छै बीघा जमीन (ओड़िया उपन्यास) : फकीर मोहन सेनापति, अनुवादक : युगजीत नवलपुरी

Chhe Bigha Zamin (Oriya Novel in Hindi) : Fakir Mohan Senapati

सन् 1902 में प्रकाशित छै बीघा ज़मीन ओड़िया के अप्रतिम कथाकार फ़क़ीरमोहन सेनापति द्वारा लिखित कालजयी उपन्यास छमाण आठगुंठ का हिन्दी अनुवाद है। इस उपन्यास को उन्होंने पचपन बरस की पूरी परिपक्व अवस्था में लिखा था और इसके बाद बीस बरस और जिए थे। अंग्रेजी की अत्यंत स्वल्प और सामान्य शिक्षा लेकर वह उड़ीसा के विभिन्न भागों में शासन कार्य का भार सँभालते रहे थे और इस प्रकार उन्होंने जनता की दशा का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस भरपूर और बहुरंगी अनुभव को आत्मसात् करने से जो फल प्रसूत हुआ, वही है यह छै बीघा ज़मीन ।

चित्रण-दोषों से सर्वथा मुक्त चरित्रांकन, वास्तविकता से लिये गए जीवन-चित्र तथा लेखक की अनुकरणीय शैली ने छै बीघा ज़मीनको कला के चरम उत्कर्ष की एक कृति बना दिया है। कालांतर में इस कथा तथा इसमें विवेचित समस्याओं की अर्थवत्ता का महत्त्व घट सकता है, परंतु मानव-स्वभाव के मौलिक तथ्य तथा जीवन के मौलिक मूल्य फिर भी सदा बने रहेंगे और ओड़िया साहित्य के चरम उत्कर्ष की एक कृति के रूप में इस पुस्तक ने आकर-साहित्य का जो पद प्राप्त किया है, उसके गुण सदा अक्षुण्ण रहेंगे।

पूर्विका

पिछली शती के दूसरे अर्धक में भारत की प्रायः सभी भाषाओं के साहित्य में एक उभार-सा आया था। साहित्यिक गतिविधियों की चहल-पहल हर कहीं दिखाई देती थी। मुख्य कारण था पश्चिम की विद्या और एक नई भौतिक चेतना का प्रभाव। इस प्रभाव ने इन गतिविधियों को धक्का-सा देकर आगे ढकेलना शुरू कर दिया था। मध्य-काल की कविता पर संस्कृत की विधाओं और विधियों का जो राज था, वह मिट चला। अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन से प्रेरित नए प्रयोगों ने उनका स्थान लेना शुरू कर दिया। जीवन के प्रति साहित्य का दृष्टिकोण पहले से अधिक प्रत्यक्ष और यथार्थवादी हो चला। छापेखाने के आने से तो पुस्तकों के बाजार में एक क्रांति ही आ गई। गद्य, और विशेष रूप से कथा-साहित्य ने, कविता से कहीं अधिक प्रमुख स्थान पा लिया।

इस नए युग के साथ जिस उड़िया गद्य और कथा-साहित्य का जन्म हुआ, उनके पिता फकीरमोहन सेनापति माने जाते हैं। 1857 ई. में भारत की स्वाधीनता के लिए जो पहला संग्राम हुआ, उस समय वह चौदह बरस के थे। गद्य को उनकी जो देन है, उसमें प्रमुख हैं उनके चार उपन्यास, कहानियों का एक संग्रह, और एक अपूर्व आत्म-कथा, जिसमें आदिम जातियों के किसी विद्रोह से सफलता के साथ निपटने वाले एक शासन अधिकारी के साहसिक कृत्यों और मनोरंजक दाव-पेंचों के विवरण भरे पड़े हैं।

'छै बीघा जमीन' फ़कीरमोहन की सर्वोत्तम कृति है। इस उपन्यास को उन्होंने पचपन बरस की पूरी परिपक्व अवस्था में लिखा था और उसके बाद बीस बरस और जिए थे। अंग्रेजी की अत्यंत स्वल्प और सामान्य शिक्षा लेकर वह उड़ीसा के विभिन्न भागों में शासन-कार्य का भार सँभालते रहे थे और इस प्रकार जनता की दशा का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस भरपूर और बहुरंगी अनुभव को आत्मसात् करने से जो फल प्रसूत हुआ, वह है यही है बीघा जमीन ।

इस कहानी की ध्यान-धारणा, इसकी भाषा और इसमें चित्रित चरित्र, सभी की जड़ें देश की मिट्टी में बहुत ही गहरी गई हैं। शेख दिलदार मिदनापुर का एक बड़ा जमींदार था, जिसकी जमींदारी उड़ीसा में थी । रामचंद्र मंगराज उसी जमींदारी का था और उसके कांरिंदे का काम करता था। लगान की वसूली में तो वह सवा सोलह आने यमदूत था, लेकिन वसूली के बाद अधिकांश आय वह आप ही हड़प कर लिया करता था। अपने मालिक दिलदार को वह यह कह-कहकर धोखा दिया करता था कि फसलें मारी जाती हैं, जिससे किसान लगान चुकाने से मजबूर रहते हैं।

दिलदार ने अपने कारिंदे के बयान की झुठाई-सचाई का पता लगाने की परवाह कभी नहीं की। कारण, वह था पियक्कड़। रामचंद्र मंगराज से कर्ज ले-लेकर पीते रहना और पी-पीकर धुत्त बना रहना, बस इतने ही से उसे पूरा संतोष था। इसके सिवा और किसी बात की उसे कोई परवाह नहीं थी। उस बेचारे को क्या पता था कि जो रुपये वह कर्ज लेता है, वे वासतव में उसी की जमींदारी के लगान के हैं? सो, विश्वासघाती मंगराज अपने मालिक की मूर्खता का लाभ उठाकर फलता-फूलता रहा।

उसी गाँव गोविंदपुर में एक ताँती परिवार रहता था। दो ही प्राणी थे, पति भागिया और पत्नी सारिया । उनके पास संयोगवश कुछेक एकड़ जमीन ऐसी थी, जिसकी उपज गाँव के सभी खेतों से अच्छी होती थी। (उसी के नाम पर इस उपन्यास का नाम है 'छअ माणॉ आठँ गुंठ' का अर्थ है: छै एकड़ आठ डिसमिल) उपजाऊ धरती के उस छोटे-से टुकड़े पर रामचंद्र मंगराज की लोभ-दृष्टि पड़ गई। उसने इसे हथियाने का संकल्प कर लिया। भागिया और सारिया के कोई बाल-बच्चे नहीं थे, जो इस जमीन के वारिस होते। उन्हें संतान की लालसा होनी स्वाभाविक थी। धूर्त मंगराज इस बात को खूब जानता था। गाँव की देवी के पुजारी से साँठ-गाँठ करके उसने भागिया और सारिया को ठगने का तिकड़म भिड़ाया। यह काम उसने चंपा नाम की एक बदचलन औरत को सौंपा, जो उसकी पाप-संगिनी थी।

उन भोले ताँतियों को यह विश्वास दिलाने में चंपा को कोई कठिनाई नहीं हुई कि पुजारी के द्वारा देवी ने यह इच्छा प्रकट की है कि आवश्यक पूजा चढ़ाने पर उन्हें एक पुत्र होगा। इस प्रस्ताव को उन्होंने ललककर मान लिया। देवी के आसन तले गुप्त रूप से एक बड़ा-सा गड्ढा खोद लिया गया और मंगराज का एक पाप-संगी उसमें छिप बैठा। पूजा के बाद भागिया और सारिया की जोड़ी जब पुत्र का वर माँगने के लिए प्रार्थना करने लगी तो गड्ढे में छिपा हुआ आदमी चिल्ला उठा कि "मेरे लिए एक मंदिर बना दो तो तुम्हें धन और सोने की कोई कमी नहीं रहेगी। तीन बेटे भी होंगे। और मेरा आदेश नहीं माना गया तो मैं भागिया को मार डालूँगी।"

चंपा की सलाह से भागिया मंगराज के पास पहुँचा और अपना एकमात्र खेत बंधक रखकर मंदिर बनाने के लिए कर्ज ले आया। निदान मंगराज ने उस खेत को हड़प कर लिया। सूद में उनकी एकमात्र गाय भी हथिया ली। नितांत दरिद्रता और निराशा के मारे बेचारा भागिया पागल हो गया और क़ैद कर लिया गया। उसकी अभागिन पत्नी मंगराज की साध्वी पत्नी से भीख पा-पाकर किसी तरह दिन काटती रही। दुःख और निराशा की मार सहने में असमर्थ होकर आखिर वह भी चल बसी।

मंगराज भी अधिक दिनों तक पाप की कमाई के फल नहीं भोग सका। गाँव चौकीदार ने पुलिस को यह सूचना दे दी थी कि भागिया की पत्नी की मृत्यु का कारण मंगराज ही था, जिसने मारते-मारते उसकी जान ले ली थी। मंगराज पकड़ लिया गया, लेकिन गवारी के अभाव में उसे सिर्फ छै महीने के सश्रम कारावास की सजा हुई, भागिया की गाय चुराने के अपराध में।

जेल के अनेक कैदी ऐसे थे, जिनके मन में मंगराज के प्रति वैर-भाव था। कारण मंगराज ही उनके दर्भाग्यों का दाई था । अब मंगराज उन्हीं जैसा एक कैदी भर था। इसलिए उसे चिढ़ाने-कढ़ाने या कूटने-पीटने के किसी भी अवसर से वे चूकते नहीं थे। उधर उसको पाप-संगिनी चंपा और उसके टहलुआ गोविंद ने उसके बचे-खुचे सारे रुपये-पैसे और जेवर निकाल लिए और भाग निकले। रास्ते में इस लूट के माल के बँटवारे के सवाल पर दोनों में झगड़ा हो गया और गोविंद ने सोती हुई चंपा को मार डाला। फिर पकड़े जाने के डर से वह आप भी नदी में डूब मरा।

जेल में मंगराज का जीवन अत्यन्त ही दयनीय हो उठा था। कैदी उसे जब-तब पीटते ही रहते थे। पागल भागिया ने दाँतों से उसकी नाक काट डाली थी। जब वह मरने-मरने को हो चला था, तब कहीं उसे रिहा किया गया। घर लौटकर देखा कि घर खाली है, सूना और वीरान है। मरन-खाट पर पड़ा-पड़ा पछतावे के मारे वह अपनी उस धर्मात्मा पत्नी के सपने देखता रहता था, जो उसकी अपेक्षा के मारे बहुत पहले ही मर चुकी थी। दम तोड़ते समय वह उसी की याद में राहत और शांति खोज रहा था।

कथानक अत्यंत ही करुण है, फिर भी इसे बड़े ही हल्के हाथों और हास्य-रस की शैली में निबाहा गया है। भाषा सीधी-सादी और बोल-चाल की है। ऐसा तो है यह 'छै बीघा जमीन' -जीवन और समाज पर एक सशक्त व्यंग्य । कथा के परिधान में यह एक गंभीर अध्ययन है । और इसे कुछ ऐसे ढंग से लिखा गया है कि जीवन की गंभीरता को जीवन की मुसकानों और मखौलों से बिलगाना कठिन हो उठता है। इसमें जिन समस्याओं की विवेचना की गई है, वे हमारे समाज के इस आधुनिक परिवेश में भी किसी-न-किसी रूप में ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। यह एक ऐसी बात है जो इस पुस्तक की जीवनमयी उच्छलता का ही एक प्रमाण है, एक विरुद है। उड़िया जीवन की समस्त यथार्थता का कोई मानचित्र अंकित करना कहीं संभव होता तो उसमें से 'छै बीघा जमीन' के किसी भी पात्र को न तो बाहर रखा जा सकता था और न ही उसके स्थान पर किसी और को रखा जा सकता था।

मंगराज, चंपा और गोविंदा-जैसे खल भी उसी दयनीय गति को प्राप्त करते हैं, जो कि मंगराज की पत्नी, भागिया और सागिया-जैसे निरीह, धर्मात्मा और साधु प्राणियों की हुआ करती है। मरते समय मंगराज को जो कटु पश्चात्ताप हुआ था और जिस प्रकार उसने अपने-आपको लानत मलानत दी थी, उससे लेखक का यह विश्वास ही प्रकट होता है कि कठोर-से-कठोर पत्थर दिल बन चुके हत्यारे का भी हृदय-परिवर्तन हो सकता है। उपन्यास की प्रत्येक घटना और उसका प्रत्येक चरित्र जीवन का सच्चा प्रतिबिंब है और इस मार्मिक करुण-कथा को हास्य और व्यंग्य ने जीवंत बना दिया है।

चित्रण-दोषों से सर्वथा मुक्त चित्रांकन, वास्तविकता से लिए गए जीवन-चित्र तथा लेखक की अनुकरणीय शैली ने 'छै बीघा जमीन' को कला के चरम उत्कर्ष की एक कृति बना दिया है। कालांतर में इस कथा तथा इसमें विवेचित समस्याओं की अर्थवत्ता का महत्त्व घट सकता है, परंतु मानव-स्वभाव के मौलिक तथ्य तथा जीवन के मौलिक मूल्य फिर भी सदा बने रहेंगे और उड़िया साहित्य के चरम उत्कर्ष की एक कृति के रूप में इस पुस्तक ने आकर-साहित्य का जो पद प्राप्त किया है, उसके गुण सदा अक्षुण्ण रहेंगे ।

कालिंदीचरण पाणिग्राही

पहला अध्याय
रामचंद्र मंगराज

रामचंद्र मंगराज देहाती जमींदार हैं। मध्यम श्रेणी के महाजन भी हैं। नकद कारोबार की अपेक्षा धान की महाजनी अधिक है। सुना जाता है कि इधर आस-पास चारों ओर की चौकोसी में और किसी का भी कारोबार इतना नहीं चलता। आदमी बड़े धार्मिक हैं। साल में चौबीस एकादशियाँ होती है, चालीस भी होतीं तो नहीं छोड़ते । चालीस में एक भी छोड़ते कि नहीं, यह कहने में हम असमर्थ हैं। एकादशी के दिन जल और तुलसी-दल ही उनके अवलंब होते हैं। उस दिन तीसरे पहर मंगराज के खवास जगा नाई ने बालों-ही-बातों में यह बात कह डाली थी कि हर एकादशी की साँझ को द्वादशी की पारणा के लिए मालिक के सोने के कमरे में सेर-भर दूध, थोड़ी-सी खील, कंद-मिसरी, पके केले आदि रख छोड़े जाते हैं और वह (अर्थात् खवास) द्वादशी के दिन नूर के तड़के उठकर रीते पड़े बरतन माँजता है। यह बात सुनकर कई लोग एक-दूसरे का मुँह ताक-ताक कर मुसकुराने लगे थे। एक ने तो कह भी डाला था कि डूब के पानी पियो तो महादेव के बाप भी नहीं जान सकते। इस बात का मतलब तो साफ़ समझ में नहीं आया, पर हम सबने यह अनुमान कर लिया कि बात निंदक की है। पर छोड़िए भी। हम तो बल्कि मालिक की ओर से वकालत भी कर सकते हैं। बरतन रीते कर देने का काम मंगराज के द्वारा ही संपन्न हुआ, इसका चाक्षुष साक्ष्य अर्थात् चश्मदीद गवाही क्या है? सुनी-सुनाई या अटकलपच्चू बात को प्रमाण के रूप में ग्रहण करने को हम कभी तैयार नहीं हो सकते। अदालत में हाकिमों की राय भी ठीक यही होती है। एक बात और देखिए विज्ञान-शास्त्र का कहना है कि जितने भी तरल पदार्थ हैं, सभी भाप बनकर उड़ जाते हैं। दूध भी तरल पदार्थ है। जमींदार के घर का दूध होने से विज्ञान की विधि डर थोड़े ही जाएगी? फिर, उस घर में चूहे, चुहियाँ, छछूँदर आदि भी तो रहे ही होंगे ! खटमल] मक्खी, मच्छर आदि किस घर में नहीं होते? पेट सभी को नचाता है। संसार के सभी प्राणी पेट पालने की धुन में भागे-भागे फिरते हैं। विशेषकर उन्होंने मंगराज की तरह 'हरि-भक्ति-विलास' ग्रंथ का माहात्म्य तो कभी सुना नहीं होगा ! इतने ही से मंगराज की धर्मनिष्ठा में संदेह करना हम महापाप मानते हैं। इतना ही नहीं। आस-पास की घटनाओं को आँखों से ओझल न होने देने के लिए प्रमाण के नियम कानूनों के संबंध में विचारकों की अपनी एक विशेष विधि होती है। मछली और सुखुआ (उड़िया ढंग से सुखाई हुई मछली।) की तो बात ही रहने दो, मंगराज कभी उसना चावल तक नहीं छूते। द्वादशी के दिन ब्राह्मण भोजन करा लेने के बाद ही पारण करते हैं। मंगराज बड़े चतुर हैं। ब्राह्मण-भोजन जैसे इस महान् कार्य में कहीं कभी कोई विघ्न-बाधा न आन पड़े, इसकी पक्की व्यवस्था कर रखी है। एक केवट और एक गुड़िया (हलवाई का काम करने वाली एक जाति। ) को एक-एक 'माण' (माण=लगभग एक एकड़ । इसका पच्चीसवाँ भाग 'गुंठ' कहलाता है ।) जमीन दे रखी है। इस तरह उनकी दो 'माण' जमीन इसी निमित्त में लगी हुई है। द्वादशी के दिन भोर-ही-भोर केवट तो 'गउणी' ('गउणी' अनाज तोलने का एक माप और उस माप की पावली, दोनों को ही कहते हैं। कट की गउणी तो चार सेर की होती है, पर कहीं-कहीं छः-छः सैर तक की और कहीं तीन सेरी गडणी भी पाई जाती है।) की पायली से दो पायली चिवड़ा और 'गुड़िया' चार-चार तोले की बीस भेली गुड़ हाजिर कर जाता है। गोविंदपुर के 'शासन' (राज-प्रतिष्ठित ब्राह्मण-गाँव) में सत्ताईस पर ब्राह्मण हैं। सभी न्योत लाए जाते हैं। छै बजते-न बजते ब्राह्मण-भोजन समाप्त हो जाता है। मंगराज आप ही परोसकर उन्हें खिलाते हैं। पत्तलों पर चिवड़ा और गुड़ परोसकर मंगराज हाथ जोड़ लेते और जोर-जोर से चिल्लाते हुए से पूछते, "गुसाई लोग कहें, कुछ और तो नहीं चाहिए न ? जल-पान ढेर सारा है। गुड़ भी ढेर-सा है । लेकिन में तो जानता हूँ कि आपकी आँखें ही बड़ी होती हैं, पेट छोटा होता है। में समझता हूँ कि इतना ही आपके लिए भर-भर पेट हो गया!" इतने पर भी अगर कोई पेटू ब्राह्मण माँग ही बैठता तो मालिक तीन उँगलियों की चुटकी से पाँच-सात चुटकी चिवड़ा पत्तल में तड़ातड़ पटक देते। इसके बाद गोसाई लोग 'पूरन हुआ, पूरन हुआ' कहते हुए लंबी-लंबी डकारें लेते हैं और असीसें देते हुए पत्तल छोड़कर उठ जाते हैं। ब्राह्मण-भोजन के बाद एक पायली चिवड़ा और दसेक भेली गुड़ बच रहता । मंगराज भक्तिपूर्वक उस बचे हुए गुड़-चिवड़े का सेवन करते हैं। पाठक भाइयो, आप पूछेंगे कि पायली भर चिवड़े में सत्ताईस ब्राह्मणों के पेट कैसे भर गए? हरि बोल भाई, हरि बोल! इन बातों का उत्तर देने लगें तो हमारा आगे का लिखना हो लिया ! ईसा मसीह ने दो रोटियों में बारह सौ लोगों को खिलाया भी था और चार टुकड़े बच भी रहे थे ! कान्यक वन में श्रीकृष्ण ने दुर्वासा के बारह हज़ार चेलों का पेट जरा-से साग से भर दिया था। इन महापुरुषों के हाथ की महिमा के ऊपर अगर आपका विश्वास न हो तो हम लाचार हैं। ऐसी सूरत में अपने मंगराज के इस चरित्र को पढ़ने का अनुरोध आपसे करने का साहस हम नहीं कर सकते ! ऐसा सुना गया है कि उनके मौसेरे भाई श्याममल्ल जी एक बार शहर गए थे तो-पाप छिपाए नहीं छिपता-कुसंग में पड़कर उन्होंने प्याज़ डाली हुई गोभी खा ली थी। मालिक इस बात से अनजान नहीं रह सके। उन्होंने श्याम की बाड़ा-घिरी जमीन के वाटी चकले (20 'माण' का चक ; 1 वाटी- 20 माण) ।) में से कुछ पंद्रह 'माण' जमीन लेकर ही उसे छुटकारा दिला दिया था। इतने कम खर्च में मालिक ने उसका बेड़ा पार न लगाया होता तो बच्चू की हजामत आज तक बढ़ती ही चल रही होती। एक दिन श्याम को बुलाकर मंगराज ने अपनापा जताते हुए कहा- "देख श्याम, अब से जरा चेत के रहा कर! मैं न होता तो क्या होता? पाँच पंचों ने तुझे जो उठा लिया, सो मेरे ही मुलाहजे से न? वरना तू एकदम क्रिस्तान ही हो रहा था तेरी सात पीढ़ियों के पुरखे अहि-नरक (साँपों वाले नरक ।) में पड़े रह जाते! और मैं न होता तो तेरी ज़मीन को दो-दो रुपये माण पर भी कोई नहीं सूँधता। मैं ही था कि पाँच रुपये 'माण' दे डाले ! लाख बुरा हो, ठहरा तो तू भाई ही आखिर ! तुझे उठा के फेंक देता भला ! खैर जो हुआ, सो हुआ। आपद-विपद पड़ने पर मैं तो हूँ ही हाँ, यह जरूर है कि भले का कोई नहीं होता। अभी उस दिन की ही तो बात है भीमा गौड़ ('गौड़ों' को ग्वाले भी कह सकते हैं और कहार भी दोनों तरह के काम करते हैं। अनु.) वाली फ़ौजदारी के मुक़द्दमे में तुझे गवाह बनाना चाहा तो तू घर में छिप रहा, दिखाई तक नहीं दिया!"

हाय, हाय! जिन निंदकों ने ईसा को सूली पर लटकाया, परम सती सीता को वनवास दिलवाया, उनके वंशधर आज भी इस दुनिया से उठे नहीं हैं। हरिवासर एकादशी के उपवासी, परोपकारी मंगराज की बुराई करते फिरते हैं वे, तो इसमें कोई अचरज नहीं है। निंदकों ने जो बातें फैला रखी हैं, उनका जिक्र तो लाचार हमें करना ही पड़ जाता है। वे कहते हैं कि मंगराज ने चारों ओर की चौकोसी में किसी के पास गोपद भर भी धरती नहीं रहने दी! बच रहा था एक भाई, सो उसकी भी धरती हड़प कर लेने का बहाना ढूँढ़ते-ढूँढ़ते इतने दिनों बाद आखिर एक मिल ही गया। प्याज़ खा लेने के प्रायश्चित्त के रूप में श्याम ने तो ब्राह्मण-भोजन कराया, पर मंगराज के घर की औरतें चंपा को हाट भेज-भेज कर जो प्याज मँगाती हैं, उसका क्या होता है? बालों के चक्कर में पड़कर हम यह मान गए कि चंपा प्याज मोल ले आती है। पर इतने से ही क्या होता है? मोल तो लिया, पर खाने का कौन-सा प्रमाण है? "पलांड गुंजन चैव" (द्रव्यगुण बताने वाले आयुर्वेद ग्रंथ में "पलांडु गृज्ञ्जनं चैव" प्याज और लहसुन के गुण-दोष बताने के प्रसंग में आता है। "गृञ्जनं" को "गुंजनं" करके "प्याज तथा लहसुन को भी" जैसे वैद्यक के मासूम उद्धरण को मनु का वाक्य बताकर, और उसमें मनाही का अर्थ अपनी ओर से पहराकर लेखक ने देहाती पंडितों की खिल्ली उड़ाई है। ऐसे संस्कृत उद्धरणों के ऊटपटाँग प्रयोग से हास्य पैदा करने वाले प्रसंग पूरी किताब में जगह-जगह भरे पड़े हैं। -अनु) को खाना ही तो मना किया है मनु ने? कि और कुछ ? मोल लेने से ही कोई पतित हो जाता है, इसका विधान कहाँ है शास्त्र में? भद्र घरों की महिलाओं के दोषादोष की आलोचना करने वाले निंदकों की बातों का उत्तर देने को हम रत्ती-भर भी तैयार नहीं हैं!

दूसरा अध्याय
स्वनामपुरुषोधन्यः

मंगराज ग़रीब घर के बेटे थे। सुना जाता है कि जब वह सात साल के थे, तभी उनके माता-पिता चल बसे। वह अनाथ होके मारे-मारे फिरने लगे। पैसे के अभाव में बाप का श्राद्ध तक नहीं हो पाया। छप्पर पर फूँस न होने के कारण भीत तक ढह गई थी। इनके बालपन के जीवन, शिक्षा-दीक्षा और कर्मक्षेत्र में प्रवेश की घटनाएँ विचित्र प्रकार की हैं। संसार के किसी भी प्रमुख व्यक्ति का जीवन-चरित्र अलौकिक घटनाओं से रीता नहीं होता। उन सारी बातों को लिखने लगें, तो ढेर-सा कागज रँग जाए, बहुत सारी लेखनियाँ घिस जाएँ और समय तो बहुत लगना ठहरा ही ! बस इतनी-सी बात बता देनी है कि हमें यह दीक्षा देने वाले मंत्र गुरु मंगराज ही हैं कि मितव्ययी होना एक बहुत बड़ा गुण है। अर्थनीति के विषय में महापंडित बेंजामिन फ्रेंकलिन जो उपदेश दे गए हैं, उसका मर्म हमने इसी तरह समझा है। बाज़ार से काग़ज मोल ले आना तो बहुत सहज है, पर उसका उपयोग करना नितांत कठिन हुआ करता है। अब हम सभी बातें ठीक-ठीक परिमाण में ही लिखकर मंगराजी अर्थनीति की रक्षा करने की चेष्टा करेंगे। मंगराज की जमींदारी का नाम है फतेहपुर सरखंड । मालगुजारी पाँच हज़ार है। अट्ठाईस वाटा (1 वाटी- 20 माण) धरती लाखराज है। उस पर कोई लगान नहीं लगता। 'जब्ती' ( जो जमीन पहले से तो लाखराज रही हो, पर पीछे उस पर लगान बाँध दिया गया हो। -अनु.) जमीन पंदरह 'बाटी' सत्ताईस 'माण' है। सत्ताईस 'माण' किस तरह से ( अर्थात् पंदरह 'बाटी' सत्ताईस 'माण' क्यों कहा, सीधे सोलह 'वाटी' सात 'माण' क्यों नहीं कहा? ), सो जानते हो? इस तरह कि इसमें सात 'माण' का कोई हिस्सेदार है। जज की अदालत में उसकी अपील दायर है। लोग कहते हैं, महाजनी में चालीस-पचास हजार रुपये चक्कर लगा रहे हैं बड़े आदमी का घर ठहरा, बड़ी-बड़ी बातें सुनने में आती हैं। हमारा अपना अनुमान है कि लेन-देन पंद्रह हजार से अधिक का न होगा। झूठ कहना हमारा धर्म नहीं। यह बात तो हमने आय-कर के प्यादे के मुँह से सुनी है। सुनी ही कह रहे हैं। धान की महाजनी के खाने की खतियौनी कोई बीसेक बरस से नहीं हुई हैं । इसलिए ठीक-ठीक हिसाब बताने में हम असमर्थ हैं। पिछली 'सोनिया' (भादों सुदी द्वादशी। उड़िया सन इसी दिन बदलता है। रजवाड़ों के बही-खाते नए शुरू होते हैं। पिछले साल की लकीर को सोने की लकीर से काटा जाता है, इसीलिए इस दिन को 'सोनिया' कहते हैं। -अनु.) पर मुनीम जी ने धान के हिसाब की जो साल-तमामी दाखिल की थी, उसकी कुल-जमा मीजान से हमने यह जाना है कि बखार में दो हजार सात 'भरण' ( चार 'काणी'=1 'बिसवाँ;' 16 'बिसवाँ'=1 'गौणी': 80 'गौणी' =1 'भरण'। 'गौणी' अनाज मापने की एक पायली होती है, जिसमें लगभग बारह सेर अनाज आ जाता है। -अनु.।) पंदरह 'गौणी' सात 'बिसवाँ' दो 'काणी' धान जमा है। घर के पाँच खंड हैं। तीन खंडों में तीनों बेटे रहते हैं। एक खंड में मालिक-मालकिन आप और छोटी बेटी मालती रहती है। बाहर के पाँचवें खंड में कचहरी है। कचहरी वाला घर पाँच धरनों का है। धरनों पर बाघ, हाथी, बिल्ली, राधाकृष्ण, बंदर आदि उरेहे हुए हैं। दीवारों पर नीले, लाल, हरे, गुलाबी आदि विविध रंगों में कमल, कुई, कुंद, मालती, फूल-माला और बंदरयूथों, राक्षस-दलों आदि से संवलित राम-रावण-युद्ध आदि पौराणिक घटनाएँ अंकित हैं। राजपूताने की किसी जगह पर कोई नंगी स्त्री-मूर्ति देखकर टॉड साहेब ने अनुमान लगाया है कि बारत की पुरा काल की अंगनाएँ नंगी रहा करती थीं। हाय हाय! दुर्भाग्य कि मंगराज की दीवारों के ये चित्र दिखाकर हम उस साहब की मूर्खता दूर नहीं कर सके! भित्ति चित्रित सखियों से घिरी राधिका के, हाँडी की पेंदी-सी काली बूटियों से बूटेदार गेरुआ रंग के घाँघर को देखकर उस साहेब की मूर्खता और भ्रांति अवश्य ही विदूरित हो गई होती! इन तमाम चित्रों के अंकन के लिए किसी विदेशी चितेरे की बुलाहट नहीं करनी पड़ी। ये समस्त कला-कर्म चंपा के स्वहस्त-संपन्न हैं। चंपा इतने प्रकार के ऐसे-ऐसे पशुओं की छवि आँक सकती है कि कलकत्ता के चिड़ियाघर तक में वे दिया लेके ढूँढ़े न मिलें।

मंगराज की हवेली से सटी हुई ही पीछे की ओर एक बड़ी-सी बाड़ी है। चहार-दीवारी से घिरी बाहर वाली अँगनई के द्वार के पास ही एक बड़ा-सा तालाब है। तालाब के चारों ओर नारियल हैं। नारियल के पीछे केले, आम, कटहल और उआउ (बेल जैसा फल । इसमें परत-परत फाँकें होती हैं। स्वाद खट्टा होता है। इसकी चटनी बनाते हैं। यह फल उड़ीसा, बंगाल और असम में ही पाया जाता है। असमिया में भी इसका उड़िया नाम "उभाउ' ही चलता है। शायद उड़ीसा से ही गया हो। -अनु.) के पेड़ हैं। बाग़ के चारों ओर मेंड़ों पर पीले-पीले सोनाबाँस की बाड़ दीवार की तरह खड़ी है। मंगराज जैसे निःस्वार्थ लोग आपको दुनिया में बहुत कम ही मिलेंगे। उनके सभी काम परोपकार के लिए होते हैं। मालिक का यह विशाल बाग़ ही गोविंदपुर हाट की स्थिति और उन्नति का मूलाधार है। बाज के नारियल, केले, बैंगन, कुम्हड़ा, हर्फ़-रेवड़े आदि से लेकर लाल मिर्च तक एक-एक चीज हाट में न पहुँचती तो हाट की यह तेजी कभी नहीं होती। मालिक के बाग के सौदे जब तक बिक न जाएँ, तब तक और किसी को भी अपना उस जाति का सौदा बेचने का अधिकार नहीं है। बात है भी ठीक ही ! अच्छा माल रहे और बुरा बिके, यह उचित भी तो नहीं है ! हाट निजी जमींदारी के अंदर है। किसी और की होती तो बात ही और थी। 'सोनिया' के दिन या पर्वों-तेवहारों पर कुम्हड़े, बैंगन, केले आदि की जो भेंट आती है, वह सारी-की-सारी सीधी हाट में ही पहुँच जाती है। चीन की दीवार के तैयार हो जाने के बाद वहाँ के सम्राट ने देश के सारे इतिहास लेखकों को पकड़ मँगवाया था और एक-एक का वध करा डाला था। कारण यह था कि वे जीते बच जाते तो कभी-न-कभी यह बात वे लिख ही डालते कि दीवार के बनाने में कितना खर्च हुआ था ! यही कारण है कि हमें उस सम्राट् को निरहंकारी पुरुष मानना चाहिए। महान् लोग महान् काम कर लेने पर यह कहते नहीं फिरते कि उसमें कितना खर्च पड़ा है। मंगराज से कोई पूछे तो भला कि यह हवेली बनाने में आपको कितना खर्च पड़ा था? वे यही उत्तर देंगे कि "बहुत रुपये, बहुत रुपये में तो उसी में मिट गया!" पाठक निराश न हों, अधीर न हों !

प्रत्नविद्या के बल से सभी पुरानी बातों का पता लग जाता है। नौ सौ बरसों के बाद एक साहब ने पुरी आकर यह हिसाब कर लिया कि पुरी के मंदिर के बनने में कितना खर्च हुआ था ! मंगराज के यहाँ तो चौलाई के साग तक की बिक्री का हिसाब लिखा रखा है। फिर क्या घर की तैयारी के खर्च का हिसाब नहीं मिलेगा भला ? दीवान गंगागोविंद सिंह ने अपनी माता का जैसा श्राद्ध किया वैसा आज तक भारत में न तो किसी ने किया और न कोई कभी कर ही सकेगा ! बड़े लाट साहब ने बंगाल के सभी जिलों के कलक्टरों के नाम चिट्ठी जारी की थी कि सभी अपने-अपने जिले से दाल, चावल, मैदा, तेल, घी, नारियल, केले आदि मोल ले-लेकर भिजवाएँ। नवद्वीप के राजा शिवचंद्र ने भी अपनी माता का वैसा ही श्राद्ध करना चाहा था और खर्च का चिट्ठा मँगवा भेजा था। दीवान गंगागोविंद सिंह ने केवल गाँजे, अफ्रीम और तम्बाकू के खर्च का चिट्ठा भेजकर साथ की चिट्ठी में संकेत कर दिया था कि इसी के अनुपात में और-और खर्च का लेखा वह आप लगा लें। इन तीन चीजों पर बहत्तर हजार रुपये पड़े थे। नगदी ख़रीद के अलावा सभी ज़मींदारों ने बैठ-बेगार में भी बहुत सारी चीजें दी थीं। हम भी घर की तैयारी का एक मोटा-सा हिसाब लिख दे रहे हैं। बुद्धिमान् पाठक उसीसे कुल खर्च का मीजान का सही-सही पता लगा सकेंगे। यह हिसाब हमने धानघर के खाते से पाया है। बेगार खटने वाले सुनारों-लुहारों को खिलाने में पंद्रह 'भरण' बाईस 'गौणी' धान का खर्च पड़ा था।

मंगराज के मुँह से यह बात अनेक बार सुनी गई है कि औरों की कातरता उनसे देखी नहीं जाती, इसीलिए वह धान या रुपया कर्ज देते हैं, वरना इसमें उनका अपना कुछ भी लाभ नहीं होता। हम तो कहते हैं कि लाभ तो क्या, बल्कि घाटा ही होता है! धान लगाने में ड्योढ़े से अधिक की वसूली नहीं होती। इसमें लाभ क्या होगा भला? देते तो हैं पुराना सुखाया हुआ धान और लेते समय नया कच्चा धान लेकर ही संतोष कर लेना पड़ता है! अच्छा पाठको, आप ऐसा करें कि पहले अपने कुछ गीले कपड़े तोलें और फिर सूखने पर तोलकर आप ही देख लें कि गीले-सूखे में कितने का अंतर पड़ता है ! पिछली सोनिया पर मुनीम ने जो साल तमामी दाखिल की थी, उसमें महाजनी खाते के नीचे आठ रुपये छै आने दो कौड़ी दो करंत की छूट साफ़-साफ़ लिखी मिलती है। इतने सारे रुपये छोड़ देने के अपराध में गालियाँ और फटकारें सुनने के बाद मुनीम ने सफ़ाई में जो कैफ़ियत दी, उसका सार-मर्म यह है : भिखारा पंडे ने मूल पाँच रुपये कर्ज लिए थे, जिसका सूद चक्रवृद्धि ब्याज के हिसाब से बारह रुपये पाँच आने ग्यारह गंडे दो कौड़ी पड़ता है, दोनों की कुल मीज़ान में से सतरह रुपये पाँच आने दो पैसे वसूल पाए गए और इस तरह सच पूछिए तो छूट केवल डेढ़ गंडा कौड़ियों की ही है !

तीसरा अध्याय
वाणिज्ये वसति लक्ष्मीस्तदर्द्ध कृषिकर्मणि

अस्यार्थः

"बनिज बीच लक्ष्मी का घर
उसके आधे खेती पर!"

हमारा अनुमान है कि यह उक्ति मराठी युग के किसी कवि की है। आजकल का कोई कवि होता तो यों कहता :

"बनिज बीच लक्ष्मी का वास
उसके आधे बी-एल पास!"

मंगराज की हवेली देखकर कोई-कोई अनभिज्ञ लोग यह अटकल लगा बैठते हैं कि यह अदालत के किसी बी.एल. पास वकील का घर है। कहते हैं कि बासठ घर उजाड़कर उनके मलवे से वकील का घर बनता है। अच्छा, एक बात आप जानते हैं? यही कि 'भाग्यं' फलति सर्वत्र!' अदालत की ओलती तले दुशालों की पगड़ी वाले ये जो गंडे-के-गंडे पग्गड़धारी डोलते रहते हैं, उनमें कितने ऐसे होंगे जो बासठ तो क्या, मंगराज के परिमाण के पच्चीस घर भी उजाड़ के उनके मलवे जुटा सकें? मालिक आप ही कहते हैं कि वह किसी की एक पाई भी नहीं धारते। उन्होंने अपनी ही सूझ-बूझ और अपने ही बाहु-बल से मिट्टी को सोना बनाया है! सुनते हैं,-सुनते क्यों, हम ठीक-ठीक जानते हैं,-कि पहले मंगराज ने गाँव के मुखिया से दो 'माण' जमीन बटाई ली थी। आज उनकी जोत में चौबीस मुट्ठे (खेत मापने के लग्गे अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग माप के होते हैं। चौबीस मुट्ठे का लग्गा = 24-5 इंच या 24x6 अंगुल अर्थात् 10 फीट 5 इंच 1 जौ, अथवा लगभग 6 हाथ । -अनु.) के लग्गे से चार 'बाटी' है 'माण' धरती है। इसके अलावा तीन सौ 'बाटी' सतरह 'माण' जमीन बटाई पर लगी है। सारी धरती लाख़राज है। थोड़ी-सी ही ऐसी है जो 'निसफी जबती' (जिस लाखराज खेत को अंग्रेज़ सरकार ने जब्त करके उस पर आधा लगान बाँध दिया था, उसे 'निसफी जबती' कहते थे। -अनु.) लगान वाली है। इसमें से अधिकांश के वाले पर ली हुई ब्रह्मोत्तर (ब्राह्मणों को दान में मिली, सदा के लिए लाखराज बना दी गई जमीन 'ब्रह्मोत्तर' कहलाती है। - अनु.) है। खेती के बैल पंद्रह हल के जोड़े हैं। हलवाहे बारह हैं। ये बारहमासी हलवाहे हैं। जाति के बाउरी हैं। केवल तीन ही ऐसे हैं जो जाति के 'पाण' हैं। इनके जिम्मे खेती और बाग के काम हैं। मंगराज की सीख और उत्साह से ये सभी कर्मठ और उत्साही बने हुए हैं। ब्राह्ममुहूर्त्त में शय्या का त्याग करना स्वास्थ्य विधान शास्त्र की विधि है। धूप हो, वर्षा हो, तूफ़ान हो, मंगराज को कभी किसी ने इस विधि का उल्लंघन करते नहीं देखा। शास्त्र में लिखा है :

"जितनी भी नद-नदियाँ हैं,
सब सागर में मिल जाती हैं
अपने गुण को भुला-भुलाकर
खारापन अपनाती हैं!"

ठीक ही तो है! उसी तरह सभी स्त्रियों और दातों-दासियों आदि ने हमारे मालिक के गुण को कमोबेश अपना लिया है। मालिक के घर के इन नौकर-चाकरों को देखकर हमें यही शिक्षा मिलती है। मंगराज ब्रह्म मुहूर्त्त में ही उठकर दाँत माँज लेते हैं। कलकत्ता शहर में दो बार तोष छूटती है पहली तोप सुबह-सवेरे छूटती है, और रात बीत गए होने की सूचना देती है। उसी तरह मंगराज जब अपनी कचहरी के ओसारे में खड़े होकर अपने हलवाहों को पुकारते हैं तो गाँव के लोग आँखें मंदी होने पर भी यह जान लेते हैं कि रात बीत गई। और नई दुलहिनें आदि मुँह अँधेरे 'बाहर हो आने' के लिए निकल पड़ती हैं। देहात के लोग घंटा-फंटा नहीं समझते। सूरज ठीक सिर पर आ जाता है तो बैलों के कंधों से जुए उतरते हैं। आस-पास के खेतिहर दूर-दूर से ही ताक-ताककर देखते रहते हैं कि ताड़ के पत्तों की बनी मंगराज की बड़ी-सी छतरी कहीं मेंड़ों पर उभरी कि नहीं। मंगराज अपने हलवाहों को बेटों की तरह पालते आए हैं। माँ-बाप अपने बच्चों का खाना-पीना जब तक अपनी आँखों देख नहीं लेते तब तक उनके जी को चैन नहीं पड़ती। हलवाहे जब पाँत लगाकर बैठ जाते हैं तो मालिक पूरे जोर-जोर से चिल्लाकर रसोइए को पुकारते हैं, "अरे माँड़ ला, माँड़ ला, इनके गले सूख रहे हैं!" रसोइया अपनी अभ्यस्त विद्या के प्रभाव से एक-एक हलवाहे को दो-दो कटोरे माँड़ देता है। अगर कोई हलवाहा इतना सारा माँड़ पीने को राजी नहीं होता तो मालिक माँड़ की उपकारिता और बलकारिता के विषय में एक छोटा-सा भाषण दे डालते हैं। भाषण के बल पर एक-एक को माँड़ पिला चुकने के बाद ही भात की व्यवस्था करके वह नहाने को निकलते हैं। मालिक के बाग़ में सहिजन के सतरह पेड़ हैं। सहिजन के पत्तों का साग हाजमें को ठीक रखता है, बल को बढ़ाता है, रोग को दूर रखता है, मुँह को रुचता है और रोगी का पव्य होता है। 'निर्घण्टु' (शुद्ध शब्द या तो 'निघंटु' (निरुक्ति बताने वाला वैदिक शब्द-कोश) है या 'निर्घट' (सूचीपत्र)। वैद्यक के अर्थ में दोनों की आवाजें एक में मिलाकर लेखक ने हास्य-सृष्टि की है। -अनु.) में सहिजन के गुणों का ऐसा वर्णन है कि नहीं, सो तो हम नहीं जानते, क्योंकि उस विद्या से हम अनजान हैं, पर मालिक के मुँह से यथा-श्रुतम् तथा लिखितम्।" इसीलिए बाग के सतरह पेड़ सहिजन के पत्तों का एक टूँसा तक हाट नहीं जाता; सारा-का-सारा साग हलवाहों के पोषण और बलवर्द्धन के निमित्त उत्तर्गीकृत है। इसके ये जो फूल आप देख रहे हैं न, इनके जैसा उपादेय पदार्थ संसार में और कोई भी नहीं है। इसमें अगर मुट्टी-भर राई भी मिला दी गई तो... छोड़िए इस बात को! परमेश्वर की सृष्टि में भला-बुरा सब साथ ही है। अब यही देखिए न, कटहल के कोये कितने मीठे होते हैं, पर इन कोयों में जो लच्छे लिपटे होते हैं, उन्हें खाओ तो चट बदहजमी हो जाती है। पर ज्ञानी लोगों के लिए कोई भी वस्तु असुविधाजनक नहीं होती। वे नीर-क्षीर की तरह भले-बुरे को बिलगा देते हैं। सहिजन की वैसे तो हर चीज गुणकारी होती है; बस एक छीमियाँ ही ऐसी हैं जो बुरी होती हैं, बदहजमी करती हैं। इसीलिए हलवाहों और नौकर-चाकरों की पत्तल में छीमी कभी नहीं पड़तीं, बाहर-ही-बाहर हाट चली जाती हैं।

चौथा अध्याय
खेती-बाड़ी की देख-भाल
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्

मंगराज खेती में अपनी और पराई का भेद नहीं मानते। शास्त्रकार पुकार-पुकार कर कह रहा है कि लघुचेता लोग ही अपने-पराए का भेद करते हैं। मालिक अपनी खेती पर जिस तरह नजर रखते हैं, औरों की खेती पर भी उसी तरह आँखें लगाए रहते हैं। एक दिन की बात हम बता दें तो ज्ञानी पाठक उससे सारी बात आप ही समझ लेंगे। हाँडी का एक चावल मसल देखिए तो सारी हाँडी के भात का हाल मालूम हो जाता है। हलवाहों के सरदार गोविंद पुहाण ने सुबह-ही-सुबह आकर बतलाया, "जी, डेढ़ 'माण' खेत पड़ा रह गया। रोप के बिरवे अँट नहीं पाए, कम पड़ गए।" मालिक ने केवल "हूँऊँ" कहा और चुप हो रहे। हलवाहा हाथ जोड़े दरवाजे पर खड़ा रहा।

मालिक खेत देखने निकले हैं। बदन पर बस एक मट्टे रेशम की धोती है, जो तेल से चिक्कट पड़ गई है। कमर में गेरुए रंग का एक अँगोछा फेंटे की तरह कसा लिपटा है। कंधे पर ताड़ के पत्ते की विशाल छतरी है। पीछे-पीछे गोविंद पुहाण खेती-बाड़ी के हाल-चाल बताता हुआ चल रहा है। साथ में एक और हलवाहा है, जो कंधे पर जोड़ा हल उठाए चल रहा है। उसका नाम पांडिया है। गाँव के लोग अभी सोकर उठे नहीं हैं। शिबू पंडित से भेंट हुई। पंडित नस सूँघते हुए पोखरी-पानी ("आज सुबह-ही-सुबह अनिष्ट-दर्शन हो गया, न जाने क्या-क्या अवांधित दिखाएगा!") को निकले हैं। हाथ में लोटा है। हठात् मालिक को पीछे आते देखकर हड़बड़ाकर साढ़े सात हाथ परे हट खड़े हुए और लोटे को नीचे रखकर धनुष का आकार धारण करते हुए "अंजलिबद्धो भूत्वा'' मालिक की "कीर्तिमायुर्यशः श्रियम्" कामना की। मालिक की दृष्टि उधर नहीं गई। वह नाक की सीध में बढ़ते ही चले गए। मालिक के कुछ दूर निकल जाने पर पंडित धीरे-धीरे लोटे को उठाते हुए श्लोक पढ़ने लगे: "अद्य प्रातरेवानिष्टदर्शनञ्जातम्, न जाने किमनभिमतम् दर्शयिष्यति!" (यहाँ 'पंचतंत्र' के गद्य को श्लोक बताकर लेखक ने हास्य की सृष्टि की है । -अनु.) श्लोक पढ़ना तो पंडितों की आदत-सी होती है; उनके श्लोकों में से हमारे पल्ले क्या पड़ेगा भला?

श्याम गोछाइत जाति का बाउरी है। खेत ग्ंवैड़े हैं उसके रोप अवगत कर डाली थी। इसी से उसके धान पर अभी से सुआपंखी फिर गई है। श्याम झुका-झुका मेड़ बाँध रहा है। मालिक उसके पास आ खड़े हुए। सुर नरमाके बोले, "क्यों रे बाबा श्याम !" श्याम औचक्के मालिक को देखकर चौंक पड़ा। कुदाल पाँच हाथ दूर फेंककर झट से कीचड़ में लोटकर दंडवत् प्रणाम किया। "अरे उठ-उठ, उठ !" -मालिक ने स्नेह-भरा संबोधन किया। श्याम उठा और हाथ जोड़कर दस हाथ परे हट खड़ा हुआ। फिर श्याम और मालिक के बीच काफ़ी देर तक अपने सुख-दुःख की बातें होती रहीं। सभी बातें लिखने लगें तो पाठक ऊबकर कुढ़ जा सकते हैं। इसीलिए सारांश-मात्र लिख रहे हैं। अर्थात् श्याम के वंश के ऊपर मालिक की बड़ी नजर रहती है। श्याम का मरियल बाप रोज साँझ पहर मालिक के पास जाकर खेती-बाड़ी के हाल-चाल सुना आता था और सलाहें लिया करता था। जैसे यह कि खेती कैसे की जाय कि धान खूब उपजे, इत्यादि-इत्यादि बातें पूछता रहता था । एक श्याम ही है जो ऐसा कुछ नहीं करता। इसी बीच अकस्मात् मालिक की नज़र श्याम के खेत पर पड़ी। वह चौंक-से पड़े । सरपस्ती जताते हुए बोले, "अरे श्यामा, यह क्या कर डाला तूने? तू तो निरा उल्लू निकला रे! खेती-बाड़ी कुछ भी नहीं जानता तू तो! अरे इतना घना रोपने से कहीं धान उपजा है। पौधों को साँस लेने तक की जगह नहीं छोड़ी। उखाड़ उखाड़, आधेक उखाड़ डाल!" गोविंद ने अच्छी तरह देख-भालकर मालिक की हाँ में हाँ मिलाई । श्याम थर-थर काँपता हुआ हाथ जोड़कर बोला, "जी, मैं तो हर साल इसी तरह रोपता हूँ। सभी इसी तरह रोपते हैं।" मालिक चिढ़कर बोले, "अरे उल्लू कहीं का! भली कहो सुनता तक नहीं।" और गोविंद की ओर मुड़कर कहने लगे, "अरे गोविंद, दिखा तो दे इसे!" उनकी बात मुँह से निकले-निकले कि गोविंदा और पांडिया जुट पड़े और दोनों क्यारियों से आधों-आध धान छाँटकर उखाड़ लिया क्यारियाँ अधरीती छिदरी पड़ गई। श्याम चीखें मार-मार कर रोता हुआ मालिक के चरणों में लोटता रहा। मालिक कुपित हो उठे और श्याम को मालकिन के भाई वाले नाते का नाम देकर संबोधित करते हुए बोले, "तू खेती-बाड़ी करना जाने या न जाने, उधार खाए धान के सूद-मूल में 'बिस्वाँ- विस्वाँ' (धुर घूर एक 'बिस्वी' एक 'गुठ' का सोलहवाँ भाग ।) खेत छिन जाने पर सब-कुछ अच्छी तरह जान लेगी!" और फिर गोविंदा से कहा, "अरे गोविंदा, हुआ हुआ, रहने दे, रहने दें। इसे जो जी में आए करने दे, हमारा क्या?" और कहते-कहते अपने बिन-रोपे खेत की ओर चल पड़े। रोप के बिरवे के दो बहँगी बोझे भी उनके पीछे-पीछे चले।

पाँचवाँ अध्याय
मंगराज का कुटुम्ब

रामचंद्र मंगराज बहुपोषी व्यक्ति हैं। घर में खाने-पीने वाले कुटुम्बी ढेर सारे हैं। मालिक-मालकिन आप हैं, तीन बेटे हैं, तीनों की तीन बहुएँ हैं, बीस-बाईस दासियाँ-लौंडियाँ हैं। इस तरह कोई तीसेक का हिसाब बैठ जाता है। एक-एक की बात लिखने लगें तो बहुत अधिक लिखना पड़ जाएगा। और आप तो हम लोगों के स्वभाव को जानते ही हैं : झूठी बातें लिखना, बात बढ़ा-चढ़ाकर लिखना, अकारण ही कोई-कोई बात लिख डालना, आदि हमारी धात के अनुकूल नहीं पड़ते। साथ ही यह बात भी है कि 'मा लिखेत् सत्यमप्रियम्!' (मूल कहावत है : ''न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् (अप्रिय सत्य न बोले!)" 'बोलने' के स्थान पर 'लिखना' लगाकर तथा उसे ऊटपटाँग अर्थ पहनाकर लेखक ने श्लोक-उद्धरण-पटु 'पंडितों' की हँसी उड़ाई है । - अनु.) अर्थात् सच्ची बात में से आधों-आध छोड़ देना होता है ! हवेली में स्त्रियों की संख्या ही अधिक है। राम नाई को छोड़कर पुरुष कंठ का और कोई स्वर शायद ही सुनाई पड़ता है। मालिक तो अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं। तीनों लड़के जवान हैं। उनका समय चौपड़ खेलने, 'गोबरा' (गालर) चिड़ियाँ फाँसने और लोगों के साथ दंगा-फ़िसाद करने को ही पूरा नहीं पड़ता। गाँजा पीने को भी कुछ समय तो चाहिए ही। गोविंदपुर हाट का गाँजे वाला किसी गाहक से रुष्ट हुआ तो बोला, "अरे जा जा! मत ले माल। अकेले मालिक के घर के बाबुओं के लिए ही माल पूरा नहीं पड़ता।" बाप-बेटों की भेंट शायद ही कभी होती है। प्रायः नहीं ही होती। किसी बुजुर्ग-जैसे आदमी ने एक बार मंगराज से पूछा था, "अहो मंगराज, बेटों को पास क्यों नहीं बिठाते?" मंगराज ने उत्तर दिया, "अहा, तुमने शास्त्र नहीं सुना क्या ?

'लालयेत् पंचवर्षाणि दसवर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रम्मित्रवदाचरेत् , "

(ठीक अनुवाद : "पुत्र को पाँच वर्ष तक लाड़े-दुलारे, दस वर्ष तक ही मारे-पीटे और सोलह वर्ष की अवस्था हो जाने पर उसके साथ मित्र जैसा बरते।" -अनु.)

अर्थात् पाँच बरस तक तो बेटों के मुँह से लार टपकती है, दस बरस तक उन्हें पीटा जाना चाहिए और सोलह वर्ष हो चुकने पर उनके साथ, और मित्रों के साथ भी 'बद' (असमिया, बँगला, मैथिली आदि की तरह उड़िया में भी 'व' का उच्चारण 'ब' से अभिन्न होता है। इसीलिए लेखक को 'वद्' के ऊपर 'बद्' (बद) का अर्थ थोपने की सुविधा मिल गई है। - अनु.) अर्थात् बुरा सलूक किया जाए। सचमुच ही ऐसा देखा गया है कि मालिक ने किसी-किसी के साथ दोस्ती-मिलाई करके फिर मामले-मुकदमे से उनकी जमीन-जायदाद हड़प कर ली है और इस प्रकार 'बंद' सलूक करके शास्त्र (संस्कृत में पाई जाने वाली उक्ति-मात्र को शास्त्र-वचन कहना भी लेखक के मधुर व्यंग्य का ही एक अंग है। -अनु.) के वचन का पालन किया है फिर भी यह बात ठीक नहीं जान पड़ती कि मालिक ने अपने बेटों के संबंध में भी शास्त्र के 'प्रमाण' का ही प्रयोग किया सुनते हैं, बाप और बेटों में न पटने का कारण यह है कि बेटे नशा-पानी में धन उड़ाया करते हैं। हवेली के भीतर मालकिन एक कोठरी में पड़ी रहती है। किसी के भी साथ बातें नहीं करतीं। केवल भाट-भिखारी, भूखे-सूखे आदि ही आकर उन्हें खोजते हैं । बहुओं की बातें लिखना अनुचित होगा। बड़े घर की बहू-बहुरियों की बात ठहरी ! उसे राह-बाट में खोलने लगे तो लोग हमें क्या कहेंगे? वे जिस तरह पहर-भर दिन चढ़े बिस्तर से उठकर दो-तीन घंटों के अंदर-ही-अंदर दाँतन, मालिश नहान आदि कर लेती हैं और भोजन करके साँझ डूबे तक सोती रहती हैं, उसे लिखकर क्या होगा? बेर डूबने पर फिर उठकर देखते-देखते भात-पानी ('पखाल') खतम कर लेना और उसके बाद गाँव की बातें सुनना, लौडियों-खवासिनों में झगड़े-टंटे लगाना, झगड़ों का निपटारा करना, हँसना, बैठना आदि इतने काम रहते हैं कि चुकते-चुकते आधी रात हो ही जाती है। रुकुणी, मरुआ, चेमी, नकफोड़ी, टेरी, विमली, शुकी, पाट, कौशुली आदि के अलावा और भी कितनी ही लौंडियाँ-खवासिनें हैं । उनके नामों का हमें पता नहीं । कोई बाल-विधवा है, कोई यौवन-विधवा, तो कोई आजन्म विधवा । कोई-कोई सधवाएँ भी हैं। एक ही पेड़ पर बसे नाना जाति के पंछियों की भाँति सबने मंगराज के घर आश्रय लिया है। कितनी आती-जाती भी रहती हैं, जिनका कोई ठिकाना नहीं। अनेक निठल्ली दासियों के इकट्ठी होने पर दुनिया-भर के झंझट उठ खड़े होते हैं। यही सनातन नियम है। मंगराज की हवेली भी इस नियम का कोई अपवाद नहीं हो सकी। रात आधी बीत चुकने के तक हवेली के भीतर मछली-बाजार की तरह घाँव-घाँव शोर सुना जा सकता है।

छठा अध्याय
चंपा

हवेली के अंदर जितने भी लोग हैं, उनमें चंपा उर्फ चंपा मालकिन उर्फ हरकला के साथ मंगराज-कुल का क्या संबंध है, यह कहना हमारी शक्ति के बाहर है। किसी को कुछ पता नहीं। उसकी जाति, कुल, पितृवंश आदि के संबंध में भी सभी एक-से अनभिज्ञ हैं। चंपा मंगराज के घर में दासी है कि मालकिन है, यह बात भी उसके व्यवहारों से समझ लेना तो किसी के भी बूते की बात नहीं। हाँ, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि मंगराज की हवेली में चंपा की क्षमता असीम है। और तो और, खुद मालकिन की शक्ति से भी उसकी शक्ति कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। बाहर के हलवाहे-मजूरे और कचहरी के 'करण' (उड़िया कायस्थ, जो जमींदारों की मुंशीगिरी किया करते हैं।) तक उसके आगे हाथ जोड़े रहते हैं। चंपा का एक नाम हरकला है। सच पूछिए तो इस नाम से उसे बुलाते किसी को सुना नहीं गया। हरकला (शब्दार्थतः चौंसट-कला प्रवीण; नाना असत्-विद्याओं में पारंगता।) शब्द की व्युत्पत्ति क्या है, यह नाम निंदा का सूचक है या प्रशंसा का, आदि सवाल ऐसे हैं, जिनके बारे में कोई निश्चय कर पाने में हम नितांत असमर्थ हैं। हाँ, यह जरूर है कि एक दिन चंपा के कान में किसी ने यह बात डाल दी कि लोग उसे 'हरकला' कहते हैं। सुनकर वह बेतरह कुपित हुई थी। रो-रोकर मंगराज के आगे गुहार की थी। बड़ी धर-पकड़ हुई। पूरे दो दिन तो जाँच-पड़ताल होती रही। फिर भी इस बात का कोई भी अता-पता नहीं कि इस हरकला नाम की उत्पत्ति कहाँ से हुई और विस्तृति कितनी दूर तक है। आखिरकार मालिक ने कहा, "रहने दे, रहने दे, देखा जाएगा।" ख़बरदार, चंपा को कोई हरकला मत कह बैठना ! उस दिन गाँव के इस छोर से उस छोर तक तथा आस-पास के दो-चार और-और गाँवों में भी सभी लोगों ने सभी लोगों को सावधान कर दिया कि ख़बरदार, चंपा को कोई हरकला न कहे! माह से दो माह हुए, दो से चार, चार से छै माह हो चले; लड़कों से बूढ़ों तक, छोकरियों से बूढ़ियों तक लोग अब मनमिले संगी-साथियों को देखते ही चारों ओर ताक-झाँककर मुस्कराते-मुस्कराते सावधान कर देते, 'ख़बरदार, चंपा को कोई हरकला न कहे !"

धीरे-धीरे यह बात संक्षिप्त से संक्षिप्ततर सार-रूप धारण करती गई। अर्थात् 'खबरदार, कोई चंपा को', 'खवरदार कोई' 'खबरदार' इत्यादि लड़के तालियाँ पीट-पीटकर गली-गली में नाचते हुए गाते :

खबरदार!
गोवरा जेना चौकीदार !

(गोवरा व्यक्ति नाम है। जेना एक जाति है। -अनु.)

लड़के तो सदा के नटखट होते आए हैं। उनकी बात को कहाँ तक लिए फिरें ? खैर इस वाहियात बात में क्या धरा है? जो हो मालिक के घर-घराने के साथ चंपा का संबंध खूब 'ही घनिष्ठ है और इसी कारण पाठकों को भी उसका नाम बार-बार सुनने को मिलेगा। इसलिए उसके रूप, गुण आदि के संबंध में सारी बात बता देना हमारा नितांत आवश्यक कर्त्तव्य हो जाता है। इतना ही नहीं; ग्रंथस्य नायक-नायिकाओं के रूप-गुण आदि का वर्णन करने को तो लेखक लोग साहित्य के कानून के अनुसार बाध्य होते हैं। सुतराम्, इस सनातन रीति-नीति का उल्लंघन करना हमारे बस की बात नहीं है। फिर ग्रंथकारों की एक अपनी खसलत (उड़िया में ऐब या दुर्गुण के अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी यहाँ उभयार्थी है। -अनु.) भी होती है। किसी नायिका को पाते ही उन्हें ऐसा लगता मानो 'छेनागुड़' (उड़िया मुहावरा । गुड़ और पनीर वहाँ बड़ी रुचिपूर्वक खाते हैं! -अनु.) पा लिया हो । सब कुछ भूल-भातकर वे उसके रूप का वर्णन करने बैठ जाते हैं। इसमें तनिक भी देर उनसे सही नहीं जाती। यह नहीं कि रूप-वर्णन करने में हम कोई असमर्थ हों। अब यही देख लीजिए न कि केला, कटहल रंभा ('केला' कह चुके होने पर भी दूसरा पर्याय 'रंभा' यहाँ जान-बूझकर दुहराया गया है। -अनु) आम, अनार, टभा ( एक खट्टा फल। -अनु.) आदि जितने सारे पेड़-पौधे, फूल-पत्ते, फल-फलहरियाँ आदि हैं, उनमें से विशेष-विशेष पदार्थों को चंपा के विशेष-विशेष अंगों के साथ मिला दिया और रूप-वर्णन से छुट्टी पा ली। हाँ, एक बात है कि आजकल उस तरह की मरहट्टी (यहाँ उपमान को उपमेय कहा है। -अनु.) वर्णना नहीं चल पाएगी। अंग्रेजी पढ़े पाठकों के मनोरंजन के लिए अंग्रेजी ढाँचे का रूप-वर्णन आवश्यक है। भारत के कवि सुंदरी को 'गजेंद्रगामिनी' कहेंगे। इस पर अंग्रेज कवि कह उठेगा, "छिः छिः, यह भी कोई सुंदरता हुई? अरे, परमा सुंदरी तो वही हो सकती है जो घोड़े की तरह 'गैलप' करती-सी चाल सके!" हम देख रहे हैं कि प्रथम आषाढ़ की महानदी की बाढ़ की तरह अंग्रेज़ी सभ्यता इस देश को जिस ढंग से ठेलती आ रही है, उसके फलस्वरूप यह संभावना भी काफ़ी जोरदार हो उठी है कि नव्य-सभ्य शिक्षित बाबू लोग अपनी-अपनी अंकलक्ष्मियों को 'गैलप' चाल सिखलाने के लिए चाबुक-सवारों की नियुक्ति का प्रस्ताव कर बैठेंगे। ख़ैर जो भी हो, हम तो यही कहेंगे कि पुराने कवियों में से कोई भी सुंदरियों की चाल के लिए उपमेय वस्तु ठीक नहीं कर सका। अब, आप ही विचार कीजिए। क्या घोड़े और क्या हाथी, दोनों ही जानवर चार पैरों से चलते हैं । और इधर हमारी चंपा है कि जिसके दो से अधिक पैर हैं ही नहीं । सुतराम्, उसे गजेंद्रगामिनी या अश्ववरगामिनी कहना नितांत असंगत होगा। पर हाँ, एक बात है। चंपा अगर घुटनों के बल घुटरुओं चलती होती तो कैसे दिखती, इसका अनुमान करके बता देने में हम संप्रति असमर्थ हैं। फिर, पदसंख्या के मामले में मराल के साथ उसका सामंजस्य होने के कारण उसे मरालगामिनी कहना कोई असंगत नहीं होगा। अलंकार-शास्त्र की मर्यादा की रक्षा करने के लिए उपमान और उपमेय को ठीक रखते हुए कहना हो तो यों कहेंगे कि जिस प्रकार मराल कभी-कभी केवल पैर से, तो कभी-कभी डैने पसारकर कुछ-कुछ उड़ते हुए चलते हैं, उसी प्रकार चंपा जिस समय तंग गली-कूचों में मणियाबंदी (बड़ंवा रियासत के मणियाबंद नामक स्थान में बनी हुई हाथ करघे की साड़ी, जो रेशमी कोर वाली होती है। -अनु.) साड़ी के आँचल के छोरों को उड़ाती हुई दोनों डैन (अर्थात् पौखुडे, बाहुमूल। -अनु.) हिलाती हुई चल रही होती है, उस समय उसे मरालगामिनी कहा जा सकता है। चंपा की उमर हमारे अनुमान से तीस के आस-पास होगी। पर एक बात है। खुद उसी के मुँह से अनेक बार ऐसा सुना गया है कि मालकिन के मंगलकृत्य (विवाह) के दिन उसका इक्कीसवाँ (नवजात शिशु का सूतिका-शौच संस्कार, जो उस अंचल में जन्म के इक्कीसवें दिन होता है। -अनु.) हुआ था। इस हिसाब से तो चंपा की उमर हमारे अनुमान की अपेक्षा बहुत-बहुत कम होगी। ऐसी युवती के रूप का वर्णन करना हो तो इसके लिए बड़ी ही सावधानी, बड़ी ही विज्ञता और बड़ी ही दूरदर्शिता आवश्यक होती है। तरह-तरह के विलायती माल के साथ-साथ हमारे देश में रुचि-नामधेय पदार्थ-विशेष का आयात भी अभी नया-ही-नया शुरू हुआ है। उसकी ओर नजर रखते हुए भी चलना होता है । नजर न रही तो समझिए कि आपका पाठ हो लिया ! फिर तो आप मूखों और असभ्यों से भी गए-बीते हैं उस दिन उपेंद्र भंज (उड़िया कविता की रीति शैली के सर्वश्रेष्ठ रससिद्ध कवि। -अनु.) की जो दुर्दशा हुई, उससे हमें वही शिक्षा मिलती है। माता-पिता के पुण्य-प्रताप से बेचारा खिसक गया है, नहीं तो महापात्रों से लेकर महाराजों तक ने जिस तरह से उसका पीछा किया था, उससे अब तक उनकी कैसी-कैसी गत बनी रहती थी, सो तो श्री ठाकुरजी जानें। जब ऐसे महारथी की यह दशा हुई थी, तो हम भला किस खेत की मूली हैं। "गुरु विप्र-प्रसादेन" हम भी कुछ-कुछ सुरुचि-कविताएँ रचने में सक्षम हैं। आप कहेंगे कि यह झूठा है, जानता-वानता तो खाक-पत्थर नहीं है! अच्छा तो, नमूना देख लीजिए:

"अर्द्ध-यक्ष-उघारिनी, मुसकान हासिनी
वस्त्र-जुन्या रिक्तहस्ता, तुरग-गामिनी
मार्जार-नयना ताम्रकेशा, कमर-कस के भिड़ी
स्वाधीन भर्तृ का पाँच-जन-के-आगे खड़ी,
पर-पुरुष-पकड़-नाचती नर्त की सुंदरी
आहा आहा, अपरूप स्वर्गविद्याधारी!"

और कुरुचिपूर्ण उपेंद्र भंज को सुनना है?

"उलटी कदली से ज़घन--जानु
ज्यों युग-नितम्ब जय किए सानु।"

इसके आगे अब और कुछ लिखने का साहस बच नहीं रहा। कौन जाने बिजली कहीं फिर चमक उठे! यह तो ठीक है कि हम सुरुचि-कविता लिखना जानते हैं; पर दो दिन बाद ही छूँछा झूठ लिखने का साहस नहीं हो पाता। बालिपाटणा बालिका विद्यालय की पंचम श्रेणी की छात्रा श्रीमती चेमी बेहेरा से लेकर बेथून स्कूल की उच्चतम कथा की विद्यार्थिनी मिस एस.एम. रे उर्फ कुमारी शशिमुखी राय तक कितनी ही आधुनिका सुंदरियों को देख डाला। इनमें से कोई भी ऐसी नहीं जो अपना सुरुचि संपन्न सौन्दर्य बढ़ाकर बिल्ली की आँखों-सी आँखें बना लेने में अभी तक समर्थ हो सकी हो। इधर सच लिखते हैं तो असभ्यों से भी गए बीते गिने जाते हैं और उधर झूठ है कि इस कलम से उतरने का नाम भी न ले! फिर उपाय ही क्या रहा? कालिदास को 'रघुवंश' लिखते समय कलम के अचल हो जाने के ऐसे ही प्रसंग का सामना करना पड़ा तो वह कह बैठे कि :

"अथवा कृतबारद्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभः ।
मणी यज्ञसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः।"

(अर्थ : "पहले के पंडित इस वंश (रघु-वंश) में वाणी का जो द्वार खोल गए हैं (इतिहास आदि लिख गए हैं), उसमें मेरी पैठ ठीक वैसी ही है जैसी वज्र से छिदी मणि में सूत की होती है।" यहाँ पर अर्थ की तोड़-मरोड़ नहीं हुई है, यह बात लक्ष्य करने की है। -अनु.)

अब दिख गई राह? कालिदास आप ही चंपा के रूप-वर्णन का नमूना छोड़ गए हैं। श्री दास (कालिदास को (मिस्टर दास के अनुकरण पर) श्री दास कहकर हास्य-सृष्टि की गई है। -अनु.) कहते हैं :

"तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिंबाधरोष्ठी ।"

अस्यार्थ :- तनु कहते हैं शरीर को । चंपा को शरीर भी है, सो वह तन्वी भई। श्यामा कहते हैं कि काली भी न होय गोरी भी न होय, साँवली होय वाको सो चंपा साँवले बरन की है। शिखरि-दशना; शिखरी कहें पहाड़ को, दशन कहें दाँत को; चंपा के सामने वाले दो दाँत पाँत से हटकर आगे को निकले हैं और एक-दूसरे पर चढ़े हुए पापड़ की चोटी के समान टिके हैं; सो चंपा शिखरिदशना भई । और क्या? पक्याविवाधरोष्ठी! पक्व नाम पके को, बिंबा नाम तिलकोर की लता के फल को और अधर-ओष्ठ नीचे-ऊपर वाले होंठों को अर्थात् पान की पीक से चंपा के दोनों होंठ लाल रहते हैं, सो वह पक्वबिबाधारोष्ठी भई । इत्यादि-इत्यादि।

फिर श्री दास- "मध्ये क्षामा, स्तोकनम्रा" आदि-ढेर-सी बातें कह गए हैं। हाँ, एक बात जरूर है । वह यह कि चंपा के जो अंग वस्त्रावृत हैं अर्थात् हमने जिन्हें देखा नहीं है, उनके बारे में कुछ भी कहने को हम कतई तैयार नहीं। श्री दास तो दास थे, हम क्यों अनदेखी लिखने लगे? 'जो न दिखे इन दो नैनों से, सो न लिखें हम गुरुबैनों से'- यही हमारा पन है। पर हाँ, देखे स्थलों का वर्णन भी छोड़ दें, ऐसे गुँइए हम नहीं, कोई और होंगे! सो हम तो लिखे डाल रहे हैं! यथा :

"कज्जलपूरितलोचन भाले।
गुंडिया-खिल्ली1 ठूँसित गाले II1II
तैल-हरिद्रा चुपड़ित देहे ।
कुतिया इव झट धावित गेहे ॥2॥
अठगज्जी साड़ी-युत रुंडे ।
पँसेरि जुड़ा शोभित मुंडे ॥3॥
दुमदुम गुमगुम चलनम् तस्याः-
चलति कि धावति विषम समस्या ॥4॥
कर कंकण चूड़िका विराजे।
झम-झम झम-झम बिछिया बाजे ॥5॥
सा जब गच्छति गली से निकल।
हस्त डुलावति चंचल-चंचल ॥6॥
गाँव के लोग देख शंकाते
डर-मर झुंड भागते जाते ॥7॥
इति रूपांकन पञ्झटि छंदे
अब गुण-वर्णन विविध प्रबंधे ॥8॥

(1तंबाकू, भुनी धनिया की पंजीरी आदि का मिश्रित चूर्ण जो पान में खाते हैं, 'गुण्डी' कहलाता है। गुण्डी वाले पान को 'गुंड़िया पान' कहते हैं। गाजर के से उतार-चढ़ाव वाली गिलौरी 'खिल्ली' कहलाती है। -अनु.)

सातवाँ अध्याय
बूढ़ी मंगला

"या देवी वृक्षमूलेषु शिलारूपेण संस्थिता

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।
मृत्तिकाश्वगजारूढ़ा वंध्यायाः पुत्रदायिनी
बाड़ि-संहारिणी देवी , नारायणी नमोस्तु ते ॥

यह श्लोक 'दुर्गा सप्तशती' (चंडीपाठ) के 'या देवी सर्वभूतेषु' से आरंभ होने वाले श्लोकों की श्रृंखला की पैरोडी है। -अनु.

गाँव असुरदिग्धी तालाब के पच्छिम के कोने पर है। गाँव के भीतर से तालाब की ओर जाने वाली राह के दाहिनी ओर एक बड़ा-सा बरगद का पेड़ है। मूल बरगद है की जड़ का कहीं कोई अता-पता नहीं है। बीस-पचासेक बरोहों ने उतरकर धरती में जड़ें गाड़ ली हैं। डालें एक-दूसरे से गुँथ गई हैं। इस तरह पेड़ कोई बारह-तेरह 'गुंठ' धरती को छापे खड़ा है। नन्ही-नन्ही डालियों और घने पत्तों ने पेड़ के कोने-अँतरे को इस तरह ढक लिया है कि जड़ों के पास धूप का तेज़ कभी नहीं पहुँचता । पेड़ बहुत पुराना है। पुरखे-पुरनिए कहते हैं कि यह पेड़ सतयुग की ठकुरानी का है। वे बचपन से ही इसे देखते आए हैं। यह न तो बढ़ सकता है, न घट सकता है। पिछले सातवें अंक (उड़िया राजाओं के राजस्व की वर्ष-गणना 'अंक' से होती है। -अनु.) की तुला-संक्रोति वाले मास की अमावस के दिन बड़ी विकट आँधी आई थी। गाँव के तमाम सहिजन और केले आदि के पेड़ उखड़ गए। इस पेड़ का एक पत्ता तक नहीं झड़ा। ठकुरानी की महिमा !

बीच में चार बरोहें पेड़ की तरह सीधी तनी खड़ी हैं। उन्हीं की जड़ के पास ग्रामदेवी का 'थान' है। ठकुरानी का नाम है बूढ़ी मंगला। मंगला के पास ढाई 'माण' देवोत्तर (देवता के नाम पर उत्सर्ग की गई जमीन । -अनु.) है। बारह 'गुंठ' आठ 'बिस्वाँ' तो 'थान' की अँगनाई है, ठकुरानी की 'बिजे' में। बाकी दो 'मण' पनियाली धनखेती है। उसका भोग पुजारी करता है। बदले में ठकुरानी की पूजा करता है। गाँव में, विशेष रूप से औरतों के बीच, पुजारी की महिमा बहुत बड़ी है। ठकुरानी सपने में पुजारी को दर्शन दे-दे जाती हैं, सारी बातें बता-बता जाती हैं। किसी की बाड़ी में केले, बैंगन, कुम्हड़े आदि में जो पहले फल लगते हैं, उसे ठकुरानी को दिए बिना कोई आप नहीं खाता।

मंडप पक्का बना है। बीच में ठकुरानी आप विराजती हैं। मूर्ति काफ़ी बड़ी है। तोल में दस पंसेरी से कम की न होगी। हल्दी बटने के दो-चार सिलौटे मिलकर जितने बड़े होंगे, उससे भी कुछ बड़ी ही पड़ेगी। पूरी मूर्ति चार अंगुल की मुटाई के सिंदूर से पुती है। बड़ी ठकुरानी के अलावा चार और-और मूर्तियाँ हैं। मंडप में दाएँ भाग में कुछ दूर पर मिट्टी के 'पण' दो 'पण' (बीस गंडे या अस्सी=एक 'पण') टूटे-फूटे हाथी-घोड़े जमा हैं। ठकुरानी को सवारी के लिए मिट्टी के हाथी-घोड़े दे दीजिए तो बच्चों के रोग-दोख दूर हो जाते हैं, दुःख-पीड़ा कट जाती है। बड़े-बूढ़ों की पीड़ा हटते भी देखा-सुना गया है। बड़े-बड़े लोग मनौतियाँ मनाते हैं। इसीलिए ठकुरानी की घुड़साल कभी सूनी नहीं रहती। देवी की पूजा प्रतिदिन नहीं होती। सूखे पत्तों और कूड़े-कचरे से वह ढकी रहती हैं। ब्याह-शादी, गौना-सगाई, 'पुहाणी' (ऋतुमती बालिका के प्रथम पति-समागम का अनुष्ठान। -अनु.) किसी के बाल-बच्चे के निरोग हो उठने, अथवा किसी का मनोरथ पूजने पर पूजा हुआ करती है। गाँव में हैजा फैलने पर पजा की धूम मच जाती है। किरानियों की तरह ठकुरानी की कोई बँधी-बँधाई माहवार आमदनी नहीं है। डॉक्टरों-वकीलों के घर दौड़ने की तरह ठकुरानी के दरवाजे भीड़ लगाने भी कोई तभी दौड़ता है, जब उस पर कोई गाढ़ पड़ती है। ऐसे समय ठकुरानी का 'थान' चकाचक चमक उठता है। सोते से चौंककर जाग-सा पड़ता है। पूजा का खर्च गाँव के लोगों के चंदे के पैसे से चलता है। चंदा हैसियत के मुताबिक बँधा होता है। ठकुरानी बड़ी 'परतच्छ' देवता हैं। इसके अनुग्रह से गाँव आपद्-विपद् से बचा रहता है। कभी-कभी बुढ़िया मौसी (हैजे की देवी। भारत के कई और प्रांतों की तरह उड़िया किसानों का भी यह विश्वास है कि हैज़ा एक देवी है, जिसके गाँव में पैठने से यह महामारी फैलती है। -अनु.) प्रबल होकर गाँव में पैठ जाती है। अच्छी तरह पूजा कर दी जाए तो बुढ़िया सैकड़े पचास जन से अधिक ले नहीं पाती, छोड़कर भाग जाती है।

आप सभ्य पाठक हैं, यह बात सुनकर हँसेंगे। विज्ञान-शास्त्र को तोल-तालकर कहेंगे कि रोग होने पर दवा-दारू करो, ठकुरानी की यह पजा-ऊजा क्या करते हो? अच्छा, आपसे हम यह पूछते हैं कि आपका विज्ञान बँगला एपिडेमिक फ़ीवर और बंबे महामारी ताऊन को क्यों नहीं रोक लेता? (आठवें संस्करण (1954) में यहाँ पर कोई वाक्यखण्ड छूट गया लगता है। इस वाक्य का पिछला भाग अनुवादक ने अपनी ओर से जोड़कर पूरा किया है। -अनु.) विशेष पूजा पाने का यह एक विशेष कारण है। किस-किस और कितनी बाँझों ने देवी के वर से पुत्र-लाभ किया है इसकी कोई विशेष तालिका तो हम प्रस्तुत नहीं कर सकते, पर इतना हम निश्चय पूर्वक कह सकते हैं कि गाँव में जो स्त्रियों आज निर्माल्य को छू देने भर से संतानवती हैं, उनमें से कौन-कौन अपने ब्याह के समय निपट बाँझ थीं यह हम पहले ही कह चुके हैं कि तालाब की ओर जाने के लिए ठकुरानी के सामने से एक राह गई है। गाँव की माँ-बहनें उसी राह से आवाजाही करती हैं। एक स्त्री-उमर अंदाज़न तीसेक की रही होगी-प्रतिदिन नहाकर लोटती बेर काँख तले की मटकी ठकुरानी के आगे रख देती है, देवी के आगे की अँगनाई झाडू से बुहार देती है, मटकी से अँजुली भर पानी लेकर ठकुरानी वाले पेड़ की जड़ में ढाल देती है और धरती पर माथा टेककर गुप-चुप न जाने क्या तो उन्हें बताती है। प्रतिदिन साँझ पहर वह फिर आती है और एक बाती जलाकर ठकुरानी के 'थान' पर 'संझा' देती है और न जाने क्या-क्या प्रार्थना करती है। इस तरह करते कोई छै माह हो गए। लोग देखते आ रहे हैं। उनके मन की बात कोई नहीं जानता। कोई जाने भी कैसे? वह औरत बड़ी लजीली है। हर घड़ी घूँघट काढ़े रहती है। किसी से भी मिलती-जुलती नहीं। किसी से बात तक नहीं करती।

गाँव के चरवाहे लड़के धूप के पहर ढोर-डंगर परती में छोड़ देते हैं और ठकुरानी के पास बरगद की छाँह-तले खेला करते हैं। यकायक सबने खेल छोड़ दिया और लकुटियाँ लिए घेरकर खड़े हो गए। उनकी देखा-देखी कोई दस-पंद्रह जने और जुड़ आए। कल पूजा तो नहीं हुई, फिर ठकुरानी के पास ये पुजापे कहाँ से आ गए? चारों ओर मदार के फूल, गेंडू (शतवर्ग) के फूलों की मालाएँ, खीलें, गुड़ में बँधी खील की लाइयाँ (लड्डू) आदि बिखरी पड़ी थीं। ठकुरानी की देह में टटका बटी हल्दी लगी थी। ठकुरानी की पूजा गाँव की एक विशेष घटना होती है। गाँव में चंदा बँधता है, उगाही होती है, फिर बाजे बजते हैं, सारा गाँव उमड़कर पूजा देखने आता है। पूजा साँझ के समय होती है। मानसिक पूजा, मनौती की पूजा भी उसी तरह होती है। पर कहाँ, कल तो कोई बाजे-गाजे बजे नहीं ! कल साँझ को कोई पूजा तो हुई नहीं! फिर यह सारी चीजें आई कहाँ से? एक लड़का चिल्लाकर बोला, "यह क्या है? यह क्या है?" सभी दौड़ते हुए उधर ही गए। देखा, ठकुरानी के पीछे एक बड़ा-सा बिल है। बिल का मुँह ठकुरानी के मंडप से कोई तीन हाथ पर था। मुँह बहुत बड़ा था, एक आदमी उसमें घुसकर मज़े से बैठ सकता था। बात गाँव-भर में फैला गई। हर कोई यही चर्चा करने लगा। जहाँ-तहाँ से लोग उस बिल को देखने दौड़े। मंगराज भी सुनते ही दौड़े आए। तरह-तरह की बातें हुई। नाना भाँति के सुझावों के बाद अंत में बात यही ठहरी कि ठकुरानी कल निस्तब्ध रात को किसी भक्त का कष्ट निवारने निकली होंगी। बिल उनके बाघ ने खोद डाला होगा। मंगराज ने कहा, "जान पड़ता है, बाघ इस समय इसी बिल के भीतर है।" बाघ का नाम सुनते ही सभी भाग खड़े हुए। अंत में मंगराज रामा के मुँह की ओर ताककर चले गए। जान पड़ता है यह किसी काम का संकेत था। उसके दूसरे दिन से ही फिर कभी यह बिल किसी को नहीं दीखा। गाँव में अनेक दिनों तक इस बात की चर्चा होती रही। भीमा नाई की माँ ने कहा, "मेरी वयस सात गंडा कि डेढ़ 'पण' (बीस गंडे या अस्सी=एक 'पण') कि चार 'पण' हुई होगी। गाँव में ये जितने भी बूढ़े दिखते हैं, सबका ब्याह मैंने कराया है। सभी मेरे सामने के पैदा हुए हैं। सभी मेरे आगे बच्चे हैं। मैं इन्हीं आँखों से ठकुरानी को पहले भी तीन बार देख चुकी हूँ, अब यह चौथी बार देखा है। कल रात के सुनसान पड़ जाने पर बाहर निकली थी। गली के बीच से धूप जलने की-सी महक आई। झमर-झमर आवाज़ सुनाई पड़ी। देखा, ठकुरानी बाघ पर बैठी 'बिजे' ('बिजे' करना (विजय करना) = देवता का पधारना ।) कर रही हैं। बाप रे! कित्ता बड़ा बाघ था वह बाघ भी! मैंने न जाने कितने वाघ देखे हैं, पर इतना बड़ा बाघ कहीं दिखने का नहीं ! लंबाई उसकी सात कि आठ हाथ रही होगी। सिर बड़े भैंसे के तिर-जैसा, डरावना काला-काला । बाघ ने आँखें तरेरकर मेरी ओर देखा। मैं तो डर के मारे भीतर भाग गई और भीतर से टट्टी भेड़कर बेंवड़ा चढ़ा दिया।" आधी रात को गली में बाघ के पाँहुड़ की आहट 'सुनने की गवाही और भी चार-पाँच बड़ों-बूढ़ों ने दी। सुबह रामा ताँती ने खुद उस बाघ को देखे होने की बात दृढ़ता के साथ कही। ठकुरानी के पधारने की बात में किसी को कोई संदेह नहीं रहा।

आठवाँ अध्याय
जमादार शेख दिलदार मियाँ

शेख़ करामत अली का घर पहले आरा जिले में था; आजकल मेदिनीपुर जिले में है। शेख करामत अली को सभी अली मियाँ के नाम से बुलाते हैं। हम भी वही नाम लिखेंगे। अली मियाँ पहले घोड़ों के सौदागर थे। पच्छाँह में हरिहर-छत्तर (हरिक्षेत्र। बिहार के सारन जिले में सोनपुर नामक स्थान पर हरिहर क्षेत्र का मेला लगता है, जो संसार का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। -अनु.) मेले से घोड़े मोल लाकर बंगाल और उड़ीसा में बेचना ही उनका व्यवसाय था। मेदिनीपुर जिले के बड़े साहेब के हाथों उन्होंने एक घोड़ा बेचा था। घोड़ा बड़ा ही अच्छा निकला। साहेब-मौसूफ (उक्त साहेब । (लेखक ने यहाँ फारसी शब्द-विन्यास ही पसंद किया है। -अनु.)) बहुत-बहुत खुश हुए। उन्होंने मेहरबानी करके मियाँ जी के रोज़ो-रोजगार और कारोबार के बारे में बहुत पूछ-ताछ की। सौदागरी में कोई खास लाभ न होने की बात सुनकर उन्होंने मियाँ जी को कोई नौकरी देने की इच्छा प्रकट की और पूछा कि आप कुछ लिखना-पढ़ना जानते हैं कि नहीं। मियाँ बोले, "हुजूर, मैं फ़ारसी जानता हूँ, कागज-कलम दीजिए तो अपना पूरा पता लिख दूँगा।" पहले फ़ारसी विद्या का बड़ा आदर था। अदालत में फ़ारसी ही चलती थी। भारत के भाग्य में विधाता ने ऐसा ही लेख जड़ दिया है; कल फ़ारसी थी, आज अंग्रेज़ी है, और आगे क्या होगा सो राम जाने! बस इतनी बात पक्की है कि देवनागरी का कपाल चट्टान तले दबा है। अंग्रेज़ी के पंडित कहते हैं कि संस्कृत मृत भाषा है। इस बात को हम कुछ और साफ़ ढंग से यों कहते हैं कि यह अधमरे लोगों की भाषा है। खैर, छोड़िए इस बात को साहेब मौसूफ की मेहरबानी से मियाँ साहेब को एक नौकरी मिल गई। उस नौकरी का नाम है थानेदारी, थाने की दरोगागिरी । नाना विघ्नों के बीच एवं निर्विघ्न रूप से मियाँ साहेब ने तीस बरस तक यह नौकरी की और प्रचुर विषय संपत्ति अर्जित कर गए। घर-बार, बाग़-बग़ीचों, और घर-गिरस्ती के माल-असबाब के अलावा चार ताल्लुकों की ज़मींदारी भी विरासत में छोड़ गए। पहले उड़ीसा की ज़मींदारियाँ कलकत्ता में ही नीलाम हुआ करती थीं। मियाँ एक बार किसी खून के मामले में चालान लेकर कलकत्ता गए थे। उसी दौरे में ताल्लुका फ़तहपुर सरखंड की जमींदारी भी नीलाम में मोल लेते आए । हमारी बात के प्रति आपके मन में संदेह हो सकता है। उन दिनों थानेदार मौजूदा बंगाल पुलिस के इंस्पेक्टर ही तो थे। इतने पैसे कहाँ जुटा लिए उन्होंने? आप इन संदेहों में पड़ते ही क्यों हैं? आँखें मूँदकर चुप-चाप पढ़ते जाइए। हमारी बात में रत्ती-भर भी झूठ नहीं है। जो कुछ है, निर्मल सत्य है। यह बात सभी जानते हैं कि किसी डिप्टी ने गोविंद पंडा ब्राह्मण को मुक़द्दमे में डिगरी दी तो उनका कल्याण मानते हुए पंडा जी ने यही कहा था कि "डिप्टी बाबू, तुम दारोगा हो जाओ!" बात का मरम आप समझे? तो अक्लमंद के लिए इशारा ही काफ़ी होता है। कलकत्ता के प्रसिद्ध धनपति मोती झील पहले खाली बोतलें ही बेचा करते थे। एक सूँड़ी विलाप करते हुए कहा करता था कि मोती शील छूँछी बोतलें बेच-बेचकर करोड़पति हो गया और मैं भरी-पूरी बोतलें बेचने पर भी कंगाल का कंगाल ही रहा। हमें भय है कि कितने ही बी.ए. पास बाबू अली मियाँ की कहानी सुनकर उसी सूँड़ी की तरह विलाप किया करेंगे कि हाय-हाय, मियाँ जी उलटी कलम से छूँछा नाम लिखकर जमींदार हो गए और हम हैं कि सीधी कलम से लंबे-लंबे 'ऐसे' लिखकर भी रोटी तक नहीं जुटा पाते। ऐसे बाबू यह बात जानते हैं कि क्या "भाग्यम् फलति सर्वत्र, न विद्या न च पौरुषम्।"

अली मियाँ के मात्र एक ही बेटे हैं शेख दिलदार मियाँ उर्फ छोटे मियाँ । बेटे को लायक और इल्मदार बनाने में दारोगा साहेब ने कोई ग़फलत नहीं की। फ़ारसी पढ़ाने के लिए बहुत दिनों तक घर पर ही आखून ((फारसी 'आलूंद') शिक्षक) रख गए थे। छोटे मियाँ ने पंद्रह बरस के भीतर ही फ़ारसी भाषा की कुल वर्णमाला और हिज्जे सीख डाली थीं। छोटे मियाँ को बाईस साल पूरे हो जाने पर भी आखून जी के आगे बैठे झूम-झूम कर किताब पढ़ना कैसा तो लगा लोग क्या कहेंगे? और फिर, यारदोस्त भी आते ही रहते। अकारण आके बैठ-बैठ रहते। उनका कष्ट देखना मियाँ साहब से बरदाश्त न हो सका। विशेषकर आखून जी जब कभी-कभी यह कह उठते कि "नशा खाने से आदमी जानवर हो जाता है," तो बात बिलकुल बरदाश्त से बाहर हो जाती।

एक दिन तीसरे पहर आखून जी खाना खाकर चित लेते पड़े थे। सुतली कातने के लिए केवट लोग सन को जिस तरह धुनकर फैला देते हैं, कुछ उसी तरह आखून जी की गरदन और छाती के ऊपर दाढ़ी का पूला फैला हुआ था, मानो दाढ़ी ऊपर से ओढ़ रखी हो। टिकिया से उड़कर कोई बलती चिनगारी दाढ़ी में आ पड़ी। दाढ़ी चरचराती हुई जल उठी। आँच लगी तो आखून जी हड़बड़ाकर उठे और 'तौबा तौबा' कहते हुए दाढ़ी झाड़ने लगे। चिनगारी टूटकर फुलझड़ियों की फुहियों-सी आग की नन्ही नन्ही-सी कणाएँ सारे कपड़ों-लत्तों पर बिखर गईं । पकी दाढ़ी के लच्छे तीरों की तरह चारों आरे छूट चले। "अमाह-ओह तौबा रे, हाय मरा, तौवा रे!" -कहते हुए आखून जी घर-भर में फाँट-फाँदकर आग बुझाते रहे। लंका-दहन के समय जब हनुमान के मुँह में आग लगी थी, तो उसका मुँह कैसा दिखता था, इसका कोई खुलासा वर्णन महर्षि वाल्मीकि नहीं कर गए। इसीलिए उपमा की जगह पर उस बात का उल्लेख करना हमें युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पंडितः!" आखून साहेब नीति शास्त्र के इस वचन के अनुसार आधी दाढ़ी का त्याग करके सर्वनाश से रक्षा पा गए। रात-भर भक्ति-पूर्वक "बिसमिल्ला बिसमिल्ला'' (लेखक का तात्पर्य संभवत: या "अल्ला, या अल्ला" से है। -अनु.) करते हुए वह घर के अंदर ही बंद रहे, भीतर से बेवड़ा चढ़ाए रहे। अगले दिन सुबह-ही-सुबह लापता हो गए। तब से आज तक उन्हें किसी ने मेदिनीपुर में नहीं देखा। जब यह बात बड़े साहब अली मियाँ के कानों में पड़ी तो वह (उर्दू-मिश्रित उड़ीसा में -अनु.) बोले, "कुछ परवाह नहीं, मेरी दिलू त इलम हासिल करि नेइछि, मूं केवल मों नाम लेखी जाणे, एते दौलति कमाया मेरी दिल त बहुत सिखिलाणि, से दिन मोरे आगे ही इमतान दिया, आपणा नाम लिखा, कलकत्ता, मेदिनीपुर हाथी, घोड़ा, बाग-बगइचा कते बात लिखा। बड़ा साहेब खबर पाने से इसके लिए उसको दारोगा-गिरी देगा। हमीं इस बात को लुकाता है। मूं दिल की नौकरी करने को नहीं देगा। वह बच्चा लोग है, एत्ते मेहनत उठाने सकेगा नहीं।" उसके बाद अली मियाँ ने लड़के को पास बिठलाकर दुनियादारी के काम धाम चलाने के बारे में अनेक उपदेश दिए। विशेष करके उड़ीसा की जमींदारी के बारे में बड़ी होशियारी के साथ उपदेश देते हुए कहा, "देखो, उस देश में जो महांती लोग हैं न, वह बड़े चोर हैं। मूँ हिसाब-किताब का मामला में खूब मजबूत होने करके मोंको वो लोग ठगने नहीं सकता। उन लोगन की ठगबाजी सुनेगा? एक, दो, तीन और फिर चार, यही दुनिया का हिसाब है। लेकिन उसका हिसाब कैसा होता है, जानते हो? वे कहते हैं, एक के एक, दुइ के दुइ, दुइ दूने चारि। देखा न? एक, दो और चारि तो हुए, पर बीच में जो तीन होता है सो कहाँ गया? यही तीन रुपैया जो लोग चोरी करता है।" इत्यादि इत्यादि ।

जमींदार-वंश के परिचय के लिए इतनी सारीं बातें लिखनी पड़ गई। वैसे, बातें इसकी सभी पुरानी ही हैं। आज पाँच बरस हुए शेख करामत अली दुनिया से सिधार गए। आजकल छोटे मियाँ उर्फ शेख दिलदार मियाँ खुद ही जमींदारी के मालिक हैं। रात अंदाजन घड़ी-भर बीती है। जमींदार शेख दिलदार मियाँ कचहरी वाले मकान में बैठे हैं। इमारत बड़ी-सी है, कोठा है पूरा । कोई ऐसी-वैसी छोटी-मोटी कोठरी नहीं, पूरा लंबा-चौड़ा कोठा है। फर्श पर एक बड़ी-सी दरी बिछी है। जान पड़ता है दरी बहुत पुरानी है। दस-बारह जगह तेल के धब्बे पड़े हैं। चिनगारियों से जले छेद कोई पंद्रह-बीस हैं। कोर फट गई है। उसी दरी के ऊपर दीवार से लगा एक बनारसी कालीन बिछा है कालीन के ऊपर दीवार से टिका बड़ा-सा बनारसी तकिया है। दोनों ओर गोल कुँहड़ो-जैसे दो और तकिए हैं। उसी कालीन पर खुद जमींदार शेख दिलदार मियाँ बैठे हैं। पोशाक में किमखाब का ढीला पाजामा है, साटिन की चपकन है, सिर पर बनारसी टोपी है, कानों में इत्र के फाहे हैं, सामने रूपे का इत्रदान पड़ा है, साथ ही गुलाबपाश है। गुलाबपाश के पास ही एक सात हाथ के पेंचवान वाला हुक्का है। हुक्के के ऊपर नन्ही-सी छछिया-जैसी चिलम पड़ी है। चिलम के ऊपर सरपोश है। सरपोश से लटकती चार लड़ियों की चाँदी की सांकली धरती को छू रही है। महादेव छू के आगे धरना दिए पड़े रोगी की तरह पंचवान मियाँजी के चरणों को छूता हुआ लोट रहा है। आज उसकी कोई पूछ नहीं, कोई आदर नहीं मनुष्यों की तरह अचेतन पदार्थों के भाग्य में भी परिवर्तन चक्रनेमिक्रमेण घटित होते रहते हैं। घर के कोने में और इधर-उधर जहाँ-तहाँ टूटी-बिखरी झाडू, जलपूर्ण बधना, दो-चार चंडू के हुक्के, गुड़ाखू (चिलम में पीने के लिए और दाँतों में रगड़ने के लिए उड़िया ढंग से तैयार तंबाकू। -अनु.) के गुल, चंडू और गाँने की राख-प्याज के छिलके, बकरी की मेंगनियाँ आदि आवश्यक अनावश्यक विहित-वर्जित पदार्थ बिखरे पड़े हैं। पान की पीकें और पान की सिट्ठियाँ और चीजों से अधिक हैं । हमने स्वकीय बुद्धि के प्राखर्य से समझ लिया है कि इस घर के भीतर कभी-कभी झाड़ू भी फिरा करती है, नहीं तो कोने में इतना सारा कूड़ा जमा हो जाने का और कौन-सा कारण हो सकता है भला? इमारत ऊपर की ओर से टूटी हुई है। कारनिसों के ऊपर जाल फैलाए मकड़े मक्खियों-मच्छरों को घूरते हुए ठीक उसी तरह बैठे हैं, जिस तरह काँच-लगी आलमारियों में किताबों से लदी तले-ऊपर सी पटरियाँ सजाए, मसनद से उठंगे, वकील साहेब लोग, मुवक्किलों को निहारते हुए बैठे रहते हैं। कड़ियों की काँकों-फाँको गौरयों की मजलिसें लगी हैं। उन्हीं मजलिसों से कभी-कभी तिनकों के बीड़ या इक्की-दुक्की तीलियाँ, तिनके, फाँसें तले गिर-गिर आती हैं। तले की मजलिस आज गुम-सुम है। सभी गुम-सुम हैं । मियाँ साहेब गाल पर हाथ दिए चुप हैं। वाटरलू की लड़ाई में हारकर नेपोलियन यों बैठ नहीं सका था। कारण, अंग्रेज उसे सेंट हेलेना भेजने के लिए धर-पकड़ कर रहे थे। मियाँ जी के आगे सात मुसाहेब चिंता में बैठे ऊँच रहे हैं। रह-रहकर ढुल-ढुल से पड़ते हैं। उस्तादजी बकाउल्ला खाँ दोनों पाँव सुजाते दाढ़ी को घुटनों पर लादे हुए बैठे हैं। पठान घराने की तलाक़-शुदा औरत की तरह तानपूरा और परती में पड़ी मरणाशौच या टोटके की होड़ियों की तरह तबले लोट रहे हैं। घर के एक कोने में खिदमतगार फतुआ बाएँ हाथ में कोई पदार्थ रखे हुए उसे दाएँ हाथ के अँगूठे से दाब रहा है। बीच-बीच में बिचली उँगली से उसमें बूँद-बूँद पानी भी डालता जाता है। मुंशी जाहिर बख्श कागज के एक टुकड़े पर लिखी हुई कोई तालिका लिए हुए ठीक उसी तरह खड़े हैं जिस तरह डिप्टी के आगे कोई चोर असामी खड़ा होता है। मियाँ साहेब ने लंबी साँग लेकर पूछा, "अब उपाय कौन-सा किया जाए।" मुंशी साहेब ने कहा, "बंदानवाज मैं सारा दिन मारा-मारा फिरा, कहीं कोई टिप्पस लग नहीं पाई।" महाजन रामदास ने कहा, कि "तमस्सुक के बीस हजार और हथफेर के चार हजार, ये चौबीस हजार रुपये उसके हो गए। अब और कर्ज देने को वह राजी नहीं हुआ। बाज़ार के मोदियों-दूकानदारों का पावना चार हजार हो गया। उन्होंने उधार सौदा देना बंद कर दिया।" मियाँ बोले, "बेवकूफ़, कमबख्त, नालायक कहीं के! बापू की अमलदारी से काम करते आ रहे बीस साल पुराने नौकर राम सरकार को निकालकर तुम्हें कारकुन इसलिए बनाया था कि तुम दोस्त हो और लायक आदमी हो। जरूरत पड़ने पर तुम चला तक नहीं सकते ?" ("तुमसे कर्ज तक लाया नहीं जा सकता ?") मुंशी जाहिर (जहीर) बख्श बोले, "हुजूर, मैं नालायक क्योंकर होने लगा ? राम सरकार कुछ भी कर्ज नहीं कर पाया था, मैंने पाँच वर्षों के ही भीतर पचास हजार कर्ज ला दिया!" मियाँ ने कहा, "रहने दे वे सब बातें। अभी तो सवाल यह है कि इज्जत कैसे रहे ! कहा भी है कि 'संपत जाप, न पर पत जाय। जो पत जाय, बहुरि न जाय!' " मुसाहब लोग ऊँघ रहे थे। यह बात सुनते ही सब एक साथ बोल उठे, "अलबत्ता, अलबत्ता वाजिब है, बाजिब है।" मियाँ बोले, "जाओ, घर का माल-असबाब हो या जमींदारी हो, जिसे चाहो बंधक रख आओ, लेकिन किसी भी तरह आज की मजलिस का बंदोबस्त करो ही करो। देखो, जरा जल्दी। रात हो चुकी है। कोई ज्यादा रुपयों की जरूरत नहीं होगी । बाई जी की विदाई के लिए सौ रुपये और बाई जी के साथ वालों और दोस्तों के खाने-पीने को तथा पुलाव वगैरह के लिए सौ रुपये बस दो सौ रुपये ही बहुत होंगे ।" दोस्तों ने कहा, "बजा है, बजा है। ज़्यादा रुपयों की जरूरत ही क्या है ?'' दोस्त हनू मियाँ ने कहा, "हुजूर, यह जो खेमटे वाली खातमुन्निसा आ रही हैं न, बड़ी इल्मदार हैं। काश्मीर की अव्वल नम्बर बाई हैं। इनके इल्म और राग-रागिनियों की क़वायद-हद रे, हद ! यह देश उन्हें पसंद थोड़े ही है? वह तो बस सिर्फ मुसाफिरी के लिए आई हैं ! इन्हें तो मुर्शिदाबाद के नवाब, लखनऊ के नवाब, रोम के बादशाह, सोम के बादशाह, वगैरह बुला बुला भेजते हैं। गीत सुनने के लिए बीबी तो बस खातिरदारी चाहती है खातिरदारी हुजर को शुहरत और नेकनामी तमाम आलम में जाहिर है। इसीलिए वह आज आ गई हैं और यहाँ पर मजलिस करने का इरादा जाहिर फ़रमाया है।" मजलिस के सारे लोग एक साथ बोल उठे, "हुजूर को दुनिया में कौन नहीं जानता। जिसने एक बार हुजूर का पुलाव खा लिया, वह जिन्दगी-भर याद करता रहेगा।"

प्यादा शेख फज्जू ने सलाम करके अर्ज किया, "हुजूर! उड़ीसा की जमींदारी से एक महाजन मुलाकात के लिए आया है।" हुकुम हुआ, "उसे हाजिर करो!" आगन्तुक ने उपस्थित होकर सामने पाँच रुपये नजराने के रख दिए और धरती से हाथ लगा-लगाकर तीन बार सलाम बजाए। फिर, मजलिस में जितने भी लोग बैठे थे, सबको एक-एक सलाम किया। यहाँ तक कि खिदमतगार को भी सलाम से वंचित नहीं रखा। मियाँ जी ने इरशाद फ़रमाया, "आदमी बहुत क़दरदान है?" 'पाला' (पुराने कवियों की रचनाएँ गा-गाकर सुनाने वाले जत्थे, जिनकी प्रतियोगिताएँ उड़ीसा में अत्यन्त जनप्रिय होती हैं। - अनु.) वालों के एक स्वर में गा उठने की तरह सबने हामी भरी, "बहुत क़दरदान है, बहुत होशियार है!"

मियाँ ने पूछा, "तुम्हारा नाम?"

"रामचंद्र मंगराज।"

"क्या? रामचंद्र मामलाबाज़ ?"

"नहीं हुजूर, मंगराज।"

"अच्छा वही सही, रामचंद्र मंगोराज।"

रामचंद्र ने निवेदन किया, "मैं निहायत ही थोड़ी-सी कुछ चीजें नज़र करने के लिए लाया हूँ। हुकुम हो तो हाज़िर करूँ।"

"अच्छा, बहुत अच्छा, लाओ!"

भेंट की तालिका एक तालपत्र, पर लिखी हुई थी। पढ़ी गई : पाँच ओलियों (पुआत से बनी खचियाँ ।) में महीन अरवा चावल-एक 'भरण' आठ 'गउणी'; मूँग की दाल-दो 'ओलियों' में बत्तीस 'गउणी'; अरहर की दाल-एक ओली में अट्ठारह 'गउणी': घी- एक मटके में पचीस सेर, 'बंतल' (केले की एक जाति जिसकी तरकारी बनाई जाती है । -अनु) और "कठिया' (केले की दूसरी जाति जिसकी तरकारी भी बनती है और पक्के भी खाते हैं । -अनु.) केले-पाँच घौद; पके पेले-दो घौद; आलू-आठ 4 'विशे' (देशी तोल विशेष । साधारणत: एक बिशा 120 तोले । -अनु.) इत्यादि-इत्यादि ।

मियाँ ने फरमाया, "चावल बहुत अच्छा है। पुलाव के लायक घी भी बहुत उमदा है।"

मंगराज ने कहा, "हुजूर हमारी दुनिया के मालिक ठहरे। पंदरह पुश्तों से हुजूर का ही दाना खाते आ रहे हैं। ये तो मामूली-सी चीजें हैं। मेहरबानी हो गई तो पुलाव का चावल, घी, दाल वगैरह बराबर हाजिर करता रहूँगा।"

मियाँ ओ मि-याँ-उस्तादजी परम प्रसन्न होकर बाएँ हाथ से तानपूरे के कान उमेठते हुए सुर साधने लगे "गुम-गुम-गुम ताकधिंन धिन धिन ताक धिन-धिन गुम"-तबले बज उठे।

मियों ने हुकुम किया, ''जल्दी से पुलाव का बंदोबस्त करो !"

ईसाई कहते हैं कि संसार के अन्तिम दिन स्वर्ग के दूतों के बाँसुरी बजाने पर सभी मरे लोग अपनी-अपनी कब्रों से उठ बैठेंगे । मजलिस अफ़सोस के मारे मरी-सी पड़ी थी। मंगराज के रुपयों की झनकार सुनते ही फिर जी उठी। मियाँ साहेब ने पेंचवान को मुँह से लगाया और दो-चार कश अच्छी तरह खींचे। काले पहाड़ पर छाए कुहरे की तरह सारी दाढ़ी पर धुआँ लहरा गया। सरकार जिस तरह से महानदी के पानी को नहर के द्वारा परगने-परगने बाँट देती है, हुक्के के भीतर जमा हुआ धुआँ भी उस तरह से नैचे और पेंचवान के द्वारा सभी के मुँहों-मुँह बँट गया। "में-एँ-एँ में-एँ-एँ।" पुलाव के लिए खस्सी लाया गया। मजलिस के आगे भाव टूटा : ढाई रुपये।

मंगराज चौंक पड़े। बोले, "क्या? इसी पटरू का दाम ढाई रुपये? बाप रे!

कितना दाम!"

मियाँ ने पूछा, "तुम्हारे गाँव में इसका दाम कितना होगा?"

रोगी की परीक्षा करते डॉक्टर की तरह बकरे का आगा-पीछा, बायाँ-दायाँ उत्तम रूप से निरीक्षण करते हुए मंगराज ने कहा, "बकरे का दाम ही क्या? चार पैसे हों कि छै पैसे! हुकुम हो तो पुलाव के लिए पंद्रह गंडे भेज सकता हूँ। हुजूर ने ज़मींदारी में जो नौकर-चाकर रखे हैं, सो आदमी पहचानकर नहीं रखे, इसलिए इतने रुपयों की बरबादी होती है। ढाई रुपये का यही बकरा ! बाप रे!"

इस बात को सुनते ही मजलिस में आनंद का जो कोलाहल उठा, वह वर्णनातीत है। इतना निश्चय है कि पलासी के युद्ध में क्लाइव साहेब की विजय का समाचार सुनकर कंपनी के डायरेक्टरों की सभा इतनी आनंदित हरगिज़ नहीं हुई होगी। कारण दिल्ली का डर अभी उनके मन से गया नहीं था। उस्ताद जी ने राग पुड़िया का आलाप शुरू कर दिया। सारी मजलिस आनंद से उन्मत्त हो उठी। सभी के मुँह से हँसी आप ही छलकी पड़ रही थी। केवल मंगराज ही हाथ जोड़े मुँह सुखाए बैठे रहे। जैसे ही वैसे जाल के अंदर बिखरे चावल चुगती चिड़ियों के आनंद को बहेलिया चुप साधे देखता रहता है। हम मंगराज के मन की बात को भली भाँति समझ सकते हैं। जान पड़ता है कि उस समय वह इसी उधेड़बुन में पड़े थे कि देखें चिड़िया कंपे के पास कब आती है और ध्यान में जप रहे थे कि "आ रे बाबा पंछी, आ; कंपे के छोर पर तो आ!"

एक नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और बाई जी के शुभागमन का संदेश सुना गया। धत्तेरे की ।! सर्वनाश! यह बात तो किसी के ध्यान में थी ही नहीं! उस्ताद जी पुराने उस्ताद आदमी ठहरे, उन्होंने याद कराया कि बाई जी को सौ रुपये नजराने में तो देने ही होंगे! फिर वही चिंता, मन का फिर वही आंदोलन! भारतवर्ष के व्यय-संकलन के लिए पार्लमेंट में इससे बढ़कर आंदोलन हरगिज़ नहीं होता होगा। कोई राह निकल ही नहीं पा रही थी। अब समय भी कहाँ रह गया था? मौक़ा देखकर मंगराज ने हाथ जोड़कर कहा, "हुजूर! गुलाम के हाजिर रहते इतनी चिंता काहे की ?" एक बार फिर प्रशंसा और धन्यवाद के उद्गार सभी के मुँह से निकल-निकलकर मंगराज के कानों में ढल-ढल पड़े। मियाँ ने हुकुम फ़रमाया, "अच्छा मंगराज, अभी तुमने जो उपकार किया, उसका इनाम तो तुम्हें अलग से जरूर ही मिलेगा और चार आने रुपये के हिसाब से सूद अलग।" मंगराज ने कहा, "राम, राम, राम हुजूर, में प्याज और ब्याज नहीं खाता।" उस्तादजी बोले, "क्या ब्याज नहीं खाता? बहुत ही ईमान वाला आदमी है। 'कुरान शरीफ़' में जो पच्चीस हराम बयान किए गए हैं, उनमें से एक यह ब्याज भी है !"

इतिहास के लेखकों का कहना है कि दिल्ली के बादशाह से बंगाल की सूबेदारी हासिल करने में क्लाइव साहब को इतना कम समय लगा था कि एक गधे की खरीद-बिक्री के लिए भी उससे कहीं अधिक समय आवश्यक होता है। फिर, फतेहपुर सरसंड की तहसीलदारी और समस्त इतर क्षमता प्राप्त करने में मंगराज को ही विलंब क्यों लगने लगा ?

नवाँ अध्याय
गाँव का हाल-चाल

ताल्लुक्का फ़तेहपुर सरखंड एक बहुत बड़ा ताल्लुक़ा है। सदर जमा मालगुज़ारी पाँच हजार दो सौ आठ रुपये छै आने है। मुफ़स्सल वसूली लगान से ढाईगुनी होती है। ऊपरी तहबीलों के पावने की बात तो छोड़ ही दीजिए। ताल्लुके में पाँच मौजे हैं। मीजा रामनगर, बलिया, हांडिखाई, सौतुणिया और गोविंदपुर । गोविंदपुर पाँचों में सबसे बड़ा है। कमोबेश पाँच सौ घरों की बस्ती है। सभी जात-बिरादरियों के लोग बसते हैं। एक दुकान भी है। उस दुकान में सभी तरह की चीजें बिकती हैं। दालें, चावल, तंबाकू, नमक, तेल, जो चाहिए सो ले लीजिए। दो-चार पैसे का घी चाहिए तो वह भी मिल सकता है। दूकान में तीन पीढ़ियों से सँजोकर रखा हुआ दशमूल (बेल, गँवार, फनफना, अगिनवथुआ, पटेरी, शालपर्णी, बृहती, अँकरांती, गोखरू, और मोथे की जड़ें, जिसका काढ़ा, गँवई बूटी वैद्य दवा के रूप में देते हैं।) भी है। दो-तीन कोस के वैद्यों के नुसखे आते हैं। गाँव लाँवालाँबी बसा है, पर लंबान एक सीध में नहीं है, 'अठंकिया' (शब्दार्थ = आठ के अंक के आकार की उड़िया में आठ का अंक 'I-' की तरह लिखा जाता है। इस तरह 'अठंकिया' आकार समकोण पर मिलती और लंबाई में बराबर दो सरल रेखाओं से बने आकार को कहेंगे। -अनु.) है। बस्ती असुर-दिग्घी तालाब के उत्तरी और पच्छिमी भिंडों के आधे-आधे भागों को छापकर बसी है। बीच में गली है। गली के दोनों ओर दो पाँतों में घर हैं। बीच में गली काफ़ी चौड़ी हो गई होने पर भी आने जाने की राह दस-बारह हाथ से अधिक चौड़ी नहीं है। राह के दोनों ओर सबके दरवाजों के आगे खाद के चबच्चे हैं। साथ ही थोड़ी-थोड़ी जगह खाली पड़ी है। उस खाली जगह में सुबह के वक्त गाय-बैल बाँधते हैं। जगह-जगह एक-एक छकड़ा पड़ा है। गली से हर घर के दरवाजे तक जाने के लिए अलग-अलग राहें हैं। गाँव तीन भागों में बँटा है: मालकान टोला, ताँती टोला और ब्राह्मण टोला।

मालिकान टोले में खुद रामचंद्र मंगराज की हवेली है। इसलिए उस टोले का नाम खूब फैला है। चहल-पहल और शोर-गुल भी खूब रहता है। छै घड़ी रात गए तक कचहरी लगी रहती है। दूकान भी इसी टोले में है। पहर रात बीतते न बीतते और सभी टोलों में सन्नाटा छा जाता है।

ब्राह्मण टोले का प्रकृत नाम है 'शासन'। 'शासन' भाग में भाई-बेटे मिलाके पचास होंगे, घर बहत्तर हैं 'शासन' की गली के दोनों ओर नारियल के लगभग डेढ़ सौ पेड़ हैं। बीच के घेरे में एक बड़ी-सी चबूतरानुमा पिड़िया बँधी है। वहीं बलदेव की पूजा होती है। पिंड़िया से दस-पंदरह हाथ हटकर नारियल के कई विरवे हैं। उनकी जड़ें साफ़-सुथरी हैं आस-पास की जगह भी लिपी-पुती-सी है। वहीं गुसाँइयों की बैठक है। नस सूँघना, भाँग घोटना, यजमानी की बातों, यजमान- घरों की बातों, अर्जन-उपार्जन की बातों आदि का निपटारा, सब यहीं होता है। किसी-किसी दिन वहाँ काफी गोल-माल मच जाता है। उस दिन सहज ही यह पता चल चाता है कि आज यजमानी से मिले श्राद्ध के चावल का अथवा सामान्य दक्षिणा का बँटवारा हो रहा है। उस तकरार को सुनकर लोग कहते हैं कि ये बम्हन मुट्ठी-भर चावल के लिए कुत्तों की तरह आपस में झगड़ते हैं। लोगों को कहने में क्या लगता है, पर यह जरूर है कि ऐसी बातों से हमें कोई सुख नहीं मिलता। ये बातें हमें जरा भी नहीं सुहातीं। इसका कारण यह है कि ये लोग निपट मूर्ख हैं तो क्या, जाँगर चलाने में कोढ़ी-जैसे हैं तो क्या, ब्राह्मण कर्महीन होने पर भी छत्तीसों वर्णों (सभी जातों) का राजा ही होता है ! कुत्तों से इनकी तुलना करना, लाख बार हो चुकने पर भी कोई उचित नहीं है । और उपमा भी कोई खास अच्छी नहीं बन पड़ी। कारण ब्राह्मण का झगड़ा प्रेत के नाम पर उत्सर्ग किए गए गीले चावल के लिए होता है। उधर कुत्तों का झगड़ा होता है जूठे भात के लिए । अब आप ही देखिए कहाँ प्रेत का उच्छिष्ट गीला चावल, और कहाँ आदमी का उच्छिष्ट रोंधा चावल! कितने का अंतर पड़ गया ! इतना ही नहीं, कुत्ते एक-दूसरे को काट खाते हैं, पर ब्राह्मण में लाठी-लटीवल भले ही हो ले, इनको आपस में दाँत-कटौवल या नख-नोंचौवल करते कभी किसी ने नहीं देखा। आसपान में गीधों को उड़ते देखकर जैसे यह पता चल जाता है कि कहीं किसी जानवर की कोई लाश पड़ी होगी, वैसे ही पहर-भर दिन चढ़े गुसाइयों को टीका जनेऊ झलकाते झुंड-के-झुंड निकलते देखकर लोग सहज ही यह अनुमान कर लेते हैं कि किसी गाँव में मनुष्य मरा होगा।

पाणिग्राही (ब्राह्मणों का एक आस्पद) के हिस्से की 'बाटी' को मिलाकर 'शासन' के हिस्से की 'कुल 'जमीन पाँच सौ 'माण' है। मराठे सूबेदार ने ताँबे के पत्तर के ऊपर सनद बनाकर यह ज़मीन ब्राह्मणों को इस शर्त पर दी थी कि त्रिकाल-संध्या में उनके लिए आशीर्वाद करके गुसाईं लोग इस ज़मीन को अपने दखल में रखें और उसकी उपज को भोगें । त्रिकाल (त्रिकाल-संध्या' पद में 'त्रिकाल' का अर्थ होता है सुबह, दोपहर, शाम-दिन की इन तीन संधियों के लिए विहित की संध्या । लेखक ने जान-बूझकर इसे और अर्थ दिया है -अनु.) नाम भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान । भूत की बात भूत जाने । भविष्यत् की बात कोई मनुष्य नहीं जानता। रहा वर्त्तमान, तो वर्त्तमान की बात हम जानते हैं। गाय-गोरू ढूँढ़ लाकर बाँधते-छाँदते, गोंठ में धुआँ करते-कराते और हलवाहों को कलेवा-पानी खिलाते-पिलाते साँझ यों ही बीत जाती है, भूमिदाता को कोई आशीर्वाद करे भी तो कब करे ? बात चली तो एक दिन भोबनी वाहिनीपति साफ़ कह बैठे कि हमारा जमीन है ही कहाँ कि हम संध्या में आशीर्वाद करें। बात कोई सरासर झूठ भी नहीं । 'शासन' के भाग के पाँच सौ 'माण' में से पिछले दस बरस के अंदर चार सौ 'माण' खेत तो बिक-बिका चुके। बाक़ी जो कुछेक 'माण' जमीन बची है, सो भी इसलिए बची है कि उसे मंगराज सँभालते हैं। "गोब्राह्मण हिताय च" मंगराज अत्यंत ही यत्नशील रहते हैं। भूली-भटकी गायों को मंगराज सावधानी के साथ अपने गोंठ में रख लेते हैं। अक्सर देखा जाता है कि कोई-न-कोई 'पाण' ऐसी लावारिस गायों को ले जाता है और बख्शीश के रूप में कुछ-न-कुछ पा लेता है। बैलों की गिनती छोड़ दीजिए तो केवल गायों की संख्या ही तीन सौ से ऊपर हो चुकी है। गऊ माता बारह जगह (यत्र-तत्र) भटक-भटक कर कष्ट क्यों पाएँ? इसीलिए उन्हें सँभाल रखते हैं। बहुत ही बढ़ गई तो साल में एक बार पठानों और ग्वालों को आधी-आधी बढ़ती देनी पड़ जाती है। उसी तरह ब्राह्मणों के खेत भी मोल ले लिए हैं। उन्हें सँभाल के रखते हैं। गोसाई लोग खेत बेचें नहीं तो क्या करें? एक तो बम्हन की खेती, दूसरे चोर उचक्के भी चुन-चुनकर ब्राह्मणों के खेतों से ही धान चुराते हैं। थोड़ी-सी जमीन मंगराज के हाथों बेच डालने से चोर-चपाटे डर के मारे पास नहीं फटकते। कोई-कोई कहते हैं कि मंगराज ने पाँच-पाँच रुपये में पाँच 'माण' जमीन मोल ली। ऐसा कहना उनकी समझ की भूल है। अच्छा, अब आप ही बताइए कि एक 'माण' बीज बोकर आप पाँच 'माण' काटते हैं कि नहीं काटते? फिर, नंगराज के रुपये क्या कोई बाँझ हैं? उनमें क्या कोई सूद ब्याज नहीं होता?

'शासन' में ही शिवू पंडित का घर है। पंडितों से सुना जाता है कि इनके दादा बिकी खाड़ंगा पूरे सात पाद व्याकरण जबानी सुना सकते थे। नैषधांत पाठ भी उनसे अटकता न था। पंडित के नाना व्याकरण के शब्दों और संधियों को कोइली-गीत (प्राचीन उड़िया गाया-काव्य, जिनमें पूरी कहानियाँ कोयल को संबोधित करके गाई जाती थीं। संस्कृत-दूत-काव्यों की तरह कोयल इनमें दूती होती थी। -अनु.) की तरह हाँका करते थे। दादा और नाना की पोथियाँ रेहलों और खठूळियों (शालिग्रामी ठाकुर जी का काठ का सिंहासन।) में सजा रखी गई हैं। पंडित प्रतिदिन उसकी पूजा करते हैं। पंडित आप भी एक प्रकांड पंडित हैं। पोथी की डोर खोले बिना ही कोश के पाँच वर्ग मुखस्थ सुना सकते हैं। पंडित के मालिक बाप के ममेरे भाई के बहनोई के मौसेरे भाई नवद्वीप जाकर न्याय-शास्त्र पढ़ आए थे। सौ बात की एक बात यह कि खाड़ंगा वंश के प्रताप से ही विद्या इस 'शासन' से छूट नहीं पाई। इनके बाहरी ओसारे में चौपाढ़ी (चतुष्पाठी (पंद्रहवें अध्याय का पहला अनुच्छेद देखिए ।)) टोल है। 'शासन' के बच्चे वहाँ साँझ-सकारे पढ़ते हैं। इकतालीस कर्म और सोलह कर्माग भी यही पढ़े जाते हैं। कोई-कोई बच्चे वर्ग-दो वर्ग उच्च शिक्षा का लाभ भी कर लेते हैं।

पच्छिम वाली पाँत के ताँती टोले में डेढ़ सौ ताँतियों के घर हैं। इस टोले की गलियारी साफ-सुथरी है। खाद के चबच्चे, गोबर के ढूह आदि यहाँ कुछ भी नहीं हैं। आपने शायद यह समझ लिया कि यहाँ पंच-कानून लागू होगा, म्युनिसिपैलिटी के छकड़े कूड़े कचरे उठा ले जाते होंगे। आपको हम सावधान किए दे रहे हैं कि हमसे सुने बिना आप कोई भी बात यों ही अनुमान से न मान बैठें। हमें अनेक प्रकार की खोज-बीन के बाद अनेक प्रमाण जुटाकर ही लिखना होता है। आपके ऐसे ही भ्रमों के अपनोदन के लिए हमें इतना परिश्रम करना पड़ता है, नहीं तो भला प्रयोजन ही क्या था? फिर एक बात यह भी है कि अंट-शंट लिख मारना हमारे अभ्यास के विपरीत है। अकाट्य प्रमाण जब तक न मिलें तब तक हम कोई बात सुनते ही नहीं। उसी तरह जो बात न्याय शास्त्र के अनुसार संगत न हो, उसे भी सुनने से हमें इंकार है।

जो-जो बातें लिखेंगे, उन सबको न्याय-शास्त्र के अनुसार प्रमाण-पुष्ट कर देंगे, आपको मुँह खोलने तक की ज़रूरत न होगी। देखिए, प्रमाण-प्रयोग के बारे में न्याय-शास्त्र कहता है कि "पर्वतो वह्निमान् धूमात्" अर्थात् पहाड़ से धुआँ कैसे निकलता है? इसलिए कि भीतर आग है। आग न होती तो धुआँ कहाँ से आता? महानदी का पानी बढ़ा आ रहा है। देखते ही आप समझ लेंगे कि ऊपर भारी वर्षा हुई है। कार्य-कारण का ऐसा ही एक नित्य-संबंध होता है। कारण न हो तो कार्य भी नहीं होता। यहाँ पर नदी-वृद्धि का कारण है-वृष्टि ! उसी प्रकार हम अकाट्य युक्ति दिखलाकर यह प्रमाणित करा सकते हैं कि गोबर के साथ गोरू का नित्य संबंध होता है। यह बात तो आप अवश्य ही मान लेंगे कि कारण का अभाव होने से कार्य का अभाव होता है। सुतराम्, ताँती टोले के अंदर गोबर के घूर के अभाव का कारण है गोरू का अभाव, अर्थात् ताँती टोले में गोरू नहीं, फलतः गोबर भी नहीं है। आपके मन में एक और भी बड़ा खटका लगा रह जा सकता है। गोरू कोई बाघ-भालू तो हैं नहीं कि जंगल में रहें? ये तो ग्राम्य पशु हैं, गाँव में रहना ही इनका स्वभाव है। जहाँ पानी वहाँ मछली; उसी तरह जहाँ गाँव वहाँ ग्राम्य पशुः यह तो बँधी बँधाई-सी बात ठहरी! ताँती टोला भी एक गाँव है। फिर, वहाँ ग्राम्य पशु क्यों नहीं हैं? हमें परमेश्वर की सृष्टि में अनेक सर्जन-व्यभिचार देखने को मिल जाते हैं। हो न हो, उनके काम में या तो गफलत होती है, नहीं तो ढीलापन। देखिए क्या पशु, क्या पंछी, क्या कीट, क्या पतंग, सब में नर-मादा तो होते ही हैं, पर सबमें एकाध हिजड़े भी दीख जाते हैं। उसी प्रकार यह ताँती टोला गाँव होते हुए भी ग्राम्य पशुओं से वंचित है। पशु संबंध में यह टोला हिजड़ा है, अर्थात् यहाँ न तो बाप-भालू आदि वन्य पशु हैं और न ही गाय-गोरू आदि ग्राम्य पशु। इसका भी कोई कारण तो हो ही सकता है। कारण के बिना कार्य नहीं होता, यह न्याय-शास्त्र का सूत्र है । व्याकरण के रचयिता जब कोई सूत्र ठीक नहीं कर पाते तो निपातनसिद्ध नामक एक शब्द कहकर काम निकाल लेते हैं। पर यह तो एक तरह की ठगी ही हुई । ऐसी ठगी हमारे हाथों नहीं होने की। खैर, छोड़िए इस बात को । पहले हम-आप यह समझ लें कि ताँती टोले में गोरू हैं क्यों नहीं? इसका क्या कारण है? 'बाइबिल' में लिखा है कि एक सेवक दो मालिक की सेवा नहीं कर सकता। प्रायः ही ऐसा देखा जाता है कि शास्त्रकार मोटामोटी दो बातें कहकर काम निकाल लेते हैं। टीकाकार न होते तो मूल ग्रंथ को समझना नितांत कठिन हो उठता मल्लिनाथ, मथुरानाथ श्रीधर आदि व्याख्या कर नहीं गए होते तो रघुवंश, न्याय, भागवत आदि के जैसे ग्रंथ आज भी बस्तों में बँधे पड़े होते । उसी तरह हम भी अगर बाइबिल की व्याख्या कर नहीं डालें, तो समझना सहज नहीं होगा। बहुत करेंगे आप तो खींचातानी करके कोई एक प्रकार का पाठ लगा लेंगे। लेकिन सभी के लिए सभी बातें तो होने से रहीं । बाइबिल के सूत्र का अर्थ यह है कि एक आदमी एक समय में दो काम नहीं कर सकता। अर्थात् ताँतियों के दिन तो कपड़े बुनने में कट जाते हैं। खेती करने को उनके पास समय ही कहाँ होता है? और खेती ही नहीं करनी तो फिर बैल रखने की क्या जरूरत है? और बैल ही न हों तो गोबर कहाँ से आएगा? गोबर के अभाव से ही खाद के चबच्चों का अभाव भी निकलता है और चूँकि टोले की गलियारी में खाद के खात नहीं हैं, इसलिए गलियारी साफ़-सुथरी है।

आजकल, इस उन्नीस सौवें संवत्सर में, विज्ञान की मर्यादा खूब बढ़ गई है। कारण, यही शास्त्र सभी उन्नतियों का मूल है। देखिए न, अंग्रेज़ कितने गोरे होते हैं और उड़ियों की चमड़ी कैसी काली-कलूटी होती है। इसका कारण यही है कि उन लोगों ने विज्ञान पढ़ा है, और उड़िया ने बिलकुल ही नहीं पढ़ा। फिलहाल हम विज्ञान की चर्चा का आरंभ करते हैं। वर्तमान प्रसंग को हम उसी शास्त्र के अनुसार प्रमाणित कर दे सकते हैं। आप पाठ में मन लगाइए, तभी आप यह बात समझ सकेंगे कि विज्ञान-शास्त्र कितना ठीक है! उक्त शास्त्र का सूत्र यह है कि एक स्थान पर दो वस्तुएँ नहीं रह सकतीं। आप शंका यह उठाएँगे कि आपके दूध के कटोरे में पानी तो रहता ही है! इस शंका के समाधान के लिए उक्त सूत्र की व्याख्या आवश्यक है। अर्थात् एक स्थान पर दो वस्तुएँ एक साथ यानी एक ही समय में नहीं रह सकतीं। कटोरे में दूध भरा हो तो फिर उसमें पानी नहीं रह सकता। कपड़ा बुनने के लिए बाहर और भीतर दोनों जगहें आवश्यक होती हैं। घर के भीतर कपड़े को बुना जाता है। सूत की लँडी को मँड़ियाना धागे तैयार करना आदि काम घर के बाहर होते हैं। सुतराम्, सूत को तिरासन करने की जगह में गोबर के घूर लगाए रखना असंभव है। इतना ही नहीं। जब तक स्त्री और पुरुष दोनों मिलित न हों, तब तक कपड़ा तैयार नहीं हो सकता। सूत को मँड़ियाना, लटाई या चरखी पर चढ़ाना, नड़िया बटना आदि सारे काम ताँतियों के होते हैं। उन्हें राहों-बाटों से गाय-बैल हाँक लाकर बाँधने का समय ही कहाँ मिलता है? इसी तरह और-और भी बहुत सारे कारण हैं। लेकिन बात यह है कि बात को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना हमसे बन नहीं पड़ता। इसीलिए सारी बात हम ज्यों-की-त्यों लिख डालते हैं।

दसवाँ अध्याय
भगिया और सारिया

ताँती टोले के छोर पर भागवत-घर और दधिवामन का मंदिर है। ताँतियों के जातियान रुपये से मंदिर बना है। आप जानते हैं कि यह जातियान रुपया क्या होता है? जरूर जानते होंगे, आपको यह बात समझा देना कोई जरूरी नहीं। हम तो बस और-और नए बाबुओं को समझाने के लिए लिख रहे हैं, क्योंकि उन्हें समझाना जरूरी है। कारण वे विद्वान् हैं। उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें पढ़ी हैं, बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं; अपने दादा-बापू के बाप का नाम पूछिए तो बगलें झाँकने लगेंगे, परंतु इंग्लैंड के चार्ल्स तृतीय के पंद्रहवें पुरखे का नाम उन्हें कण्ठस्थ होगा। अंग्रेज़ी समाज या फ्रांसीसी समाज की बातें पढ़ने से लोग विद्वान् कहेंगे, अपनी जात-बिरादरी या पड़ोसी जात-बिरादरी या समाज की बात जानने की जरूरत ही क्या है? छोड़िए, इसमें क्या धरा है? बाबू लोग यह बात सुनकर रुष्ट हो जाएँगे! हमें भी कहने की क्या पड़ी है? हाँ तो जातियान रुपये का अर्थ यह है कि जात-बिरादरी के अंदर किसी ने भी कोई भला-बुरा कर दिया तो पंच उस पर जुरमाना लगाते हैं और कोई ग़रीब जातभाई अगर जुरमाना अदा नहीं कर पाता तो पंच-परमेश्वर थोड़ा-सा 'मान्य' लेकर उसे जाति में उठा लेते हैं। रुपया जाति के मानजन के पास जमा रहता है। सो उसी रुपये से यह मंदिर बनवाया गया है। यह नियम सभी हटवाल (हाटों में सौदे बेचने वाली) जातियों में चलता है। पर हाय, यह सुंदर प्रथा दिन-पर-दिन लुप्त होती जा रही है। आजकल तो अदालत के आगे मेले लगते हैं। लोग ज्ञानी अर्थात् सभ्य हो गए हैं, अब पंच-शासन कौन मानता है? अंग्रेजी कानून कहता है कि 'देख बाबा सावधान, तुमने अगर कोई अपराध किया और हमें उसका कोई क़ानूनी सबूत, कोई संगत प्रमाण मिल गया तो हम तुम्हें दंड जरूर देंगे।' चालाक लोगों ने कहा, 'जी आपको सबूत न मिले, इसका उपाय हमें खूब मालूम है।' और वकीलों ने उनकी पीठ ठोंककर कहा, 'कुछ परवाह नहीं, रुपये लाओ हम स्याह को सफ़ेद और सफ़ेद को स्याह कर देंगे।' इसका फल यह हुआ है कि अनेक चतुर और धनी लोग सौ-सौ अपराध करके भी देह झाड़कर चल देते हैं । मुसीबत में पड़ना पड़ता है बेचारे निरीह निर्धन लोगों को । और मुक़द्दमे में रुपये बाँटते-बाँटते मुद्दई-मुद्दालेह दोनों पक्ष कंगाल हुए जाते हैं। उसी रुपये को बारह प्रेत बाँट खाते हैं। पहले यह था कि पंच की आँखों में धूल झोंकने का कोई उपाय न था । इतना ही नहीं, प्रकृत अपराधी से जो जुरमाना वसूल होता था, वह सत्कार्यों में लगा करता था।

बुद्धिहीनता के साथ ताँती जाति का किसी तरह का कोई संबंध होने की बात सभी कहते हैं। किसी की भी बुद्धि में कोई खोट दिखने पर लोग कहते हैं कि "अरे तू ताँती है क्या रे?" अर्थात् तू ताँती की तरह बुद्ध है। आपने अगर सभ्यता सीख ली होगी तो ताँतियों के दधिवामन मंदिर बनाने की बात सुनकर आप भी उस प्रवाद को अकाट्य सत्य मानकर विश्वास कर लेंगे। आप कहेंगे कि सार्वजनिक रुपये का वह अपव्यय किस लिए? कलट्टर साहेब के नाम पर वजीफे बाँधो, नहीं तो लाट साहेब के नाम पर अस्पताल खोलो, यह मंदिर क्या?

आपका मन रखने वाली बात कहना तो हमारा काम ही है। पर आपकी यह बात हमें ज़रा कैसी तो लग रही है। आपको कहा न जाए सो तो ठीक है, पर आप क्या जानते हैं कि 'ताँती-बुद्धि' पद का अर्थ क्या है? यह एक योगरूढ़ पद है। जैसे पंकज माने कमल। लेकिन पाँक से जन्मे और पदार्थ भी तो हैं? जैसे घोंघे, सितुए, सिंवार आदि? वे सब-के-सब क्या पंकज ही हैं? नहीं ऐसी बात नहीं। उसी तरह ताँती के माने बुद्ध हों तो हों, बुद्ध के माने ताँती नहीं होते। अभी उस दिन मैनचेस्टर के ताँतियों ने पार्लमेंट को कँपा डाला था। यह बात आपको मालूम नहीं क्या? आप जो बाबू बने फिरते हैं, सो किसके प्रसाद से? ताँती-प्रसादात् ही तो इस प्रकार ताँती की बुद्धि के प्रति दोषारोप करना एक प्रकार की बेईमानी है। हिसाब लेके बैठें तो हमारे पुरखे सब-के-सब ताँती ही थे इसके प्रमाण संग्रह के लिए प्रत्नतत्त्वविद्या के अनुशीलन की कोई आवश्यकता नहीं। गाँव-गाँव की ठकुरबाड़ी इसकी प्रत्यक्ष साक्षिणी है। किसी भी विषय के दोनों पक्ष देखे बिना झट किसी निर्णय पर उपनीत हो जाना ही ताँतीपने की निशानी है। हमारा विश्वास तो कुछ यही है। अब हम यह देखें कि ठाकुरबाड़ियाँ सचमुच ही ताँतियों की कृति हैं कि नहीं। घोर देहातियों की बात आपको मालूम होगी। वे दिन-भर सुख-दुःख के धंधों में पिले पड़े रहते हैं और साँझ पड़ते ही मुट्ठी-भर कुछ खाकर सो पड़ते हैं। गाँव में न तो धर्म-प्रचारक होते हैं, न कोई पुस्तकालय होता है, फिर धर्म-कथा वे कहाँ सुनें? ठकुरबाड़ी में साँझ-सकारे शंखनाद होता है, घंटा-घड़ियाल बजते हैं। उनकी गूँज आबालवृद्ध नर-नारी को यह बात जता देती है कि इस जगत् के कोई प्रभु भी हैं। ठकुरबाड़ी में भागवत की गद्दी होती है। राधाष्टमी, कृष्णाष्टमी, कार्तिक मास आदि पर्व-दिनों पर मंदिर में भागवत का पाठ होता है। लोग जाकर सुनते हैं। ठाकुरबाड़ियाँ न होती तो प्रभुनाम या धर्मग्रंथ सुनने का कोई और उपाय न था। गाँव में कोई परदेसी आ गया अथवा गाँव के ही किसी घर में किसी दिन किसी सुविधा-असुविधा के कारण भात नहीं पका, तो पुजारी के पास जाकर जोड़ा पैसा (टका) रख आए और भरपेट प्रसाद पा लिया। पंचायत अर्थात् गाँव वालों के दोषादोष का न्याय-विचार ठकुरबाड़ी में ही होना ठहरा। अगर हम संक्षेप में अंग्रेजी तरजुमा कर डालें तो आप सहज ही समझ लेंगे। देखिए, ठकुरबाड़ी से गाँव के चर्च (भजनालय), पब्लिक लाइब्रेरी (सार्वजनिक पुस्तकालय), होटल (भोजनालय) और टाउन हॉल (भागवत-घर) के ये चार काम चलते हैं। लेकिन छोड़िए इस बात को, हमें तो अभी और-और बहुत सारी बातें लिखनी होंगी।

और-और हटवाल जातियों की तरह ताँतियों का भी एक 'मानजन' (मूल 'परामाणिक') होता है। वही जाति का प्रधान होता है। जब तक 'मानजन' को न पकड़िए तब तक जातियानी का कोई काम नहीं चलता। ब्याह-सगाई हो, गौना-'पुआणी' हो, तो 'मानजन' ही जाति में सुपारी देता है। उसके लिए उसे एक जने का कपड़ा और एक सुपारी 'मान्य' मिलता है। 'मानजन' के पास जातभाई की हार-गुहार होने पर वही सुपारी बाँटकर पंचायत बुलाता है। सभा में फूल-चंदन पहले 'मानजन' को ही दिया जाता है। जात-भात में 'मानजन' जब तक 'कृष्ण' न करे, तब तक सभी हाथ बारे रहते हैं, कोई कौर नहीं उठा सकता 'मानजन' का यह पद मौरूसी होता है अर्थात् 'मानजन' का बेटा अथवा उसी के वंश का कोई व्यक्ति ही 'मानजन' होगा। कोई ऐरा-गैरा आदमी 'मानजन' नहीं हो सकता। मौजूदा 'मानजन' का नाम है भगिया चंद बेचारा भगिया बड़ा ही सीधा-सादा आदमी है। छल-कपट उसके मन को छू तक नहीं गया । उसे "साग कहो तो भी हो, मूंग कहो तो भी हाँ'' (हिन्दी : 'आम भी हाँ, इमली भी हाँ। -अनु.) । न कहना तो वह जानता ही नहीं। गाँव वाले भगिया को बुधुआ ताँती कहकर पुकारते हैं। आपको इस बार कहने का सीधा रस्ता मिल गया। हम तो इशारे से ही सारी बातें समझ ले सकते हैं। आपकी मुखमुद्रा से ही सारी बातें मालूम हो गई। आप कह रहे हैं या कहेंगे या कहना चाह रहे हैं या चाहेंगे कि-ये लोग निपट ताँती नहीं तो और क्या हैं? 'मानजन' का बेटा है, इसीलिए बुधुआ को सरदारी देनी पड़ गई और अब सभी ताँती उसी को पूजते-गुहारते हैं। अरे बाबू, जब किसी को सरदार बनाना दरकार हुआ तो पार्लमेंट के मेम्बर या युनाइटेड स्टेट्स के प्रेसिडेंट के चुनाव की तरह पाँच पंचों के वोट लेकर किसी सयाने से आदमी को 'मानजन' बना लेते! यह क्या कि 'मानजन' का बेटा होने से ही किसी अयोग्य आदमी को 'मानजन' बना बैठे? बात निश्चय ही पते की है। मन भा गई, सच। हक़ बात हो तो चूं-चरा की कोई गुंजाइश ही कहाँ होती है? हम बराबर ताँतियों का ही पक्ष लिए फिरते थे, पर अब उसकी कोई राह न रही। हम प्रतिज्ञा कर रहे हैं या करेंगे कि ताँतियों की बात में अब और कभी नहीं पड़ना ! फिर भी ताँतियों को पहचान रखना ही उचित है। हे पाठक पाठ-पढ़ावक, हमारा ज्ञान स्वल्प है। सुतराम् ताँती पहचानने में नितांत अक्षम हैं हम । अनुग्रह करके हमें ताँती पहचनवा दीजिए।

हिन्दू होगा सो वेद-वेदांत आदि हिन्दू-शास्त्र अवश्य मानेगा। शास्त्र में कहा कि-

"शमो दमस्तपश्शीचम् संतोषक्षान्तिरार्जवम,

मद्भक्तिश्च दया सत्यंब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः !"

ये ही सारे ब्रह्मत्व के लक्षण हैं। इन लक्षणों से युक्त ब्राह्मण ही पूजनीय हैं, 'वरणीय हैं, भक्ति के योग्य हैं। ऐसे ब्राह्मणों की चरण-धूलि मस्तक पर धारण करने को हम सौ बार तैयार हैं। परंतु

सुनहु परीक्षित वचन हमारा

झींगा सुखुआ भात अहारा

काला अक्षर भैंस बराबर

टीका और जनेऊ सुंदर

खेत निराने में अगुआना

दहि-चिवड़ा पर बाघ समाना

संध्या गायत्री से हीना

खेत-खेत में चाँपै मीना

पोथी की न उघारै डोरी

यजमानी चावल की चोरी

सभा बीच मुँह लागै टाटी

नाम मगर सुंदर तिरपाठी

सो, ऐसे सुंदर तिहाड़ी (त्रिपाठी) की पाँयलागी (पैर छूकर प्रणाम क्रिया) होती है। कारण, वह ब्राह्मण के औरस पूत हैं। वही सुंदर तिहाड़ी आपके कुल-पुरोहित हैं। कारण, उनके बाप पुरोहित थे। आपको तो बोलने का साहस नहीं होता, पर हमने पाँजी में नाम लिख रखा ।

फिर शास्त्र में लिखा है कि -

"अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।"

जो अज्ञान रूपी नेत्ररोग (तिमिर=अंधकार पर लेखक ने 'नेत्ररोग' अर्थ किया है। शायद यों कि 'तिमिरांध' को 'रतौंधी का रोगी माना हो। -अनु.) से अंधे व्यक्ति के चक्षुओं को ज्ञानरूपी अंजनशलाका से उन्मीलित करते हैं, उन श्रीगुरुजी को नमस्कार करो!

सच कहिएगा, गुरु ऐसों को किया है या कि कोई गुरुपुत्र आपके गुरु हैं? छोड़िए, इन बातों को कहने से क्या होगा? हाँ, इतना हुआ कि ताँती पहचान में आ गए ! कानी री कानी, अपने ढेढर तो निहार! खोजने निकलिये तो मोटामोटी तौर पर ऐसे 'कुहरा-बुहारू' (कुहासे को बुहारने वाले अर्थात् आकाश कुसुम के साधक अनु.) ढेर सारे मिल जाएँगे। धनकुटनी के भागवत पढ़ने की तरह हम भी गाँव की बात लिखते-लिखते आप-जैसों की बातें सुनने बैठ गए। मगर एक बात है। जानते हैं, क्या है वह जब कोई विषय उठ खड़ा होता है, तो दो बात फेंक मारने से कोई नहीं चूकता, भले ही ये बातें खाई खड़ में पड़े कि दूह-डूंगर पर पड़ें। संकीर्तन में बाग-बीम भी 'आँ-आँ' कर लेता है।

सो सब बातें अब रहने दीजिए। आइए, गाँव की बात सुनिए। हँड़िया के माप की पतुकी! भगिया जैसा बुधुआ है, उसकी भार्या भी वैसी ही रामप्यारी है ! नाम सारिया है। उमर लगभग पच्चीस की होगी। सारिया के गुण तो सुन लिए, रूप की बात भी सुनेंगे? देखिए, परमुखापेक्षी होना बड़ी बुरी बात है। उमा-रमा से पटतरी नहीं जाने की! अपने बुद्धिबल से, अनुमान से भी कुछ-कुछ समझने की चेष्टा कीजिए। केवल हमारे हाथों को तकते मत रहिए। अनुमान से कैसे समझना होता है इसका मूल सूत्र यदि आप सुन लेंगे तो आपकी राह आप-ही-आप खुल जाएगी। जैसे ही सुनिए कि युवती राजकुमारी-वैसे ही तत्क्षण यह मान लीजिए कि वह कन्या परम सुंदरी, परम गुणवती होगी। "उपमिव रमा-उमा सँग ताही । अवरु न कोउ पटतरु जग माँही।" भले ही गाल उसके छुहारे जैसे हों और नाक उल्लू जैसी । इन बातों को नहीं गिनते। जैसे ही सुनिए कि फलाँ जमींदार के पास ढेर सारे रुपये हैं, वैसे ही समझ लीजिए कि वह रूपवान, गुणवान, दाता, दयालु इत्यादि-इत्यादि है। अच्छा, अब हमारे गाँव की ताँतिन सीरिया की सारी कथा समझ लीजिए। भगिवा चंद्र और सारिया, घर में ये दो ही प्राणी हैं। औरतें कहा करती हैं, "दो प्राणी ही भले, बाँध ली गुदड़ी, बते!" हमारे बुधुआ-बुधुआनी की बात भी कुछ-कुछ वैसी ही है। कोई गोल-माल, कोई लज्झड़-पज्झड़ नहीं है। पल-भर को भी दोनों के बीच कभी कोई छेड़-छाड़ नहीं होती कोई झगड़ा-टंटा नहीं होता। दोनों मिल-जुलकर घर-गिरस्ती संभालते हैं। उधर भगिया ताँती बुनता होता है तो इधर सारिया नड़िया बटती होती है, सूत मँड़ियाती होती है, चरखी में धागे लपेटली होती है। सारिया जब भात पकाने बैठती है तो भगिया चूल्हा फँकता रहता है, पानी भर के ला देता है। गाँव के मसखरे और निंदक इन्हें देखकर तुक जोड़ते हैं, "भगिया पगला सारिया पगली, बगले को मिली कैसी बगली!" वाह! क्या ही अपूर्व कविता है यह भी ! लेकिन हम तो यह कहते हैं कि जिनके नाम पर ऐसी निंदा फैलती है, केवल वे ही इस जगत् में सच्चे भाग्यवान हैं। केवल वही अपने प्राणों में स्वर्ग के काल्पनिक सुख का अनुभव करते हैं। किसी अंग्रेज कवि ने कहा है कि जो लोग विशुद्ध दांपत्य प्रेम का अनुभव करते हैं, वे दिव्य जीव हैं। ऐसे प्रेम में जिसका कलंक होता है, वह नरक की यंत्रणा भोगता है।

ओ-ह ! हम तो एक भारी उत्कट भूल कर बैठे हैं । "मुनीनां च मतिभ्रमः!" मुनि लोग लिखते-पढ़ते समय बड़ी-बड़ी भूलें कर डालते हैं। अर्थात् लिखने में जो लोग भूलें करते हैं, वे ही मुनि होते हैं। सुतराम्, इस बात में अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं कि आज से लोग हमें मुनि या ऋषि कहा करेंगे। ओहो ! अहो भाग्य! बारहों मास साहेब के दरवाजे पर नेवले की तरह लुङ्-लुङ् करते पीछे-पीछे फिरना नहीं पड़ेगा कर्ज उधार करके हजारों हजार रुपये लगाकर दवाखाना नहीं खोलना पड़ेगा । अथवा सीधी बता बख्श्वाने को फ्रांसीसियों के हाथ-पैर नहीं धरने होंगे। फोकट में कितना नाम पा गए ! बात यह है कि सत्य की मर्यादा की रक्षा के लिए स्वार्थ का त्याग करने में हम कभी भी कातर नहीं साबित होने के । ''न मिथ्यापातकम् परम्!" अर्थात् मिथ्या और पातक परायों के पास नहीं जाते, अपने ही पास रहते हैं। इसीलिए हमें सच्ची बात लिखनी पड़ रही है। भगिया-सारिया दो ही प्राणी नहीं हैं। एक गाय भी है। नाम उसका नेत है। उसको मिलाके घर में तीन प्राणी हैं। गाय को भी हमने मनुष्य की गिनती में ले लिया, सो यों ही नहीं । इसमें एक बात है। नेत को सारिया अपनी बेटी की तरह पालती है, बेटी ही की तरह उसे लाड़ती-दुलारती है। परमेश्वर ने मानव-मन, के अंदर एक आश्चर्यजनक अपत्य स्नेह दिया है। जिस तरह भूख लगने पर भात न मिले तो आदमी डाल-पात तक चबाने लगता है, उसी तरह जिसके बाल-बच्चे नहीं होते, वह कुत्ते के कुतरू, गाय के बछरू या बिल्ली के बच्चे को पालकर उसी को प्यार करने लगता है। सारिया दिन-रात नेत के संग लगी रहती है। पथा खुला होने पर भी नेत कहीं जाती नहीं, सारिया के पास-पास ही रहती है। जरा उधर गली में गई नहीं कि सारिया पुकारती है : "नेतरी !" नेत जवाब में कहती है: "हँ-आँ माँ !" और दौड़ी आकर सारिया को चाटने लगती है। सारिया जब उसकी देह पर हाथ फेरती है तो वह बहुत अदराती है, लाड़ लड़ाती है, सुख-दुःख की बहुत-बहुत बात बतराती है। भात के भगोने में नेत मुँह डुबो दे तो सारिया उसे नन्ही-सी प्यार-चपत मारकर गलियाती है : 'पेटू कहीं की! चटोर कहीं की!' हम तो यही जानते हैं कि ऐसी मधुर गालियों में ही सारिया का आनंद और प्रेम पूर्ण होता है। भगिया, सारिया और नेत, तीनों प्राणी एक ही कमरे में सोते हैं। सारिया नेत के पीछे की ओर धान की भूसी और कंड़ से थोड़ी धुआँस कर देती है। नेत है बड़ी सुलक्षणा हाल में ही पहले-पहल पछाँत ओसर लगी है। नेत सर्वाग से काली है। माथे पर उजला चाँद है "काली गैया माथे चाँद, जल्दी लाकर श्रीधर बाँध !" सींग पतले, छोटे और नंदी के से अंकुरिया बाँके हैं। पूँछ सीधी और खूब लंबी है। पूँछ के छोर पर चँवर के से बालों का गुच्छा धरती पर लोटता रहता है। पीठ हल्की सी धँसी हुई है। ढौंचे (कुटनी से बँधी मुट्ठी तक की दूरी ।) भर से कुछ कम ही चौड़ी होगी। चूतड़ चौड़े-चौड़े हैं। डिल्ला (ककुद) छोटे से भतुए-सा पीठ की ओर थोड़ा-सा झुक पड़ा है। धाड़ (गले से लटकती चमड़ी।) और गायों से कुछ अधिक झूलती हुई है । थन की बात ही मत पूछिए, दुधनाड़ी ही पटेरी के रस्से जितनी मोटी है। "पयोधरीभूतचतुस्समुद्राः!" नेत कळिंगा (दाक्षिणात्य से लाई गई ऊँची गायों की एक जाति । -अनु.) गाव की तरह कोई खास ऊँची नहीं, मझोले क़द की है। डाक ऋषि का वचन है कि:

"पेट भर ऊँची गाय। बोरी भर कन खाय ।

घास देख ले बाय। दूध उसी से पाय ।"

कहावत है कि दूध तो गाय के मुँह में होता है । तो क्या आप झबही-मटकी लेके गाय का थूथन दुहने बैठेंगे? बात वैसी नहीं है। गाय कागज़ कल की तरह होती है। कल के मुँह में लीरे-चिथड़े, उधड़ी-पुघड़ी रस्सी, बासी-पंसी घास, सड़ी-गली रुई आदि पूर दीजिए तो पिछले भाग से साफ़ सुथरा, उजला धपाधप सुंदर चिकना कागज निकल आता है। उसी तरह गाय के मुँह में कन-कोराई, खुद्दी-चुन्नी, माँड-धोवन, घास-पात आदि भर दीजिए तो थन की राह दूध आप ही वह चलेगा। नेत के दूध के परिमाण का हमें कोई अता-पता नहीं उस दिन मंगराज के दरबार में नेत की बात चली थी। सभी ने अनुमान लगाया कि दोनों बेर मिलाकर दूध पाँच सेर से कम नहीं पड़ता होगा। मंगराज ने लंबी उसाँस लेकर कहा, "एँ? ताँती बापुरे की ऐसी गाय !"

लोग कहते हैं "पिता गुणे पूता !" पर सच बात इतनी ही है कि "वंशनाश के समय घोड़मुँह पूत जन्मते हैं!" भगिया के बाप गोविंदचंद्र गाँव के लाड़ले लोग थे, माननीय थे। अपने गाँव के सिवा आस-पास के दो-चार गाँवों में भी पंचायत बैठने पर गोविंदचंद्र की बुलाहट होती थी। बड़े-बड़े संगीन मामलों की पेशी होने पर गोविंदचंद्र की खोज की जाती थी। अर्थात् चपरासी के समन लाने पर या डाकिए के बैरंग डाक लाने पर जब तक गोविंद न पहुँचें तब तक लोग घरों से निकलते तक नहीं थे । गोविंद आप बुनकरी नहीं करते थे, ताँतियों के बुने कपड़े लेकर हाटों में बेचते थे अथवा ऊपरी महाजन के आने पर उसे माल पटा दिया करते थे। इस तरह खास दस-पाँच पैसे उनके हाथ चढ़े रहते थे। अनुमान -विद्या से लोगों ने तो यहाँ तक गिन डाला था कि गोविंद के हाथों में हजारों हजार रुपये रहा करते हैं। लोग अपनी आयु और पराए धन को अधिक मानते ही हैं । जो हो, इतना तो सच है ही कि गोविंद ने दस टके अरज लिए थे। जमींदार बाघसिंह के वंश के पतन के समय ज़मीन टुकड़े-टुकड़े होके बिक गई थी। गोविंदपुर गाँव के नीचे छै 'माण' आठ 'गुंठ' का एक चक्र था। जमीन बहाव के निचले छोर पर गहरी कटोरिया थी । और थी लाखराज यानी निष्कर। गोविंद ने उसे खरीद लिया था। "गिरं गाँव-धोबन के सोते। वही खेत जेठरेयत जोते।" अर्थात गाँव का 'पधान' ('प्रधान' (उड़िया शब्द) = पटेल, जेठरयत, गाँव का राजस्व वसूल करने वाला।) गाँव की सर्वश्रेष्ठ जमीन में खेती करता है। उस चक में गाँव के धोवन का पानी गिरता है। फलतः खेत बहुत उपजाऊ है। पानी प्रचुर होने से उसमें 'रावणा' धान होता है।

"खेत जो मिले 'सियान'

'वोये 'रावणा' धान,

फूटे हाथ-हाथ भर बालें,

राही देख-देख ललचा लें,

झूम फ़सल नाचे परियों सी,

डाहों जल-जल मरें पड़ोसी !

न दाही (अतिवृष्टि) का डर, न सूख (अनावृष्टि) का भय, 'माण' पीछे आठ 'माण' धान तो पहले ही तुलवा लो! भगिया ताँती ठहरा, खेती क्या करेगा? बटाई पर उठाकर 'माण' पीछे पाँच "भरण' पचास 'गउणी' धान पाता है। भगिया बुद्ध है तो क्या हुआ, सद्गुण भी उसमें अनेक हैं। श्राद्ध, मंगला, नवान्न आदि के अवसरों पर जातभाइयों का मुँह धुलवाता है, भाट-भिखारी उसके द्वारे से कभी नहीं फिरते । "बागड़-मौन का दुश्मन कौन ?" हमारे बुधुआ-बुधुआनी को बात करना तक नहीं आता। गाँव में झगड़ा-टंटा होता है तो वे भीतर से किवाड़ लगाकर बेंवड़े चढ़ा देते हैं। गाँव के सभी लोग उन्हें प्यार करते हैं। अभाव ही सभी दुःखों का मूल होता है। धन, विद्या, ख्याति, स्वास्थ्य आदि किसी भी वांछनीय, लाभनीय या आवश्यक पदार्थ का अभाव होने पर आदमी कष्ट का अनुभव करता है। हमारे ताँती दंपति को किसी भी पदार्थ का अभाव न था। पवित्र दांपत्य-स्नेह-विशुद्ध प्रेम, अखंड संतोष, निरवच्छिन्न स्वास्थ्य, सरल धर्मभाव प्रभृति स्वर्गीय भावमान यदि आप एक ही स्थान में समाविष्ट देखना चाहें तो हम इसी ग्रामीण ताँती परिवार का उल्लेख कर सकते हैं। जन्म-काल से ही देख-सुनकर और पढ़-गुनकर हमने यही समझा है कि विधाता ने अखण्ड सुख मनुष्य के ललाट में लिखा ही नहीं है। तो क्या वह ताँती परिवार इस निसर्ग-नियम के बाहर है। महाकवि कालिदास ने लिखा है: "प्रायेण सामग्र्यविधी गुणानाम्पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्ति !" तो इस महावचन की मर्यादा का उल्लंघन भला कैसे करेंगे?

तो क्या हम यह मान लें कि ये लोग पूर्णसुखी नहीं हैं? कौन कहे और कोई कहे भी तो कैसे कहे? शालिग्राम का जैसा बैठना तैसा सोना। मनुष्य के हृदय के भाव हास्य-रुदन के स्रोत पकड़कर बाहर निकल-निकल पड़ते हैं। पर ये हैं कि किसी ने न तो इनका हँसना देखा और न ही कभी किसी ने इन्हें रोते सुना। बातों-बातों में इनके भाव पकड़ में आ सकते थे, पर ये तो किसी के साथ बातें भी नहीं करते। लेकिन हमसे किसी की बात छिप नहीं सकती। छिपने की कोई सूरत भी तो हो! तीरंदाज़ पैरों के निशान देखते-देखते जानवर तक पहुँच लेते हैं। उसी तरह हम भी लोगों के कामों के पीछे लगे-लगे फिरकर उनके मत के भावों को पकड़ लेते हैं। उस रात रुकुणी की माँ की बहू की छठी पर सारिया भी गई थी। बच्चे को निहारकर चली आई, औरों की तरह 'चकुली' (एक पकवान) बँटने तक रुकी नहीं रही। घर लौटी तो पेट में चिल्ला-मरोड़ बताकर उदास-उदास हुई उपासी-पियासी ही सो रही। हमें यह भी पता है कि बड़ी रात गए तक भी उसे नींद नहीं आई, कभी इस करवट तो कभी उस करवट छटपट करती रही। भगिया ने एक बार कहा, "दैव ने दिया ही नहीं तो दुःख करके क्या होगा? दैव ने क्या नहीं दिया सो तो कुछ कहा ही नहीं उसने। आपने कुछ समझा ? आजकल बारहों बरत रखने में सारिया का मन बहुत लगने लगा है। बूढ़ी मंगला के प्रति भक्ति भी दिनों-दिन अधिकाधिक उमड़ी पड़ रही है। डॉक्टर और वकील के द्वारे किसी को देखिए तो समझ लीजिए कि बेचारे पर कोई आपद्-विपद् आन पड़ी है। पर हमारी बूढ़ी मंगला ऐसी हैं, जिनसे डॉक्टर और वकील दोनों के ही काम निकाल लिए जा सकते हैं। गाँव में किसी को भी कोई दुःख पीड़ा हुई या किसी पर भी कोई मामला-मुकद्दमा हुआ तो मंगला को कुछ-न-कुछ लाभ हो जाता है। मंगला के प्रति सारिया की भक्ति देखकर ही हम समझ रहे हैं कि उसके मन में कोई दुःख पैदा हो चुका है। जिस समय सारिया ओसारे में बैठी लटाई घुमा रही होती है, उस समय सामने गली में अगर कोई नन्हा बच्चा आके खेलने लगे और सारिया की नज़र उस पर पड़ जाए तो लटाई का घूमना बंद हो जाता है। मावस-पूनों के दिन घर में कोई ठकुआ- पकवान हो या थोड़ा-घना छेना पनीर हो तो सारिया उसाँस भरते लगती है। जब तक भगिया सहि दे-देकर खिलाता नहीं, तब तक वह खाने का नाम ही नहीं लेती। अभी उस दिन किसी ने फ़रमाइश करके भगिया से लाल 'कस्ते' का जोड़ा 'बनवाया। जोड़ा' बुनकर तैयार हो जाने के बाद उसे ओलती तक ले जाकर तहियाते समय सीरिया की आँखों में आँसू छलछला आए। भगिया ने वे छलकती आँखें देखीं तो लंबी उसाँस भर के रह गया।

ग्यारहवाँ अध्याय
गोवरा जेना

ताँती होने से चार-पांच सौ कदम हटकर बोच पाँतर में डोम टोला है। यह कोई अलग मौजा नहीं है। यह भी गोविंदपुर में ही शामिल है। गोवरा जेना अपने मौजे भर का चौकीदार है। उसके पास डेढ़ 'माण' चौकीदारी जागीर है। इसके अलावा धान को कटनी के समय घर-पीछे एक-एक बोझा धान उसे अलग से भी मिल जाता है। जेना मजकूर (उल्लिखित जेना) अपने काम में बहुत ही होशियार है। उसके कारण गाँव में चोरी-चपाटी नहीं हो पाती। यह जरूर है कि साल में चार-पांच सेंधे गाँव में लग जाती हैं, पर इसमें जेना मजकूर का कोई दोष नहीं कारण, उन चोरियों वाली रातों में जेना-पूत जातियान कामों से चार-पाँच कोस दूर के किसी गाँव में गया होता है। चौकीदार सारी रात गाँव में पहरा देता है। हाँ, यह जरूर है कि पहरा यह इतनी होशियारी के साथ देता है कि कभी किसी को उसकी ख़बर तक नहीं पड़ती चिल्लाकर पहरा देने से शोर सुनकर चोर भाग जो जाएँगे? पुरानी पुलिस बड़ी घूसखोर थी। ऐसा ही एक प्रवाद है। अब यह प्रवाद सच है कि झूठ, सो जगन्नाथ ही जानें। लोगों के मुँह पर हाथ कौन रखे ! बाघ आदमी को खा जाते हैं, तो क्या सभी बाघ आदमखोर थोड़े ही होते हैं? दुनिया में साधु सच्चरित्र बाघ क्या हैं ही नहीं हमारा जेना-पूत भी वैसा ही एक साधु-सच्चरित्र आदमी है। वह तो अपना 'हक' भर लेता है। 'हक़' पावने दो-चार ही हैं : साल की बँधी-बँधाई पौनी अर्थात् फसल के समय धान के बोझे, ब्याह-गौने आदि पर एक "मूर्ति" के पाँचों कपड़े और फिर दूल्हों से चौकीदारी रस्म की सलामी का एक-एक रुपया, मरण-हरण में भत्ते की बाबत कुछ ख़र्चा, छान-छप्पर से लौकियाँ-कुम्हड़े आदि-आदि। इनके अलावा किसी से और कोई पूस-रिश्वत वह छूता तक नहीं रही बात चोरी, साँप काटने, डूब मरने आदि के मामलों में पुलिस को इत्तला करने के खर्चे घूस के एक रुपये की, तो वह तो कानून में ही है, उससे चौकीदार का क्या संबंध? बल्कि इन मामलों में गोवर्द्धन तो दया ही दिखलाता है। बड़ा दयालु आदमी है। किसी ग़रीब के ऊपर ऐसे मामले आ पड़ते हैं तो वह रुपये के लिए हठ नहीं करता, काँसे का एक लौटा लेकर ही उसका काम चला देता है। महीने में एक बार पुलिस में रपट लिखाने जाते समय वह गाँव से केले के घौद, लौकियाँ, कुम्हड़े आदि के ढेर मुंशी, जमादार, बरकंदाज आदि के लिए ले जाता है। यह तो साधारण बात है। काम के झमेलों में जेना-बेटा ऐसा फँसा रहता है कि रात को अपने घर पर भात खाकर निकल नहीं पाता। रात का भोजन वह बारी-बारी से गाँव वालों के घर ही किया करता है। जिस दिन जिसकी बारी होती है, उस दिन उसे बेर अछूते ही कह छोड़ता है कि मुट्ठी-भर भात मेरे लिए भी पकवाना। किसी सुविधा-असुविधा के कारण भात अगर नहीं पक सका तो उस रात जेना-बेटा उस घर के पहरे में ढील कर देता है। चोरों को तत्क्षण ही इसका पता चल जाता है और उस रात उसकी छान या बाड़ी से फल-फलहरी, केले आदि अथवा उसके खेत में धान की चोरी होके ही रहती है। और कुछ नहीं मिलता चोरों को, तो ये उस गृहस्थ के बाहरी ओसारे का खंभा ही तोड़ जाते हैं। गाँव में भात खा चुकने के बाद गोवर्द्धन गाँव से लेकर अपने घर तक "गाँव के लोगों होशियार, ओ घर वाले ख़बरदार" की पुकार लगा डालता है। जाग रहे बच्चे इस पुकार को 'सुनकर चुपचाप सो जाते हैं। उसके बाद चौकीदार सारी रात गाँव में पहरा देता है, पर यह बात कोई जान नहीं पाता। गोबरा जेना को कोई मामूली पाणॅ भर ही मत समझ लीजिए। हजार-पाँच सौ गिन देने वाला आदमी है। धान भी घर में पाँच-सात 'माण' सदा सँजोए रहता है। कोई कितना भी होशियार क्यों न हो, आपद्-विपद् कभी-न-कभी सभी पर पड़ती है। एक बार उसके ऊपर भी चोरी का एक मामला दुलक आया था। सुनते हैं मुंशी को ढाई सौ रुपये चटाकर ही उसे छुटकारा मिल सका। उस मामले का हाल यह है कि माखनपुर मौज़े के भुवनी साह तेली महाजन के घर जो डकैती हुई थी उसमें आठ डाकू पकड़े गए थे। असामियों में एक दुकौड़िया पाणॅ भी था, जिसने यह बात खोल डाली थी कि डकैती गोबरा जेना की सलाह से हुई थी, कि और भी दस-पंद्रह चोरियाँ गोबरा जेना की सलाह से हो चुकी थीं, कि चोरी के सारे माल उसी के ज़रिए बेचे जाते थे, इत्यादि-इत्यादि दूसरे मुलजिमों के इस बात से साफ़ इनकार कर देने के कारण ही गोबरा जेना के ऊपर कोई आँच नहीं आ सकी थी।

गोबरा जेना की योग्यता से मंगराज उस पर बहुत खुश हैं। वह भी साँझ-सकारे मंगराज की कचहरी में आकर हाजिरी बजा जाया करता है। लोगों ने आधी-आधी रात को गोबरा और मंगराज को निराले में बैठे देखा है। ताल्लुके फतेहपुर सरखंड में अनेक पाणॅ-परिवार बसे हैं। लोगों का संदेह है कि वे चोरी, डकैती, राहजनी आदि का धंधा करते हैं। इस संदेह का कारण यही है कि पुलिस और जेल से इनका संबंध घनिष्ठ है। गोवर्द्धन के गुणों में एक और महान गुण है। किसी भी पाणॅ के जेल चले जाने पर उसके असहाय बाल-बच्चों को वही पालता-पोसता है, उन्हें मंगराज की बुखर से दान दिला-दिला दिया करता है। हाँ, निंदकों की निंदा से कहीं भी छुटकारा नहीं; लोग गोवर्द्धन के इस सद्गुण का कुछ और ही अर्थ लगाते हैं। उसके संग-संग मंगराज की दानशीलता का उल्लेख करना भी बड़ी बुरी बात है।

बारहवाँ अध्याय
असुर दिग्घी

गोविंदपुर मौजे में बस एक ही पोखरा है। गाँव के सभी लोगों का पानी का काम इसी से चलता है। पुष्करिणी बहुत बड़ी है। लंबाई-चौड़ाई दस-बारह नळी (बाँस । धरती मापने का पैमाना, जो विभिन्न अंचलों में अलग-अलग माप का हुआ करता है । -अनु.) से कम नहीं होगी। नाम है असुरदिग्धी पहले इसमें सोलह जाठ थे, देवता के प्रताप से अब सोलहों डूब चुके हैं। चारों ओर के भिंडे 'बगचारी' (तालाब के जिस अंश में पानी रहता है, उसके ऊपर और भिंडे के नीचे की सूखी रहने वाली धरती 'बगचारी' कहलाती है, क्योंकि बगले यहीं से अपने शिकार के लिए घात लगाते हैं। -अनु.) से दस-बारह हाथ ऊँचे हैं। तालाब कब का है, किसने खुदवाया है, आदि सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब में यथार्थ वृत्तांत बता सकने में हम असमर्थ हैं। सुनने में आता है कि तालाब असुरों ने खोदा था। यह कोई असंभव बात नहीं है जो इतनी बड़ी जलकीर्ति करता हो, वह हमारी-आपकी तरह का मनुष्य थोड़े ही रहा होगा? गाँव के पचानवे-वर्षीय बुढ़े एकादशी ताँती के मुख से तालाब के संबंध के इतिहास का जो सार-संग्रह हम कर पाए हैं, उसका संक्षिप्त वृत्तांत यह है: इस पोखरे को वाणासुर ने खुदवाया है। उसने अपने हाथों में फावड़े-कुदाल लेकर नहीं खोदा । उसके हुकुम से असुर लोग आए और रातों-रात तालाव खोदकर चले गए। खोदते-खोदते रात बीत गई थी। दक्खिन वाले कोने में बारह-चौदह हाथ चौड़ा मुहाना-सा एक रही गया, उस पर मिट्टी नहीं डाली जा सकी। गाँव में लोगों की चल-फिर शुरू हो गई थी, असुर अब जाएँ तो कहाँ जाएँ? पोखरे के अंदर से ही बिल खोदकर उसी रास्ते वे गंगा-किनारे पहुँच गए और गंगा-स्नान करने के बाद वहाँ से भाग गए। पहले ऐसा हुआ करता था कि जब-जब गंगा सागर में स्नान का वारुणी-योग पड़ता था, तब-तब असुरदिग्घी का पानी उठ-उठ आता था। गाँव में अनाचार बढ़ जाने के बाद से अब गंगाजल यहाँ नहीं आता। अंग्रेजी-पढुआ बाबुओ, सावधान! हमारे एकादशी चंद्र के इतिहास को सुनकर आप हँसिए मत, नहीं तो मार्शमैन आउटिङ् की रचनाओं का गर्व हवा हो जाएगा।

तालाब में मछलियाँ हैं। आप कहेंगे कि पानी है तो मछलियाँ होंगी ही, यह बात लिखने की जरूरत ही क्या है? पर बात यह है कि आपकी यह बात कोई युक्ति-संगत नहीं हुई। गन्ने के साथ गुड़ का या देह के साथ हड्डी का जैसा नित्य संबंध है, वैसा कोई संबंध पानी और मछली के बीच भी है ही, यह बात नहीं कही जा सकती। अगर ऐसी बात होती, तब तो आपके घर के पानी के मटके से भी मछली निकला करती ! अनुमान की बातें या अयोक्तिक बातें लिखना हमारा अभ्यास नहीं। हम तो इस बात का अकाट्य प्रमाण देने जा रहे हैं कि असुरदिग्घी में मछलियाँ होती हैं। अब यही देखिए न आप कि, दक्खिन वाले किनारे पर पानी को पाँच हाथ नीचे छोड़कर छोटे-बड़े तीन मगर पड़े हैं। बड़े लंबे थूथनों वाले मगर । ये सदा से वहीं निकलके पड़े रहते हैं। अब आप ही कहिए कि ये लोग तालाब में किस लिए हैं? क्या खाकर जीते हैं? उन्हें गाय-गोरुओं की तरह परती में घास चरते कभी किसी ने देखा है? या कि ये जैनियों की तरह अहिंसा को परम धर्म मानते हैं? जाहिर है कि ये तालाब का ही कोई पदार्थ खाकर जीते होंगे। पर वह पदार्थ है क्या? थूथनों वाले मगर का एक और नाम होता है मछुआ-मगर या मगरमच्छ अर्थात् ये लोग मछलियाँ खाते हैं। कोई-कोई इस पर यह कहेंगे कि माना कि ये मछलियाँ खाते हैं, पर कहीं और से लाकर खाते होंगे! हाट में मछली और 'सुखुआ' की बिक्री तो सचमुच होती है, पर बात यह है कि इन्हें पैसे लेके हाट जाते कभी किसी ने नहीं देखा। और-और गाँव की मछुआइनें मछली बेचने आती हैं तो हमारे गाँव की औरतें धान-चावल देकर मछली बदले में ले लिया करती हैं। लेकिन यह बात हम सौगंध खाकर कह सकते हैं कि मगरमच्छों को उस तरह धान-चावल देकर मछली खरीदते कभी नहीं देखा। सुतराम्, यह प्रमाण हुआ कि दिग्घी में मछलियाँ हैं सही। यह नहीं कि यही यथेष्ट प्रमाण हो। और भी कई अकाट्य प्रमाण मौजूद हैं। अब यही देखिए, चार पँकोड़ी (ये चिड़ियाँ कीचड़ से कीड़े चुन-चुनकर खाती हैं ।) चिड़ियाँ नचनिया लौंडों की तरह नाच रही हैं। इतना नाच-कूद इसलिए कि उन्होंने अभी-अभी तोंड़ी या दँड़ही मछली के बच्चे की गरदन दबा डाली होगी। इस पर कोई कहेंगे कि ये पँकोड़ी चिड़ियाँ भी कैसी निठुर हैं, कैसी दुष्ट हैं, कि दूसरों के गले मरोड़कर इतनी आनंदित हो रही हैं। अब भाई, क्या कहें आपसे! बिचारी चिड़ियों को निठुर कह लो, दुष्टा कह लो, शैतान कह लो, जो जी में आए कह लो, आपके नाम मानहानि का दावा थोड़े ही ठोंकने जा रही हैं वे ! लेकिन एक बात जान रखिए कि आपकी मनुष्य जाति में जो अपनी जात-बिरादरी के भाइयों की जितनी गरदनें मरोड़ सकता है, वह उतना ही बहादुर गिना जाता है! वही मान्य, वही गण्य, 'स च दर्शनीयः' होता है! यह बात क्या आप जानते नहीं हैं? चार-पाँच गंडे धौले बगले और चार-पाँच मटमैले बगले छोटी जात के मजूरों की तरह सुबह से शाम तक कीचड़ रौंदते रहते हैं । तालाब में मछलियों के होने का यह तीसरा प्रमाण है। मुरगाबियों का एक जोड़ा किसी दूर देश से उड़ा-उड़ा आया, तालाब में दो-चार डुबकियाँ लगाकर पेट भर लिया और फुर्र से उड़ चला। एक मुरगावी मेम साहेब के गाउन की तरह किनारे बैठी पाँखें सुखी रही है। हे हिन्दूधर्मी बगली ! इन अंग्रेज मुरगाबियों को देखो, न जाने किस दूर देश से रीती जेबें लिए आए और गड़ई-गड़चुन्नी मछलियों से पेट भरकर वापस चले गए। तुम हो कि तालाब के किनारे के बरगद पर बसेरा लिए यहीं जमे हो, दिन-भर पानी रौंदते रहते हो, और फिर भी तुम्हें कोतरा पोंठिया-जैसी नन्ही मछलियों के छोटे-छोटे छौनों के सिवा और कुछ नसीब नहीं होता! जीवन-संग्राम का काल आकर उपस्थित हो गया है, अब तो और भी बहुत सारी मुरगाबी आ-आकर बची-खुची गड़ई-गड़चुन्नियों को भी उठा ले जाएँगी। जब तक तुम विदेश जाकर समुंदर तैरना सीख नहीं लेते, तब तक तुम्हारा निस्तार नहीं।

चील बड़ी सयानी होती है। बड़ी होशियार। गुरु-गोसाँई की तरह चुपचाप डाल पर बैठी रहती है और एक ही झपट्टे में पानी में उतरकर जो कुछ उठा लेती है, उससे उसका पूरा दिन कट जाता है! गोसाँई भी तो साल-भर तक ओटे से नीचे पाँव नहीं धरते। साल में एक बार चेलों के द्वार पर झपाटे के साथ उतर पड़ते हैं।

'बगचारी' से चालीस-पचास हाथ दूर पानी की पूरी सतह कुई और सिंघाड़ों से तुपी हुई है। पत्तों के उसी फर्श के बीच रातों को कुई के फूल हिन्दू घरों की बहुधा पुष्पवती लजीली कुलवधुओं की तरह-चुपचाप खिल-खिल उठते हैं और दिन के समय फिर मुँद-मुँद जाते हैं उन्हीं के बीच जल-सेमर के फूल क्वाँरी बेटियों की तरह बिना किसी लाज-शरम के दिन-रात पवन झकोरों में उछलते-फाँदते रहते हैं। पानी के भीतर रक्त-कुमुद हैं। ये शिक्षिता ईसाई लेडियाँ हैं। कुईं-कुल से निकल चुकने पर भी कमलों की जाति में इनका समावेश नहीं हो पाया है। तालाब के बीच वाले भाग में इनमें से किसी भी जल-पौधे के दल नहीं हैं। वहाँ रातों को बूढ़ी मंगला ठकुरानी टहल लगाती है। इसीलिए ये पौधे उधर फैल नहीं सकते। वहाँ का जल-तल भारत के कवियों के सरबत, लक्ष्मी के निवास, सरस्वती के आसन और ब्रह्मा के जन्म-स्थान अर्थात् कमल-वन से पूर्ण है। फूलों पर सोलहों आने अधिकार ठकुरानी का है। एक आदमी फूल लाने के लिए तैरा जा रहा था। ठकुरानी ने उसके पैर में साँकल लगाकर पानी के भीतर खींच लिया। उसी दिन से अब कोई भी उन फूलों की ओर नहीं देखता।

असुरदिग्घी में नहाने के चार घाट हैं। वैसे उपयोग की दृष्टि से देखिए तो तीन ही हैं। दक्खिन वाले घाट पर कोई नहीं जाता। गाँव में कोई मर जाता है तो दशाह्न-क्रिया उसी घाट पर होती है। यह घाट बड़ा ही डरावना स्थान है। रात तो रात, दिन को भी उधर किसी को देखा नहीं गया। इस घाट के ऊपर पीपल का एक बड़ा ही विशाल पेड़ है। सभी जानते हैं कि उस पेड़ के ऊपर सदा ब्रह्मराक्षसों का एक जोड़ा रहता है। अनेक लोगों ने देखा है कि आधी रात के समय दोनों ब्रह्मराक्षस उस पेड़ के आगे तालाब में पैर लटकाए बैठे रहते हैं। किस किसने देखा है? देखने वालों के नाम तो मालूम नहीं, पर देखा है लोगों ने, इतना तो बिलकुल सच है। इतना ही नहीं। इस किनारे पर अनेक डाकिनें-पिशाचिनें भी स्थायी बसेरा बनाकर रहा करती हैं। रहती तो वे सभी दिन हैं, पर इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण यथेष्ट हैं कि वे अंधेरी रातों में रोशनी जला-जलाकर मछली पकड़ती हैं और विशेष करके बरसाती अंधियारी रातों में दल बाँध-बाँधकर घूमती हैं। पूरब के किनारे पर धोबी-घाट है। दो धोबी 'इस्स्-इस्सु राम-राम, इस्स्-इस्स् राम-राम, कहते हुए पत्थर के पाटों पर कपड़े धोते हैं। "गाँव-पसारा, गाँव के दाद सब कह देता धोबी घाट!" भरी बोरियों के छल्लों की तरह मैले कपड़ों के अंबार-के-अंबार पड़े हैं। चार धोबिनें कपड़ों को भट्टी चढ़ाने और सुखाने के काम में लगी हैं। उत्तर-पश्चिम के कोने में ताँतियों का घाट है। गाँव के बीच में होने के कारण सुबह-सुबह वहाँ औरतों की हाट-सी लगी रहती है। औरतों की हाट सुनकर यह मत समझ लीजिए कि यहाँ औरतों की खरीद-बिक्री होती है। हमने तो हाट इसलिए कहा है कि उनके बोलने के शोर और भीड़ के कारण वह जमावड़ा हाट-सा जान पड़ता है। रसोई-पानी और नहाने-धोने के समय में भीड़ बहुत बड़ी होती है। गाँव में डेली न्यूज के अखबार छपते होते तो संपादकों को समाचार संग्रह में कोई अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता। एक पेंसिल और थोड़ा-सा कागज़ लेकर यहाँ बैठ जाने-भर की देर थी, सारा संग्रह साथ-का-साथ और हाथ-का-हाथ हो लेता। पिछली रात किसके घर क्या पका, आज क्या पकने जा रहा है; कौन कब सोया, किसे कितने मच्छरों ने डँसा; किसके घर नमक न था, कौन कल ही थोड़ा-सा तेल लाया; रामा के माँ के घर जो नई बहू आई वह बड़ी झगड़ालू है; कल ही आई और आज ही सास की बात का उलटकर जवाब देने बैठ गई; कमली कब ससुराल जाएगी, सरस्वती बड़ी भली लड़की है; राँधने-पकाने में जैसी कुशल है, लाज-शरम के मामले में भी वैसी ही शीलवंती है; आदि-आदि। पदी पानी में बैठी दाँत-माँजे जा रही है और साथ ही एक छोटा-सा भाषण भी आरंभ कर रखा है। भाषण का सार-मर्म यह है कि उस जैसी रसोई पकाने वाली इस गाँव में और कोई नहीं है। ऐसी ही ऐसी जरूरी-बेज़रूरी बातों की धारा अविरल वही जा रही है। इनमें कितनी ही सुंदरियाँ भी हैं, जो मुखड़े के सौंदर्य को और भी बढ़ाने के लिए आँचल के छोर से अपने-अपने मुँह को रगड़ रही हैं। लक्ष्मी ने तो रगड़ते-रगड़ते बेसरों के ऊपर वाले भाग में नाक के दोनों पूड़ों को लाल कर डाला है। विमली पानी के पास बैठी अपनी बाँह की बाईस 'पल' ('पल' कहीं चार तोले तो कहीं छै तोले के बराबर का तोल है। -अनु.) भारी पीतल की विजायठ को जोर-जोर से रगड़ती। किसी अज्ञातनामा व्यक्ति को उद्दिष्ट करके शब्दकोश-बहिर्भूत शब्दों के धड़ल्ले प्रयोग-पूर्वक एक दीर्घाकार भाषण दिए जा रही है। भाषण का विषय यह है कि पिछली रात किसी की गाय ने उसके कुम्हड़े की बेल चर डाली है। विमली क्रमशः गो-स्वामी के ऊर्ध्वतन तीन पुरुषों के पितरों के निमित्त कुत्सित पदार्थ-विशेष की खाद्य-व्यवस्था करती हुई, गाय की अत्याचारिता, अपनी बाड़ी की उर्वरता, कूष्माण्ड-लता की तेजस्विता एवं भावी फलवत्ता आदि के वर्णन-पूर्वक यह कामना कर रही है कि अति शीघ्र गोस्वामी के ऊपर भारी विपदा पड़ेगी एवं उसी सिलसिले में उक्त गाय ब्राह्मण को दानस्वरूप अर्पित की जाएगी। उक्त सभी विषयों के संबंध में वह विविध प्रमाणों का प्रयोग भी करती चल रही है। हमने तो घाट से और भी बहुत सारे संवादों का संकलन किया होता, परंतु हठात् मारकंडिया की माँ तथा यशोदा के बीच भयंकर कलह उपस्थित हो जाने के फलस्वरूप समस्त वार्ता-प्रवाह सहसा अवरुद्ध हो गया।

यशोदा पानी के भीतर पेट डुबाए दाँत माँज रही थी। पंचवर्षीय बालक मारकंडिया ने नाच-कूद कर पानी को गँदला कर दिया जिसके छींटे बदन पर पड़ने से यशोदा पानी से उठ खड़ी हुई तथा चीत्कार करके उस बालक को कुत्सित भाषा में गालियाँ सुनाने लगी तथा उसकी परमायु की स्वल्पता की कामना करने लगी, जिससे उत्तेजित होकर मारकंडिया की माँ दौड़ी आई और समान स्वर में उसे उत्तर देने लग पड़ी। निदान परास्त हो चुकी मारकंडिया की माँ द्वारा अपने बालक को थप्पड़-प्रहार, जल-कलश को काँख तले दबाती हुई मारकंडिया का हस्त-धारण-पूर्वक गृहाभिमुख गमन तथा भें-भें स्वर-पूर्वक दाँत निपोरते मारकंडिया का क्रंदन, इति युद्ध कांड!

वज्रपात तो झटपट हो चुकता है, परंतु उसकी गड़गड़ाहट की ध्वनि आकाश में बड़ी देर तक गूँजती रह जाती है। कलह तो समाप्त हो गया, परंतु उस पर समालोचना बहुत देर तक चलती रही। अधेड़ और बूढ़ी स्त्रियों के दो दल हो गए। एक दल मारकंडिया का तो दूसरा यशोदा का पक्ष-समर्थन करने लग गया। परंतु हम तो संपूर्ण रूप से यशोदा के ही पक्षपाती हैं। विशेष विवेचना एवं सूक्ष्म विचार के द्वारा हमने यह समझ लिया है कि उपस्थित उत्पात का मूल कारण मारकंडिया ही संपूर्ण रूप से दोषी है एवं उसका अपराध अमार्जनीय है। उसे और भी गालियाँ दे लीजिए, मारिए चाहे और भी जो जी में आए, कीजिए, जवाबदेही लेने को हम तैयार हैं। देखिए तो सही, जल लोगों का जीवन ठहरा, उस जल को गँदला कर डालना कोई सामान्य अपराध थोड़े ही है? देखिए तो भला, स्त्रियाँ तो 'पण' (एक 'पण'= बीस 'गंडे' अर्थात् अस्सी ।) भर या अधिक-से-अधिक छे 'बोड़ी' (एक 'बोड़ी' पाँच गंडे अर्थात् बीस (कोरी)। (6 'बोड़ी' = 120) की संख्या में नहाने आकर प्रायः सब-की-सब पानी में पेट डुबाकर बैठी दाँत माँजती हैं। नव-फेन-खंड-वत् शुक्लवर्ण थूक-खँकार उनके मुख से निकलकर चतुर्दिक् तैरता है। ईषत् लोहित पाटलाभ जिह्वा-खुरचन-विनिर्गत मल भी लौंद-का-लौंदा उतराता रहता है। उसके साथ और भी कुछ बहता होता है कि नहीं, सो कहा नहीं जा सकता। कारण, समस्त स्त्री-समाज 'परती' से आकर जल-शौच करता है। औरों की बात छोड़िए, स्वयं यशोदा भी ऐसा ही करती है कि नहीं, यह बात उससे पूछिए तो वह कदापि अस्वीकार नहीं करेगी। करे भी क्यों? यह तो सनातन-प्रचलित प्रथा है। इसमें अपराध की कोई बात है ही कहाँ कि कोई छिपाए भी? कोई मसखरा कह रहा था कि लुगाइयाँ मटके-मटके जितना पानी तालाब से ले जाती हैं, उसका चौथाई उसमें छोड़ भी आती हैं। अब यह बात सच भी हो तो हमारे चर्मचक्षुओं से अगोचर है। कितनी ही लुगाइयाँ सोने की चटाइयाँ पखार-पखार कर ले जा चुकीं। नन्हे-मुन्नों की सेज के पोतड़े और नाना भाँति के गूदड़े चीथड़े भी धुलते देखे गए हैं। ये सब काम चाहे जैसे भी हों, इनमें से किसी भी काम को स्त्रियाँ उस मारकंडिया की तरह नाच-कूदकर तो नहीं करतीं न? और नाचे-कूदे बिना भी कहीं पानी गँदला हुआ है? इसीलिए तो हम कहते हैं कि मारकंडिया का जुर्म निहायत ही संगीन है।

ताँती-घाट से कोई तीन सौ गज परे हटकर मालिकान-घाट है। भोर के पहर इस घाट पर कोई भी स्त्री नहीं जाती। सोलहों-आने दख़ल क़ब्ज़ा पुरुषों का ही रहता है। बैसाख के दिन ठहरे, छै बजते-न-बजते आसमान से आग झाड़ती तपती पवन तन-बदन को झायं-झायँ झुलसाने लगती है। जुते खेतों में उड़ती धूल ऐसी जान पड़ती है मानो माटी में आग लग गई हो और धुआँ उठ रहा हो। घाट पर लोग भर गए। अँधेरे पाख की ढलती रात के तीसरे पहर की चाँदनी में ही किसानों ने हलों में बैल जीत डाले थे। अब सभी हल खुल गए हैं। किसी ने घर की दीवार में हल उठँगाकर सिर में थोड़ा-सा तेल डाल लिया और पाँचों उँगलियाँ बोरकर बदन में मलते हुए तालाब की राह ली, तो कोई डेढ़ अंगुल मोटा माँड़ीदार गमछा लिए हुए और कितने ही बिना गमछे के ही निकल पड़े। कोई-कोई खेतों से बाहर-ही-बाहर इधर चले आए और घाट पर आकर बैलों के कंधों से जुए उतारकर किनारे रखते हुए पानी में पैठ गए। कितने ही हलवाही बैल भर-भर पेट पानी पी-पीकर किनारे-किनारे चर रहे हैं। कई सूखी दातुनें चबाते हुए आए, पानी में पैठे, जीभिया की और चीरे किनारे की ओर फेंक दिए। घाट के दोनों ओर लगभग आधे छकड़े भर दातुनों के चीरे जमा हो चुके हैं। ऐसा नहीं कि पुरुष वर्ग के लोग कोई गुप-चुप नहाते हों। नहाते समय वे भी औरतों की ही तरह ढेर सारी बात करते रहते हैं। पर उनकी बात सदा एक-जैसी ही होती है। बस ले-देके वही की वही बात! पुरानी बात! ऐसी बात लिखने से क्या होगा? किस चौर में कितनी बुवाई हो चुकी, बड़े चक की दोहरी वाली जुताई आज पूरी हो गई, रामा ने बड़े चौंर में मूठ (मूठ लगाना=बुवाई का शुभ मुहूर्त्त देखकर अनुष्ठान पूर्वक बीज की पहली मुट्ठी खेत में डालना। मूठ आम तौर पर अक्षय तृतीया को लगाना शुभ मानते हैं ।) लगा दी, भीमा बैल पानी का बड़ा तेज है, मालिक के धौलों का जोड़ा बैल नहीं, हाथी के छौनों का जोड़ा है! कसरे (ललौंहे धौले रंग के बेल) की मोल लेकर मैंने तो मुट्ठी-भर रुपये पानी में बहा दिए। मालिक का कर्ज़ मेरे सिर पर से इसी माह उतर जाएगा। पखवाड़े-दो पखवाड़े के भीतर ही श्रवणा (नक्षत्र-विशेष) चढ़ेगा। ज्योतिषी कहता हूँ कि बदरी की लंबी झड़ी लगेगी। ये सारी बातें सभी की जानी-बूझी बातें हैं, अब इन्हें और अधिक बढ़ा-चढ़ाकर क्या लिखा जाए।

तेरहवाँ अध्याय
हितोपदेश

प्रथमा: इतनी क्या फुसफास?
द्वितीया : फैलेगी तो सुवास!
प्रथमा खेती है या निवास ?
द्वितीया: सत्यानास सत्याना-स!!

यह क्या, अरे बाप! ताँती-घाट पर कविता !

रसोई-पानी करने वालियों के नहाने-धोने की बेर निकल चुकी है। ताँती-घाट पर दसेक हाथ के अंतर पर दो अधेड़ स्त्रियों बैठी हैं। दाँत माँजते-माँजते वे उक्त संलाप करके एक-दूसरी का मुँह ताकने लगीं, मंद-मंद मुसकाई और फिर डर गई-सी मौन हो उठीं।

चिल्ला के बात कीजिए तो कोई ध्यान तक नहीं देता। एकदम पास तक के लोग यो उपेक्षा कर बैठते हैं मानों कुछ सुना ही न हो । पर जहाँ दो जने फुसफुसाकर कानाफूसी करने लगते हैं वहाँ औरों के मन का हाल देखने लायक हो जाता है ! उन धीमे कही जाती बातों को किसी भी तरह सुन लेने के लिए लोगों के मन गुड़कियाँ-सी खाने लगते हैं। सचमुच कभी-कभी छोटी-छोटी बातों के भीतर भारी-भारी रहस्यमय गोरखधंधे कुछ इस तरह निहित रहते हैं, जैसे नन्हे-से बीज के भीतर विशाल बरगद छिपा रहता है। इस समय घाट के ऊपर और कोई तो है नहीं, फिर क्या बात है कि इन औरतों ने इस तरह गुपचुप इशारों में बातें कीं? और फिर डरकर चुप क्यों पड़ गई ?

ताँती घाट के पानी वाले ढलान के दाहिनी ओर, घाट के आधों-आध पर, कोई बीसेक हाथ हटकर बरगद और पीपल के जुड़वाँ पेड़ों का एक जोड़ा है। इन पेड़ों के निचले अधवाड़े तक खूब मोटे-मोटे तने हैं और उपरले अधवाड़ों में नरम-नरम टूँसों से लदे छतनार शाखा-विस्तार हैं। घाट-बाट के बड़-पीपलों के ब्याह कराने में कन्या दान का फल मिलता है। हिन्दुओं के इस संस्कार के चिह्न अनेक स्थानों पर पाए जाते हैं। उन दोनों औरतों ने बातें करते-करते इन्हीं जुड़वाँ पेड़ों तले की छाँह की ओर दो-तीन बार ताका था। अब बात कहाँ जाती है? चोर तो अँधेरी रातों में बड़ी होशियारी से चोरी करते हैं, फिर बैदखानों में इतने कैदी कहाँ से आ जाते हैं? बुद्धिमान और चतुर खुफ़ियों की आँखों में धूल झोंकना कोई सहज बात नहीं होती। हाँ, पेड़ों की छाँह तले के किसी पदार्थ-विशेष से इनकी बातों का कुछ घनिष्ठ संबंध जरूर है। हाँ, ठीक-ठीक! हमारा अनुमान सोलहों आने सही है। धागे का छोर हाथ में आ जाने पर बुद्धिमान ताँती जिस प्रकार लच्छी-की-लच्छी और गुंड़ी-की-गुंडी उलझे धागों को खींच-खाँचकर सुलझा लेता है, उसी प्रकार के बुद्धिमान हमें भी समझिए, (वाक्य-विन्यास का यह ढीलापन मूल का है। -अनु.) हमें भी कोई गुर संकेत मिल जाए तो कोई घर बैठे सारी बातें हमसे सुन जाओ। जुड़वाँ पेड़ की ओट में बैठी दोनों स्त्रियाँ बातें कर रही हैं। अरे-रे-रे! अरे इन दोनों को तो हम भली भाँति जानते हैं! असमय में और अस्थान पर बैठी ये दोनों क्या बातें कर रही हैं? दोनों का यह मिलना भी कोई छोटा चमत्कार नहीं है। एक धूर्त्ता है, भ्रष्ट प्रकृति की है, सियारनी है। दूसरी उसके ठीक विपरीत है! नितांत निरीह, भेड़ जैसी । दोनों में से एक फन काढ़े सावधानी से टोह लेती नागिन की तरह नकबेसर उठाए चारों ओर झाँकती न जाने क्या अनर्गल बके जा रही है। दूसरी के पास पानी का मटका पड़ा है, दाहिने हाथ में एक दाँतून है, पूरे कपाल को ढँके घूँघट कढ़ी है। कोई विकट शब्द सुनकर अचकचाई भेड़-सी वह सहमी-सहमी उधर ही टकटकी बाँधे हुए है। शुकदेव के श्रीमुख से "स्थिर मन, धीर बुद्धि, पंचभूत आत्मा दोरस्त निर्मल हृदकमल" ('दोरस्त' = दुरुस्त। यह उद्धरण जगन्नाथदास-रचित प्राचीन 'उड़िया भागवत' से लिया गया है। -अनु.) होकर पुराण सुन रहे परीक्षित की तरह वह पहली स्त्री की वाक्यावली का श्रवण कर रही है। हाँ, यह जरूर है कि वे सारी बातें उसके मानस भण्डार में संचित होती जा रही हैं अथवा दूसरे कान से सीधे-सीधे निकली बही जा रही हैं, इसका निर्णय करने की सामर्थ्य का हम में नितांत अभाव है।

आप जरूर ही उनकी बातों को सुनने के लिए उत्सुक हो रहे होंगे। इसमें 'संदेहो नास्ति'। किसी मतवाले ने कहा था :

"संसार विषवृक्षस्य मद्यमांसममृतफलम् !"

अर्थात् संसार रूप विषवृक्ष में मद्य और मांस ये दो ही अमृत फल लगे हैं। यह बात सुनकर वृद्ध मनु बोलते भये :

"न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च
प्रवृत्तिरेषां भूतानाम्.........!''

अर्थात् भूतों अथवा भूत-जैसे लोग ही ऐसी बातें करते हैं! (यहाँ भी उलटा अर्थ लगाकर लेखक ने हास्य-सृष्टि की है। 'पंच-तंत्र' की 'मूर्खपंडितानाम् कथा' की इस अनोखी शैली पर लेखक मुग्ध जान पड़ता है । -अनु.) ठीक बात है! वृद्धस्य वचनम् ग्राह्यम्! पर साथ ही यह बात भी सोलहों आने ठीक है कि संसार-रूपी विषवृक्ष में यह दो ही अमृत फल लगते हैं। पारखी कौन है? केवल हमें ही उन दोनों फलों का पता है। परोपकारं स्वर्गाय!" परोपकार करना ही हमारा व्रत ठहरा। आप लोगों का उपकार-साधन करने के निमित्त ही हमने उन दोनों फलों के नामों को प्रकट कर दिया है। इनमें से एक फल का नाम है गुप-चुप बातें सुनने की इच्छा और दूसरे का नाम है परनिन्दा। आप किसी के घर के गुप्त 'छिद्र' की बात कीजिए अथवा किसी की निंदा कीजिए, आप देखेंगे कि लोग बड़े आनंद के साथ मन लगाकर आपकी बातें सुनेंगे। समझ में आया कुछ? फल का माहात्म्य नहीं होता, तो इतना आनंद कभी हो भी सकता था उन्हें?

चले थे हम क्या लिखने और लिख क्या डाला! चप्पू को खींचते ही धारा नाव को अपने लक्ष्य-स्थान से दूर-दूर तक खींचती चली जाती है। हाँ, यह जरूर है कि गरबीले, हठीले और कस-बस वाले माँझी पतवार को छोड़ते हरगिज नहीं हैं । हमारी लेखनी भी इधर-उधर भटकती अवश्य है, पर मूल बात टस से मस नहीं होने पाती, -सीधी सड़क धरे चली चलती है ।

खैर छोड़िए इस बात को अब और अधिक देर तक आपको संदेह में डाले रखना उचित न होगा। ये दोनों स्त्रियाँ कौन हैं, क्या-क्या बातें कर रही हैं, आदि सारी बात खुलासा करके बता देना ही उचित होगा। कोई-कोई लोग कोई बात कहने के पहले अनेक प्रकार की भूमिकाएँ बाँधते हैं, नाना प्रकार की वक्तृताएँ झाड़ बैठते हैं। हमारा ही स्वभाव एक ऐसा है, जो इसके ठीक विपरीत है। जो कुछ कहना होता है, उसे हम झटपट साफ़-साफ़ कह डालते हैं। और भी कितने ऐसे लोग हैं जो डर के मारे बहुत सारी बातें छिपा रखते हैं अथवा कोई बात कहते-कहते और ही बात कह बैठते हैं और असल बात अनकहनी ही रह जाती है। अब यही देखिए ना, ये अँधेड़ स्त्रियाँ इशारों ही-इशारों में न जाने क्या कहती-कहती कैसे चुप लगा गईं ! लेकिन हाँ, ताँती औरतों की अपेक्षा हमारा साहस कहीं अधिक है। जो कहना होगा, वीर की तरह सब कह जाएँगे! एक और बात है। जानते हैं क्या बात है वह ? हमारे-जैसे लोग चिल्ला भी मरें तो कोई सुनने वाला न होगा लेकिन वही कोई भारी भरकम आदमी जरा 'आँ' भर कर दे तो देखिए न, कैसे दो सौ लोग उसके मुँह की ओर टकटकी लगाए रह जाते. हैं! विलायत के लोग तो इन बड़े-बड़े लोगों की बातें सुनने के लिए अंटी में पैसे खोंसकर दौड़ पड़ते हैं। पेड़-तले की दोनों स्त्रियों भी गाँव में कुछ वैसी ही सुविख्यात हैं। -आप भी उन्हें भली भाँति पहचानते हैं। आदमी कोई रूप से नहीं, गुण से पहचाना जाता है। कोई भला हो कि बुरा हो, सामान्य जनों की अपेक्षा जिसके गुण अर्थात् सद्गुण अथवा दुर्गुण जितने ही अधिक होंगे, वह उतना ही अधिक विख्यात होगा। गोविंदपुर गाँव में कमोबेश कोई 'काहण' (एक 'काहण' या 'काहाण' = 16 'पण' = 16x20 अर्थात् 320 गंडा=320x4 अर्थात् 1180) भर औरतें हैं। पर इतनी सारी औरतों के बीच चुनी-चुनाई अगर कोई हैं तो ये दो ही हैं! एक चतुराई और धूर्तता में, तो दूसरी सूधाई और मासूमी में दोनों ही विख्यात स्त्रियाँ हैं। रही बात उनकी गुप-चुप बातचीत की, तो क्या आप सुने बिना नहीं मानेंगे? खैर, इसी कारण तो हम लिखने बैठे हैं!

हमने बड़े-बड़े जतन और बहुत-बहुत परिश्रम करके इनकी बातों का संवाद संग्रह किया है। उनमें से एक स्त्री तो बड़ी लंबी वक्तृता झाड़ रही थी। उस वक्तृता में कितनी ही बातें ऐसी थीं, जिन्हें सुनकर आपको क्लेश होगा। और फिर यह बात भी है कि लंबी बातें लिखने के हम कोई आदी भी नहीं। इसीलिए उस वक्तृता का सार-मर्म मात्र लिख रहे हैं।

"देख सारिया, सबकी जड़ यह बूढ़ी मंगला ही है। यह सारी दुनिया उसकी आज्ञा से चलती है। उसीकी इच्छा से सारे संसार का आवागमन हो रहा है। उसकी आज्ञा क्या कभी टल सकती है? न जाने कितने बरत रख-रखकर तो तूने देवी की आज्ञा पाई है! बड़े भाग हैं तेरे! ऐसे भाग कहीं मिलने के नहीं! सच! अब तक अकेले मालिक के ही घर पर उनकी दया थी, अब तुम्हारे ऊपर भी हो गई! तुम मंगला का मंदिर बनवा तो देखो, कैसे तुम्हारा अपना घर देखते-ही-देखते लक्ष्मी का भण्डार बन जाता है! 'पण' के 'पण' ('पण'=बीस गंडे- 80) और 'काहण' के 'काहण' रुपये न जाने कहाँ से आ-आकर तुम्हारे घर में पैठने लगेंगे। धान से बखार के-बखार भर जाएँगे। फिर क्या भगवान् करघे ही चलाता रहेगा? तेरे आगे-पीछे दस-बीस लौंडियाँ ख़वासिनें डोलती फिरेंगी। तुम दोनों मंगला की आज्ञा मान लो और जैसे भी हो मंदिर तो बनवा ही डालो! रुपये की चिंता ही क्या है? कौन है जो मंगला का नाम सुनकर भी रुपये देने में आनाकानी कर सकता है? सब ललककर देंगे और फिर, और कहीं ढूँढ़ने की जरूरत ही क्या पड़ी है। मंगराज के कानों में बात पड़ने की देर है, आधी रात को आके रुपये गिन जाएँगे वह तो । इस बात की जिम्मेदारी मेरी रही। मैं जामिन रही। मैं ला दूँगी रुपये। तुम्हें कुछ भी करना-धरना न होगा। कोई ज़्यादा रुपये चाहिए भी नहीं। डेढ़ सौ भी हों तो काफ़ी बड़ा मंदिर बन जाएगा। केंदरापाड़ा में बलदेव का जो मंदिर है न, ठीक उतना ही ऊँचा और उतना ही चौड़ा होगा। तुम छै 'माण' (एक 'माण' = 25 'गुंठ'=लगभग 1 एकड़) आठ 'गुंठ' जमीन लिख डालना, मैं रुपये ला दूँगी। तुम्हारी जमीन तो कोई उठाकर नहीं ले जाएगा। जहाँ है वहीं रहेगी। होगा बस इतना ही कि खाते में लिख दिया जाएगा। मंदिर बन चुकने पर तुम लोग खुद ही औरों को रुपये देने लगोगे। कितने ही लोग तुम्हारे कर्ज़दार होंगे। माँ मंगला ने कोई सगुन-बानगी दी होगी, निश्चय ही दी होगी। पहले सगुन के संकेत के तौर पर वह सोने का रुपया देती हैं। रूपे का थोड़े ही देंगी भला वह?"

हमें इस बात पर विश्वास नहीं हो पाता कि उस वक्तृताकारिणी की बातों को सारिया हृदयंगम कर सकी होगी। वह तो टुकुर-टुकुर ताकती ही रह गई। 'पण' के 'पण' रुपये ! डेढ़ सौ रुपये ! डेढ़ सौ रुपये कितने होते हैं, यह समझना क्या उसके बस का रोग है? सहज तो हरगिज नहीं है। एक रुपये के पैसे गिनने हों तो सारिया पर से बाहर नहीं निकलती, किवाड़ में भीतर से बेंवड़े चढ़ाकर वह और भगिया दोनों दो-तीन घंटे बैठकर गिनने का काम किसी तरह निबटा पाते हैं। जिस दिन पाँच चवन्नियों अथवा अठारह आने का कपड़ा बिकता है, उस दिन वह अपने भाई लोकनाथिया से गिनवा लाती है। फिर यह लौंडियों-ख़्वासिनों का मामला अपने घर में पाँच-छः दासियाँ आ पैठें, इसे विपद् माना जाए कि संपद् महा मुश्किल ! भगिया भी पास नहीं, अब कोई करे तो क्या करे? भाग खड़ी हो तो जान बचे ! सारिया ने एक लंबी-सी उसाँस छोड़ी और एक बार मटके को निहारकर सिर्फ इतना ही कहा, "चंपा मालकिन-'' और चुप हो रही । आगे कुछ भी कहना उससे बन नहीं पड़ा। पर उसकी चुप्पी से धूर्त्ता-चतुरा चंपा किसी असमंजस में नहीं पड़ी वह सब भाँप गई, कुछ भी जानना उसके लिए बाकी न रहा। उसने अच्छी तरह समझ लिया कि मंत्र ने कोई असर नहीं किया है। शिकार फिर हाथ से भाग निकलने को छटपटाया। बिल्ली बहुत दिनों की खोज-ढूँढ के बाद आज कहीं यह हिलसा मछली पकड़ पाई है ! इतनी आसानी से अपने जबड़ों तले से भागने थोड़े ही देगी। जरूरत है मंत्र बदलने की।

चंपा: "देख सारिया, रुपये में क्या रखा है? सोने में क्या रखा है? रुपये से और सोने-चाँदी से कोई स्वर्ग नहीं जाता। असली चीज़ तो हैं बाल-बच्चे। जिस घर में बाल-गोपाल न हों, वह घर तो दिन-दोपहर को भी अँधियारा होता है । और बाँझ निपूती सूखी-निदूधी होना क्या कोई छोटा पाप है? मालिक के घर नित-दिन कथा-पुराण होता है। मैं नित-दिन सुनती हूँ। उस दिन गोसाईं ने पोथी में से बाँचकर गाया :

"होहि न जा घर लड़िका-बारे
ता मुख हेरु न कबहुँ सकारे!
तीन-पूत-बारी सुलच्छनी
बाँझ-बिसूकी गाम-पोंछनी!
जा पर घी कै पूत न कोई
परम अभागिनि दुखिया सोई !"

तो भागवत का वचन कोई झूठा थोड़े ही होगा? इतने लोग (भागवत का गादी पर माथे रगड़ते रहते हैं सो यों ही? अच्छा, तूने यह भी तो देखा ही होगा कि बड़े भोर पहर तेरे घर के आगे से कोई भी आवाजाही नहीं करता है! क्यों नहीं चलता कोई उधर से? इसलिए कि कहीं तेरा मुँह न दिख जाए! तूने सुना होगा, हमारी मालकिन भी पहले बाँझ ही थीं। घड़ी-भर दिन चढ़े तक हममें से कोई भी उनका मुँह नहीं देखता था। मालकिन ने रो-रोके मंगला को पूजा दी। फिर देवी ने जैसे तुम पर दया की है, वैसे उन पर भी दया की। दया हो गई तो अब यही देख ना, कैसे वह आज नाती-पोते तक देखने वाली हैं!"

सारिया की आँखें तो खुली थीं, पर मन कहीं और सपने में विचर रहा था। ये बातें सुन-सुनकर उसके कान भाँय-भाय कर उठे थे। भाग खड़ी होने को जी तो अभी भी चाह रहा था, पर भागे तो भागने की राह भी कहाँ थी कोई? बिल्ली चूहे की गरदन दाबे बैठी थी। आँखें छलछलाकर टलमल हो उठी थीं। बातें करने को जी तो हो रहा था, पर बोल फूट ही नहीं पा रहे थे। बड़े कष्ट से मुँह खुला ।

सारिया : "मैं क्या करूँ? लोग कह रहे हैं कि मालिक ज़मीन लिखा लेने पर फिर लौटाते नहीं किसी को।"

चंपा : "राम, राम! यह कैसी बात कह डाली? मंगला के काज़ को रुपये देंगे तो तुम्हारी जमीन ले लेंगे भला? इन गाँव वालों की बातों पर क्या कान देती है? यह जो गोविंदपुर गाँव है न, सो सारी दुनिया में सबसे अधम गाँव है। इस गाँव की औरतें तो तुम्हें दिन-दुपहर को ही डुबो मारेंगी! तुम्हारा सुख देखकर उनके जी में तो हाय-हाय मच गई है। छटपटा उठी हैं वे तो । इस गाँव में तो माँड़-खोर से साग-खोर का सुख देखा नहीं जाता। सब औरों की बढ़ती पर जलते-भुनते हैं। तुम किसी से भी कुछ कहना मत! और देखो, ठकुरानी की आज्ञा न मानते पर आँखें फूट जाती हैं, कान बहरे हो जाते हैं, लोग मर जाते हैं। गोपीनाथ पुर की तीन-तीन सधवाएँ ठकुरानी की आज्ञा ठुकराते ही एक साथ राँड़ हो गई। तुमने यह बात सुनी नहीं है?"

सारिया अचल कठपुतली सी बैठी बातें सुन रही थी। अंतिम बात सुनकर अपने-आपको सँभाल नहीं पाई, फूट-फूटकर रो पड़ी। सुबकते-सुबकते बोली, "मैं क्या करूँ चंपा मालकिन, मैं क्या करूँ?"

चतुरा चंपा अब सारिया के मन की सारी बातों की पूरी थाह पा चुकी थी। मंत्र को असर करते देखकर वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। बोली, "देख सारिया, तुम्हें कोई डर-भय नहीं। तुम्हें कुछ भी करना न होगा। सब-कुछ मैं आप ही कर-करा दूँगी।"

सारिया : "ना ना! मुझे कुछ नहीं चाहिए। भले रहें वह।"

चंपा : "कोई डर नहीं। भगवान के तलवों में काँटे तक नहीं चुभेंगे।"

(और फिर, दधिवामन के प्रसाद का फुलहार और प्रसादी रसगुल्ला सारिया के हाथों में थमाती हुई चंपा कहती गई) "देख सारिया, यह रहा फूलहार और यह रहा

प्रसाद। ये ही साखी रहे। मैं तुम्हारा सब भला कर दूँगी। तुम्हारे तीन पूत भी होंगे और तेरे भगवान् की आयु भी कोटि बरस होगी। चिंता की कोई बात नहीं।"

सारिया : "मैं क्या करूँ? चंपा मालकिन, मैं क्या करूँ?"

चंपा : "तुम्हें कुछ भी नहीं करना। आज साँझ पहर तू और भगवान् दोनों यहीं आ जाना! जो करना होगा सब में कर दूँगी। और जब मंगला का बरत होगा, तो जब तक मंगला के काज पूरे नहीं हो लेते तब तक तुम दोनों ही नहा-धोके उपवास रखना! खाना ही पड़ जाए तो थोड़ा-थोड़ा चिवड़ा खा लेना। यह इसलिए बताए दे रही हूँ कि बरत की बात तुम लोगों को मालूम नहीं है।"

उसके बाद सारिया नहाने के लिए धीरे-धीरे तालाब में उतर गई। चंपा बड़ी देर तक पेड़-तले खड़ी रही और चारों ओर भली भाँति ताक-झाँककर संतुष्ट चित्त से मालिक की हवेली की ओर चली गई।

गुप्त रूप से अनुसंधान करके हमने यह संवाद प्राप्त किया है कि उस दिन आधी रात गए तक सारिया उपवास में थी और भगवान् कचहरी में था। उसके अगले दिन से चार दिनों तक भगवान् को किसी ने गाँव में नहीं देखा। कोई-कोई कहते हैं कि उसे कटक जाने के रास्ते पर देखा गया था।

चौदहवाँ अध्याय
मंत्रणा

हुआँ-हुआँ-हुआँ । हुआँ-हूँ-आँ। हुके-हुके हो, हुके-हो ।

गीदड़ बोले। ऐन अधरतियाँ हुई। देहातों में घड़ी-घंटे नहीं होते। गीदड़ की हुआँ- हुआँ से ही हम लोग रात के ठीक-ठीक घड़ी-पहर का ठीक-ठीक हिसाव रखते हैं। ये प्राणी गाँवों के बड़े उपकारी होते हैं। छोटे गाँवों में म्युनिसिपल कमिश्नर नहीं होते। गाँव में मरे कुत्ते-बिल्लियों की मरी तथा अन्यान्य मल-द्रव्यों को उठा ले जाने का भार इन्हीं के ऊपर रहता है। आधी रात का पहर है। गोविंदपुर गाँव बेसुध पड़ा सो रहा है। कहीं चूँ शब्द तक सुनाई नहीं पड़ता। तेली-टोले में कोई गोदैला बालक 'कुआँ-कुउँआँआँ' करता रो पड़ा। नींद की अलसाहट में ही उसे थपथपाती; भारी-भारी दामों वाली अनमोल और दूर्मिल चीजें देने के विसर्ग पेश करती; चोर, चौकीदार, बाघ आदि भयंकर प्राणियों के आ रहे होने के भय दिखाती तथा बच्चे के भले होने, रोने से विरत होने को तथा चुपचाप सो रहने को प्रस्तुत होने इत्यादि के प्रशंसावाद करती उसकी माँ ने आखिरकार उसे सुलाके ही छोड़ा। मंगराज की कचहरी की अँगनाई में हमारा गोबरा जेना और सौतुनिया मौजे का चौकीदार दास जेना दोनों निश्चित पड़े सो रहे हैं। पास में बाँस की पोरसे-पोरसे भर लंबी दो लाठियाँ और आग की 'लिएँ-बिएँ' (दोनों हाथ पसारने पर एक के छोर से दूसरे के छोर तक की लंबाई ।) भर लंबी दो बोरसियाँ पड़ी थीं। बाहरी लोग समझेंगे कि मंगराज की कचहरी में शायद दो सूअर चर रहे हैं। पर हम तो सदा-सर्वदा सभी विषयों में सावधान रहते हैं। सारी बातें निजी खोज-बीन द्वारा समझते हैं। तथापि पहले तो हमें भी भ्रम हो गया था। अच्छी तरह कान टेककर सुनने के बाद ही दोनों चौकीदारों के खर्राटे सुनाई पड़े और भ्रम-प्रमाद का कारण स्पष्ट हो गया। कचहरी के बाहर वाले ओसारे में तीन प्रजाजन अपने-अपने बदन पर पटापट-पटापट चपत-पर-चपत लगाते लोट रहे हैं। क्षुधा, चिंता और मच्छरों का नींद के साथ सौतिया संबंध जान पड़ता है। ये तीनों प्रजाजन क़र्जे में धान पाने के लिए अटक रहे हैं। दिन-भर दाहिने हाथ के काम के साथ कोई संपर्क न हो पाया, तिस पर ये मच्छर लग रहे हैं और चिंता है सो है ही, फिर नींद की बात पूछते ही क्यों हैं?

कचहरी वाला खंड पार करके भीतर की ओर जाने पर जो पहला खंड मिलता है उसी में मंगराज के पौढ़ने का कक्ष है। जरूरत होने पर लोग उसे गंडाघर अर्थात् मालखाना भी कह लेते हैं। हवेली के सभी घरों में इसका श्रेष्ठ होना उचित है। इस विषय में भी कोई त्रुटि नहीं हो पाई है। कमरे में आटू (छान तले चीजें सँजो रखने को या छप्पर में आग लगने पर घर की चीजों को जलने से बचाने के लिए बाँस और मिट्टी की भीतरछत्ती का आला। -अनु.) है। घर पाँच धरन वाला है। खुलता पूरब को है। सामने चौड़ा ओसारा है। दरवाजे पर कटहल की लकड़ी के किवाड़ लगे हैं। किवाड़ों में चौकोनी जाफ़रीदार फट्टे हैं। जाफ़री के फट्टों के खिलान-खिलान पर लोहे की टोपीदार मेख जड़ी हैं। बाहर कड़े भी लगे हैं और साँकलें भी। इनमें दो बड़े-बड़े नलीदार ताले पड़ते हैं। पच्छिम वाली दीवार में कोई कमर भर की ऊँचाई पर डेढ़ बित्ता चौड़ी सींखचेदार खिड़की है। अगहन के महीने में गुरुवार को जब घर की लिपाई-पुताई होती है, तभी कदाचित् यह खिड़की खुलती होगी। घर के चारों कोनों में घुप्प अंधेरा रहता है। हमा-शुमा को तो दिन के समय भी रोशनी की जरूरत पड़ जाएगी। घर के कोने में गौरेया कहती है कि 'यहाँ में ही मैं, और चूहा कहता है कि 'मैं ही में ! वर्ण-सादृश्य के कारण ही अथवा नाम की समप्रासता (गौरैया को उड़िया में 'अंतरपा' कहते हैं जिसका तुक 'चंपा' से मिलता है। अधम-प्रास उड़िया कविता में दोष नहीं माना जाता, धड़ल्ले से चलता है। -अनु) के कारण, चंपा कहती है कि गौरैया लक्ष्मी है। गौरैया (असरपे) के रहने से अशर्फी आती है। सुतराम् गौरैया -वंश किसी की किसी भी प्रकार की जोर-जबरदस्ती की संभावना की ओर से निश्शंक होकर, अभय-दान पाकर, पुत्र-पौत्रादि क्रम से घर के कोनों पर मौरूसी अधिकार जमाए बैठा है। उत्तर वाला दीवार से लगी बाँस का लंबा-सा मचान है, जिस पर बेंत के तीन बड़े-बड़े पुराने पिटारे रखे हैं। मचान तले चौकी तख्तपोश है, जिसके तले घर के कोने में गुड़ का मटका है, आम की अमकरिया की हाँड़ी है, करंज के तेल के तीन-चार गंडे डिब्बे हैं और मौजों के कुंजों में करंज के जितने भी फल लगते हैं, सब पीट-पीटकर झाड़ लाए जाते हैं। तेली बैठ-बेगार में उन्हें पेरकर तेल निकाल देता है वही तेल 'गंडाघर' में सँजोके रखा रहता है। साल-भर के लिए तेल मोल लेने के झमेले से छुट्टी मिल जाती है। बल्कि साल की ज़रूरत से कुछ अधिक ही तेल निकल आता है। दक्खिन वाली दीवार के पास आम की लकड़ी के दो बड़े-बड़े संदूक हैं। इसके पास चंपा नित-दिन संझा-बाती दिखाती है। प्रति गुरुवार को सिंदूर और चंदन से इसे पूजती है। अरवा चावल और गुड़ के नैवेद्य से इसे भोग लगाया जाता है । कोरवों से तीन-चार छीके लटके हैं। उन पर घी के मटके झूल रहे हैं। गोंठों से कटौती (दैनिक उपयोग की वस्तु नियमित रूप से किसी एक ही व्यक्ति से लेने की 'मामूल' -चुकती । -अनु.) है। का जो घी आता है, वह इन्हीं में जमा होता है। मरहट्टी पालकियों में झूलते रेशमी फुँदनों की झालर की तरह छोंकों से मकड़ी के काले-काले जाले गुच्छे-के-गुच्छे झूल रहे हैं। पच्छिम वाली दीवार के पास उत्तर-दक्खिन की लंबान में मंगराज का तख़्तपोश पड़ा रहता है। दक्खिन की ओर सिरहाने के पास बड़ी-सी मसनद है। हेंस (मोटी घास की चटाई। बरुहाँ, जुण, वेणा (खसखस) तेलंगा, संतुरा आदि के तिनके सुखाकर झोंट या सन की सुतली से हेंसा चटाई बुनी जाती है। -अनु.) चटाई के ऊपर 'दशिया' (मोटे धागे से बुनी गूदड़नुमा सुजनी चादर।) दोहरी विछी रहती है। चादर को देखने पर हठात् बूटेदार छींट का भ्रम हो सकता है। पर हमने तो अच्छी तरह देख-परख लिया है, इसलिए भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। बात असल में यह है कि छींट के धब्बों से लगने वाले रक्तकृष्णाभ चिह्न मृत खटमलों के शरीरों से निःसृत शुष्क शोणित-बिंदु-मात्र हैं।

आज इस आधी रात के समय उसी तख़्तपोश पर एक पुरुष उसके तले बैठी एक स्त्री के साथ बातें करने में लीन है। इनसे पाठकों का परिचय करा देना कोई ज़रूरी नहीं। वे खुद पहचान लेंगे। स्त्री तो है हमारी वही चंपा और पुरुष स्वयं रामचंद्र मंगराज। चंपा तख्तपोश के ऊपर दानों हाथ डाले उससे भिड़ी-सी बैठी है। मंगराज चंपा की ओर को ईषत् झुके हैं। तख्तपोश से तीन हाथ दूर पीतल का एक दीपाधार रखा है। उसके ऊपर मिट्टी का दिया मंद-मंद टिमटिमा रहा है। दीपाधार का सर्वांग तेल की गाद में लिथड़ा हुआ है। दीवट की कटोरिया में बाती और गुल की कालिख मिला कोई पलेक (एक पळ= 4 तोले, कहीं-कहीं 6 तोले । -अनु.) भर नीलौंहा तेल पड़ा है।

चंपा और मंगराज के बीच बड़ी रात गए तक जो बातचीत और मंत्रणाएँ हुई, उन सबको जानकर आपको कोई सुख नहीं मिलेगा। वैसे अधिक लिखना हमारे भी अभ्यास के विरुद्ध है। अथच इन बातों को सच घटना कह लीजिए, कपोल-कल्पना कह लीजिए, गल्प-जल्पना कह लीजिए, उपन्यास कह लीजिए, रूपन्यास कह लीजिए, ग़रज यह कि जो जी में आए कह क्यों न लीजिए, प्रधान नायक-नायिकाओं की बात ठहरी, बिलकुल ही छोड़ डालें तो काम ही न चले। सुतराम् चारों ओर ताक-झाँककर पाठ लगाने के लिए कुछ-कुछ यह रीति अपनानी ही पड़ी कि "तेहँड़े का तेल भी न चुके और पूत की मूँड़ी रूखी भी न रहे ।"

चंपा बोली: "न बाप का कोई ठीक, न माँ का कोई ठिकाना! दगाबाजी करके पठान छोकरे से ज़मींदारी ठग लाया और गाँव में कहलाता है क्या तो ज़मींदार! होगा, होगा ज़मींदार, अपने घर का होगा! गाय बराके बासा उजाड़, फिर क्या तो-कहो तो गाली? भाग के औरत घर में जा छिपी, हाथ जो पड़ी होती! मालिक, कोई अकेला नहीं, दुकेला नहीं, पूरा गाँव जुड़ा होता! दूकान के ओसारे में बैठा चिल्ला-चिल्ला के गालियाँ बकता रहता है! मैं पान क्या मोल लेती, दूकान के दरवाजे के पास से भाग आई। कम-हयात, लुंज-कोढ़ी, नदी-सेजिया कहीं का ! मालिक, मैं भी कोई छोड़ने वाली हूँ। और कोई होता तो दाँतों नाक काट लिए होती मैं तो! पर यह तो असुर-जैसा जवान है, असुर-जैसा ! उसकी बाँस वाली लाठी देखकर मेरी तो दिल्ली पानी हो गई पानी। इसकी तुम कोई राह निकालो राह, नहीं तो मैं सिर फोड़ लूँगी, माहुर खाके सो रहूँगी, डूब मरूँगी!"

इतना कहकर चंपा फफक-फफक कर रोने लगी।

मंगराज : "चुप रह चंपा, चुप रह ! उसी लाठी का डर तो मुझे भी खाए जा रहा है। चारों ओर के चारों असुर हैं। निपट मूरख ! बात-बात पर लाठी निकालके तन जाएँगे। और वह बात तो कब का करा चुका होता। मेरा एक बिलौठा बेटा उस गाँव को जाने पर मुड़-मुड़ के पीछे को ताक रहा होगा। गोबरा इतना चतुर है, इतना होशियार है, कि उसके हाथों तो कुछ हो नहीं पाया! वह क्या करेगा? दिन-रात लोगों की चौकीदारी रहती है!"

चंपा : "ना ना मालिक, वह बात नहीं होगी। तुम कोई राह निकालो इसकी। नहीं तो गाँव की औरतों को में मुँह नहीं दिखा सकूँगी। वे क्या इतनी सक-सकत वाले हो गए कि तुम्हें हरा बैठे?

मंगराज : "देख चंपा, शास्त्र में आया है कि 'छल सों, बल सों अरु कौसल सों, अरि साधहुँ गे बिन आयासों।' मैं तो वैरी को साथ नहीं सका, अब तू ही कोई उपाय कर! तू सोच-विचार करे तो सब-कुछ हो जाएगा। अब यही देखना, में तीन बरस लगा रहने पर भी उस ताँती पर हाथ नहीं रख पाया था, और तूने जैसे ही इस काम में हाथ दिया, मैदान सर कर लिया।"

चंपा ने बाती उकसाकर तेज़ कर दी और खूब हँसी । बोली, "देखो मालिक, पहले तो लगा था कि पार नहीं पाने की मैं तो। पर बुद्धि खरचने से क्या नहीं होता? उस छै 'माण' आठ 'गुंठ' वाले चक में कल हल तो जा रहे हैं न?"

मंगराज : "मैंने हलवाहों को कह दिया है। कल सबेरे ही हल जाएँगे। उखेड़ी और दुहेड़ी दोनों जुताइयाँ कल ही हो लेंगी में भी जाऊँगा खेत पर।"

चंपा : "उनके घर को उजाड़ डाला सो भला किया। घर होता तो जाने कब ज़मीन के लिए जुट पड़ते ।"

मंगराज : "ज़मीन छै माह की मीयाद पर मीयादी केवाला (कंट-रेहन। इस तमस्सुक की शर्त यह होती है कि अमुक समय तक सारा देना चुकता न होने पर जमीन रेहनदार की हो जाएगी। -अनु.) थी। मीयाद पूरी हुई और जमीन मिल गई। मुक़दमे के खरचे में घर नीलाम हुआ। मैंने नीलाम लेकर उसे तुड़वा दिया है।"

चंपा : "जमीन हो कि घर हो कि जो भी हो, मुझे कोई मतलब नहीं। मैंने तो बस उस गाय के लिए ही इतना कुछ किया-कराया। गाय तो गाय नहीं, कोई मकुनी हथिनी है! आज कचहरी के ओसारे में बाँध आई हूँ, कल से हवेली के भीतर ही बाँधूँगी। वे दोनों कहाँ गए?

मंगराज : "कौन दोनों? भगिया सारिया? बे-सराधे भूतों से जिसतिस की ओलती तले पैठते फिरते हैं।"

चंपा : "उस दिन भोर पहर सारिया मंगला के पास रो रोके माथा कूट रही थी। मुझे देखके और भी जार-जार रोई । जाने क्या-कुछ कहने को मेरी ओर बढ़ी आ रही थी। मैं मुँह फिराके चली आई ।"

इसके बाद भी बड़ी रात तक चंपा और मंगराज के बीच बातें होती रहीं। आखिर वे ऐसी सावधानी से और ऐसे गुप्त भाव से मंत्रणा करने लगे कि हमें किसी भी तरह उसका कोई सुराग नहीं मिल सका। वे एक-दूसरे का मुँह निहारते बैठे रहे। दोनों ही बातों में मगन थे। ऐसे समय में उन दोनों के बीच किसी स्त्री-मूर्ति की छाया पड़ी। दोनों चौंक पड़े से उस मूर्ति को निहारते रहे। हठात् बात बंद हो गई। आगंतुका ने 'फों' करके एक लंबी उसाँस छोड़ी। यह उसाँस वैसी ही तपती उसाँस थी, जो मन को दारूण कष्ट पहुँचने पर निकलती है । तीनों फिर नीरव थे, निश्चल थे, कठपतली-से निस्पंद थे । घर निस्तब्ध था।

कुछ देर बाद मंगराज ने उस नारी-मूर्ति को निहारते हुए पूछा, "कौन?" सभी निरुत्तर रहे।

मंगराज ने पुनर्वार पूछा, "कौन?"

कोई उत्तर नहीं । पुनर्वार वही पूर्ववत् दीर्घ निःश्वास।

मंगराज कुछ खीझे, कुछ बौखलाए । पूर्व से उच्चतर स्वर में पूछा, "क्या है? कुछ कहती क्यों नहीं ?"

मालकिन (आगंतुका, मंगराज की भार्या) अत्यंत धीमे स्वर में अत्यंत विनय के साथ बोली "मैं कहने आई थी कि रात हो गई, सो पड़ो, अब इन बातों को कितना गुनते रहोगे?"

चंपा उसकी अवज्ञा करती-सी गंभीर स्वर में बोली : "हूँऊँ !"

मंगराज : "अच्छा में जाता हूँ, तू जा बाहर!"

चंपा की अवज्ञा-सूचक हुंकार ने मालकिन के कलेजे को बरछे-सा बेध डाला था। उसके बाद मालिक का 'तू बाहर जा' कहना ऐसा जान पड़ा मानो तालु में सहस्रों बिच्छू एक साथ डंक मार गए हों ! चंपा भीतर रहे और मैं बाहर जाऊँ? जिन घटनाओं से पुरुष का कठिन-मन टूक-टूक हो उठता है, उन्हें कोमल-मना स्त्रियाँ सहज ही सहज कर लेती हैं। सहिष्णुता का गुण स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है ! वे कहीं अधिक सह सकती हैं । सती स्त्रियों के लिए बस दो चीजें असह्य हो उठती हैं और वे हैं स्वामी से मिले अनादर और अविश्वास । और फिर स्वामी के सामने ही दासी-कृत अवज्ञा ! वह तो मरणाधिक कष्टकर होती है। पर हाँ, उपस्थित घटना कोई नई न थी। सदा से सहते-सहते पट्टा पड़ चुका था । तथापि मालकिन को कंठरोध-सा पाए हो आया। सिर चकरा गया। सारे अंग अवशप्राय हो उठे। किसी-किसी तरह अपने-आपको सँभालकर वह धीरे-धीरे घर से बाहर निकल आई और औसारे में पाए से उठँग कर धसकती हुई बैठ गई। हमें संवाद मिला है कि उसे रात के बाद से किसी ने भी मालकिन के मुँह से कोई बात न सुनी। इतना ही नहीं, छिपाने की उनकी विशेष चेष्टा रहने पर भी उनकी आँखों से सदा आँसू झरते देखे जाते हैं ।

चंपा धड़ाक से किवाड़ लगाकर फिर अपनी जगह पर आ बैठी और बोली, "मुझे कोई गाली दे या झाड़ भी मारे तो पलटकर उसका दुःख नहीं लगेगा मुझे तो, पर तुम्हें कोई एक शब्द भी कह दे तो मेरा कलेजा चोट से घायल हो जाता है। मालकिन की बात सुन तो ली तुमने? और कोई होता तो मुँह तक नहीं देखता, हाँ? सारिया की बात को लेकर तो तुमने सब कुछ समझ लिया है। और क्या समझाए कोई तुमको? लगभग साल होने को आया । मुट्ठी-मुट्टी-भर रुपये घर से निकल गए। कटक तक मामला गया। बगीचे का दस-बीस छकड़ा पत्थर मंगला के पास ढो-ढोकर पहुँचा दिया गया। और फिर भी मालकिन कहती हैं क्या तो कि सारिया की छै 'माण' आठ 'गुण्ठ' धरती छोड़ दो, क्या तो कि उसका घर मत उजाड़ो!"

इतना कहकर चंपा दट्टा मारती हँस पड़ी।

घोर नैश निस्तब्धता को भेदता वह पैशाचिक विकट हास्य मालकिन के कर्ण-कुहरों को बेध रहा होगा। संतोष इतना ही है कि उस समय उसके दारुण्य को अनुभव करने की शक्ति उनमें न थी ।

मंगराज और चंपा के बीच जो बातें चलीं, वे औरों को अगोचर ही रहीं। केवल चंपा के मुँह की इतनी-सी बात सुनी गई है कि "तुम तो मुझे एक डोली और चार बहँगियों के भार की जुगत भर कर दो। फिर देख लेना । नहीं कर पाई मैं, तो नाक कटवा लूँगी !"

पंद्रहवाँ अध्याय
बाघसिंह वंश

प्रसिद्ध 'आईने-अकबरी' के लेखक अबुल फ़ज़्ल का कहना है कि उड़ीसा में भूमि के प्रकृत अधिकारी खंडायत ही थे। सचमुच गजपति के दरबार में खाँडे की मूँठ से लेकर लेखनी की नोक तक के सारे राज-काज उन्हीं के हस्तगत थे। वेतन के लिए खजाने से नकद रुपये नहीं जाते थे। उड़ीसा का अधिकांश भूमि-खंड जागीरों के रूप में बंटा था, जिन्हें वे पुरुषानुक्रम से पैतृक संपत्ति के रूप में भोगते आ रहे थे। खंडायतों के बाहु-बल के पुण्य प्रताप से उड़ीसा बहुत काल तक अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने में समर्थ हो सका था। पठान तीन वर्षों से भी अधिक समय तक बंग देश से उचक-उचक कर ताकते घात लगाए बैठ रहे थे, फिर भी सुवर्ण रेखा को पार नहीं कर पाए थे। पाइक लोग सदा राज-दरबार में उपस्थित नहीं रहते थे। दलपति लोग अपने-अपने अधीनस्थ पाइक सिपाहियों को लेकर अपने-अपने अलग-अलग 'चक्र' (इलाक़े) में वास करते थे। दलपतियों की बैठकों का नाम होता था चौपाढ़ी। वहाँ 'मालबिंधान' (मल्लों के विविध दाँवपेंचों), खाँडे-तलवारों के खेत तीरंदाज़ी और गोलीबारी की चाँदमारी, इन चार विद्याओं की चर्चा रहती थी। इसीलिए उस स्थान को 'चौपाढ़ी' कहते थे। गजपति वंश के पतन के अनंतर टोडरमल ने बड़ी-बड़ी चौपाढ़ियों का बंदोवस्त 'क़िलों' के नाम से किया था। उड़ीसा में आज भी अनेक स्थानों पर नाम-मात्र की छोटी-छोटी चौपाढ़ियाँ दिख जाती हैं। प्राचीन दलपतियों के अयोग्य वंशधरों का भी कोई अभाव नहीं है।

हमारा बाघसिंह वंश भी उन्हीं पूर्वोक्त दलपतियों के वंशधरों की ही एक इकाई था। इस इकाई का आस्पद मल्ल था। सबसे बड़ा पुत्र जागीर का उत्तराधिकारी होता था और केवल उसी की उपाधि होती थी 'बाघसिंह' । अन्य पुत्र भत्ते पाते थे। 'खुली परती में रेंड़ देवदार' ('निरस्त पादपे देशे एरंडोऽपिदुमायते' का उड़िया रूप। -अनु.) । 'बाघसिंह' वंश के लोग थे तो बहुत ही छोटे जागीरदार, पर देहात में नाम बहुत था। रतनपुर मौज़े में चौपाढ़ी थी, जो लाख़राज खंडायती महाल में पड़ती थी। उसके सिवा ताल्लुक़ा फ़तहपुर सरखंड एवं कई टुकड़े "फालतू-रपट ज़मींदारी' (दवामी बंदोबस्त के समय मौजूद ज़मींदारियों की नुमायश में बहुत-सी ज़मीन ऐसी निकली जो किसी की जमींदारी में न थी और जो काग़जों में दर्ज रक्तवों से बाहर पड़ती थी। ऐसी ज़मीनें जिनके कब्जे में थीं, उन्हें सरकार ने नए ज़मींदार मान लिया और राजस्व नियत कर दिया। ऐसी नई जमींदारियों को 'फालतू-रपट जर्मीदारी' और ऐसे राजस्व को 'फालतू-रपट राजस्व' कहा गया। -अनु.) के थे। नटवर घनश्याम बाघसिंह ने सारी जमींदारियाँ डाली थीं। थे वह बड़े ही शाहखर्च । खर्च करते समय आगा-पीछा कभी नहीं सोचते थे। न पाँच पर बस बोलते, न सात पर; हाथ में पड़ते ही दे खर्च, दे खर्च । मुँह खोलके कोई चीज माँग बैठे तो नाहीं नहीं सुनाने के भाट-भिखारी के लिए द्वार खुला रहता था। भात की हाँडी चढ़ाकर टोकरी उठाए उनके आगे जा खड़े होने का भरोसा लोगों में पूरा रहता था। खाने-खिलाने में तो एक ही साँड थे वह । गाँव वाले कहते हैं कि बाघसिंह ने जिसे अपने आगे बिठाकर एक बार भी बारीक 'चकुली' पुए, नारियल-पूर 'मंडा' पुए, 'पाळुआ' कंद की खीर आदि खिलाई होगी, वह कभी उस भोजन को मूल नहीं सकता। नटवर घनश्याम क़र्ज़े में नाकों-नाक डूबे हुए थे। उनके जाते ही सारी-की-सारी जमींदारी भी चली गई। बच गई कोई तो बस खंडायत महाल की। नटवर घनश्याम बाघसिंह के चार बेटे हुए। बड़े भीमसेन बाघसिंह, तथा अन्य तीन प्रहलाद मल्ल, कुचुळी मल्ल एवं बळराम मल्ल। बेटे बाप की तरह उड़नबाज़ नहीं, चारों ओर नज़र रखकर चलने वाले हुए। पहले की संपत्ति तो रही नहीं; किसी तरह दुःख में राम-सुख में राम चला जाता है। रेशमी पाटंबर फाड़ भी दो तो लीरा-चिथड़ा रेशमी ही निकलेगा। पुराना घराना जानकर लोग मानते हैं, भय-भक्ति करते हैं। रतनपुर मौज़े में बाघसिंह के घर के अलावा गौड़ (कहार), भंडारी (नाई), राढ़ी, गुड़िया पूतभैया आदि के अठारह घर हैं। ये सभी बाघसिंह के पुरखों की दी हुई जागीरें पुश्त-दर-पुश्त भोगते आ रहे हैं। ज़रूरत के मौकों पर बाघसिंह घर बैठ-बेगार भी कर देते हैं। पुरोहित का घर भी इसी गाँव में है। इनके अलावा आठ घर डोमों के हैं। इन्हें भी पर्वो-तेवहारों पर बाजे बजाने के लिए जागीरें मिली हुई हैं। इनका एक और भी काम है। सिंह के घर पर पहरा देना। आज कोई तीन बरसों से मंगराज के साथ बाघसिंह-वंश का भारी कलह चल रहा है। नाना कारणों से मंगराज बड़े ही चतुर हैं। मामलों-मुक़द्दमों में खूब जहाँबाज़ हैं। पर लाठी का नाम सुनते ही घर से निकलना बंद कर रखते हैं। इधर बाघसिंह वंश का नारा है कि--- "लाठी सर्वार्थसाधिका!" ख़ासकर डोमों के डर से मंगराज के लोग रतनपुर के पास तक नहीं फटक पाते। लेकिन डोम लोग अपनी बाड़ियों में चोरी के माल गाड़ रखने के अपराध में जेल जाते रहते हैं। लोग कहते हैं कि डोमों की किसी भी पीढ़ी ने चोरी की विद्या नहीं जानी, इन्हें जेल भिजवाने में मंगराज को दो थैली रुपये खुरचने पड़ गए। मंगराज की छुट्टा घूमती गायों ने उस दिन रतनपुर मौजे की फ़सल चरकर खेतिहरों की जीविका उजाड़ डाली थी। इसी पर बळराम मल्ल आया था और गोविंदपुर मौज़े की दुकान के ओसारे में बैठकर मंगराज को अच्छे-खासे दो-चार पद सुना गया था। मंगराज मुँह तक खोल नहीं सके। गोविंदपुर से रतनपुर दो कोस हटकर है। फिर भी दोनों मौज़ों के खेत-पथार सटे-सटे हैं। यह बात सर्वदा सुनाई पड़ती रहती है कि मंगराज की गाएँ अकसर रतनपुर मौज़े की खेतियाँ उजाड़ कर दिया करती हैं ।

सोलहवाँ अध्याय
टाडी वाली मौसी

आज नहानी पूनो है। जेठ का महीना। धूप बड़ी कड़ी है। महा-प्रभु 'अणसर' ('अणसर' =अवसर । अर्थात् जब जगन्नाथ को दर्शन देने का अवसर नहीं रहता। आषाढ़ बदी पड़िवा के दिन से पूरे पाख भर । नहानी पूनो (देवस्नान पूर्णिमा) के दिन स्नान-मण्डप में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की त्रिमूर्ति नहलाई जाती है, फिर उन पर रंग छिड़के जाते हैं। स्नान-मंडप से उठकर उन्हें एक घर में रखा जाता है, जहाँ नेत्रोत्सव तक चितेरे उरेहते रहते हैं। रँगी जा रही मूर्तियों के आगे एक टाटी घेर दी जाती है। यात्रियों को पंडे यह बताते हैं कि स्नान के कारण मूर्तियों को जुकाम हो गया है, इसलिए दर्शन नहीं हो सकते। इस 'अणसर' के समय में पुरी के अंवल में असह्य गरमी पड़ती है। -अनु.) पर जा रहे हैं। बड़ी ऊमस है। ढाई माह हुए, बूँद भर भी पानी के दर्शन नहीं। हवा गुम-सुम रहती है। पेड़ों के ठूँठ जगन्नाथ महाप्रभु के आगे वाले गरुड़-खंभ की तरह खड़े हैं। और पेड़ तो और खरिका को कोई पीपल-पात तक नहीं। भूभुर की रेत में मुट्ठी-भर धान डाल दो तो चड़-चड़ करती खीलें भुन उठती हैं। गाँव की अनेरी काली कुतिएँ और कुत्ते पोखर के कीचड़ में पड़े लोटते रहते हैं। टहनी-भर की जीभ काढ़े हाँफ़ते रहते हैं। पानी की ओर जाते तक नहीं। सारा पानी खौल गया है क्या? परतियों में एक भी ढोर-डंगर या गोरू-बछरू नहीं। सभी मवेशी पेड़ों तले बैठे हैं। गोमुखी लिए हरिनाम जपते वैष्णवों की तरह आँखें मूँदे पागुर कर रहे हैं। आसमान में एक भी कौआ या कोयल उड़ने का नाम नहीं लेती। सभी चिड़ियाँ पत्तों में छिपी मुँह बाए बैठी हैं। धूप सिर फाड़े डाल रही है। तीन पहर दिन ढल गया, फिर भी आकाश से आग बरस रही है।

"हुँह मेरे भाई रे हुँहूँह
ख़पुरदार भाई रे हुँहूँह
जोर लबा दे भाई रे हुँहूँह
दाहिने से भाई रे हुँहूँह
बाएँ छोड़ भाई रे हुँहूँह
खड़पा खड़पा खड़पा

(खड़पा=पालकी ढोने वाले कहारों की कठबोली का शब्द अर्थ : 'मेरे पैर में काँटा चुभ गया है, जरा रुक जाना' ।)

रतनपुर मौजे की गलियारी में 'गीड़ों' (कहारों) की आवाज सुनाई पड़ी। आगे-आगे एक डोली है, पीछे-पीछे पाँच बँहगियों पर भार। डोली पूरी-की-पूरी 'दशिया' कपड़े के ओहार से ढकी है। गाँव में पुरुष लगभग कोई नहीं है। खेतों में काम न रहने के कारण सभी बाघसिंह बंधुओं के साथ बलदेव की स्नान-यात्रा देखने केंदारपाड़ा गए हैं। गाँव के इस छोर से उस छोर तक हलचल मच गई : सवारी आई सवारी आई। बुढ़िएँ और अधेड़ स्त्रियाँ धड़ाक-धड़ाक किवाड़े भेड़कर गलियारे में निकल पड़ीं। बहुएँ किवाड़ों को अधखुला रखकर फाँकों में मुँह पूरकर नकबेसर बाहर की ओर निकाले झाँकने लगीं। गाँव की स्त्रियों के बीच डोली-आरोहिणी के संबंध में नाना तर्क-वितर्क उपस्थित हुए। पहले लिंग-विचार फिर व्यक्ति-विनिर्णय। किसी ने कहा नई बहू है; किसी ने कहा जमादार है; किसी ने कहा साहेब है। जेमा की माँ ने अकाट्य युक्ति पेश करते हुए कहा, "आज नहानी पूनो है, जमादार साहेब सागभाजी के भार घर लिए जा रहे हैं। डोली अगर बाघसिंह के चराव की ओर फिरी न होती तो जेमा की माँ के अनुमान के सिद्धांत-रूप में परिणत होने की ज़बरदस्त संभावना थी । कहारों ने डोली को बाघसिंह के दरवाज़े पर धम्म से पटक दिया और अँगोछों से मुँह पोंछने लगे। देहों से धमाधम पसीना चू रहा था। मुँह से अँजुली-अँजुली पसीना वे बाएँ हाथ की हथेलियों से गाड़-गाड़ डालते थे। भीतर ख़बर गई कि नई बहू की मौसी आई हैं। पिछले मकर मास (माघ) में बाघसिंह के बेटे चंद्रमणि की शादी डाली जोड़ा के फतेहसिंह की बेटी से हुई है। डोली के सीधे डालीजोड़ा से आने की बात बिना व्याख्या ही समझ लेने में गाँव की बुद्धिमती स्त्रियों को जरा भी असुविधा नहीं हुई। माणिक नाइन मालकिनों की ख़बर देने भीतर की ओर दौड़ पड़ी।

हमारी माणिक का नाम आपने सुना होगा। न सुना हो तो सुन लेना आवश्यक है। इन्हें मात्र नाइन ही मत समझ बैठिए। क्या सूझ-बूझ में, क्या मामलादारी में, और क्या गुण-गरिमा में, हमारी माणिक किसी भी पुरुष के कान काट सकती है। गाँव के सभी लोग इससे डरते हैं। बड़ी बूढ़ियाँ तक बड़ी-बड़ी पेंचीली बातों में इससे सलाह लेकर ही काम करती हैं। 'गुणी'-विद्या (झाड़-फूँक) में इसके आगे कोई भी टिक नहीं सकता। गाँव के किसी कोमल गोदैल बच्चे को कोई बदनजर लगी नहीं कि यह उसे फूँक मारकर उड़ा डालती है। धाय के काम में भी बड़ी जबरदस्त धुरंधर है। बहू-बेटियों की देह पिराने के दिन से लेकर छठी या नहानी हो जाने तक यह जच्चा के पास से उठने का नाम तक नहीं लेती। जड़ी-बूटियों की पहचान भी इसकी बहुत विस्तृत है। परोपकार करने में जैसे आगे आगे रहती है, झगड़े-टंटे मोल ले-लेकर लड़ने में वैसी ही सिद्धहस्त और ज़बरदस्त है। कभी झगड़े में लगी रह गई तो उस दिन नहाना तक भूल जाती है। किसी की कोई देह-नेह हुई और मीठे सुरों में दो बात उसने माणिक से कह डाली, तो माणिक बिन-खाए बिन-सोए सारी रात बैठी उसके देह पर हाथ फेरती रहेगी। शादी-ब्याह या गीना-'पुआणी' में बुलाओ या मत बुलाओ माणिक आके हाज़िर रहती है; करने को कहो या मत कहो, सारे काम आप ही किए डालती है। ऐसी कोई बात नहीं जो माणिक न जानती हो। कटक की बातें, साहेब के घर की बातें, पुरी जगन्नाथ-मंदिर की बातें आदि तो गाँव की स्त्रियाँ माणिक के मुँह से ही सुन पाती हैं। मछली के बिना तालाब हो सकता है, पर निंदक के बिना कोई गाँव नहीं हो सकता। सो, कोई-कोई लोग कह बैठते हैं कि माणिक गपोड़ है, पेट की हल्की है, झूठ बोलती है, मुँहफट है, मनगढ़ंत आगमबानी (भविष्यवाणी) करती है। वैसे ही, कोई-कोई यह भी कह डाल देते हैं कि इसकी तीन पीढ़ी के पुरखों तक में कोई गाँव की सीमा लाँघ नहीं सका, कटक-वटक और साहेब-वाहेब के घर की बातें भला यह कैसे जान गई? बाघसिंह की हवेली में माणिक की बड़ी पूछ रहती है, बड़ा आदर-मान रहता है। हज़ार बार की कही और सौ बार की सुनी वह कहानी जिसमें राजा के पूत, मंत्री के पूत, साहू-सौदागर के पूत और कोतवाल के पूत, ये चारों मिलकर विदेश जाते हैं, अथवा करैली देवी की कथा, अथवा नदीपार मंगला की कथा, आदि-आदि कहानियाँ सुनने के लिए रोज़ साँझ-पहर मालकिनों का बुलावा आता है। राम-रावण-युद्ध की कहानी को माणिक जुबानीही-जुबानी सुनाती जाती है और जो भी बात पूछो, उसका जवाब निश्चय ही देती है। अलबत्ता, एक बात जरूर है कि वह जो भी कहे उस पर 'हाँ' या 'हूँ' की हुंकारी आपको हर हालत में भरते ही चलना पड़ेगा। इसमें कोई छूट नहीं। और अगर नहीं भरी हुंकारी-खैर नहीं क्यों भरोगे! और जाओगे कहाँ? अच्छा; छोड़िए इस बात को ! "स्वनामा रमणी धन्या!" माणिक को तो गाँव में सभी भली भाँति जानते हैं। उसका परिचय आपको करा देना हमारे लिए अनावश्यक सा ही है।

जिस समय डोली गाँव की गली के ठीक बीचों-बीच में थी, उस समय माणिक ने पीछे रह गए नाई से सारी बातें खोद-खोद के पूछ-ताछकर जान ली थीं। अब वह बाघसिंह के घर के दोमुँह से चिल्लाती हुई हवेली के भीतर पैठी। "बड़ी मालकिन ए, मँझोली मालकिन ए, छोटी मालकिन ए, आओ आओ सभी दौड़ी आओ, कहाँ हो सभी? डालीजोड़ा की समधिन का सवारी आके बड़ी देर से ओसारे के दोमुँह के बाहर रखी हुई है। समधिन के आने की बात मुझे चार दिन पहले ही मालूम हो गई थी। आपको कहना भूल गई थी। वह कल ही डालीजोड़ा से निकल पड़ी थीं। मैंने कहा, यह तो कहो कि इतनी देर कहाँ हो गई? डालीजोड़ा से आने की राह में बड़ा तालाब वह जो पड़ता है ना, उसीमें नहाने-धोने लगीं, सो विलंब हो गया।" बाघसिंह के घर की चारों जेठानी-देवरानियाँ इकट्ठी होकर एक दूसरी का मुँह ताकने लगीं। इसका अर्थ : अभ्यागता अनाहूता समधिन के संबंध में कर्त्तव्य-निरूपण । यह तो कहो कि माणिक वहाँ थी कि कोई बात बनी; उसने झटपट मीमांसा कर डाली। कहा, फौरन जाके समधिन का परिछन कर लाओ।

बाघसिंह के ओसारे वाले फाटक से फूल-नथ और बेसर समेत दो-तीन नासिकाएँ प्रकट हुई। मौसी डोली से उतरीं और धमाधम चरण-चापों के साथ भीतर पैठ गईं । 'समधिन-समधिन' कहती पूर्वोक्त नथ-बेसर-मंडित नासिकाधारिणियों को एक-एक बार अँकवार लिया। गृहाधिष्ठात्री मालकिनें नीरव हास हँसती समधिन को हाथ धरे भीतर ले गई। समधिन की अभ्यर्थना के विषय में अधिक उद्योग-अनुष्ठान माणिक ही कर रही थी। झटपट आगे-आगे दौड़ी जाकर उसने बाघसिंह के पौढ़ने के कमरे के आगे खुले में एक चारेक हाथ लंबी पुरानी दरी बिछा दी। मौसी उस पर बैठ गई और चारों समधिनों को भी हाथ धर-धर के अपने पास ही बिठा लिया। पाँचों बँहगियों का भार बीच आँगन में ला रखा गया। भार का ढड्ढर चिट्ठा यह है : पके आम : एक भार, : मीठे कोयों वाले बड़े-बड़े 'खाजा' कटहलों का जोड़ा : एक भार; दो हत्थों समेत कच्चे-पके केलों की दो घौदें : एक भार; कसार की भाप से उजले पड़ गए केले के पत्तों से बँधे मुँहों वाली बड़ी-बड़ी चार हाँड़ियों के दो भार; -कुल जमा पाँच भार। गाँव की स्त्रियाँ देखने दौड़ीं। रेवती, शुकुरी, शंक्री, माळिया, जेमा की माँ, भीम मौसी, हगुरा की माँ, सोदरी, मेंकी, कनक, नत (झंडा) दादी, सावी, कमळी, पदी अपा (दीदीबुआ), शामा की बहू, नलिता, विष्का, सुमित्रा, गौड़ (कहार) घराने की नई दुल्हन आदि सभी। कोई बच्चे को काँख तले दाबे हुए, तो कोई बच्चे का हाथ पकड़े घसीटती चलाती हुई। कोई किसी के पीछे-पीछे, तो कोई अकेली दौड़ी आ रही। शक्रा की माँ घर लीप रही थी, गोबर-पानी में लिथड़े हाथ को धोने को बेर ही कहाँ थी, यों ही दौड़ी चली आई है और साँप के फन की तरह हाथ को ऊपर उठाए खड़ी है। बाघसिंह का आँगन भर गया। देवी की प्रतिमा के दर्शन करती-सी स्त्रियाँ एकटक से मौसी की रूप-माधुरी का अनुभव-आस्वादन करती रहीं । परंतु बनिया, बंकिया, काळिया, बनमाळिया, रामिया, उमेशिया, काशी, दैत्यारि आदि दुष्ट लड़के मौसी के सौंदर्य के दर्शन के विषय में मनोयोग करने के बजाय 'सुखुआ' के मछहँड़ को घात लगाए निहारती बिल्ली की तरह आँगन में पड़े पके आम और पके केले की घौंदों को निहारते रहे। ऐसा करना असभ्यता और नीति शास्त्र के विरुद्ध है, इसमें तो कोई संदेह नहीं हो सकता। इतना ही नहीं उनके वृत्त की परिधि-रेखा कुछ इस तरह संकोच भाव धारण करती आ रही थी, उनका घेरा कुछ इस तरह सिकुड़ता आ रहा था कि उसके प्रच्छन्न असदभिप्राय को भाँपकर बुद्धिमती माणिक ने ईषत् तर्जन पूर्वक दाहिना हाथ हिलाकर उन्हें अपसारित न कर दिया होता तो इस बात की संभावना बड़ी प्रबल थी कि वहाँ पर लूट-पाट के किसी फौजदारी मामले का कोई वाकया जरूर ही पेश आ गया होता।

बहू-मौसी के माथे पर मंगला की तरह भर-माँग सिंदूर, आँखों में काजल, नाक में नथ और नथ के ऊपर नाचता मोर, नथने के बाएँ पूड़े में बेसर, दोनों कानों में दो बड़े-बड़े 'काप' (कनफूल), गले में चंद्रहार, उसके तले रेशमी धागे में गुँथी सोने की मुहरमाला, बाईं बाँह में विजायठ, कलाइयों पर पहुँचियाँ, पहुँचियों के ऊपर काट (पत्रवलय), उसके भी ऊपर चूड़, हाथ की पाँचों उँगलियों में नाम-छाप की सात अँगूठियाँ, पैरों में चौबीस 'पळ' वजन के काँसे के दो बाँक (वक्राकार कड़े), पैरों की दसों उँगलियों में बिछिया आदि आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। सिर पर दस-बारह रेशमी फुँदनेदार चोटियों से गुँथा विशाल जुड़ा है, जिस पर तीन भेकमुखियों (मेंढक के मुँह के समान आकार वाले घुँघरू-दानों) में खुँसी तीन साँकलदार जुड़ाकाठियाँ हैं। मौसी कुंभकर्णी कोर वाली अठगज्जी बरमपुरी (ब्रह्मपुरी) पटंबर की साड़ी पहने हुए हैं। मुँह में भर-गाल पान हैं। यह तो पहले से ही सुना जा रहा था कि डोली जोड़ा के फतेहसिंह का घराना काफ़ी रौबदाब वाला है, पर अब स्वयं अपनी आँखों से उसका अलंकार वैभव देखकर इस गाँव की स्त्रियाँ यह अच्छी तरह समझ गई कि हाँ, वह घराना घराने जैसा है।

मौसी बैठ गई और बोलीं, "मेरी बिटिया कहाँ है? मेरी बिटिया कहाँ है? बिटिया को देखूँ जरा। आहा मेरी माँ-बिछुड़ी छोरी सूख तो नहीं गई न!" छोटी चचेरी सासुजी नई बहू को ले आई। बहू डेढ़ हाथ घूँघट काढ़े थोड़ा-थोड़ा झुकी-झुकी आई और मौसी के पैरों तले फटाक से सिर पटककर प्रणाम किया। मौसी अपनी बिटिया को अँकवार कर उसके गुणों की चर्चा करती आँसू ढालने लगी, "अरी मेरी बिटिया री, तुझे देखे बिना अंधी हुई जा रही थी। अरी मेरी चाँद-उगी (एक धूप, जिसे जलाने पर चंद्रोदय-सा प्रकाश निकलता है।) री, मेरा घर, अँधेरा कर आई तू! अरे मेरी श्यामा रतन री, मेरी कला-माणिक री!" गुणकीर्तनपरक इस रुदन का वेग बढ़ाते-बढ़ाते मौसी अत्यंत विकल हो उठीं, दोनों आँखों से झर-झर आँसू झरते रहे। बड़ी समधिन ने अँकवार में भरकर अपने आँचल के छोर से उनकी आँखें पोंछ दी एवं अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर उन्हें चुप किया। मौसी ने कहा, "क्या कहती हो समचिन जी, जिस दिन से बेटी चली आई, उस दिन से अन्न-जल सब कड़वे हो उठे हैं। बस हर घड़ी रात को निहारती बैठी रहना, बैठी रहना-इधर से जो भी लोग-बाग निकले, सबसे पूछा करना, जो भी काग-पंछी निकले, सबसे पूछा करना, बस-''

बिटिया तो अचीन्ही आवाज़ सुनकर और गुणकीर्तनमय रुदन का यह नया तर्ज देखकर अकचका-सी गई। मौसी का मुँह देखने को घूँघट ज़रा-ज़रा उठाने लगी। चतुरा मौसी बिटिया के अभिप्राय को सहज ही भाँप गई। घूँघट को फिर नीचे खींच देती हुई बोली, "अरी मेरी लाज की पुतली री, अरी मेरी लजवंती लता री, तुझे लजाना कौन सिखाए भला ! समधिन, क्या कहूँ, इसकी माँ भी ऐसी लाजों वाली थी, बुढ़िया होके मरी, पर सासों के आगे आँख उघार के कभी देखा तक नहीं, घूँघट में कभी ओछ नहीं आई। पीछे सास के साथ कलह तक भले ही करने लगी थी, चचेरी सासों से गाली-गलौज तक भले ही करने लगी थी, पर सब-कुछ घूँघट के भीतर-ही-भीतर से। धान के बीज से झारंग नीवार (जंगली धान-घास, जो धनखेतों में उगती, पकती और झड़ पड़ती है। तीन साल तक झारंग के पौधे बातें पकने से पहले ही उखाड़कर धनखेती साफ़ न रखी जाए तो पूरा खेत झारंगमय हो जाता है और फसल के धान को झारंग दबाकर बिलकुल नष्ट कर डालते हैं। -अनु) थोड़े ही उगेगा? तुलसी की मंजरी से केंवाच थोड़े ही होगा ? तिरिया-धी (स्त्री जाति की) होके भी लाजों वाली न हुई तो ऐसे जीवन को धिक्कार है? खैर, छोड़ो ऐसियों की बातों को।" मौसी की बातें सुनकर बिटिया और भी सिकुड़-सिकुड़कर बिलकुल मेंढक की-सी बनी बैठी रही। घर पर उसने सुना था कि टाडी में उसकी कोई मौसिहाल है। वहाँ की मौसी उसकी माँ की चचेरी बहन होती थी। मन-ही-मन समझ लिया कि यह वही टाडी वाली मौसी है।

उसके बाद बहू मौसी हँस-हँसकर समधिनों के साथ बातें करने लगीं। समधिन-समधिन के बीच होने वाली बातें, हँसी-ठिठोली की बातें तुक-कौतुक की बातें, छिटपुट फुटकर बातें, कानाफूसी की बातें, ढेर सारी बातें हुईं। उन सारी बातों को सुनने की इच्छा आपको तो हो सकती है, पर बात यह है कि भले घरों की बहुओं बहुरियों की बातों को प्रकाशित करने को हम तो कभी राजी नहीं हो सकते । हाँ, सुनने की आपकी इच्छा यदि नितांत ही प्रबल हो तो हम उतना-कुछ बता दे सकते हैं, जितना कहने में किसी प्रकार का दोष न हो बहू मौसी (बहू की मौसी) ने कहा :

"इस साल बड़ा भारी 'योग' पड़ा है, सभी बळदेव का मेला देखने को दौड़ पड़े हैं, हमारा गाँव तो निपट सुनसान पड़ गया है। मैंने सोचा, अच्छा अवसर है, देव-दरस और समधिन से भेंट, एक पंथ दो काज सथ लेंगे। बिटिया को भी देख लूँगी कि कैसी है। सबको हाँक-हाँककर घर से निकाला। मेरे 'वह', और बहनोई जी एक-एक घोड़े पर चढ़कर आगे-आगे निकल गए हैं और कुंज में बैठे हैं। नाई-कहार सारे उन्हीं के संग में हैं। मैंने कहा, ऐसा तो हो नहीं सकता कि बिटिया को देखे बिना ही चली जाऊँ। सो, अकेली ही निकल आई। कल दरस-परस कर लेने के बाद सभी इसी राह लौटेंगे। राह में सुना, समधी लोग भी मेला देखने जा रहे हैं। अच्छा ही हुआ, सभी संग-संग ही लौटेंगे। देखो समधिनो, तुम्हारे साथ न तो कोई सुख-दुःख की बातें ही हो पाई और न कोई विशेष हास-कौतुक ही हो सका। लौटती बेर चार दिन यहीं रुक रहूँगी। बहनोई जी ने कहा था कि एक ही दिन रहना होगा। देखना है, चार दिन कैसे नहीं रहते! कमर में हाथ डालके रोक रखूँगी, हाँ!"

और फिर बिटिया के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, "माँ री, बिटिया री, अहा! बच्ची ही तो ठहरी; कौन जाने मुझे चीन्ह भी न पाए तू? ढेर सारे दिन भी तो हो गए देखे! मैं फिर आऊँगी। अकेले में बैठकर बहुत सारी बातें करूँगी।"

और फिर कानों में गुप-चुप कहा, "मेले से तेरे लिए बहुत सारी चीजें लाऊँगी!"

बाड़ी की ओर जाने की इच्छा जताती बहू-मौसी खड़ी हो गई और बोलीं, "देखो समधिन, बाहर की ओर जाने पर में स्नान करती हूँ । चार बार जाना पड़े तो चारों बार नहाती हूँ। पिछवाड़े भी जाना हुआ तो लोटा भर पानी तो जरूर ही डाल लेती हूँ । कहा भी है, "आचार से लक्ष्मी, विचार से सरस्वती।" वाक्य पूरा करती हुई वह धमाधम करती गलियारे वाले दोमुँह के साथ रखी डोली के पास से निकल गई। साथ का नाई पहले ही लोटा लिए खड़ा था। बहू-मौसी पानी पड़ जाने के भय से लौटे के मुँह पर हाथ फेरती हुई बाड़ी के दरवाजे की ओर निकल गई। बाघसिंह घराने की दासी मुतरी की माँ ओलती-तले से दिखाती हुई आप बाड़ी के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो रही बहू-मौसी ने उसे निहारकर कहा, "सुबह मुझे बहुत तकलीफ़ हुई। क्या करती, चारों ओर लोग थे । पुरुष हो कि स्त्री, किसी के भी देखते रहने पर में बैठ ही नहीं सकती।" मुतुरी की माँ ने कहा, "नहीं नहीं, आप जाएँ, जाएँ, यहाँ कोई नहीं।" और घर के भीतर आकर उसने बाड़ी जाने के दरवाजे का किवाड़ उठँग दिया।

अँधेरा हो आया। बहू-मौसी बोलीं, "अब मैं रुक नहीं सकती। वे बाट जोहते बैठे होंगे।" समधिनों ने कुछ खा लेने को कहां बहूमौसी जीभ काटती बोलीं, "राम राम राम! यह क्या कहा समधिन, यह कहा क्या? जिस घर धी दी है, उसका पानी छुऊँगी भला?" विदा होते समय बहू-मौसी मसधिनों को अँकवारती हुई बोलीं,

"विदा करो सखि है, अब चली में, हिया को बंधक यहीं पे रख के !
काटे कटेंगे न दिन कि रतियाँ सिसक-सिसक के, फफक-फफक के?"

गाँव से निकल के डोली बाहर के पाँतर की राह पर अँधेरे में खो गई। इधर सौगात के पाँचों भार मालिकों को दिखलाने के लिए सहेज रखे गए। बहू-मौसी की, विदाई के बाद उनके रूप-गुण के बारे में बड़ी ही चर्चा रही प्रशंसा सभी ने की। किसी ने रूप की, तो किसी ने गुण की किसी ने गहनों-अलंकारों की तो किसी ने पके केलों की। एक माणिक ही ऐसी थी जो बोली, "अरे, हुआ हुआ, बड़ी आई बड़े घराने वाली ! रूप-जैसा कोई रूप भी नहीं है, गाल दोनों उआउ के फल की तरह हैं।" हगुरा की माँ ने कहा, "बातों में एक भी बात मीठी नहीं, जो भी बात की, "ठसर-ठसर' !" मुतुरी की माँ ने कहा, "हाँ, हाँ । और हँसी भी 'वसर फसर' ! शुक्री ने कहा, "और चितवन 'कसर'-मसर' !" पल-भर में ही "एको हि गुण में दोषसन्निपातः" हो गया। नई दुल्हन से मौसी के बारे में अनेक प्रश्न किए गए । उस विचारी ने बस इतना ही कहा :

''टाडी वाली मौसी !"

सत्रहवाँ अध्याय
घर कैसे जला

आज अनंतपुर गाँव में हाहाकार मचा हुआ है। पिछली आधी रात के समय से बाघसिंह के घर में आग लगी हुई है। सारा घर जलकर राख हो गया। धान की तमाम बखारें स्वाहा हो गई। राख-पुती काली-काली दीवारें-मात्र ही खड़ी हैं। आग अभी तक बुझ नहीं पाई है। छान घर के भीतर बैठ गई है। और वहीं धू-धू करके जल रही है। कोरो के बाँस फटाफट फट रहे हैं। दीवार के ऊपर कहीं बाँस का कोई जोड़ा, तो कहीं फूँस की कोई झूँझ अब भी अटकी हुई जल रही है। मोटे-मोटे खंभे अग्नि-स्तम्भों जैसे दिख रहे हैं। चौखट में आग, किवाड़ों में आग चारों ओर आग-ही-आग है। धनसर में आग घुस चुकी है और भारी घुम्मटदार धुआँ उठ रहा है। जेठ के दिन हैं, छान-छप्पर सूखकर धूपलोहबान से हो उठे थे। पास फटकने का साहस किसे होता भला? हवा अब तक कहाँ थी? केवल मिट्टी की छत वाले आले के भीतर ही आग अभी तक पैठ नहीं पाई है। किवाड़ों को तो पकड़ चुकी है। हलवाहे घड़ों के घड़े पानी डाल-डालकर किवाड़ के पास जाने की चेष्टा कर रहे हैं। मेले से यात्री लौट आए हैं। छः घड़ी दिन चढ़ चुका है। नीचे आग, ऊपर आग, घर से एक तिनका तक भी निकल नहीं पाया है। आधी रात को लगी थी आग, स्त्रियाँ नींद में बौराई पटकनियाँ खाती हुई किसी तरह अपनी देह पर के कपड़े ही लेके बाहर निकल पाईं। वे बाग के पेड़ों की छाँह में बैठी हैं। घर में लगी आग को देख-देखकर वनबिलारियों की तरह चीख़ रही हैं। हलवाहे गाय-बैल खोलकर पहले ही दूर भाग खड़े हुए थे। उन्होंने कोशिश की होती तो कितनी ही वस्तुएँ बचा ली होतीं। पर औरों की खातिर आग में पैठकर अपनी जान जोखम में डालें, ऐसे लोग होते ही कितने हैं? दिन डूब चला है। बाघसिंह के घर के बच्चे से लेकर बूढ़ों तक किसी के भी मुँह में अभी दाँतनों तक का स्पर्श नहीं हो पाया था; बच्चों और बहुओं को तो काठ मार गया था। बूढ़े पुरोहित केळू रथ ने बहुत समझा-बुझाकर उन्हें दाँतन कराया। अपने घर से गुड़, चिवड़ा और काँसे की कटोरियों-कटोरियों माँड़ ला-लाकर सभी को थोड़ा-थोड़ा खिलाया-पिलाया और इस तरह उनके होश-हवास लौटाए। स्त्रियों में से किसी ने खाया, किसी ने नहीं खाया। जिन्हें अन्न नहीं भावा, उन्होंने लोटे का लोटा पानी गटागट पी लिया और बाघसिंह के घर की ओर निहारती वहीं लोट-लोट गई। धनसर के अलावा और घरों की जाग बुझ चली, किसी-किसी घर से अब थोड़ा-थोड़ा धुआँ उठ रहा है। कोई दो घड़ी रात गई होगी, भाइयों सहित बाघसिंह और गाँव के तमाम लोग एक पेड़ तते बैठे हैं। बाघसिंह ने पूछा, "आग कैसे लगी?" सभी का सवाल यही था कि आग लगी कैसे ! जवाब कौन दे? कैळू रथ ने कहा, "आग लगाएगा कौन। बाघ के द्वार पर आएगा कौन? सब हिंगुला ठकुरानी की माया है।" सभी उनका मुँह ताकने लगे। ठीक, बात तो ठीक है? गोविंद रथ बोले, "नाहीं हो वह नहीं ! कोप बूढ़ी मंगला का है। देखते नहीं, मंगराज साल-ब-साल पूजा देता रहता है उन्हें? मैंने कई बार कहा कि पूजा भिजवाओ पर सुना ही नहीं किसी ने अब देख लिया न ? बिना समझे-वृझे मैं कभी कोई बात नहीं करता। ठकुरानी रूठी न होतीं तो ओलती के पिछवाड़े रस्सियों के दूह में आग कहाँ से आ जाती ?" माणिक ने कहा, "वह सब बात चाहे जो भी हो, नई वह का पैरा बड़ा बुरा है। जिस दिन से उसने इस घर में पैर रखे, उस दिन से कोई-न-कोई अमंगल लगा ही है, सोलहों आने सच । डर के मारे ही मैं कह नहीं पा रही थी। देखा नहीं, चैत में कहीं कुछ नहीं, कहीं कुछ नहीं, और गैया को सौंप आके डस गया ! साँप क्या पहले से गाँव में नहीं थे? पर गाय को कब डसा था उन्होंने? मेरे तो बारह 'पुंजा' (बारह गंडे, अर्थात् अड़तालीस साल) वयस हो गई, पर यह कभी न सुना था कि बाघसिंह की गाय को सौंप ने काट खाया है!" मकरा हलवाहे ने कहा, "नहीं तो क्या? दो बरसों के भीतर-ही-भीतर मकुने हाथी-जैसे दो-दो बेल बैठ-बैठ गए।" अर्जुना हलवाहे ने कहा, "इसी अमराई में आमों को ढोर चरा करते थे, इस साल आमों के दर्शन भी सपना हो गए हैं।" हलवाहों-हलवाहिनों, नाइयों-नाइनों आदि सभी के अनुमान युक्तियों और प्रमाणों के प्रयोग के द्वारा अब स्थिर हो गए और सभी ने यही निष्कर्ष निकाला कि घर के जलने का कारण बहू के पैरों का बंद होना ही है। इसी निष्कर्ष की पुष्टि के लिए माणिक ने फिर कहा, "देखा नहीं, बहू-मौसी को पधारे न तो कोई तीन दिन हुए न तीन पाख, अमंगल संग-संग की लगा चला आया !" बाघसिंह ने पूछा, "बहु-मौसी कौन, बहू-मौसी कौन?" माणिक ने डोली चढ़ी बहू-मौसी के आगमन, डोलीजोड़ा के फतेहसिंह की अश्वारोहण-पूर्वक देवदर्शन यात्रा इत्यादि पूर्वकथित वृत्तांत को यथादृष्ट-यथाश्रुत सालंकार वर्णित किया एवं साथ-ही-साथ मौसी के लाए भारों की संख्या तथा भारस्थित पदार्थों की विषय-वर्णना करना भी वह नहीं भूली। केवटनी साबीकी माँ ने कहा, "चिवड़ा बेचने कई बार गोविंदपुर जाके देख आई हूँ, बहू-मौसी का रूप ठीक वैसा ही था जैसा रामचंद्र मंगराज के घर की चंपा का है।" शंकर हलवाहे ने कहा, "कटहल का भार जो लाया था न वह मंगराज का हलवाहा है!" बाघसिंह-भाइयों ने एक दूसरे का मुँह ताका। कहने लगे, "कहाँ भला? केंदरापाड़ा से हम लोग तो सड़कों-सड़कों ही आ रहे हैं। डोली या घोड़ा तो कहीं नहीं दिखा ?" केंदरापाड़ा की सड़क पर और डालीजोड़ा फतेहसिंह के घर रातों-रात लोग दौड़ाए गए। लौटकर उन्होंने जो संवाद दिया, उससे यही पता चला कि "सर्वैव मिथ्या!" इस घटना पर गाँव में कई दिनों तक चर्चा रही। फिर आस-पास के गाँवों में बात फैली। सबका यही अनुमान हुआ कि यह तो मंगला की ही माया है। हमारा यह कहना है कि इसमें पिशाची का हाथ हो सकता है। डालीजोड़ा के फतेहसिंह पूछ-पुछारत करने आए तो अपनी बेटी को संग लिए गए। लोग कहते हैं, बच्ची जिस तरह अन्न-जल त्यागे बैठी थी, उससे यह निश्चित था कि बाप आके उसे ले न गया होता तो उसके प्राणों का बच पाना असंभव था।

अठारहवाँ अध्याय
मालकिन

"केसु न कासु काल-कर गहहीं

जसु-अपजसु महितल-महि रहहीं!"

सावन का महीना था। राधाष्टमी का दिन। भोर-भिनसार का पहर था। अभी थोड़ा-थोड़ा अँधियारा ही था। पूरी पौ भी नहीं फटी थी। लोग बिछौने छोड़के उठे तक नहीं थे। हाँ, नींद ज़रूर खुल चुकी थी बहुतेरों की। कोई ख़ास जरूरी काम न हो तो जाड़ों और बरसातों के भोर-पहर का बिछौना लोगों को कुछ देर अपने से चिपकाए रहता है। मंगराज के घर की ख़वासिन मरुआ ने बाएँ हाथ में लोटा लिया और खाने-वाले (अर्थात् दाहिने) हाथ से किवाड़ खोलकर बाहर निकल पड़ी। अचानक उसकी निगाह चौरे पर पड़ गई और वह हक्की-बक्की हुई जहाँ-की-तहाँ ठिठकी रह गई। चौरे के पास वह उजला-उजला सा क्या है? तुलसी-चौरा मंगराज के आँगन के बीचों-बीच है। इस दुनिया में मालकिन का अगर अपना कहने को कुछ है तो बस यह चौरा ही है। वृंदावती की 'पूजा उनके जीवन का व्रत है। बगीचे से बिरवा लाके अपने ही हाथों रोपा था। भोर-पहर उठकर चौरे के चौगिर्द झाड़-बुहार करना, गोबर का छिड़काव करना, नहाने के बाद आके उसकी जड़ में जल ढालना, मुट्ठी-भर अरवा चावल का भोग लगाना, साँझ को संझा-बाती दिखाना, ये सारे काम ऐसे हैं, जिन्हें करते कराते उनके दिन पूरे नहीं पड़ते। संझा-बाती दिखाने के बाद गले में आँचल लपेटकर पूरे आध घंटे तक वह तुलसी को माथा टेकती हैं। गुहरा-गुहरा के चुपचाप क्या-क्या कहती हैं, सो वृंदावती ही जानें। मरुआ धीरे-धीरे चौरे के पास गई और भली तरह निहार के देखा। एँ ऽऽ.... यह क्या? मालकिन एँ ऽ? "मालकिन, मालकिन ए-, मालकिन ए-, मालकिन ए-!" कोई उत्तर नहीं। लोटा नीचे पटक दिया और उनकी देह में हाथ लगाके हिलाया। रात में दौंगरा भर गहरी बौछार पड़ चुकी थी। कपड़े-लत्ते गीले थे। कीच में लथपथ देह काठ-सी अकड़ गई थी। ओले-सी ठंडी हिंवाल पड़ गई थी। मरुआ ने एक भयावनी-सी चीख मारी और रो-रो के स्यापा करने बैठ गई। "मेरी मालकिन री, मेरी मालकिन। कहाँ छोड़ गई री, - मेरी मालकिन ! चिउँटी-पिपड़ी के भी पेट के दर्द कौन जानेगा री,-मेरी मालकिन ! ज्वर ताप में पड़ँगी तो पथ्य कौन खिलायगा री,- मेरी मालकिन !" मरुआ का विलाप सुनकर हवेली के सभी लोग दौड़ आए। आँगन भर गया। सभी औरतें स्थापा करने बैठ गई। बहुओं के सिर पर घूँघट की कोर तक नहीं थी, रोते-रोते वे लोट-पोट हो रही थीं। सबसे अधिक विलाप चंपा ने किया। वह बाड़ी वाले द्वार से गलियारी वाले तक दौड़-दौड़कर चिल्ला रही थी। सभी रोने-पीटने में लगी थीं, चुप कराए भी तो किसको कौन कराए? पल-भर में समाचार बिजली की तरह गाँव के इस छोर से उस छोर तक फैल गया। स्त्रियाँ बासी-बसियौड़ा उतारने के घर-काज छोड़कर और पुरुष अपने नित के दुःख-धंधे छोड़कर मालकिन के गुन गाने बैठ गए। नितांत निसंपर्क स्त्रियाँ भी रो पड़ीं। किसी ने कहा, "आज महाष्टमी के पुण्य दिन को ही गाँव की लक्ष्मी चली गई।" किसी ने कहा, "मंगराज के घर की बढ़ती इतने ही तक बदी थी, आज से उसकी श्री उत्तर गई।" गाँव की स्त्रियाँ आपसी बातचीत में पति-सेवा की बात उठने पर मालकिन का ही पटतर देती थीं। उनका चरित्र जैसा निर्मल था, धर्म में उनकी आस्था भी वैसी ही अडिग थी। स्त्रियों का सरबस-धन 'पति का सुहाग' ही होता है। बेचारी मालकिन सुहागिन तो थीं, पर उनके कपाल से विधाता ने 'पति के सुहाग' की रेख पोंछ डाली थी। हाँ, इसकी चिंता या पछतावा उन्हें नहीं था। उन्होंने अपने मन में यह सिद्धांत भली भाँति समझ लिया था कि पति की सेवा ही स्त्रियों का धर्म है और पति की सेवा में ही स्त्रियों का सुख निहित है। पतिसेवा ही नहीं, मनुष्य-मात्र की सेवा उनके विचार में महासुखकर वस्तु थी। बेटों ने तो पास फटकना उसी दिन से छोड़ दिया था, जिस दिन से उन्होंने बहुओं की माँगें छुई थीं। यह नहीं कि बहुएँ कोई अमान्यता करती रही हों, पर वह मान-मानता उन्हें नहीं मिली जो सास-जैसी गुरुजन-स्थानीय को अपनी बहुओं से मिलनी चाहिए। यह बात कभी देखने में नहीं आई कि सासूजी के वीमार-बीमार होने पर बहुओं में से किसी ने किसी दिन उनके हाथ-पैर पर तेल का हाथ फेर दिया हो। किन्तु यह तो मालकिन के निज-कृत दोष का ही फल था। किसी के ऊपर रौब गाँठने, घरनीपना जताने, बेटों, बहुओं, नौकरों, लौंडियों आदि को बिगड़ने न देने और शासन में रखने की क्षमता उनमें नहीं थी। पर फिर भी इस बात से वह दुखी नहीं थीं। उनके लिए तो धुली मूली और बिन-धुली मूली दोनों ही समान थीं। उन्हें जिसने मान दिया सो भी और जिसने न माना सो भी, दोनों ही एक-से लगते थे। यह भला, वह भी भला ! किसी ने दस गालियाँ भी दे डालीं तो वह गूँगी- बतहारी सी अकबका रहतीं। जिस तरह शालिग्राम का सोना-बैठना कोई जान नहीं सकता, उसी तरह किसी को मालकिन के रोने-हँसने का पता भी नहीं चल सकता था। उन्हें कभी किसी ने किसी के साथ झगड़े-टंटे करते नहीं देखा, कभी किसी के पास बैठकर सुख-दुःख की दो बातें करते नहीं देखा। हाँ, हवेली में कोई भी बीमार पड़ जाए तो वह दिन को दिन और रात को रात नहीं गिनतीं, जगी बैठी सेवा करती रहतीं, रखवाली करती रहतीं। बीमार चाहे बहू हो, चाहे कोई दासी-लौंडी हो, लाख नाहीं-नाहीं करने पर भी वह हाथ-पैर दाब देतीं। घर हो कि बाहर हो, कोई अगर उपासा-पियासा हो तो उसे खिलाए-पिलाए बिना खुद जल तक का स्पर्श नहीं करतीं। गाँव के दीन-दुखियों, बूढ़ियों, अनाथों और असहाय बेवाओं की खोज-ख़बर वह सर्वदा रखती थीं। किसी के घर में रसद-पानी के चुक जाने की सुनते ही वह मालिक से छिपाकर, बेटों-बहुओं से छिपाकर, किसी को 'माण' भर चावल तो किसी को मुट्ठी भर 'बिरि'-दाल, किसी को चुटकी-भर नमक, तो किसी को जरा सा तेल, किसी को एकाध कुँहड़ा तो किसी को थोड़ी-सी भिंडी-झिंगी आदि ग़रज यह कि जिसकी जरूरत होती, भिजवा देतीं। गाँव की किसी बहू-बेटी के दुख-पीर उठने पर लोंडी ख़वासिन भेजकर पूछ-ताछ करातीं। दें या न दें, दीन-दुखियों को उनसे बड़ा ही तोष-भरोस होता। सहारा रहता था। सुनते हैं, अनेक लाचार देनदारों और फटे-हाल रैयतों को मालकिन की जतन-जुगुत से ही मंगराज के जबड़ों से छुटकारा मिल पाया था। मंगराज ने जिस पर कोई ज़ोर-जुल्म किया, उसने अगर अपनी बहू-बेटी को भेजकर मालकिन के कानों में अपने दुखड़े की बात किसी तरह डाल दी, तो समझो कि बस! इसके लिए उन्हें मंगराज से ढेर सारी गाली फजीहत मिलती, डाँट-फटकार मिलती, यातना-गंजना मिलती। बोली-ठोली में चंपा भी न जाने कैसी-कैसी बातें सुना डालती। पर उस समय मालकिन तो बिलकुल बाहरी-सी बनी रहतीं। किसी का उपकार कर पाने पर उन्हें मानो कोटि-निधि मिल जाती। शिबू पंडित साधु भाषा में कहते कि मालकिन दया, स्नेह, भक्ति प्रभृति स्वर्गीय गुणावली की मूर्तिमती देवी हैं।

पर मालकिन का एक स्वभाव बड़ा ही विचित्र था। हम अभी तक यह स्थिर नहीं कर पाए हैं कि वह उनका दोष था या गुण। आप स्वयं समझ लें। इधर-उधर सात-पाँच की जोड़-तोड़ करके बात को रंगीनी और भंगिमा के साथ कहने की शक्ति उनमें नहीं थी। और बात करती भी थीं वह तो इतने धीमे सुरों कि बाहर वाले दरवाजे पर लोगों ने आज तक कभी उनकी आवाज़ नहीं सुनी। हाँ, अगर हवेली के अंदर मालिक किसी लौंडिया या नौकर पर रिसिया-खिसियाकर मार-पीट या गाली-गलौज करने लगते तो वह बिना कुछ बूझे-सूझे बीच में कूद पड़ती एवं विविध युक्तियों के प्रयोग द्वारा उसकी निर्दोषिता प्रमाणित कराने की नाना चेष्टाएँ करतीं। ऐसे समय उनका सत्य-मिथ्या-ज्ञान उन्हें छोड़ जाता। सुतराम्, मालिक का कोप पलटकर मालकिन के माथे ही आ पड़ता। औरों के लिए, विशेष करके किसी दोषी-अपराधी की रक्षा के लिए, झूठ कहना एवं औरों के अपराध के लिए आप लांछित होना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। यह ठीक है, पर फिर भी उनका स्वभाव आज तक बदल नहीं पाया था। "स्वभावो नैव मुच्यते!" कोई दोषी हो कि निर्दोष हो, किसी को दुःख में देखते ही वह रो पड़ती थीं।

एक बात और भी। हवेली के भीतर दो लौंडियों के बीच या बहुओं-बहुओं के बीच झगड़ा-टंटा होने पर उन्हें अकसर ही कमजोर पक्ष का पक्ष लेते देखा जाता था। यह तो खैर साफ़ ही पक्षपात की निशानी है समझ-बूझकर पक्ष लेना ठीक होता है। यह एक गुण है। पर उनमें इस गुण का नितांत अभाव था।

मालकिन में एक महान् दोष था हाँ, महान् दोष ही कहना पड़ेगा। इस दोष के कारण मालिक उनसे सदा नाराज रहते आए। मालकिन में गिरस्तिन-बुद्धि का लेश-मात्र भी नहीं था। वह इस बात को बिलकुल नहीं जानती थीं कि रुपया-पैसा कैसा अनमोल पदार्थ है। पैसे की उन्हें चाह नहीं होती कभी, और इसलिए ऐसे कभी उनके हत्थे नहीं चढ़ते दैवयोग से कभी कोई दुवन्नी-चवन्नी या रुपया-अठन्नी उनके हाथों में पड़ भी जाती तो वह उसे धान उसनने (भपाने) की हाँड़ी तले । या कन-कोराई की हाँडीतले तोप डालतीं या छान-छप्पर की कोरो-बाती में खोंस रखतीं। गाँव से किसी की बेटी ससुराल जाने लगती तो उसे कोई साड़ी या फुँदनेदार रेशमी चोटी का जोड़ा, या दो 'माण' (अनाज तोलने का माप 11 'माण'=1 'गउणी' 20 'गउणी' =1 भरण चारसेरी 'गउणी' का 'माण'= 1 सेर, छलेरी का 1 सेर ।) लाई-लड्डू आदि मोल से देतीं। यह भी न हुआ तो ये पैसे किसी ऐसे के भाग्य में पड़ते, जिसके घर में किसी दिन खरची घट गई हो । ऐसे दानों की बात सुनी ही जाती है, कभी किसी ने देते देखा नहीं है। जो हो, यह मालकिन का दोष रहा हो या गुण रहा हो, आज तो घर-बाहर सभी उनके लिए हाय-हाय कर रहे हैं। अगर नहीं रो रहा कोई तो केवल एक ही आदमी। वह है मुकुंदा हलवाहा। पोपले मुँह को बाएँ, आँखें मूँद, सुखी-लंबी टाँगें पसारे चहार-दीवारी से उठँगा-बैठा है। मुकुंदा के तीनों कुलों में किसी भी कुटुंबी के होने की कोई ख़बर नहीं है। उसकी वयस, जाति, कुल, गुण, गाँव आदि की क्या पूछते हैं? बापुरे हलवाहे की बात पूछता ही कौन है? वह आप ही कहता है कि मालकिन के जन्म के समय वह दाई को बुलाने गया था, कि इत्ती सी मालकिन उसी की गोद में मायके से समुराल आई थीं। "खग जानै खग ही की भाखा"! और गूँगे की बात गूँगे की माँ ही जानती है । सो, केवल मुकुंदा ही मालकिन के मन की बात समझता था। मालकिन के मन को किसी बात पर दुःख होता तो मुकुंदा आकर टुकुर-टुकुर उनका मुँह निहारने लगता। मालकिन उसके मुँह को देखकर सिर झुका लेतीं। उसी चितवन में अर्थात् उसी अशब्द वक्तृता में सारी बातें तय पा जातीं। मालकिन ढाढस न पाके चुप हो जातीं । मालकिन को जरा भी दुखी होने पर जिसकी आँखों से झर-झर आँसू बह चलते थे, वही आज उन्हें मरी पड़ी देखकर भी रोता तक नहीं है। जिसके संसार के सारे सुख, सारी शांति, सारी आशा, सारा भरोसा, सारी सांत्वना, समस्त स्नेह एक साथ ही निश्शेष हो जाते हैं, वह रोता नहीं है। वह तो रह-रहकर केवल फों-फों उसाँसें भर छोड़ता है। जान पड़ता है कि इसी कारण उसका शुष्क हृदय फट नहीं पाता।

मंगराज सिर के पास बैठे एकटक से मालकिन का मुँह निहार रहे हैं। दोनों निश्चल-स्तब्ध आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं। आज तक कभी किसी ने मंगराज की आँखों में आँसू नहीं देखे थे यह नई बात देखी गई आज । कहते हैं, नेह-मोह माया-ममता, शील-संकोच, धर्म-कर्म आदि मंगराज के मन को छू तक नहीं गए। उन्होंने यह बात भली भाँति समझ ली थी कि "टका एव मनुष्यानाम् चतुर्वर्गफलप्रदाः ।" दिन-रात टका ही उनका ध्यान था और टका ही था उनका ज्ञान । चुपचाप बैठे सोचा करना तो उनको अनेक बार देखा जा चुका है। पर ऐसे समय में उनकी आँखों से एक प्रकार की जोत निकलती है। बेलाभूमि में लीन हो-हो जाती समुद्र-गर्भ-जात उत्ताल तरंग-माला की तरंह हृदय-जात नाना आशाओं-चिंताओं की तरंगें उनकी भ्रू-लता के ऊपर रेखाकार धारण करती हुई लीन हो हो जातीं। परंतु आज की भावना का रूप ही कुछ और है। नेत्र अर्द्धनिमीलित हैं, स्पंदनशून्य हैं, अश्रुसिक्त हैं । तो क्या मंगराज मालकिन के लिए रो रहे हैं? प्रिय वस्तु का वियोग मनुष्य के लिए असह्य होता है। तो क्या मंगराज ने पवित्र दांपत्य-प्रेम की स्वर्गीय माधुरी का अनुभव किया था? पर कहाँ, दिखाई तो नहीं पड़ता ऐसा कुछ भी ! मालकिन के साथ प्रेम की दो बातें करते उन्हें कभी किसी ने नहीं सुना। तो फिर वह आज इतने व्याकुल क्यों हैं? जो भी हो, सहज विश्वास के बल पर हमें आज इस बात का बोध हो रहा है कि वह मालकिन से विच्छेद की यंत्रणा का अनुभव कर रहे हैं। जिसे आपने आठ कलशों की वेदी पर ब्याहकर अर्द्धांग के रूप में ग्रहण किया हो, वह भला हो या बुरा, भली हो या बुरी, उसके प्रति एक माया तो होती ही है। इस नैसर्गिक मानवधर्म का अतिक्रमण करना कोई सहजसाध्य नहीं होता। जो स्त्री धर्मकार्यों में सहधर्मिणी, प्राणाधिक संतान-संततियों की जननी, सुख-दुःख में एकमात्र समभागिनी, रोग में शुश्रूषाकारिणी, विपद् में मंत्री और शरीर रक्षा में धात्री होती है, उसे यदि आप नितांत पाषाण न हो तो, उसकी गुणगरिमा का अनुभव करने की शक्ति का आपमें नितांत अभाव हो तो-जीवन-काल में आपने प्रेम किया हो या न किया हो, परंतु मरने पर उसके विच्छेद की यंत्रणा तो आपको निश्चय ही भोगनी पड़ेगी। और जिस व्यक्ति ने एक बार भी साध्वी, सच्चरित्रा, पतिपरायणा, धार्मिका स्त्री की गुण-गरिमा का हृदय से अनुभव कर लिया हो, उसकी विच्छेद-यंत्रणा कैसी असह्य होती है, इसका वर्णन कर सकने योग्य भाषा की सृष्टि अभी नहीं हुई है। उसे तो स्त्री-वियोग-बिधुर व्यक्ति केवल हृदय-ही-हृदय में अनुभव करता है, नाग ने जिसे डसा हो, वह विष की यंत्रणा जानता तो है, कहकर समझा नहीं सकता। समझाने की बात वह होती भी नहीं । यह तो केवल वही व्यक्ति जानता है कि समस्त शोणितवाहिनी शिराएँ छिन्न-भिन्न हुई जा रही हैं, कि हृत्पिंड शुष्क पड़ा है। यह तो केवल वही व्यक्ति जानता है कि जगत् के समस्त सुंदर पदार्थों का सौंदर्य, समस्त माधुर्यों की मधुरिमा, समस्त पुष्पों की सुगंध, समस्त संगीत की तानलहरी, समस्त पवित्रता चिताग्नि में भस्म हो चुकी है। संक्षेप में कहें तो वह अपने-आपको मृतकों में जीवित और जीवितों में मृत समझता है।

मंगराज के जीवन में दो नदियाँ प्रवाहित थीं । एक थी उत्ताल तरंगमयी, सर्पकुंभीरसंकुला, कूलप्लाविनी चर्मण्वती और दूसरी अंतसस्रोता पूतसलिला कूलपावनी फल्गु । हो न हो, मंगराज अब यह समझ गए हैं कि फल्गु ने चिरविदा ले ली! मद्यप के आगे एक कटोरी में जल और दूसरी कटोरी में मंदिरा रखी हो तो वह सुरा-पात्र का ही अधिक आदर करता है। हाँ, यह अवश्य है कि जब जल वाले पात्र का नितांत अभाव घटित हो जाता है, तब उसे भी यह समझ आ जाती है कि सुरा 'उन्मादकारिणी भले ही हो, पर जल तो जीवन है।

मंगराज की अवस्था को देखकर हमने यह अनुमान कर लिया है कि उसके हृदय में दुःख और अनुताप दोनों ही उपस्थित हैं। दुःख में मनुष्य रोता है, अनुताप में नहीं रोता। दुःख हृदय का ज्वलंत अंगारा है, अनुताप तृषानल है। तो क्या उन्हें इस बात का अनुताप हो रहा है कि उनकी निज की दृष्कृति के साथ, निज के अयत्न के साथ, मालकिन की मृत्यु का निकट संपर्क रहा है? दुष्कृतियाँ तो उनके हाथों संख्यातीत अनुष्ठित हुई हैं। पर कहाँ, कभी तो उन्हें किसी ने अनुताप करते नहीं देखा? पर कौन कहे? क्षण-क्षण परिवर्तनशील मानव-स्वभाव को कौन जानता है? विश्व-विधाता ने तो जगत् के समस्त नर-नारियों का सृजन समान उपादान से ही किया है। जिस तरह सभी के शरीर रक्त, मांस, अस्थि, मल, मूत्र आदि से गठित हैं, उसी तरह सभी के मन भी एक-जैसी दया, माया, स्नेह, ममता, हिंसा, द्वेष, निष्ठुरता आदि वृत्तियों से गठित हुए हैं। ये सभी वृत्तियाँ यदि उपयुक्त रूप से, समान भाव से, कार्यरत हों, तो मनुष्य मनुष्य रहता है। हाँ, जब कोई उपादान बलवत्तर होकर सीमा का उल्लंघन करते हुए अन्य वृत्तियों के ऊपर अपने आधिपत्य का विस्तार करता है, तब मनुष्य की मनुष्यता का लोप हो जाता है। उस समय या तो वह देवता हो जाता है, या राक्षस के रूप में परिणत हो जाता है। अर्थात् मानव का मानस स्वर्गीय और नारकीय, दो प्रकार की वृत्तियों से गठित है। स्वर्गीय वृत्ति मनुष्य को देव-रूप में परिणत करती है और नारकीय वृत्ति उसे राक्षस बना डालती है। यदि आप यह सुनें कि किसी ने दया-परवश होकर किसी और के जीवन की रक्षा करते हुए स्वयं अपने जीवन का विसर्जन कर दिया, तो क्या आप उसे देवता नहीं कहेंगे? और जब आप सुनते हैं कि किसी ने थोड़े-से सोने या चाँदी के अलंकार के लिए कोई शिशु-घात किया है, तो आप मिला देखें कि पुराणों में वर्णित राक्षस के साथ उसका मेल बैठता है कि नहीं! तब हाँ, ये दृष्टांत विरल न होते हुए भी कोई ऐसे नहीं कि हर कहीं देखे जा सकते हों। मनुष्य चिरकाल से मनुष्य है और रहेगा। मनुष्य के जन्म-कारण और मन के उपादान समान रहते हुए भी उसकी बाह्य प्रकृति सदा से असामंजस्यमय है। और रहेगी। कोटि-कोटि मनुष्यों के बीच भी एक के रूप के साथ दूसरे का रूप कभी पूरा मिलता-जुलता नहीं होता। मानव की प्रकृति भी वैसी ही है। किसी-किसी की कोई-कोई चित्तवृत्ति बलवती होती है तो किसी की कोई दुर्बल। किसी-किसी की कोई चित्तवृत्ति चिरनिद्रिता ही रह जाती है। ऐसा भी देखा जाता है कि समय विशेष पर घटना-चक्र के परिवर्तन से समस्त निद्रित वृत्तियाँ जाग उठती हैं। कौन जानता था कि शराबी और दुराचारी जगाई-मधाई परमवैष्णव हो जाएँगे? और ईसा-विद्वेषी अत्याचारी पाल (संत पाल) भी आज पूजनीय तथा महर्षि-पद-वाच्य हो रहेंगे? गाधि-नंदन राजर्षि विश्वामित्र की सहस्र-सहस्र-युग-व्यागी तपस्या तथा ततोऽधिक ज्वलंत ब्रह्मनिष्ठा मेनका की निमेष-मात्र की अपांग दृष्टि से भ्रष्ट हो गई थी। विशेष अनुधावन पूर्वक देखिए तो इस प्रकार के आकस्मिक परिवर्तन के मूल कारण घटना एवं संसर्ग होते हैं। भगवान् शंकराचार्य के इस महावाक्य को स्मरण रखना सबके लिए उचित है कि :

"क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका

भवति भवार्णवतरणे नौका!"

सनातन ब्राह्म धर्म का यही उपदेश है कि तुम पाप से घृणा करो, पर पापी से घृणा मत करो!

जिस वृत्ति का वशंवद होकर मनुष्य अनुताप करता है, वही वृत्ति आज मंगराज के अंदर उत्तेजित नहीं हो गई, यह कौन कह सकता है? हम अंतर्यामी नहीं हैं, मंगराज के मन के भाव कैसे जानें? जानते भी तो वर्णन के द्वारा आपको यह समझा देने की शक्ति हममें नहीं है कि दुःख और अनुताप ने किस प्रकार उनके मन को युगपत् वशीभूत कर लिया है, उनका कंठरोध कर डाला है तथा उन्हें बाह्य चेतनाशून्य बना डाला है। जिस प्रकार गूँगा बोल न सकने के कारण हाथ-पैर हिला-हिलाकर अपने मन के भावों को प्रकट करने की चेष्टा करता है, उसी तरह हमने भी यह इतना सारा अंड-बंड बक डाला।

हे पाठक महोदयों के मनोयोग, क्षमा करना, अब इतने पर ही बस करते हैं। देव-दुंदुभि, अहिवात का नगाड़ा, बज उठा; शुभ कौड़ियाँ बटोरकर मंगल-पेटियों में सँजो रखने के लिए उत्कंठित गाँव की सुलक्षणा सधवाएँ राह की ओ टकटकी लगाए अपनी-अपनी देहरियों पर खड़ी हैं। अब यहीं बस करें।

हरि हरि बोल रे मन, हरि हरि बोल !

उन्नीसवाँ अध्याय
पुलिस जाँच

गोविंदपुर की रात जैसे रोज बीतती है, वैसे आज भी बीत गई है और भोर हो गई है। पर सूर्य के दर्शन नहीं हुए। मेघ झर-झर फर-फर कर रहा था। "भोर का मेघा मेघ नहीं, भोर का पहुना पाहुन नहीं" । आसमान थोड़ा साफ़ हो गया। निकाई के काम समाप्त हो चुके हैं, किसी को अब खेतों पर जाना नहीं है। कोई ओसारे में बैठा मसाले बट रहा है तो कोई गोंठों-बथानों की सफ़ाई में लगा है। कोई-कोई सिर पर झाँपी (ताड़ के पत्ते की टोपी) पहने, हाथ में थोड़ी-सी रस्सी और एक हँसिया लिए, काहाली (पत्ते में लिपटी तंबाकू की बहुत बड़ी-सी बीड़ी) के कश पर कश लगाते, काँधे पर बँहगी डाले घास काटने निकल पड़े हैं। कोई छान पर चढ़कर कुँहड़े की बेल की नई फुनगियों के डंक सीधे किए दे रहा है। घर में नमक न होने की बात सुनकर आग तापता हुआ हरि पुहाण विविध युक्ति-प्रदर्शन-पूर्वक अपनी भार्या की अपरिमित-व्ययशीलता को प्रमाणित कर रहा है। घरनियाँ मुँह-अँधेरे का 'बाहर जाना' निबटाकर पोखर की ओर निकल पड़ी हैं। ताँती-टोला 'झस्-दुम् झस्-दुम्' के शब्द से छलका पड़ रहा है। तांतिने ओसारों में बैठीं 'खडर- खडर' करती लटाइयाँ नचा रही हैं। बेर अंदाज़न तीन घड़ी से दंड-दो दंड अधिक ही चढ़ी होगी। शाम साहू का हलवाहा गोपाळ सामल सिर पर झाँपी पहने, कुदाल लिए झुका हुआ खेत की मेंड़ बाँध रहा था। राह-किनारे का खेत ठहरा! मालिक का हलवाहा घुसुरिया (सूअरा) गोबरा जेना के घर की ओर तेजी के साथ चला जा रहा था कि गोपाळिया पर उसकी नज़र पड़ गई। हाथ उठाकर इशारे से पास बुलाया। कहा, "मैं एक बहुत बड़े ज़रूरी काम से जा रहा हूँ, अत्यंत गुप्त बात है, तुझ पर विश्वास होता है, इसीलिए बुलाके कह रहा हूँ।" और फिर उसके कान में गुप-चुप न जाने क्या-क्या कहा। "समझा ? खबरदार! यह बात किसी भी और के कानों में न पड़ने पाए ! मालिक की मनाही है!" घुसुरिया को वहाँ से जाते-न-जाते थोड़ी ही दूर पर राह में ही मकरजेना पाण मिल गया। उसके भी कान में गुप-चुप बहुत सारी बातें फुसफुसाकर बात को गुप्त रखने का उपदेश देता हुआ बढ़ा चला गया। उसके बाद दनेइ साहू, विनोदिया, नटवरिया, भीमा की माँ आदि के साथ साक्षात्कार हुआ और उन्हें भी उसी तरह गुप-चुप कुछ कहकर उसी तरह गोपनीयता का उपदेश दिया। अब गोपाळिया काम क्या करे, साहू की ओर दौड़ पड़ा।-हरि साहू ने शाम साहू से कहा, हटिया ने नटिया से कहा, जेना की माँ ने शाम की माँ से कहा, श्रीमती ने कन्या बहू से कहा, पूरे गाँव में कहा- कही लगी रही। सब-के-सब बातें गुप-चुप ही करते और सभी गोपन रखने का उपदेश देते। किसी ने कहा, "जमादार अभी इसी छिन आ धमकेगा।" किसी और ने बात काटकर विरोध-पूर्वक कहा, "नहीं, नहीं; मामला खून का है, दारोगा खुद घोड़े पर सवार होकर आएगा।" जानकारी रखने वालों ने कहा, यह क्या कोई हमारे-तुम्हारे घर की बात है? कटक से खुद 'कंपनी' 'पटलम' (कम्पनी पलटन) लेके आएगी। गाँव के लोगों को बाँधा-छाँदा जाएगा। यह बात तो संदेहातीत और सर्ववादि-सम्मत है!" पल-भर में सारा गाँव निस्तब्ध हो गया। बहुएँ पानी में आधी-पौनी डुबकी लगाकर घर को भागीं। कपड़ा निचोड़ने का वक्त ही कहाँ था? साड़ी 'धड़र-धड़र' बजती चल रही है और पैरों के पास से पानी बहता चल रहा है। जल्दी-जल्दी में गगरी पूरी भरी नहीं जा सकी है, सो अधजल रह गई है और अधिकतर देशहितैषी सज्जनों के रंगमंची भाषणों के अंदाज में 'घटर-घटर' करती घटघोर गर्जन कर रही है। वेत्रहस्त गुरुजी के सहसा अंतर्धान हो जाने पर चटसाला के चटिया लड़के गली में भारी गोल-माल मचाते दौड़ भाग कर रहे हैं। खूनी असामी को बाँधे लिए जा रही पुलिस की तरह बड़े चटिया एक नन्हे से बालक को पकड़े लिए जा रहे हैं।

घुसुरिया ने लौटकर मालिक को ख़बर दी कि गोबरा जेना घर पर नहीं है, पिछली रात से ही घर नहीं लौटा है। मालिक ने पहले तो हलवाहे भेजे और पीछे आप ही ताँती-टोले के द्वार-द्वार घूम आए, पर कहीं किसी एक भी व्यक्ति से भेंट नहीं हुई। जिसके भी द्वारे वह जाते, किवाड़ के बेवड़े चढ़े पाते, घर में कोई न होता। मंगराज नितांत आकुल-व्याकुल और व्यस्त-मन होकर भीतर से बाहर और बाहर से भीतर आ-जा रहे हैं। किसी से भी भेंट न होने के कारण कोई निश्चय नहीं कर पा रहे हैं। कि क्या करें और क्या न करें। घुसुरिया जेना हलवाहा लकुटिया लिए बाड़ी वाली चहारदीवारी-घिरी अँगनाई से कुत्ते हाँक रहा है। गीदड़ों का कोई जोड़ा केवड़े के जंगल में पैठकर बलती आँखों से ओलती को टुकुर-टुकुर निहारता चुपचाप बैठा है।

बेर दो पहर ढल गई। गोविंदपुर गाँव के पूरबी छोर पर ठिंगने टाँघन पर सवार एक विशाल मूर्ति दिखाई पड़ी। सवार की विशाल दाढ़ी उसकी छाती को ढँके थी। उसकी देह में छ कलियों वाली ढीली आस्तीन की चपकन थी। सिर पर जामदानी बेल-बाँकुड़ियों वाली बाँकी टोपी थी। पैरों में ढीला खालता पाजामा था। घोड़ा 'ठुक-ठुक' करता मीठी कदम-चाल चह रहा था। आगे-पीछे पाँच लट्ठकंध चौकीदार अस्त-व्यस्त दौड़ रहे थे। मंगराज के दरवाज़े के आगे गोबरा पीछे की ओर मुँह करके खड़ा हो गया। सवार ने पूछा, "यही घर है?" गोबरा ने हाथ जोड़कर कहा, "खुदाबंद!" सवार घोड़े से उतर पड़ा और 'बिसमिल्ला' (तात्पर्य शायद "या अल्लाः" से है।) कहकर लंबी उसाँस छोड़ी।

घड़ी-भर बाद गली में एक और घुड़सवार मूर्ति दिखाई पड़ी। घोड़ा घासखोर टट्ट है। वयस-प्रवीणता का साक्ष्य देने के लिए उसकी देह के पंजरों की हड्डियाँ ऊपर की उभर आई हैं। दोनों पिछली टाँगें घिस-घिसकर लोमशून्य और व्रणमय हो गई हैं। आँखों के गड्ढे बैठ गए हैं और दो बड़े-बड़े कोये निकले पड़ रहे हैं। पीठ पर खुचरी पिठमैला है। उसके ऊपर लाल बनात का चारजामा है। पर सवार तो विशाल शरीर है। पोशाक भी बड़े लोगों-जैसी है। धोती 'माणियाबंदी' (माणियाबंद नामक स्थान पर बनी हुई) पहन रखी है, चार पाँती फूलों के कोर वाली । देह में चौबंदा मिरज़ई है। सर पर बीचों-बीच सिल, छै पाँती फूलों के कोर बाला रेशमी दुपट्टा बँधा है। घोड़े के पीछे-पीछे एक चौकीदार बाँस की लाठी कँधियाय, दाएँ हाथ में वासक की छड़ी लिए टट्ट को हाँकता चल रहा है और मुँह से टिटकारी भरता चल रहा है। साईस पाणॅ युवक है, जो 'झोट' के सन की रस्सी की बागडोर लगाए आगे-आगे चल रहा है। उसके खींचने के फलस्वरूप गरदन आगे को ताने घोड़ा बड़े कष्ट से धीरे-धीरे चल रहा है। पहले सवार की तरह यह सवार भी मंगराज के दरवाज़े के आगे रुक गया और एक आदमी कंधे पर दोनों हाथों का भार डालकर उतरने लगा, पर कंधे का सहारा होने के बावजूद रपटकर घुटनों के बल गिर पड़ा। उठकर उसने बेचारे उसी सहारा देने वाले के गाल पर चटाक् से थप्पड़ जड़ दिया-अर्थात् देखने वाले यह समझ लें कि इस पतन का कारण वही व्यक्ति है, नहीं तो ऐसे पक्के सवार कभी गिरने-पड़ने के नहीं होते। सवार के उतरने की देर थी, कि साईस-बच्चा जब तक पकड़े-पकड़े, तब तक घोड़ा तीन-चार बार धरती पर लोट गया। ठीक उसी तरह जिस तरह कि भगत लोग जगन्नाथ महाप्रभु के रथ के आगे-आगे श्रद्धा-रेत में (रथयात्रा वाली सड़क की धूल 'श्रद्धा-रेत' कहलाती है। -अनु.) लोट-लोट जाया करते हैं। तीन-चार बार लोट लेने के बाद घोड़ा उठ खड़ा हुआ। जब तक घोड़ा लोटता रहा, तब तक सवारी ने भी दाँत किटकिटाकर अपनी देह के स्थान-अस्थान पर फैले दिनाय के चकत्तों को खुजला डाला।

शेख इनायत हुसैन सटक जिले के अव्वल-नंबर दारोगा माने जाने वाले थानेदारों में से एक हैं। 'फ़ारसी के इल्म' में काफ़ी मज़बूत (अर्थात् उर्दू अक्षर पहचान लेते हैं। -अनु.) हैं। 'उड़िया भाषा का इल्म तो नालायक इल्म' है। इसीलिए वह उड़िया नहीं लिखते-पढ़ते' सरकारी कागजात में 'फ़ारसी में ही दस्तखत करते हैं। लियाक़त की ही बदौलत वह बारह बरस से केंदरापाड़ा के इस एक ही थाने में डटे हुए हैं। इतने दिनों में सिर्फ पिछले ही साल जरा गोल-माल सुना गया था। सदर कचहरी के सरिश्तेदार और पेशकार को फरमाइशी पावने पहुंचाने में कुछ देर हो गई थी, इसीलिए बदली की कुछ अफवाहें सुनाई पड़ने लगी थीं। मुंशी चक्रधर दास भी एक वाकिफ़कार (दक्ष) पुलिस अमले (कर्मचारी) हैं। चौकीदारों से यह बात सर्वदा सुनी जाती है कि मजिस्टर (मैजिस्ट्रेट) साहेब इनकी रिपोर्ट पढ़-पढ़कर बहुत खुश होते हैं।

मंगराज की कचहरी के बाहर खुली अँगनाई में पुलिस कचहरी बैठी है। खुद दारोगा शेख इनायत हुसैन एक शतरंजी (दरी) के ऊपर खुली दाढ़ी फैलाए बैठे हैं। आगे दाई ओर मुंशी चक्रधर दास 'हेंस' के खेस पर बिछे घोड़े के चारजामे पर बैठे हैं। आगे, बीसेक हाथ हटकर, बरकंदाज़ (प्यादे चपरासी) गुलाम कादिर व हरिसिंह तथा पाँच चौकीदार खड़े हैं। रामचंद्र मंगराज गिरफ्तार कर लिए गए हैं और उनकी गिगरानी में सिर झुकाए है बैठे हैं। मंगराज के घर के चारों ओर घेरा पड़ा बाहर के लोगों को भीतर और भीतर के लोगों को बाहर आने-जाने का हुकुम नहीं है। पहले तो स्त्रियों को हटाकर एक ओर कर दिया गया और खाना-तलाशी शुरू हुई घर की एक-एक संदूक संदूकची, पेटी-पटारी, बकसा-बकसी आदि की तलाशी हुई, धान की बखार में लोहे का गज भोंक-भौककर जाँच की गई, भात की हाँड़ियाँ टटोली गई, दो-चार जगह धरती खोदी गई, दो-चार जगह छान-छप्पर उधेड़ा गया, पर कहीं कोई संदेह-जनक माल बरामद नहीं हुआ । हाँ, मंगराज के पौढ़ने के कमरे में तीन-चार हाथ लंबी और 'रेक' ('रेक'=अँगूठे और मध्यमा के छोरों को मिलाने से बनने वाले वृत्त की परिधि) भर मोटी एक बाँस की लाठी जरूर निकली । बाड़ी की ओर के पिछवाड़े के ओलती-तले किसी स्त्री की लाश पुराने 'हेंस' के खेत में लिपटी पड़ी थी। वहाँ से बरामद करके उसे गली वाले दरवाजे पर लाया गया। गोबरा जेना ने शनाख्त (पहचान) की कि लाश सारिया ताँतिन की है । दारोगा ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, "क्यों रामचंदर मंगराज! अब क्या मतलब है? रतनपुर के डोम लोकों (लोगों) का मामला याद है कि नहीं?" मुंशी ने कहा, "मंगराज शायद यह सोचे बैठे थे कि एक ही माघ में जाड़ा खतमः" गुप्तरूप से खोजबीन करके हमने यह पता लगाया है कि रतनपुर के डोमों को कैद करवा देने के बदले में मंगराज ने दारोगा को एक हज़ार रुपया घूस देने का जो वादा किया था, उसे पूरा नहीं किया था और आँकी-फाँकी में टाल दिया था- अब दारोगा यही बात उन्हें याद दिला रहे थे ।

मामले की जाँच-पड़ताल शुरू हुई। मुंशी चक्रधर दास ने अपना विशाल बस्ता खोलकर सिरिश्ता फैला दिया। सामने चीनी मिट्टी की दावात ला रखी गई। दावात की गरदन में रस्सी बँधी थी और मुँह में सोला-बलूत की डाट लगी हुई थी। मुंशी ने सीसम की मूठ वाली छुरी से पहाड़ी सरकंडे की क़लम तराशी और कागज के एक छोटे से टुकड़े पर उसकी परीक्षा की गई : ''श्री गुरुदेव उद्धार करेंगे!" "श्री जगन्नाथ महाप्रभु चरण शरण!", ''श्री बलदेवजी के चरणों में शरण!", "श्री लिंगराज-महाप्रभु-चरणे शरण!" इत्यादि देवी-देवताओं के नाम लिखकर मुंशी जी ने कचहरी के काम में हाथ डाला।

मुद्दई-सरकार कंपनी बहादुर ।

मुद्दालेह-रामचंद्र मंगराज। सा. गोविंदपुर। जि. कटक।

मुक़द्दमा-सारिया नाम की ताँतिन की जान मारके उसके घर से नेत नाम की गाय एक अदद व दीगर माल-असबाब लूट लाने का ।

खानातलाशी हुई। बरकंदाज़ और चौकीदार पूरे गाँव का चक्कर लगाकर यह खबर लाए कि गाँव में मर्द कोई भी हाजिर नहीं है, किवाड़ों की फाँकों से स्त्रियों ने जो जवाब दिए हैं, उनसे जान पड़ता है कि आठ 'पण' (एक 'पण'=अस्सी) पहुनाई पर गए हैं, चार 'पण' ढोर-डंगर ढूँढने निकले हैं, दो 'पण' जगन्नाथ के दर्शन को गए है और दो 'पण' बीमार हैं। केवल दो 'पण' भले लोग जो दूसरे-दूसरे गाँवों के रहने वाले गवाह हैं, अपने कर्त्तव्य को समझकर आप ही हाजिर हो गए हैं। गाँव वालों के हाज़िर न होने से दारोगा बहुत खफा हुए और बरकंदाज़ों को उल्लू, गधा, बेवकूफ़, नालायक़ इत्यादि-इत्यादि संबोधनों से याद फ़रमाने लगे, जिससे सारे गाँव में हाय-तौबा मच गई। धमाधम मारें पड़ने लगीं, तड़ाक-फड़ाक किवाड़ें तोड़ी जाने लगीं। सन्निपात का रोगी गूदड़ी ओढ़कर यम को तो दो-एक दिन टरका दे सकता है, पर पुलिस को फाँकी कौन दे? गाँव के मर्द-मानुष सीधे-सीधे निकल आए घरों से । दो दिनों तक बत्तीस गवाहों के जबानी बयान दर्ज किए जाते रहे। पहले ही दिन दो चौकीदारों के पहरे में लाश मुआइने के लिए कटक चालान की गई। मुंशी साहेब ने क़ैदियों के बनाए ढाई दस्ते 'हरिताळी' (पद्मपुरी कागज यह हाथ का बना, पीले हलदिया रंग का होता है।) कागज़ पर सारे जवानी बयान कलमबंद कर डालें। आप लोगों की जानकारी के लिए उनमें से कुछेक गवाहों के बयान यहाँ पर प्रकाशित किए दे रहे हैं:

1 नंबर गवाह तरफ़ सरकार कंपनी बहादुर। मेरा नाम गोबरा जेना। बाप का नाम गुहिया जेना, मुतोफ़ा। जात का पाणॅ। उमर, 45 साल। पेशा, गाँव की चौकीदारी। सा. गोविंदपुर। प. बालूबिशा। जि. कटक ।

मैं मौजा मजकूर का चौकीदार, सारी रात खड़ा गाँव में पहरा देता हूँ। पिछली रात पहरा देते समय लगभग आधी रात हुई होगी कि सुना, सारिया ताँतिन मार डाला, मार डाला' चिल्ला रही थी। मंगराज की बाड़ी के पिछवाड़े में जान पड़ता था कि उसे कोई बाँस की लाठी से पीट रहा हो।

सवाल किए जाने पर जवाब दिया कि ना, उस समय मैंने मंगराज को नहीं देखा। फिर कहा, हाँ, हाँ, उनकी आवाज सुनी थी। यह गाय सारिया की है। इसका नाम नेत है। आज कोई एक महीने से मंगराज के आँगन में बँधी देखी जाती है। यहाँ कैसे आई, सो मुझे नहीं मालूम। फिर कहा, मंगराज बाँध लाए हैं।

निशान अँगूठा । यह निशान गोबरा जेना की 'सही' है।

2 नंबर गवाह सना रणा ने पहले हाजिर होकर जाहिर किया कि मैं कोई बात नहीं जानता। दारोगा साहब बहुत खफा हुए और हुकुम दिया कि इसे चटसाल घुमा लाओ। आघ घंटे बाद वह दो बरकंदाज़ों की हिफ़ाज़त में बिखरे बालों, धुरेटी देह और पीठ, हाथों व गालों पर मार के निशानों सहित दुबारा हाज़िर हुआ और कहा, हुजूर, मैं सब-कुछ सच-सच ही कहूँगा। मेरा नाम है सना रणा। बाप का नाम बणा रणा। जात का माली। उमर तीस। पेशा गाँव की देवी की पूजा और खेती सा. गोविंदपुर। प. बालूकुस। ज़ि. कटक ।

मैं सारिया को पहचानता हूँ। यह नहीं जानता कि वह कैसे मरी। लगभग साल-डेढ़ साल की बात है। भोर के पहर मंगराज के एक हलवाहे के ज़रिए मुझे बुला भेजा। कुंज के बीच ले जाके अकेले में कहा, 'देख सना, तुझे मैं कह रहा हूँ, मैं, तू एक काम कर! मैं जो कह रहा हूँ, वह काम तू कर दे तो मैं तुझे अच्छा-सा गहरा खेत जोतने को दूँगा और दो रुपये अलग से दूँगा खाजा-मिठाई खाने को।' मैंने पूछा, "करना क्या होगा?' मालिक ने कहा, 'यह जो भागिया ताँती है न,-उसकी घरनी सारिया है, वह बाँझ है। बेटा पाने को रोज बूढ़ी मंगला के आगे सिर पीटती है। तू जाके उसे कह कि ठकुरानी ने सपना देके कहा है कि तू पूजा दे, ठकुरानी तुझसे आप बातें करेंगी। और तुझे पूत देंगी।' मैंने जाके दो-तीन बार भागिया और सारिया को मालिक के कहे मुताबिक समझाया। उन्होंने ध्यान से सुना, पर कोई जवाब नहीं दिया। एक दिन तीसरे पहर भागिया मुझे अपने दरवाज़े पर बुला ले गया और पूजा कैसी होगी, किन-किन चीजों की जरूरत होगी, कितना खर्च पड़ेगा आदि सारी बातें पूछीं। मैंने उसे सब-कुछ समझा दिया। पूजा का सामान मोल लेने को मैं उसके पास से दस आने दो पैसे ले आया। एक दिन सनीचर के रोज़ साँझ पड़ने के बाद मैं, मंगराज, जगा नाई और कुदाल लिए एक हलवाहा, ये चार जने मंगला के पास गए। मंगराज के कहे मुताबिक ठकुरानी के थान तले पीछे की ओर एक बड़ा-सा गड्ढा खोदा गया। गड्ढे में जगा भंडारी (नाई) छिप रहा। गड्ढे का मुँह डालों-पत्तों से छिपा दिया गया मैं सुबह ही सारिया और भागिया को उपवास रखने की हिदायत कर आया था। दोनों दिन-भर भूखे रहे थे। आधी रात के समय जब गाँव में सन्नाटा छा गया तो मैं उन्हें बुला लाया। पूजा की, भोग लगाया और अनेक प्रकार से ठकुरानी की स्तुति विनती की। मेरे कहे मुताबिक भागिया और सारिया ने गले में कपड़े लपेटकर माथे टेके और वे ठकुरानी के आगे धरन दिए पड़े रहे। मैं और भी निहारे-गुहरावनी करके कहता रहा, "माँ मंगले, सारिया को आप ही मुँह खोलके वर दे-दे तू, वह बहुत दिनों से तेरी सेवा करती आ रही है, तूने कितनों को वर दिए हैं, इन्हें भी दे।" गड्ढे के भीतर से जगा ने जवाब दिया, "अरी ओ सारिया, तू बहुत दिनों से मेरी पूजा कर रही है, रोज नहाके लौटती बेर मुझे माथा टेक जाती है, चुल्लू-भर जल चढ़ा जाती है, वह जल मुझे मिलता है, अब मैं तुझे वर दे रही हूँ, तुझे तीन पूत होंगे, तुझे ढेर सारे रुपये मिलेंगे, सोना मिलेगा, तू मेरा देवल तो बनवा दे। कल बड़े भोर अँधेरे-मुँह दोनों प्राणी ताँती-टोले से बासी-मुँह आना और जहाँ पर मेरी पूजा का मंदार-फूल पड़ा हो, वहाँ खोदना । जो मिले उसे ले जाके घर में रखना और नित-दिन उसकी पूजा करना। तुझे उसी तरह थैलियाँ थैलियाँ देती रहूँगी। और अगर मेरी आज्ञा नहीं मानी तो भगिया का गला मरोड़ दूँगी।" सुनकर सारिया-भागिया दोनों डर के मारे थर-थर काँप रहे थे। उनके बोल नहीं फूटे। पूजा समाप्त करके मैंने उन्हें कुछ प्रसादी दी और घर पहुँचा आया। उन्हें देके बची हुई सारी प्रसादी मैंने आप गँठिया ली। उन्हें घर छोड़ आने के बाद लौटा तो जगा हँसता हुआ गड्ढे से बाहर निकला। फिर हम दोनों पेड़ के पास गए और मालिक की दी हुई एक मुहर गाड़कर उसके ऊपर मंदार के फूल डाल दिए और घर लौट आए। उसके दूसरे दिन मैं भागिया के घर गया था। मुझे देखकर दोनों रुआँसे-रुआँसे-से हुए कहने लगे, "अब हम देवल कैसे बनाएँ, कुछ राह तो बता दो ना!" मेरे कहे अनुसार उन्होंने अपनी छै 'माण' आठ 'गुंठ' जमीन मंगराज के पास बंधक रखकर रुपये कर्ज लिए। सरकार से जमादार आके भागिया का घर उजाड़ गया। मंगराज के हलवाहों ने घर उजाड़ा, जमादार खड़ा था। उसके सारे माल-असबाब वे ढो ले गए। घर उजाड़े जाने के दिन से भागिया बावला बना गाँव में घूमता रहता है। सात-आठ दिन हुए मैंने सारिया को देखा था मंगराज के दरवाज़े रोती हुई।

सवाल करने पर जवाब दिया- "यह तो मैं नहीं जानता कि मंगराज ने भागिया को कितने रुपये दिए, पर इतना जानता हूँ कि तमस्सुक की रजिस्टरी के लिए कटक जाते समय सारिया के लिए उन्होंने एक साड़ी ले दी थी। देवल बनाने के लिए मंगराज ने लगभग वीसेक छकड़े पत्थर मंगला के पास डलवाया है। उस दिन मंगराज ने मुझे चार आने पैसे दिए थे। और कुछ नहीं दिया। डर के मारे मैंने माँगा भी नहीं। और कुछ मैं नहीं जानता।

(दस्तखत) सना रणा

3 नंबर गवाह मेरा नाम-मरुआ । बाप का नाम लक्ष्मण तिहाड़ी। जात ब्राह्मण उमर का पता नहीं। सा. हाल गोविंदपुर। जि. कटक। जिरह किए जाने पर जवाब दिया, यह मुझे पता नहीं कि सारिया किस रोग से मरी। आज आठ दिन हुए, मेरी बाड़ी के दरवाजे पर बैठी थी। दिन-रात जहाँ-की-तहाँ बैठी रहा करती थी और किसी को भी देखने पर चिल्लाती थी : "मेरा छै 'माण' आठ 'गुंठ' मेरा छै 'माण' आठ "गुंड; मेरी नेत, मेरी नेत!" बस इतना ही कह-कहकर चीखें मारती थी, छाती फाड़-फाड़के रोती थी। मालकिन को देखती तो पैरों में लोट-लोट के रोने लगती। मालकिन भी रोतीं। चंपा ने उसे तीन बार झाड़ मार-मार के भगाया, पर वह गई नहीं। आठ दिनों से उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं था मालकिन अपनी थाली का भात केले के पत्तों में डालकर उसके पास रख-रख आतीं, पर वह खाती नहीं। भात को कुत्ता या कुत्ता नहीं तो गाय खा जाती कभी-कभी मालकिन पास बैठकर बहुत कहतीं-सुनतीं तो वह कौर-दो कौर खा लेती । मालकिन आप भी सात दिन से कुछ भी खा-पी नहीं रही थीं। खाने को कहो तो वह और भी जार-जार रोने लगतीं। इसीलिए मैं कुछ कहती नहीं थी। सप्तमी के दिन नहान-खान (व्रत के एक दिन पहले पकाया जाने वाला हविष्य) पका चुकने पर वह बूढ़ी मंगला के पास जा रही थीं। उसी उसम सारिया की आवाज सुनकर उन्होंने नैवेद्य का भात उसके आगे परोस दिया और घर में आकर जो पड़ रहीं सो फिर न उठीं। पिछली अष्टमी के दिन उनका गंगा-लाभ हो गया।

जिरह करने पर जवाब दिया,-मालकिन को क्या बीमारी हुई थी, सो तो मैं नहीं जानती, पर हाँ, स्नान-पूर्णिमा के आठ-दस दिन पहले से उन्हें कोई हल्की-हल्की बीमारी रहने जरूर लगी थी। स्नान-पूर्णिमा के दिन चंपा डोली में चढ़कर जाने कहाँ गई थी और लौटने के बाद हँस-हँस के जाने क्या-क्या कहा था। उसी दिन से मालकिन की बीमारी बढ़ गई। रातों को वह कुछ भी नहीं खाती थीं। दिन का खाना भी न खाने जैसा ही होता था। आठों पहर रोती रहती थीं। सारिया के खेत छोड़ देने के लिए उन्होंने मालिक के पैरों पड़-पड़कर बहुत-कुछ कहा था, पर मालिक ने उनकी एक न सुनी। चंपा के रुष्ट हो जाने के कारण मालकिन और कुछ कह तो नहीं सकीं, बस अन्न त्याग दिया। मुकुंद वैद्य के पास से उनके लिए दवा लाया था। उस दवा को उन्होंने खाया नहीं, सिर से छुआके रख छोड़ा।

जिरह करने पर जवाब दिया,- मैं इस घर में कोई दस बरस से हूँ मायका मेरा पुरी के ब्राह्मण-'शासन' में था। मेरे स्वामी का नाम था टागनाथ तिहाड़ी। सुनती हूँ, ब्याह के समय में सात बरस की थी और मेरे स्वामी तीन कौड़ी चार बरस के। मेरे स्वामी ने अपने खेत-पथार बेच-बाच के मेरे बाप को आठ कोड़ी रुपये दिए थे। ब्याह के समय मेरे स्वामी को साँस की बीमारी थी। उसी रोग से वह चल बसे। मेरी ससुराल में कोई भी न था। बापू गए और घर-बार में स्वामी का जो-कुछ बचा-खुचा था, उसे बेच-बाच के मुझे घर ले आए। बापू के घर कोई पाँच-सात बरस रही। गाँव में ललिता दास बाबाजी थे। मैं उनके पास 'चैतन्य चरितामृत' सुनने जाया करती थी। इस बात पर भाइयों ने कलह किया। मैं वृंदावन जाने के लिए बाबाजी के साथ रातों-रात भाग निकली और कटक के तेलंगा बाज़ार में रहने लगी। मालिक मुक़द्दमे के सिलसिले में कटक गए थे। उनके साथ यहाँ चली आई और तब से इसी घर में हूँ।

० यह निशान अंगूठा मरुआ का सही

4 नंबर गवाह । -मेरा नाम बाइधर महांती। बाप का नाम डंबरूबर महांती। जात करण उमर 56 बरस । सा. कनकपुर । प. झंकड़ जि. कटक ।

आज कोई बीस बरस हुए, मैं इस फ़तेहपुर सरखंड तालुके में गुमाश्ता हूँ। पहले जमींदारी मेदिनीपुर के करामतअली की थी। उन दिनों भी मैं ही गुमाश्ता था । आजकल सूद में पाकर वर्तमान जमींदार रामचंद्र मंगराज इसे भोग रहे हैं।

(दारोगा ने गवाह के साथ बहुत सारी जिरह की, गवाह ने भी ढेर सारे जवाब दिए। उन सभी बातों को छोड़-छाड़कर हम यहाँ पर गवाह के जवाब से केवल सार-सार भाग की कुछेक बातें लिखे दे रहे हैं ।)

गवाह का जवाब: मंगराज ने कोई घर के पैसे देके यह जमींदारी नहीं खरीदी। खरीदी है लगान-वसूली के पैसे से। मंगराज ने पहले साल की लगान वसूल के ज़मींदार दिलदार मियाँ को दे दी। दूसरी क़िस्त के रुपये वसूल करके मेदिनीपुर गए तो साथ में मैं भी था। ज़मींदार से कहा, "पुराने जमींदार बाघसिंह वंश के वंशधरों के भड़काने से और उन्हीं के संग तथा नेतृत्व से लगानबंदी चल रही है। एक पैसा भी वसूल नहीं हुआ। अब क्या होगा? कल ही लाटबंदी है।" मंगराज ने तमस्सुक लिखा लिया और लाट (सरकारी मालगुजारी) भरने के लिए वही रुपये मियाँ को कर्ज दिए। इधर प्रजा से भी यह कह-कहकर सूद वसूलते रहे कि ज़मींदार ने कर्ज लिया है। हर क़िस्त पर यही होता रहा। आखिरकार मुसाहबों को भर-भर मुँह घूस-घास दे-देकर मंगराज ने सूद-मूल के कुल तीस हजार की रक्रम में तमस्सुक लिखवा लिया। दिलू मियाँ नशे में पड़े थे, दस्तखत कर दिया। फिर मंगराज कभी लौटकर मेदिनीपुर नहीं गए, कटक में ही मामला-मुक़द्दमा करके जमींदारी दखल कर ली।

जिरह करने पर बताया,- हाँ, भागिया ताँती से छै 'माण' आठ 'गुंठ' जमीन मीयादी केवाले पर लिखवा ली है। केवाले के काग़ज पर डेढ़ सौ रुपये लिखे हैं। तमस्सुक लिखाने के मामला-खर्च इत्यादि पर कितने लगे, इत्यादि-इत्यादि सवालों के जवाब पाँजी-बही देखके बताऊँगा (गवाह ने बही देखी और बताया) : कुल रु. 35 62 पैसे 17।

गवाह ने कहा, हाँ मालिक ने भगिया के नाम पर कटक की अदालत में नालिश की थी। मामले का इत्तलानामा, डिगरी जारी होने का परवाना, नीलामी इश्तहार वगैरह सारी चीजें मेरे पास हैं। भागिया को कुछ भी दिया नहीं गया। अदालत के प्यादे आते तो मालिक के बखशिश लेकर मुझसे रसीद लिखा लेते और चले जाते। सारिया कैसे मरी, सो मैं नहीं जानता। यह गाय भागिया की है।

(दस्तखत) बाइधर महांती

5 नंबर गवाह-मेरा नाम चंपा। बाप के नाम का पता नहीं। जात, इसी घर की व्यक्ति । सा. गोविंदपुर । जि. कटक। मैं सारिया को नहीं पहचानती। उसका घर इस गाँव में नहीं है। वह मेरे दरवाजे पर नहीं मरी। और कहीं मरके हमारे दरवाज़े आ पड़ी थी। उसे ज्वर हुआ था, भर गई। हमारे मालिक ने उसे कुछ नहीं कहा। मालिक बड़े भले लोग हैं, हिलते पानी में पैर नहीं देते। मालकिन को ज्वर हुआ था, मर गई। उनके लिए मैंने भात खाना छोड़ दिया, बहुत रोई हूँ। (गवाह रो पड़ी, दारोगा के धमकाने पर चुप हुई) यह गाय हमारे अपने घर की बछिया है।

फिर कहा, सारिया को रुपये देके यह गाय मोल ली है।

० निशान चाकिया अँगूठा चंपा का सही।

रात बहुत बीत गई होने के कारण कचहरी बंद हुई। दारोगा, मुंशी और चौकीदार गोबरा जेना, तीनों बड़ी रात गए तक बैठे आपस में सलाह-मशविरे करते रहे। उपयुक्त गवाह जुटाए गए और फिर अगले दिन गवाहियों के इजहार शुरू हुए।

6 नंबर गवाह-मेरा नाम बना जेना। बाप का नाम दना जेना। जाति पाणॅ । उमर 18 । पेशा हलवाही । सा. मक्रामपुर। प. बालूबिसी जि. कटक में सारिया को पहचानता हूँ। उसके द्वार पर अनेक बार जा चुका हूँ। उसका घर सौतुनिया में है। बाम्हन-टोली में, ना ना, पाणॅ-टोली में फिर कहा, ना ना, इसी गाँव में । कोई आठ दिन हुए, रामचंद्र मंगराज उसे पकड़ लाए थे और लाठी से पीटा था। बाँस की इसी लाठी से लठियाया था। (गवाह ने लाठी दिखाई) पिछली द्वादशी के दिन आधी रात के समय रामचंद्र मंगराज ने उसे मारा-पीटा था, मैंने अपनी आँखों देखा था। सारिया की पीठ पर उन्होंने बीस चोटें की थीं। मैं साहू के ढोर खोजने आया था। मेरा घर यहाँ से दो कोस पर है। मालिक के साथ मेरा कोई झगड़ा-तकरार नहीं है। गोबरा जेना चौकीदार मेरा बहनोई नहीं है।

यह लाठिया निशान अँगूठा बना जेना का सही।

7 नंबर गवाह- मेरा नाम धकेइ जेना । बाप का नाम नाडुड़ जेना । जात पाणॅ । उमर का पता नहीं। पेशा हलवाही-सा. रामपुर। प. बालूबिसी। जि. कटक ।

पिछली नवमी को आधी रात के समय मुद्दालेह रामचंद्र मंगराज ने बाँस की इसी लाठी से सारिया को पीटा था, सो मैंने देखा था में नमक लेने दूकान पर आया था। रात हो जाने से दूकान के ही ओसारे में सो गया था । धमाधम की आवाज़ सुनकर मैं दूकान की छान पर चढ़ गया और वहीं से देखा। फिर कहा, नहीं, नहीं, मैंने मंगराज के छप्पर पर चढ़के देखा। वहाँ से दिख रहा था। मैं इस गाय को पहचानता हूँ। अनेक बार मैंने इसे खुद दुहा है। इस गाय का नाम बउला है। यह गाय भागिया ताँती की है। रामचंद्र मंगराज उसके घर से चुरा लाए हैं। सेंध मारकर चुरा लाए हैं।

मुद्दालेह के जिरह करने पर जवाब दिया, गोबरा जेना मेरा मौसेरा भाई नहीं है। वह मुझे बुला नहीं लाया है मैं तो अपनी इच्छा से गवाही देने आया हूँ। उसने मुझे खाने को नहीं दिया। मैं अपने घर से चिवड़ा और चावल बाँध लाया हूँ। नवमी को आज कोई बीस या बाईस दिन हो गए। आज तिथि कौन-सी है, सो मुझे पता नहीं ।

। यह निशान लाठिया अंगूठा धकेइ जेना का सही। 1

8 नंबर गवाह- मेरा नाम खतु चंद । बाप का नाम निता चंद । जात ताँती । उमर 28 । पेशा बुनकरी । सा. गोविंदपुर जि. कटक ।

यह गाय भागिया की है, सो जानता हूँ। भागिया मेरा पड़ोसी है। जिस दिन सरकारी जमादार आके भागिया का घर उजड़वा गया, उसी दिन मंगराज गाय खोल लाए, और हवेली में रखने लगे। गाय किसलिए खोल लाए सो मुझे नहीं पता। मंगराज के हलवाहे जाके भागिया का घर उजाड़ आए थे और घर के सारे साज-सामान ढो लाए थे। भागिया और सारिया दोनों जने गली में धाड़ मार-मारकर रो-पीट रहे थे। सरकारी जमादार के आने के कारण हमने अपने-अपने घर की किवाड़ों में भीतर से बेंवड़े चढ़ा लिए थे और अंदर छिपे बैठे थे में किवाड़ में बेंवड़े चढ़ाके झिलमिली के छेदों से बाहर झाँक रहा था चौकीदार गोबर जेना मुझे पुकार रहा था। पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया। जवाब दिया मेरी घर वाली ने। उसने कहा कि खतु घर में नहीं है ।

निशान डोंगिया अंगूठा खतु चंद का सही ।

जवाब असामी रामचंद्र मंगराज । पिता का नाम धनी नायक जाति खंडायत । दवस 52 । पेशा ज़मींदारी सा. गोविंदपुर जि. कटक ।

जवाब दिया-सारिया को मैंने नहीं मारा। भागिया ने मुझसे रुपये कर्ज लिए थे। नालिश करके मैंने उसकी छै 'माण' आठ 'गुंठ' ज़मीन पर डिगरी करा ली है और मुकदमे के खरचे में उसकी गाय ले ली है।

(दस्तखत) रामचंद्र मंगराज

ठीक उसी समय कोई पगला वहाँ आन पहुँचा। कमर में वह एक चीथड़ा भर खाँसे था। सिर के बाल बिखेरे था। सारी देह धुरेट रखी थी। हाथ में एक घूर की हाँड़ी लिए था। खूब नाचा सारिया-सारिया पुकार-पुकारकर गीत गाए। उसे देखकर गाँव वालों ने हाय-हाय की और कहा, "अरे भागिया, यही बदा था तेरे कपाल में!" मंगराज पर नज़र पड़ते ही पगला उन्हें काटने दौड़ा। चौकीदारों ने उसे पकड़ लिया। सँभाल नहीं पा रहे थे, इसलिए दारोगा के हुकुम से बाँध डाला।

दारोगा ने मामले की जाँच-पड़ताल समाप्त की। बत्तीस गवाहों के इजहार हो चुके थे। उनमें से चार गवाहों को 'बहाल रखकर' बाक़ी सभी को छुट्टी दे दी।

असामी चालान।

दोपहर को मंगराज के चालान हुए हाथों में हथकड़ी थी। चौकीदार और बरकंदाज घेरे चल रहे थे। बची में मंगराज सिर पर अँगोछा डाले मुँह नीचा किए चल रहे थे। गाँव के लोग खड़े यात्रा में निकली काली के जलूस की तरह देख रहे थे। आगे-आगे दारोगा था, पीछे-पीछे मंशी मंगराज की इस दुर्दशा को देखकर गाँव का कोई आदमी व्याकुल हुआ था कि नहीं, यह ठीक-ठीक बताने में हम नितांत असमर्थ हैं। केवल चंपा ही "मेरा मालिक, मेरा मालिक, मेरे नालिक को कहाँ लिए जाते हो, मेरे मालिक", इत्यादि विलाप को करुण रागिनी में गाती चीखती-चिल्लाती रोती-पीटती दौड़ रही थी। उसकी चीखें राह में मानो छलकी पड़ रही थीं। मालिक ने तीन बार मुँह फेर-फेरकर उसे लौट जाने को कहा। दारोगा और मुंशी भी तंग आ गए। पर वह सुनने का नाम ही नहीं ले रही थी। सिर पर कपड़ा तक नहीं डाले थी। रो-रोकर मरी जा रही थी। इसी तरह कोई दो कोस जाने पर मालिक को सुनाकर कहा, "मालघर के सामान में घुन लग जाएँगे, चूहे खा जाएँगे, अब क्या होगा ?" मंगराज थोड़ा रुककर खड़े हो रहे और लंबी-लंबी नलियों वाली चावियों के दो गुच्छे उसे देकर बोले, "सब सावधानी से रखना, कोई चिंता मत करना!" चंपा ने दोनों गुच्छों को बड़ी सावधानी के साथ कमर में खोंस लिया और कहा, "अपने 'ठाँव' (ठाँव पर बैठना = (राजा आदि का) भोजन करना) पर बैठा करना, उपास-पियास मत करन!" गोविंदा नाई संग-संग था। दोनों साथ घर लौटे। लौटते समय चंपा का रोना-धोना किसी ने नहीं सुना।

थाने में पहुँचकर दारोगा साहेब ने फिर एक बार सारे गवाहों के इजहार पढ़वाकर सुने और मुंशी की सलाह के मुताबिक काट-कूट करके गवाहों को सदुपदेश दिए। उसके बाद रिपोर्ट के साथ असामी को कटक मजिस्टर साहेब के हुजूर में चालान किया। दारोगा की रिपोर्ट की एक मय-सही-मुहर नक़ल हमने हासिल कर ली है। आपकी इच्छा हो तो सुनिए ।

दारोगा की रिपोर्ट की नकल ।

धर्मावतार!

चालू अक्तूबर माह की तीसरी तारीख के भोर-पहर आठ बजे के वक्त अत्राधीन आपके इलाके के अंदर आपको कचहरी के मौक़े पर बैठा सरकारी काम अंजाम दे रहे होने की हालत में -मुंशी चक्रधर दास के बंदे के दाहिने बैठे रोजनामचा कलमबंद कर रहे होने की हालत में -बरकंदाज़ गुलाम कादिर और हरिसिंह के अपने पहरे पर मुतऐयन होने ही हालत में-अत्र थाना इलाके फतेहपुर सरसंड मौजे गोविंदपुर के चौकीदार गोबरा जेना ने हाजिर होके जाहिर किया कि-ताल्लुके मजकूर मौजे मजकूर की रहने वाली सारिया ताँतिन के खून की बात-बंदा इस इत्तला के मिलते ही लमहे भर का वक्त भी गुज़स्त न होने देकर और हुजूर को भेजी जा रही पहली इत्तला को काटकर-असामी के ज़मींदार होने और मशहूर बदमाश होने और जालिम होने की हालत में-और मामले के भारी संगीन होने के लिहाज से बंदा उसी दम उस स्थान को रवाना होकर सरजमीन-वाक़या के ऊपर पहुँचकर दस्तूर के मुताबिक असामी के घर चारों ओर घेरा डालकर बहुत होशियारी के साथ खाना-तलाशी करके असामी को गिरफ़्तार करने के बाद-मुसम्मात मजकूरा की नेत नाम की एक अदद सफ़ेद रंग की गाय असामी के जिम्मे से बरामद की है-असामी ने बाँस की जिस लाठी से सारिया का खून किया है वह लाठी भी बरामद हो चुकी होने की हालत में-आसामी रामचंद्र मंगराज के आप ही बाँस की एक लाठी से सारिया का खून किए होने की बात चार गवाहों के इज़हार से साफ़ साबित होने की हालत में-इन चारों के चश्मदीद-गवाह होने से साफ़ साबित होने की हालत में-असामी के जालिम होने व एक ईमानदार मुसलमान की जमींदारी को धोखाधड़ी से हड़प किए होने की हालत में, जो कि चार नंबर गवाह के इजहार से साफ़ साबित है-इन सारे हालत के लिहाज से असामी के ऊपर खून के साबित हो जाने से हुजूर के पास चालान किया-हुजूर खुदावंद माँ-बाप दुनिया के बादशाह-क़सूर माफ़ होगा और नौशेरवानी इनसाफ़ तजवीज़ होगा।

10 तारीख अक्तूबर सन् 1831

दारोगा इनायत हुसैन

थाना केंदरापाड़ा।

जाहिर हो कि अलहदा फ़र्द के मुताबिक़ असामी के घर से बरामद चोरी के माल-असबाब हरिसिंह बरकंदाज़ की हिफाज़त में रवाना किए गए। इस तरह असामी के सारिया का खून करने से उसके 'मालिक' (पति) भागिया चंद के निहायत पागल होकर लोगों के ऊपर जुल्म कर रहे होने की हालत में और उसके अपने किसी यगाने (आत्मीय) के न होने की हालत में उसे भी हुजूर के पास चालान किया-हुजूर मालिक ।

तारीख सन् पंद्रह ।

बीसवाँ अध्याय
वकील राम राम लाला

काठ की रेलिंग से घिरे नजरखाने के गारदघर के एक कोने में बाड़ से उठँगा कोई असामी आँखें मूँदे बैठा है। चार बरकंदाज़ पहरे पर तैनात हैं। हाय, इस आदमी से दो 'अक्षर' बातें करने वाला तक कोई नहीं! सब स्वजन-सनेही सुख के ही संगी होते हैं, अर्ध के दास होते हैं बेर पड़ने पर कोई किसी का नहीं होता। आपने तो देखा ही होगा, किसी के द्वारे दूब तक नहीं दबती तो किसी के द्वारे लोगों की रेलापेली रहती है। अवस्था जो न कराए! किसी विलायती कवि ने कहा है कि-बंधुहीन जीवन होता है सूर्यहीन संसार समान! इसीलिए सच्चा बंधु मनुष्य को कभी छोड़ नहीं सकता। "दंडवत् मंगराज!" असामी चौंक पड़ा देखा। पहले तो वह 'दंडवत्' के शब्द ढेर-के-ढेर सुना करता था, पर आज 'दंडवत्' का शब्द सुनते ही मानो ऐसा जान पड़ा उसे कि निष्प्राण पिंड में जैसे थोड़े से प्राण पैठे हों। बंदी कुछ कह न सका, सिर से पैर तक उस मूर्ति के दर्शन करता रहा। विशाल मूर्ति। आजानुविलंबित बाहु! देह में ढीली आस्तीन का आ-घुटनों-विलबित छै-कलियों-दार जगह-जगह पर स्याही के धब्बों से चिह्नित चौबंदी चपकन! सिर पर हाथ-भर चौड़ी चौबीस हाथ लंबी, जरी की किनारी वाली फैलावदार पगड़ीबंद चादर, जो थोड़ा पीछे से मुड़कर बायाँ आँचल दाएँ काँधे व दायाँ आँचल बाएँ काँधे से उतारती छाती के ऊपर कोनिया सलीब-सी बना रही है ! कमर में तीन फूलों की पाँत वाली माणियाबंदी खादी की धोती! पैरों में फूलदार मरहठी जूतों का जोड़ा! कान पर पहाड़ी सरकंडे की कलम ! जुड़वाँ मूछें और गालों में भर-भर गाल पान! उस मूर्ति को देखकर आशा, भरोसा, विस्मय, संदेह आदि असामी के मन को मथे डाल रहे हैं। उसके बोल नहीं फूट रहे। जान-पहचाने जैसा, स्नेही व्यक्ति जैसा दंडवत् करने वाला आदमी, यह है कौन? हम तो यही अनुमान करते हैं कि यह मंगराज का कोई बंधु होगा। ऐसी मीमांसा करने का साहस हमने इसलिए किया है कि चाणक्य शास्त्र का हमें विशेष ज्ञान है। शास्त्र में कहा है कि "राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बांधवः!" कहते हैं कि राजद्वारे यानी कचहरी में, श्मशाने यानी मसानी मैदान में, यस्तिष्ठति यानी कि रहते हैं यानी कि होते हैं इत्यर्थः । स बांधवः अर्थात् वकील लोग कचहरी में और गीदड़ लोग मसान में होते हैं, सो वे ही बंधु हैं, बांधव हैं भेद केवल जीवित-पक्ष और मृत-पक्ष का है। असामी को अधिक देर टुकुर-टुकुर ताकना नहीं पड़ा । पहरे पर तैनात गोपीसिंह बरकंदाज ने पहचान करा दी : "देख, इनका नाम राम राम लाला है, कचहरी के बड़े वकील हैं, इन्हीं को अच्छी तरह पकड़, साहेब इनकी बात खूब सुनते हैं!" वकील साहेब ने खुश होकर छाती और दोनों बाँहों पर दो बार नजर दौड़ाई और दो बार खँखारकर गला साफ़ करते हुए स्नेहीजन की तरह बोले, "मंगराज, मामला इतना बढ़ गया, आपने पहले से मुझे ख़बर तक नहीं दी? दुनिया भर के मामले मेरे पास हैं, लोग थूकने तक की । मुहलत नहीं देते, फिर भी जैसे ही आपका नाम कानों में पड़ा दौड़ा चला आया।" मंगराज ने 'फोंय्' से लंबी उसाँस छोड़ी और पुक्का फाड़कर रो पड़े, हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया। वकील-"उठिए, उठिए, अब सारी बात मुझ पर रही, आप निश्चित बैठिए, कोई परवाह नहीं। कल रात को साहेब की कोठी पर गया था, बहुत सारे मामलों की बातें चलीं। आपकी बात मुझे मालूम होती तो आज क्या-से-क्या कर डाला होता। आपके मुक़द्दमे का हाल अब मैंने पूरा समझ लिया है, सरासर झूठ है, सरासर झूठ, सरासर झूठ वह जो मुँहजला दारोगा है ना, उसीका यह सारा खेल है। देखिएगा, उस दारोगा की कैसी गत बनाते हैं। जरा एक बार साहेब के साथ बात तो हो लेने दीजिए।"

मंगराज (हाथ जोड़कर)-"वकील साहेब, मैं क्या करूँ? मुझे बताइए मुझे प्राण-दान दीजिए। आप मेरे धरम के बाप हैं। में बच्चा ठहरा। बच्चे की बुद्धि ठहरी मेरी ! अब सारा दारोमदार आपके ही ऊपर है।"

वकील-"आपको कुछ भी कहना न होगा, मैं सब जानता हूँ सब में करूँगा। पर एक बात जानते हैं? मामला कुछ कठिन है, निहायत कठिन फ़ाँसी का मामला है। समय से चौकसी न रखी गई तो फाँसी तो पक्की है । फिर वही मुँहजला दारोगा । पीछा कर रहा है । आप तो बुद्धिमंत आदमी हैं, अधिक क्या कहूँ, कचहरी के मामले की बात तो आप सारी जानते ही हैं, कुछ खरच-वरच लगेगा, खरचे से डरने से काम नहीं चलेगा, हाथ की मुट्ठी पूरी खोल देनी होगी । सुना न दारोगा क्या कहता फिर रहा है? फ्राँसी का मुकदमा है, जान है तो जहान है। रुपये आपने अरजे हैं, कोई रुपये ने तो आपको नहीं अरजा न? इस बारे में आप कोई रास्ता ठीक कर लीजिए ।"

मंगराज (रो-रोकर )-"जी, कितने रुपये लगेंगे? मेरे हाथ में तो एक पैसा तक नहीं है। साथ में कोई आदमी भी नहीं है जो नौकर गुमाश्ते आए हैं, उन्हें दारोगा मेरे साथ बातें नहीं करने देता । मुझे रिहा करा दीजिए, घर जाके आपको हजार रुपये दूँगा ।"

गोपीसिंह-"अहो मंगराज, इसी बुद्धि से ज़मींदारी चलाते थे तुम? यहाँ कोई खरीद-बिक्री की बात है जो उधार चलेगा? 'कहे मुवक्किल बचा मौसा, कहे वकील कि ला पैसा' । रखो रुपैया बात करो! निकालो रुपये, मामला जीतना हो तो निकालो रुपये। वकील साहेब, असामी के साथ अब और बातें नहीं करने दूँगा। नाज़िर का हुकुम था कि बस दो बातें कर लेने दो। मैं कोई अकेला नहीं हूँ, चार जने हैं ।"

वकील-"सुना तो मंगराज? सहज नहीं है, बरकंदाज़ से लेके हाक्रिम तक एक-एक को मुट्ठी में करना होगा। मामला जैसा कड़ा है, कोई और वकील होता तो नगद दस हज़ार पर भी हाथ नहीं डालता। वह तो कहो कि मैं हूँ जो इसमें पैठ रहा हूँ। आपने जब धर्मबाप बना डाला तो मैं डुबो थोड़े दूँगा । अच्छा इस मामले में जो भी खर्च होगा, मैं करूँगा। दस हज़ार रुपये से तो पाई भी कम नहीं बैठेगा। आप अपनी ज़मींदारी मुझे मीयादी क़बाला लिख डालें। ऐसा तो है नहीं कि सारे रुपये खर्च हो ही जाएँ । आपके रिहा होते ही मैं कौड़ी-कौड़ी छदाम-छदाम का हिसाब समझा दूँगा।"

मंगराज ने गाल पर हाथ रखकर कुछ देर क्या तो सोचा । साँप के पैर साँप को ही सूझते हैं। मीयादी क़बाला का अर्थ मंगराज भली भाँति जानते हैं। पर डूबकर बहा जा रहा आदमी हाथ में बाघ की दुम भी पड़ जाए तो उसे नहीं छोड़ता ।

वकील राम राम लाला काम के समय बड़े तेज़ होते हैं। दो घंटे के अंदर स्टांप मोल लाकर क़बाले का 'ख़सरा' और 'साफ़ी' काग़ज दोनों का लिखना-लिखाना कर-करा डाला और कचहरी के क़ाज़ीखाने में केवाले की रजिस्टरी भी समाप्त कर ली । अंत में वकील साहेब ने कहा, "मंगराज, आप कोई परवाह न करें, निश्चित होकर हाजत में पड़े रहें, मैं तो हूँ ही, चिंता की कोई बात नहीं ।"

इक्कीसवाँ अध्याय
कटक दौरा-अदालत

आज जज के इजलास में भारी भीड़ है। कचहरिया तो कचहरिया, हाट-बाज़ार करने आए लोग भी देखने को दौड़े आ रहे हैं। कहीं होड़-बदी का 'पाला' (धर्म-संगीत के साथ नृत्य-गीतादि का जलता) होने पर देखने वाले जैसे गवैयों के रूप सजाने के पहले ही जम जाते हैं, उसी तरह एक-एक करके आने वाले दर्शकों से कचहरी भर गई। बड़ी भीड़ है, बड़ा गुल-गपाड़ा है। दो चपरासी चु-प् चो-प्प् चो-प्प् चिल्ला-चिल्लाकर शोर को और भी बढ़ा रहे हैं। मुफस्सिल का एक 'मातवर' (मूल अरबी शब्दार्थ 'विश्वसनीय' । उड़िया और पूरबी हिन्दी में 'धनाढ्य' के अर्थ में प्रयुक्त ।) ज़मींदार खून के मामले में चालान होकर लाया गया है। मजिस्टर साहेब ने दौरा-सुपुर्द किया था। पाँच दिन से मुक़द्दमा चल रहा है। अभी तक मामला सुलझाव में नहीं आया है। कल बुधवार है, विलायती डाक जाएगी। साहेब 'माइ डियर लेडी' से सिरनामा शुरू करके चटपट चिट्ठी लिखे डाल रहे हैं। फ़ौजदारी मामला सामने होने पर हाकिम साहेब लोग विलायती अखबार खोल बैठते हैं। अथवा चिट्ठी लिखना शुरू कर देते हैं। अदालत का सारा काम पेशकार के हवाले कर देते हैं। साहेब तो इज़हार के काग़जों पर पाँत-की-पाँत दस्तखत-पर-दस्तखत घसीटने और फ़ैसला सुनाने के मालिक हैं । आज साहेब को सारे काम अपने ही हाथों से करने होंगे। कारण, आज गवाह एक अंग्रेज़ है। इसीलिए फ़ैसला भी खुद अंग्रेजी में लिखना पड़ेगा। आज का सारा कारखाना अंग्रेजी-मय है। हम सिर्फ़ ऐसे हैं जो उड़िया हैं। पाठकों का भी वही हाल है। छापेखाने के अक्षर भी देसी हैं। सुतराम् हमें सारी बातों का तरजुमा करके देसी बोली में लिखना पड़ रहा है । साहेब ने लौंदे भर थूक से लिफ़ाफ़ा बंद करके चपरासी के हाथों डाकघर भेज दिया और बोले, "वेल बाबू, मुक़द्दमा पेश करो! सरकारी वकील ईशान चंद्र सरकार, दारोगा इनायत हुसैन और मुद्दालेह के वकील राम राम लाला को हाज़िर करो!

असामी रामचंद्र मंगराज असामी के कठघरे के भीतर हाथ जोड़े खड़े हैं । जज साहेब के दाई ओर कुरसी पर बैठकर होली-बाइबिल हाथ में लिये डॉक्टर साहब ने इजहार किया-

"मेरा नाम ए.बी.सी.डी. डगलस । बाप का नाम इ.एफ.जी.एच. डगलस । जात अंग्रेज । उमर 40 । हाल साकिन कटक । हम कटक जिले के सिविल सर्जन हैं । पिछली 8 तारीख को भोर के सात बजकर तीस मिनट के समय सरकारी लाश-मुआइना-घर में मेरे सामने सारिया की लाश को पोस्ट-मार्टम एगजामिन किया गया। चौकीदार गोबरा जेना की पहचान के मुताबिक ही हम कहते हैं कि वह लाश सारिया की थी। हमने जहाँ तक जाँच की है, उसके बल पर साहस के साथ यह कह सकते हैं कि मृत्यु का कारण किसी भी प्रकार के प्राणनाशक अस्त्र का प्रहार अथवा अन्य पदार्थ का उपयोग न था। हमें इस बात के यथेष्ट प्रमाण मिले हैं कि दीर्घ उपवास और विशेष मानसिक यंत्रणा-भोग से ही वह औरत मरी है।"

जज साहब के जिरह करने पर गवाह ने जवाब दिया, "लाश में किसी भी पीड़ा का कोई लक्षण नहीं था। अथच रक्त सूख गया था। हृदय में रक्त प्रायः नहीं के बराबर था। पाकस्थली लगभग सूनी थी। मूत्राधार और मलवाहिनी नाड़ी में भी कहीं कोई पदार्थ न था। इन सारे लक्षणों से ही हमने जाना है कि वह उपवास से मरी थी।"

सरकारी वकील ने जिरह की तो कहा, "हाँ, लाश की पीठ पर तीस निशान हैं। गोबरा जेना ने मुझे खास तौर से दिखलाए। भली भाँति जाँचकर पाया कि निशान मार के नहीं हैं। मरने के थोड़े ही पहले गरम लोहे या किसी और तपती चीज से दंगे जान पड़ते हैं।"

सरकारी वकील के जिरह करने पर जवाब दिया, "ना, हमने छुरी लेके लाश नहीं चीरी। नेटिव डॉक्टर गौरांग कर और कंपाउंडर वासुदेव पट्टनायक, इन दो व्यक्तियों ने हमारे सामने ही शवच्छेद किया ।"

वकील के जिरह करने पर गवाह ने जरा खफ़ा होकर जवाब दिया, "हम साढ़े दस बरस से सिविल सरजनी करते आ रहे हैं। पहले मिलिटरी डिपार्टमेंट में थे। हमने लंदन कॉलेज में पढ़कर डॉक्टरी पास की है।"

फिर जिरह करने पर जवाब दिया, "पहले हम अस्पताल असिस्टेंट थे । बर्मा की लड़ाई में हमारा प्रोमोशन हुआ ।"

जज साहेब ने असामी के वकील की ओर देखकर कहा, "तुम्हारा कोई सवाल है?

असामी के वकील राम राम लाला का सवाल : (उन्होंने डॉक्टर साहेब की ओर देखकर सवाल किया) : "अच्छा मिसिल के ऊपर असामी की जो बाँस की लाठी है, उस लाठी का कोई दाग़ लाश की पीठ पर था क्या?"

जज साहेब-"ननसेंस और क्या पूछना है, पूछो !"

वकील ने गवाह से फिर जिरह करते हुए, "अच्छा, आप कह रहे हैं कि सारिया उपवास से मरी है, सो, वह आप अपनी मरजी से उपवास कर रही थी कि असामी ने उसे भूखों रखा था ?"

जज साहेब-"यह कोई बात नहीं। गो ऑन चलो चलो!"

फिर जिरह -"अच्छा, सारिया के असामी के दरवाजे पर मरने का कोई सबूत है ?"

जज साहेब ने रुष्ट होकर कहा, "देखो, तुम ऐसे बेहूदे सवाल करोगे तो तुम्हारी वकीली कैनसिल कर देंगे ।"

वकील-"हुजूर खुदाबंद,-माई बाप,-दुनिया के बादशाह (वकील पाठक ध्यान दें । आप भूलें नहीं कि यह मामला साठ साल पहले का है ।) !"

असामी का जवाब के लिए जाने के बाद दोनों पक्ष के वकीलों के भाषण हुए । बड़ी चोंच रही । कम नहीं, कोई ढाई घंटे तक भाषण ही भाषण में खींचातानी चली । इसी बीच साहेब कोई चार हाथ लंबा अखबार पढ़कर टिफ़िन भी खा आए । हाकिम ने बंद न कराया होता तो भाषण बराबर चलता ही चला जाता।

हाकिम के हुकुम के मुताबिक सिरिश्तेदार ने रू-ब-कारी (मुकद्दमे से संबद्ध सभी ज्ञात विवरणों, अदालत के फैसले की पुष्टि में दी गई दलीलों और मंजूर किए गए सबूतों को लिपिबद्ध करके उस पर हाकिम के दस्तखत और अदालत की मुहर लगती है। इसी काग़ज को रू-ब-कारी कहते हैं। -अनु.) लिखकर ज़ाहिर की। वह रू-ब-कारी बारह फ़र्द काग़ज पर लिखी गई । रू-ब-कारी की सही-मुहर नकल हासिल की है। हाँ, चूँकि अब तक हम सारी बात संक्षेप में ही बताते आ रहे हैं, इसलिए इस काग़ज में से भी सिर्फ़ वे सार अंश ही प्रकाशित करेंगे, जिनसे कि पाठक मुकद्दमे का सारा हाल समझ सकें।

रू-ब-कारी कचहरी अदालत व फौजदारी दौरा जज कोर्ट इजलास एच.आर. जैकसन स्क्वायर सेशन जज मिलकियत श्रीयुत ईस्ट इंडिया कंपनी बहादुर ओड़ीसा खंड जिला कटक ।

सरकर बहादुर मुद्दई बनाम रामचंद्र मंगराज सा. गोविंदपुर पं. असुरेश्वर जि. कटक । मुद्दालेह सारिया नाम की एक ताँतिन की हत्या और उसके घर के माल-असबाब की लूट-पाट का मामला ।

नत्थी की सारी बातों, काग़जात, दोनों पक्षों की सारी बातों, वकीलों के सवाल-जवाब वग़ैरह को दृष्टि और श्रवण में लाने के बाद जान पड़ा कि यह मुक़द्दमा पुलिस का चालानी मुक़द्दमा है। जिले के मजिस्ट्रेट साहब ने असामी के ऊपर खून का इलजाम लगाकर इस मुक़द्दमे को दौरा-सुपुर्द किया है। असामी के क़सूर को साबित करने के लिए पुलिस ने आठ गवाहों के इज़हार लिए हैं। हमने गवाहों की अत्यंत सतर्कता और मनोयोग से परीक्षा की है और दोनों पक्ष के वकीलों के भाषण सुनकर इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि असामी ने पुलिस के कहे मुताबिक़ लाठी की चोटों से सारिया का खून नहीं किया, बल्कि उसकी मौत का कारण लंबे अरसे तक का उपवास और मनःकष्ट ही है। हमारे ऐसा विश्वास करने का हेतु यह है कि-प्रथम-ख़ून के मामले के प्रधान गवाह सिविल सरजन ने यह बात सुस्पष्ट रूप से प्रकट कर दी है कि लाश पर आघात की किसी भी तरह की निशानी नहीं है।

गवाहों से हमने यथेष्ट प्रमाण इस बात के पाए हैं कि यह मुक़द्दमा सोलहों आने जाली है। हमारा विश्वास है कि जाल का सूत्रपात करने वाला व्यक्ति पहली रपट लिखाने वाला गोवरा जेना चौकीदार है। उसकी पहली रिपोर्ट के साथ बाक़ी सारे इज़हारों को मिला देखने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उसने झूठ को सच के रूप में साबित कराने के लिए यथेष्ट चेष्टा की, पर अदालत की जिरह के आगे अपना बचाव करने में वह असमर्थ रहा है। मुक़द्दमे का चश्मदीद गवाह बना जेना और धकेड़ जेना जिन्होंने कि असामी के हाथों लाठी के जरिए सारिया को मारे जाने के बयान दिए हैं, वे चौकीदार के नातेदार हैं, उनके घर असामी के घर से दो कोस दूर हैं। और आधी रात के समय जगकर असामी के कामों को देखना उनके लिए निहायत असंभव है। पुलिस ने सरज़मीन वाक़या का जो नक़शा दाखिल किया है, उससे यह साफ़ जान पड़ता है कि असामी के जिस जगह पर खड़े होकर सारिया का खून करने की बात बताई गई है और गवाहों के जिस जगह खड़े होने का बयान किया गया है, उन दोनों जगहों के बीच तीन-तीन आँगनों वाले घरों की पातों की ओटें हैं, जिन्हें भेदकर नज़र की रेखा के जाने की घटना नितांत असंभव घटना है और साथ ही अग़ल-बग़ल के दीगर वाकयात से और जिरह में गवाहों के बेतरतीब जवाबों से इन दलीलों पर अविश्वास करने के यथेष्ट कारण विद्यमान हैं। ये अभागे सीधे-सादे देहाती हैं और इसीलिए औरों की कुमंत्रणा से प्रताड़ित होकर ऐसे कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं और अपने कामों की भीषणता को हृदयंगम करने में अक्षम हैं, परंतु गोबरा जेना जिरह के वक्त बारंबार झूठ कहते पाया गया है, इसलिए हम उसे फ़ौजदारी सुपुर्द करते है ।

असामी की पूर्व दुश्चरित्रता प्रमाणित करने के लिए पुलिस ने गवाहों के इज़हार कलमबंद किए हैं। उन इजहारों से हमें प्रमाण तो मिला है कि असामी औरों की संपत्ति का हरण करने के लिए कुटिल बुद्धि का प्रयोग करने के मामले में पूरा निपुण है। फिर भी किसी के ऊपर मुज़रिमानी बल प्रयोग उसने कभी किया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। ज़ाहिर है कि ऐसे व्यक्ति के द्वारा ख़ून के वाक़या का होना असंभव है और खून करने का वैसा कोई कारण भी नहीं है।

मृत सारिया या भागिया चंद के जुलाही कंघा, ढरकी, करघा, लटाई, चरखी आदि बुनाई के सरंजाम और काँसे का लोटा आदि घर के काम की च़ीजें पुलिस ने असामी के घर से बरामद की हैं। तब यह है कि असामी ने सिविल कोर्ट में जो तालिका पेश की है, उससे यह जान पड़ता है कि भागी चंद ने असामी के पास छै 'माण' आठ 'गुंठ' ज़मीन मीयादी बंधक रखी थी। उसी मामले के अदालती ख़र्च की अदायगी के जुमले में असामी ने नीलाम के ज़रिए उक्त सारी च़ीजें खरीद ली हैं। यह ज़रूर है कि इस बात को मान लेने के यथेष्ट कारण मौजूद हैं कि उस मीयादी केवाले की नालिश

व नीलाम आदि का सारा मामला धोखाधड़ी से भरा हुआ है, मगर मौजूदा मुकदमे से उसका कोई संबंध नहीं होने के कारण हम उस पर यहाँ विचार नहीं कर रहे। असामी ने चूंकि भागी चंद की छै 'माण' आठ 'गुंठ' लाखराज ज़मीन ले ली और उसका सरबस हड़प कर लिया इसीलिए, इस दुख से दुखी होकर भागी चंद पागल हो गया होगा और सारिया ने अनाहार से प्राण त्याग दिए होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। हाँ, यह जरूर है कि इसके लिए असामी को ख़ून का मुजरिम क़रार नहीं दिया जा सकता।

पुलिस ने असामी के आँगन से नेत नाम की एक उजली गाय बरामद की है। दोनों पक्ष यह स्वीकार करते हैं कि गाय भागी चंद की थी। असामी का कहना है कि उसके मुक़द्दमे के ख़र्च की अदायगी के लिए अदालत के प्यादे द्वारा की गई खुली नीलाम होने पर उसने यह गाय नीलाम बोलकर मोल ली। यह बात सोलहों आने झूठ है, कारण सिविल कोर्ट के दस्तख़त व मुहर से लैस जो नीलामी फ़र्द हमारे आगे पेश किया गया है, उसमें नेत गाय का कहीं उल्लेख नहीं है। हमें इस बात के यथेष्ट प्रमाण मिल चुके है कि असामी शंठता और प्रतारण के द्वारा पराई संपत्ति आत्मसात् करने के विषय में अत्यंत ही निपुण है। पहले वह एक मामूली सा आदमी था। असत् उपायों के अवलंबन के द्वारा उसने बहुत- सारी धन-दौलत जमा कर ली है और गाँव का ज़मींदार व क्षमताशाली होने के कारण और भागी चंद को दुर्बल तथा प्रतिकार करने में असमर्थ समझकर स्वाभाविक लोभ-रिपु द्वारा चालित होकर उसने उल्लिखित गाय को आत्मसात् कर लिया है। इन तमाम कारणों को मद्दे-नज़र रखते हुए

हुकुम होता है कि

असामी रामचंद्र मंगराज को ख़ून के इलज़ाम से बरी किया जाए और नेत नाम की गाय हड़प कर लेने के जुर्म में छै माह की क़ैद-बा- मुशक़्क़त व पाँच सौ रुपये के जुरमाने की सज़ा दी जाए और जुरमाने के वसूल न हो पाने की सूरत में उसे तीन महीने और क़ैद रखा जाए। इति। मई के महीने की 17 वीं तारीख, सन् 1837 ईसवी।

एच. आर. जैकसन सेशन जज

कचहरी उठ गई। जज साहब की बग्घी चली गई। चार बरक़ंदाज़ एक असामी को हथकड़ी लगाकर नज़रख़ाने से क़ैदखाने का परवाना लिए निकले। वकील राम राम लाला कचहरी के आगे बरगद की छाँह तले बैठे थे। असामी पर नजर पड़ते ही उन्होंने दूर से पुकारा, "देखा मंगराज, आज आपके लिए साहेब से कैसे लड़ा मैं? देख लिया न? फाँसी से बचा लिया। कुछ परवाह मत करना। बेधड़क जेलखाने को चले जाइए! वहीं आप मटकी-मटकी तेल पेरते बैठे नहीं रहेंगे, हम सुप्रीम कोर्ट में अपील करके आपको रिहा करा देंगे।"

हमें निश्चित संवाद मिला है कि अपील के विषय में कोई भी कार्रवाई नहीं की गई।

बाईसवाँ अध्याय
गोपी साहू की दूकान पर

विरूपा नदी का तट। गोपालपुर का घाट। कटक जाने का रास्ता यहीं से है। लोग यहीं पार होते हैं। पहले यहीं गोपालपुर गाँव था। पिछले 'अंक' आठ की भादों अष्टमी के दिन जो बड़ी बाढ़ आई थी, उसमें गाँव वह गया। गाँव तो गया, पर नाम उसका नहीं गया। घाट के ऊपर बरगद का एक बड़ा-सा पेड़ है। पेड़ तले गोपी साहू की दूकान है। दूकान साते-पाँचे (सात हाथ लंबाई और पाँच हाथ चौड़ाई के भीतरी रकबे वाली।) है। उसके बीचों-बीच से आधे में एक कोठरी है, आधा भाग खुला है। आगे में दो हाथ लंबा ओसारा है। दैव के दुर्विपाक से कोई बटोही रात को टिक जाता है तो खुले में रसोई करता है। गोपी बूढ़ा हो गया है, खेती-बाड़ी अब उससे पार नहीं लगती। पिछले साल बूढ़ी के गुज़र जाने के बाद से उसकी कमर ही टूट गई है। बेटे भी बूढ़े को काम-धंधे में नहीं डालते। गोपी निठल्ला बैठने वाला आदमी नहीं है। कहा भी है कि बैठे से बेगार भली। साल-भर से यही फंदा डाल रखा है। पहर भर दिन चढ़े मुँह में दो-चार कौर डालकर दूकान पर चला आता है और साँझ-पहर दूकान में लंबी नली वाला ताला डालकर घर चला जाता है। दूकान से घर कोई आध कोस हटकर है। दूकान में चावल, दाल, नमक, चिवड़ा, तंबाकू वग़ैरह रखता है। साँझ को घर जाते समय सारे सौदे एक टोकरी में भरके घर लेता जाता है। गोपी गाँव वालों से कहता है कि वह आजकल बड़ा शाहखर्च हो गया है। साँझ को सरसों-सरसों भर अफ़ीम न खाय तो रात को नींद नहीं आती। और अफ़ीम खाओ तो जब तक मुँह में चिवड़े या मूरी-कना (खील) का थोड़ा-सा सत्तू डाल न ले, तब तक काम ही नहीं चलने का। तंबाकू की आदत तो है ही। जो भी हो, खर्च अपनी ही कमाई से चलता है। बेटों ने दूकान करने को जो अठन्नी दी थी, उसमें से जो धेले-पैसे निकलते हैं, उसीसे काम चलता है, मूल पूँजी में हाथ नहीं लगाना पड़ता।

क्वार के दिन हैं। दिन-भर बादल घिरे रहे हैं। दो-तीन दौंगड़े बरस भी गए हैं। पानी पड़े टपर-टपर, कोंचों राहें चपर-चपर! बटोही कोई चलता ही नहीं। बेर घड़ी-भर और होगी। वह तो बादल घिरे हैं इसीलिए अभी से अँधेरा घिर आया-सा जान पड़ता है। गोपी ने दूकान की ओर ताककर कहा, "आज सवेरे जाने किसका मुँह देखा था, धेले का तंबाकू भी नहीं बिका।" सौदों को टोकरी में समेटकर सिर पर अँगोछा बाँधे गोपी ओसारे में बैठ रहा और आसमान को देखता हुआ आप-ही-आप बोला, "बेर अभी डूबी नहीं है।" नदी के घाट को निहारता रहा कि कहीं कोई बटोही पार होके आ जाए शायद । घाट को एकटक से तकते हुए उसने भजन शुरू किया :

साँझ भई दिन चुकी अथरि कै

बेर अकारथ काट दई मन,

नाम भजन न कियो सिरि-हरि कै। साँझॱॱ

नदी-सोत वहि जात उमिरि कै

कालसिंधु सों जाय मिलैगो,

पुनि तहँवा सों आय न फिरि कै। साँझॱॱ

रहत मत्त है विषयन पिरि कै

मनुआ क्यों दिन-रैन गँवावत,

आपन साँचो धाम बिसरि कै। साँझॱॱ

तारौ दया दीन पे करि कै

दयासिंघ हौं जपत रहौं

नित नाम निरंतर हिरदै घरि कै। साँझॱॱ

"ऐ दूकानदार, रहने को ठौर मिलेगा?'' गोपी ने चौंककर देखा, दूकान के आगे दो जने बटोही खड़े थे। कमर में 'जया' (छोटी देसी धोती) पहने, सिर पर अँगोछा लपेटे, पीठ पर नन्ही-सी पोटली बाँधे, काँधे ताड़ के पत्ते की छतरी लटकाए एक मर्द और उसके पीछे-पीछे पटंबरी कोर की साड़ी पहने और 'कुंभकर्णी' कोर की एक सूती साड़ी तहियाकर ओढ़नी की तरह ओढ़ एक स्त्री। स्त्री के सर्वांग ढँके थे, केवल नाक का फूल-नथ और उसके ऊपर नाचता मोर दिखाई पड़ रहा था। लोग कहते हैं, भेष से भीख मिलती है। कपड़े-लत्तों से गोपी समझ गया कि ये गाँठ के पूरे महाजन हैं। झटपट दूकान के ओसारे से उतरकर उसने दोनों को दो दंडवत् किए और कहा, "जी, आइए, आइए, दूकान के ऊपर आइए, सब सामान दूँगा, रसोई कीजिए।" दोनों के पैरों की ओर देखकर गोपी ने उन्हें दो लोटों में पानी दिया और घर के खुले भाग में फटी-विटी-सी एक चटाई बिछा दी। पहले स्त्री ने ही अपने पैर धो लिए और गीले कपड़े बदलकर चटाई पर जाके पालथी मारके बैठ गई। उसकी देह पर गहने देखकर गोपी बात-बात में 'जी', 'आज्ञा', 'मालिक', 'मालकिन' आदि संबोधन लगा-लगाकर बातें करता रहा। उधर वह स्त्री भी गोपी की भक्ति देखकर बहुत खुश हो गई. आँचल के छोर से चवन्नी खोलकर गोपी के आगे फेंकती हुई बोली, "ए बूढ़े पूत, रसोई के सामान तो देना!" गोपी ने ललक दिखाते हुए चवन्नी उठा ली, दोनों हाथों से उसे उलट-पुलट कर दो-तीन बार निहारा, फिर दो बार उसे चूमा, दो बार सिर से छुआया और कोंचे के छोर में बाँधकर नाभी के पास खोंस लिया। गोपी के चेहरे को देखकर जान पड़ता था कि वह फिर एक बार मन-ही-मन दुहरा रहा था कि "आज सवेरे न जाने किसका मुँह देखा था कि सौदा लिए बिना ही चवन्नी हाथ पड़ी ।" दूकान के खुलने के दिन से आज तक ऐसी बात और कभी नहीं हुई थी । गोपी ने रसोई के सारे सामान अर्थात् चावल, छिलकेदार उड़द की दाल और नमक लाके रख दिया और आग की लुंडी फूँककर चूल्हा सुलगा दिया। स्त्री भात पकाने और पुरुष डोरी-गगरी लेके पानी लाने चला। स्त्री ने कहा, "अरे ओ बूढ़े पूत, यहाँ दूध-घी कुछ मिलेगा? दूध-घी न हो तो में खा-पी नहीं पाती ।" गोपी ने कहा, "जा सत्तवचन, सत्तवचन ! नहीं मिलने से ही तो? नहीं तो क्या ये सब सरकार के ठाँव बैठने की चीजें थोड़े ही हैं? जलपान को साफ़-सूफ़ किया हुआ उमदा बारीक चिवड़ा होता, गाय का शुद्ध दूध होता, मिसरी न होती तो कम-से-कम नया दक्खिनी गुड़ होता । और 'खंदा' (बड़े लोगों की रसोई) के लिए 'सौरा' नहीं तो कम-से-कम 'दरही' मछली होती, 'बंतल' केले होते, मूँग की दाल होती, दूध-घी होता। क्या करूँ? सरकार, यह तो कंगाल देश है, न जाने कैसे-कैसे आप सरकार के पदारविंद की परागधूलि हमारे कपाल में आ पड़ी है । सरकार कुछ पैसे दें तो गाँव में घूमफिर के देख आऊँ।" स्त्री ने फिर एक चवन्नी फेंक दी। गोपी ने पहले की ही तरह उसे छोर से बाँध लिया और गाँव की ओर दौड़ा । कोई आध घड़ी रात बीते गोपी का छोटा बेटा वृंदावन केले के पत्ते के एक दोने में दो-तीन तोला घी, मिट्टी के एक कोरवे में लगभग 'माण' भर दूध और जोड़ा बैंगन लाके दुकान के ओसारे में रखता हुआ बोला, "सरकार, बापू ने भेजा है, उन्हें रतौंधी है, आप नहीं आ पाए।"

दूकान में अब तीसरा कोई भी नहीं था । स्त्री भात पका रही थी और पुरुष जुगाड़ें करता जा रहा था। दोनों ने बातचीत शुरू की ।

स्त्री-"सुना रे गोविंदा? सुन तो लिया न? कान लगाके सुन लिया न, सभी मुझे मालकिन कह रहे थे ! जहाँ भी जाऊँगी, लोग मुझे मालकिन ही कहेंगे। तुझे किसने मालिक कहा भला, और कौन कहेगा? चल, कटक चला चल, देखना तुझे क्या से क्या बना दूँगी! चार दिन हुए, तुझे समझाते-समझाते थक गई मैं तो!"

गोविंदा-"ना ना, चंपा मालकिन, चलो, अपने गाँव चलें, वहीं रहेंगे। खेत-बाड़ी मोल लेंगे, खेती करेंगे, हलवाहे रखेंगे ।"

चंपा - "अरे, सच-सच! लोग झूठ नहीं कहते कि :

अति टुच्ची अँधियारी रात ,

अति टुच्ची भंडारी जात!

अरे, खेत-बाड़ी क्या होगी रे? जो संग लाई हूँ उसे सौ बरस तो क्या दो सौ बरस भी बैठके खाएँ तो चुके नहीं।"

गोविंदा, - "ना ना, सो बात नहीं होने की । मैं तो गाँव जाऊँगा । कितने दिन हुए, घर की कोई ख़बर नहीं मिली । मेरा मन कैसा तो ऊबा-ऊबा सा हुआ जा रहा है । न हो तो, मेरा हिस्सा दे दीजिए, मैं चला जाऊँ, फिर आपका जो जी चाहे करते रहिए ।"

चंपा- "हिस्सा ? हिस्सा क्या? बड़े आए हिस्सा लेने वाले ! अरे वह जो कहते हैं ना, कि

देख पड़ोसिन के पीठे को छटपट करती छाती

गोंयठे में गुड़ डाल पड़ोसिन भस्सर-भसर चबाती!

धन वहाँ मेरा था, यहाँ भी मेरा है। मैं कोई चोरी करके थोड़े ही लाई हूँ। सात दिन हुए, क्या वर्षा क्या कीच, इस गाँव उस गाँव, इस ओलती उस ओलती, भटका-भटकाकर मार डाला तू ने मुझे तो! कह तो भला, मालिक के पौढने के कमरे के कोने में तीन जगह जो सोने के रुपये, कलदार के रुपये और सोने के गहने गड़े थे, उन्हें किसने गाड़ा था? सुनसान रातों को मैं ही गड्ढे खोदती थी, और मालिक और मैं दोनों मिलकर इन्हें गाड़ते थे। तुझे क्या पता था? यह सारा धन मेरा नहीं तो और किसका है?

गोविंदा- "रुपये गाड़े थे, सब किए थे, पर चाबी न मिली होती तो क्या पातीं? चाबी लाने की सूझ किसने निकाली थी?

चंपा- "उतना कि इतना,-अँगूठी नदारद तो पैर पटकूँ कितना ! बड़ी सूझ निकाली रे! मुझे सूझ क्या आती भला! देखा, उस दिन मालिक के पीछे-पीछे तपी रेत में दो कोस तक दौड़ते-दौड़ते तलवों में आबले पड़-पड़ गए, रोते-रोते गला बैठा गया, और अब यह कहता क्या है तो कि सूझ बताई! अरे वाह, सूझ री सूझ ! ना,-ले बलैयाँ, कूदा जाए! खूब कहा, मैं जो उस राँड़ बाम्हनी के साथ नाता जोड़ के रात को साथ रही और उसके घर से जमीन की सनद पेटी के भीतर से निकाल लाई, सो क्या तेरी ही सुझ-बूझ से ? तूने दी थी बुद्धि ?"

गोविंदा ने और कुछ न कहा। रूठकर ओसारे में आ बैठा। चंपा भी चुप हो रही । एक ही गुरु के चेले, एक ही अखाड़े के खेले । चतुर-चतुरा के बीच की बात ठहरी ! न कोई उन्नीस, न कोई बीस ! सहज में पीछे हटे तो कौन हटे? दोनों जने एक-दूसरे को भली भाँति पहचानते हैं। चंपा की भावना यह है कि गोविंदा अगर गाँव गया तो सारा सोना-चाँदी और सारे रुपये इन नाई के घर में घुसड़ जाएँगे। फिर उन तक इन हाथों की पैठ सहज न होगी । फिर गोविंदा की माँ और घरनी की बात भी याद आई। इधर गोविंदा यह सोच रहा था कि चंपा कटक शहर में रहने लगी तो इसे बस में रखना संभव न होगा जूठन-चाट कुतिया कोई और जूठन सामने देखकर पहले पत्तल को पैरों तले रौंदकर चल देती है । विपरीत-मुखी दो बल परस्पर समान हों तो दोनों अपने-अपने स्थान पर स्थिर हो रहते हैं।

रात लगभग पाँच-छै घड़ी बीती थी। दाल-भात तैयार था। चंपा ने थोड़ी देर खड़ी होकर क्या तो सोचा और पास आकर फुसलाहट के अंदाज में विनती करती-सी बोली, "देख गोविंदा तु तो कहता है कि उस पार उत्तरके चार ही कोस पर तेरा घर है। तो फिर चल, कटक चले चलें, में कुछ रुपये दूँगी, तू आके घर पर दे जाना । और अगर मेरी बात नहीं सुनता तू, रुपये तो रुपये और सोना तो सोना, कानी कौड़ी धोके बूँद भर धोवन तक भी दूँगी मला? आ, आ, बड़ी भूख लग आई है, आ खा-पी लें !" गोविंदा भी भूख से छटपटा रहा था। शायद आधेक राजी भी हो गया था और उठने-उठने हो ही रहा था । मगर अँधेरे में चंपा को उसका मुँह तो दिखा नहीं, कोई जवाब न पाकर वह बेतरह ख़फा हो गई और बोली, "मुए जा जा, चाकर को मालिक कहो तो सिर पर चढ़ बैठते हैं ! अरे जा रे जा, खाया तो खाया तूने और न खाया तो न खाया, मेरी बला से !" गोविंदा उठ रहा था, फिर बैठ गया और चंपा को तेवर तरेर के ताकने लगा। सोचा, हाँ मैं वाकर तू मालकिन ! पर मुँह खोलकर उसने कुछ कहा नहीं । गोविंदा अपने कैसे-कैसे सौभाग्य के सपने देख रहा था, कितने खेत-पथार होंगे, हल-बैल होंगे, हलवाहे-चरवाहे होंगे कितनी दुधारू गायें अपने खूँटों पर बँधी होंगी, कितने देनदार कर्ज उधार लेने को दरवाजे पर बैठे होंगे ! सारे सपने एक ही चोट में चूर हो रहे आस जैसे बुझ गई । दिन-भर कीचड़-पानी में चलते-चलते देह की माँदी चूर थी, ऊपर से ऐसी भूख लगी थी । गोविंदा अब तक मन के दुःख से बैठा सोच में पड़ा था। तिस पर चंपा ने जब चाकर कहकर टहोका भरा तो सारे अंग ऐसे जल उठे मानो तालू में बिच्छू ने डंक मार दिया हो। कुछ कह नहीं सका। वह जानता है कि उसके जैसे दो भी हों तो एक साथ चंपा से निबट नहीं सकते। कितनी बार उसे मंगराज के पड़े जवान हलवाहों को डंडों से पीटते देख चुका है । भुस में पड़ी सुलगती चिनगारी की तरह ये ख़याल भीतर-ही-भीतर उसके मन को जलाए डाल रहे थे ।

चंपा ने दो पत्तलों में भात परोस दिया, भात के बीच में कटोरीनुमा गड्डा बनाकर दाल परोस दी और वृंदावन दूध का जो कोरवा दे गया था उसे लेके एक बार बाहर की ओर ताका और फिर अपने भात में ढाल लिया। गोविंदा अँधेरे में बैठा देख रहा था । दूध ढालते देखकर उसे ऐसा लगा मानो तरल आग उसके बदन पर उँड़ेल दी गई हो । मन ने कहा, जरा से दूध में तो यह हाल है, सोन-रूपे की बाबत क्या होगा !

चंपा ने पुकारा, "अहेइ, यह रहा तेरा भात, खा चाहे मत खा, इतनी पैरों नहीं पड़ने की मैं तो!" गीले हाथ को मुँह पर फेरकर वह पत्तल के पास तलवों के बल गई और सुड़-सुड़ करके बड़े-बड़े कौर मारती हुई पल-भर में पत्तल साफ़ कर गई । चूल्हे के पास मुँह धोकर फिर एक बार बाहर की ओर ताकते हुए पुकारा, "अरे आ भात तो खा ले ना !" कोई जवाब नहीं । कुपित होकर बोली, "अरे इसी को कहते हैं, सुख के भात का गला खरोंचना !" गोविंदा को यह बात ऐसी लगी मानो बलती आग में किसी ने फूँस डाल दिया हो । इसके बाद चंपा ने चटाई के ऊपर गठरी का आधा कपड़ा बिछा दिया और गठरी को सावधानी से गरदन तले दबाकर चित लेट गई । गोविंदा उसी तरह ओसारे में बैठा सोच में पड़ा रहा। उसने अब यह बात अच्छी तरह समझ ली कि नागिन के सिर से मणि ले लेना कोई सहज बात नहीं होती । गोविंदपुर के लोगों से हमने जैसा सुना है, उससे हमारा अनुमान है कि गोविंदा को कुछ और भी आस थी । स्त्री से मर्यादा, प्रेम, भक्ति, आनुगत्य आदि की प्रत्याशा करना पुरुष जाति का स्वभाव ही होता है। चंपा के आचरण से ऐसा जान पड़ा कि तुझे चाहूँ तो चाहूँ, यह मेरी मर्जी है, नहीं तो मेरे लिए तू जो नाई था, वही नाई का नाई अब भी है। गोविंदा इसी अवस्था में कब तक बैठा रहा, इसकी सुध उसे नहीं रही ।

घोर अँधियारी रात थी । हाथ को हाथ नहीं सूझता था । दक्खिनी हवा साँय-साँय सनन-सनन हाँक रही थी । रह-रहकर बौछारें बरस-बरस जाती थीं। बरगद अँधेरे के विशाल स्तूप की तरह खड़ा डोल-डोल कर जाने कैसा तो आतंकजनक शब्द गुँजा रहा था। चमगादड़ों के दल छोटे-छोटे अंधकार-झंडों की तरह चारों ओर उड़-उड़कर उस अंधकार-स्तूप में झूल-झूल पड़ते थे और फिर कितने ही अंधकार-झंडों की तरह बाहर आसमान में उड़-उड़ जाते थे। किच-किच करते हुए वे बरगद के पकुहे खा रहे थे। बरगद के पकुहे टपा-टप शब्द करते नीचे गिर रहे थे । चारों ओर पैशाचिक स्वर गूँज रहा था । घर के भीतर चंपा के खर्राटे और भी डरावने लग रहे थे । उसी अंधकार-स्तूप तले दो जानवरों का खें-खें करके एक दूसरे को काटना सुनकर गोविंदा चौंक पड़ा और बाहर की ओर झाँका । घर के भीतर जलते दिए का तेज क्रमशः क्षीण पड़ता जा रहा था । पश्चिमी दिगंत से उभरकर अनंत आकाश में पड़ रही अथमती साँझ की अंतिम एकाकी लाल किरण-रेखा की तरह घर के भीतर बल रहे दिए की एक-मात्र किरण-रेखा निस्तेज भाव से मंद-मंद उस अंधकार-तले पड़ रही थी । गोविंदा ने अच्छी तरह निहारकर देखा, पकुहे खाते-खाते दो गीदड़ लड़ पड़े थे । एक गीदड़ ने दूसरे को मार भगाया था और सारे पकुहों पर आप ही अधिकार जमा बैठा था। गीदड़ का यह काम देखकर गोविंदा ने जाने क्या समझा और क्या सोचा ! वह उठ बैठा और चारों ओर ध्यान से ताक-झाँक लिया । धीरे, अत्यंत धीरे से उठकर वह चंपा को सिर से पैर तक निहार आया। ताक में हजामत की थैली, लोहखरी, रख छोड़ी थी। उसे धीरे से उठा लाया और उसमें से जाने क्या तो निकाल लिया। फिर कमर में कसकर फेंटा बाँध लिया और उस चीज को मजबूती से हाथ में पकड़ लिया । एक बार फिर धीरे-धीरे जाकर चंपा को बड़े ध्यान से एकटक निहारता रहा। जैसे बनैल तेंदुआ धरती पर नींद में अचेत पड़ी सूअरी को निहारता है । उसकी दोनों आँखें बल रही थीं और दाहिने हाथ ने कोई चीज़ दृढ़ता के साथ पकड़ रखी थी । यह सब वह इतने धीरे से, इतनी सावधानी से, कर रहा था कि साँसों को भी बल-पूर्वक रोके हुए था । दाहिने पैर को आगे बढ़ाते ही कोई जोत चमाचम कौंधती चंपा के ऊपर से होती हुई दीवार पर फिर गई । गोविंदा चौंककर यकायक ओसारे के नीचे उतर पड़ा । चारों ओर सावधानी से देखा, कहीं कुछ न था । था केवल पहले ही जैसा वही पैशाचिक रोर । पेड़ की निचली डालों से कितने ही अंधकार-खंड फड़फड़ाते हुए उड़ भागे। गीदड़, जो पकुहे चर रहा था, भाग गया। उसके हाथ में जो चीज़ थी, उस पर रोशनी पड़ी तो वह चमाचम चमक पड़ी । गोविंदा सारा भेद समझ गया । पहले से कहीं अधिक साहस बटोरकर वह पैर दबाए धीरे-धीरे घर के भीतर घुसा । और जैसे तेंदुआ सूअरी के ऊपर झपट्टा मारता है, वैसे ही झपटकर वह चंपा के ऊपर टूट पड़ा । ठीक उसी समय तले तक जल चुका दिया फक् से भभककर बल उठा और बलते ही बुझ गया । दिए के बुझ जाने से कुछ भी सुझाई नहीं पड़ रहा था । घर के भीतर एक उत्कट घिघियाहट के साथ हाथ-पैर पटकने का शब्द थोड़ी देर को हुआ और फिर एकदम सन्नाटा छा गया। उस शब्द को सुनकर गीदड़ हड़बड़ाकर भाग गया । पेड़ से अंधकार-खंडों के बीज से बीते हुए चमगादड़ों के डैने कर्कश शब्द करते हुए फड़फड़ाने लगे । उसी समय प्रबल झंझा का कोई झोंका आकर पेड़ की डालों को दूकान की ओर झुकाकर झकझोर गया । पल-भर के लिए वहाँ के अदृश्य अंधकार में प्रलय-सी उपस्थित होता जान पड़ी ।

तेईसवाँ अध्याय
कर्मफल

गोपालपुर के पास विरूपा नदी बहुत चौड़ी है । आधकोस से कम पाट की न होगी । हाँ, घार उतनी चौड़ी नहीं । नदी की पेटी तो कम चौड़ी होती ही है । धार नदी के दक्खिनी किनारे की ओर है । गोपालपुर के घाट की ओर तो निरा रेत-ही-रेत है । वैसी ही कोई जबरदस्त बाढ़ आई तो पानी घाट तक पहुँच पाता है । दस-बारह दिन से कोई ख़ास बरसात नहीं हुई थी, सो नदी के इस भाव में छाड़न-सी पड़ी थी । परसों तीसरे पहर से थोड़ा-थोड़ा पानी पड़ रहा है । लैंदे-के-लैंदे फेन पाँतो-पाँतों बहे जा रहे हैं । कहीं-कहीं पर भतुए-जैसा फेन-पुंज भी भँवरों में पड़कर टूक-टूक हो जाता है और नन्हे-नन्हे टुकड़ों में बिखर-बिखर जाता है। कितनी लक्कड़ शहतीरें, डाल-पात और घास-फूँस बहे जा रहे हैं, कोई ठिकाना नहीं । दाही के कारण यहाँ पर गायमुँहा घड़ियाल का उपद्रव बहुत ही बढ़ गया है । थूथनदार घड़ियाल तो यों ही सैकड़ों हैं । यहाँ घुटने भर से अधिक पानी में पैठ पाने का साहस किसी को नहीं होता । फिर यह बात भी है कि नया पानी पाकर घड़ियाल बुरी तरह मतवाले हो उठते हैं । नई बाढ़ का कोई भरोसा नहीं, झाग में से भी घड़ियाल निकलकर चोट कर बैठता है ! घाट पर दिन-रात एक डोंगी बँधी रहती है, गँवई और हटवैए पार होते हैं । सरकारी डाक पार कराने के लिए नावरिया माँझी मँड़ैया डाले दिन-रात बाट जोहता रहता है, सरकार से दो रुपये माहवार वेतन पाता है । गँवई लोग नकद तो कुछ नहीं देते, पर पूमें में धान काटते समय नावरिया माँझी खेतों-खेतों चक्कर काटकर हर खेत से एक-एक बोझ धान पौनी में वसूल लाता है। हाट के दिन हटवैयों में से कोई थोड़ा-सा कड़वा सुखुआ, तो कोई जोड़ा बैंगन, कोई चुटकी भर नमक, तो कोई दो बूँद तेल दे जाता है । किसी-किसी दिन कोई बड़े महाजन या अचीन्हे बटोही पहुँच गए तो धेले-पैसे खाजा-मिठाई खाने को दे जाते हैं । देश-काल पात्र-भेद से कमोबेश यही लाभ होता है । पर हाँ, सरकारी लोगों अर्थात् थाने के दारोगा मुंशी, कानूनगो आदि के पार होने के दिन कनेठी, चपत और गालियों की दस्तूरी कभी कम नहीं पड़ती। केवट चांदिया बेहरा कहता है कि इसी घाट की फेरी करते-करते मेरी उमर पार हो चली । उसके जैसा अड़ियल घमंडी नावरिया इस खंडमंडल में मिलना मुश्किल है ।

रात बीत चली है । रात-भर भारी वर्षा होती रही है, तूफ़ान भी बड़े जोर का रहा है । इस समय पानी या हवा नहीं है, पर बादल वैसे ही घुमड़ रहे हैं । कहीं-कहीं फाँकें हैं, जिनमें से छोटे-छोटे तारे अकारण ही टिमटिमाकर झाँक लेते हैं और फिर छिप-छिप जाते हैं । ठीक उसी समय कोई बटोही छोटी-सी गठरी पीठ पर बोकची बनाकर बाँधे घाट के पास नदी के किनारे-किनारे घूम रहा था । किनारे-किनारे चार-पाँच सौ हाथ जा-जाकर फिर घाट पर लौट-लौट आता था । जान पड़ता है कि उसकी इच्छा नदी को तैरकर पार करने की थी, पर साहस नहीं हो रहा था । घाट पर खड़ा होकर उसने पुकारा, "ए नावरिया भाई, ए नावरिया भाई !" चाँदिया बहेरा ने रेत में लग्गा गाड़कर लंबी रस्सा से डोंगी उसी में बाँध दी थी और घाट के पास ही धरती से सटी हुई पर्णकुटी में सो रहा था । बटोही ने फिर एक बार बड़ी सावधानी से पुकारा, "ए नावरिया भाई, ए नावरिया भाई !" पुकारकर वह आप ही चौंक-सा पड़ा और पीछे की ओर ताकने लगा । नावरिया सो तो नहीं गवा है ? इतना पुकारने पर भी जवाब क्यों नहीं देता ? बटोही जाने या न जाने हम तो यह पक्की तरह जानते हैं कि नावरिया घड़ी-भर रात रहते ही उठ बैठता है । शास्त्रकारों ने कहा कि ब्राह्म-मुहूर्त में शय्या-त्याग करो ! यह नहीं कि शास्त्र की विधि का पालन करने के लिए ही चाँदिया उठता हो । कभी-कभी रात के पिछले पहर पुकार आ पड़ती है । इसलिए इतने सवेरे जागता है वह । एक बात और है । साँझ पहर घाट बंद हो जाता है । झटपट दो-चार कौर खाकर वह साँझ को ही सो रहता है । अब सारी रात कोई कितना सोए । मँड़ैया के अंदर चाँदिया दोनों घुटनों पर सिर रखे तलवों के बल बैठा है । आगे आग की बोरसी पड़ी है । भूसे की आग को वह दोनों हाथों से खोर-खोरकर फैला-फैला देता है । जान पड़ता है कि वह मन-ही-मन यही सोच रहा है कि असमय में यहाँ बटोही कहाँ से आ गया! सरकारी आदमी तो यह हरगिज़ नहीं है । यह आदमी तो भाई-भाई पुकार रहा है । सरकारी आदमी होता तो घर वाली के भाई का रिश्ता जोड़ के पुकारता । कोई भी हो, पुकारता रहे, पौ फटने पर देखा जाएगा ! कि फिर पुकार आई, "ए नावरिया भाई, आ, बाहर तो आ, मिठाई खाने को कुछ दे दूँगा ।" चाँदिया अब अपने-आपको सँभाल नहीं पाया । मिठाई खाने को कुछ दिए जाने का नाम सुनकर दो-तीन बार खाँसा । नावरिया तो नावरिया ही ठहरा, मिठाई का नाम सुनकर तो कैसे-कैसे बड़े-बड़े लोग भी खाँसने लगते हैं । चाँदिया ने मँड़ैया के भीतर से ही जवाब दिया, "कौन पुकार रहे हो तुम? अभी ठहर जाओ, रात बीत लेने दो ! अभी तो लाख रुपये देने पर भी मैं बाहर नहीं निकलूँगा ।"

बटोही, - "देख भाई नावरिया, कटक में मेरा मामला है, जल्दी जाना है, ले पाँच रुपये ले ले!"

पाँच रुपये! यह क्या, एँ ? एक जने का खेवा पाँच रुपये! चाँदिया के जीवन में ऐसी घटना तो कभी नहीं घटी थी । एक साथ पाँच रुपये उसके हाथों में कभी पड़े भी हैं कि नहीं, इस विषय में हमें घोर संदेह है । लाख रुपये पाने पर भी कुटिया से न निकलने का जो संकल्प उसने अभी पिछले ही क्षण किया था, उसे भूल-सा ही गया । लाख में पाँच रुपये लौटा देने पर बाकी रकम कितनी बड़ी होगी, इस पर बहस करना शायद उसने अनावश्यक समझा । डर यह था कि बटोही कहीं लोट न जाए ।

रात बीत गई तो खेवे में एक पैसा और बहुत हुआ तो आध आना थमा देगा । चाँदिया ने मँड़ैया के भीतर से ही आवाज दी, "ठहरना ! आता हूँ ।" आग के ऊपर फूँक-फूँककर उसने 'काहळी' सुलगा ली और हाथ में डाँड़ी-चप्पू लिए मँड़ैया से बाहर निकला । पहनने के कपड़े को समेटकर कमर में कस लिया, सिर पर अँगोछा लपेट लिया और अँगोछे के उस मुरैठे के ऊपर से 'झाँपी' पहन ली । बटोही से कहा, "लाना, लाना, जो दे रहे थे देना जरा ! तुम थे इसीलिए मैं बासे से निकला, और कोई होता तो कभी उठ सकता था भला ?"

बटोही ने पाँच रुपये बढ़ा दिए । नानरी ने उन्हें दोनों हाथों से एक-दो-तीन चार-पाँच करते हुए तीन बार गिन लिया । कहा भी है :

पानी पीना छानके ,

धन लेना गिन-गानके ।

काहळी हुक्के का जोर का कश लगाते हुए, उसकी रोशनी में उसने रुपयों को एक बार फिर देख लिया । कोंचे की खूँट में बाँधकर अंटी में भली भाँति खोंसते हुए चारों ओर आसमान को एक बार फिर निहारा; अब रात नहीं रही थी । बटोही नाव की अगली माँग पर बैठा । नावरी ने पुकारा, "अच्छी तरह सँभलकर बैठो !" उसने अपना दायाँ हाथ तीन बार डोंगी से छुआकर सिर से लगा-लगा लिया और "जय गंगा माता" कहकर नाव में चढ़ बैठा । ऊपर तोड़ पानी पड़ रहा था, सँभाल पाना कठिन हो रहा था। चप्पू जब तक चलाए-चलाए तब तक डोंगी बहुत नीचे की ओर वह गई । सँभाल टेके-टेके तब तक नदी रुपये में छै आने पार हो चुकी थी और दस आने ही रह गई थी; रात लगभग बीत चुकी थी और पौ फटने ही वाली थी । गोपालपुर घाट के पास कोई गीत सुनाई पड़ा :

ए-ए-ए-

राम लखन गयो मृग को अहेरी

कुटिया दुआरे कोऊ सावत फेरी

सुनत न काहे सिया सुकुमारी

कब से पुकार रह्यो ब्रह्मचारी

रेख लाँघि दे भीख हमारी री ।

नाहिं त श्राप दिहों बड़ भारी रीॱॱॱ

बटोही डोंगी में बैठा बारंवार गोपालपुर घाट की ओर ताक रहा था । गीत के अविरल बहे आते बोल अंधकार की राशि को भेदकर उसके कानों में पड़ रहे थे और सुन-सुनकर वह अस्थिर हुआ जा रहा था । हड़बड़ाकर खड़ा हो गया और उसी ओर देखने लगा । नावरिया का पूरा ध्यान डोंगी चलाने में लगा था । गीत के बोल उसके कानों तक पहुँच नहीं पा रहे थे । बटोही के खड़े हो जाने से डोंगी इगमगाई तो उसने पुकारा, "अरे बैठ जा, बैठ जा!" बटोही के भाव देखकर नावरिया ने भी घाट की ओर देखा और बोला, "ओह, हरकारा आ पहुँचा ।" इतना कहकर उसने नाव फेर दी । बटोही ने व्याकुल होकर कहा, "ए नावरिया भाई, डोंगी मत फेर, मत फेर, पहले मुझे पार कर दे !" नावरिया ने कहा, "धत्तेरे की! अरे, सरकारी बात ठहरी, मुझे क्या जेल जाना है?" रात बीत चुकी थी । थोड़ी-थोड़ी रोशनी हो चली थी । नावरिया ने देखा, बटोही के सारे अंग लोहू के छींटों से भरे हैं । कपड़ों में लोहू, हाथों पर लोहू, बोकचे पर लोहू, पूरा रक्तमय हो रहा है वह तो । जैसे लोहू की होली खेलकर आया हो, नीचे से ऊपर तक लाल टेसू-सा बना हुआ है माँझी चौंक पड़ा । बोला, "यह क्या हेऽ? यह लोहू कहाँ से आया ? किसी का खून किए आ रहे हो तुम ?" बटोही ने झटपट गटरी उठाई और जब तक माँझी हाँ-हाँ कहे-कहे तब तक नदी में कूद पड़ा । तैरकर कोई पंद्रह-बीस हाय गया होगा कि एक गायमुँहे घड़ियाल ने टपाक से उसे पकड़ लिया । गठरी थोड़ी दूर तक बहती रही और फिर डूब गई । चाँदिया देखता ही रह गया । यह आदमी कौन था ? कहाँ से आया था ? पाठक समझना चाहें तो ध्यान दे । हम ठहरे ग्रंथकार । सुतराम् सर्वज्ञ । वह घड़ियाल जो उस आदमी को पकड़ ले गया, सो किस लिए ले गया, कहाँ ले गया, उसके साथ सद्व्यवहार किया कि असद्व्यवहार किया, ये तमाम गुप्त विषय हमें भली भाँति ज्ञात हैं । फिर भी चूँकि चाँदिया बेहेरा ने किसी कारणवश इस बात को अनेक दिनों तक छिपाए रखा था, इसलिए हम भी उसे प्रकाश में लाने को प्रस्तुत नहीं हैं । वह आदमी जिस समय डोंगी से छलाँग मारकर पानी में कूद पड़ा था, उस समय उसकी गठरी से बिता भर लंबा एक तालपत्र डोंगी में गिरकर पड़ा रह गया था । चाँदिया ने उसे झोंपड़ी के अंदर छिपा रखा था । कुछ दिनों बाद किसी पाठशाला के गुरुजी पार उतरने घाट पर आए तो चाँदिया ने उनसे वह पत्ता पढ़वाया । गुरुजी ने पढ़ा :

"श्री श्री मुकुंद देव के सातवें 'अंक' (राज्य-काल के सातवें वर्ष ) के कुंभ मास (सौर पंचांग से फाल्गुन का महीना) के कृष्ण पक्ष की द्वितीय तिथि को दो घड़ी दिन चड़े की बेर गोविंदपुर के जमींदार रामचंद्र मंगराज महाजन के सुसाक्षात् को इसी ग्राम के निवासी तेलीपूत शाम साहू को दिया तमस्सुक इसलिए तमस्सुक लिख दिया कि मेरे बेटे भीमा साहू के ब्याह के लिए आपसे दस रुपये कर्ज लिए, जो आने वाले धनु मास (पूस) में मेरे खलिहान के ऊपर से आपकी बखार में 'गउणा' से चालू भाव के अनुसार धान मापकर उसके ब्याज में उतने का आधा और, अथवा मूल 'नउती' ('गउणी' भर नाज मापने की पायली) के आठ बिस्वाँ के परिमाण से माप लेंगे । जिसके लिए यह तमस्सुक प्रमाण है । इसके साखी चंद्र, सूर्य और दसों दिक्पाल !" चाँदिया बेहेरा उस दिन से तेरह दिनों तक नाव खेते समय एक बार रोज़ उस जगह के पानी को निहार लिया करता था ।

चौबीसवाँ अध्याय
ख़ून के मामले की जाँच

बेर लगभग पहर भर या छै घड़ी उठी होगी । आज पानी नहीं पड़ रहा । गोपी साहू दूकानदार एक फटा-चिटा गाँठदार काले चीथड़े-सा अँगोछा सिर पर डाले, दूकान की टोकरी कंधे पर और एक कमाची हाथ में लिये दूकान को आया । दूकान खोलकर खुले भाग पर नजर डाली । जो देखा, उससे लगभग राश आ गया उसे । काठ मार गया-सा जहाँ-का-तहाँ खड़ा रहा, मुँह के बोल भीतर से सूख गए । न कभी ऐसा देखा, न सुना । एक स्त्री मरी पड़ी है । छान की ओर आँखें फाड़े । चित । चार अंगुल जीभ काढ़े । अभी भी सारा घर रक्तमय है । पत्तल लहू-लुहान, चूल्हे का मुँह लहू-लुहान, भात की हाँड़ी लहू-लुहान, ऐसा लगता है मानो लहू की पिचकारियाँ मार-मारकर सारे सहन और दीवार को रंग डाला गया हो । गोपी दौड़ा-दौड़ा गाँव गया और सारा हाल कह सुनाया । गाँव के लोग देखने दौड़े, गाँव का चौकीदार संतिया जेना 'फाँड़ी' (सबसे छोटी देहाती पुलिस-चौकी । पहले थाने दूर-दूर होते थे, जिनके अधीन कई-कई फाँड़ियाँ होती थीं। 'फाँड़ी' के सबसे ऊँचे पुलिस-अधिकारी 'जमादार' होते थे, जिनका ओहदा थानेदार या दारोगा के मातहत था । -अनु.) में इत्तला देने दौड़ा । मक्रामपुर में जो बालागश्ती फाँड़ी है, वह गोपालपुर से डेढ़ कोस दूर पड़ती है । तीसरे पहर बालागश्ती के जमादार शेख तुराब अली और बरकंदाज पित्त खाँ घटनास्थल पर आन पहुँचे । शेख तुराब अली बड़े रौबीले हाकिम हैं । आस-पास की चौकोसी के लोग उनके नाम से थर-थर काँपते हैं, गाभिन गायें राह छोड़के हट जाती हैं । जमादार साहेब सरजमीन वाक़या पर पहुँचकर दाढ़ी और नाक घुमाते हुए लाश का मुआइना करने लगे । लाश स्त्री की थी । पटंबरी साड़ी पहने थी । हाथ और गले में सोने और चाँदी की कई गहने थे । गरदन ठीक वैसे ही कटी थी जैसे पठानों की ज़िबह की हुई मुरगी की होती है । पास में लोहू में सराबोर एक उस्तुरा पड़ा था । लाश कुछ-कुछ सड़ने लग पड़ी थी । छत्ते पर बैठी मधुमक्खियों-सी 'कहाणों कहाण' (एक 'कहाण' या 'कहाण' = 16 'पण' = 320 'पुंजा' = 1280 । - इस तरह कहणों 'कहाण= हजारों हजार ।) मक्खियाँ कटे घाव पर बैठी थीं और भन-भन करती हुई सारी दूकान में उड़ रही थीं । लाश चित पड़ी है । चार अंगुल जीभ निकाले हुए है और उसे काटते हुए दाँतों पर दाँत चढ़ा रखे हैं । आँखें अभी भी छान को तरेर रही हैं । बिखरे बाल लोहू से लथ-पथ हैं । दोनों ओर चार अंगुल मोटा खून जमकर काला पड़ गया है । और उससे एक तीखी बदबू निकल रही है । दोनों गाल 'उआउ' (कइत्य की जाति का एक फल) जैसे सूज गए हैं । पेट बीहन की पूड़ाबंदी-सा फूल गया है ।

देखा गया कि किसी आदमी ने एक हाथ से उसके बाल पकड़कर और एक और लाश पैर से उसका मुँह दाबकर, दूसरे हाथ में उस्तुरा लेकर उसकी गरदन काटी है । गरदन कटते समय स्त्री ने पाँव रगड़े होंगे, जिससे घर में गड्ढे पढ़ गए हैं । बदबू और लाश के डरावनेपन के कारण जमादार अधिक देर वहाँ टिक न सके । बाहर आकर बाहर-ही-बाहर अपने ज्ञानबल से इस नतीजे पर पहुँचे कि यह मामला खून का तो है, पर डकैती का नहीं है । डकैती हुई होती तो लाश की देह पर ये गहने न होते । जमादार के हुकुम से दो हाड़ी (मेहतर का काम करने वाले उड़िया अछूतों की एक जात) लाश की टाँग में रस्सी बाँधकर घसीटते हुए नदी के कगार पर ले आए । घसीटते समय उसकी पटंबरी साड़ी निकाल ली गई थी, जिससे नंगी लाश और भी भयावनी लग रही थी । सरकार के पास भेजने के लिए जमादार ने लाश के ऊपर से सारे गहने उतरवाकर एक थैली में डाल लिए । पैरों में पड़ी काँसे की गुड़ाईं ही केवल निकल नहीं सकी । इसलिए हाड़ियों ने कुल्हाड़ी से पैर के छवों को काटकर उसे निकाला और खुद ले लिया ।

दूसरे दिन भोर पहर मुकद्दमे की जाँच-पड़ताल शुरू हुई । आस-पास पाँच गाँवों से बरकंदाजों और चौकीदारों ने असामी गिरफ्तार किए । सभी असामी घटना-स्थल पर लाए गए । बरगद की छाँह में बैठकर जमादार साहेब ने जाँच-पड़ताल शुरू की । तीन-चार सौ असामी पकड़ लाए गए थे । हाँ, सभी को जमा करके रखा नहीं जा रहा था, जाँच के बाद लोग छूट-छूटकर जा भी रहे थे । असामी के लाए जाने पर पहले उसे लाश के पास बिठाले रखा जाता था । लाश फूलकर चौगुनी मोटी हो गई थी । जीभ केले के फूल की तरह लग रही थी । दुर्गंध की बात छोड़िए । नंगी स्त्री-मूर्ति तो सचमुच है, पर तलबे इसके नहीं हैं, चलती कैसे रही होगी ? राक्षसी तो नहीं यह ? असामी को अधिक देर लाश के पास बैठना नहीं पड़ता । दुर्गंध और भय के मारे शीघ्र ही जमादार के सामने हाजिर होना पड़ता । बरगद के तले जमादार की कचहरी लगी थी । नदी की रेत में दस-पंद्रह गंडे गिद्ध एकटक ध्यान लगाए बैठे थे । कितने तो उड़-उड़कर पास आ-आ जाते । दस-पंद्रह स्यार कुत्ते भी जमा हो गए थे । चार-छै कुत्ते एक पाँव के तलवे के लिए एक दूसरे से नोंचा-नोंची काट-कटीवल कर रहे थे । कुछ दूर पर दूसरे तलवे को लिए सात गिद्ध छीना-झपटी कर रहे थे । इतने में एक स्यार आया और उनसे वह छीन ले गया । गिद्ध हट गए और देने समेटकर बैठ रहे । चार हाड़ी कपड़ों से अपनी-अपनी नाक बाँधे काँधों पर साठियाँ लिये कुत्तों और गिद्धों को हुशकाते फिर रहे थे । जमादार ने अनेक लोगों के इजहार कलमबंद कर डाले ।

दूकानदार बूढ़े गोपी साहू ने इजहार दिया, "जी, मेरे तो तीन पन बीत चुके, एक पन रहा है, अब इस वयस में मैं क्या कोई झूठ कहूँगा ? आज एकादशी है, दाँतों में 'तिरिण' तक नहीं दिया है, (अर्थात् निर्जल उपवास किया है) इस विष्णुवृक्ष (तुलसी) तले सच कहता हूँ, मैं इस मामले की बात कुछ भी नहीं जानता । छै माह हुए घर पर बीमार पड़ा हूँ, दूकान तो आता ही नहीं ।"

नावरिया चाँदिया बेहेरा ने इजहार दिया कि बरसात और तूफान के कारण कोई नदी पार नहीं होता, इसलिए चार दिनों से इधर आया ही नहीं । इसी प्रकार गाँव के अनेक लोगों से इजहार लिए गए ।

बेर डूब चली । गाँव में और कोई नहीं था । सबसे जाँच-पड़ताल कर ली जा चुकी थी । जमादार और बरकंदाज बैठकर विचार करने लगे कि मुक़द्दमे को कल तक रखा जाए या आज ही ख़त्म कर डाला जाए । इसी समय ऊपर डाल पर से किसी शंख-चील के 'पोखरी-पानी' कर देने से (बीट कर देने से) जमादार साहेब उठ पड़े । चीलों की ओर देखकर कमबख्त, बेवकूफ़, हरामजादा आदि परिचित संबोधनों का उच्चारण किया और क्रोध के मारे गालियाँ देने में ही प्रवृत्त हो गए । चौकीदारों ने चीलों को गालियाँ देना और ढेले मारना शुरू किया । जमादार की लंबी दाढ़ी को धोकर साफ़ करने में तीन बधना पानी लगा ।

मामले को ख़त्म कर डालने के विचार से बैठकर जमादार ने लोगों से कहा कि देखो, इसे कोई भी जानता-पहचानता नहीं है । जान पड़ता है कि यह कोई यात्री थी । इसका खून नहीं हुआ, इसे साँप ने डस लिया । गोपी साहू दूकानदार ने आगे आके गवाही दी, "धर्मावतार, साँपों का यहाँ पर बड़ा ही जबरदस्त उपद्रव है । बाद में जाने कहाँ से बहे आकर हजारों-हजार साँपों ने यहाँ बसेरा ले लिया है । साँपों के डर से यहाँ से गाँव उजड़ गया । कल मैं दूकान पर आया था, देखा कि एक लंबा-सा उडदिया नाग विचर रहा है । मैं तो डर के मारे भाग खड़ा हुआ ।"

छड़ीदार मुटुरु मळिक ने कहा, "धर्मवतार, यहाँ बहुत साँप हैं, मैं उस दिन हुजूर के पास इसी रास्ते से जा रहा था । इसी पेड़ तले पंद्रह नाग सोए पड़े थे । देखते ही मैं भाग खड़ा हुआ ।"

परसों रात को जिस समय वह औरत इस घर में सोई थी, उस समय दरवाजे के बाहर एक 'तंफ' बिसहर साँप के घूम रहे होने के विषय में मूँगपुर मौजे के छड़ीदार बुधेइ धपट सिंह ने गवाही दी ।

जमादार ने सभी की गवाहियाँ कलमबंद कर लीं । और किसी पच्छांही भिखारिन यात्री के गाँव में भीख माँगकर गुजर कर रहे होने और परसों रात के समय गोपालपुर मौजे में उसे साँप द्वारा इसे जाने और लाश के ऊपर साँप काटने के निशानों के जाहिर होने, और किसी भी तरह की चोट या घाव के निशान लाश पर न होने तथा इस मृत्यु के विषय में और किसी भी प्रकार के शक-संदेह या माँग-दावा न होने की एक रिपोर्ट केंदरा पाड़ा के दारोगा के पास भेजकर मामला खत्म कर दिया । दारोगा और मुंशी की 'दस्तूरी' के साथ रिपोर्ट का पुलिंदा थाने में भेज दिया गया । जमादार के हुकुम से चार पहाड़ियों ने लाश के गले में रस्सी बाँधकर घसीटते हुए उसे नदी में बहा दिया । नावरिया चाँदिया बेहेरा ने देखा कि इस लाश को भी ठीक उसी जगह एक घड़ियाल पकड़ ले गया, जिस जगह उस बटोही को घड़ियाल ने पकड़ा था।

डोंगी में नदी पार होते समय जमादार ने बरकंदाज से कहा, "देखो ना, इतने बड़े मामले में दो सौ भी पूरे नहीं हुए !" बरकंदाज़ ने कहा, "खुदा मालिक है । जो उसका हुकुम हुआ, हो गया ।"

गोपी साहू ने उस दिन से दूकान जाना बंद कर दिया । कातिक में तीन दिन तक झड़ी लगी रही । उसी झड़ी में दूकान का वह ढाँचा भी बैठ गया । दूकान तो दूकान, वह राह भी कटकर वह गई । चाँदिया बेहेरा ने आप कोस और नीचे हटकर हरिपुर के पास डोंगी बाँधनी शुरू की । रात तो रात दिन को भी वह उधर नहीं जाता । डर के मारे । उस बरगद पर बैठी एक चुड़ैल डालों को झकझोरती रहती है । बहुतेरे लोगों ने कड़ी धूप के समय उस चुड़ैल को बालू उड़ा-उड़ाकर खेलते भी देखा है । उस जगह का नाम अब गोपालपुर घाट नहीं रहा । अब लोग उसे चुड़ैली मैदान कहते हैं ।

पच्चीसवाँ अध्याय
मंगराज के घर का हाल

छै 'माण' आठ 'गुंठ' क्या ?

कहा है कि दुनिया का मशहूर हीरा कोहेनूर जिसके पास होता है, वह उसके वंश का नाश कर डालता है । अल्लाउद्दीन से लेकर रणजीत सिंह तक इस बात के ज्वलंत प्रमाण मौजूद हैं । तब हो, यह जरूर है कि जिस दिन से कोहेनूर हमारी पूजनीया महामान्या प्रत्यक्ष-कमला-स्वरूपा श्वेतद्वीपवासिनी भारतेश्वरी का शिरोभूषण बना है, उस दिन से इंग्लैंड की महिमा दिन-पर-दिन इस धरतीतल पर व्यापती ही चली गई है। जो विष जीरों के लिए प्राणघातक होता है, वहीं देवाधिदेव उमापति के कंटस्थ होकर उनके महादेवत्व को प्रकाशित करता है । सौ बात की एक बात उपयुक्त द्रव्य यदि उपयुक्त स्थान में व्यस्त हो, तो जंजाल का कारण नहीं बनता । इन इतनी बड़ी-बड़ी बातों को छोड़िए, निहायत छोटी-से-छोटी वस्तु, अपनी इस छै 'माण' आठ "गुंठ' जमीन की बात ही ले लीजिए । लोग कहते हैं, गोविंदपुर गाँव में निचले चक में छै 'माण' आठ 'गुठ' जमीन हैं, उस जैसी कलह-उपजाऊ जमीन और कोई कहीं नहीं । यह ज़मीन घरबोरन है । बाघसिंह का वंश तीन-तेरह हो गया, सारिया का धन भी गया, जान भी गई, अब मंगराज के वंश की बात रही, सो वह भी उसी रस्ते आन पड़ा है । उस जमीन को लेने के छै माह छै पाख की अवधि भी पूरी नहीं बीती, और उनकी दशा देख लीजिए !

मंगराज के कटक जाने के चौथे दिन सुबह-सवेरे देखा गया कि माल-घर चार जगह पर घुटने-घुटने भर ख़ुदा हुआ है । उसी सुबह से हवेली में गोविंद और चंपा के चेहरे दिखाई नहीं पड़ रहे । उन्हें आगे-पीछे थोड़ी-थोड़ी दूर के फासले पर कटक की ओर जाते हुए जिन लोगों ने पद्मपुर के चौर वाले पाँतर में देखा था, उन्होंने गाँव में आकर यह बात बताई । बेटे बाप के डर से सहमे-सहमे रहा करते थे, अब उनकी पौबारह है । बड़े बेटे में बावलेपन के छींटे पहले से ही मौजूद थे, अब वह दिन-रात गाँजे की चिलमों पर चिलमें फूँक-फूँककर पूरा पगला हो गया है । मझोले और छोटे बेटे को नाक पोंछने तक की सुध नहीं रहती । मकर संक्रांति पहुँचने-पहुँचने पर है, इसलिए वे दिन-रात 'गोबरा' (कालर) चिड़िया पकड़ने में लगे रहते हैं, दिन-रात धान की बिक्री लगी रहती है ।

आज गाँव में चहल-पहल मची है । मंगराज का घर-बार नीलाम होने वाला है । बेर कोई छै घड़ी उठी होगी । पुलिस जमादार, बरकंदात छड़ीदार आदि आठ-दस जने मंगराज की हवेली के दरवाजे पर उपस्थित हुए । जज साहेब ने मंगराज को हज़ार रुपये जुरमाने की सजा दी थी । आज उनकी चल संपत्ति नीलाम करके जुरमाने की रक्म वसूल की जाएगी । जमादार घर में पैठकर माल-मता ढो-ढोकर गली में जमा कर रहे हैं। घोंसले में धामन साँप के पैठ जाने पर लवा के चूजों की जो हालत होती है, वही हालत बहुओं की हो रही है । घर से निकल-निकलकर वे हवेली के पीछे वाले कुंज में छटपटा रही हैं । बेटों में से कोई भी घर पर नहीं है । मुनीम जी कुछ कहने-कहने को हो रहे थे, जमादार के आँखें तरेरने पर चुप ही रहे और जब गाल पर हाथ दिए गली में बैठे हैं । मुकुंदा हर किसी की बात पर जी हाँ-जी हाँ कहता हुआ परेशान हो रहा है ।

गली में माल-असबाब नीलाम किए गए । नीलाम तो आखिर नीलाम ही है, 'दो पानी' के (दो साल से हल या छकड़े में जुत रहे) हल वाले बैलों की जोड़ी का साढ़े चार या पाँच रुपये दाम कब किसने सुना था ? दुधारू गायें रुपये-रुपये में, दो-दो बरस की ओसर बढ़ियाँ उनके साथ-साथ घलुए में ! पहले तो अपने गाँव के लोग बोली नहीं बोल रहे थे, लेकिन पीछे दाम देखकर सब एक-दूसरे पर चढ़ा-ऊपरी करने लगे । जमादार तो नीलाम करके रुपये ले गया, लेकिन जो ढोर-डंगर गाय-बैल बाकी बच रहे थे, वे भी इस पाँतर उस पाँतर, इस गली उस गली, सारे तीन-तेरह हो रहे । उन्हें घेर-घारकर रखने वाला कोई नहीं था । कितने तो बंगळा ग्वाले के गोठ में गए और कितने ही अनेरे भटकते-भटकते और-और गाँवों में जा बँधे । हलवाहों को दो-दो बरस के वेतन नहीं मिले थे । सुनते हैं कि उन्होंने पेड़-पौधों, नारियल कुंजों और ढोर-डंगरों से अपने पावने वसूल कर लिए हैं ।

तुला मास (कातिक) आधों-आध निकल गया, लेकिन अभी तक गदरे धान (आशु-धान, जो जल्दी से पककर क्वार में ही तैयार हो जाता है) का शुक्रवार (फसल पर पहला हँसिया शुक्रवार को लगता है । उस दिन के कटे धान को किसान बड़े जतन से रखते हैं । कटनी समाप्त होने पर उसके चावल की खीर आदि पकाकर महालक्ष्मी को भोग लगाते हैं और प्रसाद खाते हैं । -अनु.) भी नहीं हुआ । पाणॅ हलवाहे भाग गए । भाग ही नहीं गए बल्कि गायों की पूँछें पकड़-पकड़कर पार हो गए ।

गाँव की तिल-जैसी बात हाट में पड़कर ताड़-जैसी हो जाती है । यह बात भी एक ही सच है ! चारों ओर बात गूँज रही है कि जज साहेब ने ताल्लुक्का मंगराज से छीनकर किसी वकील को दे दिया है । वह वकील अगली मकर संक्रांति के दिन दो सौ प्यादे लेकर, पाँच घोड़ों और दो पालकियों पर सवार होकर, गाँव दख़ल करने आएगा । प्रजा ने सुना तो कहा 'कोउ नृप होहि हमहिं का हानी, चेरी छोड़ि न होयबि रानी ।' किसी ने घोड़े से कहा कि रे घोड़े, रे घोड़े, तुझे चोर चुरा ले जाएगा । घोड़े ने कहा, तो क्या हुआ, दाना-पानी यहाँ भी, दाना-पानी वहाँ भी! वही किस्सा है । जो भी राजा होगा, उसकी हम प्रजा होंगे । अपने गले के पधे की मुंद्धी कोई ढील थोड़े ही देगा ?" अपना अधिकार कौन छोड़ता है ? पर एक बात है । वैरी-पक्ष के लोग बेहतर खुश हैं । वसूली तो धरी रहे, मंगराज के प्यादे डर और लाज के मारे गाँव में खड़े भी नहीं हो पाते । दुष्ट लोग प्यादों को देखकर पेड़-पौधों को दो-चार बातें सुना डालते हैं ।

छब्बीसवाँ अध्याय
बाबाजी ललिता दास

कल से ही गाँव में भारी शोर मचा है । हाट, बाट, नहान-घाट, हाँड़ी-साल, ढेंकी-साल, जहाँ कहीं भी जाओ, बस एक ही बात सुनाई पड़ती है । बात कहीं गुप-चुप चलती है तो कोई चिल्ला-चिल्ला के कहता है । कहीं किसी कथक्कड़ ने सिर हिला-हिलाकर हाथ हिला-हिलाकर यही कथा-प्रसंग छेड़ रखा है और पाँच जने श्रोता बैठे 'स्थिर मन धीर चित्त' से सुन रहे हैं । वैसे बात तो नाना रूप धारण करके चल रही है, पर हम आपको संक्षेप में ही उसका सारांश बताए दे रहे हैं ।

मंगराज के कटक जाने के सातवें दिन पुरी क्षेत्र से एक बाबाजी गोविंदपुर आए और यहीं भागवत-घर (उड़िया चौपाल, जहाँ जगन्नाथदास-कृत 'उड़िया भागवत' रखा रहता है और जो गाँव के धार्मिक, सामाजिक और सार्वजनिक कामों की केंद्र होती है । -अनु.) में मठ बाँध लिया । बाबाजी का नाम है लळिता दास, उमर अधेड़, रंग साँवला, देह मोटी गुलथुल, सिर मुँडा सफाचट, बीच में तरबूजे की टहनी-सी चुटिया, गले में तुलसी की मोटी-मोटी कंठी की पाँच फेरों की लड़ी । बाबाजी मुँह-अँधेरे उठकर प्रातःस्नान से निवृत्त हो लेते हैं और नासार्द्ध से केश पर्यंत टीका और डेड लैटर ऑफ़िस से लौटी डाक की तरह सर्वांग में छापे लगाकर हरिनाम सुनाने के लिए गाँव में निकल पड़ते हैं । पहनावे में कौपीन और उसके ऊपर बहिर्वास, पीठ पर नामावली, हाथ में झोली । बाबाजी गाँव में घूम-घूमकर लोगों को हरिनाम सुनाते हैं, साँझ की बेर खंजरी बजा-बजाके कीर्तन गाते हैं और उसके बाद चैतन्य भागवत का पाठ होता है। साँझ पहर भागवत घर में भारी जमावड़ा होता है । गाँव के दस-बारह जने बड़े-बड़े ताँतियों के भेख लेने की बात भी उठी है । बाबाजी नितांत निर्लोभ हैं । कोई कुछ देता है तो "हरे कष्ट हरे केष्टाँ" (केष्टाँ=कृष्ण) कहते हैं । ऐसा साधु कभी कहीं देखा-सुना नहीं गया । आज दो दिन हुए बाबाजी कहीं अंतर्धान हो गए हैं । संग-संग मंगराज की हवेली की मरुआ की भी खोज-ढूँढ़ पड़ी है । कोई-कोई कहते हैं, वह बाबाजी के साथ वृंदावन-धाम चली गई है । वास्तव में यदि वह साधु-सहवास में तीर्थयात्रा पर निकली हो तो हम उसके चरित्र के विषय में कोई मंतव्य प्रकाशित करके साधु और साध्वी की निंदा-जनित महापातक अर्जित करने के इच्छुक नहीं हैं । केवल एक बात ऐसी है जिसे सुनते समय मन कैसा तो गुड़ीमुड़ी और चंचल होने लगता है । मरुआ छोटी बहू की बड़ी विश्वासिनी थी, हर घड़ी उनके पास ही रहती थी । मरुआ के लापता होने के साथ-ही-साथ छोटी बहू के बक्सों में संचित अलंकार भी लापता हो गए हैं । ब्याह के समय मायके-सासुरे मुँहदिखाई के जो रुपये मिले थे, वे भी उसी बक्से में थे । बक्स खुला पड़ा है, उसमें माल अब कोई भी नहीं है । सभी लोग माल असबाब के साथ मरुआ का संपर्क बता-बताकर बातें कर रहे हैं । छोटी बहू तो साफ़ चिल्ला-चिल्लाक कह रही है । चीख-चिल्लाके और रो-गाके सभी चुप हो गए, मरुआ को खोजने कौन जाए ?

जिस दरवाजे दिन को दिन और रात को रात नहीं मानकर लोग आवाजाही लगाए रहते थे, वहाँ अब दूब छा गई है ।

सौ बात की एक बात, कुछेक माह के भीतर ही संपत्ति, गौरव, आधिपत्य आदि सभी कुछ स्वाहा हो चुके हैं ।

"निर्जगाम यदा लक्ष्मीः गजभुक्तकपित्थवत्!"

सत्ताईसवाँ अध्याय
अपूर्व मिलन

मनुष्य अपने कर्म का फल भोगता है । आप भला या बुरा जैसा भी कर्म करें, उसका प्रतिफल आपको अवश्य भोगना पड़ेगा । हे बुद्धिमान्, तुम अति-निर्जन एकांत में अत्यंत सावधानी के साथ कोई कर्म करके शायद यह सोचते हो कि तुम मनुष्यों की दृष्टि-रेखा के अंतराल में रह रहे हो । यह तो सच है कि भूमि के गर्भ में एक क्षुद्र बीज बोते समय उसे कोई नहीं देखता परंतु उस बीज से उत्पन्न वृक्ष मनुष्य के नेत्र का अतिक्रम कर सके, इसके लिए कोई भी उपाय नहीं । फिर, तुमने जो वृक्ष रोपा है, उसका फल भी तुम्हीं को और कदाचित् तुम्हारी वंश-परंपरा को भोगना पड़ेगा । हे बलवान्, हे धनवान, हे गर्वी, तुम जिसे अति सामान्य व्यक्ति समझकर तुच्छ मानते हो, एक दिन उसीके द्वारा कैसे-कैसे कार्य प्रसाधित हो सकते हैं, सो तुम नहीं जान सकते । बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबेदार एक सामान्य फकीर के प्रति अत्याचार करके उसके प्रतिफल से अपनी रक्षा नहीं कर सके । सिख गुरु गोविंदसिंह ने किसी सामान्य मुसलमान का उपकार किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें प्राणों के संकट वाली घोर विपदा से छुटकारा मिला था । और छोड़िए इन बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक बातों को। बाघसिंह के घर में चौकीदारी करने के कारण रतनपुर के जिन डोमों को गंगराज ने जालसाजी करके जेल भिजवाया था, आज घटना-चक्र के फिरने पर उन्हें उन्हीं के हाथों से लांछना भोगनी पड़ी ।

रतनपुर मौजे के डोमों ने जब पहले दिन मंगराज को जेलखाने में देखा तो हित-मीत आए ससुर आए मालिक आए, आदि कहकर हँस-हँस कर ठट्ठा करते हुए उन्हें दंडवत् किए । कोई धनवान जेल जाता है तो पुराने कैदियों के सरदार कुछ पाने की आशा में उसके ऊपर अत्याचार करते हैं । मंगराज रतनपुरियों के संग धानी पेरने बैठते तो उनके ऊपर लातमुक्के बरस पड़ते ।

एक बात कहना हम भूल गए । झूठी गवाही देने के अभियोग में गोबरा जेना को एक साल की क़ैद बा-मशक्कत की सज़ा हो गई थी।

दिन किसी की राह देखता बैठा नहीं रहता । दिन और रात के सोते चिरकाल से एक समान भाव से बहे चले जा रहे हैं । मंगराज को घानी पेरते देखकर दिन अटक नहीं रहने के । लोग कहते हैं, सुख के दिन घोड़े पर भागते हैं, दुख के दिन हाथी पर धीरे-धीरे चलते हैं । आप जो भी कहें कह लें, दिन अपना काम भली तरह समझता है । उसके आठ पहर के विस्तार में कहीं एक भी पल टेढ़ा-मेढ़ा होकर बहक नहीं पाता । एक-दो-तीन-चार करते-करते मंगराज के कारावास की मियाद में से दो मास तो किसी तरह कट गए ।

वह जिस बारक में सोते थे, उसकी मरम्मत की जरूरत हुई तो उन्हें दूसरी बारक में ले जाया गया । जेलखाने की एक-एक बारक में मिट्टी के आठ-आठ चौकिया भिड़े बँधे होते हैं । रातों को इन्हीं पर कंबल बिछाकर कैदी सो रहते हैं । संयोग से रतनपुर मौजे के छै डोम, गोबरा जेना और मंगराज, ये आठ जने एक ही बारक में आ रहे ।

चार दिन हुए, मंगराज पर एक भारी आफत आ गई । कटक के दरगाह-बाजार में आजकल एक पागलखाना है । पहले ऐसा कोई पागलखाना नहीं था । पहले पागलों को भी जेल में बंद रखा जाता था । मंगराज की बारक से कुछ ही दूर पर पगला गारद था । उसमें एक भयंकर पागल रह रहा था । वह रात भर सोता नहीं था । "मेरी सारिया री सारिया; मेरे छै 'माण' आठ 'गुंठ' रे छै 'माण' आठ 'गुंठ" आदि क्या-क्या तो गा-गाकर नाचता था, चीखता-चिल्लाता था, चील की तरह रोता था, झपटता था, पुक्का फाड़-फाड़ के रोता था, हँसता था । मंगराज को देखते ही वह काटने को दौड़ता था । संतरी-बरकंदाज धर-पकड़ करके उसे रोकते थे । उस दिन अचानक वह छूटता ही चला आया और दाँतों से मंगराज की नाक काटकर अलग कर डाली ।

आज जेल के फाटक पर भारी गुल-गपाड़ा मचा है । दो रोगी पड़े हैं । एक तो कब से अब-तब में था, मर गया । दूसरे को नेटिव डॉक्टरों और कंपाउंडरों ने धो-पोंछकर पट्टी बाँध दी है ।

नौ बजे डॉक्टर साहेब ने आकर लाश का मुआइना किया और रोगी के सभी अंगों की परीक्षा की । जेल के दारोगा ने वही देखकर कहा :

लाश: 977 नंबर कैदी गोबरा जेना ।

रोगी : 957 नंबरी क़ैदी मंगराज। रोगी के अंग-अंग सूज गए हैं । नाक का बाँसा फट गया है, लगातार खून जारी है । कभी-कभी खून की कै भी हो रही है । डॉक्टर साहेब ने मार-पीट को ही रोग का कारण ठहराया ।

बड़ी जाँच-पड़ताल हुई । बड़ी धमा-चौकड़ी रही । पर यह तय नहीं हो पाया कि मारा किसने । रोगी में बात करने की शक्ति नहीं रह गई थी । केवल इतना पता चल सका कि पिछली रात कोई आधी रात के समय पहरे वाले सिपाही ने कुछ धमाधम-गमागम जैसी आवाज़ सुनी थी, जिसकी उसने गवाही दी । छै डोमों ने गवाही दी कि दोनों कैदियों में लाठी-लठौवल हुई थी ।

मुकद्दमें की जाँच समाप्त हुई। डॉक्टर साहेब ने हुकुम दिया, ''रोगी के बच पाने की संभावना बहुत कम है, उसके कुटुंबी चाहें तो चिकित्सा के लिए उसे घर ले जा सकते हैं । पुलिस थाने के द्वारा साहेब का हुकुम गोविंदपुर पहुँचा ।

बेटों ने धान की बखार की पेंदी तक पोंछ-पाँछ के लगभग साफ कर डाली थी । वे अपने बाप को अच्छी तरह जानते हैं । वह लौट आए, तक तो समझो कि खैर नहीं । कौन ऐसा बुद्धिमान होगा जो जान-बूझकर आफत न्योत लाए । ''आत्मानम् सततम् रक्षेत्''- यह नीति-वाक्य भला किसे मालूम न होगा ?

बूढ़ा हलवाहा मुकुंदा बहुत परेशान हुआ । उसने जैसे-तैसे दो बछड़े और चार-छै हड़बड़ाया हुआ कटक की ओर दौड़ पड़ा ।

उपसंहार

तीन माह पहले जिस तरह मालकिन तुलसी चौरे के पास पड़ी हुई पाई गई थी, तीन माह परे ठीक उसी जगह के ऊपर ठीक उसी तरह उत्तर की ओर मुँह किए मंगराज भी एक पुरानी चटाई पर पड़े हैं-हाथ पैर हिलने-डुलने या ढीले होने का नाम नहीं लेते, पलकें झपकने का नाम नहीं लेतीं, एकाग्र ध्यान से ऊपर की ओर ताक रहे हैं । शिवा चमार और कार्तिक नायक ये दो वैद्य लगे थे, कल रात को जवाब देके अलग हो गए । अब गोपिया ताँती ने हाथ लगाया है । गोपिया ताँती उर्फ गोपी कविराज बड़ा ही नामी-गिरामी और जोरदार वैद्य है । चार-चार गाँवों के लोग उसे जानते हैं । दिन-रात उसे नाक पोंछने तक का अबकाश नहीं मिलता । सुबह उठते ही वह कमर में चादर का पिछौरा काछनी की तरह कस लेता है, कंधे पर एक लाल अँगोछा डाल लेता है और काँख-तले दवाइयों का बटुआ झुलाता, हाथ में जड़कुनी बाँस की बाँके सिरे वाली लकुटिया लिये रोगी देखने निकल पड़ता है । बटुए के अंदर बहत्तर सूल रोगों की दवाइयों की बटिकाएँ तसर कपड़े के अलग-अलग टुकड़ों में सहेजी रखी रहती हैं । गोपी के ताऊ नामी वैद्य थे उनकी दवाइयों रोगी की देह में चकमक पत्थर की तरह लग जाती थीं । गोपी ने उनके हाथों की तैयार की हुई दवाइयाँ आज तक सँजो रखी हैं ।

गोपी ने रोगी के बिस्तरे के दाएँ बैठकर बड़ी देर तक नाड़ी पकड़े रखी और ऊपर की ओर ताककर आँखें मूँदे, दाँतों पर दाँत चढ़ाए, रोग का अनुमान किया । मुकुंदा कविराज के मुँह को टुकुर-टुकुर ताकता रहा । पूछा, "क्या देखा कविराज ?'' कविराज गंभीरता से स्थिर होकर बैठते हुए निदान कहने लगे, "एँ, कहिन कि 'कंटा-श्लेषप्रणयिनि जने किम्पुनर्दूरसंस्थे"

(मूल श्लोक वैधक का नहीं, कालिदास के 'मेघदूत' का है :

मेघालोके भवंति सुखिनोऽप्यन्ययावृत्तिचेतः

कण्ठश्लेषप्रणयिनिजने किम्पुनर्दूरसंस्थे?"

(मेघागम देखकर जब सुखी लोगों की तबियत भी ऐसी-बसी होने लगती है तो फिर प्रेयसियों के गले लगने को आतुर दूर बसे विरहियों का क्या पूछना ?) शृंगार-रस के इस श्लोक का हमारे गोपी कविराज जैसा अर्थ लगाते हैं, वह सुनने के लायक है ! -अनु.)

-मतलब कहिन कि कंठ में श्लेषा (आश्लेष (आलिंगन) को कविराज 'श्लेषा' कहते हैं और 'श्लेष्मा' (कफ) के अर्थ का संकेत करते हैं ! -अनु.) आ लगने से तो प्राण, जो हैं सो जाते हैं, और ऊ भी जो कहीं दूर चले गए न तो फिर का होगा ! खैर, दूर चले गए हों तो जाने दो, मैं इनकी तरह कोई अनपढ़ कविराज थोड़े ही हूँ ! देखना में रोग को अँगोछे के छोर में बाँध लूँगा ।" इतना कहकर कविराज ने अपने अँगोछे के आँचल के छोर में गाँठ डाल ली ।

मुकुंदा ने पूछा, "रोगी का कोई-कोई अंग सुजता क्यों जा रहा है ?" कविराज ने कहा, "एँ-कहिन कि 'स्वर्णदष्टगुणम् शोथम्' (मूल अर्थ : (दवा बनाने में) सोने के जठगुने अनुपात में पुनर्नवा साग मिलाए । ('शो' शब्द यहाँ अपने दूसरे अर्थ अर्थात् 'शोथध्नी' या 'पुनर्नवा" के अर्थ में प्रयुक्त है। -अनु.) मतलब कहिन की कफ का तो गुण ही जे है कि उससे शोथ यानी सूजन होती है । होती है तो होने दो, कोई परवाह नहीं, पेट में तो कस्तुरी पड़ेगी ही, उसीका टीका भी लगा दिया जाएगा ।" मुकुंदा से नगद चार आने पैसे लेके कविराज ने बटुए से पौन तोला (मूल शब्द : डेढ़ माढ़ । (हिन्दी अंचलों में तो 1 तीला=12 माशे = 12´8 रत्ती=12x8x8 चावल=12´8´8´8 खसखस; लेकिन ओड़ीसा में I तोला=2 माढ़-2´5 माशे=2´5´2 चीना = 2´5´2´4 रत्ती=2´5´2´4´4 धान । इस तरह) डेढ़ माढ़ को हम "पौन तोला' भी कह सकते हैं। और पौन से कुछ कम यानी 7 ॥ माशे भी । -अनु.) कस्तूरी निकाली। अब रहा सवाल अनुपान का । वह भी जरूरी होता है । कविराज बोले, "पाठ कहता है, 'मुस्तकमुकटुकी रात्री, शुष्ठि पिप्पलिमेव च (मूल अर्थ : ''मोथा,, कुटकी, हलदी, सोंठ, और पीपर भी ।'' -अनु.) एँ-, कहिन कि रात को सोंठ-पीपर बच-मोथे को खरल में कूट लो।" मुकुंदा ने पूछा, "ये चीजें कितनी कितनी आएँगी ?" कविराज बोले, "एँ-अनुपानविशेषण करोति विविधान गुणान्' (मूल अर्थ : एक ही दवा अनुपान-भेद से कई तरह के गुण करती है । -अनु.) कहिन कि अनुपान विशेष यानी अधिक कर देने से विद्या यानी कि मुक्का मारने जैसा तत्काल गुणकारी होता है! "

इधर कविराज रोग की व्याख्या और दवा-दारू की व्यवस्था करते रहे और उधर रोगी बेचैन हो उठा, साँसे धीरे-धीरे तेज होती गई, दोनों आँखों के कोनों से दो बूँद आँसू टपक पड़े । मंगराज चार दिनों से पड़े हैं । आसमान की एक ध्यान से निहारते पड़े हैं । कभी-कभी आँखें जरा भर झिप जाती हैं तो सपने में बड़बड़ाते से चौंक पड़ते हैं और कहते हैं 'छै-मा-आ-गुं.-! स्वर क्षण-क्षण क्षीण होते-होते अब कुछ भी नहीं सुनाई पड़ता । जरा सी झपकी लगते ही उन्हें आकाश में कोई भयंकर मूर्ति दिखाई पड़ने लगती है, जिसके विशाल मुंड-मंडल के बाल-जाल बिखरे होते हैं, जिसके बड़े-बड़े उजले-उजले दाँत मूली जैसे होते हैं और जिसकी दो-तीन हाथ लंबी जीभ लपलपाती हुई उन्हें खाने दौड़ती है । मंगराज को ऐसा लगता है मानो ताँती-टोले में, भगिया ताँती के ओसारे में कोई स्त्री लढाई नचाती दिखाई पड़ रही हो । उसी स्त्री की मूर्ति पल भर में भयंकर और विकराल-विकटा रूप धारण करके इस विकृत अवस्था को प्राप्त हुई है । वही मूर्ति मानो वज्रस्वर में कहती है, "दे, मेरी छै 'माण' आठ 'गुठ' ज़मीन दे !" मंगराज सपने में बड़बड़ाते हैं "छै-मा-आ-गुं, छै-मा-आ-गुं"। इसी तरह एक बार फिर मंगराज की आँखें झिपीं । देखा, कोई भयंकर नरकंकाल दिगंत में देह छिपाए, मानो उन्हीं को लीलने को मुँह बाये एक-टक से घूर रहा है । उसे भी पहचाना जा सकता था । यह मूर्ति उसी की है, जिसने जमीन छिन जाने के कारण अनाहार से सूख-सूखकर प्राण त्यागे थे । यह भी देखा कि भागिया जैसे हज़ारों हज़ार पागल आकाशमार्ग में तिर रहे घोर काले मेघों में से निकले आ रहे हैं और सभी के हाथों में तलवारें तथा लोहे के मुगदर हैं । फिर उन्हें ऐसा लगा मानो वे सभी मुगदर एक साथ उनके सिर पर आ पड़े । मंगराज चीख़ मारकर भागना चाहने लगे, पर देह में शक्ति नहीं थी और बोल फूट नहीं रहे थे । बेबसी में मंगराज उस अशरणशरण पतित-पावन भगवान् का पवित्र नाम अपने हृदय के भीतर-ही-भीतर सुमिरने लगे । उन्होंने देखा, अनंत आकाश में सूर्यमंडल से भी अत्यंत ऊर्ध्वतर लोक में रत्नसिंहासन के ऊपर कोई ज्योतिर्मयी, शांतिमयी आश्रयदायिनी स्त्री-मूर्ति विराजमती हैं। पहले भी पीड़ा के समय यही मूर्ति मंगराज की शय्या के पास बैठकर उनकी देह पर अपने कोमल हाथ फेरा करती थी । यह विमानवासिनी लावण्यमयी मूर्ति उसी पूर्वकालिक मूर्ति की प्रतिच्छाया है । अब इस मूर्ति ने अंगुलि-संकेत से मंगराज को अपने पास बुलाना शुरू कर दिया है । मंगराज की आत्मा उसी मूर्ति को लक्ष्य बनाकर धावित हुई । मंगराज की हवेली में रोर उठा :

राम नाम सत्त है!

हरि बोल , हरि बोल, हरि बोल ।

(अनुवाद : युगजीत नवलपुरी)

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