दही वाली मंगम्मा (कन्नड़ कहानी) : मास्ति वेंकटेश अय्यंगार 'श्रीनिवास'

Dahi Wali Mangamma (Kannada Story) : Masti Venkatesha Iyengar Srinivasa

मंगम्मा बहुत साल से हमें बारी से दही दिया करती थी। यह बारी बंगलोर के ढंग की है। दूसरे शहरों में, रोज आकर दही देना और महीने के बाद पैसे लेने को बारी कहते हैं। पर लगता है कि बंगलोर में एसी बारी का रिवाज नहीं। आमतौर पर जब भी मंगम्मा हमारे मोहल्ले में आती, तब वह हमारे घर आकर, "दही लोगी माँ जी, बहुत बढ़िया है" कहती। हमें आवश्यकता होती तो हम ले लेते और उस दिन के भाव के अनुसार उसके पैसे दे देते या अगले दिन चुका देते। यह हमारी उसकी बारी की रीति है। वह अवलूर के पास के किसी गांव की है। उसके गाँव का नाम शायद वेंकटपुर या कुछ ऐसा ही है। आते समय हमारे मोहल्ले से होकर ही आना पड़ता है और जाती बार भी हमारी तरफ़ से ही जाना होता है। मैं जरा उससे अच्छी तरह बात करती हूँ। इसलिए कभी-कभी गांव से आते समय और सारा दही खत्म करके जाते समय दोनों बार मेरे पास आ जाया करती। आकर आंगन में थोड़ी देर बैठती, सबसे बातें करती। पान-सुपारी खाती।न रहने पर कभी-कभी हमसे पान-सुपारी मांगकर खाकर गांव जाती। ऐसे मौकों पर यदि मेरे पास समय होता तो वह अपना दुःख-सुख भी बताया करती। मुझसे भी सुख-दुःख पूछती । मुझे भला कौन-सा कष्ट था? भगवान की कृपा से सब कुछ ठीक-ठाक ही था। मैं भला क्या सुनाती? यही कि बिल्ली ने दूध पी लिया, चूहे ने कुम्हड़े में छेद कर दिया। तब वह "दुनिया ही ऐसी है" कहकर अपने अनुभव की बातें सुनाती। बाद में यह भी कहती कि इस दुनिया में किस ढंग से चलना चाहिए। मंगम्मा मुझे बहुत अच्छी लगती। मुझमें और उसमें बहुत घनिष्ठता हो गयी।

हाल ही में कोई एक महीने पहले की बात है । मंगम्मा ने सबेरे-सबेरे आवाज लगाई, "दही लोगी मांजी।" मैं भीतर कुछ कर रही थी। मेरा बेटा बोला, "हाँ लेंगी" और पास जाकर “दही दो" कहकर उसने हाथ फैलाया । मंगम्मा ने मटकी से थोड़ा अच्छा गाढ़ा-गाढ़ा दही निकालकर उसकी हथेली पर डाल दिया और बोली, "जरा जाकर माँ जी को जल्दी से भेज दो, मुझे जाना है।" इतने में मैं आ गयी। मंगम्मा बोली, “माँ जी, सोने जैसा बेटा पैदा किया है। जैसे गुण तुम्हारे हैं वैसे ही उसे मिले हैं। पर इन सबसे क्या? ये लड़के के बड़े होने तक की बात है। बड़े हो जाने पर पता नहीं कैसी आयेगी। अब जो बच्चा अम्मा-अम्मा करता पीछे-पीछे घूमता है उसे ही यह पता नहीं होगा कि अम्मा जिन्दा है या मर गयी ?" मैंने पूछा, "क्यों मंगम्मा, क्या हो गया? बेटे ने तेरी बात नहीं मानी?" वह फिर से बोली, "छोडिए मांजी, भाँवरें लेकर आया पति ही जब बात नहीं पूछता था तो बेटा क्या सुनेगा ?" इस पर मैंने पूछा, "तेरे घरवाले ने तेरी बात मानी क्या ?" वह कहने लगी, "अरे, माँ जी, मेरे भाग्य में एक अच्छी धोती नहीं थी। किसी और ने पहन ली। वह साड़ी के चक्कर में उसी के पीछे लग गया। जो भी हो वह समझता रहा, मेरा घर है, मेरी घरवाली है। इसलिए मैं भी चुप रही कि घरवाला तो है। सच कहती हूँ, अमृत बेचती रही, पति खा गयी। पता नहीं मेरे नसीब में क्या-क्या लिखा है ? पर तुम्हें एक बात कहती हूँ, ध्यान रखिएगा। घरवाला जब घर आये तो अच्छी तरह कपड़े-लत्ते पहनकर घूमा करो। मर्दों का मन बड़ा चंचल होता है। उनकी पसन्द की साड़ी-ब्लाऊज पहननी चाहिए। फूल, इत्र आदि लगाकर उनके मन को बस में करना चाहिए। तुमने जो साड़ी अब पहन रखी है, काम-धन्धे के लिए तो यह ठीक है । जब घर में अकेली रहती हो, तो तब के लिए तो यह ठीक है । शाम के समय एक बढ़िया साड़ी पहनकर रहना चाहिए।" मुझे जरा हंसी आयी। लेकिन ऐसा लगा कि अनुभव से कितनी बड़ी बात कह रही है। साथ ही यह दुःख हुआ कि उस अनुभव के पीछे दुःख छिपा है। मैं बोली, "हाँ मंगम्मा, तुम्हारी बात सोलह आने सच है।" बाद में मंगम्मा बोली, "देखो माँ जी, आदमी को ढंग से बस में रखने के तीन-चार गुर हैं। कुछ लोग कहते हैं कि टोना-टोटका करो या जड़ी-बूटी खिला दो। अरे कहावत है, दवा करने से तो मशान ही पहुंचता है। ऐसे लोगों की बातें नहीं सुननी चाहिए। जब-तब कोई न कोई स्वाद की चीज बनाकर दो। आँखों को तृप्त करने के लिए अच्छी तरह से कपड़े-लत्ते पहन-ओढ़कर दुःखी रहने पर भी हंसकर बात करो। घर के लिए जो चाहिए एक बार खूब मंगवा लो पर बार-बार मांगो मत । पैसा-पैसा जोड़कर जरूरत पड़ने पर एक-दो रुपये उन्हें थमा देने चाहिए। ये हैं सबसे बड़े टोने-टोटके। घरवाली ऐसा करे तो घरवाला घर में कुत्ते की तरह रहता है। अगर ऐसा न करे तो गलियों में भटकता है ।" मुझे मंगम्मा की बात के चमत्कार से आश्चर्य हुआ। इधर-उधर की बातें करके मैंने उसे भेज दिया।

कोई पन्द्रह दिन पहले जब मंगम्मा घर आयी तो लगा कि वह बहुत दुःखी है। मैंने पूछा, "क्यों मंगम्मा, ऐसी क्यों हो?" वह बोली, "क्या बताऊँ माँ जी, ऐसा लगता है मेरी किसी को भी जरूरत नहीं।" यह कहकर उसने अपने पल्ले से आंसू पोंछे । मैने पूछा, "क्या हुआ है? बेटे ने कुछ कह दिया क्या?" उसने कहा, "हाँ माँ जी, कुछ ऐसा ही हो गया। बहू ने किसी बात पर पोते की खूब पिटाई कर दी। तो मैंने कहा, 'क्यों री राक्षसी, इस छोटे से बच्चे को काहे को पीट रही है ? तो वह मेरे ही ऊपर चढ़ बैठी। खूब सुनाई उसने । तब मैंने भी उससे कह दिया, 'मैं तेरे घरवाले की माँ हैं। तू मुझसे इत्ती जबान लड़ा रही है! आने तो दे उसे।' यह महाराजा घर आया। उससे मैं बोली, 'देख भैया, इसने बेमतलब में अनजान बच्चे को इत्ती जोर से पीटा, मैंने मना किया तो मुझे ही चार सुनाती है। तू जरा अपनी घरवाली को अकल सिखा।' इस पर वह बोली, 'मुझे क्या सिखायेंगे ! लड़का अगर कुछ ऊधम करता है तो उसे मना करने का हक मुझे नहीं ? तुमने जैसे इन्हें पैदा किया वैसे ही मैंने उसे पैदा नहीं किया? मुझे अक्ल सिखाने चली हैं।' जो भी हो माँजी, वह उसकी घरवाली है, मैं माँ हूँ। उसे कुछ कहा तो पलटकर जवाब देती है। मुझे कहें तो मैं क्या कर सकती हूँ। इस पर वह बोला, 'हां मां, वह अपने बेटे को मारती है तो तुम क्यों उसके झंझट में पड़ती हो? तुम मुझे दण्ड दो।' तब मैंने कहा, 'क्यों रे, मुझी से सलती हुई, कहता है।' तब वह बोला, 'गलत हुआ या ठीक । कोई अपने बच्चे को मारे तो उसे मना किया जा सकता है क्या?' मुझे बहुत गुस्सा आया माँ जी। बात मेरे मुंह से निकल ही गयी, क्या कहता है रे, बीवी ने तुझ पर जादू फेर रखा है? वह चाहे बच्चे को पीटे तो भी ठीक है और मुझे गाली दे तो भी ठीक है, बहुत अच्छे । कल वह कह दे, मां को निकाल दे तो तु निकाल बाहर ही करेगा?' इस पर वह बोला, 'और क्या किया जा सकता है मां, अगर तुम यह कहो कि घरवाली रहेगी तो मैं नहीं रहती और मैं रहूंगी तो घरवाली नहीं रह सकती तो उस बेचारी को सहारा कौन देगा?' मैंने पूछा, तो मुझ बेसहारा का क्या बनेगा?' तो उसने कह ही दिया, 'तुम्हारा क्या है माँ, तुम्हारे पास गाय है, बैल है, पैसा है, तुम्हें मैं क्या पाल सकता हूँ?' मैंने पूछा, 'तो तुम्हारा कहना है कि मैं अलग हो जाऊँ?' इस पर उसने साफ कह दिया, 'तुम्हारी मर्जी। अगर तुम अलग होना चाहती हो तो रोकूँगा नहीं। मैं तुम्हारे झगड़ों से तंग आ गया हूँ।' तब मैं बोली, 'अच्छी बात है बेटा, आज दोपहर से मैं अलग हो जाती हूँ। तुम और तुम्हारी घरवाली सुख से रहो।' कहकर दही लेकर चली आयी माँ जी।" यह कहकर मंगम्मा रो पड़ी। मैंने तसल्ली दी, "अरे ! यह सब कौन-सी बड़ी बात है। लौटकर घर जाओ और सदा की तरह ही रहो। सब अपने आप ठीक हो जाएगा। जाने भी दो मंगम्मा।" कहकर दही लेकर उसे पैसे दिये।

अगले दिन जब मंगम्मा आयी तो पिछले दिन जैसी दुखी नहीं दीख रही थी। लेकिन मन पहले की तरह हल्का नहीं था। मैंने पूछा, "झगड़ा निवट गया कि नहीं मंगम्मा ?" इस पर उसने जवाब दिया, "वह निबटने देगी क्या? कल दही बेचकर गयी तो मेरे बरतन-भांडे अलग रख दिये थे। एक कुठले में रागी और एक में चावल, थोड़ा-सा नमक-मिर्च सब एक तरफ़ रखकर आप खाकर और अपने पति को खिलाकर पांव पसारे बैठी थी। आप बताओ माँ जी, झगड़ा कैसे निवटेगा? मैंने थोड़ा हिट्टु बनाकर खाया। मेरे मुंह से बातों का निकलना ही उनके लिए बहुत था। शादी के बाद बेटा कभी अपना रहता है माँ जी? ठीक है, जब उन्हें चाहिए नहीं मैं ही क्यों जबर्दस्ती करूं? अलग ही रहने लगी माँ जी । रोज उसी बच्चे को थोड़ा-सा दही देकर बाद में बेचने आया करती थी। आज ठीक उसी समय वह उस बच्चे को लेकर कहीं चली गयी थी। मैं जानती हूँ कि उसकी यह चाल है कि मैं उस बच्चे से बात कर न पाऊँ।" इतनी छोटी-सी बात की कैसी रामायण बनती जा रही है, मुझे आश्चर्य हुआ पर मैं इसमें कुछ कर नहीं सकती थी। इधर-उधर की कुछ बातें करके मैंने मंगम्मा को विदा किया।

बाद में दो-एक दिन मैंने वह बात उठाई ही नहीं। ऐसा लगा कि वह अलग ही रहने लगी है। एक दिन उसी ने पूछा, "माँ जी, आप जो मखमल पहनती हैं न वह कैसे गज मिलती है ?" मैंने पूछा, "क्यों मंगम्मा?" तब वह बोली, "इतने दिन तो बेटे और पोते के लिए पैसा-पैसा जोड़ती रही। अब भला क्यों जोड़ूँ? मैं भी एक मखमल की जाकिट पहनूंगी?" मैंने कहा, "एक जाकिट के सात-आठ रुपये लगते हैं, मंगम्मा।" उस दिन मंगम्गा ने जाकर दर्जी से वह कपड़ा लिया और वहीं सिलने दे दिया । दूसरे दिन वही पहनकर आयी। मुझसे कहने लगी, "देखो माँ जी, मेरा सिंगार । घरवाले के रहते एक अच्छी साड़ी नसीब नहीं हुई। वह तो किसी के पीछे लगा था। मैंने बेटे के लिए सब पैसे जोड़े, अब यह लड़का ऐसा हो गया। अब कैसा है मेरा सिंगार।"

मुझे लगा कि बेटे से अलग होने के कारण दुःख से मंगम्मा को जरा मतिभ्रम हो गया है। जब ज्यादा गुस्सा आ जाता है तो हर किसी के साथ ऐसा ही हो जाता है। मैंने कुछ न कहा। पर उस जाकिट के कारण उसे किसी दूसरे से झगड़ा मोल लेना पड़े। उसके गाँव का एक लड़का बंगलोर में पढ़ रहा था। वह फिरंगियों की तरह अथवा पढ़े-लिखे हम जैसों की तरह जरा नफासत से कालर-टाई पहनता था, जरा शौकीन था। उसने एक दिन मंगम्मा को देख कर पूछा, "क्या बात है अम्मा, एकदम मखमल की जाकिट ही पहन ली है?" तब मंगम्मा ने कह दिया, "क्या रे लड़के, यों बढ़ बढ़कर बातें कर रहा है? तू तो गले में फांसी लटकाये घूमता है, मैं जाकिट नहीं पहन सकती।" दोनों में तू-तू मैं-मैं हो गयी। पास खड़े चार लोग हंस पड़े।

अगले दिन मंगम्मा ने ही यह बात मुझे सुनाई। दूसरों की बात तो दूर उस बहू ने भी मंगम्मा को सुनाते हुए कहा, "बहू को एक जाकिट सिलाकर नहीं दी। सास अलग हो गयी और अब मखमल की जाकिट पहनने लगी है।" मंगम्मा ने ब्याह में बहू को कानफूल, कड़े, झुमके, गले की जंजीर, कण्ठी, और तगड़ी यह सब दिया था। बाद में भी साल के साल कोई न कोई गहना बनवा देती थी। बहू को याद नहीं रहा । मंगम्मा उसकी बात सुनकर एक-दो बार तो चुप रही, बाद में वह अपने को रोक न पाई। एक दिन रात को जाकर बेटे से कह दिया, "तेरी घरवाली बड़ी बातें बनाती है। मेरी जाकिट पर ताने कसती है। कहती है, मैंने उसे कुछ भी नहीं दिया। क्या मैंने कुछ नहीं दिया? कड़े, कानफूल-झुमकी, पदक, क्या यह सब मेरे दिये हुए नहीं ?" बहू ने पति को बोलने का मौका ही नहीं दिया, वही बोली, “अब तो घरवाला भी नहीं, ऊपर से बुढ़िया भी हो गयी हो। अब कानफूल और तगड़ी पहनोगी? ले जाओ, पहन लो। वहीं बैठे पति ने उससे कहा, “क्यों रीतू बकवास किये जा रही है?" फिर मां से बोला, "मां, मैं तुम लोगों का झगड़ा पसन्द नहीं करता। अगर तुम्हें चाहिए तो सारे जेवर ले जाओ।" मंगम्मा बोली, "देखो मां जी, रास्ता चलने वाले भी अपनी पत्नी से यह नहीं कहते कि तुम ऐसी बात कहो । 'चाहिए तो जेबर लेकर चलो जाओ, कहकर उसने सारा दोष मुझी पर मढ़ दिया । अब यह जन्म किस लिए?" यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। वह भी बुढ़िया हो चली। थी। एक ही बेटा था। इसकी पत्नी को अपनी सास और पति की अच्छी तरह देख-भाल नहीं करनी चाहिए? यह सब झमेला क्यों ? सिर्फ इसलिए न कि बुढ़िया ने अपने पोते को पीटने को मना किया। भला यह सब क्या हो रहा है ! बात मुझे समझ में आयी। जहाँ भी देखो झगड़े का कारण ऐसा ही होता है। जब कोई एक दूसरे को पसन्द नहीं करता तब छोटी बातें भी बड़ी हो जाती है। बेकार के झगड़े उठ खड़े होते हैं। उससे सम्बन्धित सभी लोगों को बेहिसाब दुःख उठाना पड़ता है।

कुछ दिन बाद एक दिन मंगम्मा बोली, "माँ जी, आप बहुत भली हैं, मेरे पास थोड़े-से पैसे रखे हैं, उसे कहीं बैंक में रखवा दीजिए, उन पर कई लोगों की आंखें लगी हैं।" मैंने पूछा, "ऐसा क्या हो गया?" वह बोली, “माँ जी, कल ही की बात है। हमारे गांव में रंगप्पा नाम का एक आदमी है। वह कभी-कभार जुआ-बुआ खेलता है। बड़ा शौकीन तबियत का है। मैं जब दही लेकर आ रही थी तो वहीं यह टपक पड़ा और पूछने लगा, 'क्यों मंगम्मा अच्छी तो हो ?' तब मैंने कहा, 'क्या अच्छा और क्या बुरा; जो है तुम्हें पता नहीं?' तब वह बोला, 'हाँ भई, तुम्हारा कहना ठीक है । आज के जमाने में भला कौन सुखी है, आज कल के लड़कों की जबान का क्या ठिकाना? हमारे जैसी उमर के लोगों को तो बस देखते रहना ही पड़ता है। और कर भी क्या सकते हैं।' वह वैसे ही साथ चला आया। रास्ते में अमराई वाला कुआँ है । वहाँ से गुजरते समय मुझे डर-सा लगा, मैं सोचने लगी, पता नहीं यह क्या कर डाले ? अण्टी में काफ़ी पैसे थे। कहीं इसी के लिए तो पीछे-पीछे नहीं आया? वही बोला, 'जरा चना दोगी?' मैंने दे दिया, वह लेकर चला गया। आज भी आते समय वहीं आकर मिला माँ जी। इधर-उधर की बातें करता-करता बीच में बोला, 'मंगम्मा, मैं जरा तकलीफ़ में हूँ। थोड़ा-सा कर्ज दोगी इस बार रागी बेचते ही लौटा दूंगा। मैं बोली, 'अरे भैया, मेरे पास पैसे कहाँ ?' तब वह कहने लगा, 'जाने दो मंगम्मा क्या हमें पता नहीं? पैसे को यहाँ-वहाँ गाड़कर रखने से भला क्या मिलता है?' फिर थोड़ी देर बाद वही बोला, 'तुम्हारा बेटा तुम्हारे साथ रहता तो मैं तुमसे कर्ज नहीं मांगता। मैं जानता हूँ। तुम अपनी बहू के लिए कोई न कोई चीज बनवाती रहती थी। अब वह बात तो नहीं रही।' देखो माँ जी, औरत अगर अकेली हो जाती है तो लोगों की आँखें उसकी तरफ़ लग जाती हैं।"

तब मैंने मंगम्मा से कहा, "मैं अपने घरवाले से पूछकर बताऊंगी, मैंने उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की।" दूसरे दिन मंगम्मा ने दही देने के बाद अण्टी से एक थैली निकाली। और कहने लगी, “माँ जी, जरा भीतर चलो, गिन लो।" तब मैं बोली, “मैंने अभी उनसे पूछा नहीं। अभी रखे रहो फिर ले आना।" मंगम्मा कहने लगी, "मुझे बहुत डर लगता है माँ जी। आज भी रंगप्पा आया था, अमराई के पास तक । कहने लगा, 'जरा बैठो मंगम्मा, ऐसी जल्दी भी क्या हैं ?' मेरे पास ये पैसे भी थे। मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। अगर मैं नहीं रुकती और जबरन बांह पकड़कर बिठा ले तो? इस डर से बैठ गयी। वह दुनिया-जहान की बातें करता रहा । बाद में मेरा हाथ पकड़कर बोला, 'मंगम्मा, तुम कितनी अच्छी हो।' जवानी में भी घरवाले ने मेरा इस तरह हाथ नहीं पकड़ा। बाद में किसी और ने इस हाथ को नहीं पकड़ा। आज इसने आकर पकड़ा। मैंने हाथ छुड़ा लिया और 'क्या बात है रंगप्पा, आज बड़े रंग में हो । मेरा अच्छापन देखने को तुम मेरे घरवाले हो क्या ?' कहते हुए उठकर तेजी से चली आयी माँ जी । कल उसने पैसे मांगे थे, आज उसने मान माँगा । जिसने मंडुवे के तले बैठकर और बांधकर, गठबन्धन करके, हाथ थामा वह तो कभी का चला गया। भरी जवानी में घरवाले ने मुंह मोड़ लिया। कोई और होती तो यह सोचकर खुश हो जाती कि घरवाले ने तो पसन्द नहीं किया पर कोई तो पसन्द करने वाला मिला। पर मैंने अपना धर्म नहीं छोड़ा। इस बदमाश ने आ कर मेरा हाथ घरवाले से भी ज्यादा हक से पकड़ लिया था।"

मुझे लगा कि बेचारी का जीवन बेकार में ही दुखी होता जा रहा है। इसलिए मैंने कहा, “यह सब फजीहत काहे को करती हो मंगम्मा? चुपचाप जो हुआ उस पर मिट्टी डालकर बेटे के साथ रह क्यों नहीं जाती ?"
"मैं तो रह जाऊँगी माँ जी, पर वह रहने दे तब न?"
"बेटे से यह सब बता दो।"
"हाय राम, हो-हल्ला करके मेरी बहू तो मुझे जाति से ही बाहर कर देगी। मुझे देर हो रही है। माँ जी, चलती हूँ। कल अपने उनसे पूछकर रखिएगा।" कहकर मंगम्मा चली गयी।
एक घण्टे बाद फिर से आकर बोली, "माँ जी, आज एक बात हो गयी।"
"क्या ?"

"बच्चे के लिए थोड़ी-सी मिठाई लेकर टोकरे में रख ली थी।" मंगम्मा ने पहले ही बताया था कि उसके पोते को उसके पास वह आने नहीं देती इसलिए मुझे यह समझ में न आया कि बच्चा कौन-सा है? मैंने पूछा, "किस बच्चे के लिए?"
'और कौन-सा बच्चा माँ जी? मेरा पोता ही तो?'
मैं बोली, "तुम्हीं ने तो कहा था कि वे तुम्हारे पास नहीं आने देते?"

उसने कहा, "उसकी माँ तो मना करती हैं पर बच्चा क्या रुक सकता है ? आँख बचाकर आ ही जाता है। कभी-कभी जरा दूध पी जाता है, कभी दही मांग लेता है। थोड़ा-सा कुछ मिल जाने पर नाच उठता है। अगर जरा शोर मचाता है तो 'मेरी मां सुन लेगी' कहते ही चुप हो जाता है। बच्चों का खेल ही तो असली खेल है। उसी के लिए थोड़ी-सी मिठाई लेकर रखी थी। वह सुंकापुर है न उधर से आ रही थी। वहाँ एक आम का पेड़ है न, उस पर बैठा एक कौआ झट से मिठाई की पुड़िया उठा ले गया । देखिए आज कैसी अजीब बात हो गयी?" तब मैं बोली, "एक मिठाई की पुड़िया चली गयी तो क्या हो गया? फिर से खरीद लो।" मंगम्मा बोली, 'यह बात नहीं माँ जी, कहते हैं कि कौवे को आदमी को नहीं छूना चाहिए। इसीलिए कहा ।' मैंने पूछा, 'छूने से क्या जाता है ? इस पर उसने कहा, "कहते हैं । उससे जान का खतरा हो जाता है । मुझे लगा कि मेरे दिन पूरे तो नहीं हो चले। बाद में यह सोचकर खुशी भी हुई कि चलो अच्छा हुआ। यह जन्म किसी को भी नहीं चाहिए। अच्छा है जल्दी से भगवान् के चरणों में पहुँच जाऊँगी। जो भी हो, आज यह हुआ।" मैंने उसे समझाते हुए कहा, "तुम भी कैसी पागलपन की बातें कर रही हो? पहले तो ऐसे रखकर लाओ कि कौवे को मिठाई आसानी से मिल जाय और अगर वह उठा ले जाये तो कहो कि जान का खतरा । यह कौन-सी अकल की बात है । जाओ, चुपचाप घर जाओ।" तब वह पूछने लगी, "तो आपका यह कहना है कि कोई डर नहीं है?" मैंने कहा, "डर-वर कुछ भी नहीं। जितना झगड़ा होता है। उमर बढ़ती है दुबारा उस बारे में मत सोचो। हंसते हंसते घर जाओ।"

मंगम्मा चली गयी। मैं उसकी मानसिक स्थिति के बारे में सोचकर आश्चर्यचकित हुई। बेटा चाहिए, बहू चाहिए, पोता चाहिए, साथ ही वह घर की बड़ी है यह लालसा छूटी नहीं । जीवन के प्रति एक विचित्र-सी ऊब । फिर भी मरने की इच्छा नहीं। यह इच्छा नहीं, यह प्रकट करने का भी मन नहीं। हम सोचते हैं, ये गांव के लोग है, कुछ जानते नहीं, कोई लुकाव-छिपाव नहीं। तो भी ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति के पीछे भी परतों पर परतें हैं । बड़े घड़े में जैसे छोटा पड़ा समाया है। मैंने सोचा यह कैसा नाटकीय सूत्र है!

मंगम्मा जब फिर से आयी तो उसने एक समाचार दिया। अब पोता अपने मां-बाप को छोड़कर उसके पास आ गया है। वह बहुत खुश थी। उसके साहस की प्रशंसा करते हुए बोली, "बित्ते भर का छोरा है। मां को छोड़कर चले आने का मतलब क्या है? कल दोपहर को आये लड़के ने 'फिर से मां के पास नहीं जाऊँगा' कह दिया। इत्ते दिन चोरी-चोरी आया करता था। जब वह घर नहीं पहुंचा तो माँ ने आकर शोर मचाया, पीटने की धमकी दी । बच्चा 'मैं नहीं जाऊँगा' कहकर मेरी टांग पकड़कर खड़ा हो गया। और कोई चारा न देखकर मैंने कहा, 'जा बेटा, 'उसके बाप' ने भी आकर बुलाया पर 'मैं नहीं जाऊँगा' कहकर मेरे पास ही रह गया माँ जी । दस दिन से अकेले घर में सोती थी। जरा डर भी लगता था। जो भी हो मर्द बच्चा है। भगवान ने देखो उसको कैसी अकल दी। जवान बेटे ने मुंह मोड़ लिया और यह बित्ते भर का पोता मैं तो हूँ। तुम चिन्ता मत करो' कहकर आ ही गया । बहू ने तो सारी रात महाभारत मचाया। लाख जोर लगाने पर भी वह गया नहीं। सुबह यहाँ आते समय 'तू अकेला कैसे रहेगा?' कहकर उसे उसकी मां के दरवाजे पर ले जाकर खड़ा किया, तब वह भीतर गया और मैं यहाँ आयी।' अब मैंने पूछा, "अब अगर वह बच्चे को पीटे तो तुम क्या करोगी? वह बोली, “अरे माँ जी, क्या उसे इस बात की खुशी नहीं होगी कि बेटा एक बार तो घर आता है ? पास रहे तो मारने को मन करता है । देखो माँ जी, जब हम इकट्ठे थे तब मुझे कभी यह लगा नहीं कि मेरी बहू कितनी सुन्दर है, अब दूर से देखती हूँ। यह तो ठीक है कि उसकी भौहें चढ़ी ही रहती है फिर भी वैसे बड़ी सुन्दर दीखती है । इसलिए तो मेरा बेटा उस पर लटू है। वह भी ऐसा ही है। तब यह पता नहीं चलता था कि कब घर आता था और कब खेत पर जाता था। अब मैं घर के दरवाजे पर बैठी यह देखती रहती हूँ। इतनी जल्दी क्यों चला गया? इतनी देर तक क्यों नहीं आया? माँ जी, उसे भी तो ऐसा लगता होगा न ? यदि वह पीटेगी तो दही बेचने को निकलूंगी तो मेरे साथ ही चला आयेगा । नौ महीने पेट में रखकर पीर सहकर पैदा किये बच्चे को छोड़ देगी क्या ?" मुझे यह सोचकर आश्चर्य हुआ कि वह कितनी दूर तक सोचती है। तब मुझे लगा कि कुछ ही दिनों में उनका झगड़ा निबट जाएगा और सभी सुखी रहेंगे।

हुआ भी ऐसा ही। दो दिन बाद लड़का मां के पास गया पर उसके दूसरे दिन ही "दादी के साथ मैं भी बंगलोर जाऊँगा" कहकर जिद पकड़ ली। बेचारी बुढ़िया के लिए सिर पर दही की मटकी वाला टोकरा और गोद में पोते को ले कर तीन मील चलकर आना असम्भव था। उसकी समझ में न आया किया करे? बेटे और बहू ने भी आकर समझाया, 'उस दिन हमसे गलती हो गयी। तुम भी गुस्सा करके अगर रहोगी तो कैसे चलेगा मां ।' गांव के चार बड़े-बड़ों ने भी उसे समझाया, वह भला क्यों अपना बड़प्पन खोती? मंगम्मा अपनी इच्छा से ही फिर से खुशी-खुशी अपनी बहू के साथ रहने लगी। परन्तु पोता तो दादी के पास ही रहने की जिद पकड़े बैठा था। इसलिए एक नया प्रबन्ध था। शुरू से ही दूध व दही का व्यापार मंगम्मा के हाथ में था । बहू के आने पर भी मंगम्मा ने उसे अपने हाथ में ही रखा । जब कोई बहू बनकर आती है तो घर के खाने पकाने की जिम्मेदारी भी उस पर पड़ती है । वास्तव में बात यह थी कि दही बेचने पर चार पैसे हाथ आते थे। अब पोते ने सदा दादी के पास रहने की हठ पकड़ी थी। बहू बोली, "इतनी धूप में इस उमर में तुम क्यों बाहर फुंकती हो । भला कितने दिन यह काम कर सकोगी? घर में ही खाना-पीना बनाकर मालकिन की तरह रहो । दही बेचने का काम मैं देख लेती हूँ।" मंगम्मा ने कह दिया, "ठीक है। साथ ही यह भी कहा, "कभी-कभार मैं चली जाऊँगी। पर रोज जाने का काम तुम्हीं करो।" एक दिन सास-बहू दोनों आयीं । एक की गोद में बच्चा था और दूसरी के सिर पर मटकी वाला टोकरा । 'यही है, माँ जी मेरी बहू । बुढ़िया क्यों बेचारी अकेली रहे सोचकर इसने फिर से मुझे अपने साथ बुला लिया। साथ ही यह भी कहा, 'तुम बेकार में धूप में मत घूमो।' मैंने भी मान लिया है। आगे से यही दही बेचने आयेगी।" यह बताकर मंगम्मा ने बहू को हमें दिखा दिया। मैंने सास और बहू से बात करके और 'संयम से काम लेना चाहिए' कहकर दो बातें अकल की समझाकर दोनों को पान-सुपारी देकर भेज दिया। आजकल वह बहू ही दही लाया करती है।

मैंने सोचा सास के बारे में तो इतना सब सुना, अब बहू क्या कहती है यह जानने की उत्सुकता मुझे हुई। इसलिए एक दिन मैंने कहा, "अरी, नंजम्मा, तू तो बड़ी समझदार है । पर क्या सास को निकाल देना ठीक था?" उसने जवाब दिया, “सास को निकाल देने को मैं क्या कोई राक्षसी हुँ। माँजी? सास हो जाने का मतलब सब बात उसकी रहनी चाहिए क्या? जो अपने बेटे को मर्द भी न माने तो वह नामर्द नहीं हो जाएगा? वह मेरा घरवाला है, मैं उसकी पत्नी हूँ। भला मैं घर कैसे चलाऊँ? यह ठीक है उसने जन्म दिया, पाला पोसा, चाहे तो वह अपने बेटे पर अपना हक़ रखे। मैं चुप रही पर क्या मैं अपने बेटे को भी मार नहीं सकती? तो मैं कहाँ की बहू रही?" मैंने पूछा, "बेटा तुम्हारा है यह जताने को पीटना ही एक पहचान है क्या?" वह बोली, "मारना, प्यार करना तो चलता है पर यदि मारने पर इसे क्यों मारती है यह पूछती है तब प्यार करने पर क्यों प्यार करती हैं' भी पूछ सकती है न ? इसलिए इन सब से कौन माथा-पच्ची करे। मेरा बेटा, मेरा है । मेरा पति मेरा होना चाहिए। बहू होकर मैं अगर एक बात न कह सकूँ, एक थप्पड़ न लगा सकूँ तो मेरा घर चलाना किस काम का?" मुझे मंगम्मा ने जब अपनी बात सुनाई थी तब लगा था कि उसकी बात सही थी। अब इसने अपनी बात कही तो लगा इसकी बात भी सही है। इस पर मैंने पूछा, "तो अब तुम्हें घर में कुछ छूट मिली?" "अब पहले से जरा ठीक है। जो भी हो जरा बहुत सम्भलकर चलना ही पड़ता है। अगर झगड़ा करूं तो मेरी सास पता नहीं किसे सारे पैसे दे डाले? हमारे गांव में रंगप्पा नाम का एक आदमी है । जब मेरी सास अलग थी तब उसने मेरी सास से कर्ज मांगा। यह देने को तैयार हो गयी थी। यह रंगप्पा से ही पता चला था। तब मैंने बच्चे को सिखाया, तू अपनी दादी के पास चला जा, वह मिठाई देती है। हमारे घर कदम मत रखना झगड़ा किसी तरह निपटाने को मैंने यह सब किया माँ जी।" मैंने पूछा, "तो पोता दादी के पास अपने आप नहीं गया?" वह बोली, "बच्चा भी गया मैंने भी भेज दिया, माँ जी। यह सब बताने की बातें थोड़े ही हैं। आदमी लोग यह सब समझते हैं।"

मुझे ऐसा लगा नंजम्मा भी अकल में मंगम्मा से कुछ कम नहीं। उस घर में अब सास और बहू में स्वतंत्रता की होड़ लगी है। उसमें मां-बेटे और पतिपत्नी हैं। मां बेटे पर से अपना हक छोड़ना नहीं चाहती और बहु पति पर अधिकार जमाना चाहती है। यह सारे संसार का ही किस्सा है। इसकी हार-जीत क्या होगी यह कहा नहीं जा सकता । पानी में खड़े बच्चे का पाँव खींचने वाले मगर मच्छ की-सी दशा बहू की है। ऊपर से बांह पकड़कर बचाने की चेष्टा करने वाले की दशा मां की है। बीच में बच्चे को ही कष्ट होता है । गांव में यह बात दही बेचने वाली मंगम्मा के घर में भी है और शहर में दही खरीदने वाली तगम्मा के भी। यह नाटक चलता ही रहता है । इस नाटक का कहीं कोई अन्त नहीं है।

(प्रकाशन वर्ष : 1936)