छिन्नमस्ता (असमिया उपन्यास) : इंदिरा गोस्वामी
Chhinnmasta (Asmiya Novel) : Indira Goswami
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित असमिया की प्रतिष्ठित कथाकार इन्दिरा गोस्वामी के उपन्यास छिन्नमस्ता को असमिया पाठक-समाज में एक असाधारण सृष्टि कहा-माना गया है। यह उपन्यास शक्तिपीठ कामाख्या की पृष्ठभूमि में 1921 से 1932 की अवधि की घटनाओं पर आधारित है, लेकिन कहीं-कहीं इसकी कथावस्तु अपने अतीत को भी समेटती है। दरअसल कामरूप कामाख्या के इतिहास, वहाँ की परम्परा और लोक-गाथाओं का गम्भीर अध्ययन करके इन्दिरा जी ने इस उपन्यास में एक बड़े फलक पर छोटे-बड़े अनेक रंगारंग चित्रों को बड़ी कलात्मकता के साथ उकेरा है।
दो विरोधी विचारधाराओं- अहिंसा और हिंसा- के टकराओं के बीच गरीबी, निरक्षरत, अज्ञान और अन्धविशावसों से घिरे कामरूप के जन-जीवन की सच्ची कहानी।
प्रस्तुति
मठों और मंदिरों से समृद्ध असम के देवीपीठ आदि स्थलों एवं सम्बद्ध
चरित्रों पर लिखी गयीं’ सर्जनात्मक रचनाएँ बहुत हैं, यद्यपि
रजनीकान्त बरदलै का ‘ताम्रेश्वरी का मन्दिर’ एक अनूठी
रचना है। मन्दिरों से जुड़ा हुआ प्राचीन इतिहास, वहाँ की धार्मिक और
सांस्कृतिक परम्पराएँ, प्राकृतिक परिवेश और सबसे सम्बन्धित लोगों के
रोज़मर्रा के जीवन पर सार्थक साहित्य की सृष्टि हो सकती है। ऐसी रचनाओं के
अध्ययन से हम प्राचीन इतिहास, शिल्पकला, चित्रकला, लोककला, लोकगाथा,
लोकविश्वास और सामाजिक परम्पराओं के, उनके विभिन्न तथ्यों के बारे में
ज्ञान-लाभ कर सकते हैं। ऐसे अध्ययन को साहित्य का रूप देने के लिए चाहिए
खोजी मन और अधिक श्रम-साधना। अतीत की गहराई में प्रवेश कर सूक्ष्म रूप से
उस समय के परिवेश और समाज को देखा जाय तो उससे उत्कृष्ट साहित्य की सृष्टि
हो सकती है। उदाहरण के तौर पर, शिवसागर के विभिन्न मठ और मन्दिर,
नेधेरिढ़िंग के शिव मन्दिर, ग्वालपाड़ा का सूर्य पहाड़, तेजपुर का महाभैरव
मन्दिर, और गुवाहाटी के कामारण्य, नवग्रह और उमानन्द जैसे मन्दिरों में
लेखकों को निःसन्देह सार्थक साहित्य के लिए भरपूर सामग्री है। सैकड़ों
वर्षों से ये धार्मिक स्थान, पहाड़ और मठसमूह कितने ही घटनाचक्रों के मौन
दर्शक बने हुए हैं। चाहें तो इन सबको आधार बनाकर लिखे गये साहित्य को
‘मन्दिर-साहित्य’ नाम दे सकते हैं।
यह सुखद बात है कि असमिया की प्रख्यात लेखिका इन्दिरा गोस्वामी (मामोनी
रायसम गोस्वामी) ने अपने गम्भीर अध्ययन से देवीपीठ कामाख्या के इतिहास एवं
लोकगाथाओं से सामग्री लेकर उपन्यास ‘छिन्नमस्तार
भानूदरो’ (छिन्नमस्ता) की रचना की है। यह उपन्यास पहले
धारावाहिक रूप में असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में
प्रकाशित हो चुका है। ‘स्टूडेण्ट्स स्टोर’, गुवाहाटी
ने 2001 में इसे प्रकाशित किया है। इस पुस्तक को हम लोग सीधे तौर पर
उपन्यास नहीं कहना चाहते यद्यपि आंचलिक (लोकल) उपन्यास के कई रूप इसमें
समाहित हैं।
इस कृति को उपन्यास कहा जाए या नहीं, इस विषय पर बहस की काफ़ी गुंजाइश है।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यह कृति लेखिका की एक असाधारण सृष्टि है।
इस पुस्तक में कामाख्या मन्दिर का एक परिपूर्ण चित्र अंकित किया गया है।
यहाँ की पूजा-अर्चना के विभिन्न रूप, आतार-नीति, लोक-विश्वास, लोकगाथा,
देवीपीठ के साथ जुड़ी हुई किंवदन्तियाँ, देवीपीठ का इतिहास, यहां की
धार्मिक परम्परा (मनसा-पूजा में यहाँ मुश्लिम सम्प्रदाय के लोग भी बलि
चढ़ाते थे), साथ ही इसके नकारात्मक पहलू आदि को कथानक का रूप दिया गया है।
पुस्तक में कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।
दरअसल यह पुस्तक एक विशाल चित्रपट पर संयोजित छोटे-बड़े और अनेक रंगों के
चित्रों का ‘कोलाज़’ है, एक एन्टिटी है। इस पुस्तक
में जिस उद्देश्य को साधा गया है, जिसे कथानक के अन्त में विस्तृत रूप में
दर्शाया भी गया है वह है समन्वय। अतः एक तरह से इस पुस्तक को
‘कामाख्या परम्परा का समन्वय’ (
Kamakhyalore) कहा जाना चाहिए।
असम के बाहरवाले इलाक़ों में एक लोक-विश्वास पहले प्रचलित था कि
‘कामरूप’ में जानेवाले लोग भेड़ बन जाते हैं। अनपढ़
लोगों के लिए यह विश्वास अलौकिक हो सकता है लेकिन विज्ञों के लिए यह
प्राचीन कामरूप के सुन्दर हरे-भरे रूप को ही दर्शाता है। लोग इसी सुन्दरता
में क़ैद हो जाते थे और हां के आकर्षण उन्हें मोह लेते थे। कामरूप और
कामाख्या अलग-अलग नहीं हैं। दरअसल कामरूप-कामाख्या का उच्चारण एक साथ ही
किया जाता है। किसी को भेड़ बनानेवाली या मन्त्रमुग्ध करनेवाली बात एक
आसामान्य गुण को ही दर्शाती है। इस उपन्यास में लेखिका ने इस गुण को अच्छी
तरह से समझाया है। इसी कारण से यह बहुत ही सरस और रोचक बन गया है, इसे एक
बार खोलने के बाद लगातार आख़िर तक पढ़ने को मन करता है।
इस पुस्तक में परम्परागत अर्थ में कोई लम्बी कहानी नहीं है। कहानी के नाम
पर बस एक लकीर है। वह भी बीच-बीच में मिट जाती है आख़िर में थोड़ी देर के
लिए स्पष्ट होती है। नायक या प्रधान चरित्र भी सही अर्थ में यहां नहीं है।
लेकिन चर्चा की सुविधा के लिए कृति के लिए के दो-चार व्यक्तियों को हम
चरित्र ही कहेंगे। कहानी घटनाओं से भरपूर है लेकिन कोई भी घटना एक ही
केन्द्र-बिन्दु से नहीं निकलती जैसे सारी घटनाएँ अपने-आप घट रही हैं। यह
विरोध दिखाया गया है, उनकी शुरूआत भी बहुत देर से हुई है। यह विरोध और
मतभेद देवी के लिए दी गयी पशुबलि के सम्बन्ध में दिखाई गयी है। पुस्तक के
अधिकांश भाग में देवीपीठ की धार्मिक और इनके चित्रण में सांस्कृतिक
परम्पराओं से जुड़े अनेक तथ्य भरे हुए हैं इनके चित्रण में लेखिका ने
सूक्ष्म दृष्टि, जिज्ञासा और मन का परिचय दिया है इसमें उन्होंने इस
क्षेत्र के अतीत को गहराई तक खोजा है। और वह भी इस तरह कि पाठक अपने आप
इसमें लीन हो जाते हैं-सिर्फ़ दर्शक बनकर चुपचाप नहीं रहते-वे भी उपन्यास
के अंश बन जाते हैं। इसी में लेखिका की असामान्य पारदर्शिता झलकती है।
उन्होंने सचेत होकर इस पुस्तक को रंगीन नहीं बनाया यह बात पाठक बड़ी आसानी
से समझ सकता है।
कथानक की शुरूआत की गयी है छिन्नमस्ता के मन्दिर के जटाधारी संन्यासी और
डरथी ब्राउन नाम की एक अंग्रेज़ महिला के प्रसंग से। कॉटन कॉलेज के
अध्यापक राबर्ट ब्राउन की पत्नी डरथी के बच्चे नहीं है। उसी के इलाज के
लिए वह इंलैण्ड गयी थी। वापस आने पर उसे पता चला कि उसके पति के साथ एक
‘खासी’ जनजाति की महिला का नाज़ायज सम्बन्ध है। डरथी
का स्वाभिमानी मन दुःखी हो उठा। मन शान्ति के लिए वह छिन्नमस्ता के
संन्यासी के आश्रय में चली गयी। इस आश्रय का स्वरूप क्या है यह उपन्यास
में कहीं भी खुलकर नहीं लिखा गया है, लेकिन पाठक समझ सकते हैं कि यह एक
प्रकार का आध्यात्मिक या आत्मिक सम्बन्ध है।
कहानी के अन्त में डरथी छिन्नमस्ता के संन्यासी से कहती है,
‘मैं रहूंगी। मैं हमेशा तुम्हारी छाया बनकर रहूँगी। हमारे
सम्बन्ध का कोई नाम नहीं होगा। हमारा सम्बन्ध दुनिया में एक
अनूठा सम्बन्ध है, विशेष सम्बन्ध है, एक श्रेष्ठ सम्बन्ध है।’
उल्लेखनीय यह है कि डरथी को असमिया भाषा अच्छी तरह से आती थी। वह कामाख्या
पीठ में ही रहती थी। पति के अनुरोध और विनती के बावजूद वह अपने घर लौटती
नहीं। संन्यासी के साथ एक सुन्दर विदेशी युवती का सम्बन्ध आसपास के लोगों
में कौतूहल पैदा करता है। उनके सम्बन्ध को लेकर लोगों के बीच कई तरह की
रोचक चर्चा भी हुई है। इसी प्रसंग को तरसा-किनारे से आया एक अन्य संन्यासी
बढ़-चढ़कर प्रसारित करता है और वहाँ के जनजीवन को भड़काता है। पुस्तक में
इस संन्यासी को खलनायक का रूप दिया गया है। डरथी पर बुरी नजर रखनेवाले इस
संन्यासी ने बदमाशों द्वारा हमला करवाया। बदमाशों ने डरथी पर बलात्कार की
कोशिश भी की। कथानक में कामाख्या में डरथी के प्रसव का जो विस्तृत विवरण
दिया गया है वह पाठकों को बाँधे रखता है।
इस घटना के बाद कुछ दिनों के लिए छिन्नमस्ता का संन्यासी और डरथी ब्राउन
कामाख्या से दूर चले जाते हैं। वे अपने गन्तव्य स्थल के बारे में किसी को
कुछ नहीं बताते लेकिन लोगों को पता चल जाता है कि वे बलि रोकने के लिए
जनमत जुटाने को गये हैं। जाने से पहले संन्यासी ने अपने प्रिय शिष्य
बलिविरोधी रत्नधर को बताया था कि वे मालेगढ़ और चक्रशिला में कुछ दिन
रहेंगे। उसके बाद वे लोग आगे बढ़ जाएँगे और देवध्वनि उत्सव के समय वापस आ
जाएँगे।
कथानक में छिन्नमस्ता के जटाधारी का प्रसंग रहस्यमय है। उसी तरह डरथी के
चरित्र में भी काव्यगत वैशिष्ट्य है। उसके व्यक्तित्व में शान्ति और
दृढ़ता का समावेश दिखाया गया है। ये दोनों चरित्र भी पाठकों को बाँधकर
रखते हैं। इनमें से एक है मनमोहन पण्डा का बेटा रत्नधर। वह एक निपुण
चित्रकार है। डरथी उसे चित्र बनाने के लिए उत्साहित करती है। एक और किशोर
चरित्र है-विधिबाला। यह लड़की भी बलि-विरोधी है। यह चरित्र भी पाठकों के
मन में सहानुभूति भर देता है। इस चरित्र के चित्रण में लेखिका की सहज
सर्जनात्मक (इज़ी क्रिएटिविटी) स्पष्ट दिखती है।इस चरित्र को और विस्तृत
बनाने का अवकाश था। विधिबाला को पाठक अपने मन से मिटा नहीं पाते।
असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में प्रकाशित होते समय ही यह
पुस्तक काफ़ी चर्चित हुई थी। इसका कारण था कि लेखिका ने इस पुस्तक में
पशुबलि का विरोध किया है। अपने वक्तव्य के समर्थन में उन्होंने
कालिकापुराण आदि शास्त्रों के अंशों को भी उद्घृत किया है।
‘छिन्नमस्ता के संन्यासी’ बलिप्रथा का विरोध करते
हैं। वे हर समय ज़ोर देकर बोलते रहते हैं-‘‘माँ
छिन्नमस्ता, माँ, तुम रक्त वस्त्र उतार दो ! माँ, माँ
!’’ एक उदाहरण देखिए, छिन्नमस्ता के संन्यासी के लिए
प्रतीक्षारत भक्तों ने एक साथ कहा, ‘‘रक्त को त्याग
दो ! फूलों से देवी की पूजा करो ! फूलों में ज़्यादा शक्ति है। रक्त को
त्याग दो ! फूलों से जगज्जननी के पैर धुलाओ ! फूलों की पंखुड़ियों में
मनुष्य-हृदय छुपा रहता है। मनुष्य की अदृश्य आत्मा को फूल ही सुगन्धित
बनाये रखते हैं। रक्त को त्याग दो, फूलों से देवी माता की पूजा करो
!’’ कहानी के मध्यभाग से ही इस प्रसंग को मूलरूप दिया
गया है और वह धीरे-धीरे तेज़ गति से आगे बढ़ने लगता है। इसका विरोध भी
होता है। दो अलग-अलग विचार वाले लोग आपस में टकराते हैं। एक दल तर्कसम्मत,
जीवप्रेमी और उदार है। दूसरा दल पुराने संस्कारों से घिरा, हिंस्त्र और
पराश्रित है। दरअसल यही कथानक का मूल विषय है, लेकिन इसे सर्जनात्मक
स्वरूप प्रदान किया गया है। कथानक में मूल विषय के साथ कई प्रक्षिप्त
घटनाएँ हैं। इनमें से किशोरी विधिबाला का प्रसंग भी एक है। एक बूढ़े,
शादीशुदा और पहली पत्नी से हुए बच्चों वाले आदमी के साथ विधिबाला की शादी
करना चाहते हैं उनके पिता, जो पुराने संस्कारों को मानते हैं। विधिबाला के
साथ की गयी इस ज़बरदस्ती की यहाँ पशुबलि से तुलना की गयी है। अलग अलग
चरित्र कथा के विस्तार में सहायक सिद्ध हुए हैं। इन चरित्रों में मुख्य
हैं पुलु ढोलकिया, विधिबाला के पिता सिंहदत्त, नर्तकी वेश्याओं के दल और
विभिन्न देवी-देवताओं के ‘घोड़ा’ (वे लोग जिनकी आत्मा
देवी-देवता से प्रेरित हो जाती है)।
कामाख्या के जनजीवन की सच्ची कहानी-ग़रीबी, निरक्षरता, अज्ञान, कुसंस्कार
और अन्धविश्वासों से घिरे लोगों की सच्ची कहानी, लेखिका ने इस पुस्तक में
दी है। सिर्फ़ कामाख्या ही नहीं, कामाख्या के आसपास वाले इलाक़ों,
ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारों का जनजीवन भी इस उपन्यास में
स्पष्ट है। इस तरह से देखा जाय तो इस उपन्यास को एक ‘सामाजिक
दस्तावेज़’ (ह्यूमन डॉकुमेण्ट) कहा जा सकता है। समाज के पिछड़े
और शोषितवर्ग के प्रति इन्दिरा गोस्वामी की समवेदना इस कृति के हर प्रसंग
में स्पष्ट झलकती है। उपन्यास में ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारे
की विभिन्न जगहों को ध्यान में रखकर ही लेखिका ने अनेक प्रसंगों में
आंचलिक ‘कामरूपी भाषा’ का प्रयोग किया है। इसके
फलस्वरूप कथानक का अधिकांश यथार्थ से जुड़ गया है।
बहुत दिनों से कामाख्या से दूर चले छिन्नमस्ता के संन्यासी और डरथी ब्राउन
वापस आ जाते हैं। किसी हत्यारे ने गोली मारकर डरथी की हत्या कर दी है। बाद
में पता चलता है कि गोली मारनेवाला व्यक्ति डरथी का पति था।
यहाँ तक कहानी की सिर्फ़ ‘आउट लाइन’ दी गयी है।
अलग-अलग उपादान इसे पूर्णता प्रदान करते हैं। उनमें हैं अनेक
खण्डचित्र, लोककथाएँ, लोकविश्वास, प्रकृति-वर्णन, इतिहास, किंवदन्तियाँ,
लोकाचार और वहाँ की राजनैतिक परिस्थितियाँ। कहानी कितनी सशक्त है यह इस
उपन्यास में मुख्य बात नहीं है, मुख्य बात है इसकी परिपूर्णता, लेखिका की
असाधारण प्रतिभा। हर प्रसंग में पाठक कहानी के साथ जुड़ जाता है, वह
सिर्फ़ दर्शक नहीं बना रहता। पुस्तक की एक उल्लेखनीय विशेषता है-परम्परा
से चली आ रही पशुबलि जैसी निर्मम प्रथा का विरोध। लेखक का उद्देश्य भी यही
है। डरथी, विधिबाला और रत्नधर, मन से पशुबलि का विरोध करते हैं। साथ ही
विद्यापीठ के वे छात्र भी हैं जो बलि-प्रथा बन्द करवाने के लिए लोगों से
दस्तख़त कराते हैं।
असमिया साहित्य में समाज को जागरूक करनेवाली अनेक रचनाएँ हैं।
‘छिन्नमस्ता’ उसकी आख़िरी कड़ी है। लेकिन पशुबलि के
विरोध में आवाज़ उठानेवाले असमिया साहित्यकारों में इन्दिरा गोस्वामी पहला
नाम है। उनकी साहसपूर्ण कोशिश को यहाँ की जनता का समर्थन मिला है। पशुबलि
विरोध जैसे एक नाजुक, धार्मिक विषय को लेते समय लेखिका ने तर्क, चिन्तन और
शास्त्रों के प्रमाणों का सहारा लिया है। फिर भी उनके विचारों में कहीं
उग्ररूप नहीं दिखाई देता और किसी की भी भावनाओं को उन्होंने आघात नहीं
पहुँचाया है, बल्कि रचनाधर्म और भावनाओं का आश्रय लिया है। लेखिका को
विश्वास है कि भावनाएँ अधिक फलप्रद होती हैं। कुछ-एक उदाहरण इस प्रकार हैं-
‘‘रत्नधर हाथ के नाखून से ज़मीन कुरेदने लगा उसके
मुँह से झाग निकलने लगा। वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा,
‘‘पकड़ो, पकड़ो ! बलि देने के लिए लाया गया है ! ओफ्,
ओफ् !! वह वधस्थल में जाना नहीं चाहता है, डर के मारे उसकी विष्ठा निकल
गयी है। ओह्, ओह् ! उसकी आँखें देखो ! उस पर रहम खाओ ! रहम खाओ उस पर ! वह
मरना नहीं चाहता है ! उसे मुक्ति नहीं चाहिए। उसे घसीटकर इस तरह मुक्ति
देने की ज़रूरत नहीं है। पकड़ो, पकड़ो ! वह ज़िन्दा रहना चाहता है। देवी
माँ की बनाई हुई इस हरी-भरी धरती पर वह ज़िन्दा रहना चाहता है। पकड़ो,
पकड़ो !’’रत्नधर के सीने में जैसे भैंसा के खुर की
खट् खट् आवाज गूँजने लगी। उसकी देह के रक्तप्रवाह के साथ यह शब्द मिलकर एक
हो गया है !
*****
नाव से एक हट्टा-कट्टा आदमी उतरा। उसकी गोद में तीन साल का एक बच्चा था
बायें हाथ से उसने बलि के लिए लाया गया एक बकरा पकड़ रखा था। बच्चा बकरे
के साथ खेल रहा था। चितकबरा और मोटा-ताज़ा बकरा भी उस हट्टे-कट्टे आदमी की
गोद में चढ़कर कान हिलाते हुए बच्चे के साथ खेल रहा था। बेचारे को क्या
पता कि कुछ ही क्षणों में उसके ख़ून से बच्चे का माथा रँगा जाएगा
?’
बकरे ने बच्चे के सीने पर सिर छुपाकर अपना बदन झाड़ा। बकरे के मालिक ने एक
बार उसे बायें हाथ से कसकर पकड़ लिया। फिर से एक बार संन्यासी ने चिल्लाकर
उससे कहा, ‘‘ले जाओ, यह ताम्रपत्र ले जाओ ! मुझे ख़ून
चाहिए !’’
******
बीच सड़क पर काली का ‘घोड़ा’ बने आदमी से अपना भविष्य
पूछने के लिए एक सुन्दर महिला आकर खड़ी हो गयी। उसके दायें हाथ में एक
गोल-मटोल बच्ची थी। बीच-बीच में माँ का ब्लाउज हटाकर दूध पीने की कोशिश कर
रही थी। वह बायें हाथ से बकरे का छोटा-सा बच्चा पकड़े थी। भीड़ में दबने
से उस बच्चे ने बीच सड़क पर ही उलटी कर दी। उसकी सफ़ेद रंग की उल्टी देखकर
आसपास से धक्का-मुक्की करते हुए भक्तों के दल कह उठे,
‘‘ओह, बिलकुल माँ का दूध पीता हुआ बच्चा है ! उल्टी
के साथ दूध ही निकला है न !’’
महिला ने बड़ी-बड़ी आँखों से बलि को लाये गये बकरी के बच्चे को देखा।
आसपास खड़े भक्त बोले ‘‘ओह् ओह् ! ये दोनों ही माँ का
दूध-पीते बच्चे हैं। देउधा का खू़न पिलाने के लिए क्यों ले आयी
?’’
छोटी-सी बच्ची ने एकबार माँ को और फिर बकरी के बच्चे को देखकर पूछा,
‘‘इसकी माँ कहाँ है ? इसकी माँ कहाँ है ?
इस तरह का एक अन्तर्भेदी विषादबोध पूरी कहानी में देखा जा सकता है। यह
विषादबोध उपन्यास की गम्भीरता और उसकी सम्पूर्णता व्यक्त करता है। जटाधारी
ने डरथी से कहा था, ‘‘देखो कोई सुखी नहीं है। इस जगत्
में कोई सम्पूर्णरूप से सुखी नहीं है शरीर के टूटे-बिखरे माँस में एक
सुघड़ आकार की कल्पना करके लोग सिर्फ़ भागदौड़ करते रहते
हैं।’’
‘छिन्नमस्ता’ लिखते समय इसकी कथा के विभिन्न पक्षों
को सोचा गया है। इसमें से दो-एक उदाहरण ही हमने दिये हैं। विचारशील पाठक
ज़रूर इस कृति में भी विशेषताएँ पाएँगे। किसी कृति के मूल्यांकन के समय
उसका वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक होता है। लेकिन ऐसी कई रचनाएँ हैं जिनके बारे
में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ रोचकता का अतिरेक भी रहता है।
‘छिन्नमस्ता’ ऐसी ही एक सृष्टि है। विषय की गहराई,
अतीत और वर्तमान के अनुभवों की समग्रता से भरपूर यह मनमोहक रचना है।
रचना-शीलता, समाज-चेतना और उद्देश्य एक बनकर सुन्दर रूप धारण करनेवाला यह
उपन्यास पाठकों को बहुत पसन्द आएगा और बहुत जल्दी यह उनके मन में जगह बना
सकेगा, यह हम निःसन्देह रूप से कह सकते हैं।
भूमिका
यह उपन्यास भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम में स्थित सबसे बड़ी शक्तिपीठ
कामाख्या की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। सन् 1921 से 1932 तक की घटनाओं के
आधार पर इस उपन्यास की रचना की गयी है, लेकिन पिछली घटनाओं और ऐतिहासिक
विवरणों के कारण कहीं-कहीं इसकी कथावस्तु अतीत की ओर भी चली गयी है। ऐसी
मान्यता है कि इस शक्तिपीठ अर्थात् नीलाचल में देवी का योनिभाग गिरा था।
शिव की पहली पत्नी दक्षराज की बेटी सती पिता के राजदरबार में अपने पति पर
लगाये लांछन को सह न सकी और यक्ष के अग्निकुण्ड में कूदकर उसने आत्महत्या
कर ली। शिव को जब यह खबर मिली तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और सती का मृत
शरीर कन्धे पर लादकर पूरे ब्रह्माण्ड में संहार-नृत्य करने लगे। सभी
देवताओं ने भगवान विष्णु से इसे रोकने का अनुरोध किया। विष्णु ने अपने
सुदर्शनचक्र से सती की देह को खण्ड खण्ड कर दिया। जिन स्थानों पर सती के
अंग गिरे वे सभी स्थान शक्तिपीठ बने। असम के कामाख्या में देवी का योनि
भाग गिरने के कारण इसे विशिष्ट माना जाता है।
इस उपन्यास में उस समय के असम पर शासन करनेवाले अँग्रेज़ शासकों का भी कुछ
वर्णन है। एक अँग्रेज़ महिला ने किस तरह शक्तिपीठ के तान्त्रिक के साथ
सम्बन्ध बनाये थे- उसे मूल कहानी के रूप में लिया गया है। इस उपन्यास के
प्रधान नायक छिन्नमस्ता के जटाधारी का परिचय अब भी रहस्य बना हुआ है। किसी
को यह ठीक नहीं मालूम कि वे कहाँ से आये थे। उपन्यास का मुख्य हिस्सा
है-इस शक्तिपीठ में हर समय चलते रहने वाले बलि-विधान की कहानी। कहते हैं
कि पहले यहाँ नरबलि होती थी। अँग्रेज़ों के राज में इसे बन्द कर दिया गया।
लेकिन अँग्रेज़ शासकों ने मन्दिर के अन्दरूनी नीति-नियमों में कभी दख़ल
नहीं दिया। मन्दिर का सारा काम पुजारियों के हाथों में ही था इसलिए आज भी
इस मन्दिर में पक्षियों, बकरों आदि की बलि दी जाती है। इस शक्तिपीठ का
आँगन हमेशा ख़ून से रँगा रहता है।
इस उपन्यास के नायक का एक ही मक़सद था कि किस तरह खू़न की धाराओं को रोका
जा सके। इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि आहोम राजा रूद्रसिंह द्वारा हर
दुर्गा-अष्टमी के दिन दस हज़ार भैंसे बलि को चढ़ाये जाते थे।
इस उपन्यास की रचना अनेक तथ्यों को संग्रह करने और मन्दिरों में दीर्घकाल
तक रहकर अनुभव प्राप्त करने के बाद की गयी है।
एक : छिन्नमस्ता
कोहरे के वक्षस्थल पर ब्रह्मपुत्र सो रहा था। जैसे विधवा माँ के सफ़ेद
कपड़ों के बीच सिर छुपाकर पड़ा धवल रोग से ग्रस्त एक असहाय पुरुष।
छिन्नमस्ता के जटाधारी भुवनेश्वरी से धीरे धीरे नीचे उतर आये। धीरे धीरे
ब्रह्मपुत्र का रूप स्पष्ट होने लगा था। भोज के लिए कटे हुए मांस की गन्ध
जैसी एक अजीब गन्ध खिले हुए हरसिंगार के साथ मिलकर विचित्र माहौल बना रही
थी। ओऊ (खट्टे फल का पेड़) के घिला पिठा (चावल का बना हुआ मालपुआ)
जैसे पत्तों, अशोक के लम्बे पत्तों, विशालकाय
खोकन पेड़ों और केन्दु की झाड़ियों से ओस टपकने की मृदु आवाज़ हो रही थी।
जटाधारी ने ब्रह्मपुत्र के पास जाकर मिट्टी-जल का स्पर्श किया। इस जगह पर
इतना ज़्यादा कोहरा था कि वे नहाकर या पूजा करके लौटे हैं, यह समझना
मुश्किल था। थोड़ी देर में कोहरे के बीच से चतुःपष्ठी योगिनी की वन्दना
सुनाई दी-‘‘ब्राह्मणी, चण्डिका, गौरी, रौद्री,
इन्द्रणी, कौमारी, वैष्णवी, दुर्गा, नरसिंही, कालिका, चामुण्डा शिवदूती,
वाराही, कौशिकी, महेश्वरी, शंकरी, जयन्ती, सर्वमंगला, काली, कपालिनी,
मेघा, शिवा, शाकम्भरी, भीमा, शान्ता, भ्रामरी, रूद्राणी, अम्बिका, क्षमा,
धात्री, स्वाहा, स्वधा, सर्पणा, महोदरी, क्षेमंकरी, उग्रचण्डा,
चण्डोग्रा, चण्डानायिका, चण्डा, चण्डावनी, चण्डी, मनोमोहा, प्रियंकरी,
बलविकारिणी, बलप्रमार्थनी, मनोन्मन्थिनी, सर्वभूतदमिनी, उमा, तारा,
महानिद्रा, विजया, जया, शैलपुत्री....।’’ इसी तरह
चतुःषष्ठि योगिनियों के नाम संगीत के टुकड़े बनकर नीलांचल पर्वत के चारों
तरफ़ गूँजने लगे।
जटाधारी की देह धीरे-धीरे कोहरे के बीच से प्रकट होने लगी। जैसे
किसी जलाशय में कोई भूखण्ड स्पष्ट होने लगा था-काई, पानी, घास और लताओं से
भरा भूखण्ड !
ज़मीन से खोदकर निकाले गये मृत व्यक्ति की अस्थियों की तरह उनके शरीर का रंग था। धूप, हवा और बरसात को नज़रअन्दाज़ कर जंगलों और पहाड़ों में घूमने के कारण उनके शरीर का चमकता रंग पुरानी राख की तरह हो गया है। जंग लगी लोहे की तरह उनकी जटा का रंग था। उनकी गड्ढों में धंसी हुई दोनों आँखें देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी ने तेज़ चाकू से खोदकर वे गड्ढे बनाये हों। लोग ज़्यादा समय तक उनकी तीखी नज़र सहन नहीं कर सकते। वे जिसकी तरफ़ भी देखते हैं, एक अजीब-सी सिहरन उसके शरीर के अन्दर तक छू जाती है। किसी अस्त्र से किये गये जख्म की तरह कष्ट से भरी होती है यह सिहरन।
यह कार्तिक का महीना है। भक्तों का जमघट लगा हुआ है। ज़्यादातर लोग 'एड़ी' (असम में तीन प्रकार के रेशम बनाये जाते हैं-पार, मुगा और एड़ी। एड़ी के धागे से गरम चादर बनती है) की चादर से शरीर ढंककर बैठे हैं। एक-दो भक्त कम्बल भी ओढ़े हुए हैं। पिछवाड़ेवाले दरवाज़े से कब आकर जटाधारी अन्दरवाली कोठरी में घुस गये, किसी को पता ही नहीं चला। दो-एक के ऊपर जटाधारी के शरीर से टपकता हुआ पानी गिरा।
अब तक उनके लिए पूजा की सामग्री रत्नधर ने तैयार करके रख दी थी। दूब, लाल रंग के जवाकुसुम के फूल और चन्दन उसने सलीके से सजाकर रखे थे। जटाधारी जल्दी से वेदी के सामने बैठ गये और ध्यान मुद्रा में लीन हो गये। दोनों हथेलियों को कछुए की तरह और योनि-सी मुद्रा बनाकर मुँह से फुसफुसाते हुए भैरव का नाम उच्चारण करने के बाद फिर से ह्रांग, हींग, हूंग, हों, ह्रौं-मन्त्र पढ़कर उन्होंने किस भगवान की पूजा-अर्चना की, यह वहाँ बैठे किसी को समझ में नहीं आया। उसके बाद वे एक लोटा पानी गट्गट करके पी गये। फिर खड़े होकर रत्नधर को सीने के पास खींच लाये, उसके सिर में हाथ फिराकर आशीर्वाद दिया।
रत्नधर कामाख्या मन्दिर के प्रख्यात पण्डा मनमोहन शर्मा का पहला पुत्र है। वह चित्रकार था। भक्तों के बीच उसके चित्रों का आदर था। उसके हाथ-पैर सुडौल थे। सिर के बाल घने थे और उसका रंग भी गोरा था। बिलकुल राजपुत्र-सा चेहरा था उसका। एक साल पहले इस लड़के ने मानसिक सन्तुलन खो दिया था। ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण-दोनों किनारों के अनेक वैद्यों ने इस लड़के का इलाज किया था, पर कोई फायदा नहीं हुआ था।
लेकिन ये जटाधारी ? अदभुत शक्ति थी उनमें। उनके पास आने के बाद फिर से वह तस्वीर बनाने लगा था। बैठे हुए भक्तों के सामने से जटाधारी और रत्नधर जल्दी-जल्दी बाहर निकल गये। इस चित्रकार को कुछ दिनों से जटाधारी एक विशेष तस्वीर बनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
सन् 1792 में कैप्टन वेल्स और देवीपीठ के दरवाजे 'गोरिला चौकी' तक साथ लाये हुए सैनिकों की तस्वीर थी वह। विशालकाय फ़ौज के साथ 'बरागी' राजा के क़ब्जे से गुवाहाटी को मुक्त कराने के लिए छः सैनिकों की टुकड़ियों के साथ आये हुए कैप्टन वेल्स की एक तस्वीर बनाने के लिए जटाधारी ने रत्नधर को उत्साहित किया था। देश के इतिहास और विभिन्न भाषाओं के बारे में जटाधारी का ज्ञान देखकर भक्तों के बीच उनके विषय में रहस्य बढ़ गया था। कोई कहता कि वे वाराणसी में शिक्षा प्राप्त किये हुए मेधावी छात्र हैं। किसी और का कहना है कि दक्षिण के तंजौर में उन्होंने शिक्षा-लाभ किया था और कुछ लोग कहते हैं कि वे त्रित की तरफ़ के आदमी हैं। यह भी कहा जाता है कि वे पक्षियों की बोली भी समझ लेते थे।
जटाधारी के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। उनके दर्शन के लिए बैठा हुआ कोई भक्त बोल उठा, "कुछ दिन पहले ही फाँसी की सज़ा में मरे एक कैदी की लाश उसके घरवाले ब्रह्मपुत्र की रेत पर फेंक आये थे। जटाधारी उस लाश पर बैठकर दो रात तक साधना करते रहे। मैंने अपनी आँखों से यह दृश्य देखा है। मैंने सुना है कि जटाधारी के लिए ही वह लाश वहाँ लायी गयी थी।"
एक दूसरे भक्त ने फुसफुसाते हुए कहा, "लोग कहते हैं कि मरे हाथी के पेट से अंतड़ियाँ निकालने के बाद वे उसके पेट में घुसकर साधना करते हैं।"
-छिः छिः-चुप, चुप !
एक और भक्त ने ज़ोर से कहा, “यह सब सुनी हुई बातें हैं, अगर सच्चाई जानना चाहते हो तो पूर्णमासी के अगले दिन नदी के पानी में देखना।"
पूर्णमासी के अगले दिन ?
सब लोग कौतूहल के साथ उस भक्त की बात सुनने लगे। “तुम लोग 'रणचोवा' (सन् 1667 में ब्रह्मपुत्र के बीच हुए शराईघाट के नौका-युद्ध को देखने के लिए नीलाचल के लोग इस पत्थर पर चढ़े थे) पत्थर पर बैठकर पानी में देखना, वहाँ मिट्टी के रंग का एक नाग तैरता हुआ नज़र आएगा। वह नाग पानी से फन निकालता हुआ किनारे पर आएगा।"
एक दूसरे भक्त ने फुसफुसाकर कहा, "नहीं, नहीं-वह साँप नहीं है। वह जटाधारी की जटा है। पानी के नीचे भी जटाधारी साधना करते हैं। हाँ, हाँ-लोग कहते हैं, उस जटा के साथ साँप भी कुण्डली मारकर बैठा रहता है। जहरीले साँपों के साथ रहना जटाधारी के लिए कोई नयी बात नहीं है।"
-"बम ! बम ! बम !"
-“बम ! बम ! शिव शम्भू ! शिव शम्भू !!"
सारे भक्त चौंक उठे। घुटनों से सिर टिकाकर बैठे हुए भक्तों ने आँखें उठाकर देखा। हाथ में कमण्डल लिये दो संन्यासी वहाँ हाज़िर हुए। सभी भक्तों ने एक साथ उन दोनों को देखा। नीलाचल में शायद ये नये लोग आये हैं। उनके सिर पर जटा और गले में रुद्राक्ष की माला थी। शरीर में केसरी कपड़े शोभा बढ़ा रहे थे। उनमें से एक का कद लम्बा है और दूसरा नाटा-सा है। उनके सामने से कुछ लोग बलि के लिए एक भैंसा घसीटकर ले जा रहे थे। सभी ने उस भैंसे के खुर की आवाज़ सुनी।
ठीक उसी समय चित्रकार रत्नधर एक विकट चीख़ के साथ ज़मीन पर गिर पड़ा। चारों तरफ़ हल्ला मच गया। रत्नधर नाखून से ज़मीन कुरेदने लगा। उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा, “पकड़ो ! पकड़ो ! बलि के लिए लाया गया है। मैदान में चरते भैंसे को घसीटकर बलि के लिए ले गये हैं वे। ओफ्, ओफ्-वह वधस्थल में जाना नहीं चाहता है। डर के मारे उसकी विष्ठा निकल गयी है। ओह्, ओह्, उसकी आँखों को देखो, उस पर रहम खाओ, रहम खाओ उस पर। वह मरना नहीं चाहता है। उसे मुक्ति नहीं चाहिए। उसे इस तरह घसीटकर मुक्ति देने की ज़रूरत नहीं है। पकड़ो ! पकड़ो ! वह ज़िन्दा रहना चाहता है। देवी माँ की बनायी हुई इस हरी-भरी धरती पर वह जिन्दा रहना चाहता है। पकड़ो, पकड़ो..."
भैंसे को खींचकर ले जाने की जद्दोजहद चलती रही। उसके खुर की खट्-खट् आवाज़ सुनकर ऐसा लगा जैसे कोई चीज़ टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी है।
खट् खट् खड़ात् !
खट खट् खड़ात् !!
इस बीच चुपचाप बैठे हुए भक्त आपस में बातें करने लगे-“रत्लधर के सीने में भैंसे के खुर की आवाज़ समा गयी है। उसके शरीर के रक्त-प्रवाह के साथ वह आवाज़ एक हो गयी है। बलि के लिए ले जानेवाले भैंसे को देखकर पिछले साल भी वह इसी तरह गिर पड़ा था। आज भी वैसा ही हुआ। उसके मुँह से झाग निकल रहा है। नाखून से वह मिट्टी कुरेद रहा है, हाथ-पैर मारता हुआ चिल्ला रहा है।"
अब तक भक्तों की भीड़ बढ़ गयी थी। जटाधारी के चारों तरफ़ हल्ला होने लगा।
दमे के मरीज़, दिमागी सन्तुलन खोनेवाले आदमी, फ़ौजदारी में परेशान लोग, पित्त के मरीज़, बेटी ब्याहनेवाले बाप, पितर के दोष से मुक्ति चाहनेवाले व्यक्ति और ग़रीबी से ग्रस्त लोगों की भीड़ को धक्का देकर जटाधारी भागते हुए रत्नधर के पास पहुँचे। उसे अंक में लेकर उन्होंने पास में बिछे हुए आसन पर लिटा दिया। फिर कुछ समय तक ध्यान की मुद्रा में वे पीढ़े पर बैठे रहे। उनके मुँह से 'आसन पूजा' का मन्त्र सुनाई देने लगा-“ओम ह्रींग ! ओम ह्रींग !" ताँबे की थाली में रखे हुए पुष्प से उन्होंने अपने आसन की पूजा की। क्षौं ! क्षौं ! मन्त्र का उच्चारण करते हुए वे अपने दोनों हाथ सीने के पास ले गये, फिर ताँबे की थाली में रखे जवाकुसुम के फूल को अपने और रत्नधर के माथे पर रखा। मन्त्र का उच्चारण करते हुए उन्होंने इस रक्तवर्णवाले पुष्प से अपने हृदय-देवता की पूजा की। रत्नधर के सीने पर हाथ रखकर वे 'माँ छिन्नमस्ता ! माँ छिन्नमस्ता' कहकर चिल्लाने लगे।
कुछ देर तक वे मन्त्रों का उच्चारण करते रहे। फिर आँखें खोलकर उनसे मिलने आनेवाले लोगों को देखा। उनके पास साथ-साथ पहुँचने के लिए सब लोगों ने धक्का-मुक्की शुरू कर दी।
ठीक उसी समय पतली-सी गली से जूते की खट् खट् आवाज़ करते दो लोग आ पहुँचे। पूरे शरीर और चेहरे चादर से ढंके होने के कारण उन्हें बाक़ी बैठे लोग पहचान नहीं पाये। लेकिन सिर से कपड़ा हट जाने के बाद जटाधारी की कोठरी के सामने बैठे भक्तगण चौंक उठे। उनमें से फुसफुसाने की आवाज़ आने लगी-
“कहाँ के लोग हैं ?"
“कहाँ से आये हैं ?"
सब लोगों के सामने एक अलग तरह की नाटी मूर्ति प्रकट हो गयी। उसका चेहरा बिलकुल सफ़ेद था और कन्धों के नीचे तक ताम्रवर्ण के बाल लटक रहे थे। उसने घुटनों के नीचे तक ढंकी हुई 'मेखला' (असमिया पोशाक) जैसी स्कर्ट पहन रखी थी। साथ में एक ऊनी ब्लाउज़ भी पहना था जिससे उसके स्तनों का उभार साफ़ नज़र आ रहा था। वधस्थल तक ले जाते समय छटपटाते सफ़ेद कबूतर के दोनों पंख जैसे उसके स्तन थे। छोटे से एक दुपट्टे से वह बार-बार अपने बालों को ढंकने की कोशिश कर रही थी, लेकिन किसी भी कोशिश से उसका अंग्रेज़ होना छुप नहीं सका था।
“क्या मेम है ?"
"हाँ, हाँ-मेम ही है।" ऐसा नहीं है कि पहले कोई मेम देवीपीठ में नहीं आयी है। सात समन्दर पार की गोरी मेम पहले भी यहाँ आ चुकी है।
इसी समय जटाधारी फिर से चिल्ला उठा, “माँ, माँ छिन्नमस्ता !"
कुछ समय तक सब लोग मौन रहे। एक बार फिर वे उसी प्रकार से चिल्लाये-"माँ, माँ छिन्नमस्ता !"
इस बार उनके पास बैठे हुए भक्तों ने भी साथ में दोहराया-“माँ, माँ..."
उस गोरी औरत के साथ आया मुंशी अपने सिर से कपड़ा हटाकर भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा और जटाधारी के पैरों पर गिर पड़ा। वह कहने लगा, "महाप्रभु, मैं मेमसाहब को ले आया हूँ। अगर मुझसे कोई दोष हुआ है तो क्षमा कीजिएगा ! बहुत दुःखी हैं बेचारी।"
भीड़ में से किसी की आवाज़ आयी-"क्या मेमसाहब कभी मन्दिर के अन्दर घुसी हैं ? भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला-काली या तारादेवी के मन्दिर में ?"
मुंशी ने ज़ोर से सिर हिलाते हुए कहा, “नहीं, नहीं, डरथी मेमसाहब तो यहाँ भी जूता उतारकर आयी हैं। इस महापीठ में पैर रखते समय उन्होंने पहले अपना सिर झुकाया है।"
अब जटाधारी ने आँखें खोलकर देखा। गूंजती हुई आवाज़ में उन्होंने कहा, "कौन ? कहाँ से आयी है ?"
हाथ जोड़ते हुए मुंशी ने कहा, "बहुत दुःखी हैं। इसलिए आपके पास आयी हैं।
सब लोगों ने सिर उठाकर उस महिला को देखा। नीली आँखें-जाड़े के मौसम में नीले आसमान का प्रतिबिम्ब दिखाते ब्रह्मपुत्र के पानी जैसी चमकती आँखें। क्या ये आँखें बर्फ के दो जमे हुए टुकड़े हैं ? उसके शरीर का रंग छीली हुई लौकी की तरह बेरंग है। उसकी आँखों में दुःख और विनय के भाव इस तरह मिले हुए हैं कि कोई भी आदमी उसे सहारा देना चाहेगा। कोई भी व्यक्ति उसे दिल से पूछेगा-'क्या हुआ ? क्या हुआ है तुम्हें ?'
छिन्नमस्ता के जटाधारी ने उस औरत को सामने आने का इशारा किया। अब उसके सुडौल पैरों को सबने स्पष्ट रूप से देखा। जटाधारी ने आँखों से इशारा करके उससे बैठने के लिए कहा। भक्तों के बीच में से कोई हड़बड़ाकर उठा और उसके लिए अन्दर से एक दरी लाकर बिछा दी।
यह दृश्य बिलकुल यक़ीन करने लायक नहीं है। गुवाहाटी की सड़कों पर कितने ही गोरे साहब घूमते रहते हैं। किसी के बाल ताँबे के रंग के नहीं हैं। हाँ, बिलकुल बलि को काटनेवाले खड्ग की तरह है उसके बालों का रंग। आँखों में विनय और नम्रता का भाव फैला है। ओह्, इन आँखों की तुलना मन्दिर के अन्दर वने उस जलकुण्ड से की जा सकती है, जिसका पानी मिट्टी के अनेक दीपकों की रोशनी से झिलमिलाता रहता है।
जटाधारी दोनों आँखें मूंदकर कुछ समय के लिए ध्यान में लीन हो गये। उसके बाद वे चिल्ला उठे, “माँ, माँ-अनंगकुसुमा ! माँ अनंगमदना ! माँ अनंगमेखला ! अनंगमालिनी ! माँ, माँ...।"
अब जटाधारी ज़मीन पर लेट गये। देवी छिन्नमस्ता की तरफ़ मुँह करके वे करवट बदलने लगे। उनके दोनों जुड़े हुए हाथ निरन्तर माथे पर स्पर्श करते रहे। सामने बैठे हुए भक्तगण उनके पास से कुछ दूर हटकर बैठ गये।
"त्राहि, त्राहि मां शरणागतम् !"
अब वे कुछ होश में आये। नींद से जागे इनसान की तरह वे उठकर बैठ गये। आँखों के सामने डरथी ब्राउन को देखकर उन्होंने मुंशी से कहा, “क्या कहना चाहती है, सबके सामने कह सकती है। क्यों आयी है मेमसाहब ? काँटे का मुकुट पहने देवता उसके हृदय में बसे हैं। क्यों आयी है यहाँ ?"
डरथी ब्राउन के होठ काँप उठे। आँखें भर आयीं। मुंशी की तरफ़ उसने सिर उठाकर देखा।
फिर से चिल्ला उठे जटाधारी, “क्या नाम है मेमसाहब का ? क्या कहना चाहती है ?"
मुंशी ने गोरी औरत की तरफ़ देखा। उस औरत ने मुंशी को अपनी तरफ़ से बोलने की अनुमति दी।
“प्रभु, इनका नाम डरथी है। डरथी ब्राउन। कॉटन कॉलेज के अध्यापक हेनरी ब्राउन की पत्नी।"
जटाधारी के आसपास बैठे लोग बड़ी जिज्ञासा के साथ उस औरत को देखने लगे। गले में बँधे दुपट्टे से गोरी मेम अपने बालों को बाँधने की कोशिश करती रही। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगी थीं।।
जटाधारी फिर से चिल्लाये, “क्या कहना चाहती है ? क्या कहना चाहती है यह औरत ?"
चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। एक कौडिल्ली चिड़िया फर-फर् आवाज़ करती हुई सबके सिर के ऊपर से उड़ गयी। एक-एक करके और भी भक्त जमा होने लगे। सभी की दृष्टि में जिज्ञासा थी। जैसे सभी लोग सारी बातों को मदिरा की तरह पीना चाहते हैं। आँखें फाड़कर सब लोग सामने की तरफ़ देखते रहे।
"क्या करने आयी है वह ?"
मन में शान्ति नहीं है।
मन में शान्ति नहीं है ?
जटाधारी के मुँह से अपने-आप ये शब्द निकले-"मन में चैन नहीं है, मन में शान्ति नहीं है।" भीड़ की तरफ़ हाथ दिखाकर उन्होंने जोर से कहा, "तुम लोगों के मन में शान्ति है क्या ? कहो, क्या तुम लोग सुखी हो ?"
किसी ने जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर पहले तक कोहराम मचानेवालों में से कोई कुछ नहीं कह सका।
जटाधारी मुस्कुराते हुए औरत को तसल्ली देने लगे, “देखो, कोई सुखी नहीं है। इस जगत् में कोई सम्पूर्ण रूप से सुखी नहीं होता। शरीर के टूटे-बिखरे मांस में एक सुघड़ आकार की कल्पना करके लोग सिर्फ भागदौड़ करते रहते हैं।"
उस औरत ने मुँह के अन्दर ही अस्पष्ट भाषा में कुछ कहना चाहा। किसी को उसकी बातें समझ में नहीं आयीं। लेकिन जटाधारी ने महसूस किया कि शायद वह यही कहना चाह रही है कि उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो गयी हैं, उसकी कोशिशें मिट्टी में मिल गयी हैं।
लम्बे बाल और खुरपी जैसे दाँतवाले मुंशी ने जैसे उस औरत के मन की बात सबसे कहनी चाही-“डरथी मेमसाहब आपसे एकान्त में एक बार मिलना चाहती हैं। वह आपकी शिष्या बनना चाहती हैं।"
जटाधारी जैसे कुछ समय तक यह सोचते रहे कि उस औरत को अपनी कोठरी में आने की अनुमति देनी चाहिए या नहीं। फिर बिना कुछ कहे वे उठ खड़े हुए और भुवनेश्वरी के ऊपर तक फुर्ती से चढ़ने लगे। सख्त पेशीवाले ज़बरदस्त शरीर का यह आदमी ऐसे ऊपर चढ़ गया जैसे कोई जंगली हाथी सब-कुछ तोड़ता हुआ आगे बढ़ जाता है। ताक-झाँक करनेवाले लोगों में से कुछ उनके पीछे-पीछे जाने लगे। डरथी और मुंशी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर हरे के पेड़ के नीचे खड़े रह गये।
कुछ देर के बाद जटाधारी लौट आये। सभी भक्तगण उत्सुकता के साथ जटाधारी के फैसले का इन्तजार करने लगे कि क्या वे उस अंग्रेज़ औरत को अपनी कोठरी में घुसने देंगे ? खड़ाऊँ की खट्-खट् आवाज़ सुनाई पड़ी। केसरी वस्त्र पहने और मुण्डन किये हुए एक संन्यासी को सब लोगों ने ध्यान से देखा। वह संन्यासी तर्सा के किनारे अर्थात् कोचबिहार से आया था। देह में जानवरों की अंतड़ियों जैसा यज्ञोपवीत लपेटे हुए था। 'अम्बूवाची' (कामाख्या पीठ का एक अनुष्ठान, जिसमें चार दिनों तक मन्दिर के कपाट बन्द रहते हैं और ऐसी मान्यता है कि देवी उन दिनों रजस्वला रहती है। यह अनुष्ठान जून महीने में होता है और उस समय वहाँ देश के विभिन्न प्रान्तों से भक्त आते हैं। चार दिन के बाद मन्दिर की शुद्धि की जाती है) के समय ही इस शक्तिपीठ में वह आया था और भैरवी मन्दिर के आँगन में अपना डेरा डाला था। वह मुँह से लगातार माता भैरवी के मन्त्र पढ़ रहा था।
उनके मुँड़े हुए सिर के गड्ढे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। केसरी धोती और उसी रंग की चादर पहने संन्यासी भैरवी का मन्त्र पढ़ता हुआ वहाँ आ पहुंचा था। उसके शरीर का रंग काला था और वह देखने में काफ़ी बदसूरत था। सात फुट लम्बे शरीरवाला वह संन्यासी जटाधारी की तरफ़ इशारा करके चिल्ला उठा, “यह निषिद्ध है, म्लेच्छों को शिष्य बनाना यहाँ निषिद्ध है !"
"कौन-सा शिष्य ? कैसा म्लेच्छ ?" जटाधारी ने कहा।
जटाधारी की तरफ़ इशारा करते हुए तर्सा-किनारे के संन्यासी ने फिर से कहा, "वह औरत किसी के पास नहीं गयी है, सिर्फ तुम्हारे पास आयी है।"
जटाधारी ने भी ज़ोर देकर कहा, "मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं किसी को दीक्षा नहीं देता। मैं किसी को पास नहीं बुलाता। मैं अकेले रहना चाहता हूँ।" इतनी बातें कहने के बाद उन्होंने एक लम्बी साँस छोड़ी और फिर कहने लगे, “निषिद्ध शिष्य के बारे में सारे नियम मुझे याद हैं।"
चारों तरफ़ से फिर कानाफूसी होने लगी। उन्होंने कहा-
" 'तन्त्रसार' में लिखा गया है : पापी, क्रूर, मन्त्रद्वेषी, गुरुभक्तिहीन और मैले हृदयवालों को शिष्य नहीं बनाना चाहिए।
" 'आगमसार' ग्रन्थ में इससे एक क़दम बढ़कर लिखा गया है : आलसी, गुस्सेवाले, अन्याय से पैसा कमानेवाले अर्थात् घूसखोर, और अपने ज्ञान के बारे में अहंकार करनेवाले व्यक्ति को भी दीक्षा नहीं देनी चाहिए। लेकिन कहीं भी स्त्री-पुरुष का भेद नहीं किया गया है। मेरे पास जो भी आते हैं, वे कष्ट से पीड़ित स्त्री-पुरुष हैं।"
जटाधारी और तर्सा-किनारे का संन्यासी जब इस बहस में लगे थे तभी एक भैंसे के खुर की खट्-खट् आवाज़ सुनाई दी। वधस्थल में ले जानेवाला भैंसा ऊपर चढ़ना नहीं चाह रहा था। वह पगहा तोड़कर नीचे भाग जाना चाहता था लेकिन मृत्युदूत जैसे यजमान की पकड़ से वह कैसे बच सकता था ? मृत्युदूत उसे खींच-खींचकर ले जा रहा था और इस खींचतान में पहाड़ी के रेत-पत्थर नीचे की ओर झड़ते जा रहे थे।
जद्दोजहद, चीखना-चिल्लाना और खींचतान !
जटाधारी जमीन में पड़े रत्नधर को अपने सीने से लगाकर चिल्ला उठे, “माँ, माँ छिन्नमस्ता ! माँ छिन्नमस्ता !! माँ, माँ !"
किसी ने एक लकड़ी का टुकड़ा उछालकर मारा। वह टुकड़ा जटाधारी को नहीं लगा। एक ही मुहूर्त के अन्दर किसी को समझ ही नहीं आया कि डरथी को यह क्या हुआ ! वह जैसे उठकर जटाधारी के पास पहुँची और उनके घुटनों को ज़ोर से पकड़कर बिलखने लगी।
मुंशी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसने कहा, “साहब का कॉलेज से लौटने का समय हो गया है-हाँ, हाँ-वे अभी लौटने ही वाले हैं। अब तक शायद उनका ताँगा आँगन तक पहुँच गया होगा।"
तर्सा-किनारेवाला संन्यासी जटाधारी की कोठरी के सामने भीड़ लगाये भक्तों को इशारा करके उत्तेजित स्वर में कहने लगा, “क्या कर रहे हो तुम लोग-वह गोरी चमड़ीवाली औरत अब जटाधारी की कोठरी में घुसने जा रही है-मैं जानता हूँ; सब जानता हूँ। यह जटाधारी संन्यासी वशीकरण की शक्ति देखने के लिए क्या करता है, मैं जानता हूँ। वह इस गोरी चमड़ीवाली 'भक्तिन' को नंगा करके परिणाम देखेगा। अब तुम लोग उठो, और कुछ करो, कुछ करो !"
बैठे हुए लोगों के झुण्ड में एक दबी-सी उत्तेजना फैल गयी। लेकिन कोई भी खड़ा नहीं हुआ। फिर से कहा संन्यासी ने, “मैं जानता हूँ, वशीकरण का मन्त्र सिखाते समय योनि-स्पर्श करना पड़ता है, और...और..."
अचानक भक्तों के बीच में से दो मज़बूत शरीरवाले लोग खड़े हो गये और उन्होंने तर्सा-किनारेवाले संन्यासी का हाथ ज़ोर से पकड़ लिया। संन्यासी अपना हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश करने लगा। ठीक उसी समय एक भयानक आवाज़ सुनकर सभी ऊपर की तरफ़ देखने लगे, जैसे एक विशालकाय पत्थर नीचे ढह गया हो। बड़ी मुश्किल से बलि के लिए घसीटकर ले जाया गया भैंसा आदमी समेत नीचे लुढ़क गया था।
वह भैंसा भागता हुआ जटाधारी के भक्तों की भीड़ में घुस गया। चीख-पुकार और हो-हल्ला के साथ सभी लोग तितर-बितर हो गये।
इस कोहराम के बीच हर्रे के पेड़ के नीचे हेनरी ब्राउन की पत्नी डरथी ब्राउन खड़ी रही। उसकी आँखों के सामने ही भैंसे ने सींग घोपकर एक भक्त की अंतड़ियाँ निकाल दीं और पहाड़ी के नीचे की तरफ़ भाग गया।
दो : छिन्नमस्ता
छप-छप् आवाज़ करती हुई नाव किनारे से लग गयी। नौकरों के एक दल के साथ डरथी ब्राउन के विश्वसनीय कर्मचारी मुंशी ने फुर्ती से किनारे पर पैर रखा। डरथी के लिए रहने की जगह का निर्णय हो रहा था। सभी जानते थे कि नदी-किनारे बना यह घर द्वारभांगा-घर नाम से प्रचलित है। लेकिन सचमुच हर घर द्वारभांगा राजा ने या फिर किसी देवी-भक्त राजा ने बनवाया था, यह बात किसी को अच्छी तरह से मालूम नहीं है। ईट से बने इस घर में चूने का लेप लगाया गया था। मज़बूत होने के कारण वर्षों तक यह घर टूटकर गिरा नहीं था।
मुंशी ने ब्रह्मपुत्र की तरफ़ देखा। थोड़ी ही दूरी पर ब्रह्मपुत्र ने बलि के खड्ग की तरह टेढ़ा-सा रूप लिया है। नदी के बीच बने उर्वशीवाले स्तम्भ के पास पानी के सूखने से रेत निकली हुई है। रेत का यह इलाक़ा धूप में सूखने रखी सफ़ेद बकरे की खाल जैसा दिख रहा है। मुंशी के साथ आये हुए लोगों में एक बढ़ई भी था। वह अपने औज़ार साथ लाया था। सब मिलकर कपड़ा रखनेवाले बक्से, लकड़ियाँ, लोहा और कुछ अन्य सामान नाव से उतारकर ले आये। दो-तीन लोग सीमेण्ट और रेत की बोरियाँ उठाते हुए फुर्ती से ऊपर चढ़ गये।
टूटने के कगार पर खड़े इस घर में अब तक एक कमरा खाना बनाने के लिए तैयार कर दिया गया था। उस रसोई में कुछ बर्तन, स्टोव और चीनी मिट्टी के कुछ कप-प्लेट भी रखे गये थे। दूरदर्शी मुंशी ने ही यह व्यवस्था की थी। बाक़ी चीज़ों का मुआयना करने के लिए मुंशी ऊपर चढ़ गया और सामान घर में रखकर बाकी लोग बाहर निकल आये। बाहर के धंसे हुए बरामदे में खड़े होकर मरियल-से चेहरेवाले बढ़ई ने कहा, “ओह, बहुत सुनसान जगह है ! मैं पहले घर के दोनों तरफ़ लगी हरे की डालियाँ काट देता हूँ, मेमसाहब नदी की शोभा देख सकेंगी। देखो, यहीं से शुक्रेश्वर-घाट स्पष्ट दिखाई दे रहा है। ब्रह्मपुत्र के स्रोत में वह सब क्या बहता आ रहा है ? उफ् जैसे पूरा एक जंगल बह रहा है !"
मुंशी ने आदेश दिया, “जाओ, जाओ, सीमेण्ट और रेत की बोरियाँ खोलो, जल्दी से काम में लग जाओ। उधर देखो, दरवाज़े की चौखट टूटी है, जल्दी से मरम्मत कर डालो !"
सब लोगों ने दौड़धूप कर अपने-अपने औज़ार निकाल लिये। हो-हल्ला करते हुए वे सीमेण्ट और रेत में पानी मिलाकर ताज़ा मसाला तैयार करने लगे। फुर्तीला बढ़ई दरवाज़े की चौखट की मरम्मत करने से पहले हाथ में कत्ता लेकर हरॆ की डालियाँ काटने के लिए बाहर निकल गया।
शाम तक बँडहर जैसे उस मकान में एक स्नानघर और एक सोनेवाले कमरे को साफ़-सुथरा और मरम्मत करके रहने लायक़ बना दिया गया। मुंशी ने सोनेवाले कमरे में पर्दे भी लगवा दिये ताकि मटरगश्ती करते लड़कों के झुण्ड को अन्दर झाँकने का मौक़ा न मिले। हर्रे की डालियाँ काटने के बाद घर के सामने से ब्रह्मपुत्र का रूप स्पष्ट दिखाई देने लगा था। बादलों से ढंका आकाश ! और नीचे एक भोजपत्र की भाँति चित पड़ा है ब्रह्मपुत्र ! मुंशी के चेहरे पर हँसी खिल गयी।
हाँ, इसी स्थान पर खड़ी होकर मेमसाहब ब्रह्मपुत्र की शोभा देख सकेंगी। उनके कमरे तक किसी को ले जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसी बरामदे में बैठकर वे जटाधारी के साथ बातें कर सकेंगी। क्लब से या दूर कहीं से कोई फ़िरंगी साहब अगर उनसे कभी मिलने आएँ तो वे भी बरामदे में बैठ सकेंगे। मन्दिर के आँगन तक ये साहब वैसे भी नहीं जाते लेकिन नदी पार करके इस घर में आना उनके लिए क्या मुश्किल होगा ? क्या पता क्या होगा ! हेनरी साहब ने गुस्से के मारे उस दिन ताँगेवाले को ही चाबुक से पीट दिया-एक ज़रा-सी ग़लती के लिए ! क्या पता आगे और क्या होगा !
एक हफ्ते के अन्दर ही देवी-भक्त राजा द्वारा कभी बनवाये इस बँडहर जैसे घर में से दो कमरे लोगों के रहने लायक़ बन गये। त्रिहुत, मधुपुर, उत्तरकाशी, नवद्वीप और यहाँ तक कि हिमालय से आये हुए संन्यासियों ने भादों-आश्विन महीने में मनायी जानेवाली मनसा-पूजा के समय इस घर में रहकर सारी चीज़ों को बिलकुल तहस-नहस कर दिया था। उनके इस्तेमाल किये हुए मिट्टी के बर्तनों, खड़ाऊँ, केसरिया वस्त्र के टुकड़ों, हुक्के के टूटे हिस्से और कबाड़ से सारे कमरे भरे हुए थे। वहाँ पड़ी सूखे गोबर जैसी कुछ चीजें गाय की थीं या आदमी की, यह समझना मुश्किल था-वे सूखकर बिलकुल कड़क बन गयी थीं।
माघ महीने की पूर्णमासी के दिन सिर से पाँव तक कपड़े से ढंकी डरथी ब्राउन बूढ़े बिपिन मुंशी का हाथ पकड़े नाव से उतरी। माघ महीने की इस चाँदनी रात को देवीपीठ ने एक अद्भुत रूप धारण कर लिया था। बाहर के कोहरे और पेड़-पौधों पर बिखरी हुई चाँदनी मानो देवी को बलि का खून अर्पण करनेवाले चाँदी के पात्र का चूर्ण है और ब्रह्मपुत्र ?...वह जैसे एक खड्ग बनकर पड़ा हुआ है। सियारों का एक झुण्ड उनके सामने से गुज़र गया।
मुंशी के साथ तेज़ी से डरथी ब्राउन आगे बढ़ी। उसके पीछे पोशाक और खाने के सामान की पोटली लेकर एक नौकर हाँफता हुआ ऊपर चढ़ रहा था। कई बार आने-जाने के कारण मुंशी ने इस रास्ते को अच्छी तरह से पहचान लिया था। डरथी ब्राउन के दुःखों को सहानुभूति की नज़र से देखनेवाले मुंशी ने जैसे उसकी शान्ति वापस लाने का संकल्प ले लिया है। इसीलिए इस खंडहर जैसे घर में डरथी के रहने की बात को लेकर उसे अपने मालिकों के साथ काफ़ी बहस करनी पड़ी थी। इस खंडहर जैसे घर में सियार, कुत्ते, बिना मालिक की गाय, घोड़े और मन्दिरों में घूमते भ्रष्ट संन्यासियों का अड्डा बन गया है-इसे ठीक-ठाक करके अगर किसी अच्छे घराने की अंग्रेज़ महिला को रहने दिया जाय तो कौन-सा पाप हो जाएगा?
बहुत शोरगुल और बहस होती रही। लेकिन बाद में मुंशी की ही जीत हुई। इसलिए आसपास के लोग मुंशी की हरकान्त सहरामीन के साथ तुलना करते हैं। आहोम राजा और गोरे साहब-दोनों के प्रिय थे हरकान्त सहरामीन।
मुंशी ने अपने हाथों से चिमनी साफ़ करके मिट्टी के तेलवाली लालटेन जलायी। डरथी ब्राउन का बिस्तर और मच्छरदानी तक लगा देने के बाद मुंशी ने उससे विदा लेते हुए कहा, “परशुराम चौकीदार को रात को यहाँ रहने के लिए ब्राउन साहब ने ही भेज दिया है। वह टूटे-फूटे कमरे में पड़ा रहेगा आपके पासवाले कमरे में। मैं उसे बरामदे में सोने के लिए कह सकता था, लेकिन बाहर बहुत ठण्ड है, ब्रह्मपुत्र की ठण्डी हवा से बिलकुल अकड़ जाएगा। आपको कोई एतराज है ?"
कमरे में अपना सामान सलीके से रखने में व्यस्त डरथी ने मुंशी को आँख उठाकर देखा, "उसे क्यों आने दिया ? मैं अकेली ही रह सकती हूँ।"
मुंशी ने विनती करते हुए कहा, “साहब ने बहुत बोला...और फिर जानवरों का डर भी है। अभी थोड़ी ही देर पहले आपने सियारों का झुण्ड देखा था न! परशुराम चौकीदार बहुत भरोसेवाला आदमी है। उसे आज आपके पास रहना ही होगा।" डरथी ब्राउन कुछ समय तक मुंशी का चेहरा देखती रही। फिर उसने कहा, “साहब के साथ अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मेरी अच्छाई-बुराई और मान-अपमान का फ़ैसला अब मैं खुद ही करूँगी। आज उसे रहने दो लेकिन कल मैं उसे वापस भेज दूंगी। सुनो, एक और बात है, अपने साहब से कहना कि मेरा हाल पूछने उन्हें यहाँ आने की ज़रूरत नहीं है।" । वृद्ध मुंशी की दोनों आँखें नम हो गयीं। उसने कमीज़ की जेब से रूमाल निकालकर अपना मुँह पोंछ लिया। फिर कहने लगा, “सोचने-समझने के लिए बहुत समय है। एक ही रात आपको बहुत सारी बातें सिखा देगी। सागर के समान अनुभव के लिए एक ही दिन काफ़ी है।"
डरथी से विदा लेकर नीचे उतरते समय काफ़ी रात हो चुकी थी। चारों तरफ़ निस्तब्धता छायी थी। चाँदनी रात की रोशनी में नदी तक जाता हुआ सँकरा-सा रास्ता साफ़ नज़र आ रहा था। ब्रह्मपुत्र में अब पूर्णतः खामोशी थी।
मुंशी नाव पर चढ़ गया। ठण्ड में काँपते हुए दोनों माझी मुंशी का इन्तज़ार कर रहे थे। चप्पू की छप्-छप् आवाज़ के साथ नाव आगे बढ़ने लगी।
रात के आखिरी पहर में डरथी की आँखें खुलीं। मच्छरदानी उठाकर उसने देखा कि ठीक से बन्द नहीं होनेवाली उसके सिरहाने की खिड़की बिलकुल खुली हुई है। वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गयी। खिड़की के पास जाकर उसने बाहर की तरफ़ देखा-जैसे उसे विश्वास ही नहीं हुआ ! वहाँ सामने ब्रह्मपुत्र है...रोशनी और अँधेरे के साथ वो क्या बहता जा रहा है ? कहीं कोई प्राचीन मन्दिर का बँडहर तो नहीं बहता जा रहा है !
अचानक किसी के खड़ाऊँ की आवाज़ सुनकर डरथी का पूरा शरीर काँप उठा-"वहाँ कौन है ? कौन है ?"
डरथी ने चारों तरफ़ देखा। हर्रे के नीचे नज़र पड़ते ही उसके रोंगटे खड़े हो गये।
वहाँ-वहाँ एक आदमी खड़ा है, हरे के नीचे। अच्छी तरह से देखने के बाद डरथी उसे पहचान गयी-वह तर्सा किनारेवाला, सात फुट लम्बा, सिरमुँडा संन्यासी है ! रात के उस आखिरी पहर में उसे यहाँ क्या चाहिए ? डरथी ज़ोर से चिल्लायी-“परश, परशु !"
खट्-खट् आवाज़ करता तर्सा-किनारेवाला संन्यासी हरे के नीचे से गायब हो गया।
अगले ही दिन चारों तरफ़ इस बात का प्रचार हो गया कि डरथी ब्राउन देवीपीठ में रहने आयी है। मुंशी भी सुबह ही हाज़िर हो गया। हर समय अड्डेबाज़ी करनेवाले मवाली लड़कों का दल द्वारभांगा राजा द्वारा बनाये हुए बँडहर जैसे घर के सामने ताक-झाँक करता रहा। दो-एक लड़के पासवाले जामुन के पेड़ पर बैठकर सीटी बजाने लगे।
“अब जटाधारी गोरी मेमसाहब का हाड़-मांस चबा जाएगा।" "मनोकामना पूर्ण करने के लिए जटाधारी उसे महाशंखमाला धारण करने के लिए कहेगा।"
"क्या कहता है !"
"हाँ, हाँ-महाशंखमाला के लिए ही कहेगा।" "उसके लिए ललाट की अस्थि कहाँ से आएगी ?"
"देख लेना, उस आदमी की जटा में ही ललाट की अस्थि मौजूद है, इस पीठ में यह सभी जानते हैं। अगर ललाट की अस्थि से बनी महाशंखमाला उनके पास मौजूद है, तब तो हमें अपनी तैयारी करने का समय हो गया है।"
छप्...छप्...छप्-ढपंग्...ढंग्...ढंग-
एक नाव किनारे पर लग गयी।
बन्दरों की तरह पेड़ की डालियों पर चढ़कर जटाधारी का निरीक्षण करनेवाले लड़के फुर्ती से नीचे उतर आये। अगर नाव किनारे पर लगी है तो वे गुवाहाटी जा सकते हैं। वे सभी खुशी से कोहराम मचाते हुए नीचे उतर आये।
जटाधारी डरथी मेमसाहब के सामने दरी बिछाकर बैठ गये। मुंशी ने बढ़ई का बनाया हुआ एक बड़ा-सा पीढ़ा बैठने के लिए ला दिया। वह बाहर के बरामदे में घुटने समेटकर बैठ गया। मुंशी के सिर के लम्बे बाल सफ़ेद हो गये थे। उसकी भौंहों के बाल भी सफ़ेद हो गये थे। पुराने असमिया लोगों की तरह वह कानों में सोने के दो छल्ले पहने था। उसकी आँखों और ठोड़ी के नीचे का मांस लटक गया था। लोग कहते हैं कि उत्तर गुवाहाटी का हरकान्त सहरामीन गोरे साहब के प्रति जिस तरह निष्ठावान था, गोरे साहब के साथ अच्छे सम्बन्ध रखनेवाला बिपिनचन्द्र मुंशी भी डरथी मेमसाहब के प्रति वैसा ही भाव रखता था।
एक-दो छिछोरे लड़के तब तक घर के आसपास ताक-झाँक करते रहे।
खम्भे से टिककर बैठा हुआ मुंशी घुटनों पर हाथ फेरते हुए जटाधारी को वह सारी बातें समझाने लगा जो डरथी नहीं समझा पा रही थी। एक बार चारों तरफ़ नज़र डालते हुए उसने जटाधारी को सब-कुछ खुलकर बता ही दिया-"ब्राउन साहब एक खासी जनजाति की महिला के साथ बहुत दिनों से सम्बन्ध बनाये हुए हैं, यह बात डरथी को पता ही नहीं थी। लन्दन से अचानक गुवाहाटी पहुँचने के बाद ही उन्हें चिट्ठियाँ, तस्वीरें और नक्शा मिले।"
"चिट्ठियाँ, तस्वीरें और नक़्शा ?"
"डरथी मेमसाहब एक साल से यहाँ नहीं थीं। इलाज कराने के लिए वे लन्दन गयी थीं।"
"कैसा इलाज ?" "हाँ प्रभु, इलाज कराने गयी थीं। बच्चे नहीं होते हैं।"
जटाधारी मौन बैठे रहे। उन्होंने डरथी की तरफ़ देखा। उसका पीला चेहरा जैसे गलने लगा। जैसे गले हुए सोने की धारा नीचे तक बह गयी हो। डरथी इशारे से कुछ कहना चाहती थी लेकिन अच्छी तरह से समझा नहीं सकी। कैसे बोलती वह ? उसकी सारी भावनाएँ जैसे बहकर जटाधारी के हृदय में बस गयीं। जटाधारी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। उनका पूजा का समय बीत रहा था। हड़बड़ाकर वे भागते हुए छिन्नमस्ता की तरफ़ गये। फिर अँधेरी कोठरी में छुपाकर रखे हुए एक बक्से को खोलकर रुद्राक्ष की मालाओं में लपेटी एक अन्य माला निकाल लाये। वे फिर नदी की तरफ़ मुँह करके बैठी हुई डरथी के पास आये और माला देते हुए कहने लगे, “यह महाशंखमाला है। नर के ललाट की अस्थि से यह माला बनी है। कान और आँखों के बीच की अस्थि ही महाशंख कहलाता है।"
डरथी को बिना स्पर्श किये उन्होंने माला उसके हाथ में दे दी। फिर ज़ोर से बोलने लगे-"माँ छिन्नमस्ता ! माँ, माँ !!"
डरथी ब्राउन का पूरा शरीर काँपने लगा। मुंशी उठकर उसके पास आया। मुंशी ने ध्यान से देखा कि एक तरह की रक्त की धारा उसकी नस-नस में प्रवाहित हो रही है।
ऐसा क्यों हुआ ?
यहाँ क्यों आयी वह ?
कुछ ही समय में जटाधारी सुबह का पूजा-पाठ छिन्नमस्ता के मन्दिर में समाप्त करके अपने डेरे की ओर चल पड़े। उन्होंने देखा कि दूसरे दिनों की तरह आज भी बहुत सारी औरतें उनसे मिलने आयी हैं। सबने सिर पर पल्ला डाल रखा है। लम्बी-नाटी, दुबली-मोटी-जटाधारी ने गिनकर देखा कि आठ औरतें आयी हैं। एक की गोद में छोटा-सा बच्चा है। बच्चा बार-बार माँ का दूध पीना चाहता था इसलिए उस औरत के सिर से हर बार पल्ला सरक जाता था। फिर से घूघट खींच लेते समय उसकी नुकीली नाक और भरेपूरे होठ दिखने लगते थे। दो फाँक लेटेकू (एक बैर जैसा गोलाकार खट्टा फल, जिसकी फाँकें बैंगना रंग की होती हैं।) की तरह थे उसके भरेपूरे होठ। उसी समय एक-एक करके मवाली लड़कों का झुण्ड वहाँ पहुँचा। लड़के पेड़ की डाली, कटे पेड़ों के दूंठ और पत्थरों पर बैठ गये। जब भी जटाधारी के पास औरतों का झुण्ड आता है, ये लड़के इसी तरह उनके डेरे के पास बैठ जाते हैं।
एक-एक करके सभी औरतें जटाधारी के रहस्यपूर्ण डेरे में घुस जाती हैं। अन्धकार-भरे डेरे में कभी-कभी उन औरतों के हाथ-पैरों के चमकते अंश दीपशिखा की तरह दिखाई देते हैं। बहुत दूर से ऐसा दृश्य देखा जा सकता है, और ये लड़के अच्छी तरह से जानते हैं कि किस ख़ास पेड़ की डाली से या कन्दरा से वे उन दृश्यों को देख पाएँगे। इसलिए वैसी ख़ास जगहों पर क़ब्जा करने के लिए वे रोज़ एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी बन जाते हैं। आज भी उन लोगों ने वैसा ही किया। एक-एक करके उस अन्धकूप जैसे डेरे से औरतें निकल आयीं। सभी के सिर चूँघटों से ढंके हुए थे।
चप्पू की छप-छप् आवाज़ फिर से सुनाई दी। नाव से मेखला (असमीया पोशाक) समेटती हुई एक औरत उतरी। उसने अपना बड़ा-सा जूड़ा काँटे से अटका रखा था। वह मूंगा (सुनहरे रंग के रेशमी कपड़े जो असम में बनते हैं।) की मेखला और सूती चादर पहने हुए थी। साथ में मार्किन कपड़े से सिला हुआ लोटे जैसी बाहोंवाला एक ब्लाउज़ भी पहन रखा था।
अपने दस साल के शैतान और चंचल बेटे को उस औरत ने हाथ पकड़कर नाव से नीचे उतारा। अगर लड़के की माँ हाथ नहीं पकड़ती तो वह नीचे कूद जाता और इस तरह से कूदने पर वह पानी में भी गिर सकता था। माँ ने बेटे का हाथ एक पल के लिए भी नहीं छोड़ा था।
औरत के बाद एक बूढ़ा आदमी नाव से उतरा। उसके लम्बे बाल बिलकुल सफ़ेद हो गये थे। उसने घुटनों के ऊपर तक ढंकी हुई धोती पहन रखी थी और खाली बदन पर एक मोटी चादर लपेट रखी थी। वह मुँह से कोई शब्द नहीं बोल रहा था। उसने गले में गाय बाँधनेवाला एक पगहा लपेट रखा था। हाँ, वह गाय बाँधनेवाला पगहा ही था।
कुछ पूछने पर वह कोई जवाब नहीं देता था। सिर्फ गाय की तरह रँभाता था। शायद वह प्रायश्चित्त के लिए दान माँगने आया है। उसे देखने के बाद किसी को समझने में देर नहीं लगी थी कि उसने गो-हत्या की है। गाय का पगहा गले में बाँधकर वह वर्षों तक भीख माँगकर खाएगा और इसी तरह उसके पापों का प्रायश्चित्त होगा। लेकिन क्या गो-हत्या उसने जानबूझकर की है ? या फिर किसी दुर्घटना के कारण ऐसा हुआ ?
तीनों जाकर छिन्नमस्ता के जटाधारी के पास खड़े हो गये। उनके सामने की खाली जगहों पर अब तक बाक़ी औरतों ने कब्जा कर लिया था। जटाधारी के बिलकुल क़रीब से दर्शन करके अपनी-अपनी समस्या बताने के लिए सभी बेसब्री से इन्तज़ार कर रही थीं। उनका एक स्पर्श जैसे सबके लिए मुक्ति का दरवाज़ा खोल सकता है, सिर्फ एक स्पर्श-थोड़ी-सी चरणधूलि-थोड़ा-सा स्पर्श-
मार्किन कपड़े का ब्लाउज़ पहने अभी-अभी नाव से उतरकर आयी उस भरपूर चेहरेवाली सुन्दर औरत ने चीखकर कहा, “मेरी बात सुनिए !"
सभी उसकी तरफ़ देखने लगे। वह खड़ी हो गयी और आसमान की तरफ़ हाथ उठाकर चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी, "मेरी बात सुनिए ! प्रभु, आज सुबह ही यह दुर्घटना घटी है।"
भक्त लोग एक साथ चिल्लाये-“कौन-सी दुर्घटना ? सुबह सुबह कौन-सा अनर्थ हो गया ?"
फिर से कहा औरत ने, “उस रेत के मैदान में, जहाँ साहब लोग बन्दूक चलाने का अभ्यास करते हैं, मेरा बेटा गेंद खेल रहा था।"
एक भक्त ने कहा, "लेकिन वह सुरक्षित जगह नहीं है। साहब लोग पेड़ पर गागल (नींबू की प्रजाति का फल। इसका आकार फुटबॉल जैसा बड़ा होता है और अन्दर सन्तरे जैसी फाँकें होती हैं।) लटकाकर बन्दूक़ से निशाना लगाना सीखते हैं। अगर कोई देखने आता है तो जूते से लात जमा देते हैं।"
“हाँ, हाँ, उसी गागल लटकानेवाले पेड़ के नीचे एक भयानक चीज़ से मेरे बेटे को ठोकर लगी थी।"
जटाधारी ने सवाल किया, "कौन-सी चीज़ ?"
औरत कुछ देर तक संकोच करती रही। फिर जटाधारी की आँखों में आँखें डालकर बोली, “किसी मरे हुए आदमी की खोपड़ी से उसका पैर टकराया था।"
“खोपड़ी ?" सभी लोग एक दबी-सी उत्तेजना में 'हाय हाय' कर उठे।
उस औरत ने संकोच के साथ कहा, "किसी का कटा हुआ सिर था शायद। बहुत बड़ा था और कुछ टेढ़ा-सा था।"
"टेढ़ा-सा ?"
“जी हाँ, टेढ़ा-सा।"
सब लोग आपस में बतियाने लगे, “ज़रूर देवी माँ को चढ़ाया हुआ सिर है।" किसी ने चिल्लाकर कहा भी, “हाँ, हाँ-वह ज़रूर देवी माँ के लिए चढ़ाया गया आदमी का सिर था।"
किसी ने फिर से कहा, "बहुत साल पहले की खोपड़ी कहीं ज़मीन में दबी पड़ी थी शायद ! देवी के लिए चढ़ाए हुए आदमी का सिर था वह ! देवी के लिए...!"
भीड़ में से कोई चिल्लाया, "माँ छिन्नमस्ता ! माँ, माँ छिन्नमस्ता !!"
वहाँ के सारे लोग एक साथ चिल्ला उठे, "माँ, माँ, माँ !!"
लोटे जैसा बाँहवाला ब्लाउज़ पहनी औरत की रोनी-सी सूरत बन गयी। बेटे पर अशुभ ग्रह का साया पड़ने के डर से वह काँपने लगी। सही तो है-देवी के लिए चढ़ाए गये नरमुण्ड को पैरों से ठोकर मारकर गेंद खेलने की हिम्मत की उसके बेटे ने। वैसे भी वह बहुत शैतान लड़का है !
जटाधारी ने खड़े होकर ब्रह्मपुत्र की ओर देखा। फिर उस औरत को तसल्ली देते हुए कहने लगे, “वह बच्चा है। माँ को गोद के बच्चे के लिए डरना नहीं चाहिए।"
“माँ, माँ छिन्नमस्ता !"
"माँ, माँ !!"
"बेटी, सिर्फ कुछ ही दिन पहले नरबलि का रक्त अर्पण करने के लिए इस्तेमाल किया हुआ एक ताँबे का और एक यज्ञवाली लकड़ी से बना कटोरा किसी भक्त ने मुझे दिया था। कालिका-पुराण के छिहत्तरवें अध्याय में सारे नियम स्पष्टरूप से लिखे हुए हैं।
“बलि के लिए अर्पण किये गये आदमी को अच्छी तरह से नहाना होगा। बलि के पहलेवाले दिन उसे बिना तेल-मसाले का भोजन करना पड़ेगा। मांस और मैथुन छोड़ना पड़ेगा। चन्दन के लेप और दूसरे गहनों से उसे सजाने के बाद उत्तर दिशा में अन्य देवताओं के साथ एक ही स्थान में बैठाकर पूजा करनी होगी।
ब्रह्मरन्ध्र में ब्रह्मा के लिए पूजा
नाक में पृथ्वी के लिए पूजा
जीभ में अग्नि के लिए पूजा
आँखों में ज्योति के लिए पूजा
कान में शक्ति और आकाश के लिए पूजा
सब-कुछ साफ़-साफ़ लिखा है कालिका-पुराण में। माँ भैरवी ने कई बार सुना है यह मन्त्र। छिहत्तरवाँ अध्याय पढ़ो-सब-कुछ साफ़-साफ़ लिखा है।
“मनुष्य का कटा हुआ सिर, जिस स्थान पर गिरता है वह स्थान दाता के सौभाग्य या दुर्भाग्य का पूर्वाभास देता है।" ।
भक्तों के बीच से कोई चिल्लाया, “छिन्नमस्ता के जटाधारी प्रभु, क्या आपने यह सब पहले कभी देखा है ?"
जटाधारी के मुँह से एक विकट चीख निकल गयी। 'माँ, माँ, माँ' कहकर वे चिल्ला उठे। फिर आँखें बन्द करके अपने हाथ भक्तों की तरफ़ उठाते हुए वे पहलीवाली बातें दोहराने लगे। उनकी नाक पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं। कोई दक्ष शिल्पकार जिस तरह से भगवान विष्णु की नाक गढ़ता है, ठीक उसी प्रकार की सुन्दर नाक है जटाधारी की।
उन्होंने फिर कहा, “मैं स्थान की बात कह रहा था। कटे हुए मस्तक की भविष्यवाणी के बारे में बता रहा था।
"ईशान दिशा में मस्तक गिरते हैं तो राजा का ध्वंस होता है। किस स्थान पर मस्तक गिरने से धनलाभ और पुत्रलाभ होता है, यह सब-कुछ स्पष्टरूप से कालिका-पुराण में लिखा है। छिन्नमस्तक के दाँतों से अगर कट-कट आवाज़ निकलती है तो बलिदाता रोग से ग्रस्त होगा। और यह भी लिखा है कि कटा मस्तक अगर हँसता है तो बलिदाता को सौभाग्य की प्राप्ति होगी। यहाँ तक कि कालिका-पुराण में यह भी लिखा है कि बलिवाला सिर आखिर में जो भी कहता हुआ आँखें बन्द करता है, वह वाक्य पत्थर की लकीर बन जाता है अर्थात् वैसा ही होता है। कटा सिर अगर हुंकार भरता है तो राज्य ध्वंसप्राप्त होता है, सब-कुछ नाश हो जाता है।"
अब तक वह औरत खड़ी होकर जटाधारी की बातें सुन रही थी। वह लगभग असहाय होकर बोली, “अब मैं क्या करूँ, महाप्रभु ?"
"बेटी, अब यह सब बातें अतीत बन गयी हैं। हवन में चढ़नेवाली बलि के अष्टांग के मांस की गन्ध अब ख़त्म हो गयी है। बलि दिये गये भैंसे के छिन्नमस्तक पर दीपक जलाकर अमरत्व पाने की कामना करनेवाले लोग, जिन्हें एक दिन और एक रात तक लगातार देवी के सामने खड़ा रहना पड़ता था-क्या आज के दिनों में ऐसे लोग मिलेंगे ? अब ये बातें अतीत के गर्भ में चली गयी हैं। अपने शरीर का रक्त दान करनेवाला पद्मपुष्पवाला बर्तन भी अब गायब हो गया है। वह भयानक अतीत अब अन्धकार की खाई में गुम हो गया है। वह अतीत फिर लौटकर नहीं आएगा। हम फूलों से बनी समाधि में उस अतीत को दफ़नाकर रख देंगे।"
वह औरत किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ी रही। उसे जैसे कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। वह खड़ी ही रही। उसकी आँखों से आँसू झड़ने लगे। बैठे हुए भक्तों में भी उसके लिए सहानुभूति जाग उठी।
लड़की की शादी करने में असमर्थ एक असहाय औरत भक्तों के बीच में बैठी थी। यह दुबली-पतली औरत माँ और बेटे को इशारा करती हुई बोली, “जाओ, जाओ, जटाधारी के बिलकुल क़रीब जाकर इस काण्ड के लिए समाधान पूछो, जाओ..."
मार्किन कपड़े से बना हुआ ब्लाउज़ पहने वह औरत भीड़ को ठेलती हुई बिलकुल जटाधारी के पैरों के पास जाकर खड़ी हो गयी। जटाधारी ने तीखी नज़र से औरत को देखा। उनकी नज़र छुरी जैसी तेज़ थी, जैसे शरीर के अदृश्य अंगों को भेदकर निकल जाएगी। औरत ने तुरन्त अपनी नज़र नीची कर ली और घुटने टेककर जटाधारी का चरणस्पर्श करने लगी। जटाधारी ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, "डरने की कोई बात नहीं है। वह नरमुण्ड देवी के लिए अर्पण किया गया था, इसका कोई प्रमाण नहीं है। निर्भय रहो, निर्भय रहो !"
वह औरत अपने शैतान बेटे को जटाधारी के चरणस्पर्श कराने के लिए खींचकर सामने ले आयी-लड़का जटाधारी के पास आना ही नहीं चाहता था।
ठीक उसी समय भक्तों को एक विकट चीख सुनाई दी। जख्मी शेर की तरह एक आदमी उसी तरफ़ भागता हुआ आ रहा था। भक्तों के सामने खड़ा होकर वह सामने बैठी एक औरत की तरफ़ भागा। वह औरत शराबी और लम्पट पति को सुधारने का तरीका संन्यासी से पूछने आयी थी। वह दूसरे भक्तों के बीच अपना चेहरा छुपाने की असफल कोशिश करने लगी। लेकिन शिकार को दबोचनेवाले शेर की तरह वह आदमी उसके बालों को पकड़कर चिल्लाने लगा, "ऐ साली कुतिया ! धान कूटना छोड़कर तू इस फ़िरंगी औरत-चोर संन्यासी के पास बैठी है-साली रण्डी, चल-घर चल!"
और वह बैठे हुए लोगों के ऊपर से ही उसे जबरन घसीटकर ले गया।
तीन : छिन्नमस्ता
काफ़ी देर तक बन्दूक की गोली की ढप्-ढप् आवाज़ आती रही। यह आवाज़ भुवनेश्वरी तक सुनाई दी। पहाड़ के नीचे कालीपुर में साहब लोग बन्दूक़ का निशाना लगाने का अभ्यास कर रहे थे। नाजुक लकड़ीवाले भातघिला1 और चेलेंग2 पेड़ों की डालियों में रस्सी से गागल लटकाकर गोली चलाने का अभ्यास करनेवाले साहबों का हो-हल्ला काफ़ी देर तक चलता रहता है।
पहले पौ फटने के समय लोग चेलेंग के बीज खाने आनेवाले जंगली कबूतर 'और मैना की चहचहाहट सुनते थे। लेकिन आजकल बन्दूक़ों की ढप्-ढप् और फ़िरंगियों के हँसने-खिलखिलाने की आवाजें सुनाई देने लगती हैं।
पहाड़ के नीचे नदी तक विस्तृत इस इलाके में कई प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। इमली, नीम, वटवृक्ष, अमलतास, हरसिंगार, मकुआँ3, मज4, चोंग5 पौधों की झाड़ियों और नदी-किनारे बरसात के मौसम में खिलनेवाले नीले जंगली फूलों की झाड़ियों से भरा है यह इलाक़ा। तितासैपा6, पमा7, डूमर, उरियाम8, खोकन और अन्य जंगली झाड़ियों से भरे कालीपुर के इस इलाके में दिन में ही शेर के दहाड़ने की आवाज़ सुनाई दे जाती है। पूर्वी बंगाल और असम के सरकारी अधिकारियों के ‘पोनी टाईड' या घुड़दौड़ के प्रशिक्षण का तामझाम इसी जगह पर लगा रहता है। अब तो बहुत से पेड़-पौधे कट गये। जब कैप्टन वेल्स की सेना इस रास्ते से गुज़री थी, तब भी इतने पेड़-पौधे नहीं कटे थे। आजकल जहाज़-कम्पनी के साहब लोग भी सुबह-सुबह साइकिल से यहाँ बन्दूक से निशाना साधने आते हैं। सुबह से लगातार यह आवाज़ आने लगती है। निशाने का अभ्यास करते समय कभी-कभी बया के घोंसले में गोली लग जाती है तो कभी कठफोड़वा के घोंसले में, और कभी-कभी तो उड़ते हुए धनेश पक्षी के शरीर में भी गोली लग जाती है। छिन्नमस्ता के जटाधारी के पास जमघट लगाकर बैठे भक्तों के बीच गोली खायी चिड़िया की देह धप से गिरती है-चौंककर बिखर जाते हैं भक्तगण।
(1. इस पेड़ में डाली नहीं होती, इसमें हल्के पीले फूल खिलते हैं। 2. इस पेड़ के पत्ते लाल रंग के होते हैं। इसके पत्ते 'एड़ी' रेशमी कीड़े को खिलाये जाते हैं। 3. मक्वा की फली, जिसमें बीज भरे होते हैं। 4. नाजुक लकड़ीवाला लम्बा जंगली पेड़। 5. मूंगा रेशम के कीड़े पलनेवाला जंगल। 6. लम्बे और चौड़े पत्तेवाला बड़ा पेड़ जिसके पत्ते रेशम के कीड़े खाते हैं। 7. इस पेड़ की कई प्रजातियाँ हैं। इसकी लकड़ी लाल और सफ़ेद रंग की होती है। सफ़ेद लकड़ी से फर्नीचर बनाया जाता है। लाल लकड़ी और इस पेड़ के फूल से पीला रंग बनाया जाता है। 8. इस पेड़ की लकड़ी फ़र्नीचर बनाने के लिए इस्तेमाल की जाती है।)
आज भी छिन्नमस्ता के संन्यासी के पास अनेक लोग आये हैं। कुछ लोग नाव से भी आये हैं और कुछ पैदल आये हैं। सब लोग किसी-न-किसी वजह से चिन्ता या समस्या से ग्रस्त हैं। कल जटाधारी को लोगों ने भरी दोपहरी में भस्माचल तक तैरकर जाते हुए देखा था। पण्डों की औरतों ने भुवनेश्वरी में पड़े हाथी के सिर के आकारवाले पत्थर पर खड़े होकर यह दृश्य देखा था। वैसे ये औरतें बाहर बहुत कम निकलती हैं। वे लाल किनारेवाली साड़ी पहनती हैं और माथे पर बड़ी-सी सिन्दूर की बिन्दी लगाती हैं। उन लोगों ने अपनी आँखों से जटाधारी को भस्माचल के पत्थरों पर खड़े होते हुए देखा था। हाँ, उन लोगों ने अपनी आँखों से ही यह दृश्य देखा था। पण्डा-परिवार की दो औरतें जटाधारी के लोगों के बीच खड़े होने से पहले ही फुर्ती से जाकर द्वारभांगा-घर के सामने खड़ी हो गयी थीं। फ़िरंगी मेमसाहब को देखने के लिए लोगों के मन में बहुत जिज्ञासा थी। द्वारभांगा-घर के आसपास ये लोग जमा हो गये थे। और फिर जटाधारी द्वारा डरथी को नरमुण्डों के ललाट से बनायी गयी महाशंखमाला देनेवाली बात चारों तरफ़ फैल गयी थी। आख़िर क्या है यह महाशंखमाला ?
लोगों में जिज्ञासा की सीमा नहीं है। और वह मेम हर समय दरवाज़ा-खिड़की बन्द करके अन्दर क्या करती रहती है ? सिर्फ़ पौ फटने के समय ही लोग उसे देख सकते हैं। उस समय वह ब्रह्मपुत्र के पानी के पास उतर आती है : जूता-मोज़ा, मोटा ओवरकोट और सिर पर ऊनी टोपी पहनकर ! कुछ समय टहलने के बाद फिर से अपनी ‘गुफा' में घुस जाती है।
जूता-मोज़ा, सिर पर टोपी और मोटा ओवरकोट । हाँ, हाँ-इसी रूप में सुबह पूजा के लिए पानी लेने जानेवाले दो पण्डे, तिब्बत से आया हुआ एक साधु और हर समय पीछा करनेवाले तर्सा-किनारे के संन्यासी ने उसे देखा है। टहलने के बाद बड़ी फुर्ती से वह ऊपर चढ़ती है और अपने घर पहुँचती है। फिर बरामदे में बैठकर वह ब्रह्मपुत्र की जलधारा देखने में मग्न हो जाती है।
लोग कहने लगे हैं कि सुबह उसे नदी के पानी पर चलती हुई 'देवी माँ' दिखाई देती हैं। देवी की तीसरी आँख नदी की लहरें, भस्माचल के वृक्ष और दूर के पर्वत-शिखरों में जैसे आग लगा देती है।
देवी माँ नीलाचल से हवा जैसी तेज़ गति से उतरती हैं। उनके हाथ में त्रिशूल होता है और गले में जवाकुसुम की माला। उनके वस्त्रों में बलि के खून के दाग़ दिखते हैं। यह जैसे त्रिपुरा-भैरवी का चमत्कार रूप हैं ! चतुर्भुजा, त्रिनयना, गजेन्द्रगामिनी ! नदी के पानी के साथ जैसे माँ चतुर्भुजा का कोई खेल शुरू हो जाता है !
जहाज़-कम्पनी के साहब राबर्ट स्मिथ ने कहा था-"मैंने छिन्नमस्ता के आदमी को देखा है। कोई भी उनकी आँखों से सीधे नज़र नहीं मिला सकता-एक प्रकार का ताप देखनेवाले के शरीर को जैसे झुलसा देता है।" स्मिथ ने और कहा था, "मैंने नाव से अमीन गाँव जाते समय उन्हें देखा है। वे पानी के अन्दर साधना कर रहे थे। उनकी जटा पानी में तैर रही थी। डरथी, क्या तुम यक़ीन करोगी, मैंने उनकी जटा के साथ लिपटा हुआ एक जहरीला साँप देखा है। मैंने अपनी आँखों से साँप के शरीर पर बनी पीली और काली धारियाँ देखी हैं। उनकी जटा के साथ वह विचित्र साँप बिलकुल मिला हुआ था!"
बड़े संकोच से रामबंशी और डम्बरू पण्डा की पत्नियाँ डरथी मेम के पास जाकर खड़ी हो गयीं। राम पण्डा की पत्नी ने पूछा, "कितने दिन रहोगी ?"
डरथी ने उसकी तरफ़ देखा लेकिन कोई जवाब नहीं दिया।
"क्या तुमने ब्राउन साहब को बिलकुल छोड़ दिया है ?" इस बार भी डरथी ने कोई जवाब नहीं दिया।
दोनों औरतें एक-दूसरे का चेहरा देखने लगी और फुसफुसाकर आपस में बात करने लगीं-“छिन्नमस्ता के संन्यासी ने शक्तिपीठ के लोगों से बातें करने के लिए मना कर दिया होगा। या फिर, असमिया भाषा नहीं जानती होगी।"
बंशी पण्डा की पत्नी ने कहा, “अरे, जानती है। गुवाहाटी के सारे फ़िरंगियों ने असमिया भाषा सीख ली है। कर्जन हॉल में वे किताबें भी पढ़ने जाते हैं।"
डरथी ने अब दोनों औरतों को ध्यान से देखा। अचानक वह चौंक उठी, “तुम लोगों के हाथों में यह सब क्या हुआ ? किस चीज़ के दाग़ हैं ये ?"
दोनों अपने हाथों को लाल किनारेवाली साड़ियों में छुपाने की कोशिश करने लगीं।
"बताओ, किस चीज़ के दाग़ हैं ये ?"
साड़ी का घूँघट हटाती हुई एक औरत ने कहा, "हम लोग रसोई में चूल्हे के पास लगातार रहते हैं, उसी से ऐसा हुआ।"
"रसोई में चूल्हे के पास ?"
“जी हाँ, यजमानों के लिए अगर हम खाना नहीं पकाएँगे तो कैसे होगा ?"
“यजमानों के लिए खाना ?"
“जी हाँ, साठ से अस्सी लोगों का खाना हमें ही पकाना पड़ता है।"
उन औरतों के हाथों में काली परत पड़ गयी है। आग के पास लगातार बैठने से बने इन दागों ने उनकी चमड़ी को विचित्र बना दिया है। जैसे ये हाथ नहीं, साँप के केंचुल हैं-सूखे और खुरदरे।
डरथी ने पूछा, “क्या यजमान लोग मुसाफिरखाने में नहीं रहते हैं ?"
बड़े आश्चर्य से दोनों औरतें एक-दूसरे की शक्ल देखने लगीं। साथ-साथ इधर-उधर भी देखने लगीं। कहीं फ़िरंगी मेम के साथ बातें करते हुए किसी ने देखा तो नहीं ? कुछ ही दिन पहले एक के ससुर ने किसी यजमान के साथ आँगन में बैठकर हुक़्क़ा पीते समय अपनी बहुओं से कहा था, "तुम लोग सभी सुन लो ! फ़िरंगी लड़की बोरिया-बिस्तर लेकर आयी है। ख़बरदार, आसपास मत जाना। हमारे छिन्नमस्ता के संन्यासी के साथ उसका उठना-बैठना है। ख़बरदार, तुम लोग आसपास मत जाना !"
ससुरजी की चेतावनी की याद आते ही वह औरत दो क़दम पीछे हट गयी। डरथी अन्दर जाकर जल्दी से 'फ़र्स्ट एड' का बक्सा उठा लायी। बिपिन मुंशी से उसने अच्छी तरह से असमिया बोलना सीख लिया था। उसने कहा, “आओ आओ, मैं तुम लोगों के हाथों में मरहम-पट्टी किये देती हूँ। ब्रिटेन जाते समय ‘मासोब्रा' जहाज़ से मैंने कुछ अच्छी दवाइयाँ खरीदी थीं। आओ, पास आओ !"
उनमें से एक डरथी मेम के पास बढ़ने ही लगी थी कि उसी समय बूढे पण्डे पंचानन शर्मा लाठी लेकर वहाँ हाज़िर हो गये। दोनों ब्राह्मण औरतों को वहाँ खड़ी देखकर वे चिल्ला पड़े, “छिः, छिः, क्या करती हो, क्या करती हो-फिर से नहाना पड़ेगा तुम लोगों को। सुबह-सुबह ये लड़कियाँ क्या काण्ड कर रही हैं, ज़रा देखो !"
झाड़ियों के बीच की सँकरी-सी गली से दोनों औरतें हड़बड़ाकर भाग गयीं।
'फ़र्स्ट एड' और मरहम का डब्बा पकड़े डरथी ब्राउन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहाँ कुछ देर तक खड़ी रही। फिर दवाइयों का डब्बा बन्द करके अन्दर चली गयी और दरवाज़ा बन्द कर लिया।
तर्सा-किनारे का सिरमुँडा संन्यासी ब्रह्मपुत्र में नहाने के बाद कुछ देर तक द्वारभांगा-घर के आसपास टहलता रहा। हर्रे के नीचे खड़े होकर उसने झाँक-झाँककर देखा। नहीं, डरथी के बाहर निकलने का कोई लक्षण उसे दिखाई नहीं दिया।
उसने चारों तरफ़ देखा। पूरा इलाक़ा बिलकुल सुनसान था। हरे के नीचे खड़े होकर उसने कन्धे पर लटके झोले से कुमकुम, गोरोचन और चन्दन-चूर्ण निकालकर ताम्रपत्र में रखा और मन्त्र पढ़ने लगा :
ओम् नमः क्षीप्रंग कामिनींग मे वशमानय स्वाहा...
ओम् नमः क्षीप्रंग कामिनींग मे वशमानय स्वाहा...
ओम् नमः चामुण्डे जयस्तम्भय स्तम्भय,
मोहय मोहय, सर्वसत्वानि स्वाहांग-
वशीकरण के अलावा भी वह कुछ दूसरे मन्त्रों का उच्चारण करने लगा। ये किस विषय में थे, समझना मुश्किल था। स्नान करने के बाद पण्डित लोग नियमानुसार पूजा-पाठ करते हैं-इस संन्यासी ने इसलिए मन्त्र पढ़ा था या और किसी कारण से, यह भी समझना मुश्किल था। तब तक शक्तिपीठ दर्शन के लिए आये कुछ यात्री नाव से उतरने लगे।
चप्पू की छप-छप् आवाज़ और लोगों का हो-हल्ला सुनाई दिया। नाव से एक हट्टा-कट्टा आदमी उतरा। उसकी गोद में लगभग तीन साल का एक बच्चा था। बायें हाथ से उसने बलि के लिए लाया गया एक बकरा पकड़ रखा था। बच्चा बकरे के साथ खेल रहा था। चितकबरा और मोटा-ताज़ा बकरा भी उस हट्टे-कट्टे आदमी की गोद में चढ़कर कान हिलाते हुए बच्चे के साथ जैसे खेल रहा था। बेचारे को क्या पता कि कुछ ही क्षणों में उसके खून से बच्चे का माथा रंगा जाएगा ! वह कैसे जान सकता है ? उस आदमी के पीछे-पीछे सिर पर घूघट डाले उसकी पत्नी भी नाव से उतरकर चलने लगी।
तर्सा-किनारे का संन्यासी पहाड़ से उतरकर उस हट्टे-कट्टे पुरुष के सामने खड़ा हो गया। फिर एक ताम्रपत्र दिखाकर कहने लगा, “खून दोगे ?"
बकरे ने बच्चे के सीने में सिर छुपाकर अपना बदन झाड़ा। बकरे के मालिक ने बायें हाथ से उसे कसकर पकड़ लिया। फिर से एक बार संन्यासी ने चिल्लाकर कहा, "ले जाओ, यह ताम्रपत्र ले जाओ। मुझे खून चाहिए।"
पुरुष के पीछे चल रही घूँघटवाली महिला ने बड़े संकोच के साथ संन्यासी के हाथ से ताम्रपत्र ले लिया और मन्दिर की तरफ़ बढ़ने लगी। तभी दूर से ही छिन्नमस्ता के जटाधारी की चीख सुनाई दी-“माँ, माँ, माँ !!"
“माँ छिन्नमस्ता माँ !"
कामाख्या के दरवाज़े पर एक ताँगा आकर रुक गया। ताँगा खींचनेवाले दोनों घोड़े बहुत सुन्दर थे। काले और सफ़ेद निशानवाले ऐसे घोड़े गुवाहाटी शहर में पहले नहीं देखे गये थे। दोनों घोड़े पेशावर से गुवाहाटी तक-आधे रास्ते तक रेल से और आधे रास्ते पानी के जहाज़ से-बड़ी मुश्किल से मँगाये गये थे। पूरे गुवाहाटी शहर में ऐसे ताँगे सिर्फ तीन-चार ही थे। इनमें से एक ताँगा था बीस नम्बर ब्रिटिश इण्डिया स्ट्रीट कलकत्ते की ट्रेल एण्ड कम्पनी में काम करनेवाले फ़िरंगियों का। ग्रेट इण्डियन पेनिन्सिला रेलवे के साहब के पास भी ऐसा ताँगा था। वे चाय के बगीचेवाले साहबों के पास बहुत ज़्यादा आते-जाते थे और पाण्डू के कप्तानसिंह ताँगेवाले के पास एक ऐसा ‘फीटन' छोड़ जाते थे। ऐसा नियम कई साल पहले शिलांग के ईस्टर्न बंगाल एण्ड आसाम कम्पनी के पी. डब्ल्यू. डी. के कार्यकारी सचिव डब्ल्यू बैंक गाईथर बना गये थे। उन दिनों कप्तानसिंह के पिता हुकमसिंह ‘फीटन' का व्यापार करते थे।
हृष्ट-पुष्ट हेनरी ब्राउन सावधानी से ताँगे से उतर गये। उनका सीना चालीस इंच का था और उनकी उम्र भी शायद चालीस से ज़्यादा नहीं थी। सिर में शहद निचोड़े छत्ते के रंगवाले घने बाल थे। उनके नाक-नक्श यूनानी देवताओं की तरह तीखे थे और नीली गहरी आँखें उनकी तेज़ बुद्धि का परिचय देती थीं। वे ख़ाकी रंग के पैण्ट-शर्ट के साथ उसी रंग के 'फैल्ट हैट' पहनते थे।
हेनरी ब्राउन साहब को देखकर ऐसा लगता था कि शायद उन्हें किसी फ़िल्म का नायक बनना चाहिए था। लोग उनके बारे में ऐसा ही सोचते हैं।
हेनरी ब्राउन जूते से खट्-खट् आवाज़ करते हुए ऊपर चढ़ गये। ताँगेवाले के साथ बैठा हुआ बूढ़ा मुंशी भी अपनी धोती समेटता उनके पीछे-पीछे ऊपर जाने लगा।
ताँगेवाले ने 'फीटन' को रास्ते के किनारे रोक दिया।
हेनरी साहब को पहाड़ चढ़ने की आदत थी। लेकिन इस समय उनका मन क्षोभ और क्रोध से भरा हुआ था। इसलिए वे हाँफते हुए ऊपर चढ़ रहे थे। बीच में एक-दो जगह पर उन्होंने तेज़ी से चलने की कोशिश की, लेकिन 'मेखला उजोआ (कोचबिहार के राजा नरनारायण द्वारा बनवायी पत्थरों की सड़क, जो मन्दिर की ओर जाती है।) रास्ते पर उन्हें पत्थर पर बैठकर लम्बी-लम्बी साँसें खींचनी पड़ी। मुंशी अपने कोट की जेब से रूमाल निकालकर साहब को पंखा झलने की कोशिश करने लगा, लेकिन साहब ने हाथ के इशारे से मुंशी को दूर हटने के लिए कहा। सिर से ‘फ़ैल्ट हैट' उतारकर वे उसी को हिला-हिलाकर हवा करने लगे। फिर उन्होंने अपनी ढीली खाकी पैण्ट के जेब में हाथ डालकर रूमाल निकाला और मुँह पोंछने लगे। उनकी गहरी आँखों में गुस्सा और अपमान की आग सुलग रही थी।
अचानक आवाज़ आयी-"हेईया हो, हेईया हो !"
आवाज़ उन्हीं की तरफ़ बढ़ रही थी-"हेईया हो, हेईया हो।"
सबने देखा कि कन्धे पर पालकी उठाकर कुछ कहार उसी तरफ़ आ रहे थे और उनके मुँह से ये आवाजें निकल रही थीं।
"हेईया हो, हेईया हो !"
हेनरी साहब और मुंशी ने देखा कि पालकी का पीछा करता हुआ लोगों का एक झुण्ड भी उधर ही आ रहा है। वह मरीज़ों को ढोनेवाली पालकी थी। हेनरी साहब ने देखा कि पालकी में एक जख्मी आदमी लेटा है। उसके कपड़ों में खून के धब्बे हैं।
मुंशी ने थोड़ा आगे बढ़कर साहब को देखकर रुके एक पण्डे से पूछा, “क्या हुआ है ?"
"भक्त है, कोचबिहार से आया था। बड़ा बेटा बीमार है और हाथ में रुपया-पैसा नहीं है। बकरा या भैंसा की बलि चढ़ाने की सामर्थ्य नहीं थी, इसलिए उसने अपना शरीर काटकर रक्तदान किया था।"
अपना शरीर काटकर रक्तदान ? हेनरी साहब सिहर उठे।।
एक दूसरे भक्त ने कहा, "देवी के कालिका-पुराण में लिखा है कि एक कमल के फूल की पंखुड़ी में जितना रक्त रखा जा सकता है-भक्तों को उसका एक चौथाई से ज़्यादा खून दान करना उचित नहीं है। अपने हृदय से एक तिल के समान मांस देवी को दान करता तो छह महीने के अन्दर उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जातीं। बीमार पड़ा हुआ लड़का-उठकर बैठ जाता, लेकिन-"
"लेकिन क्या ?"
कोचबिहार का यह भक्त तेज़ धारवाले चाकू से अपना शरीर काटकर रक्तदान करता हुआ मन्त्रों का उच्चारण कर रहा था-
"महामाये जगन्नाथे सर्वकाम-प्रदायिनी
ददामि देहरुधिरं प्रसीद वरदा भव-"
और उसी समय बेहोश होकर वह गिर पड़ा। हेनरी साहब की आँखों के सामने से 'हेईया हो, हेईया हो' करती हुई पालकी आगे बढ़ गयी। पालकी के अन्दर बेहोश पड़े भक्त की गड्ढे में घुसी बन्द आँखें हेनरी ब्राउन ने देखीं। 'हेईया हो' करता हुआ झुण्ड भी पालकी के साथ-साथ नीचे उतर गया।
साहब और मुंशी ने फिर क़दम बढ़ाये। बूढ़ा मुंशी खेद प्रकट करता हुआ कहने लगा, “हम लोगों को नाव से आकर पहाड़ के दूसरी तरफ़ से चढ़ना चाहिए था। उस रास्ते से सीधे द्वारभांगा-घर तक पहुँच सकते थे। साहब, आप बेकार ही इतने परेशान हो रहे हैं। मैं मेमसाहब के लिए बिलकुल सही व्यवस्था कर आया था।"
चूँकि हेनरी ब्राउन का मन गुस्से और क्षोभ से भरा था, इसलिए वे जितनी तेज़ी से हाँफते हुए ऊपर चढ़े, उतनी ही तेज़ी से निराशा ने उन्हें घेर लिया। थकान के साथ-साथ उनका क्रोध भी बढ़ने लगा।
जिस समय वे दोनों द्वारभांगा-घर के सामने पहुँचे, घर के सारे दरवाजे-खिड़की बन्द थे। हेनरी ब्राउन चिल्लाने लगे-"डरथी, डरथी !!"
अन्दर से कोई भी आवाज़ नहीं आयी। फिर से चिल्लाये हेनरी-"डरथी, मैं तुम्हें वापस ले जाने के लिए आया हूँ। तुम इस तरह से यहाँ नहीं रह सकती।"
घर के चारों तरफ़ वे कुछ समय तक टहलते रहे। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बूढ़ा मुंशी वहाँ खड़ा रहा। वह सोचने लगा कि क्या दरवाजे पर दस्तक देनी चाहिए ? लेकिन साहब के सामने ऐसा करना उसे उचित नहीं लगा।
फिर से चिल्लाये हेनरी ब्राउन, “डरथी, डरथी ! उफ् ये मच्छर और कीड़े ! पास में ही दो-तीन लोग काल-ज्वर से मरे हैं। निकल आओ, डरथी, निकल आओ ! मैं तुम्हें लेने आया हूँ। डरथी ! डरथी ! देखो, मैं खुद तुम्हें लेने आया हूँ।"
बरामदे में खड़े होकर हेनरी ने नीचे की तरफ़ देखा-वह है विशाल ब्रह्मपुत्र-पानी के साथ क्या चला जा रहा है ? तैरता हुआ क्या है वो ऐसा लगता है जैसे टूटे हुए प्राचीन मन्दिर के टुकड़े पानी में तैर रहे हैं। बिलकुल काले रंग का पानी-उफ् भयानक है, जैसे मृत्यु का फ़रमान तैरता जा रहा है !
"डरथी, डरथी !"
दरवाज़े के पास खड़े होकर विनय के स्वर में ब्राउन साहब ने कहा, "डरथी, यह जगह तुम्हारे लिए नहीं है। कृपया निकल आओ। डरथी, यहाँ दूसरा नियम चलता है, समझने की कोशिश करो !' हेनरी साहब दरवाजे पर खड़े होकर विनती करने लगे-"डरथी, अब स्थिति खराब हो रही है, क्रान्तिकारियों ने उस दिन स्मिथ को ताँगे से घसीटकर कैसे पीटा था, सुना नहीं तुमने ? सुना नहीं-तुम्हारे ही दोस्त स्मिथ को..."
बूढ़े मुंशी ने भी हेनरी साहब के पास खड़े होकर कहा, "मेमसाहब, साहब ठीक ही कह रहे हैं। आपके लिए यह स्थान सुरक्षित नहीं है। निकल आइए, मेमसाहब आप बाहर निकल आइए-इस इलाके में अब ज़्यादा गड़बड़ होनेवाली है। जनवरी की दो तारीख़ को साइमन कमीशन पाण्डू पहुंचेगा। हमें ख़बर मिली है कि कॉटन कॉलेज के कुछ छात्र लाठी-डण्डे लेकर तैयार बैठे हैं। पिछली रात को छात्रावास में बन्दूक्तं मिली हैं। किसी को भी अब डर नहीं है-दरवाज़ा खोलिए मेमसाहब !"
नहीं-डरथी ने दरवाज़र नहीं खोला।
हेनरी साहब क्रुद्ध हो उठे। वे इस क्रोध को ज़्यादा समय तक दबा नहीं पाये-“निकल आओ, मूर्ख औरत ! बाहर निकलो !"
वे दरवाजे पर लातें जमाने लगे और सिर मारने लगे। बिलकुल पागल आदमी की तरह वे दरवाज़े पर अपना सिर पीटने लगे। खुरपी जैसे दाँतवाला बूढ़ा मुंशी घर के पिछवाड़े जाकर देखने लगा कि कहीं कोई खिड़की तो नहीं खुली है। वह घर के चारों तरफ़ टहलने लगा। आसपास के भक्त और संन्यासी वहाँ जमा होने लगे। सब लोग मज़ा लेने लगे।
ठीक उसी समय हरे के पेड़ की दिशा में एक खिड़की खुली। डरथी ब्राउन ने चिल्लाकर कहा, “तुम यहाँ आकर तमाशा क्यों कर रहे हो ? आखिर क्यों ?"
साहब भी गला फाड़कर चिल्लाने लगे। कहने लगे कि डरथी ने यहाँ आकर सिर्फ़ उनके गाल पर ही नहीं, पूरी ब्रिटिश सभ्यता पर तमाचा मारा है।
“अब बाहर निकलो। मैं नीचे ताँगा रोके खड़ा हूँ। निकलो, अब और समय बरबाद करने की ज़रूरत नहीं है।"
डरथी खिड़की फिर से बन्द करने ही वाली थी, उसी समय हेनरी ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया और साथ-साथ चिल्लाने भी लगे-"निकलो, बाहर निकलो !"
डरथी दाँतों से काटकर हेनरी से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगी। दोनों में खींचा-तानी शुरू हो गयी। डरथी हेनरी की सख्त मुट्ठी से अपना हाथ छुड़ाकर जहरीले साँप की तरह फुफकारती हुई बोलने लगी, “मैं वापस नहीं जाऊँगी। मैंने सब-कुछ सुना है। मैंने उस ख़ासी औरत के बारे में सुना है। उसके पेट में बच्चा हेनरी साहब चिल्ला उठे, “उसके पेट में बच्चा है ?"
इसका मतलब उस बदमाश ने तुम पर जादू-टोना कर दिया है ! बदतमीज़ औरत ! छिनाल कहीं की ! तुम क्यों यहाँ आयी थीं-नंगी लेटने के लिए ? मैं...मैं..."
मुंशी हेनरी साहब का हाथ पकड़कर पीछे खींचने लगा।
ठीक उसी समय हट-हट की आवाज़ के साथ नदी के पानी से छिन्नमस्ता के : जटाधारी ऊपर चढ़ आये। वे लगभग नंगे थे। उनके शरीर और जटा से पानी का । स्रोत बह रहा था। किसी गहरी साधना के बाद जैसे अर्धचेतना की स्थिति में वे पानी से बाहर निकले थे। लोगों के करीब पहुँचकर वे चीख़ उठे-"माँ छिन्नमस्ता ! माँ महादेवी ! माँ धूम्रावती ! माँ, माँ !"
पहली बार हेनरी साहब ने छिन्नमस्ता के इस आदमी को ध्यान से देखा। उनके साथ नज़र मिलते ही साहब की आत्मा जैसे काँप उठी। साहब को लगा जैसे उसके शरीर के कुछ ढंके हुए अंग अन्दर ही अन्दर टूट रहे हैं।
मुंशी का हाथ पकड़कर वे हड़बड़ाते हुए नीचे उतरने लगे।
चार : छिन्नमस्ता
कोचबिहार में यजमानी करते समय दान में मिला हुआ चावल बेचने के लिए 'हनुमान-दरवाज़े' के पास दो ब्राह्मण बैठे थे। उनकी सहायता के लिए कई नौकर भी थे। पहाड़ी के ऊपर और निचले हिस्से में रहनेवाले लोग उनसे चावल ख़रीदने के लिए इकट्ठा हो गये थे। वहाँ छोटी-मोटी भीड़ लगी थी। इस तरह के सुगन्धवाले 'खरिकाजहा' चावल कामरूप (जिला) के बाज़ार में देखने को भी नहीं मिलते। इसके अलावा पहाड़ी के ऊपर और निचले हिस्से में रहनेवाले लोग और दूर से आये देवीभक्त लोगों के मन में चावल बेचनेवाले इन ब्राह्मणों के प्रति बहुत सहानुभूति भी थी, क्योंकि ख़ाली देह पर मोटे कपड़े की चादर ओढ़कर आनेवाले ये अधेड़ उम्र के ब्राह्मण 'कन्याशुल्क' देने में असमर्थ थे और इसलिए उन्हें पूरे जीवन रँडुआ बनकर जीना पड़ता है। वे कोचबिहार में यजमानी करके कुछ रुपये-पैसे इकट्ठा करना चाहते थे, लेकिन उम्र किसी के लिए रुकती नहीं है। इसी चक्कर में उन लोगों के बाल सफ़ेद हो गये। उनके लिए कोई लड़की नहीं जुट पायी।
शायद इसलिए उन लोगों का व्यवहार कर्कश और बातचीत में चिड़चिड़ापन था। रुपये-पैसे का अभाव और शादी न होने के कारण हर समय उन लोगों की आँखों में एक उदासी रहती है। कभी-कभी लोग जब सौदा तय करते समय नौकरों से बहस करते हैं तो वे ब्राह्मण ख़रीददार को दो-चार कड़वी बातें सुना देते हैं। उनके दुबले-पतले नौकर भी कभी-कभी चिल्ला उठते हैं। फिर बासमती चावल खरीदने के लिए नरपारा, हेमतला, बामुनपारा और बेजपारा के ग्राहक भी वहाँ जमघट लगाते हैं।
आज पहाड़ी पर अनेक लोग हैं। सभी सिर से पाँव तक कपड़ों से ढंके हुए हैं। भातधिला, होलोंग और पमा पेड़ों से अब भी ओस टपक रही है। पहाड़ों के बड़े-बड़े पत्थर ओस से भीग रहे हैं। पहाड़ी पर चढ़नेवाले भक्तों में से दो-चार ने बासमती चावल खरीदने का आग्रह किया। उन्होंने अपने मन से चावल ख़रीदे। वैसे आज इतने सारे भक्त किसी विशेष कारण से पहाड़ी पर आये हैं। इस कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि में पुष्य नक्षत्र की सन्धिवेला में देवीपीठ में आने का कारण है कि आज कामेश्वर शिव और कामेश्वरी पार्वती के विवाह का उत्सव है। कल अधिवास (शुभकार्य की पहली शाम को की गयी शुरूआती पूजा और अन्य कार्य।) था। चाँदी की पालकी में कामेश्वर की मूर्ति विराजमान कर पूरी शक्तिपीठ की परिक्रमा करने के बाद मन्दिर में उस मूर्ति की स्थापना की गयी है। इस विवाह के उपलक्ष्य में जल से भरे कलश लेकर चलनेवाली औरतें मधुर गीत गा रही हैं, जिनसे चारों दिशाएँ मुखर हो उठी हैं। हवाओं के साथ जैसे संगीत की ध्वनि तैरने लगी है-
रुद्रानी पार्वती देवी महेश मोहिनी
पाषाणकन्या माता नितान्त पाषाणी।
अचानक धोती-कमीज़ पहने लगभग बीस युवा लड़के शोर मचाते हुए ऊपर चढ़नेवाले भक्तों को सावधान करने लगे-“छिन्नमस्ता के जटाधारी से सावधान रहो ! नारी समाज, सावधान रहो! डरथी फ़िरंगी, भाग जाओ, भाग जाओ !"
भक्तों को धक्का देते हुए ये उद्दण्ड लड़के कूदते-फाँदते नीचे उतर गये। दूर से आये भूलाईहार, कोचबिहार और उत्तर-शेखदारी के भक्तों को डरथी फ़िरंगी के बारे में कुछ भी पता नहीं था, इसलिए उन्हें लड़कों की बातें समझ में नहीं आयीं। वे सिर्फ़ माँ, माँ तारा, माँ भैरवी, माँ छिन्नमस्ता, माँ-माँ का उच्चारण करते हुए पहाड़ी पर चढ़ रहे थे। सिर पर पगड़ी बाँधे और शान्तिपुरी धोती पहने दो ब्राह्मण मन्दिर जानेवाले रास्ते की सीढ़ियों पर खड़े थे। वे देवी-प्रणाम-मन्त्र गा रहे थे।
दोनों ब्राह्मण नदी के उत्तरी किनारेवाली बेहिसाब ज़मीन के मालिक थे। देवीपीठ में उनके आने का एक अन्य कारण था-दोनों ब्राह्मण-देवेश्वर शर्मा और हरकान्त शर्मा- के पुत्र कॉटन कॉलेज के छात्र हैं। जॉन साइमन के असम पहुँचने के पहले ही वे लड़के छात्रावास से गायब हो गये थे। इधर सरकार द्वारा लड़कों के माँ-बाप के पास चिट्ठी भेजी गयी है। चिट्ठी में लिखा था कि साइमन के सामने विरोध प्रदर्शन करनेवाले छात्रों को कॉलेज से बर्खास्त कर दिया जाएगा। दोनों ब्राह्मण छिन्नमस्ता के अड्डे में अपने लड़कों को ढूँढ़ने के लिए पहाड़ी पर आये हैं।
ऊपर चढ़नेवाले रास्ते पर उन्हें उत्तरी दिशा के विलायत (कोचबिहार में यजमानी करने जानेवाले ब्राह्मणों को विलायत जाना कहते थे।) से लाये गये बासमती चावल भी दिखे लेकिन उन्होंने उस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। दोनों के हाथों में लाठियाँ थीं। उन्हीं के सहारे वे पहाड़ी पर चढ़ रहे थे। उन्हें बहुत उम्मीद थी कि उनके बेटे शिवनाथ और रामगोपाल एक दिन पढ़-लिखकर वकील बनेंगे और अपने बाप का नाम रोशन करेंगे : सभी के लिए जमीन के अधिकार पर पाबन्दी लगाने की जो बातें चल रही हैं, उसके लिए उन्हें परेशान नहीं होना पड़ेगा। बेटे के वकील बन जाने के बाद वे इस जमीन को आपस में ऐसे बाँट लेंगे कि किसी को उनकी चतुराई का पता ही नहीं चलेगा।
हाथ में लाठी लिये वे सावधानी से आगे बढ़ने लगे। ऊपर जानेवाले रास्ते का यह हिस्सा जंगली पौधों और लताओं से भरा हुआ है। बीच-बीच में उन्हें लाठी से इन लताओं को रास्ते से हटाना पड़ा।
गणेश की मूर्ति और त्रिशूल लेकर बैठे एक संन्यासी के सामने लम्बे होकर पड़े एक ढोलकिया से ब्राह्मणों की भेंट हुई। इन सज्जनों को देखते ही वह ढोलकिया हड़बड़ा गया। अपना सिर जमीन में टिकाये हुए ही उसने दोनों को प्रणाम किया और बिलखकर बोला, “प्रभु, मैं पुलु ढोलकिया हूँ !"
उसे देखकर हरकान्त शर्मा चौंक उठे-“अरे, तू तो बोरका या महखुलि का ढोलकिया है न ? क्या हुआ तुझे ? बीमार है क्या ? या फिर अफ़ीम का नतीजा है यह ?" पुलु ढोलकिया फुर्ती से हरकान्त शर्मा के पैरों के पास खड़ा हो गया-“प्रभु, मेरी हालत बहुत बुरी है! लड़का बीमार है।" कहकर वह हरकान्त शर्मा के पैर पकड़कर बिलखने लगा।
दो क़दम पीछे हटकर शर्मा चिल्ला पड़े, “क्या करता है-क्या करता है..."
कन्धे पर लटके गन्दे-से गमछे से मुँह पोंछकर उसने शर्मा के कान में फुसफुसाते हुए कहा, “क्षयरोग हुआ है। आसपास वालों ने बिलकुल सम्बन्ध तोड़ दिये हैं।"
"किसको हुआ है क्षयरोग ?"
"मेरे बेटे गजेन को।"
शर्मा ने लम्बी साँस लेते हुए कहा, “हाय हाय, तेरे बेटे को यह महारोग कैसे लगा ?"
पास में बुत की तरह खड़े देवेश्वर शर्मा बोल उठे, “पिछले साल देवध्वनि उत्सव के समय मैंने उसे कैहाती, डिमऊ, बोरका और महखुलि के ढोलकिया के साथ इसी पहाड़ी पर देखा था। एक बार वह बगलादेवी का घोड़ा भी बना था न ?"
पुलु ढोलकिया गमछे को मुँह में ठूसकर फिर बिलख-बिलखकर रोने लगा-"प्रभु, असम के ऊपर और नीचेवाले इलाके में प्रचलित कितने ही ढोल बजाने की शैलियाँ-टेलुटोपी वाद्य, बाटबोलनी वाद्य और सभाबाँधनि वाद्य सीखकर वह बिलकुल पारंगत हो गया था और-और, उफ्-सर्कस भी सीखा था उसने, कोचबिहार के एक उस्ताद से लगातार तीन बार कलाबाज़ी खाना सीखा था उसने-और अब वह खटिया से ही नहीं उठ सकता !"
"सुना है उसे ढोल बनाने की कला भी आती थी ?"
“जी हाँ प्रभु, उसने धरल सत्र (वैष्णव मठ) से गीत भी सीखा था। आप लोगों ने ही सुनकर 'वाह वाह' की थी !"
"भेड़िये की तरह ढोल लेकर कूदना-साथ में ऊपरी असम के धरल सत्र में गाये जानेवाले गीत लगातार सुर लगाकर गाना-" पुलु ढोलकिया रुदन-भरे स्वर में गाने लगा, जिसका सारांश है-कत्थई, लाल, नीला और हरा-
यही चार रंग ढोलक में सर्वदा लगाये जाते हैं। लंका के रावण से ढोल बनानेवाली विधि मिली और बढ़ई ने सुन्दर ढंग से ढोल का निर्माण किया। धोबी के वीर्य से मोची का जन्म हुआ। तभी बढ़ई ने मोची की सहायता से ढोल, खोल और मृदंग का निर्माण किया। उन्होंने ढोल को सुन्दर रंग से अलंकृत किया। सत्य, द्वापर आदि चार युगों में मोची ने बढ़ई की सहायता की है। दक्षिण दिशा में गो-वध किया जाता है (अमावस्या में) और मोची दस खम्भे गाड़कर गाय की चमड़ी धूप में सुखाते हैं। उसके पाँच हिस्से बनाकर फिर ढोल का निर्माण किया जाता है। (यह तथ्य गोपीकान्त मेधी के ढोल-वाद्य ग्रन्थ से लिया गया है।)
पुलु ढोलकिया सुर लगाकर गा रहा था या रो रहा था, यह समझना मुश्किल हो गया। हरकान्त शर्मा पुल के पास जाकर उसे स्पर्श किये बिना ही तसल्ली देने लगे-
“सर्वशक्तिमान महादेवी की कृपा से तेरा सारा दुःख दूर हो जाएगा। महादेवी छिन्नमस्ता ! हे माँ, हे माँ !"
तीनों एक साथ बोल उठे, “माँ, माँ-माँ देवी, माँ भैरवी, माँ सर्व-दुःख-नाशिनी ! माँ !"
लाठी के सहारे कुछ दूर तक आगे बढ़ने के बाद, अचानक देवेश्वर शर्मा ने हरकान्त शर्मा के कान के पास आकर कहा, “पुलु ढोलकिया ही शायद उन लड़कों के छिपने की जगह दिखा सकता है। क्या पता, भागते फिरनेवाले स्वयंसेवी लड़के शायद कोटिलिंग के पास बने ढोलकिया के अफ़ीम का नशा करनेवालों के अड्डे में छिपे हों !"
हरकान्त शर्मा ने हाँ में सिर हिलाया। दोनों लाठी के सहारे ऊपर चढ़ने लगे। दोनों का अनुकरण करते हुए पुल ढोलकिया ने भी कदम बढ़ाये।
"सुन पुलु, तू हमें दूसरे रास्ते से ले जा, हम ढोलकियों के अड्डे देखना चाहते हैं।"
अब पुलु दोनों से आगे हो लिया। लेकिन यह छोटा रास्ता अच्छा नहीं था। नगरबेरा, कटहाँ और दूसरी कँटीली झाड़ियों से पूरा रास्ता लगभग ढंका हुआ था। और फिर इस तरह से पहाड़ी पर पैदल चलने की दोनों सज्जनों की बिलकुल आदत नहीं थी। इसलिए कुछ दूर जाने के बाद ही दोनों एक बड़े-से पत्थर पर बैठ गये। पुलु ढोलकिया की देह पर नज़र पड़ते ही हरकान्त और देवेश्वर शर्मा ने दूसरी तरफ़ मुँह घुमा लिया। ऐसा हाड़-कंकाल जैसा ज़िन्दा आदमी शायद उन लोगों ने पहले नहीं देखा था। संन्यासी के पास बैठते समय उसे उन लोगों ने ध्यान से नहीं देखा था।
"हाय, हाय-पुलु तेरे शरीर की हालत तो बहत खराब है !"
"बहुत परेशान हूँ प्रभु ! ज़मीन और बेटे की चिन्ता मुझे खाये जा रही है।"
"कहाँ की ज़मीन है ?"
"बरहिर के तरफ़ की है प्रभु ! आधी ज़मीन नदी ले गयी और आधी बन्धक ते निकालने के लिए मैं गया था तो वे कहते हैं..."
"क्या कहते हैं ?"
"मैंने कहा, पूरी नहीं तो थोड़ी-सी ही ज़मीन दी दे दीजिए !
"तो बोले, 'ए पुलु, ज़मीन क्या बलि का कटा हुआ बकरा है कि अलग-अलग हिस्सा बना दें ?' "
तीनों फिर से आगे बढ़ने लगे। अब कुछ दूर तक तीनों मौन रहे।
तब तक ऊपर मन्दिर के आसपास हल्लागुल्ला शुरू हो गया था। मन्दिर में शायद भक्तों की भीड़ बढ़ रही थी। इस समय शायद सूखी घास से बने आसन पर बैठकर विशालकाय पुजारी हर-गौरी को 'आदाजाल' (पूजा का एक विधान।) दे रहे हैं।
पुलु ढोलकिया के साथ दोनों ब्राह्मण घने जंगलों से घिरे सँकरे गुप्त रास्ते से आगे बढ़ने लगे। अपनी लाठियों से दोनों ब्राह्मण जंगली लताओं, झाड़ियों और साथ में पहाड़ी पर बनी छोटी-छोटी गुफाओं के मुँह भी खोंचकर देखते गये। इस सुनसान एवं डरावनी जगह में अगर कोई अस्त्र-शस्त्रों के भण्डार छुपाकर रख दे तो किसी को पता ही नहीं चलेगा। आख़िर देवेश्वर और हरकान्त बुरी तरह से थक गये। दोनों अब बूढ़े हो चले थे। इस तरह से श्रम करना उनके वश की बात नहीं रह गयी थी।
"हमें दो दिन यहीं रह जाना चाहिए। यहाँ का कोना-कोना छान मारना होगा।"-दोनों आपस में बोलने लगे।
पुलु ढोलकिया फिर घुटने टेककर विनती करने लगा, “प्रभु, प्रभु, मेरा क्या होगा ? मेरा क्या होगा ? मेरा बेटा अगर मर गया तो मैं कैसे जिऊँगा ? प्रभु, मैं क़सम खाकर कह रहा हूँ-मैं ज़िन्दा नहीं रहूँगा। कुछ रुपये-पैसे देकर मेरी सहायता कीजिए प्रभु ! ताकि मैं गुवाहाटी के अस्पताल में उसका इलाज करवा सकूँ !"
इस सुनसान जंगल के बीच पुलु ढोलकिया दोनों ब्राह्मणों के पैरों पर गिर पड़ा।
देवेश्वर शर्मा कुछ दूर पीछे हट गये। फिर कुछ सोचते हुए बोले, "पिछले हफ्ते हमारे पण्डा डम्बरूधर ने बरामदे में बैठकर बातचीत करने के दौरान कहा था कि कैसे वह फ़िरंगी लड़की संन्यासी के कब्जे में फँसी है। सुना है, वह फ़िरंगी लड़की पण्डों की औरतों को मरहम-पट्टी करने गयी थी। यजमानों के लिए खाना पकाते-पकाते उन औरतों के हाथ-पैर और मुँह की चमड़ी काली पड़ गयी थी-पूरे बदन खुरदरे हो गये थे।"
हरकान्त शर्मा ने हामी भरते हुए कहा, “लेकिन तुम क्या कहना चाहते हो, खुलकर कहो-तभी ढोलकिया को समझ में आएगा।" पुलु ढोलकिया ने भी हामी भरी, “जी हाँ, जी हाँ-प्रभु !"
“सुन पुलु, तू पौ फटते ही-जब वह फ़िरंगी औरत टोपी पहनकर नदी किनारे जाती है, उसी समय द्वारभांगा-घर के बरामदे में पड़े रहना। मैंने सुना है कि उनके पास रानी और राजा जॉर्ज की तस्वीरोंवाले ढेर सारे चाँदी के सिक्के हैं।"
पुलु ढोलकिया को समझा-बुझाकर दोनों ब्राह्मणों ने अब अपने-अपने पण्डों के पास पहुँचने के लिए तेज़ी से क़दम बढ़ाये।
माँ ! माँ ! माँ ! छिन्नमस्ता !
माँ ! माँ ! माँ !
डरथी ब्राउन हड़बड़ाकर उठ बैठी। यह चीख छिन्नमस्ता के आँगन से आ रही है। छिन्नमस्ता के जटाधारी ज़रूर इस समय साधना पर बैठे होंगे। ज़रूर नदी से साँप तैरता हुआ जटाधारी की जटा में घुस गया होगा और जटा के चारों तरफ़ कुण्डली बना रहा होगा।
आधी रात का समय है। छिन्नमस्ता के जटाधारी की चीख के साथ भैंसे के खुरों की आवाज़ एकाकार हो गयी है। खट्...खट्...खट् । ओह ! कौन-सा पक्षी बोल रहा है ? उल्लू है क्या ? बरामदे के पासवाले पेड़ पर बैठकर हुक्...हुक् ...हुक् आवाज़ कर रहा है ! ब्रह्मपुत्र से भयानक हु...हु आवाज़ आ रही है-मृत्यु के बिलकुल क़रीब पहुँचनेवाले व्यक्ति की आखिरी साँस जैसी आवाज़। ओह ! इस आधी रात को कौन-सी पूजा के लिए भैंसा लाया जा रहा है ? इस आधी रात को भी बलि के लिए भैंसा ले जा रहे हैं लोग ! भैंसे के सामने घण्टा बजाया जा रहा है-टन्... टन्...टन् !!
खट्...खट्...खट्।
बलि के लिए आगे बढ़ते हुए भैंसा की स्थिर और बड़ी-बड़ी आँखें डरथी की नज़रों के सामने तैरने लगीं। इस अन्धकार में जैसे दो डरावनी आँखें उन्हें देख रही हैं।
डरथी ब्राउन अब उठकर बैठ गयी। हाँ-हाँ, इस आधी रात को बलि के लिए लाए गये भैंसे के खुर की आवाज़ उसकी धड़कनों के साथ मिलकर एक जैसी हो गयी है।
खट्...खट्...खट् !
इस अन्धकार में क्या भैंसे को पथरीला रास्ता दिख रहा होगा ? उसे घसीटकर ले जानेवालों के हृदय जैसे रूखे-कर्कश पत्थरों को देख पा रहा है वह ? एक ज़िन्दा प्राणी के हृदय की पीड़ा नहीं समझ पानेवाले लोग हैं ये !
खट्...खट्...खट् !
इस आधी रात को कौन-सी पूजा होगी ? ओह ! उसके गले में पानी डालने के लिए काफ़ी जद्दोजहद करनी होगी। रस्सी और पानीवाला घड़ा लेकर लोगों की भाग-दौड़ शुरू होगी। वह आगे नहीं बढ़ना चाह रहा है। लोहे की तरह सख्त हो गया है उसका गुप्तांग ! उसके मुँह से झाग निकल रहा है ! वह विष्ठा निकाल रहा है। ये लोग जैसे यमदूत बन गये हैं-साक्षात् यमदूत !!
माँ, माँ, माँ, माँ कात्यायनी माँ ! यह कैसी मुक्ति है ? कैसी मुक्ति है यह ?
डर के मारे सिमटकर बैठ गयी डरथी। इस ठण्ड की रात में भी उसकी 'नाइट ड्रेस' पसीने से भीग गयी। मच्छरदानी उठाकर वह बिस्तर से नीचे उतरी और लालटेन की बत्ती बढ़ा दी। कुछ मच्छर उसके कान में भुन-भुन करने लगे। नहीं, नहीं, इस आधी रात को वह खिड़की खोलना नहीं चाहती। बाहर नग्न ब्रह्मपुत्र एक रहस्यपूर्ण रूप लेकर बह रही है।
वह मेज़ पर रखे पानी के बर्तन और चाँदी के ग्लास के पास गयी। ग्लास में पानी भरा और एक ही साँस में सारा पानी पी गयी। 'नाइट ड्रेस' उसके शरीर से चिपकी हुई थी। उसके ताँबे जैसे रंगवाले बाल मन्दिर के शिखर में बने सोने के 'कलश' की तरह चमक रहे थे। वे कन्धे तक ऐसे बिखरे थे जैसे किसी सुनहरे घड़े से शहद बहकर फैल रहा हो।
माँ, माँ, माँ छिन्नमस्ता ! माँ छिन्नमस्ता !!
क्या संन्यासी के पास चली जाए ? डरथी ने सोचा। इस समय उसके मन में कोई डर, कोई दुविधा या कोई ग्लानि नहीं थी।
दरवाजा खोलकर उसने हाथ में लालटेन उठा ली। पहरा देनेवाला कोई आदमी आसपास नहीं था। धीरे-धीरे चलकर वह छिन्नमस्ता के नीचेवाली कोठरी के पास खड़ी हो गयी। आश्चर्य की बात यह थी कि कोठरी की सीढ़ियों पर उसके चढ़ते ही अन्दर से दरवाजा खुल गया। सीढ़ी के नीचेवाली वेदी पर उसने छिन्नमस्ता के जटाधारी को देखा। मिट्टी के दीये की रोशनी में संन्यासी का शरीर स्पष्ट दिख रहा था। ताम्रवर्ण की जटा उनकी पीठ पर काले नाग की तरह खुली पड़ी थी। बलि दिए गये भैंसे के छिन्नमस्तक में दीपक जलाकर लम्बे जीवन की साधना करनेवाले साधक की तरह उनके दोनों नेत्र दीप्तिमान थे। एक छोटे-से लाल वस्त्र के टुकड़े से उनका गुप्तांग ढंका था। उनके चारों तरफ़ फैले थे लाल जवाकुसुम के फूल-जैसे किसी भक्त ने अपनी गर्दन, ललाट, कान के ऊपर का भाग, बाँहें, स्तन और नाभि का रक्त देवी को उत्सर्ग किया हो और वही रक्त जवाकुसुम फूल बनकर पड़ा हो जटाधारी के सामने।
जटाधारी ने कहा, "मैं जानता था कि तुम आओगी।"
वह सीढ़ियाँ उतरकर जटाधारी के बिलकुल पास आ गयी।
"क्या मन अशान्त है ?"
डरथी ने कुछ नहीं कहा।
"किसी के पास शान्ति नहीं है।"
डरथी ने उनके चेहरे से अपनी नज़र हटा ली।
“फटे वस्त्र में पैबन्द टाँकने की तरह हम लोग अपनी देह और मन को बलि में कटे पशु की चमड़ी से सिलकर रखते हैं। हमारे मन में भी शान्ति नहीं है।"
जटाधारी उठे और मिट्टी के बर्तन में रखी मदिरा एक ही साँस में पी गये। हाथ के इशारे से उन्होंने डरथी को अपने पास बुलाया। बिलकुल नीचेवाली सीढ़ी पर डरथी बैठ गयी। जटाधारी के शरीर की गन्ध डरथी ने महसूस की। सड़ी हुई निर्माली की तरह थी वह गन्ध । कच्चे मांस की तरह थी वह गन्ध !
जटाधारी फिर से खड़े हो गये और मिट्टी के बर्तन में मदिरा उँडेलकर एक बार और पी गये। उसके बाद वे मिट्टी का बना पंचप्रदीप डरथी के चेहरे के पास ले आये। उसके ताम्रवर्ण बाल अब बलि काटनेवाले खड्ग की तरह चमक उठे।
धीरे-धीरे मिट्टी के दीये की रोशनी उसकी नुकीली नाक और ताज़े कटे हुए मांस के दो-टुकड़ों की तरह होठ तक उतरने लगी। गर्दन की नर्म चमड़ी से होकर पंचप्रदीप की रोशनी अब उसके भरपूर स्तनों के पास रुक गयी। जैसे गहरे पानी में दो लहरें हिलने लगी हों। इन लहरों पर रोशनी के चिपचिपे-से आवरण-
उसकी रात की पोशाक चीरकर जैसे मुक्त हो गये हों सफ़ेद मांस के दो टुकड़े !
पाँच : छिन्नमस्ता
रत्नधर नाव से आये कुछ भक्तों की तस्वीरें बनाने की तैयारी में लगा था। ब्रह्मपुत्र अब बिलकुल शान्त था। उसकी देह पर जैसे हवनकुण्ड की सफ़ेद राख फैली हुई थी। इस समय भस्माचल में छाया है। काले पत्थर के एक टुकड़े की तरह स्थिर है पूरा भस्माचल।
एक विशालकाय नाव पर सवार यात्रियों को रत्नधर बड़े ध्यान से देख रहा था। इस नाव में आनेवाले भक्तगण कुरुवा की तरफ़ के थे। उनमें दो मरीज़ भी थे। दोनों मरीजों को लोगों ने सहारा देकर नाव से उतारा। दो जवान लड़कियाँ भी आयी हैं। वे सूती चादर और लोटे के की डिज़ाइनवाली बाँहों का ब्लाउज पहने हैं। साथ में आये दो लड़के बलि के लिए लाये दो बकरों को घसीट-घसीटकर घाट से ऊपर चढ़ा रहे हैं। रस्सी खींचने से लगी चोट से बकरे मिमिया रहे हैं।
रत्नधर ने जटाधारी का आदेश मानकर पिछले कुछ दिनों से कई तस्वीरें बनाने का संकल्प ले लिया है। रणचोवा पत्थर के पासवाले चपटे पत्थर पर उसने तस्वीरें बनाने का सामान रखा है। कभी-कभी हवा से उड़कर उसका काग़ज़ और अन्य सामान ब्रह्मपुत्र की रेत पर बिखर जाता था। शाम को जटाधारी द्वारा तय किये गये विशेष जुलूस के लिए लोगों को इकट्ठा करना भी रत्नधर का काम था। लोगों में जिज्ञासा की सीमा नहीं थी। बच्चे जटाधारी के शरीर में कुण्डली बनाते साँप को देखना चाहते थे।
लोगों को इकट्ठा करने का काम गुप्तरूप से होता था। कामाख्या के अलावा नीचेवाले इलाके में स्थित संस्कृत गुरुकुल के छात्रों को इकट्ठा करने का आदेश जटाधारी ने सिर्फ रत्नधर को दिया था। संस्कृत गुरुकुल ही नहीं, कॉटन कॉलेज के लोहे के दरवाज़े के पास भी वह खड़ा हुआ था। कर्जन हाल में पढ़ने जानेवाले छात्रों से मिलने वह हीघलीपुखरी (एक बड़ी झील) के किनारे अमलतास पेड़ के नीचे खड़ा रहता था। कर्जन हाल में आने-जानेवाले छात्रों से वह मिलता था और उन्हें धीमी आवाज़ में छिन्नमस्ता के जटाधारीवाले जुलूस के बारे में बताता था।