छुई-मुई (कहानी) : सुशांत सुप्रिय
Chhui-Mui (Hindi Story) : Sushant Supriye
(अब आप बड़े आदमी हो गए हैं।कार में चलते हैं।छुरी-चम्मच से खाना खाते हैं।विमान से देश-विदेश की यात्राएं करते हैं।कॉन्फ्रेंसों के दौरान पंच-सितारा होटलों में ठहरते हैं।एक पढ़ी-लिखी संभ्रांत स्त्री से आपका विवाह हो चुका है।लेकिन अपनी स्मृतियों का आप क्या करेंगे? कुछ स्मृतियां हैं जिनकी जड़ें अन्य सभी स्मृतियों से अधिक गहरी हैं।समय और स्थान की दूरी भी उन्हें आपसे कभी अलग नहीं कर सकती।अक्सर आपका मन आपको वहीं अतीत में लौटा ले जाना चाहता है जहां आपका एक अंश पीछे छूट गया है।जैसे काली रात में आकाश में बिजली कौंधने पर पल भर के लिए उजाला हो जाता है और आपको क्षणिक ही सही, सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है…।)
तो उस गांव में एक घर है जिसमें मैं रहता हूँ।उस घर के पुरुष जनेऊ पहनते हैं।उस गांव के बिना इमारत, बिना छत वाले स्कूल में एक मास्टर जी पढ़ाते हैं जिन्हें हम सुकुल मास्टर जी कहते हैं।मैं उस स्कूल में पढ़ता हूँ।उनके सोंटे से डरता हूँ।गांव के कुएं के चबूतरे पर खेलता हूँ।गांव के मंदिर में पिता जी के साथ पूजा करता हूँ।लेकिन गांव में ऐसे बच्चे भी हैं जो इस स्कूल में नहीं पढ़ सकते।जो कुएं के चबूतरे पर कदम नहीं धर सकते।जो गांव के मंदिर की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते।जो उस मंदिर में पूजा नहीं कर सकते।
एक दिन स्कूल के बाद मैं खेलता-खेलता मुसहर टोले की तरफ चला गया, हालांकि उधर जाना मना था।वहां एक नौ-दस साल की लड़की तालाब के किनारे मछली पकड़ रही थी।वह लड़की मुझे अच्छी लगी।
‘ऐ लड़की, हमसे दोस्ती करोगी? हमको मछली पकड़ना सिखाओगी? तुम्हारा नाम क्या है?’ मैंने धड़कते दिल से पूछा।
‘धनिया।’ उसने कहा। ‘हमको अपने साथ इस्कूल लेकर जाओगे?’
अच्छा है, स्कूल में इसका साथ रहेगा, यह सोचकर मैंने जल्दी से हां कर दी।हालांकि मुझे मां-पिता जी की बात याद आई कि मुसहर टोले में गंदे लोग रहते हैं, उधर नहीं जाना चाहिए।और यह सोचकर कि मैंने मुसहर टोले की एक लड़की को अपना दोस्त बना लिया है, मुझे डर भी लगा।कहीं भैया या दीदी ने देख लिया तो? मां-पिता जी को पता चल गया तो? लेकिन धनिया से दोस्ती का आकर्षण उस डर से बड़ा था।
फिर क्या था।मैं रोज स्कूल से लौटते समय कुछ देर के लिए मुसहर टोले के आगे गांव के बाहर उगे जंगल में धनिया से मिलने के लिए जाने लगा।कुछ ही दिनों में मुसहर टोले के कई और लड़के भी मेरे अच्छे दोस्त बन गए।कलुआ, बिसेसरा, गनेसी, रमुआ -सब धनिया के साथ वहीं जंगल में घूमते रहते थे।उनकी नाक बह रही होती थी।उनके कपड़े फटे हुए और गंदे होते थे।फिर भी वे मुझे अच्छे लगते थे।वे शहद के छत्ते में आग लगा कर शहद निकाल लेते थे, गुलेल से निशाना लगा कर उड़ती चिड़िया गिरा लेते थे।
‘हमको भी गुलेल चलाना सिखाओ न’ एक दिन मैंने ज़िद की।
‘तुम्हारे बाबू को पता चला कि तुम हम लोगों के साथ घूमते हो तो तुमको बड़ी मार पड़ेगी।’ धनिया बोली।
‘क्यों?’ मैं यह जानता था लेकिन मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा।
‘हम लोगों के साथ घूमने-फिरने से, हमारा छुआ खाने-पीने से तुम्हारा धर्म खराब हो जाएगा।’ बिसेसर बोला।
‘हम नहीं मानते।’ मैंने कहा।
एक बारह साल के बच्चे के लिए तालाब के पानी में चपटे पत्थर से छिछली खेलना सीखना, आम के पेड़ पर चढ़ना सीखना, गुलेल चलाना सीखना और मछली पकड़ना सीखना जैसे काम धरम के बारे में सोचने से ज्यादा जरूरी थे।यूं भी मुझे उनका साथ अच्छा लगता था।इसलिए घर पर पता चल जाने पर मार पड़ने का डर होते हुए भी मैंने उन सबका साथ नहीं छोड़ा।
एक दिन मैंने उनसे पूछा- ‘अच्छा बताओ, मुझे तुम सब लोग क्यों अच्छे लगते हो?’
इससे पहले कि मेरे बाकी साथी कुछ कह पाते, धनिया तपाक से बोली- ‘पिछले जन्म में तुम भी मुसहर रहे होगे, और का!’
‘न जाने क्यों यह सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा।’
‘ये कौन-सा पौधा है?’ एक दिन तालाब के किनारे घूमते हुए मैंने पूछा।पत्तियों को हाथ लगाते ही वे सिकुड़ जाती थीं, सिमट जाती थीं।जैसे शरमा कर खुद में ही बंद हो रही हों।
‘इ छुई-मुई है।’ धनिया बोली।
अगले दिन शरारत में ही मैंने धनिया के पेट में उंगली से गुदगुदी कर दी।वह हँसते-हँसते जमीन पर गिरकर लोट-पोट होने लगी।मैं भी उसके साथ जमीन पर बैठकर उसकी देह में उंगलियों से गुदगुदी करता रहा।इस सब के बीच मेरा मुंह उसके मुंह के करीब आ गया और मैंने उसे चूम लिया।उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया।लाज से उसकी देह ऐसे सिमट गई जैसे वह छुई-मुई की पत्ती हो।
‘अरे, तुम तो बिलकुल छुई-मुई जैसा करती हो।’ मैंने कहा।
‘धत्!’ यह कहकर वह वहां से भाग गई।
‘आज से हमने तुम्हारा नाम छुई-मुई रख दिया है।’ मैं चिल्लाया।
इसी तरह दिन बीतते रहे।एक दिन स्कूल के बाद जब मैं छुई-मुई और दूसरे दोस्तों से मिलने गया तो उन्होंने मुझे मेरा वादा याद दिलाया कि मैं उन सबको भी अपने साथ स्कूल ले जाऊंगा।अगले दिन के लिए बात तय हो गई।
अगली सुबह छुई-मुई और मेरे दूसरे साथी स्कूल के पास मेरा इंतजार कर रहे थे।उन्हें लेकर मैं सुकुल मास्टर जी के पास पहुंचा।उन्हें देखकर सुकुल मास्टर जी के माथे पर बल पड़ गए।
‘क्या है रे? आज देर से क्यों आया है?’
‘मास्साब, ये सब हमारे दोस्त हैं।ये भी हमारी तरह स्कूल में पढ़ना चाहते हैं।’ उनके सवाल का जवाब दिए बगैर मैंने कहा।
मास्टर साहब शायद उन सबके बारे में पहले से जानते थे।उन सबको जोर से डांटकर वे बोले- ‘भागो यहां से, ससुरो! अब मुसहर लोग भी स्कूल में पढ़ेंगे!’
यह सुनकर छुई-मुई की आंखों में आंसू आ गए।मुझे बहुत बुरा लग रहा था।पर मैं मास्टर साहब के सोंटे से बहुत डरता था।कलुआ, बिसेसर वगैरह मास्टर साहब को गाली देते हुए वहां से भाग गए।छुई-मुई भी रोते-रोते वहां से चली गई।
‘कुल का नाम खूब रोशन कर रहे हो, बबुआ!’ उनके जाने के बाद मुझे सोंटे से मारते हुए मास्टर साहब बोले।
उसी दिन उन्होंने मेरे पिता जी को सारी बात बता दी।उस रात घर पर मेरी खूब पिटाई हुई और छुई-मुई और मुसहर टोले के दूसरे दोस्तों से मेरा मिलना-जुलना बंद करवा दिया गया।
इस घटना के एक महीने के बाद पिता जी ने मेरा नाम शहर के स्कूल में लिखवा दिया और आगे की पढ़ाई के लिए मुझे चाचा जी के पास शहर भेज दिया गया।
‘गांव में रहकर यह बुरी संगत में बिगड़ रहा था।’ मुझे शहर तक छोड़ने आए पिता जी ने चाचा जी से कहा।
अब मैं साल में एकाध बार ही गांव आ पाता।वहां भी मुझ पर कड़ी नजर रखी जाती।मेरा मन छुई-मुई और दूसरे दोस्तों से मिलने के लिए छटपटाता रहता।
फिर स्कूल की पढ़ाई खत्म करके मैंने किसी दूसरे शहर में कॉलेज में दाखिला ले लिया।गांव आए हुए मुझे कई साल हो गए लेकिन मुई की छवि मेरे भीतर अब भी सुरक्षित थी।अब मैं बड़ा हो गया था।मेरी दाढ़ी मूंछें निकल आई थीं।मैं शेव करने लगा था।मेरे भीतर छुई-मुई से मिलने की इच्छा बलवती होती जा रही थी।किंतु फिर मेरी नौकरी लग गई।और मैं उधर व्यस्त हो गया।कई साल बाद पिता जी की मृत्यु के मौके पर जब मैं गांव लौटा तो मैंने पाया कि मेरा गांव अब पहले वाला गांव नहीं रह गया था।वह बहुत बदल चुका था।पिता जी के दाह-संस्कार के बाद मैं छुई-मुई और दूसरे साथियों के बारे में पता करने मुसहर टोला पहुंचा।
‘धनिया के साथ बहुत बुरा हुआ, बेटा।पैसा-रुतबा वाला लोगन का लड़िका सब ऊ के साथ मुंह काला कर के ऊ का गला घोंट दिया और लास को तालाब में फेंक दिया।’ मुसहर टोले के एक बुज़ुर्ग ने दुखी मन से बताया।
यह सुनकर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।मेरा गला सूखने लगा।मुझे सांस लेने में तकलीफ होने लगी।मुझे लगा जैसे मेरी उड़ान का आकाश हमेशा के लिए खो गया हो।
‘और बिसेसर, कलुआ वगैरह कहां हैं?’ मैंने किसी तरह खुद को संभालते हुए पूछा।
‘बेटा, ऊ लोग धनिया की मौत का बदला लेने गए।पर हत्यारा सब ने हमार सब बचवा को गोली मार दी।उहे रात ऊ सब का गुंडा लोग आय के मुसहर टोला में आग लगा दिया।’ बुज़ुर्ग की आंखों में अंधेरा भरा हुआ था।
‘और धनिया के मां-बाप का क्या हुआ?’ मैंने डरते-डरते पूछा।
‘ऊ बेचारे भी हमार टोला में लगी आग में जल के मर गए।’ बुज़ुर्ग ने रुंधे गले से बताया।
‘पुलिस ने कुछ नहीं किया?’
‘पुलिस तो पैसा-रुतबा वालन की सुने है।हम ही लोगन को डरा-धमका के चली गई।’
"तो यह था मेरे देश की इक्कीसवीं सदी का कड़वा सच!" हर गांव में खैरलांजी और मिर्चपुर।मैं वहां से खाली हाथ लौट आया।मुझे लगा जैसे मेरी दुनिया लुट गई हो।मैंने कोशिश की कि हत्यारों को उनके किए की सजा दिलवा सकूं।लेकिन हत्यारों की पहुंच ऊपर तक थी।एक बार फिर न्याय के सूर्य को ग्रहण लग गया।मैं छटपटा कर रह गया।लेकिन इस घटना से बेचैन होकर मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।मैंने गांव के बचे हुए दलित लड़के-लड़कियों के साथ अपने पुश्तैनी धन से शहर में अपना एक एन. जी. ओ. स्थापित किया जो प्रताड़ित दलितों और आदिवासियों के बीच जाकर उनके पुनर्वास लिए काम करता है और उनके अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करता है।
मैंने गांव में और तालाब के किनारे छुई-मुई के पौधे खोजने की बहुत कोशिश की, पर अब गांव में छुई-मुई का पौधा कहीं नहीं बचा है।गांव में जगह-जगह पक्के मकान बन गए हैं।बिजली के खंभे लग गए हैं।एक पक्की सड़क अब गांव को हाइवे से जोड़ती है।सुकुल मास्टर जी का देहांत हो चुका है।गांव के जिस बिना इमारत, बिना छत वाले स्कूल से मैंने अपनी शुरुआती शिक्षा पाई थी, उसकी जगह एक पक्के इमारत वाला स्कूल बन गया है।मुसहर टोले के उस पार उगा सारा जंगल कट चुका है।जहां पहले छुई-मुई उगती थी, उस जगह अब दुकानें बन गई हैं- मोबाइल सिमकार्ड, डिश टीवी और केबल टीवी वालों की दुकानें, कोका कोला और पेप्सी बेचने वाली दुकानें।तालाब का ज्यादातर हिस्सा सूख गया है।जहां थोड़ा-बहुत पानी बचा है, वहां काई की एक मोटी परत जमी हुई है।वहां अब बीमारी फैलाने वाले मच्छर पनपते हैं।
बस एक चीज नहीं बदली है- वह है गांव का मुसहर टोला।वह आज भी उतना ही उपेक्षित, उतना ही अलग-थलग पड़ा हुआ है।
एक दिन आठवीं कक्षा में पढ़ने वाला मेरा बारह वर्षीय बेटा अपनी ‘बायोलाजी’ की कापी लेकर मेरे पास आया।
‘पापा, ये ‘मुमोसिका पुडिका’ क्या होती है?’ उसने पूछा।
‘यह एक पौधा होता है जिसे ‘छुई-मुई’ कहते हैं।इसकी पत्तियों को हाथ लगाओ तो ये जैसे शरमा कर सिकुड़ जाती हैं।’ मैंने कहा।
‘कितना फनी नाम है, पापा! यह दिखने में कैसी होती है?’
कंक्रीट-जंगल वाले इस शहर में अब मैं तुझे क्या बताऊं बेटा कि छुई-मुई दिखने में कैसी होती है।अब तो गांव में भी छुई-मुई नहीं बची- मैंने मन में सोचा।
मुझसे अपने सवाल का जवाब नहीं पाकर वह बोला- ‘कोई बात नहीं, पापा।मैं इंटरनेट पर गूगल में ढूंढ़ लूंगा।’
(यदि आप मुझसे पूछेंगे तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगा कि बहती हुई नाक वाले बच्चे मुझे क्यों अच्छे लगते हैं।फटे हुए गंदे कपड़े पहने बच्चे मुझे आज भी क्यों अपने-से लगते हैं।ढाबों में काम करने वाले बच्चों और मुझमें क्या रिश्ता है। फुटपाथ पर जूते पॉलिश करने वाले बच्चों में मैं किन्हें ढूंढ़ता हूँ।लाल बत्ती पर गाड़ियों के शीशे साफ करने वाले बच्चों को मैं क्यों हर बार बीस-बीस रुपयों के नोट पकड़ा देता हूँ।इन्हें देखकर मैं क्यों उदास हो जाता हूँ।क्यों मेरा मन करता है कि मैं किसी तरह इन्हें इनका खोया बचपन वापस लौटा सकूं।यदि आप मुझसे यह सब पूछेंगे तो मैं आपको वाकई यह नहीं बता पाऊंगा कि मुखौटा लगाए, पढ़े-लिखे, तथाकथित सभ्य, साहब लोगों के बीच मैं क्यों एक मिसफिट हूँ।धनाढ़्य लोगों के बीच मैं क्यों एक अजनबी हूँ।तथाकथित ऊंची जाति वाले लोगों के बीच मैं क्यों खुद को एक विदेशी जासूस-सा महसूस करता हूँ।छुई-मुई के प्रदेश से।छुई-मुई के काल से।छुई-मुई की जमात से…)