कामरेड चन्द्रकान्त (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ
Comrade Chandrakant (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan
ओड़िशा के मालकानगिरि जिले के ऊँचे पहाड़ों पर फैले घने जंगल के गहरे अंधकार में माओवादियों की आँखों के कोटर में भयंकर चमकती पुतलियाँ घूम रही थीं । क्योंकि पुलिस और सुरक्षाकर्मियों पर अतर्कित आक्रमण करना था । माओवादी घने पेड़ों के ऊपर मौके के इंतजार में छिपे हुए थे । एस.पी. के नतृत्व में कोम्बिंग ऑपरेशॅन चल रहा था । सहसा नजदीक के जंगल में केन्द्रीय सुरक्षा कर्मी और माओवादियों के बीच गोलियों के चलने की आवाज सुनाई पड़ी । एक के बाद एक सुरक्षा कर्मीं लुढ़क पड़े। यह सोचकर कि उनका काम हो गया है, माओवादी पेड़ों से नीचे कूद कर झरना के किनारे-किनारे भागते जा रहे थे । वे ज्यादा तादात में नहीं थे । एस.पी. अंशुमान अपनी टीम के साथ झरना के पुल पर थे । मौका मिलते ही विस्फोटक फेँक कर सबको मौत के घाट उतार दिया । पुलिस और माओवादियों के बीच चल रही जंग सिर्फ कुछ ही मिनटों में खत्म हो गयी थी । प्रशासन, स्वास्थ्य-विभाग के कर्मचारी और संवाददाताओंकी झड़ी-सी लग गयी थी घटनास्थल पर । माओवादियों की गतिविधि के बारे में खुफिया संस्था से खबर पाकर एस.पी. अंशुमान मौके का इंतजार कर रहे थे । एक बहुत बड़ी वारदात को अंजाम देने के लिए माओवादियों ने नेपाल और चीन में तालीम पाकर आंध्र प्रदेश की सीमा पार करके ओड़िशा में घुसपैठ की थी । गुरुप्रिया सेतु को उड़ा देना उनका मुख्य उद्देश्य था । एस. पी. अंशुमान ने मोस्ट वाण्टेड और खूँखार माओवादियों को मालकानगिरि जिले के ओड़िशा और आंघ्र के सीमांत में इनकाउण्टर करके मार गिराया था । उस खुशी में एक बहुत बड़े जुलूसे में अंशुमान को मालकानगिरि शहर में घुमाया गया था । टी.वी. चैनलों में एस.पी. अंशुमान के फोटों के साथ आकर्षक खबरें परोसी गयी थीं । उससे दर्शकों के मन में खुशी की लहर फैल गयी थी। अंशुमान के मोबाइल पर सैकड़ों बधाई के संदेश आ रहे थे ।
शहर की परिक्रमा कर चुकने के बाद अंशुमान अपने घर लौटे । अंशुमान को आरक्षी जीवन काल में इससे बड़ी सफलता पहले कभी नहीं मिली थी। उनकी चर्चा समूचे राज्य में होने लगी थी । आहत और मृत माओवादी तथा उनके नेताओंका परिचय ढूँढ़ा गया । विस्फोटक के आघात से घायल और मृत माओवादियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे और चेहरे विकृत हो गये थे । उनका परिचय जानने के लिए अंशुमान लग गये थे । माओ नेताओंके परिचय को लेकर अलग-अलग सूत्रों से अलग-अलग तथ्य सामने आ रहे थे । उनकी जेब से जब्त किये गये कागजात और दलीलों में आंघ्र और छत्तीसगड़ के अलग-अलग परिचय-पत्र थे । माओ नेता के परिचय-पत्र में लिखा हुआ था कामरेड़ श्रीनिवास राव । अंशुमान ने परिचय-पत्र की जाँच-पड़ताल के लिए अपनी हिफाजत में रखा । माओ नेता के फोटो को देखकर लगा कि वह इस व्यक्ति को पहले से जानता है । जिस व्यक्ति का फोटो है , वह व्यक्ति उनका चिर परिचित और अंतरंग लग रहा था। उन्होंने उस फोटो को काफी गौर से देखा । उन्हें शक हुआ कि कहीं वह चन्द्रकान्त तो नहीं है ! अपनी अलमारी में रखे चन्द्रकान्त के पुराने फोटों को निकाला और कंप्यूटर के पोर्टाल में स्कैन करके सभी फोटों की तुलना की । मरे हुए खूँखार माओवादी नेता श्रीनिवास राव और चन्द्रकान्त के चेहरे में कोई फर्क नहीं था । तस्वीर मानो कह रही थी कि मैं तुम्हारा वह चिर परिचित जे.एन.यू का सहपाठी चन्द्रकान्त हूँ । कंप्यूटर के पोर्टाल पर चन्द्रकान्त के फोटो को फिर एक बार लाकर अंशुमान ने देखा । अपने पास रखे हुए पुराने फोटों के साथ कंप्यूटर से मिलाया । सिर्फ चेहरे पर लगी चोट के अलवा नाक, होंठ और आँखें सब बराबर हैं । उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि इनकाउण्टर में मरनेवाला श्रीनिवास राव ही चन्द्रकांत है । चलचित्र में घूमने वाली छवियों की तरह अंशुमान के मानस-पटल पर स्मृतियाँ उभरने लगीं – जे.एन.यू का परिसर, कंधे पर झोला, जिन का पतलून और खदर का कुरता पहने हुए एक युवक की छवि । वह अपनी पुरानी स्मृतियों में खो गया।
अंशुमान दास और चन्द्रकान्त रणसिंह जवाहरलाल विश्वविद्यालय में सहपाठी थे । दोनों ब्रह्मपुत्र छात्रावास की सबसे ऊपर की मंजिल के एक कमरे में रहते थे । दोनों साढ़े दस बजे तक अपनी कक्षा में पहुँच जाते थे । पढ़ाई खत्म होने के बाद अंशुमान कक्षा से लाइब्रेरी में जाता था । चन्द्रकान्त लाइब्रेरी या शहर चला जाता था । चन्द्रकान्त कभी-कभी देर से लौटता था या लौटता नहीं था । विश्वविद्यालय की आंतरिक गतिशीलता की कई दिशाएँ हैं । कुछ छात्राएँ अधिक मार्क पाने के लिए प्राध्यापकों को फँसाती हैं, कुछ छात्र अपनी जीवन- संगिनी चुनने के लिए लड़कियों से दोस्ती करते हैं, किन्तु कुछ प्राध्यापकों का उद्देश्य अलग रहता है । लेकिन उनकी पसन्द काफी असाधारण और निराली है । जिनके माता-पिता ऊँचे वर्ग के, धनाढ्य श्रेणी के और ऊँचे पदाधिकारी वर्ग के हैं, कुछ स्वार्थी प्राध्यापक अपना स्वार्थ हासिल करने के लिए ऐसे छात्रों पर अपना फंदा डालते हैं । इस सिलसिले में प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी की फाँस में चन्द्रकान्त फँस गये थे ।
अपनी फाँस में फँसाने के लिए प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी की शिकारी आँखों के लेन्स रोज कई तस्वीरों को अपने कैमरे में कैद करके रखते थे । ताबीज को मंत्रित जल से धोना और असामी को वशीभूत करना उन्हें अच्छी तरह आता था । प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी ने पीएच.डी. करा देने का लोभ दिखा कर चन्द्रकान्त को वशीभूत कर लिया था । चन्द्रकान्त एक निरीह हिरनी की तरह प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी जैसे व्याध के चंगुल से खुद को मुक्त करने में असफल रहा । उसी दिन से चन्द्रकान्त का जीवन बदल गया था । हमेशा अशांत, विचलित और अस्थिर मन लिये चन्द्रकान्त एक क्रांतिकारी मनुष्य में तबदील हो गया था । जिन्हें अपने जीवन के खिलाफ ही शिकायत है, जो अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं, वे हमेशा अस्थिरता और मानसिक तनाव का सामना करते हैं। यदि मन शांत है तो जीवन सुखमय है, यदि मन अशान्त है तो जीवन विषमय है । अशान्ति का कारण था चन्द्रकान्त का मन और उसके विचार । किन कारणों से चन्द्रकान्त विचलित और अशान्त रहता था, अंशुमान उन कारणों की खोज में लगा रहता था ।
एक दिन आधी रात को अंशुमान की नींद टूट गयी थी । उसने देखा कि चन्द्रकान्त अपनी चारपाई पर नहीं है । अगले दिन उसने हँसी-ठिठोली करते हुए पूछ लिया - ’चन्द्रकान्त! पिछली रात तू कहाँ गायब हो गया था ! मुझे लगता है कि तू लेड़ीज होस्टल में चला गया था । जिसके पास गया था, वह सुन्दरी कौन है ? उस सखी का नाम तो बताओ । तुम्हारे इस लुका-छिपी खेल को मैं किसीके आगे प्रकट नहीं करूँगा ।“
चन्द्रकान्त कोई उत्तर दिये बिना चुप रहा । उसके अगले दिन अंशुमान चन्द्रकान्त के अनजाने में लाइब्रेरी मे पहुँचा था । लाइब्रेरी के दूसरे कोने में बैठ कर अंशुमान सबकुछ गौर से देख रहा था । भले ही अंशुमान अखबार खोल कर अखबार से चेहरा ढाँपते हुए बैठा हुआ था, पर उसका पूरा ध्यान सीढ़ी पर टिका हुआ था । मानो वह किसी के आने के इंतजार में था । इसलिए वह बार-बार सीढ़ी की ओर निहार रहा था । उस लड़की के आने के तय समय से पन्द्रह-बीस मिनट पहले चन्द्रकान्त वहाँ पहुँचा था । चन्द्रकान्त और वह लड़की दोनों काफी देर तक लाइब्रेरी में गपशप करते रहे फिर दोनों बाहर आ गये थे ।
उस दिन रात को अंशुमान ने चन्द्रकान्त से उस लड़की के बारे में पूछा था । चन्द्रकान्त ने कुछ छिपाया नहीं था । सब कुछ खुल कर कहा था । उस लड़की का नाम था निरुपमा । उसके पिताजी दिल्ली में नौकरी करते थे। वह भी ओड़िशा की लड़की थी, फिर तीनों मित्रों की भेंट हुई थी विश्वविद्यालय के कैंटीन में, दिल्ली के अलग-अलग सांस्कृतिक उत्सवों में, सभा-समितियों में, आग्रा के ताजमहल में, कन्नट प्लेस में, लालकिले के सामने, पहाड़गंज में, लेकिन अंशुमान कभी उनके मिलन में बाधक नहीं बना था ।
एक दिन रात को अंशुमान सोने का बहाना बनाकर लेटा रहा। चन्द्रकान्त जब रूम से बाहर निकला, तब वह उसके पीछे-पीछे गया और देखा कि चन्द्रकान्त होस्टल की छत पर जाकर अपने लैपटॉप में किसी का भाषण सुन रहा है । उन भाषणों को सुन कर जब अपने बिस्तर पर लौटता था, तब चन्द्रकान्त उदास हो जाता था और काफी देर तक सोच में खोया हुआ रहता था । सुबह अंशुमान ने चन्द्रकान्त को पिछली रात की बात पूछी थी । चन्द्रकान्त ने अंशुमान के संदेह को दूर करने के लिए एक सीधा-साधा उत्तर दिया था – “मुझे सुनसान रात में प्रकृति का उपभोग करना अच्छा लगता है । रात के एकांत पलों में चाँद और तारों की गति को निहारना अच्छा लगता है । मैं देखता हूँ कि चमकते चाँद के आगे तारे कितने फीके पड़ जाते हैं । अमावस की रात को जब आकाश में चाँद होता नहीं है, तब तारे जगमगाते रहते हैं । फिर भी कुछ पूँजीतारों के प्रकाश में छोटे-छोटे तारे प्रभाहीन हो उठते हैं । चाँद बुर्जुआ है और पूँजीतारे छोटे बुर्जुआ हैं । पूँजीपति और मजदूरों के बीच का रिश्ता ऐसा ही है । पूँजीवाद के अधःपतन से ही एक दिन मजदूर तारों की तरह चमक उठेंगे ।“
चन्द्रकान्त के जवाब को अंशुमान कुछ समझ नहीं सका । चाँद और तारों के साथ पूँजीवादी और मजदूरों की तुलना करने का मतलब क्या है ? वह महसूस कर रहा था कि चन्द्रकान्त कुछ तो छिपाने की कोशिश कर रहा है । इसलिए चन्द्रकान्त के अनजाने में उसकी हर चीज की छानबीन अंशुमान करने लगा । चन्द्रकान्त की अनुपस्थिति में एक दिन अंशुमान ने चन्द्रकान्त की चारपाई, अलमारी के चप्पे-चप्पे की छान-बीन की । चन्द्रकान्त की किताबों में, मेज के ऊपर, चारपाई के बिस्तर के नीचे अंशुमान को कई प्रकार के माओवादी लेख मिले थे । बुर्जुआ, लघु बुर्जुआ, प्रोलिटेरिअॅट, रिविजॅनिस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसापिएन्स, लाल सलाम, कामरेड़, मार्क्स, ऐंजल्स, लेनिन, माओ-से-तुंग, वर्नरस्टिन, ग्रामसी नाम की कई किताबें अंशुमान को मिलीं । उन सब लेख और किताबों के साथ कॉलेज के पाठ्यक्रम का संपर्क बहुत ही कम था । चन्द्रकान्त किसके बहकावे में आकर गलत रास्ते में जा रहा है ? अंशुमान इसका पता लगाना चाहता था । एक दिन अंशुमान ने चन्द्रकान्त से पूछा – “चन्द्रकान्त यह देख कर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है कि तुझ जैसा एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी इस तरह के बेकार के धंधे में समय बरबाद कर रहा है । पिजाती ने कितनी आशा लेकर तुम्हें पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा है । पिताजी तेरे लिए कितने सारे सपने देख नहीं रहे होंगे ।“
अंशुमान के इन सब उपदेशों को सुन कर चन्द्रकान्त ने खीझ भरी आवाज में कहा था – “इस देश के दलित, पीड़ित और अवहेलित लोगों की हालत देखकर मेरा विवेक कहता है कि ईश्वर ने उनकी सेवा करने के लिए मुझे इस धरती पर भेजा है । माओ-स-तुंग मेरे आदर्श और प्रेरणा के स्रोत हैं।“
अंशुमान ने प्रत्युत्तर में कहा – “पता है कि नहीं ? उपा अधिनियम के अनुसार भारत सरकार ने आतंकवादी संगठन के हिसाब से माओवादी कम्युनिस्ट दल, इसके सभी केन्द्रों और शाखाओँ पर पाबन्दी जारी की है । पता है कि नहीं? पोल पट्, स्टालिन जैसे क्रूर नेताओंने कम्युनिस्ट आन्दोलन के नाम से लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है । पता है कि नहीं? माओ ने सन् १९६२ में भारत पर आक्रमण किया था । यह शरम की बात है कि हमारे देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में माओ एक राजनैतिक दार्शनिक हैं और तुझ जैसे युवकों के आदर्श ।“
चन्द्रकान्त ने प्रतिवाद करते हुए कहा – “पता है कि नहीं ? लोकतन्त्र में अलग मत के लिए जगह है । यहाँ सभी मतों को समान महत्व दिया जाता है। यदि हम दूसरों के मतों को सुनेंगे नहीं तब हमारी अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत ही क्या है ? इसलिए हमें माओ को निहायत पढ़ना चाहिए ।“
अंशुमान ने हाजिर जवाब देते हुए कहा – “पता है कि नहीं? आज के परिप्रेक्ष्य में माओ की क्रान्ति चीन में एक झूठी कहानी है । सच-सच बताओ। लेनिन और माओ-से-तुंग अपने शासन काल में क्या किसी क्रान्ति को बरदाश्त करते? चीन में किसी भी किस्म की क्रान्ति को कुचला जा रहा है कि नहीं? जब माओ की क्रान्ति के सिद्धान्त चीन के लिए सही नहीं हैं, तब हमारे लिए कैसे सही हो सकते हैं? मार्क्स की क्रान्ति की विचार-धारा को लेनिन और माओ ने हिंसा का रूप प्रदान किया है । क्रान्ति का अर्थ है कोई भी सामाजिक परिवर्तन, यह कभी भी हिंसा नहीं है । हम क्या शांतिपूर्ण तरीके से समाजवाद की प्रतिष्ठा कर नहीं सकते? यदि पढ़ना है, तो गांधी को पढ़ो, जय प्रकाश नारायण को पढ़ो, मानवेन्द्रनाथ राय को पढ़ो, राम मनोहर लोहिया को पढ़ो । जयप्रकाश, मानवेन्द्रनाथ, राम मनोहर भी सम्यवादी विचार-धारा के थे, लेकिन उन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया था । सन् १९८९ में चीन के बेजिंग शहर के तियानमान चौक में लोकतंत्र के समर्थक क्रान्तिकारियों के साथ जो हुआ, उनकी तकदीर के हम गवाह हैं । फिलहाल चीन साम्यवाद के नाम पर पूँजीवादी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व कर रहा है । चीन खुद एक बुर्जुआ राष्ट्र है । क्योंकि उस समय मजदूरों के कल्याण के लिए राष्ट्र में कानून का अभाव था, इसलिए कुछ पूँजीपति मजदूरों का शोषण कर रहे थे । लेकिन पूँजीवादी हमेशा मजदूरों के दुश्मन नहीं हैं । पश्चिम यूरोप में पूँजीवाद के उत्थान और औद्योगिक क्रान्ति के कारण मजदूरों की तकदीर बदल गयी थी । वरना आज तक वे अफ्रीका और एशिया के मजदूरों की तरह तुच्छ जीवन जी रहे होते ।“
अंशुमान के ढेर सारे उपदेश, तर्क-वितर्क और सारी कोशिशें निरर्थक हो गयीं । अंशुमान से यह बात छिपी नहीं रही कि चन्द्रकान्त अब हाईटेक माओवादी संगठन के चंगुल में फँस गया है । गाँव में पिताजी की जमींदारी है, लेकिन बेटा यहाँ जो कुछ कर रहा है, यह पिताजी के खिलाफ विद्रोह तो नहीं है? इस तरह के कार्यकलापों से वह इतिहास में नाम दर्ज करना चाहता है क्या ? वह नया सामाजिक परीक्षण कर रहा है क्या ? यह मेनिया और पागलपन नहीं, तो और क्या है? इस तरह के कई सवाल अंशुमान के मन में पनप रहे थे । दिन पर दिन विभिन्न माओ संगठनों के साथ चन्द्रकान्त का संपर्क बढ़ने लगा । रात को होस्टल में न लौटने का नशा और तीव्रतर हो उठा । चन्द्रकान्त की अनुपस्थिति से अंशुमान को दुःख होता था । अंशुमान समझ नहीं पा रहा था कि देश के दूर- दराज के देहात से आकर अपने करियर को बरबाद करने का मतलब क्या है? चन्द्रकान्त का विषय था-“भारत के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन में माओ-से-तुंग की भूमिका”। शोध-कार्य में फील्ड वॅर्क के लिए निर्देशक प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी ने उन्हें ओड़िशा के नक्सल-माओवादी प्रभावित कन्धमाल जिला के कोटगड़, तुमुडिबन्ध, दारिंगबाडि; गजपति जिला के मोहना, अड़वा, रामगिरि- उदयगिरि; रायगड़ा जिला के कुडुमुलुगुम्मा, माथिलि, मोटु, कालिमेला, बालिमेला इलाके में भेजा । यह सब दलित-आदिवासियों का क्षेत्र है । इन सब इलाकों में लोगों का विश्वास प्रशासन पर नहीं है, थानेदार पर नहीं है, सरकारी बाबुओं पर नहीं है, लेकिन नक्सल-माओवादियों पर है । उनकी नजर में ये सारे सरकारी लोग शोषण करने वाले और लूटनेवाले हैं । उनके शोषण के निराकरण का एक मात्र उपाय है माओवादी आन्दोलन । स्थानीय नेता, विधायक और सांसदों के लिए सुरक्षित स्थान है राज्य की राजधानी या देश की राजधानी । जब वे अपने इलाके में आते हैं, तब पुलिस की कड़ी सुरक्षा के घेरे में आते हैं । इन सब इलाकों में माओवादियों की समानान्तर सरकार चलती है । प्रजाकोर्ट में सजा देना जैसे उनका एक लोकतांत्रिक अधिकार है ।
चन्द्रकान्त अपने शोध-कार्य के दौरान राज्य के विभिन्न माओ प्रभावित इलाके के अफसर, नेता, नक्सल-माओवादी संगठन के सक्रिय सदस्यों से भेंट की । शोध-पर आधारित प्रश्न-पत्र के फॉर्मेट वितरण करके उत्तर संग्रह किया । वे उसके शोध-कार्य की नमूना-टोली में रहे । शोध के लिए उनकी प्रतिक्रिया /मतामत काफी महत्वपूर्ण है । एक जिला के जिलाधीश से साक्षात्कार के समय उन्होंने समझा दिया – “नक्सल-माओवादी देश के पथभ्रष्ट नागरिक हैं । इस बेकार के शोध-कार्य से क्या मिलेगा?”
बेकार का शोध-कार्य है? जिलाधीश के उपदेश को सुनकर चन्द्रकान्त झुँझला उठा और सोचा कि आदिवासियों से जिलाधीश की तनिक भी हमदर्दी नहीं है । उनकी दयनीय स्थिति से जिलाधीश का कोई मतलब नहीं है । जिलाधीश को सिर्फ अपने परिवार, तनखा और नौकारी से मतलब है ।
चन्द्रकान्त ने जिलाधीश को उलटा समझाते हुए कहा – “सर् ! मैं सोचता हूँ कि नक्सल-माओवादी आंदोलन से ही उनकी स्थिति मे बदलाव आयेगा ।“
जिलाधीश ने पूछा – “अनुसूचित जाति और जनजातियों की उन्नति के लिए सरकार जो हजार-हजार योजनाएँ बना रही है, उनसे इनकी स्थिति में बदलाव आया है कि नहीं? हम संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीके से देश में बदलाव ला सकते हैं या हिंसा के माध्यम से?”
चन्द्रकान्त ने उत्तर दिया – “सरकारी योजनाओंके सारे फायदे भ्रष्टाचारी लूट लेते हैं । इसलिए आदिवासी हिंसा के मार्ग को अपनाते हैं । यही उनके लिए सही मार्ग है ।“
हिंसा का मार्ग कहाँ तक उचित है और अनुचित है, इस पर बहस चलते समय जिलाधीश का मोबाइल बज उठा । किसी एक गाँव से फोन आया था कि पुलिस के इनफॉर्मर के संदेह में एक युवक की बड़ी क्रूरता से हत्या की गयी है । यह कह कर कि शाम को फिर मुलाकात होगी, जिलाधीश उस गाँव की ओर तुरंत निकल पड़े । घटना की सच्चाई की छानबीन करने के लिए चन्द्रकान्त भी उस गाँव में पहुँच कर तथ्यों का संग्रह करने लगा ।
शाम को फिर एक बार चन्द्रकान्त ने जिलाधीश से भेंट की । इस बार चर्चा का बिषय था पुलिस के इनफार्मर का संदेह । जिलाधीश ने समझा दिया- “गाँव के इलाके के पढ़े-लिखे युवक आत्मनिर्भरशील बनने के लिए छोटी-छोटी दुकान खोलते हैं । उस इलाके मंे तैनात सुरक्षाकर्मी अपना मोबाइल रीचार्ज करवाने तथा जेरक्स करवाने से लेकर रोजमर्रे के जरूरी काम के लिए गाँव के इलाके की दुकानों में जाते हैं । उन दुकानदारों के साथ सुरक्षाकर्मियों के व्यावसायिक संपर्क और मित्रता को लेकर कुछ गाँव वाले आपस में व्यक्तिगत शत्रुता पाल लेते हैं । इसी कारण दुकान के मालिक को पुलिस का इनफॉर्मर करार देते हैं । उसके बारे में मनगढ़न्त किस्से बनाकर माओवादी संगठन को सूचित कर देते हैं । इस तरह की झूठी सूचना के कारण कई निरीह लोगों की जान चली जाती है । समाज में हिंसा और खूनखराबे को उपजाने वाले विभाजनकारी गुट के खिलाफ सूचना प्रदान करना क्या एक अच्छे नागरिक का कर्तव्य और दायित्व नहीं है? इसमें गलती कहाँ हुई ?“
चन्द्रकान्त बिना कोई जवाब दिये लौट आया था । चन्द्रकान्त ने मन-ही- मन जिलाधीश पर गुस्सा उतारते हुए सोचा कि दलित, पीड़ित और अवहेलितों के स्वार्थ के खिलाफ सोचने वाले इस तरह के प्रशासनिक अधिकारी को सही सीख मिलनी चाहिए । इस मुद्दे को लेकर अपने निर्देशक प्रोफेसर आशुतोष बानार्जी के माध्यम से स्थानीय माओ संगठन के साथ संपर्क स्थापित किया गया। जिलाधीश का अपहरण करवाकर दलित, पीड़ित और अवहेलितों के सामने उपस्थापित कराया गया, लेकिन सरकार ने हस्तक्षेप किया और मध्यस्थ भेजने के कारण जिलाधीश मुक्त हुए ।
उसके अगले दिन चन्द्रकान्त ने कुछ अगम्य इलाकों का दौरा किया । देश के अगम्य इलाके कितने पिछड़े हुए हैं, अपनी आँखों से बिना देखे इसका विश्वास नहीं हो सकता । सरकार की सैकडों योजनाओंके बावजूद यह नजर नहीं आता है कि उनमें कोई परिवर्तन आया है । आदिवासियों के विकास की योजनाओंको भ्रष्ट लोग लूट लेते हैं । इस लूट-खसोट के लिए नक्सल-माओवादी संगठन के नेता अफसर, कॉण्ट्रैक्टर और ठीकेदारों को जिम्मेदार मानते हैं । साप्ताहिक मण्डी में चीजें पहुँचने से पहले महाजन उनकी जंगल में उत्पन्न चीजों को सस्ते मं खरीद कर विदेश भेज देते हैं और मालामाल हो जाते हैं । खेती शुरू होने से पहले निरीह आदिवासियों को कर्ज देते हैं और उपज के समय सभी कृषि-जात और जंगल-जात चीजों को सस्ते में खरीद लेते हैं । कंधमाल जिले की हलदी, अदरख हो, गजपति और मालकानगिरि जिले की मूँग, उरद, अरहर और इमली हो सब में आदिवासी घाटा उठा रहे हैं ।
शोध का क्षेत्र-कार्य समाप्त होने के बाद चन्द्रकान्त ने विश्वविद्यालय में अपना शोध-प्रबंध दाखिल किया और गाँव लौटा । गाँव के चारों ओर नदी, पहाड़ और झरने के बीच समय गुजारते हुए उसने महसूस किया कि अब भी आदिवासियों के इलाके में घूम रहा है और गाँव की प्रकृति उसे जमीन, जल और जंगल का पाठ पढ़ा रही है ।
कार्तिक का पावन महीना था । माँ और पिताजी तीर्थ-यात्रा में गये हुए थे । चन्द्रकान्त घर में अकेला था । उनकी अनुपस्थिति में चन्द्रकान्त के मन में साम्यवादी विचार-धारा का एक अनोखा उपाय सूझा । उसने आसपास के गाँवों की दलित बस्तियों में जाकर प्रचार किया कि सरकार ने हमें एक नई योजना सौंपी है । योजना के बारे मंे जिसने पूछा उसने सफाई देते हुए कहा – “परिवहन के खर्च को बचाने के लिए सरकार ने स्थानीय जमींदारों को धान-चावल मुपÌत में वितरण करने का निर्देश दिया है । हालाँकि सरकार बाद में हमें धान और चावल की सही कीमत दे देगी।“ बाबू दिल्ली में पढ़कर लौटे हैं, उनकी बातों पर किसी ने अविश्वास नहीं किया ।
घोषणा के कुछ घण्टों के अन्दर ही कोठार खाली हो गया । सभी आकर चींटियों की तरह कतार में धान और चावल के बोरे ढोते हुए ले गये । पिताजी के तीर्थ-यात्रा से लौटने से पहले पीएच.डी. के वाइवा की चिट्ठी पाकर चन्द्रकान्त दिल्ली लौट आया था । तीर्थ-यात्रा से लौट कर पिताजी ने इस घटना के बारे में सुना । बेटे की ही करनी थी, इसलिए पिताजी सबकुछ सह गये । किसी से कुछ नहीं कहा, सिर्फ अपनी तकदीर को कोसने लगे ।
थेसिस जमा करने के बाद चन्द्रकान्त को आगे होस्टल में रहने की अनुमति नहीं मिली थी । अंशुमान ने होस्टल नहीं छोड़ा था, क्योंकि उसका शोध-कार्य समाप्त नहीं हुआ था । वह शोध-कार्य में कम ध्यान देता था और ज्यादा ध्यान देता था यू.पी.एस.सी. की प्रतियोगिता परीक्षाओंमें । चन्द्रकान्त अतिथि अंतेवासी बनकर अंशुमान के रूम में जा पहुँचा । पहुँचते ही अंशुमान ने उससे कहा - ’निरुपमा कई बार मेरे पास आकर तेरे बारे में पूछ रही थी। कह रही थी कि तू उसे शायद भूल गया है । उसका फोन उठा नहीं रहा है।“
चन्द्रकान्त ने खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए कहा – “शोध के क्षेत्र- कार्य के लिए मैं अगम्य जंगलों में घूम-फिर रहा था । पहाड़ और जंगली इलाकों में मोबाइल का नेटवॅर्क रहता नहीं था । इसीलिए मैं संपर्क कर नहीं पा रहा था ।“
पीएच.डी. के वाइवॉ के लिए हाइदराबाद विश्वविद्यालय से प्रोफेसर गुरुड़ाद्री गणपति रेड्डी बाह्य-परीक्षक के नाते आये थे । पीएच.डी. की सफलता को लेकर शाम को दिल्ली के एक नामी-गिरामी होटल में कटलेट पार्टी का आयोजन हुआ था । प्रोफेसर रेड्डी और निर्देशक प्रोफेसर मुखार्जी का माओवादी संगठन के साथ पहले से सक्रिय संपर्क था । उनके सौजन्य से माओवादी संगठन के अखिल भारतीय महासचिव एन.वासवा राव के साथ केंद्रीय समिति, आंचलिक ब्यूरो, राज्य समिति, जोनाल समिति के सदस्य आये थे । फिर गुरिल्ला युद्ध-कौशल और सशस्त्र स्क्वाड़ में प्रवीण मुपाला लक्ष्मण राव, सोम नारायण राय, सुशील सानिआल, एन. प्रसाद राव, अमिताभ सोरेन, आसुतोष घाण्टी, कोबाड़ टुडु, एम.कोटेश्वरा राव, कादरी सत्य नारायण रेड्डी, मला राजी रेड्डी, पी.भेनुगोपाल राव, माडिभ हिड़मा, मोतीलाल सोरेन, यदुनाथ केरकेटा, सूर्य कुजुर, मिसिर बेस्रा, गिनुगु नरसिंह रेड्डी, सुब्रमण्यम जांफान्ना, भर्कपुर चन्द्रमौली, एन. सुधाकर रेड्डी, नर्मदा आक्का, अजित बार्ला आदि भी उपस्थित थे । सभा ने शोध-कार्य की सफलता के लिए चन्द्रकान्त को बधाई दी थी । प्रोफेसर रेड्डी और निर्देशक प्रोफेसर मुखार्जी ने चन्द्रकान्त से सबको परिचित कराया था । उसी दिन से चन्द्रकान्त माओवादी संगठन की सदस्यता स्वीकार करके संगठन में प्रत्यक्ष रीति से शामिल हो गया था । माओवादी संगठनों की सहायता से अन्तराष्ट्रीय सम्मेलनों में आलेख पढ़ने के बहाने उसे उत्तर कोरिया, चीन, विएतनाम आदि देशों में भ्रमण करने का मौका मिला था । वहाँ चल रहे अन्तराष्ट्रीय साम्यवादी संगठनों से उसे सहायता मिली थी ।
चन्द्रकान्त बचपन से ही पढ़ाई में तेज था । कक्षा में सबसे आगे रहता था । उसकी सूक्ष्म बुद्धि, प्रखर ज्ञान और स्मरण शक्ति के सामने अंशुमान कुछ भी नहीं था, लेकन अंशुमान की कड़ी मेहनत उसे सफलता के निकट ले जाती थी । विश्व की विभिन्न समस्याओंको लेकर दोनों में जो चर्चा होती थी, उससे अंशुमान ढेर सारी बातें सीखता था ।
उस दिन रविवार था । चन्द्रकान्त सुबह उठ कर कहीं गया हुआ था । उसने अंशुमान को यह बताया नहीं था । दोपहर के भोजन के लिए वह होस्टल नहीं आया था । शाम को अंशुमान विश्वविद्यालय के कैंटीन से चाय लेकर बबूल के पेड़ के नीचे अकेले बैठे चाय पी रहा था । किसी एक अजनबी को उसकी ओर आते हुए उसने देखा । उस आदमी ने पास आकर पूछा – “तुम्हारा नाम अंशुमान है क्या?”
अंशुमान के हामी भरने के बाद उस आदमी ने फिर से पूछा – “तुम शायद चन्द्रकान्त के अंतरंग मित्र हो?”
अंशुमान ने पहले सोचा कि वह आदमी चन्द्रकान्त की गॅर्ल फ्रेंड निरुपमा के पिताजी ही हो सकते हैं । फिर भी उसके मन में उस आदमी के प्रति संदेह उपज रहा था ।
उस आदमी ने फिर से पूछा – “मैं चन्द्रकान्त के वैयक्तिक जीवन के बारे में कुछ जानना चाहता हूँ । आशा है कि यह जानकारी तुम से मिल जाएगी।“
अंशुमान ने उत्तर दिया – “चन्द्रकान्त के बारे में जितना जानता हूँ, उतना बताऊँगा ।“ फिर उन दोनों के बीच सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ । चन्द्रकान्त के बारे में उस आदमी ने ढेर सारी बातें पूछी थीं । उसके पूछने के अंदाज से साफ पता चल रहा था कि वह आदमी एक पेशावर प्रश्नकर्ता है । लगता था कि उसने सवाल पूछने की तालीम ले रखी है । सवाल पूछने में वह आदमी “आप की अदालत” टेलीविजन शो के रजत शर्मा से भी अधिक होशियार लग रहा था । इसलिए चन्द्रकान्त के बारे में पूछे गये कई सवालों को जानबूझ कर अंशुमान बड़ी कुशलता से टालने की कोशिश कर रहा था । अंशुमान उस आदमी से चल रही बातचीत को किसी भी तरीके से फौरन खत्म करना चाहता था । किसी जरूरी काम से बाहर जाने का बहाना बनाते हुए अंशुमान ने कहा - ’माफ कीजिएगा ! यद्यपि चन्द्रकान्त और मैं होस्टल में एक ही रूम में रहते आये हैं, लेकिन हमारा संपर्क सिर्फ ऐकॅडेमिक है । उसके वैयक्तिक जीवन के साथ मेरा कोई संपर्क नहीं है और उस बारे में मैंने उसे कभी पूछा नहीं है । इसलिए उसके वैयक्तिक जीवन के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता ।“
अंशुमान के यहाँ से वह आदमी लौट कर जा रहा था । उनके लौटने की राह को वह पीछे से निहार रहा था । उस आदमी ने जेब से मोबाइल निकाला और उस पर अंगुली दबाने के बाद फिर जेब में भर दिया । अंशुमान को संदेह हुआ कि उसने चन्द्रकान्त के बारे में जो सब बयान दिया था, वह शायद उसकी रिकार्डिंग कर रहा था । अंशुमान को पक्का विश्वास हो गया कि वह आदमी भारत सरकार के खुफिया विभाग का कोई पदाधिकारी रहा होगा ।
ओड़िशा के एक जिले के जिलाधीश के अपहरण की साजिश से जुड़े होने के कारण खुफिया विभाग चन्द्रकान्त को ढूँढ रहा था । इस सिलसिले में पिछले दो दिनों से चन्द्रकान्त किसके बारे में बातचीत कर रहा था, उसे वह सुन रहा था । इसलिए उसने फौरन सजग कराने के लिए चन्द्रकान्त को फोन लगाया । फोन स्विच आफ कह रहा था । चन्द्रकान्त की अलमारी के अन्दर के कागजात, विस्तर के नीचे, बक्स के अन्दर की फाइलों, पेन ड्राइव, सी.डी., मेज पर रखे हुए लैपटाप आदि को छिपाने के उद्देश्य से होस्टल की तरफ सीधा दौड़ना शुरू किया । हड़बड़ी में रूम का ताला खोल कर अन्दर घुसा और अन्दर उसने जो कुछ देखा उससे उसका होश उड़ गया । वह जिन चीजों को छिपाने के लिए आया था, उनमें से एक भी चीज वहाँ नहीं थी । इन सब चीजों के अलावा चन्द्रकान्त कोई और चीज ले नहीं गया था । यहाँ तक कि हैंगर में लटक रहे पतलून और कमीज को भी लेना भूल गया था ।
उस दिन से चन्द्रकान्त कहाँ गया किसी को नहीं पता । अंशुमान ने फोन करके चन्द्रकान्त के पिताजी को सारी बातें बता दी थीं । दिल्ली पहुँच कर उसके पिताजी ने चन्द्रकान्त की खूब खोज- खबर ली थी । अंत में चन्द्रकान्त जिन चीजों को छोड़कर चला गया था, उन सभी चीजों को लेकर लौटे थे । चन्द्रकान्त के पिताजी को छोड़ने के लिए अंशुमान नई दिल्ली रेल स्टेशन तक आया था । जाते समय पिताजी ने काफी दुःख प्रकट करते हुए कहा था - ’अंशुमान ! बेटे की कोई खबर मिले तो उसके बारे जरूर बताना।“
उसके बाद से विश्वविद्यालय के कैंपस में चन्द्रकान्त के बारे में कई बातें सुनने को मिली थीं । प्राध्यापक, छात्र और कर्मचारियों ने चन्द्रकान्त के नाम कई प्रकार के सच्चे-झूठे किस्से जोड़ना शुरू कर दिया था । किसी ने कहा था कि चन्द्रकान्त काफी दिनों से उदास लग रहा था । कोई कह रहा था कि उसकी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए पागल होकर कहीं भाग गया । उसने किसी अनजाने स्थान में आत्महत्या की है । आदि आदि ..... । अंशुमान सिविल सर्विस की परीक्षा में सफल हुआ था । आइ.ए.एस. के बदले उसे आइ.पी.एस. के लिए चुना गया था । उसे मालकानगिरि जिले के एस. पी. के रूप में नियुक्ति मिली थी ।
भूली-बिसरी यादों को समेट चुकने के बाद अंशुमान ने खुद को असहाय अनुभव किया था । उसने अपने ही दोस्त की हत्या की है । ओह, परिणति कितनी पीड़ादायक है। अंशुमान के हाथों कामरेड़ श्रीनिवास नहीं मरा था, मरा था जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय का सहपाठी चन्द्रकान्त। चन्द्रकान्त के पिताजी की बातें अंशुमान को याद आयीं । जमींदार पिता का एकलौता बेटा । उसने सोचा कि चन्द्रकान्त के गाँव के पास वाले थाने में कह कर उसके पिताजी का फोन नम्बर मँगवाये, और उन्हें खबर कर दे । लेकिन कौन-सा मुँह लेकर मैं उसके पिताजी को फोन करूँगा और कहूँगा कि मैंने तुम्हारे बेटे की हत्या की है । यह बात उसने निरुपमा को बता देना भी चाहा, लेकिन किसी को बता नहीं सका । वह चुप रहने के लिए मजबूर हुआ।
कंप्यूटर के पोर्टाल में चन्द्रकान्त के फोटो को फिर एक बार अंशुमान ने देखा । अपने पास रखे हुए पुराने फोटो के साथ बार-बार कंप्यूटर से मिलाया । बम की चोट से घायल शरीर के वही नाक, वही आँखें, वही होंठ हैं । चन्द्रकान्त के प्रति प्रेम और घृणा की एक मिलीजुली तथा उदासी से भरी एक भावना अंशुमान के चेहरे पर झलक रही थी । वह घृणा कर रहा था उन्हें, जो देश के भविष्य को बनानेवाले चन्द्रकान्त जैसे इंसान को गलत रास्ते में ले गये थे । चन्द्रकान्त के बूढ़े पिताजी के लिए उसे दुःख हो रहा था ।
उस समय अंशुमान के मोबाइल का रिंग टोन बज उठा । वह फोन निरुपमा का था । सुरीली आवाज में निरुपमा ने कहा – “मैं अभी टी.वी. के सामने बैठी हूँ । टी.वी. में मुझे अभी ताजा खबर सुनने को मिली । तुमने एक मोस्ट वॉन्टेड़ नक्सल नेता श्रीनिवास राव के साथ कई माओवादियों को मौत के घाट उतार दिया है । सफलता के लिए बधाई ! यूट्यूब, फेसबुक, ट्विटर में यह खबर वाइरल हो चुकी है । हाँ सुनो ! चन्द्रकान्त के बारे में कोई सूचना मिली क्या ? मैं अब कब तक उनका इंतजार करती रहूँगी । मेरा धीरज टूट रहा है ।“
अंशुमान सोच नहीं पा रहा था कि वह निरुपमा को क्या जवाब देगा । उसका गला रुँध आया । अपने आप उसके मुँह से एक वाक्य निकल पड़ा –
“तुम चन्द्रकान्त को भूल जाओ निरुपमा । मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूँ । तुम्हारे जवाब के इंतजार में रहा ।“
अंशुमान के इस तरह के अजीब प्रस्ताव से निरुपमा को आश्चर्य हुआ । वह कुछ समझ नहीं सकी । अंशुमान का प्रस्ताव उसे हँसी-ठिठोली की तरह लगा । फिर अगले ही पल उसने खुद से पूछा – अंशुमान उसका इम्तहान ले रहा है क्या ? उस समय टी.वी. के परदे पर आ रही एक और दिलचस्प खबर पर उसकी नजर पड़ी । खबर कुछ ऐसी थी – अंशुमान के हाथों श्रीनिवास राव नामक जो खूँखार आतंकवादी मारा गया है, वह वास्तव में अंशुमान का सहपाठी और अंतरंग मित्र जवाहरलाल विश्वविद्यालय का मेधावी छात्र कामरेड़ चन्द्रकान्त है ।
खबर सुन चुकने के बाद निरुपमा समझ गयी कि अंशुमान के प्रस्ताव में न हँसी-ठिठोली थी न छल-प्रपंच और वह उसका इम्तहान भी नहीं ले रहा था । कामरेड़ चन्द्रकान्त के लिए उसके मन में प्रेम और वितृष्णा का एक मिलाजुला भाव उभरने लगा । चन्द्रकान्त के लिए एक उसाँस भरते हुए वह फफक-फफक कर रो पड़ी । अंशुमान के प्रस्ताव का अब वह क्या जवाब देगी, उसी सोच में वह डूब गयी । अंशुमान सोच रहा था कि निरुपमा को अपना लेना ही चन्द्रकान्त के लिए उसका अंतिम प्रायश्चित होगा ।