छुटकारा (कहानी) : ममता कालिया

Chhutkara (Hindi Story) : Mamta Kalia

मेरी समझ में नहीं आया मैं और क्या बात करूँ। मैंने अपने नाखूनों का विस्तार से निरीक्षण शुरू कर दिया। बड़े हुए नाखून बत्रा का खून उबालने के लिए पर्याप्त कारण रहे हैं। वह निगाह टमाटर के रस पर जमाये रहा। मेरे मुँह से एकदम सामने पेडस्टल पंखा चल रहा था और मेरे छोटे-छोटे बाल बराबर बगावत कर रहे थे। यह वैन्गर्ज की विशेषता थी कि विश्वविद्यालय वाली उसकी शाखा में कुर्सियाँ हमेशा टूटी, मेजें लँगड़ी और पंखे शरारती होते थे। गर्मियों की छुट्टियों में एक खास छात्र वर्ग की भीड़ होती, जो एम.ए. प्रीवियस के बाद फाइनल का घोखना तीस अप्रैल से ही शुरू करने में विश्वास रखती या जिन्हें और कहीं मिलने-मिलाने की सुविधा न होती, शायद लड़की के माँ-बाप अतिरिक्त अनुशासनप्रिय और लड़के के साथ उसके कमरे में कोई पार्टनर।

मुझे बत्रा के साथ यहाँ आना अजीब लगा था। पहले नहीं लगता था। अब इन दोनों वर्गों से हम बाहर थे। पिछले दिनों मेरे अनुसार हर पहली श्रेणी और उसके अनुसार दूसरी श्रेणी के छात्रों में गिने जाते थे।

बत्रा ने तीसरी बार वही पूछा, ‘और क्या किया वहाँ!’ मुझे लगा मैं बेवजह पुलिस-इंस्पेक्टर के दफ्तर में बैठा दी गयी हूँ।

‘देखो, मई-भर हम पढ़ते रहे, जून भर लिखते और आधी जुलाई में तो बस यहाँ जाओ, वहाँ जाओ, दम मारने की फुर्सत नहीं मिली। तुम्हें जवाब तक नहीं दे पायी। रोज सोचती रही, फिर सोचा ट्रंक-काल ही करूँगी। सच तीन दिनों तक लगातार कोशिश की, तुम्हारा टेलीफोन ही खराब पड़ा था।’

‘क्या-क्या पढ़ लिया?’

‘तुमने बड़ी तारीफ मारी थी आयनेस्को की। उसका ‘एमिडे’ बिल्कुल बकवास लगा। फिर नीग्रो कविताएँ पढ़ती रही, सच इतनी पुरअसर हैं, तुम्हें दूँगी।,

‘और?’

मेरी कैजुएलनैस चटखकर टूट गयी। बत्रा की आवाज में कोई फर्क नहीं था। वही ज्यादा जागे रहने की तत्परता, पर उसके विषय वाक्य मिलकर बातचीत नहीं बन रहे थे, वे कड़े लग रहे थे।

‘ऐसे क्यों बोल रहे हो?’

‘मैं क्या कह रहा था, दिल्ली में इस बार बहुत धूल उड़ी। सुबह उड़नी शुरू होती और रात तक उड़ती रहती। कभी-कभी हम लोग आश्चर्य करते, इतनी धूल आई कहाँ से। तुमने पीली धूल देखी है कभी, एकदम पीली!’

मुझे चिढ़ाया जा रहा था। मुझे कोई चिढ़ाये तो में एकदम चिढ़ जाती हूँ। पिछले साल लायब्रेरी से हम चार बजे चाय के लिए उठते थे। मेरे दिमाग में मिल्टन या हार्डी घूमता रहता और मैं भूल जाती थी कि चाय का समय रिफ्रेश होने का समय है। दो एक विषय आजमाने के बाद बत्रा मिल्टन पर ऐसे धाराप्रवाह बोलता है कि मैं कानों पर हाथ रख लेती थी। एक बार सिर्फ ‘प्रजेण्ट’ कहने पर एक प्रोफेसर के आपत्ति करने पर बत्रा उस क्लास में ‘सर प्रेजेण्ट सर’ कहने लगा था।

मैंने बत्रा को भरसक ठंडेपन से याद दिलाया कि धूल में मेरी रुचि कभी नहीं थी।

बत्रा कुछ कहते-कहते रुक गया और हँस पड़ा, ‘क्या हम हेनरी जेम्स पर बात करें?’

मैं चुप हो गयी। मैं घर जाना चाहती थी। असल में मैं आना ही नहीं चाहती थी। चलते हुए मुझे यही महसूस हो रहा था। फोन पर बत्रा को समय देते हुए मुझे लगा था जैसे मैं शून्य में शून्य से समय नियत कर रही हूँ।

मैं वहाँ किसी से न मिलने का कोई अनुबंध नहीं कर आई थी, ऐसे वायदों वाली कोई साँझ नहीं बीती थी, आखिरी भी नहीं, पर मिलने-जुलने से मुझे विरक्ति होती जा रही थी। बिना उल्लास के किसी से मिलना ऐसे लगता जैसे बिना नमक के खाना।

इस समय हम दोनों के गिलास खाली थे और हम थोड़ी-थोड़ी देर में खाली गिलास मुँह से लगाकर बर्फ के टुकड़ों का गीलापन महसूस कर लेते।

बत्रा ने छठी सिगरेट जलायी, ‘तुम चश्मा उतार कर बहुत छोटी लगती हो! मैं यह सुनने के लिए तैयार नहीं थी या शायद वह वाक्य एक दोहराहट थी। कहीं से आयी इसकी पहली अभिव्यक्ति कॉम्प्लिमेंट थी, यह दूसरे कमेंट। यह परिवर्तन सबने गौर किया था। माँ को मैंने यह कहकर संतुष्ट कर दिया था कि आँखें अब ठीक हो गयी हैं। परिचितों को पहली बार बता चला था कि मेरे चेहरे पर आँखें भी थीं। वैन्गर्ज़ में आकर बैठने को झुकी ही थी कि मैंने बत्रा की निगाहों में बैरोमीटर देख लिया। इसके लिए तैयार होते हुए भी मैं तैयार नहीं थी।

बत्रा को मैं स्वस्थ दिखी। मुझे पता था, तीन महीने में दस पौंड अतिरिक्त वजन देह पर सही जगहों पर स्पष्ट हो जाता है पर संकोच के मारे मैं झूठ बोल गयी।

‘चण्डीगढ़’ वाली बहन जी आयी हुई हैं।’ बत्रा ने बताया।

‘अच्छा, मैं आगे बोल नहीं पायी।

बत्रा की आँखों में एक पैनापन था, जिसकी वजह से मैं कभी उससे बहुत सारे झूठ एक साथ नहीं बोल पायी। वह कहता कुछ नहीं था। उसके होंठ हँसते रहते और आँखें निरीक्षण करती रहतीं। एक बार वह नाराज था कि मैं ओडियन समय पर क्यों नहीं पहुँची। दरअसल मुझे घर से निकलने में देर हो गयी थी और स्कूटर मिल नहीं पाया। टैक्सी लेने लायक उदारता मुझमें कम ही आती है, इसलिए बस से पहुँची थी–पैंतालिस मिनट देर से। मैंने कहा, ‘मैं सो गयी थी और देर से उठी। बत्रा चुप खड़ा रहा था। मैंने और जोर लगाकर बताया कि रात मैं बिल्कुल सो नहीं पायी थी और अगर दिन में भी न सोती तो अवश्य क्रैश कर जाती, मैंने नींद की गोली भी ली थी।

बत्रा ने बड़े आकर्षक तरीके से समझाया था, ‘झूठ खुद-ब-खुद होंठों से निकलना चाहिए। इतनी शक्ति सच बोलने में लगाया करो।’

मैं बत्रा के सामने ज्यादा देर चुप नहीं रहना चाह रही थी। कुछ लोगों की चुप्पी कोरी होती है, उन्हें पकड़े जाने का डर नहीं होता। मेरे चुप रहने पर मेरा मन मेरे चेहरे पर उभर आता था। किन्हीं कामों को मैं जबरदस्ती ‘हाँ’ भी कर देती तो घर पर कभी कोई मुझसे करवाता नहीं था। बत्रा के अनुसार मेरे चेहरे पर ‘न’ बड़ी जल्दी और बड़ा स्पष्ट लिख जाता था।

मैं बत्रा को हमेशा सात सिगरेटों के बाद रोक देती थी। अधिकतर तब हम फिर कॉफी या टोमैटो जूस मँगाते थे। बत्रा को आठवीं सिगरेट जलाते देख मुझे खुशी हुई। सिर्फ दोहराने के लिए दोहराना ऐसा हो जाता है जैसे पहाड़े रट रहे हों।

बत्रा इंतजार कर रहा था।

मैं भी इंतजार कर रही थी।

मैं जानती थी, वह स्वयं नहीं कहेगा। उसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा। जब उसने फोन किया था तब जरूर मुझे मालूम हुआ था कि वह एक माँग के रूप में आज का समय चाह रहा है। मैंने अपने आपको इसके विरुद्ध तैयार कर लिया था। यही एक शर्त थी, जिसे मन में रखकर मैं यहाँ आ गयी थी। पहले कुछ मिनटों में मुझे बत्रा जाँच-पड़ताल विभाग का अधिकारी लगा था पर फिर मैंने पाया हम दोनों हर बार उस ‘माँग’ को उलाँककर जा रहे थे और अपने आप में और उद्विग्न हो गए थे। यह अजीब था, पर अब मैं घर वापस भी नहीं जाना चाह रही थी। बत्रा के साथ दिन के इस समय बैठना थोड़ा अजीब था पर गलत नहीं। मुझे अपना वहाँ होना अनुचित नहीं लगा था। बत्रा के साथ अनुचित कुछ नहीं था। मुझे आज तक उसके साथ ‘बचाव’ वाली पद्धति की शरण नहीं लेनी पड़ी थी। मेरे मन में इस वक्त एक ईमानदार आकांक्षा थी। हमने अपने बीच सुस्ती के क्षण बहुत कम बिताये थे। मैं बत्रा को वैसे ही ‘ग्रिन’ करते देखना चाह रही थी, पर मुझे एक भी ऐसी बात नहीं सूझ रही थी जिससे मैं उसे हँसा सकूँ। हमारे दोस्त कहा करते थे कि हमारी दोस्ती इसलिए है क्योंकि हमारे दाँत एक एक-से-सुन्दर हैं और हँसते हुए हम दोनों होड़ लेते रहते हैं। मेरा बहुत मन था कि मैं बत्रा को खुश देख सकूँ, वह मेरे सामने वैसे ही पाँव फैला कर बैठ ले और सिगरेट के धुएँ में से अजीबोगरीब बातें ईजाद करे। धुआँ आज गम्भीर था।

मेरा मन दुखी हो गया। बत्रा इस समय खाली लग रहा था, दायें-बायें, अगल-बगल। पहले तो वह होता था और होतीं बेशुमार खबरें, अफवाहें, लतीफे, वाक्यांश, हंसी और तेवर।

खाली गिलास में सिगरेट की राख झाड़ता वह बीता हुआ कल था। हम साथ नहीं बैठे थे, सिर्फ बत्रा यहाँ बैठा था। उसे पता था मैं वहाँ नहीं थी और मेरी आँखों का फोकस हजारों मील दूर था। पर मैं बत्रा को हल्का महसूस करते देखना चाहती थी। मैं चाहती थी, वह ऐसे अकेला न हो, पर उसके लिए मैं कुछ कर नहीं सकती थी। किसी के अकेलेपन का मर्म समझ कर भी उसे बाँट न सक पाना करुण होता है। इतना गीलापन हमारे स्वभावों के विपरीत था।

‘बहन जी आयी हुई हैं, मैंने बताया न।’

‘हाँ, इस बार भी मैं कह नहीं पायी।

बहनजी के आने पर मैं रोज लाजपत नगर जाती थी। बत्रा को वापसी में स्कूटर चलाना हमेशा अच्छा लगता था।

बत्रा ने कहा नहीं, ‘चलें।’ उठकर खड़ा हो गया, माचिस समेटी, सिगरेट की डिबिया पिचका कर गिलास में फँसायी और मेरे साथ निकल आया। बिना सिगरेट के पूरे होंठों से उसने ‘बा-य’ कहा तो मैं गेट की ओर मुड़ गयी। वह लायब्रेरी वाली छोटी सड़क पर पहुँच गया था। अभी शाम बाकी थी। लायब्रेरी में बैठने वाले सभी विद्यार्थी अभी बाहर टहल रहे थे। हमने एक-दूसरे की ओर दूर से खुलकर देखा। गहरी शाम में बत्रा की क्रीम रंग की बुशर्ट सफेद नजर आ रही थी। उसका कद दूर से औसत से कम लग रहा था। वैगर्ज में उसके शरीर में एक कड़ापन था, वह अब ढीला हो आया था। दिन और रात के इस गाड़े संधिस्थल में हमें एक दूसरे की चाल ऐसी लगी जैसे डाक बाँट लेने के बाद खाली थैला हिलाते डाकिये की।

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