दाँतों में घिरी ज़बान (कहानी) : अली इमाम नक़वी
Daanto Mein Ghiri Zabaan (Story in Hindi) : Ali Imam Naqvi
उसने पूरे ज़ीने भी तै नहीं किए थे कि पड़ोस की बेवा के छ साला बच्चे ने अपने मासूम लहजे में उसे इसके भाई की आमद से मुत्तला किया।
भैया...!
उसके लहजे का तहय्युर उसके अदम एतिमाद की गवाही दे रहा था मगर बच्चे ने इस्बात में सर को जुंबिश दे कर उसे इत्मीनान दिलाया और फिर आगे बढ़ गया।
भैया...!
उसके होंट लरज़े और बे-इख़्तियार उसकी आँखें भर आईं, भीगी हुई आँखें लिए वो एक साँस में बक़िया तमाम ज़ीने तै कर गया। चाल की गैलरी भी उसने दौड़ते हुए ही तै की और फिर दरवाज़े के सामने पहुँचते ही दीवाना-वार अपने बड़े भाई को पुकारने लगा। बराबर के कमरे से उसका बड़ा भाई उसकी आवाज़ सुनकर मुस्कुराते हुए निकला, लम्हा भर को दोनों ने एक दूसरे को देखा और फिर दोनों आगे बढ़ कर एक दूसरे से बग़ल-गीर हो गए। बड़े भाई का चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था और छोटा रो रहा था।
अरे... तू तो अब भी इतना ही छोटा है! तुझे याद है जब मैं जा रहा था तब भी तू इसी तरह लिपट कर रो रहा था... मुझे याद है! अम्मी ने चाहा था मैं न जाऊँ... उन्होंने तेरे रोने का...
हाँ मुझे याद है... आपकी जुदाई का ज़ख़्म ज़्यादा पुराना नहीं। छोटा बात काट कर कहता है,अभी कल ही तो गए थे! यही कल... जो गुज़रा है।
कल जब वो और मैं अपने मुशतर्का दुश्मन से लड़ रहे थे तब मुत्तहिद थे और जब हमने अपने इत्तिहाद और ख़ुद दुश्मन के जब्र-ओ-तशद्दुद और उसकी अपनी सरमाया-दाराना हैसियत के बाइस उसे ज़िल्लत आमेज़ शिकस्त से दो-चार किया था तब हमें पता चला था कि हम अब नहीं रहे बल्कि हमारे दरमियान एक ख़त-ए-इम्तियाज़ खींच दिया गया है। वो अब वो है...! और मैं... सिर्फ़ मैं हो गया हूँ! ये ख़त-ए-इम्तियाज़ किसने खींचा? मैं वो और मैं का फ़र्क़ कौन समझा गया? इस गुत्थी को सुलझाने में आज भी में मसरूफ़ हूँ और ख़ुद वो भी इस मुअम्मे के इशारे खोज रहा है। अपनी इस मुहिम में न मैं रहा हूँ और न ही वो। मुक़्तदिर और साहब-ए -फ़हम शख़्सियतें इस गुत्थी को सुलझाने में आज भी मेरे साथ मसरूफ़ हैं कि इस उलझन की वजह से हम मुसलसल ख़सारे में हैं और बड़ी-बड़ी ज़ी इल्म हस्तियाँ वहाँ भी सर जोड़ कर उस मस्अले का हल दरयाफ़्त करना चाहती हैं ताकि हम उनसे कट कर अलैहदा न रह जाएँ लेकिन हज़ार कोशिशों के बावजूद ऊँट किसी एक करवट नहीं बैठता, कभी दाएँ कभी बाएँ और इस दाएँ-बाएँ रुख़ बदलने में बहुत सी ज़िंदगियाँ हशरात-उल-अर्ज़ की मानिंद पिस जाती हैं।
अरे... पागल। अब भी रोए जा रहा है चल चुप हो जा। देख दुल्हन देखेगी तो क्या सोचेगी? बड़े ने छोटे की कमर सहलाते हुए कहा। बड़ी मुश्किल से छोटे ने अपनी हिचकियाँ रोकीं। इस अस्ना में दुल्हन हाथों में चाय की ट्रे उठाए किचन से बरामद हुई। दो मिनट दोनों ही चाय के छोटे-छोटे सिप लेते रहे थे। दो तीन सिप लेने के बाद बड़े ने प्याली प्रिच पर रखते हुए छोटे से कहा, हाँ एक बात तो बता... ये तूने अम्मी के इंतक़ाल की ख़बर मुझे क्यों नहीं दी?
एक मर्तबा फिर छोटे की आँखें भर आईं। उसने अपनी आबदीदा नज़रों से अपनी बीवी की तरफ़ देखा, बीवी ने उन नज़रों का मफ़हूम समझकर सर झुका लिया और किचन की तरफ़ लौट गई।
अगर तू उनकी बीमारी की इत्तिला दे देता तो मुझे वीज़ा मिलने में सहूलत हो जाती... मैं उनकी ज़िंदगी में ही आ जाता... अब देख कितनी पैंतरे-बाज़ियों के बाद वीज़ा मिला है। यूँ समझ कि इसके हुसूल के लिए झूट और मक्र का जुआ तक खेलना पड़ा है मुझे!
जुआ...?
हाँ जुआ!
वो तो इस बस्ती वाले शुरू से खेल रहे हैं। मुझे याद है गोल मेज़ पर भी जुआ ही खेला गया था। शिमला की बुलंदी पर सियाह और सफ़ेद का संगम हुआ था और लम्बी सियाह मेज़ पर जुआ ही हुआ था। वो दोनों आमने-सामने बैठे थे और एक मुहाफ़िज़... जुए के क़वाइद की मोटी सी किताब सामने रखे उनकी निगरानी पर मामूर था। दोनों जुआरी मुत्मइन थे कि जीत मेरे हिस्से में नेअ्मत बन कर आएगी और यही यक़ीन-ओ-इत्मीनान दोनों को एक दूसरे पर फ़िक़रे कसने पर मजबूर कर रहा था।
इससे पहले कि शिकस्त आपका मुक़द्दर बने, आप पत्ते मेज़ पर रख कर बा इज़्ज़त तरीक़े से अपनी हार तस्लीम कर लीजिए।
हार और इज़्ज़त दो मुतज़ाद बातें हैं। खेल जब शुरू हो ही चुका है तो इनका फ़ैसला भी होगा, हार और जीत तो लाज़िमी अमर है।
मुझे डर है, हार की सूरत में आपके अपने आपको कुत्तों की तरह झिंझोड़ेंगे।
उन्हें क्या मिलेगा? मुझे देख रहे हो... उनके अपने ही दांत टूट कर रह जाएँगे। लेकिन तुम्हारी क़ाबिल-ए-रश्क सेहत पर रहम आता है।
और उसके बाद दुबले पतले बिजूका से आदमी ने पत्ते मेज़ पर डाल दिए थे। शेरवानी वाले की आँखें फैल गई थीं और उस जुए का निगराँ ख़ुद हैरत में डूब गया था।
उस फ़ैसले के बाद हम, हम न रहे... वो और मैं में तक़सीम हो गए। मैं फ़तहयाब होकर भी मज़ीद मुराआत का मुतालिबा कर रहा था और वो अपनी शिकस्त तस्लीम करने पर आमादा न थे। बात तू-तू,मैं-मैं से चली और नौबत ख़ून-ख़राबे तक जा पहुँची। ख़ून ख़राबा लाठियों से बल्लों से और फिर तमंचे और पिस्तौल से भी! फ़िरऔन कौन है, उसकी शिनाख़्त की ज़रूरत ही न रही। वो मैं भी हो सकता था। में वो भी लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था। वो वो ही रहा और मैं सिर्फ़ में। एक ख़ून का दरिया था जो हमारे गलों से निकला था और हमारे सरों से गुज़र जाना चाहता था। इसके अलावा हर सू धुआँ ही धुआँ था। लोग दौड़े चले जा रहे थे। गिरते पड़ते, अजीब अफ़रा-तफ़री का आलम था। मुझे याद है! ख़ूब याद है! आपको... आपको याद है भैया? आप भी तो...
वो फिर सिसक पड़ा। सर को दाएँ शाने पर झुका कर उसने अपनी आँखें ख़ुश्क कर लीं।
हाँ मुझे याद है! अम्मी के शदीद इसरार के बावजूद मैं नहीं रुका था। एक सुनहरे मुस्तक़बिल का नज़र फ़रेब ख़्वाब आँखों में सजाए मैं भी लाशों को रौंदता हुआ वहाँ पहुँचा था। दसियों बीसियों शायद हज़ारों... नहीं, नहीं लाखों ज़िंदगियों की क़ुर्बानियों के बाद हमने उस पार जाकर एक बस्ती आबाद की... ये बस्ती ख़ुदा का अतीया थी। वहाँ हमने नक़ल-ए-मकानी और आबाद-कारी की पहली सालगिरह का जश्न बड़े एहतिमाम से मनाया, रफ़्ता-रफ़्ता ये जश्न एक रिवायती शक्ल इख़्तियार करता चला गया... मगर जिन सपनों को आँखों में लिये मैं ने तुम्हें और अम्मी को रोता बिलकता छोड़ा था, वो दौड़ते भागते कहीं रास्ते ही में टूट कर बिखर गए थे, हज़ारों-लाखों इंसानी लाशों की तरह।
फिर आपको वहाँ जाने पर क्या मिला? छोटे के इस्तिफ़सार पर बड़ा चंद लम्हों के लिए ख़ामोश हो जाता है। उसका सर झुकता है और आवाज़ बुलंद होती है।
तहफ़्फ़ुज़ का एहसास! जो तुम्हें यहाँ मयस्सर नहीं... अभी मैंने यहाँ आते हुए अपने कानों से सुना कि यहाँ की अक्सरियत तुम्हें आज भी क़ाबिल-ए-एतमाद नहीं समझती। वो आज भी तुमसे वफ़ादारी का सबूत तलब करती है।
हाँ! बात तो दुरुस्त है... छोटा सोचता है... हम दोनों ही एक दूसरे को इस तरह चौंक कर देखते हैं जैसे हम में से एक भी दूसरे पर एतमाद करने को तैयार न हो। ऐसे ही एक रोज़ मैंने जब उसे चौंक कर देखा तब उसने जिज़-बिज़ होते हुए मुझसे सवाल किया?
ये तुम चौंक-चौंक कर मुझे क्यों देखा करते हो?
मेरा एतमाद ज़ख़्मी जो हो गया है।
विश्वास तो मेरा भी घायल हुआ है!
क्या मेरे हाथों?
नहीं, तुम्हारे अपनों के हाथों और तुम्हारा एतिमाद...?
वो जान बूझ कर फ़िक़रा अधूरा छोड़ कर बड़े की तरफ़ देखने लगता है। बड़ा ज़हर-ख़ंद लहजे में छोटे को मुख़ातिब करता है।
आओ चलो, उनमें इतनी अख़्लाक़ी जुरअत नहीं कि ये अपने मज़ालिम का एतराफ़ करें।
फिर वही पुराना सबक़।
मैं तुम्हारी तरह बुज़्दिल हूँ, मुझे उनके मज़ालिम की पूरी फ़ेहरिस्त ज़बानी याद है!
भैया प्लीज़।
अरे क्या प्लीज़-प्लीज़ कर रहा है! क्या अब तुझमें भी अख़्लाक़ी जुरअत नहीं रही।
छोटा तड़प कर रह जाता है। चँद लम्हे वो बड़े के सरापा को तरह्हुम-आमेज़ नज़रों से देखता है और फिर आहिस्ता से सर झुका कर कहता है,
नहीं, ये बात नहीं है। मुझ में जुरअत भी है और अख़्लाक़ भी, इस विशाल धरती पर मेरा वुजूद मेरी जुरअत का मुँह बोलता सुबूत है और ये अख़लाक़ ही का करम है कि मैं आपको चाहते हुए भी भगोड़ा नहीं कह पा रहा हूँ। जबकि सच तो ये है कि आप अपने को इनसे ग़ैर महफ़ूज़ जानकर और इनसे डर कर भागे थे। हैरत है... आज बरसों गुज़रने के बाद भी आप भागने पर फ़ख़्र करते हैं, अपने को जरी कहते हैं जबकि जरी तो हम हैं, क्योंकि बत्तीस दाँतों के दरमियान ज़बान की तरह रहते हैं!
बड़ा कबीदा-ख़ातिर होकर मुँह फेर लेता है। सर उसका भी झुक जाता है और सर छोटे का तो पहले ही से झुका हुआ था।