चिकन (कहानी) : सुशांत सुप्रिय
Chicken (Hindi Story) : Sushant Supriye
यह एक ऐसे युग की कथा है जब किसी के पास दूसरों
के आँसू पोंछने की न फ़ुरसत बची है , न संवेदना ...।
आज-कल टेक्नोलॉजी बहुत तेज़ी से विकसित हो रही है।
तो क्या ' ब्लू-टुथ ' के माध्यम से हम थोड़ी-सी संवेदना
संवेदन-शून्य लोगों में भर सकते हैं ?
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" आज कुछ नॉन-वेज खाते हैं , स्वीटी । चिकन-शिकन हो जाए । " बिस्तर पर अँगड़ाई लेते हुए रजिंदर बोला ।
" आँख खुली नहीं जी और आपने फ़रमाइश कर दी । ले आना । बना दूँगी । "
बगल में लेटी सुमन बोली । प्यार से रजिंदर उसे स्वीटी कहता है ।
" ये हुई न बात ! " कहते हुए रजिंदर ने स्वीटी को अपनी ओर खींच कर जफ़्फ़ी डाल ली ।
" चलो , हटो जी । बच्चे उठ जाएँगे । " स्वीटी ने मीठी झिड़की दी ।
दरअसल रजिंदर वेजिटेरियन खाना खा-खा कर अकसर बोर हो जाता है । उसे माँसाहारी खाने का बड़ा शौक़ है । चिकन उसका फ़ेवरिट नॉन-वेज फ़ूड है । बटर-चिकन , चिकन-टिक्का , चिकन दो-प्याज़ा , चिकन-कबाब ...। चिकन से ज़्यादा लज़ीज़ उसे कुछ लगता ही नहीं है । लेकिन वह क्या करे अपनी स्वीटी का : ' आज मंगलवार है , नॉन-वेज नहीं खाना ' , ' अब नवरात्र शुरू हो गया है , घर में अंडा नहीं लाना ' , आदि सुन-सुन कर वह मन मसोस लेता है । स्वीटी अपने मायके से यही सब सीख कर आई है । हालाँकि रजिंदर को इन बातों में ज़रा भी यक़ीन नहीं है, लेकिन वह स्वीटी से बहुत प्यार करता है । इसलिए उसकी बात नहीं मान कर वह उसका दिल नहीं दुखाना चाहता ।
सुमन चाय बनाने के लिए किचन में जा चुकी थी । रजिंदर भी बिस्तर से उठा और आदतन बाहर का दरवाज़ा खोल कर अख़बार उठा लाया ।
" स्वीटी , चाय बालकनी में ही दे देना । बढ़िया हवा चल रही है । मैं यहीं बैठता हूँ । " यह कह कर रजिंदर ने कमरे से मूढ़ा उठाया और बालकनी में जा कर अख़बार खोल लिया ।
पहले पन्ने पर ही एक रोते हुए आदमी की द्रवित कर देने वाली तसवीर थी । उसकी आँखें गिड़गिड़ा-सी रही थीं । जैसे अपनी जान बख़्श देने की याचना कर रही हों । शीर्षक था : ' गुजरात दंगों के तेरह वर्ष ' ।
रजिंदर ने आज की तारीख़ पर निगाह डाली । आज 28 फ़रवरी , 2015 है ।
यह फ़ोटो किसकी है ? उसने आगे पढ़ना जारी रखा । लिखा था : ' क़ुतुबुद्दीन अंसारी दंगाइयों से अपनी जान की भीख माँगता हुआ ' । फ़ोटो के नीचे तेरह साल पहले की तारीख़ लिखी हुई थी : ' 28 फरवरी , 2002 '। साथ ही रॉयटर समाचार संस्था के उस फ़ोटोग्राफ़र का नाम भी छपा था जिसने यह तसवीर खींची थी -- अर्को दत्त । अख़बार में आगे नरोदा पाटिया और बेस्ट बेकरी के नरसंहारों का भी ज़िक्र था ।
फ़ोटो में क़ुतुबुद्दीन अंसारी की कातर आँखें देख कर रजिंदर का मन ख़राब होने लगा । ' हे रब्बा , सब पर मेहर कर ' -- यह कहते हुए उसने यह जानने के लिए अपना दिल कड़ा करके आगे पढ़ना जारी रखा कि उस फ़ोटो वाले बंदे का क्या हश्र हुआ । आगे पढ़ने पर उसे पता चला कि कि उस दिन क़ुतुबुद्दीन अंसारी को वहशी दंगाइयों से बचा लिया गया था ।
" शुकर है , रब्ब का । " यह जानकर उसने राहत की साँस ली ।
तब तक सुमन भी चाय और बिस्किट ले कर बाल्कनी में आ गई थी ।
" क्या हुआ जी ? कुछ ऐसा-वैसा पढ़ लिया क्या ? " क़ुतुबुद्दीन अंसारी की फ़ोटो देख कर उसने पूछा ।
" गुजरात दंगों के बारे में है । " रजिंदर बोला ।
" हाय , इस बंदे की आँखों में कितना डर है जी । " सुमन भी वह फ़ोटो देख कर द्रवित हो गई थी । उसने पूछा -- " ये बच गया था कि नहीं ? "
" शुकर है रब्ब का , स्वीटी । बच गया था । " रजिंदर ने राहत के स्वर में कहा ।
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चिकन लंच में बनना तय हुआ । बच्चों में भी उत्साह था । रजिंदर ने नहा-धो कर नाश्ता किया । कुछ और काम निपटाते-निपटाते ग्यारह बज गए ।
" स्वीटी , मैं दुकान से चिकन लेकर आता हूँ ।" दराज़ से अपना पर्स उठा कर बाहर जाते हुए रजिंदर ने कहा ।
" सुनो जी , दो पैकेट चिकन-मसाला भी लेते आना । " सुमन ने पीछे से आवाज़ दी ।
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रजिंदर जब ' जवाहर चिकन और मीट शॉप ' पर पहुँचा तब दुकान खुल चुकी थी । अंदर शो-केस में चिकन पड़े हुए थे ।
" क्या हुआ , भाई ? चिकन का रेट क्यों बढ़ा दिया ? " रेट-लिस्ट पर निगाह डालते हुए रजिंदर ने दुकानदार से पूछा ।
" बाऊ जी , हर चीज़ का रेट बढ़ रहा है । महँगाई भी तो देखिए । " दुकानदार बोला ।
" हम तो तुम्हारे रेगुलर - कस्टमर हैं ।" रजिंदर बोला ।
" चलो बाऊ जी , जो दिल करे दे देना । कितना लोगे ? " दुकानदार जान-पहचान वाला था ।
" दो किलो कर दो । " रजिंदर बोला ।
दुकानदार शो-केस में पड़ा चिकन उठा कर तौलने लगा तो रजिंदर ने उसे रोक दिया ।
" ये वाला नहीं । बाहर दड़बे में से मुर्ग़ा ले आ । फ़्रेश काट दे । "
दुकानदार अनमने भाव से उठा और दड़बे में से मुर्ग़ा निकालने लगा ।
" पूरा लेना पड़ेगा जी । " वह बोला ।
" चल , पूरा ही दे दे यार । पूरे का ही कल्याण कर देंगे । " रजिंदर ने कहा ।
वैसे भी आज छुट्टी का दिन है -- उसने सोचा ।
दड़बे में मुर्ग़े-मुर्ग़ियाँ भयातुर स्वर में चीख़ने लगी थीं । शायद उन्हें अपने पिछले अनुभव से यह अहसास हो गया था कि एक बार फिर उनमें से किसी एक की ख़ैर नहीं थी ।
दुकानदार ने उनमें से जिस मुर्ग़े को पैरों से पकड़ कर खींच कर दड़बे में से बाहर निकाला था वह बेतहाशा चीख़ और फड़फड़ा रहा था ।
तभी रजिंदर की निगाहें उस मुर्ग़े की कातर आँखों से मिलीं । और वह भीतर तक हिल गया । सन्न रह गया ।
दुकानदार उस चीख़ते-फड़फड़ाते मुर्ग़े को दुकान के पिछवाड़े ले जा कर काटने ही वाला था कि अचानक रजिंदर को जैसे होश आ गया ।
वह चिल्लाया , " सुनो भाई , रहने दो । मत मारो मुर्ग़े को । मुझे नहीं चाहिए चिकन । "
दुकानदार को कुछ समझ नहीं आया । वह बोला -- " क्या हुआ जी ? ये वाला पसंद नहीं है तो दूसरा मुर्ग़ा काट दूँ ? "
लेकिन तब तक रजिंदर दुकान से बाहर निकल कर अपनी कार की ओर बढ़ चुका था । उसे मितली-सी आ रही थी । मन न जाने कैसा-कैसा कर रहा था ।
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घर पर जब हैरान सुमन ने रजिंदर से पूछा कि वह चिकन क्यों नहीं लाया तो वह केवल इतना ही कह पाया -- " स्वीटी , मुर्ग़े की कातर आँखें बिल्कुल गुजरात दंगों वाले क़ुतुबुद्दीन अंसारी की गिड़गिड़ाती आँखों जैसी लग रही थीं ... । "