककर देखा, अश्वारोहियों की लम्बी पंक्ति, जिसमें अधिकतर अपने घोड़ों को पकड़े हुए पैदल ही चल रहे थे। वे सब तुर्क थे। घोड़ों के व्यापारी-से जान पड़ते थे। गजनी के प्रसिद्ध महमूद के आक्रमणों का अन्त हो चुका था। मसऊद सिंहासन पर था। पंजाब तो गजनी के सेनापति नियाल्तगीन के शासन में था। मध्य-प्रदेश में भी तुर्क व्यापारी अधिकतर व्यापारिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। वह राह छोड़ कर हट गया। अश्वारोही ने पूछा-बनारस कितनी दूर होगा? बलराज ने कहा-मुझे नहीं मालूम।
तुम अभी उधर से चले आ रहे हो और कहते हो, नहीं मालूम! ठीक-ठीक बताओ, नहीं तो ....।
नहीं तो क्या? मैं तुम्हारा नौकर हूँ।-कहकर वह आगे बढऩे लगा। अकस्मात् पहले अश्वारोही ने कहा-पकड़ लो इसको!
कौन! नियाल्तगीन! -सहसा बलराज चिल्ला उठा।
अच्छा, यह तुम्हीं हो बलराज! यह तुम्हारा क्या हाल है, क्या सुल्तान की सरकार में अब तुम काम नहीं करते हो?
नहीं, सुल्तान मसऊद का मुझ पर विश्वास नहीं है। मैं ऐसा काम नहीं करता, जिसमें सन्देह मेरी परीक्षा लेता रहे; किन्तु इधर तुम लोग क्यों?
सुना है, बनारस एक सुन्दर और धनी नगर है। और....।
और क्या?
कुछ नहीं, देखने चला आया हूँ। क़ाज़ीनहीं चाहता कि कन्नौज के पूरब भी कुछ हाथ-पाँव बढ़ाया जाय। तुम चलो न मेरे साथ। मैं तुम्हारी तलवार की कीमत जानता हूँ। बहादुर लोग इस तरह नहीं रह सकते। तुम अभी तक हिन्दू बने हो। पुरानी लकीर पीटने वाले, जगह-जगह झुकने वाले, सबसे दबते हुए, बनते हुए, कतराकर चलने वाले हिन्दू! क्यों? तुम्हारे पास बहुत-सा कूड़ा-कचड़ा इकट्ठा हो गया है, उनका पुरानेपन का लोभ तुमको फेंकने नहीं देता? मन में नयापन तथा दुनिया का उल्लास नहीं आने पाता! इतने दिन हम लोंगो के साथ रहे, फिर भी....।
बलराज सोच रहा था, इरावती का वह सूखा व्यवहार। सीधा-सीधा उत्तर! क्रोध से वह अपना ओठ चबाने लगा। नियाल्तगीन बलराज को परख रहा था! उसने कहा-तुम कहाँ हो? बात क्या है? ऐसा बुझा हुआ मन क्यों?
बलराज ने प्रकृतिस्थ होकर कहा-कहीं तो नहीं। अब मुझे छुट्टी दो, मैं जाऊँ। तुम्हारा बनारस देखने का मन है-इस पर तो मुझे विश्वास नहीं होता, तो भी मुझे इससे क्या? जो चाहो करो। संसार भर में किसी पर दया करने की आवश्यकता नहीं-लूटो, काटो, मारो। जाओ, नियाल्तगीन।
नियाल्तगीन ने हँसकर कर कहा-पागल तो नहीं हो। इन थोड़े-से आदमियों से भला क्या हो सकता है। मैं तो एक बहाने से इधर आया हूँ। फिरोज़ा का बनारसी जरी के कपड़ों का....
क्या फिरोज़ा भी तुम्हारे साथ है?
चलो, पड़ाव पर सब आप ही मालूम हो जायगा!-कहकर नियाल्तगीन ने संकेत किया। बलराज के मन में न-जाने कैसी प्रसन्नता उमड़ी। वह एक तुर्की घोड़े पर सवार हो गया।
दोनों ओर जवाहारात, जरी कपड़ों, बर्तन तथा सुगन्धित द्रव्यों की सजी हुई दूकानों से; देश-विदेश के व्यापारियों की भीड़ और बीच-बीच में घोड़े के रथों से, बनारस की पत्थर से बनी हुई चौड़ी गलियाँ अपने ढंग की निराली दिखती थीं। प्राचीरों से घिरा हुआ नगर का प्रधान भाग त्रिलोचन से लेकर राजघाट तक विस्तृत था। तोरणों पर गांगेय देव के सैनिकों का जमाव था। कन्नौज के प्रतिहार सम्राट् से काशी छीन ली गई थी। त्रिपुरी उस पर शासन करती थी। ध्यान से देखने पर यह तो प्रकट हो जाता था कि नागरिकों में अव्यवस्था थी। फिर भी ऊपरी काम-काज, क्रय-विक्रय, यात्रियों का आवागमन चल रहा था।
फिरोज़ा कमख्वाब देख रही थी और नियाल्तगीन मणि-मुक्ताओं की ढेरी से अपने लिए अच्छे-अच्छे नग चुन रहा था। पास ही दोनों दूकानें थीं! बलराज बीच में खड़ा था। अन्यमनस्क फिरोज़ा ने कई थान छाँट लिये थे। उसने कहा-बलराज! देखो तो, इन्हें तुम कैसा समझते हो, हैं न अच्छे? उधर से नियाल्तगीन ने पूछा-कपड़े देख चुकी हो, तो इधर आओ। इन्हे भी देख न लो! फिरोज़ा उधर जाने लगी थी कि दुकानदार ने कहा-लेना न देना, झूठ-मूठ तंग करना। कभी देखा तो नहीं। कंगालों की तरह जैसे आँखों से देख कर ही खा जायगी। फिरोज़ा घूम कर खड़ी हो गई। उसने पूछा-क्या बकते हो?-जा-जा तुर्किस्तान के जंगलों में भेड़ चरा। इन कपड़ों का लेना तेरा काम नहीं-सटी हुई दूकानों से जौहरी अभी कुछ बोलना ही चाहता था कि बलराज ने कहा-
चुप रह, नहीं तो जीभ खींच लूँगा।
ओहो! तुर्की ग़ुलाम का दास, तू भी ....। अभी इतना ही कपड़े वाले के मुँह से निकला था कि नियाल्तगीन की तलवार उसके गले तक पहुँच गई। बाज़ार में हलचल मची। नियाल्तगीन के साथी इधर-उधर बिखरे ही थे। कुछ तो वहीं आ गये। औरों को समाचार मिल गया। झगड़ा बढऩे लगा, नियाल्तगीन को कुछ लोगों ने घेर लिया था; किन्तु तुर्कों ने उसे छीन लेना चाहा। राजकीय सैनिक पहुँच गये। नियाल्तगीन को यह मालूम हो गया कि पड़ाव पर समाचार पहुँच गया है। उसने निर्भीकता से अपनी तलवार घुमाते हुए कहा-अच्छा होता कि झगड़ा यहीं तक रहता, नहीं तो हम लोग तुर्क हैं।
तुर्कों का आतंक उत्तरी भारत में फैल चुका था। क्षण भर के लिए सन्नाटा तो हुआ, परन्तु वणिक के प्रतिरोध के लिए नागरिकों का रोष उबल रहा था। राजकीय सैनिकों का सहयोग मिलते ही युद्ध आरम्भ हो गया, अब और भी तुर्क आ पहुँचे थे। नियाल्तगीन हँसने लगा। उसने तुर्की में संकेत किया। बनारस का राजपथ तुर्कों की तलवार से पहली बार आलोकित हो उठा।
नियाल्तगीन के साथी संघटित हो गये थे। वे केवल युद्ध और आत्मरक्षा ही नहीं कर रहे थे, बहुमूल्य पदार्थों की लूट भी करने लगे। बलराज स्तब्ध था। वह जैसे एक स्वप्न देख रहा था। अकस्मात् उसके कानों में एक परिचित स्वर सुनाई पड़ा। उसने घूम कर देखा-जौहरी के गले पर तलवार पड़ा ही चाहती है और इरावती ‘इन्हें छोड़ दो, न मारो’ कहती हुई तलवार के सामने आ गई थी। बलराज ने कहा-ठहरो, नियाल्तगीन। दूसरे ही क्षण नियाल्तगीन की कलाई बलराज की मुट्ठी में थी। नियाल्तगीन ने कहा-धोखबाज काफिर, यह क्या?-कई तुर्क पास आ गये थे! फिरोज़ा का भी मुख तमतमा गया था। बलराज ने सबल होने पर भी बड़ी दीनता से कहा-फिरोज़ा, यही इरावती है। फिरोज़ा हँसने लगी। इरावती को पकड़ कर उसने कहा-नियाल्तगीन! बलराज को इसके साथ लेकर मैं चलती हूँ, तुम आना। और इस जौहरी से तुम्हारा नुकसान न हो, तो न मारो! देखो, बहुत से घुड़सवार आ रहे हैं। हम सबों का चलना ही अच्छा है।
नियाल्तगीन ने परिस्थिति एक क्षण में ही समझ ली। उसने जौहरी से पूछा-तुम्हारे घर में दूसरी ओर से बाहर जाया जा सकता है?
हाँ!-कँपे कण्ठ से उत्तर मिला।
अच्छा चलो, तुम्हारी जान बच रही है। मैं इरावती को ले जाता हूँ।-
कह कर नियाल्तगीन ने एक तुर्क के कान में कुछ कहा! और बलराज को आगे चलने का संकेत करके इरावती और फिरोज़ा के पीछे धनदत्त के घर में घुसा। इधर तुर्क एकत्र होकर प्रत्यावर्तन कर रहे थे। नगर की राजकीय सेना पास आ रही थी।
चन्द्रभागा के तट पर शिविरों की एक श्रेणी थी। उसके समीप ही घने वृक्षों के झुरमुट में इरावती और फिरोज़ा बैठी हुई सायंकालीन गम्भीरता की छाया में एक-दूसरे का मुँह देख रही हैं। फिरोज़ा ने कहा-
बलराज को तुम प्यार करती हो?
मैं नहीं जानती। -एक आकस्मिक उत्तर मिला!
और वह तो तुम्हारे लिए गजनी से हिन्दुस्तान चला आया।
तो क्यों आने दिया, वहीं रोक रखती।
तुमको क्या हो गया है?
मैं-मैं नहीं रही; मैं हूँ दासी; कुछ धातु के टुकड़ों पर बिकी हुई हाड़-मांस का समूह, जिसके भीतर एक सूखा हृदय-पिण्ड है।
इरा! वह मर जायगा-पागल हो जायगा।
और मैं क्या हो जाऊँ, फिरोज़ा?
अच्छा होता, तुम भी मर जाती! -तीखेपन से फिरोज़ा ने कहा।
इरावती चौंक उठी। उसने कहा-बलराज ने वह भी न होने दिया। उस दिन नियाल्तगीन की तलवार ने यही कर दिया होता; किन्तु मनुष्य बड़ा स्वार्थी है। अपने सुख की आशा में वह कितनों को दुखी बनाया करता है। अपनी साध पूरी करने में दूसरों की आवश्यकता ठुकरा दी जाती है। तुम ठीक कह रही हो फिरोज़ा, मुझे...
ठहरो, इरा! तुमने मन को कड़वा बनाकर मेरी बात सुनी है। उतनी ही तेजी से उसे बाहर कर देना चाहती हो।
मेरे दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है, उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती, फिरोज़ा। मैं तो देखूँगी कि वह मेरे दु:ख को कितना कम कर सका है। मुझे दु:ख सहने के लिए जो छोड़ जाता है, केवल अपने अभिमान और आकांक्षा की तुष्टि के लिए। मेरे दु:ख में हाथ बटाने का जिसका साहस नहीं, जो मेरी परिस्थिति में साथी नहीं बन सकता, जो पहले अमीर बनना चाहता है, फिर अपने प्रेम का दान करना चाहता है, वह मुझसे हृदय माँगे, इससे बढ़ कर धृष्टता और क्या होगी?
मैं तुम्हारी बहुत-सी बातें समझ नहीं सकी, लेकिन मैं इतना तो कहूँगी कि दु:खों ने तुम्हारे जीवन की कोमलता छीन ली है।
फिरोज़ा....मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहती। तुमने मेरा प्राण बचाया है सही, किन्तु हृदय नहीं बचा सकती। उसे अपनी खोज-खबर आप ही लेनी पड़ेगी। तुम चाहे जो मुझे कह लो। मैं तो समझती हूँ कि मनुष्य दूसरों की दृष्टि में कभी पूर्ण नहीं हो सकता! पर उसे अपनी आँखों से तो नहीं ही गिरना चाहिए।
फिरोज़ा ने सन्देह से पीछे की ओर देखा। बलराज वृक्ष की आड़ से निकल आया। उसने कहा-फिरोज़ा, मै जब गजनी के किनारे मरना चाहता था, तो क्या भूल कर रहा था? अच्छा, जाता हूँ।
इरावती सोच रही थी, अब भी कुछ बोलूँ-
फिरोज़ा सोच रही थी, दोनों को मरने से बचा कर क्या सचमुच मैंने कोई बुरा काम किया?
बलराज की ओर किसी ने न देखा। वह चला गया।
रावी के किनारे एक सुन्दर महल में अहमद नियाल्तगीन पंजाब के सेनानी का आवास है। उस महल के चारों ओर वृक्षों की दूर तक फैली हुई हरियाली है, जिसमें शिविरों की श्रेणी में तुर्क सैनिकों का निवास है।
वसन्त की चाँदनी रात अपनी मतवाली उज्ज्वलता में महल के मीनारों और गुम्बदों तथा वृक्षों की छाया में लडख़ड़ा रही है, अब जैसे सोना चाहती हो। चन्द्रमा पश्चिम में धीरे-धीरे झुक रहा था। रावी की ओर एक संगमरमर की दालान में ख़ाली सेज बिछी थी। जरी के परदे ऊपर की ओर बँधे थे। दालान की सीढ़ी पर बैठी हुई इरावती रावी का प्रवाह देखते-देखते सोने लगी थी-उस महल की जैसे सजावट गुलाबी पत्थर की अचल प्रतिमा हो।
शयन-कक्ष की सेवा का भार आज उसी पर था। वह अहमद के आगमन की प्रतीक्षा करते-करते सो गई थी। अहमद इन दिनों गजनी से मिले हुए समाचार के कारण अधिक व्यस्त था। सुल्तान के रोष का समाचार उसे मिल चुका था। वह फिरोज़ा से छिपाकर, अपने अन्तरंग साथियों से, जिन पर उसे विश्वास था, निस्तब्ध रात्रि में मन्त्रणा किया करता। पंजाब का स्वतन्त्र शासक बनने की अभिलाषा उसके मन में जग गई थी, फिरोज़ा ने उसे मना किया था, किन्तु एक साधारण तुर्क दासी के विचार राजकीय कामों में कितने मूल्य के हैं, इसे वह अपनी महत्वाकांक्षा की दृष्टि से परखता था। फिरोज़ा कुछ तो रूठी थी और कुछ उसकी तबियत भी अच्छी न थी। वह बन्द कमरे में जाकर सो रही। अनेक दासियों के रहते भी आज इरावती को ही वहाँ ठहरने के लिए उसने कह दिया था। अहमद सीढिय़ों से चढक़र दालान के पास आया। उसने देखा एक वेदना-विमण्डित सुप्त सौन्दर्य! वह और भी समीप आया। गुम्बद के बगल चन्द्रमा की किरणें ठीक इरावती के मुख पर पड़ रही थीं। अहमद ने वारुणीविलसित नेत्रों से देखा, उस रूपमाधुरी को, जिसमें स्वाभाविकता थी, बनावट नहीं। तरावट थी, प्रमाद की गर्मी नहीं। एक बार सशंक दृष्टि से उसने चारों ओर देखा, फिर इरावती का हाथ पकड़कर हिलाया। वह चौंक उठी। उसने देखा-सामने अहमद! इरावती खड़ी होकर अपने वस्त्र सँभालने लगी। अहमद ने संकोच भरी ढिठाई से कहा-
तुम यहाँ क्यों सो रही हो, इरा?
थक गयी थी। कहिए, क्या लाऊँ?
थोड़ी शीराजी-कहते हुए वह पलँग पर जाकर बैठ गया और इरावती का स्फटिक-पात्र में शीराजी उँड़ेलना देखने लगा। इरा ने जब पात्र भरकर अहमद को दिया, तो अहमद ने सतृष्ण नेत्रों से उसकी ओर देख कर पूछा-फिरोज़ा कहाँ है?
सिर में दर्द है, भीतर सो रही है।
अहमद की आँखों में पशुता नाच उठी। शरीर में एक सनसनी का अनुभव करते हुए उसने इरावती का हाथ पकड़ कहा- बैठो न, इरा! तुम थक गई हो।
आप शर्बत लीजिये। मैं जाकर फिरोज़ा को जगा दूँ।
फिरोज़ा! फिरोज़ा के हाथ मैं बिक गया हूँ क्या, इरावती! तुम-आह!
इरावती हाथ छुड़ाकर हटनेवाली ही थी कि सामने फिरोज़ा खड़ी थी! उसकी आँखों में तीव्र ज्वाला थी। उसने कहा-मैं बिकी हूँ, अहमद! तुम भला मेरे हाथ क्यों बिकने लगे? लेकिन तुमको मालूम है कि तुमने अभी राजतिलक को मेरा दाम नहीं चुकाया; इसलिए मैं जाती हूँ।
अहमद हत-बुद्धि! निष्प्रभ! और फिरोज़ा चली। इरावती ने गिड़गिड़ा कर कहा-बहन, मुझे भी न लेती चलोगी....?
फिरोज़ा ने घूमकर एक बार स्थिर दृष्टि से इरावती की ओर देखा और कहा-तो फिर चलो।
दोनों हाथ पकड़े सीढ़ी से उतर गईं।
बहुत दिनों तक विदेश में इधर-उधर भटकने पर बलराज जब से लौट आया है, तब से चन्द्रभागा-तट के जाटों में एक नयी लहर आ गई है। बलराज ने अपने सजातीय लोगों को पराधीनता से मुक्त होने का सन्देश सुनाकर उन्हें सुल्तान-सरकार का अबाध्य बना दिया है। उद्दंड जाटों को अपने वश में रखना, उन पर सदा फ़ौजी शासन करना, सुल्तान के कर्मचारियों के लिए भी बड़ा कठिन हो रहा था।
इधर फिरोज़ा के जाते ही अहमद अपनी कोमल वृत्तियों को भी खो बैठा। एक ओर उसके पास मसऊद के रोष के समाचार आते थे, दूसरी ओर वह जाटों की हलचल से ख़ज़ाना भी नहीं भेज सकता था। वह झुँझला गया। दिखावे में तो अहमद ने जाटों को एक बार ही नष्ट करने का निश्चय कर लिया, और अपनी दृढ़ सेना के साथ वह जाटों को घेरे में डालते हुए बढऩे लगा; किन्तु उसके हृदय में एक दूसरी ही बात थी। उसे मालूम हो गया था कि गजनी की सेना तिलक के साथ आ रही है; उसकी कल्पना का साम्राज्य छिन्न-भिन्न कर देने के लिए! उसने अन्तिम प्रयत्न करने का निश्चय किया। अन्तरंग साथियों की सम्मति हुई कि यदि विद्रोही जाटों को इस समय मिला लिया जाय, तो गजनी से पंजाब आज ही अलग हो सकता है। इस चढ़ाई में दोनों मतलब थे।
घने जंगल का आरम्भ था। वृक्षों के हरे अत्र्चल की छाया में थकी हुई दो युवतियाँ उनकी जड़ों पर सिर धरे हुए लेटी थीं। पथरीले टीलों पर पड़ती हुई घोड़ों की टापों के शब्द ने उन्हें चौंका दिया। वे अभी उठकर बैठ भी नहीं पाई थीं कि उनके सामने अश्वारोहियों का एक झुण्ड आ गया। भयानक भालों की नोक सीधे किये हुए स्वास्थ्य के तरुण तेज से उद्दीप्त जाट-युवकों का वह वीर दल था। स्त्रियों को देखते ही उनके सरदार ने कहा-माँ, तुम लोग कहाँ जाओगी?
अब फिरोज़ा और इरावती सामने खड़ी हो गयीं। सरदार ने घोड़े पर से उतरते हुए पूछा-फिरोज़ा, यह तुम हो बहन!
हाँ भाई, बलराज! मैं हूँ -और यह है इरावती! पूरी बात जैसे न सुनते हुए बलराज ने कहा-फिरोज़ा, अहमद से युद्ध होगा। इस जंगल को पार कर लेने पर तुर्क सेना जाटों का नाश कर देगी, इसलिए यहीं उन्हें रोकना होगा। तुम लोग इस समय कहाँ जाओगी?
जहाँ कहो, बलराज। अहमद की छाया से तो मुझे भी बचना है। फिरोज़ा ने अधीर होकर कहा।
डरो मत फिरोज़ा, यह हिन्दुस्तान है, और यह हम हिन्दुओं का धर्म-युद्ध है। ग़ुलाम बनने का भय नहीं।-बलराज अभी यह कह ही रहा था कि वह चौंककर पीछे देखता हुआ बोल उठा-अच्छा, वे लोग आ ही गये। समय नहीं है। बलराज दूसरे ही क्षण में अपने घोड़े की पीठ पर था। अहमद की सेना सामने आ गई। बलराज को देखते ही उसने चिल्लाकर कहा-बलराज! यह तुम्हीं हो।
हाँ, अहमद।
तो हमलोग दोस्त भी बन सकते हैं। अभी समय है-कहते-कहते सहसा उसकी दृष्टि फिरोज़ा और इरावती पर पड़ी। उसने समस्त व्यवस्था भूलकर, तुरन्त ललकारा-पकड़ लो इन औरतों को?-उसी समय बलराज का भाला हिल उठा। युद्ध आरम्भ था।
जाटों की विजय के साथ युद्ध का अन्त होने ही वाला था कि एक नया परिवर्तन हुआ। दूसरी ओर से तुर्क-सेना जाटों की पीठ पर थी। घायल बलराज का भीषण भाला अहमद की छाती में पार हो रहा था। निराश जाटों की रण-प्रतिज्ञा अपनी पूर्ति करा रही थी। मरते हुए अहमद ने देखा कि गजनी की सेना के साथ तिलक सामने खड़े थे। सबके अस्त्र तो रुक गये, परन्तु अहमद के प्राण न रुके। फिरोज़ा उसके शव पर झुकी हुई रो रही थी। और इरावती मूर्च्छित हो रहे बलराज का सिर अपनी गोद में लिये थी। तिलक ने विस्मित होकर यह दृश्य देखा।
बलराज ने जल का संकेत किया। इरावती के हाथों में तिलक ने जल का पात्र दिया। जल पीते ही बलराज ने आँखे खोलकर कहा-इरावती, अब मैं न मरूँगा?
तिलक ने आश्चर्य से पूछा-इरावती?
फिरोज़ा ने रोते हुए कहा-हाँ राजा साहब, इरावती।
मेरी दुखिया इरावती? मुझे क्षमा कर, मैं तुझे भूल गया था। तिलक ने विनीत शब्दों में कहा।
भाई! -इरावती आगे कुछ न कह सकी, उसका गला भर आया था। उसने तिलक के पैर पकड़ लिये।
बलराज जाटों का सरदार है, इरावती रानी। चनाब का वह प्रान्त इरावती की करुणा से हरा-भरा हो रहा है; किन्तु फिरोज़ा की प्रसन्नता की वहीं समाधि बन गई-और वहीं वह झाड़ू देती, फूल चढ़ाती और दीप जलाती रही। उस समाधि की वह आजीवन दासी बनी रही।