दाँताकिलकिल : अख्तर मुहीउद्दीन (कश्मीरी कहानी)

Dantakilkil : Akhtar Mohiuddin (Kashmiri Story)

ब्रीस्तू चमार ने आव देखा न ताव, झट खड़े होकर जूता हाथ में लिया और अश्मी के सिर पर दो-चार जड़ दिये। इतना ही नहीं, चुटिया पकड़कर उसे

सारे कमरे में घसीट भी लिया। यह तो खुदा की मेहर हुई कि चूल्हे की लपटों से अश्मी के कपड़ों को आग नहीं लगी, अन्यथा वह सिर से पैर तक आग से झुलस गई होती। चूल्हे पर पायों (भेड़-बकरी की टांगें) से भरी हँडिया पक चुकी थी और खूब-खूब उबल रही थी।

अश्मी की सहसा चीख निकल गई, “अरे, कहीं कोई है मुझे बचाओ! यह मुझे जान से ही मारे डाल रहा है। इसका सर्वनाश हो जाय!"
“सर्वनाश हो उन सबका, जो तेरे हैं और जहाँ हैं।" ब्रीस्तू चमार दायें-बायें थूकते हुए बोला, "तूने मुझे मुरदा समझा है क्या? तूने !"
“उन्हें क्यों कोस रहा है?" अश्मी पहले से भी ऊँचे स्वर में चीखने लगी, “वे क्या तेरा चूल्हा फोड़ने आते हैं?

चूल्हे का नाम सुनते ही ब्रीस्तू को पायों-भरी हँडिया याद आ गई और उसका मन डाँवाडोल हो गया। सोचने लगा-'देखो तो, कितने दिनों बाद आज शोरबा पीने-खाने को मिला था, सो वह भी इस डायन ने राहत से पचने न दिया। तब वह अँझलाकर अश्मी पर और भी बरसा-"तू देखना, सबेरा होते ही जो तुम्हें तलाक न दिया तो अपने बाप का न हूँगा।"

"जा-जा, मेरी जूती के सदके!' अश्मी भवें तरेरकर और हाथ हिला-हिलाकर बोली, “मैं लोगों की घायागरी करके अपना पेट पालूंगी। में कोई लूली-लंगड़ी थोड़ी हूँ!"

यह कोलाहल सुनकर मुहल्ले का मुहल्ला वहाँ उमड़ आया। इनमें सलाम डूम, गुल बदमाश, नूरकमाल और अन्य मुहल्लों के बच्चे-बूढ़े सभी शामिल थे। खोरशी छाती पीटती हुई आयी और कहने लगी, “अरे ब्रीस्तू! तुझे क्या हो गया? देखो तो, बेचारी की चुटिया से खून की धार कैसे फूट रही है। अबे, तुझे तनिक भी दया नहीं आई?"

अश्मी का साहस बढ़ गया और वह बोली, "इसका तो दिमाग ही सातवें आसमान पर चढ़ गया है। भला पच्चीस रुपल्ले भी कोई कमाई है क्या? समझता है फंस गई है यह बेबस नार। मगर भोर होने दे, अपने भाइयों से दिमाग इसका ठिकाने न लगवाया तो कहना! सात भाइयों की बहन हूँ सात भाइयों की,,,।"

"हूँह...फर्रर...।" ब्रीस्तू के मन में अश्मी की यह घुड़की न समायी और वह मुँह बना-बनाकर और उँगलियाँ नचा-नचाकर उसे चिढ़ाने लगा।
“अरे भई, आखिर बात क्या है?" नूरकमाल बड़ी अक्लमन्दी से पूछताछ करने लगा, “भला हमें भी कुछ बताओगे या लड़ते ही जाओगे? अरी अश्मी, तू ही तनिक चुप रह।"
"मैं मैं चुप रहूँ? मैं तो इसको दुनिया-जहान में जलील करके छोड़ूँगी।"
"अरी, किसको ?" ब्रीस्तू चमार फिर उबल उठा। और उसे पीटने के लिए फटा जूता हाथ में उठाने लगा।
इस पर नूरकमाल और गुल बदमाश ने बीच-बचाव करके उसका क्रोध ठण्डा किया।

ब्रीस्तू हाँफ रहा था। उसका चेहरा केसर की तरह पीला पड़ गया। रोम-रोम से पसीना फूट पड़ा। उसके हाथ कांपने लगे। क्रोधातिरेक से वह भीतर-ही-भीतर कुढ़ रहा था। दीया अगर ऊपरी आले पर न होता तो वह भी सम्भवतः पैरों के नीचे रौंदा गया होता। हुक्के की नय (नली) नदारद, चिलम टूटकर चकनाचूर हो गई थी।

छोटे-छोटे बच्चों ने तूफानी शोर मचा रखा था। कोई किसी की बात तक नहीं सुन पाता था। सुनने में अगर कोई शब्द आते भी तो वे थे ब्रीस्तू के मुख से गालियाँ और अश्मी के मुख से अपशब्दों की बौछार!

आखिर ब्रीस्तू नूरकमाल से सम्बोधित हुआ, “भई, तुम ही मेरे मुंह पर थूक दो और कह दो कि अबे नामुसलमान, तू जो कहता है झूठ बकता है!"
“अरे भई, कुछ कहोगे भी या नहीं?" गुल बदमाश ने मूंछों को ताव देते हुए कहा। वह सम्भवतः खड़े-खड़े ही आले पर के दीये की चिकनाहट उँगलियों पर मलता और मूंछों को ताव देता रहा। हाँ, शायद वह यही कुछ कर रहा था, नहीं तो वह दीये के पास ही खड़ा क्यों रहता। जैसे और सब लोग बैठे थे, वह भी बैठा होता।

“अरे, क्या कहूँ!" ब्रीस्तू हसरत-भरी हँसी के साथ कहने लगा, “थोड़ी देर पहले जब हमने पगार ले ली, मैंने तुमसे नहीं कहा कि सुलतान कसाई से मैंने पाये माँगे हैं? अभी अभी भई!"
"हाँ भई हाँ, याद है!" गुल बदमाश ने गवाही दी।
“अच्छा तो तेरी जान की खैर हो, रुपये मिले पच्चीस । वहीं पर जमादार साहब था, उसको दो रुपये दे दिये। सोचा था. कमेटी के पिछवाडे से निकल जाऊँ और पुलिस लाइन के अहाते से होते-होते तहसील के पीछे से घर पहुँच जाऊँ। वहाँ पर गफार बानी के दस रुपये चुकाने थे सोदा-सुलफ के! महीना-भर उधार जो लेते रहे..."
“अरे यार, यही तो मुझ पर बीती।" नूरकमाल बोला, “मैंने सोचा था, इस महीने में भी उसे कुछ न दूँ और पिछवाड़े से ही भाग जाऊँ। बाद में देख लेते। महीना-भर फिर क्या करते?"
"हाँ तो यह कही ना बात! खुदा की तुम पर मेहर हो।"
"लेकिन यार, वह सूअर तो कमेटी के अहाते में ही मौजूद था। ज्यों ही मैंने पगार ली, उसने पीछे से हाँक लगाई-'कमाल, अरे ओ नूरकमाल! ला मेरा हिसाब चुकता कर दे।"
"खुदा तुम्हारा भला करे!" ब्रीस्तू चमार की एक-एक बात सत्य सिद्ध हो रही थी और वह खुश हो रहा था।
"तुम्हीं कहो, क्या मैं अपनी आँखें फोड़ता जो उससे मुकर जाता? मैंने कहा, ले लो जी!"

"हाँ तो अल्लाह मेहर करे तुम पर।" ब्रीस्तू ने उसकी बात काटते हुए कहा, "खुदा रसूल की कसम, ऐसे ही मुझे भी उसने धर लिया। मैंने रुपये दस निकाले और उसकी हथेली पर थमा दिये। भई, सच पूछो तो महीना-भर उसी से माँगते रहना है। उस बेचारे ने भी कौन-सी चोरी की!"

सबने हामी भरी पर अश्मी का दिल बुरी तरह जल रहा था। उसकी चलती तो वह उस समय ब्रीस्तू का कलेजा बाहर निकाल लेती और उसको तल-भुन लेती। उसका सिर दुख रहा था। फिरन (चोगा-सा कश्मीरी पहरावा) की आस्तीन सिरहाने रखकर वह लेटी रही। यह बिलख-बिलखकर रो रही थी। उसकी आँखों से सावन की झड़ी-सी लग गई थी।

“हाँ, तो यह हुए दस।" ब्रीस्तू फिर ऊँचे-ऊँचे बोलने लगा, “सात रुपये नूर गल्लादार के पिछले महीने के देने थे।"
“अरे मुझी से क्या कहता है?" रसूल बोला-“पर भई, वह आदमी नेक है। मैंने कहा, 'हाजी साहब, इस महीने मुझे पैसों की दरकार है। उसने, दो-चार
गालियाँ सुनाई और कह दिया,-अच्छा जा, अगले महीने जरूर चुकाना।"
"पर यार, मेरे तो पीछे ही पड़ गया! न जाने क्या बात हुई। वैसे तो आदमी है भला! और फिर उसने चोरी भी क्या की! सात रुपये लिये हुए भी तो दो महीने बीत गए।"

अचानक आले पर से दीया गिर पड़ा और कमरे में अन्धकार छा गया। कुछ लोग उठ खड़े हुए और कुछ नीचे बैठ गए। सब लोग अश्मी से पूछने लगे,
“अरे, दियासलाई की डिबिया कहाँ है?"
वह बोली न चाली, बस रोती रही। आखिर खोरशी उठी और उसने काँगड़ी (सिगड़ी) पर दो-चार कोयले फूंककर दीया जला दिया।
“अरे गुल बदमाश कहाँ गया?" अनायास नबिर शेख के बेटे रसूल के मुख से ये शब्द निकल गए; परन्तु इस पर किसी का ध्यान नहीं गया।
ब्रीस्तू फिर अपनी बात कहने लगा, “ये हो गए सत्रह! ना-ना उन्नीस, दो जमादार के, दस गफार बानी के और सात किसके...?"
"नूर गल्लादार के रसूल ने याद दिलाई।
"सदके जाऊँ खुदा के।' ब्रीस्तू बोला, "तो हो गए ना उन्नीस? अच्छा तो ये उन्नीस (रुपये) ऊपर से ही चुक गए। अब बताओ, मैंने अगर खाया तो क्या? बस, इसकी लड़की के लिए मैं एक जोड़ा फिरन नहीं ला सका।"

“जब हमारी बारी आई तभी तुझे टोटा पड़ गया?" लेटे-ही-लेटे अश्मी बोल उठी, "तुझे तो जुआ खेलने को पैसा चाहिए। जा, साबिर टुण्डा आया होगा...!"
“अरे भई बताओ, लोगों का नाम लेने से इसे क्या वास्ता?" ब्रीस्तू कुद्ध होकर कहने लगा, “इससे कह दो, जबान को लगाम लगाए। मैं सबेरे ही इसका फैसला कर लूंगा।"
“अरे, बाकी छह रुपये कहाँ गए? नूरकमाल पूछ बैठा। इतने में बाहर से सुलतान डूम हुक्का गुड़गुड़ाते हुए आया।
"खुदा तुम्हारी उमर बढ़ाए!" नूरकमाल के मुख से स्वतः यह आशीर्वचन निकला।

सुल्तान डूम ने हुक्का ब्रीस्तू के सामने रखा और कहने लगा, “अरे, ले तम्बाकू पी ले। आज मैं यह (तम्बाकू) अमीराकदल से लाया हूँ, उसी जबार तमाकूवाले से यार! बाखुदा, उसके तम्बाकू का कहीं जोड़ नहीं!"

ब्रीस्तू ने हुक्का थामकर एक कश लगा लिया और बोलता गया, "रह गए पाँच। तीन इसी ने थोड़ी देर पहले खोरशी को दे दिये। उससे उधार लिये थे।
"हाँ-हाँ!" खोरशी वहीं पास बैठी थी। उसने हामी भरी, "सच है। मैं कैसे 'ना' करूं, आखिर मरना है। थोड़ी देर पहले ही मुझे तीन रुपये दे आई।"
“समझा भई!" ब्रीस्तू खोरशी के हामी भरने से प्रसन्न हुआ और कहने लगा, “बाकी बचे ये दो रुपये। उनमें से एक रुपये के पाये लाया था।" यह कहते ही उसने चूल्हे की ओर देखा और उसके मुंह से हठात् चीख निकल गई, "अरे, हँडिया कहाँ गई?"

अश्मी चीख सुनकर झट उठ खड़ी हुई। लगी चूल्हे के आगे-पीछे ढूँढने। आले देखे, देहरी देखी। घर का कोना-कोना छान मारा, जैसे कोई सुई खो गई थी। सब मुहल्लेवाले लज्जित हुए। कई तो इसलिए हक्के-बक्के-से रह गए कि कहीं उन पर ही सन्देह न किया जाए!

ब्रीस्तू चमार इसी सोच में डूब गया कि कौन अदृष्ट व्यक्ति चूल्हे पर से हँडिया उठाकर ले गया? वह सब तकरार भूल गया और अश्मी से पूछने लगा, “अरी! चूल्हे पर ही तो थी ना?"

अश्मी ढूँढ-खोजकर थक-हार गई थी, “देखी नहीं? वहीं तो थी! अरे वह कौन खड़े-खड़े ही झड़ गया, जो शोरबे की भरी हँडिया ले भागा? हाय, उसका सत्यानाश हो जाय!"
नूरकमाल भी सोच में पड़ गया कि यह चोरी किसने की? भला ऐसी कुचेष्टा कौन करेगा? तभी वह चीख पड़ा, “अरे, कहीं यह गुल बदमाश की कारिस्तानी तो नहीं?"
नबिर शेख का रसूल बोला, "मेरा तो तभी माथा ठनका था।"

उनका इतना ही कहना था कि सब गुल बदमाश के घर दौड़े और बाहर हो-हल्ला मचाने लगे। गुल बदमाश की माँ खिड़की से झाँकते हुए कसम पर कसम खाने लगी कि हँडिया गुल ने नहीं चुराई। परन्तु अश्मी भला कैसे विश्वास करती! उसने भरे चौक में अपशब्दों का तुमार बाँध दिया, “अरी जो तू हमारी पायों-भरी हँडिया खाये तो समझना, अपने अकेले पुत्र को ही खाया!"

गुल बदमाश भीतर चुप साधे बैठा रहा और ब्रीस्तू चमार बाहर से चीखते, अनाप-सनाप गालियाँ देते फेन उगलने लगा। उसको रह-रहकर शोरबे की तरी और मज्जा का स्वाद याद आ रहा था। अन्त में जब वह थक-हार गया तो उसने अश्मी की बाँह थाम ली और उसे अपने घर की ओर ले जाने लगा-"चल चलें! खाने दें इन्हीं को। हम पर तो उसकी फिर मेहर होगी; पर इनका ही दीन-ईमान नहीं रहा।"

देर बाद जब सब लोग अपने-अपने घरों में सोए पड़े थे, ब्रीस्तू चमार अश्मी के सिर पर गरम-गरम हल्दी का सेक दे रहा था और कह रहा था, "अरी! मैं कोई झूठ कह रहा था? घर में दाँताकिलकिल नहीं होनी चाहिए। इससे दुर्गत हो जाती है।"

अश्मी बोली, “अरे, वह गुल बदमाश कैसे शोरबे की हंडिया चट कर गया! मेरा बस चले तो बलि के बकरे के स्थान पर मैं इसी को तुम पर कुरबान करती !"

(अनुवाद : शम्भुनाथ भट्ट 'हलीम')

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