छोटी बहू : रोज केरकेट्टा

Chhoti Bahu : Rose Kerketta

"ए...बहू, क्यों ऐसे चुपचाप भागे जा रही है? लौट आओ। परसों ही तो आई होफिर ऐसा क्या हो गया? हाँ, क्या हो गया, जो जाने की जरूरत पड़ गई?

'नहीं माँ, मुझे मत लौटने को बोलिए ...मैंने अपने माँ-बाप के घर में कभी भात नहीं खाया है। इसलिए यहाँ का भात गले से नीचे नहीं उतरता है। इसलिए मेरा दिल यहाँ रहने को नहीं करता।' 'हाँ बेटी मेरी, आखिर तुम्हें कौन कठोर बातें बोलता है, तुम्हारी गोतनी।'

'नहीं माँ, "मैं ही नहीं रहना चाहती। किसी ने मुझे कुछ नहीं कहा है।' सहानुभूति ने उन दोनों को नजदीक ला दिया। वे सास-बहू से माँ-बेटी बन गई। आप से तुम पर उतर गई।

'लौटो तब, परसों गोमहा परब है। परब यहीं मनाओ। हम सब साथ मनाएँगे। सारे बाल-बच्चे एक साथ रहेंगे। क्या होगा? ठीक होगा न?'

'ऐसा कर पाना असंभव है माँ! मुझसे तो नहीं ही होगा।'

मठा की पत्नी शनिवार की दोपहरी में बघलता टोंगरी-पतरा के नीचे-नीचे जा रही थी। उसने अपने पहनने के कपड़े ले रखे थे। वह चुपचाप छिप-छिपकर जा रही थी। उसी समय उसकी चाची सास ने उसे रास्ते में पा लिया। सास उसे वापस चलने के लिए गुहार करने लगी। सास बुनी दिल की नरम थी। सबको समेटकर रखना चाहती थी।

बुनी मठा लोगों के घर की तरफ आ रही थी। गोड़ा अगहन का समय था। बुनी काकी खेत अगोरने आती थी। पूरा गोड़ा खेत काटने के लायक हो गया था। उस दिन भी दोपहर को खाना खाकर काकी खेत आ रही थी कि मठा बहू रास्ते में मिल गई। काकी उसे लौटाते हुए अपनेआप बोलने लगी, 'भोर के समय ही मैं देखकर गई थी। सब ठीक-ठाक था। बात-बात में क्या होता है, क्या नहीं। उसके मन में बहू को न लौटा पाने का मलाल था। वह सीधे भतीजे के घर गई। मठा घर में नहीं था। लेकिन उसका बड़ा भाई पीढ़े पर बैठा भोजन कर रहा था। काकी को देखकर उसने अपनी बेटी को पुकारा, 'ए मइया पुटी... अपनी दादी के लिए पीढ़ा ला दो।'

दादी, 'ये दालान अच्छा बना है बैठने के लिए' बोलते हुए बैठ गई।

मठा के बड़े भाई ने कहा, 'पीढ़े पर बैठो चाची। जल्दी लाओ पुटी। नहीं तो दादी जमीन पर ही बैठ जाएगी।' पुटी पीढ़ा ले आई। दादी पीढ़े पर बैठ गई और पूछना शुरू किया, 'तुम लोग आपस में क्या करते हो?' क्यों, मठा की बहू रूठकर नैहर जा रही है?

मठा का बड़ा भाई बोला, 'किसको क्या हुआ काकी?

काकी, 'पता नहीं तुम्हीं लोगों को क्या होता है? मैंने तो बहू को कई बार पूछा। लेकिन वह कुछ नहीं बताती है। बस पूछने की देर थी। रझ-रझ आँसू बहाने लगी।'

'लौटाकर लाती। हम तो दिनभर खेत में रहते हैं। इधर ये लोग नैनी-गोतनी क्या करते हैं हम क्या जानेंगे?'

मठा के बड़े भाई की पत्नी काकी-भतीजा की बातचीत को घर के अंदर से सुन रही थी। काकी-भतीजा की बातें उसे कड़ाह में लावा फूटने की तरह लगीं। अपनी निंदा सो भी परोक्ष में, कोई कैसे सुन सकता है? उसने तो सोचा था कि उसके पति उसका पक्ष लेंगे! लेकिन यहाँ तो बात ही उलट गई है। वह स्वयं को निष्पक्ष बताकर उसके सिर सारा दोष मढ़ रहे हैं। उससे रहा नहीं गया। वह कमरे से बाहर नहीं आई। अंदर से ही बोली, 'मैं क्या करूँ यदि वह चुपके से भागती है तो? देखिए माँ, थोड़ी सी बात भी उसे गहरी चोट पहुँचाती है। वह अंडा है अंडा। उसे सँभालकर रखना है। थोड़ी सी ठोकर लगने से भी वह फूट जाएगा।'

मठा के दादा ने कहा, 'मैं इसे बोलता रहता हूँ, उससे थोड़ा प्रेम से बोलो। आखिर वह तुम्हारी बहन बनकर आई है। लेकिन यह मेरी बात क्यों सुनेगी? इतने दिनों तक तो स्वयं ही देवरानी लाने के लिए ढूँढ़ती फिर रही थी। अब आ गई है तो दोनों के सींग नहीं समा रहे हैं। एक-दूसरे के लिए क्या कमी है, कैसे कोई जानेगा?'

काकी, 'पता नहीं अब कैसा जमाना आ गया है? हमलोग तो इतनी-इतनी गोतनियाँ थीं। कभी एक-दूसरे से बोला-बोली नहीं हुए। तुम लोगों का जमाना आया तो बस दो दिन बीतने की देर है, आपस में ठेना-ठेनी शुरू हो जाता है।'

मठा के दादा खाना खाकर उठने को हुए। पानी पीकर उठे। बाहर गए। हाथ धोया। अच्छी तरह से कुल्ला किया। फिर आकर अपनी जगह पर बैठ गए और हाथ पोंछने लगे। पुटी की माँ से जूठा बरतन उठाने को कहा। जब पुटी की माँ ने बरतन उठा लिया, तब बोले, 'हाँ काकी, दो थाली, जब टकराते हैं, तभी तो आवाज होती है। अगर सिर्फ वही उटपटाँग बोले और तुम जवाब न दो तो वह कब तक बोलेगी? तुम ने कुछ तो कहा ही होगा?'

पुटी की माँ बड़े कर्कश स्वर में बोली, 'हाँ, बोलो, मैंने क्या कहा होगा? मैं तो काट खानेवाली हूँ! कोई काम न जाने, उसे सिखाने के लिए बोलूँ तो वह भी बुरा लगता है!'

ठंढे लोहे पर भी लगातार हथौड़ा चलाओ तो वह गरम हो जाता है। पुटी की माँ तो पहले से ही गरम हो रही है। उसमें तो ठंढा पानी ही डालना उचित होगा। मठा के दादा ने बड़े प्रेम से मुलायम स्वर में कहा, 'मैं तो तुमसे सिर्फ पूछ रहा हूँ। घर-दरवाजे में क्या होता जाता है, इसे भी न पूछूँ?'

पुटी की माँ का तेवर पति की नरमी से भी कम नहीं हुआ। पहले की तरह ही तीखे स्वर में बोली, 'वही मैं भी बता रही हूँ। मैं कटखनी हूँ। काटती हूँ, इसीलिए मेरे साथ कोई भी नहीं रहना चाहती है।'

दादा, 'वर्ष बीता ही नहीं और बरतन आपस में टकराने लगे।'

पुटी की माँ, 'देखिए माँ, आप ही बताइए। मैं इस घर में जब से आई हूँ, तब से किसके साथ मेरा झगड़ा हुआ है?'

काकी को उम्मीद नहीं थी कि उसकी बहू सिर्फ पूछने के कारण इतना क्रोधित होगी। मठा के माता-पिता यानी बहू के सास-ससुर तो कबके मर चुके थे। उसके बाद इस बहू को लाया गया था। तब से बहू ने अपने अनाथ देवर-ननद को माँ की तरह पाला है। घर-दरवाजा, रिश्ते सब टूट रहे थे। सबको इस बहू ने सँभाला था। रिश्तों को नए सिरे से जोड़ा था। वह अपनी समझ-बूझ के कारण सब की प्यारी थी। सो काकी ने नरम होकर कहा, 'नहीं बेटी, किसी से नहीं। तुम में न तो झगड़ा करने की इच्छा थी, न सताने-डाहने की। मैं झूठ-मूठ का क्यों दोष लगाऊँगी?'

बहू, 'आपके बेटे की बातें तो आपने सुन ली न!'

पति, 'पूछ ही लिया तो मैंने कौन सी गाय मार दी? बाप रे इसका उफड़ना!'

पत्नी, 'तुम बताओ, मैंने क्या कहा है?'

पति, 'पिता नहीं हैं। परिवार में उनकी जगह पर मैं हूँ। घर में कुछ भी होता है, बाहर तो मुझे ही सुनना पड़ता है। अगर मैं ही घर की बातों को नहीं जानूँगा, नहीं सुनूँगा तो काम कैसे चलेगा? मेरी जवाबदेही इस घर के प्रति है।'

'ठीक है, आज से मैं किसी को कुछ नहीं बोलूंगी।'

ये बातें हो रही थीं। उसी समय मठा हल जोतकर आया। उसने अपनी भौजी की बातें सुन लीं। मठा हट्ठा-कट्ठा जवान लड़का है।

कंधे पर अंकुस है, जिसे उसने बाएँ हाथ से पकड़ रखा है। दाएँ हाथ में फाल और सोंटी (छड़ी) पकड़े हुए है। हल जोतने के कारण पूरा शरीर पसीना और धूल से सना है। घर घुसकर उसने कोने में अंकुस, फाल और सोंटी को रखा। रस्सी को छत पर खोंसे गए डंडे में टाँग दिया। फिर पीढ़े पर बैठते हुए भौजी को बोला, 'अगर बात नहीं करनी है तो मत करो, लेकिन मुझे खाना तो दो।'

भौजी बोली, 'कौन तुम्हारे लिए खाना परोसेगा, पुटी की चाची तो नैहर भाग गई?'

मठा, 'भागती है तो भागे, मैं दूसरी लाऊँगा। दो भौजी खाना, अभी मेरा ध्यान पेट की तरफ है।'

'मैं तो खाना दूंगी ही, लेकिन हाथ-मुँह तो धो लो। आदमी डाड़ी-खेत जोत कर भी बिना नहाए आता है?'

मठा अपनी भौजी को बहुत मानता था। उसके जाते ही गड़सांड़ी के पास जाकर, तुरंत पानी ढालकर नहाया और आकर पीढ़े पर बैठ गया। भौजी ने मठा की बातों से परख लिया कि उसका देवर अब भी वैसा ही मानता है, जैसा पहले मानता था।

भौजी ने थाली रखते हुए कहा, 'उसे लाने जाना।'

काकी भी बोली, 'तो क्या तुम जिंदगी भर सुखमूड़ देते रहोगे?'

मठा, 'और क्या करना है? कौन उसके पीछे-पीछे लगा रहेगा?'

गाँवों में एक से दूसरी जगह जाना होता है तो लोग हाट देखकर जाते हैं। हाट में उस गाँव के लोग भी आते हैं, जहाँ किसी को जाना होता है। इसलिए हाट मिलने का केंद्र होता है। जंगलबाट में बेरा-कुबेरा हो जाए तो बदमाशों और जंगली जानवरों से भेंट होने का डर रहता है। बरसात में तो यों भी नदी 'आओ निकट' कहती है। मठा भी बोलबा बाजार लगाकर अपनी ससुराल गया। उसे आया देखकर उसकी साली बहुत प्रसन्न हुई। सास ने बैठने के लिए चारपाई बिछा दी। साली ने थाली और लोटे में पानी लेकर पैर धोए। इसके बाद पीने को पानी दिया। स्वागत रस्म पूरी हुई। सास-दामाद में दुखम्-सुखम् पूछा-पूछी हुई। इस बीच दरवाजे की ओर मठा चोर नजरों से देखता रहा। लेकिन मागी उसकी पत्नी की परछाई तक नहीं दिखाई दी। मागी बाहर निकली ही नहीं।

रात का खाना समाप्त हुआ। सोने से पहले थोड़ी देर फिर सास-दामाद के बीच बातें हुई। दामाद ने सास से कहा, 'कल दोपहर का खाना हमें जल्दी ही करा दीजिएगा। बरसात का दिन है। डोंगा घाट में डोंगइत भी रहेगा। शाम होते-होते तो वे चले जाते हैं। सो दोनों जने जल्दी निकलेंगे।'

मठा ने देख लिया था कि रसोई की तरफ मागी अँधेरे में ओसारे में खड़ी है। वह छिपकर उन दोनों की बातें सुन रही है। जाने की बात सुनते ही मागी चुप नहीं रह सकी। उसने तेज स्वर में कहा, 'मैं तुम लोगों के घर नहीं जाऊँगी। क्या कबाड़ने जाऊँगी तुम्हारे घर?'

मठा, 'तुम दोनों गोतनियों के बीच क्या होता है, हमें नहीं मालूम। मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि तुम्हें लेने आया हूँ और तुम्हें लेकर ही जाऊँगा।' ।

'मैं क्या पागल हो गई हूँ, जो कल तुम्हारे साथ चली जाऊँगी?'

मठा सास से बोला, 'मेरी भौजी से पूछते हैं तो वह भी नहीं बताती है कि दोनों के बीच क्या हुआ।'

मागी, 'वह क्या बताएगी? उसने तो कुछ किया ही नहीं है। वह तो मैं ही हूँ, जो कुछ भी नहीं जानती!'

माँ, 'ठीक से बात करो न! मर्द क्या जानेंगे, घर में क्या होता है, क्या नहीं। वे तो दिन में घर में नहीं रहते हैं।'

मागी, 'ऊँह। कुछ भी होता है तो माँ-बाप से ही साटते हैं। अगर मुझे माँ-बाप के घर ही रहना होता तो मैं क्यों उनके घर जाती?'

मठा ने यह सुना। समझाने के खयाल से उसने कहा, 'क्या करोगी, वे बड़ी हैं। अगर एक-दो बात कहती हैं तो उससे कुछ नहीं बिगड़ता है। वे मेरी माँ की जगह पर माँ हैं। उन्होंने मुझे पालपोसकर बड़ा किया है।'

मागी, 'उसने तुम लोगों का पालन-पोषण किया है, मेरा नहीं।'

मठा, 'वही तो हमलोग पूछते हैं तुमसे। आखिर उसने ऐसा क्या कह दिया?' मठा ने अपनी पत्नी द्वारा भौजी को 'उस' कहने से बुरा माना। अब तक भौजी माँ की तरह थीं उसके लिए। सास को सुनाते हुए उसने कहा, 'माँ, मेरी भौजी ने ही इसे पसंद किया था। गाँव के लोगों ने तो मना किया था कि परिवार के छोटे लड़के से परिवार की छोटी लड़की का विवाह नहीं किया जाता है। उससे अनर्थ होता है। उसने तो नहीं माना। अब खुद समझे।'

फिर पत्नी की ओर मुड़कर बोला, 'साफ-साफ कहो, आखिर भौजी ने क्या कहा है?'

मागी, 'दूसरी गालियाँ नहीं हैं क्या? हर बात में तुम्हारे माँ-बाप के घर यही सीखी, ऐसा ही खाते हैं, बोलते रहती है।'

मठा, 'बोलती है उसका बुरा मत मानो। वह ताना नहीं कसती है। प्रेम से ही ऐसा बोलती है।'

मागी, 'मेरे माँ-बाप के घर अगर नहीं है तो वहाँ से घटी पूरा नहीं करते हैं। कुछ भी हो तो हजार बातें सुनाती है।'

मठा, 'जाने दो। बड़ी हैं। एक-दो बात बोलें तो बुरा मत मानना। मैं दादा को बताऊँगा। सुबह जल्दी ही निकल जाएँगे।'

मागी, 'ठीक है।'

दूसरे दिन खाना खाकर जल्दी ही मठा और मागी घर से निकले। मंद-मंद हवा बह रही थी। जंगल-झाड़ में पक्षी दोपहर को आराम करते हुए चहक रहे थे। पीपल, पकरी के फल पक रहे थे। सो पेड़ के नीचे गाय-बैल, बकरी और चरवाहे भरे थे। ऊपर पक्षी फल खाते, नीचे गिरता तो जानवर खाते। चरवाहे चराने से मुक्त होकर गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। मागी आगे-आगे चल रही थी। उसके पीछे मठा चल रहा था। मठा मागी की खुशामद करते हुए बोला, 'क्या करोगी रे, छोटे-छोटे थे, तब माँ-बाप हमें छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। तब इसी भौजी ने हमें पाला-पोसा है। माँ-बाप की तो हमें याद भी नहीं है।'

'हाँ, लेकिन हर बार ताने देना और कर्कश बातें बोलना। सहा नहीं जाता है। निकलते-घुसते उसका मेरे साथ यही व्यवहार रहता है।'

'हाँ, मेरी भौजी भी थोड़ा भूल करती है।'

'तुम तो बैल ही हो। बैल की तरह खटते हो। बैल की तरह हर हाँक को सुनते भी हो। तुम क्या समझोगे ऐसी बातों को?'

बरसात का मौसम है। लेकिन आज बादल नहीं है आसमान में। सूरज चमक रहा है। बहलाते हुए मठा मागी को घर तक ले आया। ठीक खाना बनाने का समय हो गया था। दोनों ने घर पहुँचकर हाथ-पैर-चेहरे धोए और थोड़ी देर आराम किया। इसके बाद मागी रसोई में घुस गई।

गाय-बैल गोशाले में घुसाने का समय हो गया। बड़े भाई ने गाय-बैलों को गोशाले में बाँध, अपनी बहू को देखकर बोला, 'जरा पानी पिलाइए बहू। बहुत प्यास लगी है।'

मागी ने डुभा में पानी लाकर जेठ के सामने जमीन पर रख दिया। फिर दोनों हाथों से झुककर जोहार किया।

जेठ, 'दोनों कब यहाँ पहुँचे?'

मागी, 'बस थोड़ी देर पहले दादा!'

'सब उधर ठीक-ठाक है?'

'आजकल तो सब भले-चंगे ही हैं।'

जेठ-भावो की बातें हो ही रही है कि बड़ी गोतनी अपनी बेटी पुटी के साथ पहुँच गई। चाची को देखकर माँ-बेटी दोनों प्रसन्न हुई। मागी ने भी प्रसन्नता जताई। थोड़ी देर खूब हल्ला-गुल्ला, हँसी मजाक हुआ। फिर जेठ ने कहा, 'खाना बन गया है तो खिला दें बहू! मैं जरा महतो के पास हो आऊँगा।' सुनने के साथ मागी ने सबके लिए खाना परोसा। भोजन की थाली तो रखी, लेकिन भात गीला था। सबने एक-दूसरे को देखा और हँस दिए। इधर लोग हँसे और उधर मागी को क्रोध आ गया। कल गोमहा परब है। आज पूर्णिमा का चाँद आकाश में चमका। लेकिन तुरंत बादल ने ढंक लिया। मागी ने मठा को कहना शुरू किया, 'बस ऐसे ही मुझे सताते हो। आते ही तुम लोगों ने शुरू कर दिया।'

जेठ बीच में पड़ते हुए बोले, 'इन दोनों की ऐसी ही आदत है। इसे मत लिये फिरें।' उन दोनों से भी उसने कहा, 'जब-तब हँसी-मजाक मत किया करो। बहू है तो बहू जैसा ही रखो।'

मागी, 'हाँ लेकिन दिल में तो चोट लगती ही है।'

जेठ, 'चार आदमी घर में हों तो कभी-कभी ऐसा ही होता है। आप बुरा न मानें।'

रूठते, एक-दूसरे पर नाराज होते हुए अगहन पहुँच गया। कटनी-मिसनी पूरा हुआ। पूरा काम ठीक-ठाक हो गया। लेन-देन सब पूरा हो गया।

माघ पूर्णिमा आ पहुँचा। घर में पीठा छाना गया। किसी को छककर खाने को मिला, किसी को नहीं। सब शाम को जतरा खेले। अखड़ा के आसपास मागी अपनी हमजोलियों से बोलती फिरी, 'मैं तो किसी को अपने घर बुलाकर नहीं ले जा सकती हूँ। मैं तो बाहर-ही-बाहर हूँ। मेरा हाथ-पात नहीं न है।'

दूसरे दिन शाम को लोगों ने देखा मागी के कमरे की छत से धुआँ उठ रहा है।

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