चूड़िहारिनें (हिन्दी कहानी) : राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह

Chudiharine (Hindi Story) : Raja Radhikaraman Prasad Singh

तो एक वह भी अपनी दुनिया थी कि उठती जवानियों की अपने घर से बाहर किसी की नजर तक गुजर न थी। हमारे यहां नारी की सारी गतिविधि परिवार की परिधि तक ही रही। बस, कमसिनी में उसको कुछ पढ़ा-लिखा दिया गया ताकि रामायण पाठ कर सके, बाप या भाई को ससुराल से अपना हाल-चाल लिखकर भेज सके।

हां, तो उन दिनों सयानी हुई नहीं कि घर के बाहर कदम रखने की मनाही हो गई। बस, गोद के बच्चों की निगरानी और चूल्हे की धू-धू आंच पर चारों जून के भोजन की तैयारी। यही लगी-तिपटी उनकी जिंदगी की सारी गतिविधि रही। यह वह दिन थे जब कोई अच्छे घर की युवती, क्या हिंदू क्या मुसलमान, सामने किसी की नजर पर खुलने से रही। रेल का सफर है तो खिड़कियां बंद, फिटन या टमटम है तो पर्दे का घटाटोप। हमारे यहां पहली बार पर्दे से बाहर आने का अंजाम कैसे क्या हुआ- लीजिए, सुनिए वह आंखों देखी जानी-सुनी चीज।

दो चूड़िहारिनें। नहीं, अच्छे घर की रहीं। गांव की गई-गुजरी नहीं। दोनों ही अधेड़। खिचड़ी बाल, मुंह पर झुर्रियों की झुरमुट। सगी बहन तो वैसी न थीं, मगर रहीं एक ही तने की दो टहनी जैसे। दोनों ही सर पर चूड़ियां और जाने क्या-क्या साज शृंगार की रंगीनियां लिए घर-घर चक्कर देतीं, अंदर हवेली में जाकर अपनी चीजों का इजहार करतीं। वही दोनों की रोटी थीं, खानदानी ही रोजी। कुछ ही साल पहले शहर से यहां मुड़ आईं। दोनों के मियां अल्लाह के प्यारे हो चुके थे। रोटी गोश्त तो दूर, दो जून रोटी-दाल भी आसमान का फूल होने पर आई। अब आटे-दाल का भाव मालूम हो गया तो शहर से पल्ला छुड़ा गांव आने में ही अपनी पनाह देखी। शहर से तरह-तरह की रंग-बिरंगी सस्ती चूड़ियां, अंगूठियां, टिकलियां जाने क्या-क्या लिए आईं और एकाध ही साल में हर घर का दरवाज़ा खुल गया उनके लिए।

गांव की छाती को चीरती हुई लंबी सड़क है। दाईं ओर के सारे घर बड़ी के हिस्से रहे, बाईं तरफ छोटी के। कोई कानूनी बंटवारा नहीं, आपसी समझौता रहा। हां, चंद जाने-माने ऐसे भी घर रहे जो उस बंटवारे से अलग रहे। हमारे घर के दरवाज़े तो दोनों ही के लिए बराबर खुले रहे। दोनों में बहुत मेल-जोल भी रहा। हां, किसी के साथ कोई नई चीज आई तो फिर उसकी पूछ हर घर में संवर पाती। यो एक द्वंद्व खड़ा रहता दोनों के बीच, मगर वह कुछ ऐसा न था कि सिर पर चढ़कर बोल पाता। और जब फसल कटती तब घर-घर उनकी चीज़ों की बिक्री दून पर आती।

इस बीच बड़ी चूड़िहारिन का स्वास्थ्य जवाब दे बैठा। दमे का जोर, धुकनी चलती रहती हर घड़ी, सर पर चूड़ियों की पिटारी लिए गली-गली घंटों चक्कर देना जान पर आ जाता। छोटी बहन जो पड़ोस में ही रहती रही, सुबह-शाम जाकर बड़ी की खोज-खबर लेती रही ऊपरी जी से, मिजाजपुर्सी की रस्म अदा कर आती। उसके सितारे तो दून पर आ गए, मैदान हाथ आ गया, न रही वह तनातनी भी। बड़ी बहन उससे हाथ जोड़कर कहती कि लिए रहो हमारी चूड़ियों की पिटारी भी, फुर्सत की घड़ी किसी दिन हमारे क्षेत्र में भी चक्कर दे आती- आमदनी की एक अच्छी रकम तुम्हारे हिस्से रहेगी… मगर पत्थर नहीं पसीजा। सुनकर भी अनुसनी कर देती। उधर मैदान खाली पाकर अब वह उस ओर के घरों में भी लगी चक्कर देने, अपना माल खपाने।

आखिर बात छिपी कैसे रहती, बड़ी बहन तक पहुंच ही गई, और बढ़ते-बढ़ते उस बात में क्या-क्या शाखें फूट पड़ीं। बड़ी बहन गुस्से से फनफना उठी, मगर अपनी लाचारी, करे क्या? छोटी बड़ी से कटी-कटी रहने लगी। खुद गई दोनों के बीच वह खाई जो बढ़ती ही गई दिन-दिन। तभी एक नया गुल खिला। उसकी इकलौती बेटी रजिया ससुराल से आ गई। पीहर, अपनी मां के पास। उसके हाथ पीले हुए कुल पांच साल हुए होंगे, गोद भरी भी न थी, इधर सिर पर वह बिजली गिरी कि उसके शौहर अल्लाह के प्यारे हो गए। मां की बीमारी की खबर गई, डोली पर आ गई मां का हाल-चाल लेने। मां ने देखा, चलो अब यही हमारी जगह ले रखे। घूंघट की ओट रही, पर मुस्करा रही है जवानी जो अंग-अंग पर। इस सिन में और दिन में गली-गली एड़िया रगड़ना बड़ा वैसा-सा होता।

फिर क्या? मुहल्ले-टोले में एक नया आलम, एक नया मौसम छा गया जैसे। यह अंग-अंग पर यौवन का निखार और यह घर-घर खुलेआम रफ्तार। जवानों की आंखों में पलकें ही छिन गईं जैसे। लीजिए, अब घर-घर उसका इंतजार होने लगा। खुल जाते आंगन के किवाड़ पल में।

बड़ी चूड़िहारिन का पासा चित पड़ा। हाथ आ गई बाजी उसके। छोटी की तो सिट्टी-पिट्टी गुम। सरक गई उसके पांव तले की धरती। उसकी अब कहीं वैसी पूछ न रही। उसके अपने जाने-माने घरों के ग्राहक भी लगे कन्नी काटने। बस, दो-चार बड़े-बूढ़ों को लिए बड़ी बहन की इस नादानी पर आवाज़ कसती, दांत पीसती, खानदान की रुसवाई, अपने कौम की रुसवाई की दुहाई देती। जो भी सुनता है वही मुंह फेर लेता है।

अब भूत उतरकर छोटी बहन के सर आया। उसकी आंखों में लाल डोरे आ गए, फड़क उठे होंठ। चाहे कुछ हो, ईंट का जवाब पत्थर से देकर रहेगी वह। मगर वह टक्कर ले कैसे?… अपने घर में तो कोई जवान बेटी नहीं, बस एक नवेली बहू है। उसके सर पर चूड़ियों की, आईने-कंघी की पिटारी रख दर-दर की खाक छानना किसी हालत में उसे गवारा न था। बहू बिचारी सकपकाती रही। शौहर शहर में है, राज मिस्त्री का काम कर रहा है, उसकी मर्जी भी नहीं। मगर जब दाल-रोटी के लाले पड़ने पर आए, पर्दे का भूत उतर गया सिर से। बहू मकान से निकलकर आ गई मैदान लेने, और मैदान हाथ आते देर न हुई। अब चूड़ियां ही नहीं, शहर से नई चीजें भी किनारी, गोटे, टिकुली, सुईं, बिंदी, बटन, कंधी, क्या-क्या नहीं आ गए दो दिन में। चूड़ियों की खरीदारी लगी आसमान छूने। हर घर के दरवाज़े खुल गए उसके लिए। चूड़ियां पिन्हाने की कला में भी बेजोड़ निकली वह। बहुओं को हाथों में चूड़िया पिन्हाते नौजवानों की प्यासी नज़रें किवाड़ों की फाँक में लगी रहतीं। वह बन-संवरकर बाहर आती, होंठों पर मंद-मंदिर मुस्कान लिए, गालों पर गुलाब, बड़ी-बड़ी हिरनी जैसी आंखों में शराब भी। उसकी हर अदा में एक चौंका देने वाला अंदाज़ रहा। नस्तर की सी चुमन भी। कानों में बाली, गले में हँसुली, दोनों हाथों में रंग-बिरंगी चूड़ियों की अवली भी, लाल-पीली चुनरी, सतरंगी छींट की चोली- फिर क्या? आसमान से चंदा रानी ही उतर आई जैसे।

अब रज़िया बिचारी खोटा सिक्का होकर रह गई। उसके पल्ले जवानी तो जरूर थी; मगर खुशरंग की, नाज-अंदाज की वह मोहिनी नहीं। कहां वह गोरा-भभूका चेहरा, होंठों पर मुस्कान की सुहानी छटा, आंखों में नशा भी। वह शुहरत की सीढ़ी पर बढ़ने लगी, बढ़ती गई और बढ़ गई अपनी मंजिल पर। सारे गांव-जवार में लगी उसकी तूती बोलने। लेकिन वह मंजिल तो रज़िया के लिए अगम थी जैसे अपहुंच। पस्त हो गए हौसले, टूट गए सपने।

उन दिनों अपना बचपन ही रहा। ले-दे के चौदह या पंद्रह का सिन। हम दोनों भाई तो स्कूल में पढ़ते रहे। छुट्टियों में ही घर आते। माँ-दादी वहीं घर पर थीं। घर के अंदर कोई युवती नहीं, कोई सुहागिन नहीं। फिर भी रात की रात आंगन में चहल-पहल रहती। गांव की मालकिन का आंगन। गाने-बजाने का आयोजन तो आसमान चूमता। रात की रात एक से एक आतीं। गातीं, बजातीं, नचातीं भी। हां, गांव की ही बहू-बेटियां रहीं। खुशी-खुशी आतीं, कोई आनाकानी नहीं। और मालकिन के आंगन से खाली हाथ तो जाने से रहीं।

लीजिए, रज़िया एक रात हमारे आंगन में चूड़ियों की पिटारी की जगह अपना गला ही खोल बैठी, और गला खुलना था कि खिल गया एक नया गुल…खुल गया हर घर का बंद दरवाज़ा भी। गाने-बजाने के फन में वह ऐसी निराली निकली कि जो भी सुने उसके कदमों में माथा टेक दे। गांव से उस गांव चल पड़ी चर्चा बेजोड़। एक का चेहरा और दूसरे का गला- कौन उन्नीस है, कौन बीस… कोई क्या कहे, कैसे कहे। अब वह जिस दरवाज़े से जाती उसकी तलबी धरी रखी थी। लीजिए, अब दोनों की ही पूछ और पैठ की बन आई। चेहरा और गला – किसी का निशाना चूकने से रहा। कोई आंख बिछाए खड़ा है, कोई कान बिछाए। कहीं गले का बोलबाला है, कहीं चेहरे का। लीजिए, घर-घर इंतजार, दर-दर प्यार की पुकार भी- आओ, आओ, मेरी घनी-अँधेरी जिंदगी में चांदनी की पहली किरण बनकर आई हो तुम! अगर शाम के झुटपुटे में कहीं मौका मिल गया तो एकाध शोख, मनचले लपककर होंठ भी चूम लेते- तुम भी क्या याद करोगी कि कोई आशना था तुम्हारा। लो, यह पांच का नोट रखो…हां, हां, शरमा क्यों रही हो… तुम्हारी चितवन की चाहनी तो नशीली ही नहीं, नुकीली भी है।

दुर्गापूजा की छुट्टी में जब घर आए तब हर छोटे-बड़े की जबान पर यही चर्चा रही- जो है वह इसी रस-रंग के फव्वारे में सराबोर है जैसे। जवानों की तो बन आई है- बस, पांचों उंगलियां घी में आ गईं। दो-चार ऐसे भी हैं जो हाथ धो पीछे पड़े हैं आठों पहर। पर बड़े दिन की छुट्टी में घर आए तो पता चला कि दोनों ही जाने कहां गुम हो गईं… नहीं-नहीं, पर उग आए, उड़ गईं। हो सकता है उड़ा दी गईं। आस-पास के गांवों से भी अकसर उनका बुलावा आता। सर पर चूड़ियों की पिटारी लिए एकाध जानी-पहचानी लिए, हँसते-बोलते कहां-कहां न चक्कर दे आतीं। लौटते रात हो ही जाती। अकेली तो रहती नहीं, उनके एक-एक क़दम के पीछे जाने कितने…हां, उस रात जब आधी रात भी गुजर गई उनका पता नहीं, तब दोनों बड़ी-बूढ़ी छाती धड़की। भोर होते-होते तो लगे दिन में तारे दिखने। जो कल तक एक दूसरे का गला रेत रही थीं- लीजिए, आज गले से गला दिए, रोती-कलपती, छाती पीटती, हिलमिल गईं। पैसे के मोह में पड़ अपनी आबरू सरे बाज़ार न रखतीं तो आज सिर पर आसमान न फटता। गांव में घर-घर यही चर्चा रही महीनों। पर्दा तोड़ बाहर आने का यही अंजाम है। लो, मक्खी निगली है तुमने तो लहू उगलेगा कौन? हां, अफवाहें तो वैसे कितनी उड़ती रहीं। कोई बुरा बुनता है, कोई कुछ पर। पते की बात तो यह थी कि रंडियों के दलालों ने डोरी डाल उन्हें फांस लिया। आ गईं दोनों उनकी बनी-चुनी बातों में। कहां आसमान से सितारे लोढ़ लेतीं, कहां एक के पल्ले कलकत्ते की सोनगाछी आई, दूसरे के पल्ले काशी की दाल की मंडी।

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