दधि, अक्षत और दूर्वा (कहानी) : डॉ पद्मा शर्मा

Dadhi Akshat Aur Durva (Hindi Story) : Dr. Padma Sharma

सविता ने दधि में शालिग्राम को नहलाया फिर दूर्वादल से पानी डाला और उन्हें कपड़े से पोंछकर वस्त्र पहनाये । टीका लगाकर अक्षत चढ़ाये। उन्हें प्रसाद लगाया ।... अपनी पूजा समाप्त कर वे कमरे से बाहर निकल ही रहे थे कि उन्हें राधिका का आक्रेाशित स्वर कानों में पड़ा, ‘‘देखो माँ ! आज बड़े भाई साहब फिर से सब्जी ले जा रहे हैं... , इन्हें रोकती क्यों नहीं ? ’’

वह कलेजा थामे पति के पास आ खड़ी हुई। रामरतन ने बिटिया को प्यार से समझाते हुए कहा , ‘‘ ले जाने दे बेटी तेरा भाई ही तो है। ’’

राधिका मुँह बिचकाती हुयी बोली , ‘‘हाँ भाई है तो क्या हुआ ? अभी बड़के भाईसाहब ले जा रहे हैं फिर छुटके भाई साहब ले जायेगें । तुम यों ही कमा -कमाकर कंगाल होते रहना ।’’ फिर थोड़ा रुककर तनिक क्रोध में बोली , ‘‘राशनपानी यहीं से लेना था, तो अलग ही क्यों हुए थे ? इनके यहाँ कभी लेने जाओ तो प्याज की गाँठ भी नहीं मिलती।’’

रामरतन ने सविता की ओर देखा । सविता ने अपनी नजरें धरती में गढ़ा दीं। आए दिन की चखचख ... वह बाप - बेटी के बीच में पड़ना नहीं चाहती थी । रामरतन ने हँसते हुए कहा , ‘‘ अरे बेटी हिसाब लिखती जा वो तेरी शादी में पाई-पाई ब्याज सहित लगा देगा । ’’

अपनी तरफदारी न देख राधिका सविता की ओर मुड़ गयी , ‘‘ माँ भी कम नहीं , नौत आयी होंगी बड़के भाई साहब को , कि बेटा आज लौंकी के कोफ्ते बने हैं तुझे पसन्द हैं ले लियो ।’’

सविता उत्तर दिए बिना कमरे से बाहर निकल गयी । सविता को निःशब्द ताकते रामरतन राधिका को समझाते हुए बोले , ‘‘ राधिका हरेक माँ के लिये पहली संतान बहुत प्यारी होती है तू अपनी माँ से कुछ मत कहाकर , तू नही समझ सकती माँ की ... । ’’

मगर वह बीच में ही खीझते हुए बोली, ‘‘ और सबसे छोटी सन्तान प्यारी नहीं होती ...? ‘‘
‘‘...नहीं ऐसी बात नहीं है’’ रामरतन हकला गये ‘‘ छोटी तो प्राणों से भी प्यारी...! वैसे तो माँ को सब बच्चे प्यारे होते हैं। जैसे हम अपने शरीर के सभी अंगों को प्यार करते हैं । एक हिस्से में भी तकलीफ होती है तो बेचैन हो जाते हैं।’’ फिर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले , ‘‘ तू अब बड़ी हो गयी है तू कब समझेगी ? कल को तेरा ब्याह होगा । ऐसे ही लड़ती - झगड़ती रही तो लड़ने की आदत पड़ जायेगी । ’’

राधिका समझ गयी कि पिताजी लीपा - पोती करने में लगे हैं । वह पैर पटकती , बड़बड़ाती हुयी कमरे से बाहर चली गयी , ‘‘ मेरा क्या है....? भुगतना आप सब ! पूरे घर को खिलाते रहो और महीने के आखिरी में हाथ मलते रहना... ।’’

दिल में हूक उठ रही थी सविता के... राधिका अपनी जगह सही थी। वह कुछ गलत भी तो नहीं कहती! लल्किन एक माँ का स्नेह अपने बेटे से कैसे मुख मोड़े...? बड़कू तो उसे प्राण से भी प्यारा ! सबसे पहले उसने ही तो ‘माँ’ होने का अहसास कराया...! वे सुआपंखी दिन लहरा उठे अँखियों में, जब वह गर्भ में आया ।...
सविता चली गई अपने गर्भ गृह में।...

और अचानक गाज गिरी... अखबार में छपी खबर कि अज्ञात भारी वाहन ने मोटर साइकिल सवार को कुचला ! घर में खलबली मच गई। खबर के साथ ही वह ससुराल वालों के लिए मनहूस हो गई थी । ... उन लोगों को उसकी संतान से और उससे कोई मतलब नही रह गया था । ...तब भाइे को एक नई चिंता ने दबोच लिया कि कैसे उसका जल्द से जल्द पुनर्विवाह कर दिया जाये ताकि... सविता दो माह के गर्भ से थी। रामरतन सविता के बड़े भाई के खास दोस्तों में से थे । उन्हे जब यह बात मालूम हुई तो वे सहृदयता पूर्वक इस शादी के लिये राजी हो गये । बस थोड़ी सी हिचक थी कि उनकी माँ को गर्भ वाली बात नहीं बताई जाये। वे नहीं चाहते थे कि आने वाला कल पहली और बाद की संतानों के बीच...

बड़का इस पुनर्विवाह के सात माह बाद पैदा हुआ । सासुमाँ ने अचरज से कहा कि यहतो समय से पहले ही पैदा हो गया । सो पूरे मुहल्ले में वह ‘‘सतमासा जन्मा ’’ ही जाना जाने लगा था । लेकिन सास तो सास ! उनके मन मे घर कर गयी शंका । दो ढाई महीने तक उन्होनें नाती को ढंग से खिलाया नहीं । उनकी निगाहें हमेशा यही निर्णय करने में लगी रहतीं कि यह उनके ही कुल का दीपक है या नहीं ? वे तो छठी भी पूजने को तैयार नही थी । वो तो बेटे की जिद ने उन्हें नबा दिया। फिर तो धूमधाम से दष्टौन भी मना और जोर शोर से कुआ भी पूजा गया। लेकिन उनकी खोज जारी रही... बड़के की मालिस करते समय वो हमेशा उसके नाक - नक्श की तुलना रामरतन से करतीं । उसकी हरकतों को रामरतन के बालरूप से मेल बिठाती रहतीं। पर शंका थी कि समाप्त ही नहीं होती थी। पर शनैः-शनैः बड़के की अठखेलियाँ दादी माँ का मन जीतने में सफल हो गयीं । अब वे एक पल भी उसके बिना नहीं रह पातीं । अब वे उसे अपने संग सुलातीं , मंदिर ले जातीं , यहाँ तक कि सविता मायके जाती तब भी वे उसे अपने ही पास रख लेतीं... । सविता का दिल अजीब से सुकून से भर उठता। उस पहले परिणय और प्रणय को वह लगभग भूल ही गई।...

बाद में उनकी भी दो औलादें छुटकू और राधिका हुए। सासुमाँ का भी देहान्त हो गया। सबको यही पता था कि उनकी तीन संताने है। बड़के वाली बात सविता और रामरतन ने अपने हृदय में दफन कर ली थी।

रामरतन के आँगन में दूर्वादल फैले हुए थे। आस पड़ोस के लोग पूजा के लिए दूब माँग कर ले जाते । रामरतन सोचते थे कि जिस प्रकार पूजन सामग्री में दधि , अक्षत और दूर्वा आवश्यक है वैसे ही मेरे इस परिवार में ये तीनों बच्चे भी जरूरी हैं । तीनों में से एक भी एक दो दिन के लिए कहीं चला जाता तो रामरतन बेचैन हो जाते थे। वे तीनों बच्चों में बड़के को अधिक प्यार करते । वे हमेशा सचेत रहते कि इसके प्रति उनसे कहीं अन्याय न हो जाये ।

छोटी सी तनख्वाह में घर चलाते हुए उनके बच्चे बड़े हो गये । ‘ बड़का ’ ग्रामीण बैंक में नौकरी करने लगा था। उसके लिए खूब रिश्ते आ रहे थे । एक सुन्दर पढ़ी , लिखी लड़की से उसकी सगाई कर दी गयी। घर में पहली शादी थी सो शादी भी धूमधाम से हुयी । बड़का जब सेहरा बाँधकर आया तो सविता ने पल भर को अपने पहले पति को याद कर लिया ।

रामरतन पर शादी का कर्ज चढ़ गया था और घर में एक सदस्य बढ़ जाने से खर्चा भी बढ़ गया । महीने के आखिर में जेबें खाली हो जातीं । बड़का नौकरी करता था लेकिन सारा वेतन अपनी अंटी में दबा जाता। सविता ने दबी जुबान उससे एक दो बार कहा , ‘‘ तेरे पिताजी का हाथ तंग पड़ता है, भाई -बहन की पढ़ाई भी है । तू पिताजी को महीने के खर्च के लिए रुपये दे दिया कर ।’’
मगर उसने कोई ध्याननहीं दिया ,जैसे कुछ सुना ही न हो ।

घर खर्च में तो रूपये नहीं दिये, अलबत्ता ... हर माह वह घर के लिए सजावटी सामान खरीदकर लाने लगा। पहले रेडियो ले आया , फिर पंखा ले आया , कुछ दिनों बाद टेपरिकार्ड भी ले आया । कुछ सामान जो ज्यादा कीमती था, वह किश्तों में खरीद लिया। धीरे - धीरे मिक्सी ,अलमारी ,सोफा, व टी.वी. भी खरीद लिये ।

घर में सभी लोग खुश थे। घर सजने से घर का स्टैण्डर्ड भी बढ़ गया । रामरतन बेहद खुश थे, मगर सविता को यह सब अजीब लग रहा था ... कि कर्ज की उसे परवाह नहीं थी। जैसे, वह बाप की जिम्मेदारी...। तिस पर भी बड़के द्वारा खरीदे गये सामान पर बहू का एकाधिकार होने लगा था। सविता तो गुड़ भरा हंसिया, लेकिन रधिका और छुटकू कहाँ मानने वाले थे। वे अपना विरोध समय- समय पर जताते रहते।

बच्चे बड़े हो रहे थे तो पढ़ाई का खर्च भी बढ़ रहा था । कमाने वाला एक और खाने वाले छह व्यक्ति थे । घर में ऊपरी सामान फल - फ्रूट, मेवा - मिठाई इत्यादि तो कुछ होता नहीं था इसलिये अनाज पर ही पूरा भोजन टिका रहता था। कई बार माह के अंत में अनाज की कमी पड़ जाती लेकिन बड़का अपने रुपये चाँपे रहता। वह कुबूलता ही नहीं कि उसके पास रुपये हैं।

हर बार उसका उत्तर होता , ‘‘मेरे पास रुपये नहीं हैं।’’ तरह - तरह के हिसाब बताकर वह स्पष्ट कर देता कि तनख्वाह खर्च हो गयी है। लेकिन यहाँ वहाँ से रामरतन के कानों में खबर आ ही जाती कि बड़का बैंक में रुपये जमा कर रहा है।

कुछ समय बाद छुटके की भी कम्प्यूटर ऑपरेटर की नौकरी लग गयी और उसका भी विवाह हो गया । छुटका गृहस्थी चलाने में एक मुश्त अल्प राशि दे देता था और सब जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता था । महीना समाप्त होने से पहले ही रामरतन की जेबें पूरी खाली हो जाती थीं । उन्हें अपनी ही जरूरत पूरी करने के लिए पैसे नहीं बचते थे। उधर दोनों बेटों के बैंक बैलेंस बढ़ रहे थे । सब कुछ जानकर भी रामरतन चुप थे । संयुक्त परिवार जो चल रहा था...। बेटे आँखों के सामने थे । बड़के को तो वो किसी भी कीमत पर अपने से अलग नहीं कर सकते थे। मोमबत्ती की मानिंद जलकर वे घर को रौशन करने में लगे थे । ...मगर धीरे - धीरे छोटी बहू के दिमाग में यह बात पलने लगी कि मेरा पति घर में पैसे देता है तो मै अधिक काम क्यों करूँ ? ......उसने सुबह देर से उठना शुरू कर दिया । घण्टे भर तक अपने कमरे की झाड़ा - पोंछी करती । आराम से नहाना - धोना होता । वह रसोई में आती तब तक खाना तैयार हो जाता । फिर उसकी देखा-देखी बड़ी बहू भी होड़ करने लगी । आखिर, माउन्टआबू के दिलबाड़ा मंदिर में देवरानी जिठानी के मंदिर भी तो होड़ के प्रतीक है। सो, बड़ी बहू भी काम से जी चुराने लगी ।

तब मजबूरी में दोनो बहुओं के बीच काम का बँटवारा कर दिया गया। सविता को दोनों के साथ खटना पड़ता था। वह कहती कुछ नहीं शांत , निस्तब्ध अन्दर ही अन्दर पारे के समान घुलती जा रही थी। बहुओं का ‘पारा’ उसके शरीर को गलाता जा रहा था । और वह बीमार रहने लगी थी...। सुबह का खाना बनाना बड़ी बहू की जिम्मेदारी थी और रात का खाना बनाना छोटी बहू की । राधिका घर के ऊपरी काम निबटा लेती थी।

मार्च का महीना था । राधिका की परीक्षाएँ चल रही थीं । छुटके और बहू किसी परिचित को देखने अस्पताल चले गये।

कुछ देर तक तो उनके लौटने की प्रतीक्षा हुई । जब वे लोग नहीं आये तो बड़ी बहू और सविता ने मिलकर खाना बनाया । बड़ी बहू की भवें तनी हुयी थीं । वह बड़बड़ाती जा रही थी -‘‘ ये भी कोई समय है अस्पताल जाने का । गये भी तो इतना टाइम लगता है क्या ? ....गये होगें कहीं और घूमने । हैं तो सही घर में नौकर काम करने वाले .....उन्हें काहे की फिकर ...।’’ फिर सविता की ओर देखते हुए बोली ....‘‘ देखो मम्मी जी आज मैंने दोनों टाइम का खाना बना लिया है। कल उससे दोनों टाइम का खाना बनवाना। ’’

रामरतन और सविता चिन्ता में थे कि वे लोग अब तक लौटे क्यों नहीं हैं ? एक पत्ता भी खड़कता तो रामरतन के कान खड़े हो जाते । जब तक दोनों बेटे घर नहीं लौट आते थे रामरतन खाना नहीं खाते थे । वे बड़े शौक से दोनों बेटों के साथ बैठकर खाना खाते थे। राधिका भी जल्दी खाना खा लेती फिर वह माँ और भाभियों को खाना खिलाती थी।

देर रात गये छुटकू और बहू वापस आये । रामरतन बेटे - बहुओं से प्रत्यक्ष कभी कोई बात नहीं करते थे, वे हमेशा पर्दे की मर्यादा बनाये रखते थे । जब भी कभी ऐसे मौके आते , सविता ही सेतु का काम करती थी। रामरतन के मनोभाव समझते ही सविता ने छुटके से चिन्तित स्वर में पूछा , ‘‘ बेटा इतनी देर कहाँ कर दी ? हम सब चिन्ता कर रहे थे ।’’

छुटके ने आव देखा न ताव तुरन्त कह दिया , ‘‘ माँ हम बड़े हो गये हैं अब हमारी चिन्ता नहीं किया करो.... .कहीं जाते हैं तो टाइम तो लग ही जाता है। ’’

यह सुनकर सविता अवाक् रह गयी । उसे छुटके से ऐसी उम्मीद नहीं थी। कुछ भी हो ,बड़के ने कभी जबाव नहीं दिया । माँ - बाप की ममता को ये लोग क्या समझें ? घण्टा - आध घण्टा ज्यादा होते ही दिल कैसा धड़कने लगता है। रामरतन को भी अच्छा नहीं लगा। वे खून का घूँट पीकर रह गये ।

दूसरे दिन शाम को बड़का रोज की तरह पिताजी के पास आकर बैठा । थोड़ी देर में बहू भी आ गयी । रामरतन को खटका लगा कि आज क्या बात है जो बहू भी आ खड़ी हुयी है ।
बड़का धीरे से बोला , ‘‘ पिताजी कल छुटके किसी को देखने अस्पताल नहीं गया था । वो दोनों पिक्चर देखने गये थे ।’’

रामरतन ने संक्षिप्त प्रश्न किया , ‘‘ तुझे कैसे मालूम ?
‘‘.... सुरेश कह रहा था । वह भी कल शाम को पिक्चर देखने गया था । ’’

सुरेश बड़के का दोस्त है। रामरतन को मालूम है सुरेश कभी झूठ नहीं बोलता। उन्होनें ऊँची आवाज में सविता को बुलाया। उन्होने सविता से पूछा , ‘‘ कल छुटके ने क्या कहा था अस्पताल जा रहे हैं ? ’’

सविता कुछ समझ नहीं पा रही थी, उसने ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी । बड़ी बहू को रामरतन के कमरे में देख उसके पेट में जाड़ा भर गया। जब कभी शिकवा शिकायत करना होती है तब ही बहुएँ बैठक में आती हैं।

सविता का उत्तर पाते ही बड़ी बहू फट पड़ी , ‘‘ पिक्चर जाना ही था तो झूठ क्यों बोल गये। कोई रोकता थोड़े ही है। कह जाते तो काम भी जल्दी निबटा लेते । उन्हें लगा होगा कि पिक्चर की कहेंगे तो सबको चलने के लिए पूछना पड़ेगा । छोटी काम से जी चुराती है। इसलिये तो शाम का शो गयी । मैटिनी शो नहीं जा सकती थी ? माँ जी की तबियत खराब थी दीदी की परीक्षाएँ चल रही थीं । ऐसे में पिक्चर का शौक चर्राया था । ’’ फिर हाथ नचाती हुयी बोली , ‘‘ न बाबा न ऐसे माहौल में मैं उसके संग नहीं रह सकती ।’’

रामरतन रात भर ऊहापोह में रहे । उन्होने छुटके और बहू को अपने से अलग करने का फैसला कर लिया ।सुबह जब वे पूजा करने बैठै तो मन में बेचैनी थी। राम और लक्ष्मण के बीच दूरी दिखाई दे रही थी । उन दोनों की आँखों में अपनत्व की गहराई नहीं ईर्ष्या - द्वेष की चिंगारियाँ नजर आ रही थीं । रामरतन ने अपनी दृष्टि वहाँ से हटा ली । पूजा की थाली उठाने के लिए उन्होनें हाथ बढ़ाया । हाथ काँप जाने से थाली हिल गयी । दधि की कटोरी दूर्वा के साथ एक तरफ खिसक गयी थी और अक्षत बिखरे पड़े थे ।

लेकिन छुटकू ने यह मुद्दा उठा ही लिया कि भाईसाहब तो रुपये भी नहीं देते फिर उन्हें संग क्यों रखा जा रहा है ? उस दिन सविता पहली बार बोली थी और निर्णय भी कर दिया था कि दोनों बेटों को अलग कर दिया जाये।

एक ही घर में तीन चूल्हे हो गये । पूजा की थाली में दधि ,अक्षत और दूर्वा एक दूसरे से छिटक गये थे। रामरतन हाथ बढ़ाकर उन तीनों को एक साथ रखने की कोशिश करते लेकिन उनके हाथ काँप जाते । वे मायूस हो भगवान की मूरत निहारने लगते ।

रामरतन दिन में तो अकेले खाना खा लेते थे ,रात में अकेले खाना नहीं खा पाते । दोनों बेटों की चौकियाँ खाली नजर आतीं । दिल में एक हूक सी उठती । मुँह में पड़ा कौर बाहर निकलने को होता । वे सविता का चेहरा देखते और जबरन कौर को अंदर निगलने की कोशिश करते । इस प्रक्रिया में एक जोर का ठसका लगता और खाँसी दम निकाल देती , आँखों से पानी बहने लगता । हवा के वेग के साथ बहुओं की बातें भी कान के पास होकर गुजरती , ‘‘ अकेले में अम्माँ खूब घी और खूब तला बनाकर खिला रही होंगी। इसीलिये तो खाँसी आ रही है। ’’

बेटों के अलगाव ने उन्हें समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया। मन में प्रायश्चित ,हृदय में उद्वेलन , आँखों में पीड़ा और वाणी में विराम आ गया था ।

बड़का लिमिट में सब्जी - भाजी लाता था । वह सुबह - शाम ‘ मुख्य घर ’ से ही एक कटोरी सब्जी ले आता और उसका काम चल जाता । एक दिन बड़ी बहू ने उसे अकेले सब्जी नहीं खाने दी । दूसरे दिन से कटोरी की जगह कटोरे ने ले ली । सविता मूक बनी , बनने वाली सब्जी की मात्रा बढ़ाती जा रही थी। वक्त जरूरत गेहूँ और दाल-दफार भी दे देती थी वह।

आज राधिका कॉलेज से जल्दी आ गयी थी । उसने बड़के को सब्जी ले जाते देख लिया था और विवाद खड़़ा हो गया ।

समय गुजरता गया दोनों लड़कों के बच्चे हो गये । रामरतन और सविता दादा दादी बन गये थे । वे दोनों पोते -पोतियों को बहुत प्यार करते थे । मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता ही है । जब भी किसी बात पर घर में विवाद हो जाता तो बहुएँ बच्चों को उन लोगों के पास नही आने देतीं । वो लोग भी जानती थी कि इन बच्चों केा खिलाए बिना उन लोगों को नींद नहीं आयेगी। वे अप्रत्यक्ष रूप से रामरतन को परेशान करती थी। वे दोनों खून का घूँट पीकर रह जाते थे।

धीरे - धीरे नल और बिजली के बिल भुगतान को तीन हिस्सों में बाँटा जाने लगा । एक दिन तो सिर से पानी ही गुजर गया । कुलदेवी की पूजा का अवसर आया। कमरे की पुताई व सफाई होना थी ।कोरे बिछाने के लिए पूड़ियाँ भी बनाना थी । इधर दोनों बहुओं में होड़ मची थी कि काम कौन करे ? अन्त में सविता ने ही हिम्मत करके सफाई की। पूजा के समय दोनों बहुएँ भी अपने -अपने कमरे से पूड़ियाँ ले आयीं । यह देखकर सविता की छाती हिल गई... पूजा में भी बँटवारा हो गया! सहमती सी बोली, ‘‘ किसी दिन हमे भी मत बांट लेना... ’’ अँख भर आयी थीं।... दधिें से खटांध आ रही थी, अक्षत में घुन पड़ा हुआ था और दूर्वा दल सूख रहे थे ।

पति का रिटायरमेन्ट करीब आता जा रहा था । राधिका की शादी की चिन्ता अब दिन रात व्याप रही थी । उन्होने जी0पी0एफ0 में से कुछ रुपये मकान खरीदने में लगा दिये थे । शादी में दो - ढाई लाख रुपये लगाना आसान बात थी । रामरतन के पास इतने रुपये नहीं थे । उन्होने एक दिन दोनों बेटों को बुलाया और अपनी बात रखते हुए कहा , ‘‘ राधिका की शादी करना है । लड़का ढूँढ़ें उससे पहले हमें अपना संकल्प भी तय करना होगा। सभी लड़के वाले यही पूछते हैं ‘‘ शादी कितने की करोगे ? ’’

लड़के खामोश बैठे सुनते रहे। वे दोनों के चेहरों को पढ़ते हुए फिर से बोले , ‘‘ आज के जमाने में दो ढाई लाख रुपये से कम में तो शादी की सोच भी नही सकते । तुम अपनी जेब दिखा दो तो हमारी भी चिन्ता कम हो... उस हिसाब से सोचें।’’

इस बीच बड़का कुछ कहना चाह रहा था लेकिन छुटके को देखकर शांत रह गया । वह मन ही मन अजीब सी पसोपेस में पड़ गया । छुटके को सपने में भी अनुमान नहीं था कि किस बात के लिए बुलाया जा रहा है नहीं तो अपनी बीबी से सलाह - मशविरा करके आता इसलिए वह बड़के का ही मुँह ताकने लगा और सोचने लगा कि जितने रुपये की ये कहेगें उतने मैं भी दे दूँगा । वह सोच रहा था कि बड़ा भाई ज्यादा रुपये तो लगायेगा नहीं ।

मन ही मन गुत्थियाँ सुलझाते हुए थोड़ी देर बाद बड़का बोला , ‘‘ एक दो दिन में बता देंगे । फिर संकल्प से क्या होता है ? लड़के के हिसाब से कम बड़त तो हो ही जाती है। अच्छा लड़का मिलेगा तो ज्यादा रुपये लगाना पडंगे।’’

रामरतन समझाते हुए बोले , ‘‘ वही तो मैं कह रहा हूँ । एक आइडिया तो लग जाता ।’’
‘‘हाँ तो बता दंगे अभी ऐसी क्या जल्दी है’’ कहते हुए बड़का चलने को उद्यत हो गया ।
वह देहरी पर ठिटकी सबकी बातें सुन रही थी । बेटों के जाते ही उसका लावा फूट पड़ा , ‘‘ ऐसे बेटों को जना है... अपनी कोख का जाया कहते भी लाज आती है इन्हें। ’’ फिर आँखें पांछती हुई बोली, ‘‘ लड़की हमने जनी है... हम ही निबटायेंगे, जैसे होगा । ’’

रामरतन स्तब्ध रह गये । सविता को क्या हो गया ? यह तो कभी उफ् तक नहीं करती ,आज आज टूट गया सब्र का बांध । वे जैसे उसे हृदय से लगाते हुए बोले , ‘‘ सब व्यवस्था हो जायेगी तुम अपनी कोख को मत कोसो... । औलाद तो किस्मत से होती है...। हम अपना सब कुछ लगा देंगे। ऊपर वाले ने चोंच दी है , चुगने को भी वही देगा ।’’

रात का समय था । रामरतन टी.वी. देख रहे थे । बड़का भी आया और पिताजी के पास बैठ गया । जमीन पर बैठी सविता खाना खा रही थी। सविता गुस्से में थी इसलिए बड़के को सब्जी लेने को भी नहीं कहा । रामरतन ने कनखियों से बड़के को देखा और ताड़ लिया कि वह कुछ कहना चाह रहा है लेकिन सूत्र नहीं ढँढ पा रहै।...

रामरतन ने ही पहल करते हुए कहा ,‘‘ और बेटा ऑफिस में सब ठीक -ठाक चल रहा है ? ’’ उसने माँ की ओर दृष्टि फेंकते हुए संक्षिप्त उत्तर दिया ‘‘....हूँ ।’’

कुछ देर निस्तब्धता छायी रही । वह कुछ कहना चाह रहा था । उसने कहने के लिए मुँह खोला तब तक बड़ी बहू भी दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गयी । वह शांत हो गया । मन मसोसकर उसने एक नजर पिताजी पर डाली और पत्नी की ओर देखने लगा । पत्नी ने उसे आँख मटकाकर इशारा किया । बड़के ने पहल करते हुए कहा , ‘‘पिताजी हम दोनों (पति -पत्नी ) ने विचार कर लिया है कि हम पाँच हजार रूपये लगा देंगे ।’’

रामरतन को काटो तो खून नहीं । वे तो सोच रहे थे दोनों बेटे तीस चालीस हजार रुपये तो लगा ही देंगे ।

उस रात सविता को नींद नहीं आई। रात और अधिक स्याह लग रही थी ....चंदा में दाग दिखाई दे रहा था , चाँदनी में तपन महसूस हो रही थी , सर्द बयार में अगन लग रही थी, जैसे ! जी में हूक-सी उठ रही थी कि वह बड़का के आगे जाकर अपनी छाती कूट डाले... आज उगल दे कि तुझे अनाथ होने से बचा लिया जिसने , उससे अहसान फरामोशी कर मेरी कोख लजा दी तूने ! होते ही मर जाते तो हिये में जे सूल आज काहे गढ़ते...?

निश्वास -दर- निश्वास लगातार करवटें बदल रही थी वह । मस्तिष्क में द्वन्द्व चल रहा था .... ऐसी ही होती है औंलादें ? किसको दोष दूँ ? अपने खून को या ...बरसों से विस्मृत धुंधला चेहरा आँखों में नाच उठा।... रामरतन का ख्याल कर कलेजा मुँह को आ रहा था। आज बुढ़ापे में उनको सहारा देने वाला कोई नहीं ? कैसे करंगे बेटी के हाथ पीले ? जिन्दगी भर की कमाई तो इन पर लुटा दी।...

सहसा वह एक हल निकालते हुए बोली,‘‘ राधिका की शादी की चिन्ता मत करो घर बेच दो । बेटे अपना इन्तजाम खुद करेंगे।’’

रामरतन चौंकते हुए बोले , ‘‘ नहीं ! अपने बच्चों को दर - दर की ठोकरें खाने के लिए कैसे छोड़ दूँ ? मेरा भी तो इनके प्रति कोई फर्ज है। पहले फर्ज है , फिर कर्ज है। अभी तो सिर छुपाने को जगह है फिर कहाँ जायेंगे ये लोग ? छोटे - छोटे बच्चे कहाँ रहेगें ? अपना घर अपना होता है । अपनी छत के नीचे भूखे - प्यासे , नंग धड़ंग पड़े रहें ,कोई उंगली नहीं उठायेगा । ’’

सविता करवट लेकर लेट गयी । जागते हुए रात भी कितनी भयानक लगती है ,यह उसने आज और भी शिद्दत से जाना । काली आकृतियाँ उसी की ओर बढ़ी चली आ रही थीं । वे उसे खींच रही थीं । किसी ने उसके हाथ पकड़ लिए, किसी ने पैर । सब अपनी - अपनी ओर खींच रहे थे । वह हिल -डुल भी नही पा रही थी ।...

और उसके बाद घर में एक अजीब -सी लक्ष्मण रेखा खिंच गयी थी। सब साथ रहते हुए भी कोसों दूर थे । बड़के का सब्जी ले जाना बन्द हो गया था । पहले रोज रात को दस - दस मिनट दोनों बेटे रामरतन के पास बैठ जाया करते थे , वह भी बन्द हो गया। सब ताल के पानी की तरह शांत - मूक थे । कोढ़ लगे हिस्से की तरह बिना अहसास के,एनीसथीसिया के नशे में लिप्त बेहोश ...!

अचानक रात में बड़ी बहू के पेट में दर्द होने लगा । उसे रात में ही अस्पताल में एडमिट करा दिया गया। डॉक्टर ने बताया अपेंडेक्स का दर्द है , जल्दी ही ऑपरेशन करना पड़ेगा। अधिक से अधिक एक सप्ताह तक रुका जा सकता है। रामरतन ने चुपचाप जी0पी0एफ0 के लिए एप्लाय कर दिया । चार - पाँच दिन बाद रामरतन ने बड़के से पूछा, ‘‘डॉक्टर से बात हुयी, ऑपरेशन कब होगा ?’’
बड़के ने कहा ,‘‘ अभी पैसों का इन्तजाम नहीं हुआ है।’’ रामरतन ने ठंडी साँस भरकर कहा ,‘‘ मैं दूँगा रुपये । कल ऑपरेशन के लिए बात कर लो ।’’

ऑपरेशन होने के बाद बड़ी बहू सकुशल घर आ गयी । छोटी बहू पड़ोसियों की तरह उसे देखने आयी । एक माह तक सविता ने ही उसकी सेवा की और बच्चों को संभाला । यह देखकर छोटी बहू की भृकुटी में बल पड़ते रहे ।

सविता को जब पता चला कि ऑपरेशन में रामरतन ने रुपये दिये हैं तो वह बहुत नाराज हुयी । रामरतन ने ही उसे समझाया , ‘‘रुपये बच्चों से बढ़कर थोड़े ही हैं । रुपया तो हाथ का मैल है । बच्चे सुखी रहें इसी में हमें संतुष्टि है । जहाँ तक राधिका का सवाल है उसकी किस्मत होगी तो अपने आप सब इन्तजाम हो जायेगा। कम रुपये रहेगें तो छोटी नौकरी वाला लड़का देख लेंगे ।’’ रामरतन के तर्कों के आगे वह चुप हो गयी ।

कुछ दिनों बाद राधिका के लिए अच्छा लड़का मिल गया और सगाई पक्की हो गयी । विवाह के दो मुहूर्त निकले - एक फरवरी का और दूसरा अप्रैल का । बड़का जिद पर था कि शादी अप्रेल में हो । उसका तर्क था कि अप्रेल में सबकी परीक्षाएँ निबट जायेंगी । आखिर बड़के की ही बात मानी गयी।

शादी की तैयारियाँ जोरों पर थी । शादी ने दोनों बेटों ने बहुओं की इच्छानुसार पाँच - पाँच हजार रुपये व्यवहार में लिखवा दिये । पैर पखारने व अन्य नेगों के समय पिताजी से ही रुपये लिये गये ताकि राशि पाँच हजार से अधिक न हो जाये ।

राधिका के जाने के बाद घर सूना हो गया था । सविता और रामरतन बहुत दुःखी थे । वह रहती तो घर में चहल -पहल बनी रहती थी । बहू -बेटे उनके कब थे ? वे अपने -अपने कमरों के थे । रामरतन को कई लोगों को रुपया देना था । उन्हें हिसाब में लगना पड़ा ।

शाम का समय था । सविता और रामरतन टी. वी. देखकर अपने मन को बहला रहे थे ।
अचानक बड़के का दोस्त सुरेश आया । वह उन लोगों के पास ही चारपाई पर बैठ गया । अपनी जेब से एक चैक निकाला और रामरतन की ओर बढ़ाते हुए बोला , ‘‘ चालीस हजार का चैक बड़के ने आपके लिये पहुँचाया है। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी आपको देने की ।’’

रामरतन प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखने लगे। वह फिर बोला ,‘‘ जबसे उसने कमाना शुरु किया है वह राधिका के नाम रुपये जमा कर रहा था । उसे मालूम था कि आपका हाथ खर्चीला है ,घर में जितना रुपया आयेगा वह खर्च हो जायेगा । इसीलिये वह अपनी बीबी से छिपाकर हर महीने एफ0डी0 करता रहा । बहू के ऑपरेशन के समय भी उसने एफ0डी0 नहीं तुड़वायी। उसका कहना था कि वो पैसा राधिका का है उसमें से एक रुपया भी वह खर्च नहीं करेगा। उसने कई बार आपको बताने की कोशिश की कि वह चालीस हजार रूपये दे देगा। लेकिन यह सोचकर शांत रह जाता कि देने से पहले ही घर में विस्फोट न हो जाये । आज ही इसका समय पूरा हुआ है इसलिये वह अप्रैल में शादी करने की जिद कर रहा था ।’’

रामरतन की आँखों से आँसू ढुलक कर हाथ पर आ गिरे । उनमें कलुष था , पश्चाताप था , खुशी थी या फिर बेटे को न पहचान पाने का दुःख यह वो भी नहीं समझ पाये, मगर यह सब सुनकर सविता की छाती चौड़ी हो गयी । उसने सिर से सरक आये पल्ले को गर्व से अपने सिर पर डाला और एक लम्बी साँस खींची । वह बुदबुदा उठी ,‘‘ बेटा आज तुमने अपना फर्ज निभा दिया।’’

बड़का के स्वर्गवासी का धुंधला चेहरा अचानक बिजली-सा कौंध उठा । उसने आँगन की ओर देखा - दूधिया , निश्चल चाँदनी में दूर्वादल हरा भरा - सा स्निग्ध चंचल , वायुवेग में लहराता झूम रहा था। आज उसे अपनी कोख पर अभिमान हो रहा था ।

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