चिंतामणि (कहानी) : डॉ. महिमा श्रीवास्तव

Chintamani (Hindi Story) : Dr. Mahima Shrivastava

'सुनिये, रात के ग्यारह बज रहे हैं, मनु अभी तक नहीं आया, उसे फोन करिये ना।'

नव्या बेचैन सी थी।

मोबाइल में व्यस्त अभय ने तनिक झुंझला कर कहा, 'आ जायेगा। तुम्हारा बेटा पच्चीस वर्ष का युवक है, बच्चा नहीं। चिंता मत किया करो'

नव्या को अनेक बार पति कहते ' तुम्हारा नाम नव्या नहीं, चिंतामणि होना चाहिये। स्वयं को तो चिंता कर कर के बीमार कर रखा है, घर का वातावरण भी खराब होता है।'

अब नव्या क्या बताये कि चिंता करना उसका शौक नहीं, शगल नहीं, अपितु विवश स्वभाव बन चुका है।

बचपन में जब से होश संभाला, माँ को बहुत बीमार देखा। सारे समय अस्पताल के चक्कर लगते रहते थे।

कम उम्र में ही माँ व फिर छोटे बहिन-भाई को संभालने का दायित्व अपने नन्हे कंधों पर उसने ले लिया था।

कभी वह अपनी माँ की नन्ही माँ बन जाया करती थी तो कभी छोटे भाई- बहिन की बड़ी समझदार दीदी।

स्नेही रूग्ण माँ को सब तरह से नव्या प्रसन्न करना चाहती थी। प्रतिवर्ष जब वह माँ को कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने का पुरूस्कार ला कर देती तो उन की प्रसन्नता का आर- पार ना होता। हर प्रतियोगिता में भी वह अग्रणी रहती।

नव्या का स्वभाव अब अंतर्मुखी व सदैव चिंतातुर रहने का सा हो गया था।

माँ को मरने ना देने की चिंता, प्रत्येक क्षेत्र में आगे रहने की चिंता, बहिन- भाई को बड़ा करने की चिंता।

किसी ने तब उससे ना कहा कि यह तो तुम्हारे हँसने- खेलने की उम्र है, काहे की चिन्ता?

प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो नव्या ने इंजिनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया। ईश्वर ने बुद्धि के साथ-साथ सौन्दर्य प्रदान करने में भी कृपणता नहीं बरती थी। मंझोला कद, चंदन सा रंग, तीखे नाक- नक्श आकर्षक थे, किन्तु सदैव उदास रहने की उसने आदत सी बना ली थी।

एक दिन कक्षा का सबसे हँसमुख, सदैव चहकने वाला सुदर्शन लड़का उसके पास आया।

'हम कुछ लोग आज पिकनिक पर जा रहे हैं, तुम चलोगी ना?' उसने पूछा।

उस दिन रिमझिम वर्षा सुबह से हो रही थी, मौसम बहुत सुहावना था। लोग क्या सोचेंगे, इस बात की चिंता करते हुए नव्या का गोरा मुख लाल हो गया। उस ने साफ मना कर दिया।

किन्तु कुछ घंटों बाद , वही लड़का अपने एक मित्र के साथ हॉस्टल आ धमका व उसे पिकनिक पर जाने के लिये मना ही लिया।

वहाँ सारी सखियों ने नव्या को अभय की बात मानने के लिए खूब छेड़ा।

इसके कुछ वर्षों बाद अपनी चिंताओं की बड़ी सी गठरी सहित नव्या उस लड़के यानि अभय से विवाह- बंधन में बंध गई।

इतने गंभीर स्वभाव वाली लड़की का भी प्रेम- विवाह हो सकता है, यह सब के लिए चिंता का विषय था।

कहाँ सौम्य, शान्त, धीर- गंभीर नव्या व कहाँ चुलबुला वाचाल अभय।

शनै:- शनैः प्रेम का नशा भी उतरा व अभय को नव्या का चिंतित रहना खटकने लगा। उसे यह कभी ना पता लगा कि उसी स्वभाव के कारण उसकी गृहस्थी सुचारू रूप से चल रही थी, दोनों संतानें पढ़ाई भली- भांति कर रहीं थीं, भविष्य के लिए बचत भी हो रही थी।

अभय व बच्चे नव्या से दूर होने लगे। नौकरी के बाद का समय नव्या घर में अकेले ही गुजारती, प्रतिदिन उसका मुख्य कार्य होता रात को पति व बच्चों के सुरक्षित घर लौटने की प्रतीक्षा व चिंता करना।

उसकी स्वयं की विलक्षण प्रतिभायें कुंठित हो ना जाने कहाँ गुम हो चुकीं थीं।रचनात्मकता भी चिंताओं की तेज बहाव वाली नदी में कब की बह चुकी थी।

एक दिन फेसबुक पर उसको अपनी बचपन की सखी व प्रतिस्पर्धी कृति का प्रोफाइल दिखा।

वह आश्चर्यचकित रह गई।

बचपन में गोलमटोल, सांवली सी लड़की अब छरहरी काया व दमकती त्वचा की स्वामिनी थी। एक बड़े बैंक में वह मैनेजर थी।

भिन्न स्थानों पर भ्रमण के चित्रों से उसका अकांउट भरा हुआ था।

उसने और भी सहपाठिनों को ऑनलाइन तलाशा व पाया कि अधिकतर सभी उम्र के प्रहारों को दरकिनार कर मस्त दिख रहीं थीं।

वर्षों बाद नव्या ने स्वयं को दर्पण में निहारा। 'हाय री चिंतामणि!'

उसके मुख से स्वतः एक निश्वास छूटा गया। सबकी चिंता करते-करते उसने स्वयं को बिसरा दिया था।

सुंदर मुख पर अनेक महीन रेखायें उभर आईं थीं। चिंता वाले हॉरमोनों के कारण व चिंतावश बेख्याली में खाते रहने से वजन भी शरीर पर चढ़ गया था।

बहिन- भाई सब उसका किया- धरा भूल चुके थे,अपनी- अपनी गृहस्थी में मस्त थे। पति व बच्चे अपने मित्र- सखाओं के हँसते- ठहाके लगाते, मस्ती भरे साहचर्य में सुखी थे।

'अरी पगली चिंतामणि, कुछ तो अपने पर दया कर, कुछ तो स्वयं से प्यार कर।'

दर्पण मानो चीख- चीख कर कह रहा था।

नव्या को रोते- रोते अपने 'चिंतामणि' नाम पर हँसी आ गई।

उसने तो इस नाम को भी एक मैडल की भांति धारण कर लिया था। उसने अपने को, सबको प्रसन्न व सुखी रखने का साधन बनाने का प्रयास किया था

तब भी उसके आस- पास वाले उससे प्रसन्न ना थे। उसके चिड़चिड़े स्वभाव के फलस्वरूप उससे दूर भागते थे।

ऊसने गूगल पर निकटतम मैडिटेशन सैंटर तलाशा व उसकी ऑनलाइन फीस भर दी।

तैरना उसकी प्रिय रूचि थी, पास के तरण- ताल की सदस्यता ले डाली।

ऑनलाइन कूचि, रंग, कैनवास भी मंगा डाला।

जैसे अब उसके पास समय व उम्र बहुत कम बची थी और करने को अभी बहुत कुछ था।

'ये लो, माँ आपने खाना नहीं लगाया, कहाँ जा रही हो?'

बड़े बेटे ने पूछा।

'चिंता की गठरी को बहा कर आने।' नव्या ने हँसते हुए कहा।

नवीन पथ पर अग्रसर होने का आत्मविश्वास उसके सुंदर मुख को दिपदिप कर रहा था।

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