दादा-दादी के रेखाचित्र (रेखाचित्र) : देवेन्द्र सत्यार्थी

Dada-Dadi Ke Rekhachitra (Rekhachitra) : Devendra Satyarthi

भले ही यह मेरे मित्र सरदार गुरबख्शसिंह की दादी का रेखाचित्र हो, मुझे तो यूँ लगता है कि मेरी अपनी दादी का रेखाचित्र भी हू-ब-हू इससे मिलता है। शायद कोई पूछ बैठ कि दो भिन्न चित्रों की रेखाओं में यह सादृश्य कैसे स्थापित हो गया। मैं इस प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक नहीं समझता। अभी कल तक तो यही देखने में आता था कि दो दादियों में कोई विशेष अंतर नहीं, वही आचार विचार, वही मर्यादा, वही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि। जैसे एक की दादी दूसरे की दादी की ठीक-ठीक प्रतिलिपि हो।

मैंने अपने दादा का चित्र न दिखाया होता तो शायद मेरे मित्र को ख़याल ही न आता कि वह अपने उस लेख की चर्चा करे जिसमें उसने अपनी दादी की चर्चा की थी। वह लेख अंग्रेज़ी में था, पंजाबी में होता तो शायद मुझे और भी अच्छा लगता। मैंने कहा—इसे पंजाबी में अवश्य लिखिए, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि इसे हिंदी में भी प्रस्तुत करना चाहिए।

वह आप कीजिए बड़े शौक़ से, मेरा मित्र कह उठा, मुझे तो इससे ख़ुशी ही होगी।

इसे कोई देखे न देखे, मैंने कहा, मैं इसे अवश्य हिंदी-साहित्य-जगत् के सम्मुख रख दूँगा।

अमेरिका से भारत लौटते समय मेरे मित्र की दादी का रेखाचित्र एक ईसाई महिला को बेहद पसंद आया था। मुझे याद है कैसे मेरे मित्र ने अपनी दादी का रेखाचित्र पढ़ कर सुनाया था—

मेरी वृद्धा दादी का निवास-स्थान है पंजाब का एक ग्राम। ग्रामीण वातावरण में हँस-खेल कर ही वह इतनी बड़ी हुई है—आज वह कितनी एकरूप तथा एकरस हो गई है, ग्राम्य दृश्यपट के साथ, जैसे उसका व्यक्तिगत जीवन इससे कोई पृथक् वस्तु न होकर इसी का एक अंग-विशेष है। उसकी जीवन-वाटिका में पूरे सात कम एक सौ बसंत आ चुके हैं। उसके डील-डौल में कोई ख़ास विशेषता नहीं है। मुश्किल से वह साढ़े चार फुट ऊँची होगी, पर वह कितनी सौभाग्यवती है, उस कमलिनी के समान, जिसका पुण्य-स्पर्श करती न हों बसंत कालीन सूर्य-रश्मियाँ कितनी सुशीला है वह, उस मंदाकिनी की भाँति ही जो पुष्प-उद्यान में से गुज़रती है, और नए-नवेले पौधों की जड़ें चूमती चलती है।

क्या कहा—किस धर्म की अनुयायिनी है वह? पुरातन ढंग की सिख नारी है। परिवर्तनशील जगत् उसे उसकी आधारशिला को हिलाने से लाचार है। समय के उतार-चढ़ाव में से गुज़र कर भी उसने अपनी अनुभूतियों को हाथ से नहीं जाने दिया! उसका हृदय अपनी ही जगह पर दृढ़ रहता है, संगमरमर के बने उस स्मृति-मंदिर की भाँति ही, जो अहर्निश परिवर्तनशील समय-चक्र पर मुस्कुराता है, जिसकी दाल और कहीं भले ही गले, पर उसके समीप कभी नहीं गलती।

वह सोती है, जागती है, खाती है और उपवास रखती है। इन सभी स्थितियों पर धर्म का रंग चढ़ा रहता है। प्रत्येक काम को वह भक्तिपूर्वक ही हाथ लगाती हैं, वह भक्ति की ही साकार मूर्ति हैं। उसका धर्म तर्क-वितर्कमय बुद्धिवाद नहीं, उसने इसे जीवन-मंत्र का साकार रूप दे रखा है।

कोई मुझसे यह प्रश्न न करे कि उसका व्यक्तित्व सत्य के कितना समीप है, या कि उसकी विचार-धारा में विद्वत्ता का अंश कितना है। मैं तो केवल उसके सरल, निष्कपट और उदार जीवन का ही अभिनंदन करने चला हूँ, जिसके पीछे एक स्नेहमय हृदय है—उसके इस स्नेहमय हृदय में वह शांति बसती है जिसकी सब किसी को ही प्यास लगी रहती है।

देश की पुरातन संस्कृति की एक-एक परंपरा का पालन वह अत्यंत श्रद्धापूर्वक करती है। आप कह सकते हैं, वह विश्वास की पुजारिन है, पर उसके अंधविश्वास में भी पवित्रता की मिठास छिपी रहती है। क्या मजाल है कि उसके द्वार से कोई अतिथि असंतुष्ट हो कर लौटे। इसे वह आने वाली विपत्ति का पेशख़ेमा समझती है। उसे किसी अभ्यागत का तिरस्कार बिलकुल असह्य है। इससे उसकी भोली-भाली आत्मा बिलबिला उठती है। इसे वह निकट भविष्य में आने वाली दरिद्रता का सूचक समझती है।

हर पूर्णमासी को वह उपवास रखती है। भले-बुरे सगुनों में उसे पूर्ण विश्वास है। सुबह-शाम वह माला फेरती है और अपने भगवान का नाम जपती है। केवल सुबह-शाम की ही बात नहीं, घर के काम धंधे से फ़ारिग़ होती है तो मानों वह अपने भगवान को बिलकुल अपने समीप बैठा देखती है। वह कितनी विचारशीला है, कितनी मृदुभाषिणी, कितनी सुहासिनी। क्रोध तो मानों उसे आता ही नहीं। घर के एक भाग में है उसका उपासना-मंदिर इस मंदिर का प्यारा नाम है 'गुरुद्वारा'। अपने शयनगृह की सफ़ाई में वह भले ही सुस्त हो जाए, पर क्या मजाल कि उसका हृदय 'गुरुद्वारे' के प्रति लापरवाह रह सके। इसकी देख-रेख में वह हमेशा चौकस रहती है। गुरुद्वारे के फ़र्श पर एक सादा गलीचा बिछा है और दीवारों पर शोभायमान गुरुओं और संतों के अभिनंदनीय चित्र हैं। बीच में एक सुसज्जित तथा नयनाभिराम तख़्तपोश विराजमान है, पर 'गुरु ग्रंथ'। इसके एक ओर सुगंधित धूप सुलग रही है और दूसरी ओर अजब अंदाज़ से रखा हुआ है चाँदी का शमादान। इनके सिवा यहाँ अन्य एक भी वस्तु नहीं जो मेरी वृद्धा दादी की श्रद्धामयी आँखों को अपनी ओर आकर्षित कर सके। पुनीत विचारों के इस साधना-मंदिर में किसी ऐसे व्यक्ति को पदापर्ण करने की आज्ञा नहीं, जो गुरु के प्रति अपनी आंतरिक भक्ति का परिचय देते हुए अपने मस्तक-द्वारा गुरुद्वारे के फ़र्श का पुण्य स्पर्श करने के लिए तैयार न हो।

गुरु ग्रंथ को वह स्वयं नहीं पढ़ सकती, उसे हमेशा आवश्यकता पड़ती है किसी ऐसे सज्जन की, जो प्रातःकाल इससे पूर्व कि वह अन्न भगवान का सेवन करे, उसे गुरु ग्रंथ से दो एक जीवन-पद पढ़ सुनाए।

क्या हुआ, यदि वह लिखना पढ़ना नहीं जानती। उसे अनेक कथाएँ और गीत स्मरण हैं, जिन्हे सुनने के जादू-भरे चाव में हम अपने शैशव-काल में घंटों मस्त रहा करते थे। रात के आनंदमय समय में, जब निद्रादेवी हमें थपकियाँ दे-देकर सुला देती थी, हम बहन भाई अपनी वृद्धा दादी से अनेक कथाएँ सुना करते थे, परियों की और भूतों की कथाएँ, डाकुओं और वीरों की कथाएँ। और इनमें सर्वोत्तम कथा थी उस राजपुत्री की, जो हँसती थी तो उसके मुख से सफ़ेद गुलाब झड़ते थे। और बारी-बारी प्रत्येक गुलाब एक-एक गुलाब-पेड़ बनता जाता था। और समय पाकर के उस साम्राज्य में चारों ओर बाग़ ही बाग़ लग उठते थे।

प्रकृतिदेवी के प्रति मेरी वृद्धा दादी के हृदय में अपार भक्ति तथा श्रद्धा विद्यमान है। उन दिनों जब हमारे ग्राम के किसान अपने-अपने खेतों में हल चलाते हैं और फिर बीज बोते हैं, ताकि भूमि-माता शत-शत बार मुस्कुरा उठे, और सब ओर हो जाए अन्न ही अन्न, मेरी वृद्धा दादी भी अपने गुरुद्वारे में एक निश्चित स्थान पर गेहूँ के सौ-पचास दाने बो देती है। गर्भवती माता की उस आनंदमयी उत्कंठा के साथ ही, जिससे वह अपने उदर के दिन-दिन बढ़ते शिशु का अनुभव करती है, मेरी वृद्धा दादी गेहूँ के दानों को पल्लवों में परिणत होते देखती है। समय-समय पर वह गुरुद्वारे में जाती है और बिलकुल एकांत अवस्था में जब चारों ओर निस्तब्धता होती है, मानों गेहूँ के हरे-हरे पल्लवों से वार्तालाप करती है। इनके सम्मुख वह दीपक जलाती और मस्तकनत होकर सुबह-शाम अपने गुरु का यश-गान करती है।

उन दिनों जब ये पल्लव पीले पड़ जाते हैं, और मुरझाने लगते हैं, अत्यंत श्रद्धापूर्वक वह एक-एक करके उन्हें उखाड़ती है और मानो उन्हें संबोधन करके कुछ कहती भी जाती है। इसके पश्चात् वह उन्हें सत्कारपूर्वक उस छोटी नदी के किनारे ले जाती है, जो हमारे ग्राम का अँचल छूती हुई नाचती चलती है। मुख से आलाप करती है गुरुग्रंथ के पुनीत पदों का, और हृदय में उस माता की सी अनुभूति लिए है, जिसका पुत्र-रत्न परदेश की राह ले रहा हो। वह ख़ास अंदाज़ से इन पल्लवों को जल पर तैरने के लिए छोड़ देती है। उनके साथ ही रहता है गुंधे हुए आटे का बना एक घी का दिया, जो उन्हें उस समय, जब कोई भटकती हुई प्रकाश-रेखा भी उनका अँचल न छुएगी, उन्हें पथ दिखला सके।

घर लौटकर वह पड़ोस की सुकुमारी बालिकाओं को बुला भेजती है। स्वयं अपने हाथों से वह उनके पैर धोती है। कहती है— ये पवित्रता की देवियाँ हैं। गिनी-चुनी भोजन-सामग्री द्वारा वह उनका सत्कार करती है। कुछ समय पूर्व जब उसके हाथ इतने बूढ़े नहीं हुए थे, वह इन पवित्रता की देवियों के लिए भोजन-सामग्री स्वयं अपने हाथों से तैयार करती थी।

वह उषा के साथ ही जाग उठती है और हर रोज़ उदय होते सूर्य को नमस्कार करती है। शाम को उसकी आँखें नील गगन की ओर उठती हैं, और जब रात हो जाती है, तो वह नमस्कार करती है सुनहले चाँद को और ध्रुव को, जिसे वह चिर-स्थिर सत्य का चिह्न समझती है।

दूज का चाँद है उसका प्रियतम आनंद-धाम। इसे उदय होते देखने के लिए वह छत पर चढ़ जाती है, और नए-नवेले चाँद को रजतकमान का दर्शन करने के लिए उसकी बूढ़ी आँख निहारती हैं धुँधले बादलों के सफ़ेद-सफ़ेद अँचलों की ओर, जो उसके विश्वासानुसार दूज के चाँद को छिपाने के लिए एक दूसरे से बढ़ चढ़कर शरारत किया करते हैं। पड़ोस की किसी छत से जब कोई उल्लासपूर्ण स्वरों में कह उठता है—वह निकला, वह निकला...तो वह और भी बेचैन हो उठती है और काँपती हुई आवाज़ में हमें पुकारती है—दौड़ो, दौड़ो, गुरुबख़्श, गुरुचरण, गुरदयाल! दौड़ो दौड़ो, और मुझे भी दिखाओ मेरा चाँद। बताओ, बताओ, मुझे भी बताओ कि कहाँ है मेरा चाँद? आह! सब उसे देख चुके हैं, पर न हो सका मुझे अभी तक उसका दर्शन। हम उसके पीछे जा खड़े होते हैं उसकी बाहें पकड़ लेते हैं। और उसका हाथ पकड़कर आकाश की ओर उठाते हैं और कहते हैं—वह देख, दादी, दूज के चाँद की रजतकमान। फिर हम खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं एक स्वर से। इधर-उधर, आकाश पर सब ओर वह आँख भरकर देखती है, पर नहीं मिलता उसे उसका प्यारा चाँद; नहीं मिलता। ठहर-ठहर कर कहती जाती है—कहाँ है, कहाँ है, मेरे बच्चो, कहाँ है मेरा चाँद? आह! कितनी बूढ़ी हो गई हैं मुझ पकी हुई जामुन की आँखें। इन्हें अब मेरा प्यारा चाँद भी नहीं दिखाई देता।

आख़िर जब बिखरे हुए आकाश पर चाँद साफ़ दिखलाई देने लगता है, हमारी बूढ़ी दादी भी उसे देख लेती है। आनंद-विभोर होकर वह शिशु-सुलभ उल्लास से मस्त होकर उछल पड़ती है और संगीतपूर्ण स्वर से चाँद को संबोधन करती हुई कह उठती है—सत्त सिरी अकाल। चाँद की ओर ताकती हुई वह जलपूर्ण पात्र को उंडेल कर मानो शिशु-चाँद का मुँह धुलाने के लिए जल भेजती है, और इसके पश्चात् शिशु-चाँद का मुँह मीठा कराने की सरल धारणा से वह हम बच्चों को, जिन्हें वह अपने आँगन के चाँद समझती है, मिठाई बाँटती है। वह चाँद की ओर प्रेमपूर्वक ताकती हुई अपने भगवान के सम्मुख प्रार्थना करती है, और हम हास्य-विभोर होकर उसके गंभीर मुख की ओर निहारते हैं। चाँद से निबटकर वह बारी-बारी हमें चूमती है और आशीर्वाद देती है, 'ज्यों दे रहो, जुयानिया माणों' अर्थात् चिरंजीव रहो बेटो! युग-युग यौवन का रसास्वादन करो।

छत से नीचे आकर वह बारी-बारी से घर के प्रत्येक कमरे में जाती है, और परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को नवीन चाँद का नमस्कार कह सुनाती है। कितनी आशाएँ बँधी हैं उसे मेरी पत्नी को शीघ्रातिशीघ्र किसी शिशु की माता बनते देखने के लिए। आठ वर्ष होने को आए मेरा विवाह हुए, पर मेरी पत्नी की कोख इस लंबे समय में एक बार भी नहीं भरी। जब वह मेरी बूढ़ी दादी के पाँव पड़ती है तो वह मधुर स्वर में कह उठती है—'दुद्धी न्हामें, पुत्ती फलें, बुड्ढ़ सुहागन होमें'। अर्थात् ईश्वर करे तू चिरकाल तक दूध में स्नान करे, अनेक पुत्ररत्नों से फले-फूले और वृद्धावस्था-पर्यंत सधवा रहे। इसके बाद उसकी ममतामयी वाणी करुण-रस से सिंच जाती है और वह कहती है—चज बच्ची, चल, छत पर चल और आकाश पर उस सुदूर चाँद को देख। कितना सुंदर है यह, अभी-अभी जन्मे बच्चे का-सा है न। जब तक तेरी गोद हरी नहीं होती, इसी रुपहले चाँद का दर्शन किया कर। एक दिन तेरी कोख से भी ऐसा ही चाँद उदय होगा। मैं इसे देखती-देखती ही हुई हूँ इतनी बूढ़ी। यही है मेरी हरी-भरी आशाओं का प्रतीक। मैंने इसे जब भी देखा है, मेरा हृदय आनंद में मग्न हो उठा है।

यह सन् 1935 की बात है, जब सीमाप्रांत में अकाली फूलसिंह की समाधि पर मैं सर्वप्रथम सरदार गुरुबख़्शसिंह से मिला। 'प्रीतलड़ी' का संपादन उन्होंने उसी वर्ष प्रारंभ किया था। मुझे याद है पंजाबी भाषा की उस पत्रिका के किसी अंक के परिशिष्ट में उन्होंने अपनी दादी का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ रेखाचित्र प्रकाशित किया था। उन्होंने इस रेखाचित्र की अंतिम टिप्पणी में बताया था—चार वर्ष होने को आते हैं, जब अपने ग्राम की रौनक़, मेरी बृद्धा दादी आराम की नींद सोई और ऐसी सोई कि फिर न उठी। उस दिन उसकी आयु एक सौ वर्ष की थी।

इस हिसाब से मेरे मित्र की दादी का देहांत सन् 1930 में हुआ होगा। यह किस महीने और किस दिन की बात है, यह मैं नहीं पूछ सका था।

मेरे मित्र की दादी का रेखाचित्र सुंदर भी है और महत्वपूर्ण भी। इससे मुझे प्रेरणा मिली है। इसे देखकर भला कौन यह कहने का साहस करेगा—अगले वक़्तों के हैं ये लोग, उन्हें कुछ न कहो!

अपने मित्र की दादी का ध्यान करते ही मुझे अपने दादा का ध्यान आ जाता है। जैसे आज भी मेरे दादा मेरी कल्पना के कला भवन में बैठ मुस्कुरा रहे हों, जैसे वे आज भी मुझ से कह रहे हों— मेरे लिए एक भुट्टा भून लाओ ना। हाँ, मुझे याद है कि मृत्यु से दो दिन पहले ही उन्होंने मुझसे भुट्टा माँगा था। मैंने बड़े प्रेम से भुट्टा भूनकर उनके हाथों में थमा दिया था। वे भुट्टा खा पाए थे या नहीं, मैं कुछ नहीं जानता। उस समय उनकी आयु पूरे 101 वर्ष की थी। मैं बाहर यात्रा पर था, वे बीमार पड़ गए। पूरे दस महीने वे रोग-शैया पर पड़े रहे। जैसे मृत्यु से होड़ ले रहे हों। उन्हें बस मेरी प्रतीक्षा थी। मुझे देखे बिना वे इस संसार को अंतिम प्रणाम नहीं करना चाहते थे।

मैं आया और वे जाने के लिए तैयार हो गए। यह सन् 1939 की बात है। ठीक दीवाली के दिन मेरी जाँघ पर उनका सिर था, जब उन्होंने स्वयं मृत्यु का स्वागत किया, वे चले गए। पर अपने पीछे शत-शत स्मृतियाँ छोड़ गए।

उस वर्ष सारे ग्राम की दीवाली तो भला कैसे रुक सकती थी। पर हमारी गली में और भी घर थे जहाँ मेरे दादा के देहांत के कारण दिए नहीं जले थे। सच कहता हूँ, मुझे यूँ अनुभव हो रहा था जैसे घर के अंधेरे कोने में दादा की आवाज़ गूँज उठेगी—दिए नहीं जलाओगे तो मुझे मेरा पथ कैसे नज़र आएगा?

हाँ, मुझे याद है, मेरे दादा को प्रकाश से विशेष प्रेम था। जिस महफ़िल में वे बैठ जाते, वहाँ मानो ख़ुद-ब-ख़ुद दिए जल जाते। कुछ ऐसा ही उनके व्यक्तित्व का प्रभाव था।

मन में तो आता है कि दादा का पूरा रेखाचित्र तैयार करके और लौटती डाक से सरदार गुरुबख़्शसिंह के पास भेज दूँ। पर अभी तो दूसरे कई काम बाक़ी हैं।

दादा-दादी के रेखाचित्र तो वस्तुत: चिरस्मरणीय हैं, क्योंकि इनकी एक-एक रेखा उभर कर कहती है— अनेक पीढ़ियाँ आईं और अभी तो और आएँगी, क्योंकि समय का रथ तो कभी रुकता नहीं।

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