Chhaya Mekhal (Hindi Novel) : Agyeya
छाया मेखल (उपन्यास) : अज्ञेय
अंगारे-सी सुलगती और बड़ी होती हुई आँख कुहरे में से आगे बढ़ती आयी और निकल गयी; क्रुद्ध चिचियाहट के साथ गाड़ी का आकार स्पष्ट हुआ, गाड़ी धीमी हुई और रुक गयी। भाप की व्यग्र सिसकारी कुहरे को और घना करने लगी।
प्लेटफॉर्म पर पट्-पट्-पट् के अकुलाये स्वर के साथ एक स्त्री आकार कुहरे में उभरा; अनिश्चित पैर एक बार इधर मुड़े, एक बार उधर दौड़े; गाड़ी ने भर्रायी-सी सीटी दी और एक गड़गड़ाहट के साथ डिब्बे हिले; स्त्री ने एक दरवाजे के हत्थे पर हाथ रखा और क्षण-भर के अनिश्चय के बाद दृढ़तापूर्वक दरवाजा खोल कर सवार हो गयी। उस स्टेशन पर डाक गाड़ी रुकती नहीं थी, पहले दर्जे की कोई सवारी कभी वहाँ से बैठने आयी तो स्टेशन मास्टर को कह कर गाड़ी रुकवा सकती थी। इस सवारी के साथ सामान नहीं था; इस के लिए यह पाँच-एक सेकेंड का रुकना काफी था - गाड़ी चल दी थी।
दरवाजे पर हिचकिचाने का कारण था। डिब्बे के दरवाजे-खिड़कियाँ सब बंद थे। उनके क्रम से इतना तो बाहर से जाना जा सकता था कि यह डिब्बा कूपे है; पर भीतर जगह होगी या नहीं, या कौन, कैसे लोग होंगे - और उस तड़के के और अप्रत्याशित स्टॉप पर कैसी अवस्था में - किस पोशाक में! - यह जानने का कोई उपाय नहीं था। इतना ही था कि भीतर से सिटकनी बंद नहीं थी, इससे कुछ भरोसा हो सकता...
भीतर अँधेरा था। स्त्री के हाथ थोड़ी देर सहमे-से टटोलते रहे, फिर बटन मिला और उसके दबते ही एक हल्का बैंगनी प्रकाश डिब्बे में फैल गया - अच्छा ही हुआ कि बटन रातवाली रोशनी का था, पूरी रोशनी का नहीं। इसमें देखने लायक काफी रोशनी होगी, खुद वह उतना स्पष्ट नहीं दीखेगी, यह सोचते हुए स्त्री ने चारों ओर नजर दौड़ायी और फिर पहले-से भी कुछ अधिक असमंजस में पड़ कर ठिठक गयी।
कूपे ही था; ऊपर की बर्थ पर सिर्फ दो सूटकेस पड़े थे, निचली पर एक सफेद चादर या कंबल से ढँकी एक लंबी देह सो रही थी; उसके सिरे पर की कुर्सी में एक व्यक्ति भारी कोट में ठोड़ी धँसाये झुका बैठा था - सोता हुआ या जागता हुआ, पता नहीं लग सकता था।
कूपे दो सवारियों के कब्जे में है तो वे बर्थ पर सोएँ या फर्श पर लेटें, और बर्थ पर जूते रखें, किसी तीसरी सवारी को क्या जिसका कोई अधिकार नहीं है - कम के कम दिन चढ़ आने तक! पर क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि यह आदमी ऊपर की बर्थ पर लेट जाता, और वह सिरेवाली कुर्सी खाली मिल जाती? लोग भी न जाने कैसे-कैसे यात्रा करते हैं। और कहीं होता तो स्त्री के लिए जगह छोड़ दी जाती - पर चलो, अच्छा ही है, नहीं तो अकेली स्त्री के साथ ज्यादा गैलेंट्री बरतने लगें तो अलग मुसीबत हो...
उँह! कौन बहुत दूर जाना है। खड़े रहेंगे। स्त्री ने बर्थ और कुर्सी की ओर पीठ फेर ली; दरवाजे के भीतरी हत्थे पर हल्का-सा हाथ टेक कर खड़ी हो गयी। घंटे भर में जंक्शन भी आ जाएगा, रोशनी भी हो जाएगी : जगह न बनी तो वह डिब्बा बदल भी लेगी - कोई उसे सामान ढोना है!
बैंगनी रोशनी वह पूर्ववत् बुझा दे, या रहने दे? उँह, वह क्यों परवाह करे, जिसे गरज होगी, उठ कर बुझा लेगा! और इन्हें तो देखो, कैसे पसर कर सोये हैं - जैसे लाश पड़ी हो! इतनी नींद कैसे आती है लोगों को रेलगाड़ी में? और मुँह-सिर सब लपेट कर सोते कैसे हैं - दम नहीं घुटता?
गड्ड-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्-गड्ड गड़ाट्, न जाने कैसे लोग गाड़ी की गड़गड़ाहट में 'छे-छे पैसे चल कलकत्ते' सुन लेते हैं! 'छुक्-छुक् गाड़ी' कहने तक तो बात ठीक है, निभती है, पर आगे? हो सकता है कि अलग-अलग तरह की बोगियों से अलग-अलग बोल सुनाई देते हों - अठपहिया गाड़ी की लय भी चौपहिया बोगी से अलग होगी और बोल भी दूसरे होंगे, और सोलहपहिया - पर आठ के बाद बारह पहियेवाली होती है कि सोलहवाली? यह गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट् यह लय तो बारह पहियोंवाली जैसी लगती है... या कि इस बात से फर्क पड़ता है कि रेल की पटरियों के जोड़ बराबर-बराबर आते हैं कि आगे-पीछे? 'छे-छे पैसे चल कलकत्ते'-गड़गड़-गड़गड़, गड़गड़-गड़गड़... तीन ताल। या फिर गड़ड़-गड़ाट्-गड़ड़-गड़ाट्-दादरा।...
''आप यहाँ बैठ सकती हैं।''
स्त्री ने चौंक कर मुड़ कर देखा, कुर्सीवाला आदमी उठ कर खड़ा हो गया है।
''नहीं, थैंक्स।''
''आप नाराज हो सकती हैं कि मैंने पहले क्यों नहीं ऑफर किया। सोये हुए होने का बहाना भी मैं नहीं कर सकता। कुछ सोच में खो गया था, माफी चाहता हूँ।''
''नहीं-नहीं, आप बैठें, मुझे थोड़ी ही दूर जाना है।''
क्षण-भर रुक कर, मानो यह समझ कर कि उसे खड़ा कर के स्त्री नहीं बैठेगी, उसने कहा, ''मैं-मैं यहाँ अपने साथी के पास बैठ जाऊँगा।'' कहते-कहते वह 'साथी' के पैताने एक कूल्हा जरा-सा टेक कर बैठ गया।
स्त्री ने विवश भाव से कुर्सी स्वीकार करते हुए कहा, ''आप अपने साथी को पैर थोड़ा समेट लेने को नहीं कह सकते कि बैठने की जगह हो जाय?''
जवाब देर में मिला। इस बीच स्त्री ने कनखियों से देख लिया कि वह आदमी फिर 'कुछ सोच में खो गया था'।
''नहीं। वह पैर समेट नहीं सकता। असल में - ही इज डैड।''
आँ - ...स्त्री के मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल गयी। जीवन में पहली बार छोटे स्टेशन पर डाक गाड़ी रुकवा कर सफर किया तो - एक लाश के साथ! फिर अपने को संयत करती हुई बोली, ''मैंने आप को कष्ट दिया, मैं दोबारा माफी चाहती हूँ। आप यहीं कुर्सी पर बैठें - मुझे खड़े-खड़े कोई कष्ट नहीं होगा। आप न मालूम कितनी दूर से आये हैं - कितनी देर का और सफर है!''
आदमी ने हाथ के इशारे से उसे हिलने से बरज दिया, बोला नहीं।
देर बाद उसने कहा, ''दूर से तो नहीं आया। हाँ, देर करने की गुंजाइश मेरे साथी को नहीं है, यह आप समझती हैं न...''
अब की बार स्त्री को उत्तर देने की जल्दी - या जरूरत भी - नहीं थी। देर बाद, थोड़ी घुटन का अनुभव करते हुए, वातावरण को थोड़ा हिलाने की जरूरत से ही, उसने कहा, ''आप - उन्हें - घर ले जा रहे हैं? आपके - रिश्तेदार थे? क्या हुआ था?''
''घर!'' अजीब ढंग से यह एक शब्द कह कर आदमी देर तक चुप रहा। ''हाँ, उसके घर ले जा रहा हूँ। मेरा रिश्तेदार नहीं था, साथी था। पर रिश्तेदार से ज्यादा - भाई से ज्यादा। आप समझ सकती हैं?''
''हाँ... आई एम सॉरी... क्या हुआ था?''
आदमी ने मुड़कर उसकी ओर देखा। क्या वह बैंगनी रोशनी का ही करिश्मा था, या कि इसलिए कि उस कोण पर से आँखें नहीं दीखती थीं, सिर्फ अँधेरे गड्ढे और वे भी विवर्ण त्वचा के एक ढाँचे में से, कि क्षण-भर स्त्री को लगा, आदमी नहीं, उसका 'साथी' ही उसकी ओर देख रहा है? उसने सिहर कर दीठ फेर ली और सन्न प्रतीक्षा में बैठी रही। कभी तो आदमी बोलेगा ही! और अभी नहीं भी बोलेगा तो वह सवाल पूछ लेने के बाद कुछ न कुछ-चाहे कैसा भी - जवाब मिलने तक तो वह और कुछ नहीं कह सकती है... लेकिन यह - ढाँचा - यह चेहरा एकटक उसकी ओर देखता क्यों जा रहा है, कुछ बोलता क्यों नहीं? और देर तक ऐसे देखेगा तो वह चीख पड़ेगी, सह नहीं सकेगी...
''गोली लगी थी। गोलियाँ लगी थीं - कई एक। मृत्यु भी तत्काल नहीं हुई - देर से हुई।'' कुछ रुक कर, यत्नपूर्वक ठंडे और तटस्थ किये हुए स्वर में, ''कष्ट के साथ हुई...''
स्त्री को लगा कि दोबारा 'आई एम सॉरी' कहने का कुछ मतलब नहीं होगा; मगर इसके अलावा वह कहे भी क्या, यह वह सोच नहीं पायी। केवल फेरी हुई आँखें उसने फिर आदमी की ओर मोड़ लीं, चुप देखती रही। उसे आँख चुराने की क्या जरूरत है? वह भी एकटक देख सकती है। पुरुष है तो क्या हुआ।
देर बाद उसने सधे स्वर में कहा, ''और बताएँगे?'' कुछ रुक कर, ''दुखे तो न बताएँ। पर कभी अजनबी को बता देने से दर्द बहलता भी है।''
अजनबी। गड्ड-गड़ाट्, गड्ड-गड़ाट्... दो अजनबियों के बीच गाड़ी की गड़गड़ाहट की यह दीवार : दो अजनबियों के? तीन के? कि गाड़ी खुद चौथा अजनबी है, कि यह सारा घटना-प्रपंच ही एक अजनबी है जो अपने में सबको समेटे ले रहा है -
''अजनबी। हूँ... आपने सुना है न - या उपन्यासों में पढ़ा होगा - कि लोग अचानक, अकारण अजनबियों पर विश्वास कर लेते हैं; जो बातें किसी से नहीं कही वे उनसे कह देते हैं...'' यहाँ तक स्वर सम था, फिर एकाएक धारदार हो आया, ''क्यों कह देते हैं?''
स्त्री ने, कुछ ऐसे भाव से मानो परीक्षा देता उम्मीदवार हो, उत्तर दिया, ''जी हल्का होता है। इनसान फिर अपने को इनसान पहचान लेता है। दर्द के दबाव से इनसान पत्थर हो जाता है; किसी पर विश्वास कर सकने से दर्द पसीजता है तो पत्थर के नीचे दबा इनसान निकल आता है।''
आदमी ने आगे ढिठाई के लिए साहस बटोरते स्वर से कहा, ''आप ऐसे बोलती हैं जैसे आपको कुछ पता ही हो।''
समाज में होता, तो वह भी ऐसा ही व्यंग्य-भरा जवाब देती, या कुछ बड़ी स्मार्ट बात कहती। यहाँ... यहाँ उसका न मौका है, न जरूरत। आदमी ने पैंतरा नहीं दिखाया, खरी बात ही कही है। चुप भी अगर खरी बात नहीं, तो पैंतरा तो नहीं है। वह चुप रही।
थोड़ी देर बाद दूर की एक अनुगूँज बोली, ''क्यों कह देते हैं? कैसे भरोसा कर लेते हैं?''
एकाएक स्त्री को लगा कि इस आदमी में कहीं कुछ है जो बच्चा है : सरल और अबोध और अविकृत है, पर सहारा माँगता है क्यों कि सहारे में आस्था रखता है। उसने कहा : ''अजनबी अजनबी होते हैं। पर भरोसा करो तो अजनबी नहीं रहते - बँध जाते हैं और भरोसे के बंधन से निकलना कोई आसान काम नहीं होता।''
जवाब नदारद। आदमी ने उसकी बात मानी, या मानने लायक न पा कर गिर जाने दी? चेहरे पर या मुद्रा में, कहीं कोई संकेत नहीं मिला। सिर्फ एक बार उसने चेहरा उठा कर नजर चारों ओर फिराते हुए थोड़ी देर ऊपर की बर्थ पर पड़े सूटकेस पर टिकायी, तो उन अँधेरे गड्ढों में आँखें चमक गयीं : गहरी, स्वच्छ आँखें-निश्छल, लेकिन - लेकिन -क्या विशेषण दे उस गुण को जो उसे लक्षित हो रहा है? - प्राइवेट... हाँ। निश्छल लेकिन प्राइवेट आँखें। आँखों को प्राइवेट कहना क्या ठीक है? छल वहाँ नहीं है, पर ये आँखें अपनी बात किसी से कहतीं नहीं, अपने तक रखती हैं - अविश्वास के कारण नहीं, अपनापे की अक्षुण्णता की रक्षा के लिए...
स्त्री ने कहा : ''पहल मैं करती हूँ। मैं पुलिस कप्तान की बेटी हूँ। घर से भाग कर आयी हूँ - अभी सवेरे। तभी इस छोटे स्टेशन पर आ कर गाड़ी पकड़नी पड़ी। मोटर मैंने बाहर छोड़ दी, वह दिन में कभी पहचान ली जाएगी और वापस मँगा ली जाएगी।''
आदमी ने अब एक दिलचस्पी से उसकी ओर देखा। यह दीठ नयी थी; स्त्री को अच्छा लगा, कुछ सफलता का-सा अनुभव हुआ।
''पुलिस कप्तान की बेटी - कौन-मिस्टर जैतली की बेटी? मिस जैतली?''
खुली आँखों की स्वीकृति : बोल कर स्वीकार करना जरूरी नहीं है। मगर थोड़ी देर बाद एक चौंकने का-सा भाव।
''तो आप मिस्टर जैतली को जानते हैं। कैसे जानते हैं?''
''ठीक जानता तो नहीं। नाम जानता हूँ। देखा है। कर्रे पुलिस अफसर मशहूर हैं। जल्दी-जल्दी तरक्की पाते रहे हैं।''
कर्रे। कर्रे। यानी क्या? अच्छे कि बुरे? डिपेंड्स कि आप किस तरफ हैं। टफ। अगली बात से अपने आप पता लग जाएगा।
''पुलिस कप्तान की बेटी वैसी अजनबी तो नहीं है जिस पर भरोसा करने की हिम्मत आसानी से हो जाय - इतना तो आप मानेंगी।''
''मान लेती हूँ।''
अगर 'कर्रे' की ध्वनि वह नहीं समझी थी, तो इस 'मान लेती हूँ' की व्यंजना उसके पल्ले भी आसानी से नहीं पड़ेगी। न पड़े। ठीक ही है।
''पुलिस कप्तान पुलिस कप्तान होता है - वर्दी, बिल्ले, कंधे पर ताज और तारा, सिर पर टोपी, हाथ में बेंत या कमर पर पेटी से लटकता रिवॉल्वर - यह सब तो हम जानते रहते हैं। पर यह नहीं सूझता कि पुलिस कप्तान की बेटी भी होती है, और वह भी...'' कहते-कहते आदमी ने अपने को रोक लिया।
स्त्री को उत्कंठा हुई कि पूछे, वह भी क्या? जवाब जरूर अच्छा लगेगा... पर स्त्री-मन ने यह भी पहचाना कि उधर जोखम है, और चुप रही।
गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्...
''मिस जैतली!''
स्त्री ने दीठ उठा कर उधर देखा; कुछ कहा नहीं, मानो इतना जता दिया कि वह अन्यमनस्क नहीं है, सुन रही है।
''आपने शायद अखबार में इस बारे में कुछ पढ़ा हो - घटना का एक सतही ब्योरा।''
वह रुक गया; मिस जैतली को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी - इतने कम आधार पर यह कैसे बता सकती हैं कि 'इस' बारे में कुछ पढ़ा या नहीं।
''मेरे साथी का नाम है वीरेश्वर नाथ - नाम था। नहीं, नाम है, साथी-था। क्रांतिकारियों के साथ था। जिस घटना में मारा गया उसे छोड़िए - क्योंकि इस समय का तथ्य यही है कि शिकार पार्टी में अकस्मात् गोलियाँ लग गयीं जिससे मृत्यु हुई। राजा साहब का बयान भी था जिनकी शिकार पार्टी थी, सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट भी कि दुर्घटना में मृत्यु हुई। राजा साहब ने ही लाश घर ले जाने की व्यवस्था करा दी।''
वह थोड़ी देर रुका तो मिस जैतली ने कहा, ''इस दुर्घटना का ब्यौरा तो पढ़ा था, याद पड़ता है - शायद परसों ही, न?''
''हाँ। अब आप समझती हैं न - पुलिस कप्तान को घटना के एक दूसरे ब्यौरे में कितनी दिलचस्पी हो सकती है, मिस - जैतली?''
नाम पर जिस ढंग से उसने बल दिया, उसका संकेत स्पष्ट था।
''मैं घर छोड़ आयी हूँ। समझ लीजिए कि नाम भी छोड़ आयी हूँ। जैतली नाम था तो, अब नहीं है; अब - सिर्फ सोमा। वह भी चाहे अगले स्टेशन पर उतरते तक छोड़ दूँ - नाम पूरा ही नया ठीक होगा।''
''मैं - मेरा नाम है सामंत - मोहन सामंत। डॉक्टर। वीरेश्वर की लाश उसके घर ले जा रहा हूँ।''
''वहाँ कौन है?''
''उसकी विधवा माँ। घर अच्छा खाता-पीता है - पिता का कारोबार था - एक भाई भी है, पर कहाँ, इस का पता नहीं; कुछ बरस पहले विदेश चला गया था और सुनते हैं कि वहाँ जम गया है; पर पक्का पता नहीं।''
''बेचारी माँ... उसे कुछ पता है?''
''मृत्यु का तो पता लग गया है, हमारे आने की खबर भी दे दी गयी थी। और -
''नहीं, मेरा मतलब - ''
''मैं समझ गया। कुछ तो पता होगा ही - निश्चय ही था। कितना, यह नहीं कह सकता; पर अगर पता है कि क्रांतिकारियों के साथ है तो बाकी सब अपने-आप ही जाना हुआ मान लेना चाहिए। आखिर माँ है। और अब तो कुछ राजनीति में भी काम करती है - शायद बेटे के प्रभाव से।''
''बेचारी... तो वहाँ - आप मदद करेंगे?''
''मदद... पता नहीं। यानी क्या मदद चाही जाएगी, पता नहीं।'' सामंत थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, ''मिस जैतली - सोमा जी, आप को अजनबी मान कर ही सलाह पूछूँ तो आप देंगी?''
''पूछिए। भरसक कोशिश करूँगी।''
एक लंबी चुप रही जो भारी नहीं लगी, क्योंकि उस में कहीं दोनों ओर से सहजता की स्वीकृति थी : बात टूटी नहीं है, केवल विश्रांति के एक स्थल पर है; जब चलेगी तो अपने-आप आगे चल पड़ेगी।...
''वीरेश्वर की अंतिम इच्छा थी कि उसकी लाश बेच दी जाए।''
''क्या?'' सोमा अपनी अचकचाहट छिपा नहीं सकी थी, इसलिए सवाल पूछ बैठने के बाद उसने अपना ओठ काट लिया।
''हाँ। उसकी इच्छा थी कि लाश बेच दी जाए और उससे जो आय हो वह उसके क्रांतिकारी दल को दे दी जाए।''
अबकी बार सोमा चुप रही, सामंत भी प्रतीक्षा में रहा कि बात पूरी पैठ जाय तब आगे चले।
''लाशें बिकती भी हैं? कौन लेता है? किस लिए? और क्या-बहुत दाम मिलेंगे जो...''
''बिकती तो हैं। मेडिकल कॉलेजों के आखिरी सालों के विद्यार्थी लेते हैं - कभी-कभी डॉक्टर भी जो सर्जरी का विशेष अभ्यास करते हैं। आम तौर पर लावारिस लाशें -जिन का सत्कार नगरपालिका के जिम्मे पड़ता है। खाने में अंतिम सत्कार का खर्चा दिखा दिया जाता है, और जिनके जिम्मे यह काम होता है वे लाश बेच लेते हैं - सब का फायदा हो जाता है - और लाश का कुछ बिगड़ता नहीं।''
''कैसी बात करते हैं आप!''
''शायद गलत ही कह रहा हूँ। लाश का कुछ बिगड़ता नहीं, यह कहनेवाला मैं कौन होता हूँ - जानता भी कैसे हूँ! मतलब यह कि - इट डजंट माइंड।''
''डजंट माइंड - कैसी बात करते हैं! आप अपने साथी की लाश चीर-फाड़ के लिए बेच देंगे, और उसकी माँ को दुःख नहीं होगा?''
''मैं लावारिस लाश की बात कह रहा था, जिसकी ओर से माइंड करनेवाला कोई न हो। और 'इट' की ही बात कर रहा था, और किसी की नहीं। आखिर लाश के बारे में हम जो सोचते हैं, हमारी भावुकता ही तो है - लाश को उससे क्या होता जाता है? आप देखिए न - हमारे संस्कार में भी जो लाश को एक अपवित्र चीज माना गया सो क्यों? मृतक के बंधु-परिजनों की भावनाएँ पवित्र हों, लाश तो लाश है - ''
सोमा ने कुछ वितृष्ण भाव से कहा, ''बोलते जाइए - ''
सामंत उस वितृष्णा को लक्ष्य कर के रुक गया। थोड़ी देर बाद बोला, ''आप इसे हृदयहीनता न समझें - आप से सलाह ही पूछना चाहता हूँ, पर बोलते-बोलते ही तो बोल पाऊँगा। आखिर मैं भी तो अपने साथी ही की बात कर रहा हूँ - किसी लावारिस की नहीं।''
''मैं माफी चाहती हूँ।''
''लाश के बहुत अधिक पैसे तो नहीं मिलते। 'रेट' जो भी है आखिर लावारिस लाशों का है : न खरीदनेवाले को चीर-फाड़ का कोई अधिकार होता है, न बेचनेवाले को बेचने का ही कोई अधिकार : चोर-बाजारी ही तो है। और उतने पैसे शायद दूसरी तरह भी मिल सकें, अगर क्रांतिकारी दल को आर्थिक समस्या की ही बात हो। पर अंतिम इच्छा का भी तो मूल्य होता है न - और यह एक आदर्शवादी जेस्चर तो है ही कि मरने के बाद के अवशेष भी दल के काम आवें। है कि नहीं रोमांटिक जेस्चर?''
सोमा नहीं कह सकी कि नहीं है।
''असल में इस सारे क्रांतिकारी आंदोलन में रोमांटिक तत्त्व खासा है। मैं जानता हूँ और स्वीकार करता हूँ। यह उसकी बुराई के लिए नहीं कहता, सही पहचान के लिए ही कहता हूँ, रोमांटिक आइडिया में बल है - और उसकी शक्ति का प्रयोग करना चाहना क्यों गलत है? खास कर उस आंदोलन के लिए जो 'सभी संभाव्य साधन' काम में लाने को तैयार है - जायज मानता है?''
सोमा के पास इसका जवाब नहीं, न वह बहस करना चाहती है।
''अंतिम इच्छा की बात तो है। पर फिर भी, लाश बेच कर मिलेगा क्या?''
''मैंने कहा न, बहुत अधिक नहीं। शायद दो सौ रुपया। वह भी तत्काल गाहक मिले तब। बेचनेवाला यहाँ माल दबाकर नहीं बैठ सकता, यह तो आप समझती हैं न। ...लेकिन यही तो सलाह पूछना चाहता हूँ आपसे। मैं माँ को जा कर बता दूँ कि वीरेश्वर की अंतिम इच्छा क्या थी, तो वह क्या करेंगी? मान जायेंगी? मानेंगी तो, और न मानेंगी तो - उन्हें भयानक कष्ट होगा। पर न बताऊँ तो वह जिम्मेदारी क्या मुझे ओढ़नी चाहिए?''
सोमा देर तक चुप रही। फिर उसे ध्यान आया कि काफी देर हो गयी है और उस से कुछ-न-कुछ जवाब तो अपेक्षित है ही अब, इसलिए कुछ और मोहलत पाने के लिए उसने पूछा, ''आप-उस समय थे वहाँ? आप ही को बताया था वीरेश्वर ने?''
''नहीं। मैं नहीं था। जो लोग थे वे उसे उठा लाये थे। उन्हीं ने डॉक्टरी जाँच-वाँच का सारा काम किया। मुझे तो बाद में सारी घटना बताई गयी और यह काम सौंपा गया।''
सोमा बोली नहीं, पर उसकी आँखों में जो प्रश्न था उसे सामंत ने ठीक ही समझा : 'आखिर आप को क्यों?'
''इसी लिए कि मैं सारी घटना से थोड़ा अलग था - थोड़ी दूर था। जो लोग ज्यादा निकट थे, सब कहीं इधर-उधर हो गये होंगे - वह जरूरी होता है। मैं छिप कर रहने को बाध्य नहीं था। फिर यह भी है कि वीरेश्वर मेरा साथी था, और उसकी माँ मुझे पहचानती भी है।''
थोड़ी देर दोनों चुप रहे।
''इससे मेरा काम कुछ कम कठिन नहीं हो जाता। आखिर मैं क्या कहूँगा माँ से? वह बड़ी हौसलेवाली है, फिर भी।''
फिर एक लंबी चुप। गाड़ी उसी लय पर गड़गड़ाती हुई चली जा रही है। तेज हो, या धीमी हो, तो कहीं पहचान हो कि चल रही है, काल के आयाम में चल रही है; इस एक-सी चाल से मानो वह एक कालातीत क्षण में लटकी हुई है और वह क्षण लंबा होता जा रहा है, लंबा होता जा रहा है... और कोई इस दीर्घायित निश्चलता को तोड़ने को तैयार नहीं है...
गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्...
सोमा को संदेह हुआ कि गाड़ी की गति तनिक-सी - एक बहुत बेमालूम तनिक-सी, धीमी हुई है। पर इतना बोध-भर उसे कालातीत निष्क्रियता की परिधि से नीचे फेंक देने को काफी था। उसने एक नियंत्रित हड़बड़ी से कोट के पल्ले की ओट पड़ा हुआ पर्स उठाया, खोल कर उस में से बटुआ निकाला, उसकी एक तह खोल कर उस में से तहाये हुए कुछ नोट निकाले और हाथ सामंत की ओर बढ़ाती हुई बोली, ''मिस्टर सामंत, ये चार सौ रुपये हैं। आपको - जो दो सौ रुपये मिलते इन्हें उनके एवज में समझ लीजिए। अपने साथी का शव आप उसकी माँ को सौंप कर उसका ठीक से दाह-कर्म कराइए, और रुपया उसकी पार्टी को दे कर उसकी अंतिम इच्छा पूरी कीजिए। बल्कि मेरी समझ में तो दो सौ रुपया पार्टी को दीजिए, बाकी दाह-कर्म के लिए दीजिए। पार्टी क्या करेगी या करती है, मैं नहीं जानना चाहती, पर उससे मुझे कोई हमदर्दी नहीं है, यह तो आप साफ-साफ समझते हैं न?''
सामंत थोड़ी देर तक उसके बढ़े हुए हाथ की ओर देखता रहा। फिर उसने हाथ बढ़ा कर नोट ले लिये। संकोच से मुक्त होता हुआ-सा सोमा का हाथ लौट कर कोट में छिप गया। सामंत का हाथ अधर में नोट सँभाले टिका रहा; सामंत एकटक उसकी ओर देखता रहा, मानो नोटों को खींच कर अपनी ओर नहीं ला पा रहा है। नोटों को वहीं-का-वहीं टाँके हुए-से रखता वह ठंडे स्वर में बोला : ''आप दयालु गाहक हैं - कद्रदाँ हैं। मेरे दोस्त की लाश आप की हुई। आप जहाँ कहें, पहुँचा दूँ। आप का माल है, पर ढुलाई का जिम्मा अभी मेरा है।''
सोमा का बदन एक बार थरथरा गया। फिर उसका जी हुआ कि कस कर एक तमाचा सामंत के मुँह पर मार दे। फिर जैसे भीतर ही भीतर एक प्रकाश की कौंध ने उसे सँभाल दिया। आखिर सामंत को भी कैसा लग रहा होगा - कैसे वह इस स्थिति को सँभालेगा सिवाय इस तरह अपने को, अपने साथी को, सभी को तीखे व्यंग्य की बरछी से छेदे बिना? वह क्या तमाचा सामंत को मारेगी, जब वह स्वयं एक दुखती जगह पर तमाचा मार कर उस दर्द को दबा देना चाह रहा है... उसने संयत होकर कहा, ''आपको क्या करना है, मैंने बता दिया। आपने सलाह पूछी थी।'' उसका ध्यान शून्य में टँके हुए नोटों की ओर गया। स्वर में कुछ और नरमाई लाते हुए उसने कहा, ''इसे जेब में रख लीजिए। चाहे दो में बाँट कर रख लीजिए, जैसा मैंने कहा है, चाहे सब दे दीजिए अगर आपको वही ठीक लगे - मुझे मत बताइए, क्योंकि उस फैसले में मैं कहीं नहीं हूँ; वह आपका ही है।''
सामंत चौंका जैसे कि अधर में टँके वे नोट उसे अभी-अभी एकाएक मिल गये हों। ''हूँ।'' कर उसने धीरे-धीरे हाथ अपनी ओर समेटा और नोट जेब में रख लिये।
थोड़ी देर बाद बोला, ''थैंक यू, मिस जैतली। आपने मेरा बोझ हल्का कर दिया। अभी तो नहीं, बाद में मैं वीरेश्वर की माँ को उसकी अंतिम इच्छा की पूरी बात बता दूँगा - उन्हें अच्छा लगेगा। शायद कुछ सांत्वना मिलेगी - तब जब सांत्वना पाने लायक हालत उनकी होगी... थैंक यू।''
''मिस जैतली नहीं, सोमा। और थैंक यू नहीं - मुझे तो बिल्कुल नहीं। बल्कि आपकी तरह बात करूँ तो कहूँ कि थैंक तो डैडी को कीजिए क्यों कि रुपये तो उनके हैं। मैं उन्हें बताने को चिट्ठी तो छोड़ आयी हूँ - पर रुपये मैंने उनके अनजाने उठाये हैं और अभी तक तो उन्हें पता नहीं है।''
''तब तो थैंक्स मिस जैतली को ही गये - और ऋणी मैं आपका हूँ। सोमा जी का।''
सोमा ने हाथ के इशारे से सारी बात को एक तरफ ठेल दिया : आभार-वाभार का तकल्लुफ आखिर कहाँ तक खींचा जा सकता है।
जहाँ थोड़ी देर पहले नोट थे, मानो उसी जगह पर टँकी हुई एक चुप्पी दोनों के बीच रह गयी; दोनों सूनी-सी आँखों से उधर देखते बैठे रहे। फिर सामंत उठा; ऊपर की बर्थ से सूटकेस उतार कर उसने फर्श पर रखा और डिब्बे की दीवार से पीठ टेकता हुआ उस पर बैठ गया। अभी तक वह तिरछे हो कर एक कंधे के ऊपर से ही सोमा से बात कर पा रहा था, अब सामने से कर सकता था। पर अब बात कुछ नहीं हो रही थी।
गड़ड़-गड़ाऽट्, गड़ड़-गड़ऽट्... गाड़ी की चाल सचमुच कुछ कम तेज हो गयी थी, यद्यपि धीमी नहीं : जंक्शन अभी दूर ही होगा, पर वहाँ गाड़ी की सूचना की एक घंटी बज गयी होगी...
''आप कहाँ, जंक्शन पर उतरेंगे?''
''नहीं, उससे दो स्टेशन और आगे जाना होगा। आप...?''
''मैं...'' सोमा अचकचा गयी। यह सवाल उसने अभी स्पष्ट अपने-आप से भी नहीं पूछा था। धुँधला-सा उत्तर वह जानती थी कि तीन-चार घंटे की यात्रा तो वह करेगी ही : कहाँ उतरेगी, इसके दो-तीन विकल्प उसके सामने थे और समय से पहले वह परेशान नहीं होना चाहती थी। ''मैं-मैं और आगे जाऊँगी।''
सामंत ने और नहीं पूछा।
गाड़ी की गति कुछ और धीमी हो गयी।
सामंत ने उठ कर सूटकेस खोला, उसमें से एक फूलमाला निकाल कर उसे बंद किया, फिर वह फूलमाला चादर के ऊपर से ही बर्थ पर पड़े शरीर के सिर की ओर पहना दी। फिर सूटकेस पर बैठ गया; घुटनों पर कोहनियाँ टेक कर गाल हथेलियों में छिपा लिये; आँखें अनदेखती-सी अधर पर टिक गयीं।
सोमा समझ गयी कि यह जंक्शन के लिए तैयारी है, कुछ बोली नहीं।
गाड़ी थोड़ी और धीमी हो गयी।
''आपको पहचाने जाने की कोई चिंता नहीं है? आप के पिता का इलाका है?''
सोमा ने चौंक कर कहा, ''नहीं।'' पर मन-ही-मन सोचा, यह आदमी ठीक समय पर ठीक बात सोच लेता है और उपाय कर लेता है। अच्छी बात है। और उसने पीठ टटोल कर साड़ी का पल्ला खींच कर कोट के बाहर निकाल लिया : यथा समय वह सिर ढँक लेगी और जरूरी होगा तो चेहरा भी ओट कर लेगी।
गाड़ी और धीमी हुई तो सामंत ने कहा, ''मैं दरवाजे पर खड़ा रहूँगा। वैसे तो कूपे रिजर्व हैं, कोई आएगा नहीं, पर कभी कोई कम-से-कम झाँक लेना जरूर चाहते हैं। आप वहीं बैठी रहें।''
सोमा ने सिर संक्षिप्त-सा हिला दिया।
भीड़ थी, बहुत नहीं। दरवाजा बिल्कुल बंद भी छोड़ा जा सकता था, कि कोई खटखटाये तो ही जवाब दिया जाए, पर सामंत का अनुमान ठीक ही था कि दरवाजा खुला रखने में ही कम झंझट होगा - कोई कुछ पूछेगा भी नहीं। दो-एक आदमियों ने जिद कर के भीतर झाँका जरूर, पर चादर पर पड़ी माला देख कर ठिठके और 'सॉरी!' कहते हुए आगे बढ़ गये। एक सज्जन ने दोनों हाथ जोड़ कर स्वल्प-सा नमस्कार भी किया और मुँह फेरते हुए जल्दी से निकल गये। सोमा सिर पर आँचल डाले सिमटी बैठी रही। आठ-दस मिनट कितने लंबे होते हैं, इसके बारे में तरह-तरह के अनुमान उसने किये थे, पर बैठे-बैठे उसे लगा कि खैर, बहुत लंबे तो नहीं होते...
प्लेटफॉर्म पर चहल-पहल विरल हो गयी। सामंत ने एकाएक मुड़ कर धीमे स्वर में पूछा, ''आप को चाय-वाय तो नहीं पीनी है?''
सोमा ने सिर हिला दिया, और एकाएक अपने सिर हिलाने के ढंग पर उसे थोड़ा अचंभा भी हुआ; कैसे उसने इस सारी स्थिति में अपने को मिल जाने दिया है कि वह उस लाश के पाँयते बैठी है और सामंत उससे चाय के लिए पूछ रहा है... पर जब यही होना था कि वह जीवन में पहली क्या, एकमात्र घर-बार छोड़ कर भागे और बिना स्टॉप के स्टेशन पर गाड़ी रुकवा कर उस में बैठे तो उसमें एक लाश का साथ हो जाय, तब और किसी संयोग पर वह क्या चौंके! नहीं, वह उतर कर दूसरे डिब्बे में भी नहीं जाएगी - तब सोच लेगी कि उसे कहाँ उतरना है, किस के पास जाना है...
सीटी बजी होगी, उसने अपने सोच में नहीं सुनी। गाड़ी चल पड़ी।
मगर इस स्टेशन पर इतने लोग क्यों थे? और सब गाड़ी के रुकने से पहले ही अकुलाये-से इधर-उधर खोजते-से दौड़ने लगे थे, हालाँकि स्पष्ट था कि ये न पहले दर्जे की सवारियाँ हैं, न सवार होने को उतावली हैं। फिर एकाएक सोमा की समझ में आ गया कि कारण क्या होगा; सामंत दरवाजा खोल कर उतरा तो उसने जल्दी से आँचल से सिर अच्छी तरह ढँक लिया। लोग वहीं आयेंगे लाश उतारी जाएगी -
इससे आगे सोचने का उसे मौका नहीं मिला। चार-पाँच आदमी कूपे में घुस आये थे; एक ने बाहर लटक कर दबे-से स्वर में पुकारते इशारा किया, 'इधर हैं, इधर हैं!' और कई और लोग भी उधर बढ़ आये।
इन्हें लाश उतारने में तकलीफ होगी। रास्ते में हटने के लिए सोमा आँचल और नीचा खींच कर अपने को समेटते हुए उठी और डिब्बे से नीचे उतर गयी। लोगों ने एक स्ट्रेचर या अरथी डिब्बे के बराबर प्लेटफॉर्म पर रखी और निःशब्द समझौते से लाश के पास कतार लगा कर खड़े हो गये कि कैसे उसे हाथ दे कर नीचे उतारेंगे।
एकाएक भीड़ के भीतर अलग एक स्त्रियों की टोली से एक अधेड़ उम्र की खद्दरपोश महिला आगे बढ़ीं, लोगों ने उनके आगे रास्ता छोड़ दिया, लाश पर झुकते हुए एक ही कलेजा-फोड़ सिसकी में उन्होंने कहा, ''हाय मेरा बेटा-मेरा बीरू - '' और फिर वह सिसकी नीरव हो गयी, केवल शरीर का ढाँचा काँपता रहा जैसे भीतर-ही-भीतर मथा जा रहा हो। देखती हुई सोमा की आँखों में भी आँसू आ गये, उसे डर लगा कि वह भी सिसक उठेगी, उसने आँचल और नीचा खींच कर तमतमाया चेहरा बिल्कुल ढँक लिया और साथ ही एकाएक उसे यह याद कर के संतोष भी हुआ कि सवेरे-सवेरे लोगों का ध्यान न आकृष्ट करने के ख्याल से वह एक सादी सफेद धोती पहन कर ही घर से निकली थी -नहीं तो इस परिस्थिति में कितनी कनस्पिकुअस हो जाती!
अधेड़ महिला सीधी खड़ी हो कर एक तरफ हट गयी। स्पष्ट था कि उसने बड़े संकल्पपूर्वक अपने को वश में किया है, और केवल इसलिए नहीं कि भावनाओं का प्रदर्शन अशोभन होगा, कुछ इस बोध से कि जो घटित हो रहा है, वह ऐतिहासिक है और उस ऐतिहासिक घटना में कहीं उसका भी स्थान है - उसे भी एक भूमिका निबाहनी है। सोमा के मन में प्रशंसा का भाव उठा, साथ ही संकोच का भी कि वह स्वयं ऐसी स्थिति के लिए कितनी अप्रस्तुत है; संकोच से वह और भी सिमट कर झुक गयी।
महिला उतर आयी थी; लाश भी उतार ली गयी थी। गार्ड कुछ दूर पर खड़ा देखता रहा था; कार्यवाही पूरी हो गयी जान कर उसने सीटी दी और साथ ही गाड़ी ने; दरवाजे पर खड़े हुए लोगों ने क्षण-भर मानो संकेत की प्रतीक्षा में एक-दूसरे की ओर देखा; झटके से गाड़ी के खिंचने की गड़गड़ाहट 'राम नाम सत्त है!' की पुकार में मिल गयी; सोमा गाड़ी की ओर मुड़े-मुड़े सोचने ही लगी थी कि दो बाँहों ने एकाएक उसे घेर लिया और एक बिल्कुल टूटे हुए दिल की कराह उसके कंधे पर फूट पड़ी : ''मेरी बहू - मेरी बेटी -ईऽईऽई...''
सोमा बिल्कुल सकते में आ गयी थी। परिस्थिति का यह मोड़ संभावना से भी परे था, अकल्पित था। पर जब परिस्थिति ने यह मोड़ ले ही लिया तब एकाएक वह यह पहचानने को भी बाध्य थी कि इससे अधिक स्वाभाविक क्या हो सकता था? अधेड़ महिला की कौली में उसने देह को कुछ कड़ा करने की कोशिश की थी, पर वह आलिंगन और घना हो आया था; और वह कराह इतनी टूटी हुई, इतनी कातर थी कि उस जकड़ से अपने को छुड़ाने में जल्दी करना सोमा को अनावश्यक क्रूरता लगी। बेटे की लाश के सामने माँ एक ऐतिहासिक भूमिका अदा कर रही थी - वह शहीद की माँ थी; पर अनजान बहू के सामने अपना दुःख-दुर्भाग्य कबूलने में क्या संकोच, वह तो खुद उतनी अभागी और दुःख की मारी होगी...
परिस्थिति से भावना के मामले में बेलाग हो कर उसे देख सकने में कुछ सहारा था, पर उससे परिस्थिति के बाहर शरीर से तो नहीं निकाला जा सकता था! गाड़ी चली गयी थी। लाश को लोगों ने थोड़ी-सी सलाह के बाद उठा लिया था; सलाह इस बात को ले कर हुई थी कि बँधा हुआ चेहरा उघाड़ा जाए या नहीं, पर सामंत ने एक बड़े दुर्निवार इशारे से सब को रोक दिया; लोग समझ गये कि चेहरे की हालत शायद अब देखने लायक न होगी - क्या पता चेहरा भी हो कि न हो! - और एक बार चोर आँखों से उस खद्दर-धारिणी महिला की ओर देख कर सब कंधा देने के लिए झुक गये थे। पुरुषों की टोली लाश के पीछे हो ली थी; स्त्रियों की टोली उसके पीछे जुट रही थी जिसके केंद्र में वह खद्दर-धारिणी अधेड़ महिला अपनी बाँहों के घेरे से सोमा को मानो और सब से बचाती हुई खड़ी थीं।
भीतर ही भीतर सोमा ने अपना सामना किया और हार मान ली। उसे क्या जल्दी है कहीं पहुँचने की; और कौन बड़ा जोखम है थोड़ी देर विधवा बहू बनने में - इस सार्वजनिक मौके से निकल कर वह अकेली होगी तो कुछ-न-कुछ कर लेगी... उसने शरीर ढीला छोड़ा; बाँहों से प्रेरित जिधर को चलायी जा रही थी, चलने लगी। इस प्रकार माँ और वह बाकी स्त्रियों से आगे, कुछ अलग भी हो गये थे; इसमें सोमा को थोड़ी रक्षा भी दीखी - इस तरह वह फिलहाल उनके कुतूहल से तो बची रहेगी...
कैसी होती होगी क्रांतिकारी की बहू - शहीद की विधवा!
बाहर थोड़ी देर शायद इस पर विचार हुआ कि लाश ट्रक पर रखी जाएगी या लोग कंधा दे कर ले जायेंगे; ट्रक लाया गया था पर कंधा देना चाहनेवालों की बात ऊपर रही। ट्रक के पीछे एक मोटर थी; माँ के साथ सोमा उधर प्रेरित होती गयी और गाड़ी में बिठा दी गयी; अगली सीट पर किसी ने सामंत को बिठाने की कोशिश की, पर वह छिटक कर कंधा देनेवालों के साथ हो लिया। और कोई स्त्री वहाँ बैठे? पर कोई बैठने को नहीं बढ़ी; उनकी टोली ज्यों-की-त्यों रही। तब गाड़ी का दरवाजा बंद कर दिया गया। उस अल्पकालिक और आंशिक अकेलेपन में सोमा को एकाएक लगा कि वह बहुत थक गयी है, बहुत थक गयी है। ...उसने शिथिल हो कर सिर माँ के कंधे पर टेक दिया। माँ ने तुरंत दूसरा हाथ उठा कर उसके सिर को और कंधे के साथ सटा लिया और धीरे-धीरे थपकने लगी। सोमा को पल-भर तो लगा कि वह फूट पड़ेगी; वैसा तो नहीं हुआ पर एक बड़ा-सा आँसू टपक कर माँ की कलाई पर गिरा; उसकी थपकी एक पल ही-भर को ठिठकी और फिर जारी हो गयी। मोटर धीरे-धीरे सरकने लगी। आगे रह-रह कर स्वर गूँज उठता : ''राम नाम सत्य है!''
राम नाम सत्य है! लेकिन सत्य क्या है? राम के अलावा भी कुछ वह है कि नहीं?
2
चौथे तक सोमा जैसे स्वप्नाविष्ट-सी चली आयी थी। जो कुछ घटित हुआ, यह नहीं कि उस में से कुछ उसकी नजर से ओट हो गया हो, या उसकी छाप अधूरी ग्रहण की गयी हो; पर कर्तृ-भाव जैसे उस में नहीं रहा था, या स्थगित था। वह कुछ कर नहीं रही थी, कुछ हो रहा था जिस में वह भी अनिवार्य रूप से थी। वीरेश्वर की माँ शोभा देवी ने सारी स्थिति ऐसी कुशलता से सँभाल कर अपने अधीन कर ली थी कि सोमा देखती रह गयी थी। उसे अच्छा भी लगा था कि यह अधेड़ और साधारण पढ़ी विधवा इस तरह परिस्थिति पर काबू रखे है - इतना अच्छा लगा था कि वह प्रायः भूली-सी रही थी कि उस परिस्थिति का वह भी हिस्सा बनी हुई है : कि विधवा का काबू उसे भी अपनी परिधि में समेटे है।
इस का कारण भी था। इस में रक्षा थी। कार में जबसे अपनी बाँहों के घेरे में शोभा देवी ने सोमा को बाकी स्त्रियों से अलग कर लिया था तब से वह उसे बराबर ओट दिए हुए थीं। अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ निस्संदेह सहानुभूति प्रकट करने आयी थीं, पर उनमें कम कुतूहल भी नहीं था वीरेश्वर की उस बहू को देखने का जिस का उन्हें अब तक पता भी नहीं था - माँ को ही कहाँ पता था कि वीरेश्वर ने विवाह कर लिया था! इतना ही तो वह जानती थीं कि क्रांतिकारियों में प्रायः ऐसा होता है कि सहकर्मिणी ही सहधर्मिणी भी बन जाती है। यह स्वाभाविक भी है; वैसे गोपन काम के लिए सुविधा और सुरक्षाजनक भी, और सच बात यह है कि जब नौजवान लड़के-लड़कियों का दिन-रात का साथ हो और वह भी जोखम और तकलीफों से भरा, तो अच्छा है कि उनके जोड़े बन जायें... कुछ ऐसी बात दूसरी स्त्रियों को समझाते हुए शोभा देवी को सोमा ने सुना भी था। सोमा को आगंतुकों और मातमपुर्सी करनेवालों से बचाने के लिए शोभा देवी सबसे दूसरे कमरे में ही मिलती थीं - कोई बहू के साथ हमदर्दी दिखाता भी था तो वह कह देती थीं, 'उसे अभी अकेला छोड़ दो - सँभल लेने दो - अभी तो बिचारी रो भी नहीं पायी है...' या कभी अपनी ही बात को काटती हुई, 'रो सकती भी तो नहीं होगी : ऐसे कर्रे काम करनेवालों को रो सकने की छूट थोड़े ही होती होगी...' वह एक शहीद की माँ है, एक राष्ट्रकर्मी की जो गोली खा कर मरा है, इस बात की याद से उन्हें स्वयं तो एक गर्व का बोध भी होता था, वह उन्हें स्त्री-समाज के बीच कुछ ऊँचा उठा देती थी और उन्हें लगता था कि उन्हें इस समाज को बताना है कि ऐसी स्थिति कैसे ओढ़ी और निबाही जाती है, ऐसा दुःख कैसे सहा जाता है... कहीं मन में छिपा हुआ यह भाव भी रहा होगा कि यह न रोनेवाली, चुपचाप कलेजा फूँकनेवाली क्रांतिकारिणी बहू भी तो जाने कि वह भी शहीद की माँ है, वह भी बिना हारे अपना दुःख ढो सकती है... कमरे में सन्न बैठी रहती सोमा ने इस बात को भाँप लिया था; कभी उसको अपने ऊपर कुढ़न भी होती कि वह क्यों ऐसे अपने को परिस्थिति के शिकंजे में और कसता जाने दे रही है; पर साथ ही ऐसी छोटी-छोटी बातों की पहचान से उसे कुछ सहारा भी मिलता था - वे उसकी स्थिति को कुछ अधिक सहनीय नहीं तो कम दुस्सह तो बनाती ही थीं... स्त्रियों का आना-जाना दिन-भर ही रहता था; तीसरे पहर सबको घरों में अवकाश होता था इसलिए उस समय आवा-जाही बढ़ जाती थी; पर शोभा देवी को तीसरे पहर कांग्रेस के दफ्तर में काम करने जाना होता था इसलिए थोड़ी देर में सबको विदा कर के वह सोमा से कह जाती थीं कि नीचे का कुंडा बंद कर ले और महरी के आने या स्वयं उनके लौटने तक किसी के लिए न खोले। सोमा को भी इसमें बड़ी सुविधा थी। शोभा देवी के चले जाने पर वह अकेली बैठी कुछ-न-कुछ पढ़ती रहती थी; नीचे कुंडा खड़कते ही वह माथा ढक कर जा कर किवाड़ खोल देती और फिर धीरे-धीरे लौट आती थी।
और मोहन सामंत? दाहकर्म वाली शाम के बाद से उसे सोमा ने देखा नहीं था। उस रात तो वह माँ से कुछ बात करने आया था। तभी मौका देख कर आगे बढ़ कर धीरे से कह गया था, 'अम्मा मुझे मन्नू नाम से ही जानती हैं, ध्यान रखना!' उसके बाद फिर नहीं दीखा। उसे नीचे बाहर का कमरा दिया गया था; नीचे से ही वह सवेरे नाश्ता कर के चला जाता था और रात को किसी समय आता था। सोमा मन-ही-मन उस पर बेहद कुढ़ रही थी, पर बिना उससे मिले और बात किये अपना कर्तव्य निर्धारित भी नहीं कर पा रही थी। एक बार उसने चाहा था कि शोभा देवी से पूछे - पर क्रांतिकारियों के बारे में पूछना होता है कि नहीं - क्रांतिकारियों में ऐसा पूछना संभव है कि नहीं, इस बारे में शंका होने से वह झिझक गयी। आखिर तो मिलेगा ही, जब मिलेगा तब सलट लेगी, तब तक उसे भी क्या जल्दी है! यह सोच कर वह रह गयी थी।
पर पाँचवें दिन सवेरे ही माँ ने आ कर पूछा, ''बहू, मन्नू को तूने कहीं भेजा है, या तुझसे कुछ कह के गया है?''
सोमा ने चकित हो कर कहा, ''नहीं तो, अम्मा जी! मैंने तो तीन दिन से देखा ही नहीं।''
''रात का खाना भी वैसे ही रखा है - रात को आया नहीं लगता। मैं तो नाश्ता देने गयी थी।''
''बाहर-बाहर चले जाते हैं।'' सोमा कह गयी, फिर उसे ध्यान आया कि आदरसूचक बहुवचन तो ठीक नहीं है।
''रात को दरवाजा नहीं खुलवाता?''
''नहीं, बाहर का कमरा बाहर से भी बंद होता है। चाभी उसके पास है। देर-सबेर आता-जाता है न। न मैं पूछती हूँ, न जरूरत से ज्यादा कुछ जानना चाहिए - है न? पर खाना रखने को तो कह गया था?''
''मुझे तो कुछ पता नहीं। पहले भी ऐसा करता रहा है?''
''पहले कब! बरसों बाद तो आया है। मैं तो अचानक और कहीं मिलती तो पहचान भी पाती कि नहीं, पता नहीं। बीरू के खेल के साथियों में था - मुझे क्या पता था कि आगे क्या-क्या खेल खेलेंगे ये लोग!''
शोभा देवी थोड़ी देर चुप रहीं। फिर बोलीं, ''बहू, देश का काम तो देश का काम है। सबके रास्ते अपने-अपने हैं, इनके-इनके। क्या तू भी तो उसी रास्ते की है! - रास्ते दूसरों को तकलीफ देनेवाले हैं, पर माँओं का तो काम ही है सब सहना। पर तू ही कह, यह बिना बताये चल देने की तकलीफ देना क्या हमेशा जरूरी होती है? मैं क्या रोकती हूँ? मैंने अपने सगे बेटे को नहीं रोका तो...'' एकाएक उनकी आवाज भर्रा आयी, उन्होंने चुप हो कर आँचल के छोर से आँखें दबा लीं और क्षण-भर बाद बोलीं, ''तेरी सुनता है?''
सोमा क्या जवाब दे? ''अम्मा जी, बात करने का मौका होता तो तब तो बताऊँ! पर मैं पूछूँगी आया तो।''
''हाँऽ - वैसे तो तुम लोगों के काम में कौन किससे बात करता होगा!''
पानी गहरा ही होता जाता है।
''नहीं, माँ जी, सो बात नहीं। कभी तो बात होती ही है। मैं जरूर पूछूँगी।''
''पूछना, बेटा। पर क्या पता, कब तू भी ऐसे ही बिना बताये चली जाएगी, और मैं बरसों राह देखती बैठी रहूँगी। बरस भी क्या दिखाएँगे, तू आएगी कि...''
अब की बार वह अपने को सँभाल नहीं सकीं। सोमा कहती रह गयी कि ''नहीं माँ, मैं बताये बिना नहीं जाऊँगी - '' और शोभा देवी उठ कर दूसरे कमरे में चली गयीं। वहाँ से कुछ पटक-पटक कर झाड़ने-पोंछने के स्वर सुन कर सोमा समझ गयी, शोभा देवी को स्वस्थ होने में थोड़ी देर लगेगी।
थोड़ी देर बाद उसने धीरे से पुकारा, ''अम्मा जी!''
''अभी आयी।''
सोमा बैठी सामंत पर कुढ़ती रही। अब आये तो लिहाज नहीं करना होगा। कुछ साफ-साफ बात करनी ही होगी। हालाँकि ठीक क्या बात, पर उसके सामने स्पष्ट नहीं हो रहा था। विचार इसी बात पर अटक गया कि अच्छा हो ऐसे समय आये जब शोभा देवी सामने न हों - नहीं तो बात करना बहुत कठिन हो जाएगा - परिस्थिति निबाह कर बात करने की चिंता में वह गुस्सा ठीक-ठीक प्रकट भी कर पाएगी कि नहीं, पता नहीं! पर आये तो सही, आये तो सही...
''क्या है, बहू?''
सोमा अचकचा गयी। वह भूल गयी थी कि क्या कहने के लिए उसने अम्मा को पुकारा था। बोली, ''मुझे कुछ काम बताइए न - खाली तो बैठी रहती हूँ।''
शोभा देवी ने नरम स्वर में कहा, ''कर लेना काम, बेटी। ऐसा क्या काम रहता है!'' फिर कुछ बदल कर, ''पर तुझे काम भी क्या सौंपूँ - तू रहेगी भी?''
सच्चाई का भी आग्रह था, अनुकूल मौका भी था, सोमा ने संकोच दिखाते हुए कहा, ''अम्मा जी, सो तो है। चली तो जाऊँगी जल्दी ही। बता कर जाऊँगी। पर जाना तो होगा ही-''
''हाँ तू देश का ही काम करना। अम्मा का काम जैसे इतने दिन हुआ है, और हो लेगा। तेरा घर है, जब आएगी आ जाना। मैं कुछ पूछूँगी नहीं - इतना तो बीरू ने मुझे सिखा दिया। पर तू अभी से जाने की सोच रही है?''
अब मौका बनता जा रहा है, इसे छोड़ना नहीं होगा! ''हाँ, अम्मा जी, जल्दी ही जाना होगा। सामंत आ जाए तो तै करूँगी।''
माँ थोड़ी देर चुप रहीं। फिर बोलीं, ''तो तेरी पार्टी में उसका नाम सामंत है!''
सोमा ने ओठ काट लिया। यह क्या वह कह गयी? पर साथ ही एक प्रश्न भी उसके मन में अटक गया : मन्नू वीरेश्वर का बचपन का साथी है; यह तो हो सकता है कि शोभा देवी उसका पूरा नाम भूल गयी हों, पर सामंत नाम सुन कर भी उन्हें याद न आये, इस पर विश्वास करने में जरा जोर पड़ता है... प्रश्न को टालते हुए उसने पूछा, ''अम्मा जी, मन्नू के घर के लोग क्या यहीं आसपास कहीं रहते हैं?''
''रहते थे। अब तो चले गये हैं। बाप कहीं दफ्तर में काम करता था। बीरू की तो आदत थी, अपने खेल के साथियों को स्कूल से ही साथ ले आता था - अम्मा, यह मन्नू है, यह रामू है, यह मोहन है, यह फलाना है... जैसे बस, इतना नाम जान कर मैं सब को अपने ही बेटे मान लूँगी! पर सब मेरे बेटे ही तो हैं - '' कहते-कहते माँ फिर उदास हो गयीं।
सोमा ने बात को सँभालने और राह लाने के लिए फिर पूछा, ''कहाँ चले गये वे लोग?''
''ठीक तो याद नहीं? लखनऊ गये थे - या नहीं शायद; हाँ, बरेली बदली हो गयी थी, ऐसा सुना था। यह भी कभी सुना था कि मन्नू डॉक्टरी पढ़ेगा, कॉलेज में भरती हुआ है-''
हूँ... डॉक्टरी पढ़ेगा... डॉक्टर मोहन सामंत...
''अम्मा जी, कितने बरस हो गये?''
''आठ-दस बरस तो हो ही गये। पढ़ता होगा तो अभी पढ़ ही रहा होगा - बीरू से तो दो बरस छोटा था। बीरू ने तीन बरस पहले कॉलेज छोड़ा था - पर बीरू की बात तुझे क्या बताऊँ, तू तो सब जानती होगी!''
''अम्मा जी, क्रांतिकारियों के बारे में कौन क्या जानता है! कितना भी जान लो, और जानने को बहुत कुछ रह जाता है।''
''सो तो तू ठीक कहती है, बहू। मैं ही समझती रही, बीरू मेरा बेटा है, नौ महीने मेरे पेट में रहा, मुझसे ज्यादा उसे कौन जानेगा। पर फिर रोज नये गुल खिलने लगे तो समझ में आया, कोई किसी को नहीं जानता या जान सकता - सब जैसे एक दूसरा चेहरा पहने हुए इस दुनिया में आते हैं, एक-दूसरे से मिलते हैं, नाते-रिश्ते जोड़ते हैं और चले जाते हैं। सब सोचते हैं कि हम एक-दूसरे को पहचानते हैं, पर कोई किसी को नहीं पहचानता - कोई किसी को नहीं पहचानता...''
इस चिंता-धारा को थोड़ी देर बह लेने का, विचार को पच जाने का समय दे कर सोमा बोली, ''अम्मा जी, अपने को ही कौन पहचानता है - दूसरों के नाम और चेहरे तो सब जानते हैं, या समझते हैं कि जानते हैं - पर खुद जो चेहरा पहने हैं उसे भी पहचानते हैं या नहीं, इसका भी क्या ठिकाना है। मुझे तो लगता है, कभी एकाएक शीशे में चेहरा दीख जाय तो यही सोचते रह जायें कि सामने कौन खड़ा है! वह तो पहले से जान लेते हैं कि शीशे में मुँह देखना है, तो जो मुँह दीखता है उसे अपना मान लेते हैं।''
शोभा देवी को लगा कि बात जितनी उन्होंने कही थी उससे आगे बढ़ गयी है - उन्हीं का दिया हुआ विचार था पर ज्यादा उलझ कर, गहरा हो कर लौट आया है। अनिश्चित स्वर से बोलीं, ''हाँ, बहू...'' फिर बात को कुछ बदलते हुए उन्होंने कहा, ''बीरू के कुछ पुराने बचपन के फोटू घर में हैं, दिखाऊँगी। बाद के उसने सब ले लिये थे - जला दिये। कहता था कि ऐसी चीजें जितनी कम हों, अच्छा। वह तो बचपन के फोटू भी सब जला देता, मैं लड़ गयी!''
सोमा ने जल्दी से कहा, ''देखूँगी, अम्मा जी, सब देखूँगी।'' वह फोटो देखने के संकट से भरसक बचना भी चाहती थी, पर उदासीनता दिखाने से भी कैसे चलता, इसलिए उसे कुछ कहना ही था।
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। फिर शोभा देवी ने कहा, ''अभी तक भी नहीं आया। अब क्या पता कब आएगा - आज आएगा भी कि नहीं - कल-परसों, दस दिन बाद... माँ होना भी एक शाप ही है...'' कहती-कहती वह उठ खड़ी हुईं, ''चल कर कुछ काम करूँ - भगवान् जो दिखाएँगे, देखना ही होगा...''
''अम्मा जी, मैं कुछ नहीं कर सकती?''
''करेगी, करेगी - '' पुचकारते-से स्वर में कहती और साथ ही बरजती हुई शोभा देवी चली गयीं।
मिलने आनेवालों की बैठक का समय भी हो गया। सबको विदा कर के शोभा देवी जाने की तैयारी करने लगीं तो नीचे कुंडा खड़कने की आवाज सुनाई दी। शोभा देवी ने ऊपर से ही आवाज दी, ''कौन - मन्नू?''
नीचे से सामंत की आवाज आयी, ''हाँ, अम्मा!''
''आ गया तू? बता के तो जाना चाहिए - मैं सोच-सोच के मरती रही कि पता नहीं क्या हो गया - ''
''अम्मा, काम पड़ गया थ। इतनी देर हो जाएगी, यह ख्याल नहीं था। और रात बाहर रहने का जरा भी ख्याल होता तो जरूर बता जाता, अम्मा!''
''हूँ, सब एक-से ही होते हैं! ...कुछ खाया-वाया है, लाऊँ?''
''खा आया, माँ। अब रात को ही...''
''अच्छा, अब तो यहीं रहेगा न? मैं बाहर जा रही हूँ। कहीं जाएगा तो बहू से कह के जाना - उस से बात कर के जाना।''
सोमा की कल्पना ही थी, या कि स्वर धीमा हो जाने के साथ कुछ सहमा-सा भी हो गया था, ''हाँ, अम्मा। अभी आता हूँ।''
शोभा देवी नीचे उतरीं और थोड़ी देर और मन्नू पर भुनभुना कर चली गयीं। नीचे किवाड़ बंद हो गये। सन्नाटा हो गया। थोड़ी देर उसे सुनते रहने के बाद सोमा ने आवाज दी, ''सामंत - ए डॉक्टर साहेब!''
कुछ घबराई-सी आवाज में उत्तर आया, ''आया - हाजिर हुआ।'' सीढ़ियों पर जूतों की छप्-छप् हुई जो ऊपर की सीढ़ियों पर आते-आते कुछ धीमी हो गयी, फिर दरवाजे के पास सामंत का स्वर बोला, ''कहिए।''
''कहती हूँ - सामने तो आइए जरा!''
सामंत धीरे-धीरे सरकता हुआ कमरे के भीतर आ गया।
''मुझे यहाँ ऐसे फँसा कर लापता हो जाने का क्या मतलब होता है?''
सामंत थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, ''मैंने फँसाया, यह कहना तो आप का सरासर अन्याय है। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने क्या एक शब्द भी कहा जिससे यह स्थिति आ गयी? कोई ऐसी हरकत की?''
सोमा को मन-ही-मन मानना पड़ा कि उसकी बात में तत्त्व है। पर इस बाध्यता से उसका गुस्सा भड़का ही। ''न कहा सही, हरकत न की सही; पर ओमिशन का अपराध भी उतना ही बड़ा होता है। क्यों नहीं कह सकते थे कि यह हमारे साथ नहीं है?''
सामंत ने भी थोड़ा तेज पड़ कर कहा, ''आप क्यों नहीं कह सकती थीं? रेलगाड़ी भर लोग थे - मैं क्या सब के बारे में कहने गया था कि मेरे साथ नहीं हैं?''
''पर आपके डिब्बे में तो नहीं थे - कूपे में साथ लड़की हो और बाकी रेलगाड़ी में लोग हों, क्या एक बराबर होते हैं?''
''कूपे में साथ लड़की हो क्यों? मैंने तो नहीं बुलाया था।''
सोमा को अपने पर और खीझ आने लगी। क्यों उसने यह गलत नुकता चुना झगड़ा करने के लिए?
''तुम अपने साथी की लाश उसके घर पहुँचाने ला रहे थे, रास्ते में उसे बेच कर पैसे बना लिये!''
सामंत तिलमिला गया। ''आपको यह जानने में दिलचस्पी हो, तो वह सारा रुपया मैं पार्टी के खाते में जमा कर आया हूँ। पर आप कहिए, आपने क्या सोच कर वह लाश खरीद ली?''
''तुम्हारी सॉब-स्टोरी सुन कर पिघल गयी। मैं लाश भी खरीद नहीं रही थी, उसे बेचने के संकट से तुम्हें मुक्त कर रही थी।''
''आपका एहसानमंद हूँ। पर उससे आगे जो कुछ हुआ, उसकी मेरी जिम्मेदारी नहीं है। बल्कि आप के यहाँ आने ने मेरे लिए कुछ कम मुश्किल नहीं खड़ी की है''
''क्या मुश्किल खड़ी की है, मन्नू साहब? कि आपको - ''
''जो भी की है, उसका ब्योरा अब नहीं दूँगा - बेकार है। अब जो स्थिति है सो है -कि आप इस घर की बहू हैं, मेरे भाई की विधवा - ''
आग के धुएँ-से में एक कदम आगे बढ़ कर सोमा ने कहा, ''जरा इधर तो देखो, देवर!'' और तड़ से एक तमाचा सामंत के गाल पर जड़ दिया। दूसरा हाथ उठा कर वह एक और भी थप्पड़ जमानेवाली थी कि सामंत ने उठा हुआ हाथ पकड़ लिया; सोमा ने फिर पहला हाथ उठाया और सामंत ने वह भी पकड़ लिया। सोमा एक क्षण फुफकारती-सी उसे देखती रही, फिर एकाएक झटके से उसने हाथ छुड़ा, फुरती से सामंत के आगे को झुके हुए बालों का लच्छा पकड़ कर झटक दिया। अप्रत्याशित वार से लड़खड़ाये सामंत से उसका दूसरा हाथ भी छूट गया। झटका देने में सोमा का अपना कच्चा जूड़ा भी खुल गया था और बाल ढलक कर चेहरे पर आ गये थे; एक हाथ से उन्हें हटाते हुए फिर आगे बढ़ कर उसने कहा, ''खबरदार जो मुझे फिर विधवा कहा तो!''
उसके इस रूप से सामंत काफी सहम गया था। सोमा का हाथ फिर उठा हुआ है, यह देख कर उसने भी फुर्ती से बढ़ कर उसके दोनों हाथ फिर पकड़ लिये। अब की बार वह सावधान था, इसलिए कलाइयों पर उसकी जकड़ काफी कड़ी थी। कसमसा कर सोमा ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, 'चट्!' सी एक हल्की आवाज से उसने जाना कि उसकी कलाई की काली चूड़ी टूट गयी है, और क्षण-भर बाद ही एक तीखे दर्द से पहचाना कि काँच कलाई में चुभ भी गया है। इससे क्रोध कम नहीं हुआ, बल्कि आग में मानो घी ही पड़ा; उसने फिर अपने को छुड़ाने की व्यर्थ कोशिश की और फुफकारते हुए कहा, ''विधवा-विधवा-विधवा! एक दिन तुम्हारी ही विधवा बनूँगी, तब - ''
सामंत ने उसकी कलाइयाँ छोड़ दीं और दो कदम पीछे हट गया। क्षण-भर सोमा के तमतमाये, अस्तव्यस्त रूप को और धौंकनी-से चलते हुए सीने को निहारता रहा, फिर बोला, ''आयी मस्ट से, मिस जैतली आप के हौसले बड़े बुलंद हैं।''
सोमा अपने मुँह से निकल गयी बात की व्यंजनाएँ सोच कर ही बौखलाई हुई थी; सामंत की बात की व्यंजना से और भी हतप्रभ हो गयी। उसे सूझा नहीं कि सामंत की इस नयी ढिठाई का कैसे जवाब दे। थोड़ी देर उसे घूरती रही, मानो दीठ की आग से ही भस्म कर देगी, फिर केवल एक शब्द बोली, ''स्कंक!'' और उसकी ओर पीठ फेर कर खड़ी हो गयी।
दोनों एक लंबे क्षण तक ऐसे ही खड़े रहे : मानो एक-दूसरे को तौलते हुए - सामंत भरपूर आँखों से उसे देखता हुआ, वह कनखी से उसकी शिस्त लेती हुई, दोनों निश्चल; जैसे शिकार और शिकारी दोनों ताक में हों कि कौन हिले तो कौन वार करे... फिर सामंत ही हिला - पर वार करने को नहीं; वह नीचे झुका, टूटी हुई काली चूड़ी का काँच उठाने के लिए। और तब सोमा को वह जवाब सूझ आया जो ऐन समय पर नहीं सूझा था।
''किसी की विधवा बनने के लिए उससे ब्याह जरूरी नहीं है, मिस्टर - डॉक्टर सामंत; यह शिक्षा मुझे आप ही से मिली है। गलतफहमी में न रहिएगा।''
सामंत फिर कुछ कहने को हुआ, पर उसने अपने को रोक लिया। बदले स्वर में बोला, ''सोमा जी, आपकी कलाई कट गयी है - खून बह रहा है। आई एम सॉरी, बिना चाहे हर बार मैं आपको चोट पहुँचाता हूँ - ''
सोमा ने नजर झुका कर कलाई की ओर देखा। सचमुच खून बह कर हथेली पार करता हुआ उँगलियों तक आ गया था। वह फर्श पर न टपके, इसलिए मुट्ठी बंद कर के हाथ उठा कर वह जाने लगी तो सामंत ने कहा, ''काँच कहीं अंदर न रह गया हो - मुझे देखने दीजिए - '' और रूमाल निकाल कर आगे बढ़ आया।
संग्राम से सोमा थक गयी थी। उसने सामंत को कलाई पकड़ कर देखने दी; टोह कर सामंत ने एक जगह से त्वचा दबायी और काँच के दो टुकड़े भीतर से निकाले। खून कुछ अधिक बहने लगा था, रूमाल वहीं दबा कर वह बोला, ''इसे तनिक ऐसे ही पकड़े रहिए, दवा मैं ले कर आता हूँ - '' और फुर्ती से नीचे उतर कर रुई, पट्टी और मरहम की एक ट्यूब ले आया।
''पट्टी-वट्टी रहने दीजिए - अम्मा को क्या बताऊँगी!''
सामंत ने एक बार अनुताप-भरी, याचक दृष्टि से उसकी ओर देखा और जैसे बात मान ली; घाव साफ कर के उसने मरहम लगा कर रुई का गाला उस पर रखा और बोला, ''थोड़ी देर इसे दबाये रखिए, खून अभी बंद हो जाएगा, और यह दवा महकेगी भी नहीं।''
सामंत डॉक्टर हो या न हो, उपचार तो अच्छा करता है, और उसके हाथ में वह लिहाज, वह मजबूत नरमी है जो डॉक्टर के हाथ में होती है या होनी चाहिए...
सोमा धीरे-धीरे हट कर एक ओर चौकी पर बैठ गयी, सामंत खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद जैसे हौसला जुटाता हुआ बोला, ''सोमा जी, आपने बुलाया था - यह एक अच्छी-खासी वारदात तो हो गयी पर काम की बात तो शायद कुछ नहीं हुई। वह कर नहीं लेनी चाहिए?''
सोमा ने कहा, ''हाँ। इसका फैसला तो जब जैसा होगा, होगा। अभी तो मान न मान, मैं तेरा मेहमानवाली हालत है - वी जस्ट हैव टु पुल टुगेदर।''
''घबराइए नहीं, सोमा जी, नाव कुछ ऐसी खस्ता नहीं है, न यह अभी मँझधार ही है - कोई ऐसा बड़ा प्रॉब्लेम नहीं है - ''
सोमा ने तीखी नजर से उसकी ओर देखा : नहीं, वह हँस नहीं रहा था। तब बोली, ''हाँ, प्रॉब्लेम बड़ा नहीं है। मुझे यहाँ से निकलना है, बस। और जाऊँगी तो अम्मा जी को बता कर जाऊँगी, यह मैंने उन्हें वायदा कर दिया है। पर जब भी जाऊँगी, वह मान लेंगी -क्रांति का रास्ता उनका नहीं है पर क्रांतिकारियों की जिम्मेदारी के प्रति उनमें बड़ी श्रद्धा है।''
''क्रांतिकारियों की, और उनकी बहुओं की - है न?'' कहते-कहते सामंत ने उसकी ओर देखा। थोड़ा-सा मजाक करने का मौका वह चूकना नहीं चाहता था, पर डर भी रहा था कि इस कँटीले रास्ते पर पैर रखते ही फिर हंगामा तो नहीं हो जाएगा।
सोमा ने फिर भड़कने की जरूरत नहीं समझी। बोली, ''हाँ, तो परसों का कह दूँ? कल भी जा सकती, पर उन्हें बता कर थोड़ा समय दे देना चाहती हूँ। उन्होंने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं है, अचानक उनके जीवन में आ गयी हूँ; उन्होंने जो स्नेह दिया है, उसकी ऋणी भी हूँ - बिना वजह उन्हें तकलीफ नहीं देना चाहती।''
''सो तो है। पर आप चाहें तो सोच सकती हैं कि आपने भी उन्हें कुछ दिया है -हिसाब बराबर है।''
''वह कैसे?''
''उनका बेटा था - अब नहीं है। माँ के पास अब क्या बचता है? कुछ नहीं। पर बहू है तो - कंटिन्यूइटी है, फ्यूचर के साथ भी एक रिश्ता है, सिर्फ पास्ट के साथ नहीं।''
सोमा थोड़ा-सा झिझकी; फिर उसने झकझोर कर अपने को समझाया कि आज की दुनिया में ऐसी बातों में संकोच कोई नहीं करता और वह यों भी कौन अपनी बात कर रही है, एक सिद्धांत की ही तो बात कर रही है बोली, ''कंटिनीइटी ऐसी बात बहू के साथ तो नहीं, संतान के साथ हो सकती - या संतान के एक्स्पेक्टेशन के साथ। यहाँ तो वह सब लागू नहीं होता।''
''वैसी बात होती तब तो बहुत बड़ा सहारा होता - तब आपको - तब बहू के घर छोड़ कर जाने का भी कोई सवाल न होता, कम से कम फिलहाल। पर इतना भी कम नहीं है। फिक्र करने को कोई हो, यह भी सहारा होता है। आप चली जायेंगी तो वह आपके बारे में सोचेंगी कि कब कहाँ क्या कर रही होगी बेचारी; बेटे को ले कर जो कुछ वह अब नहीं सोच सकतीं बहू को ले कर सोचेंगी और उन भावनाओं को बहने का रास्ता मिलता रहेगा।''
सोमा ने मानते हुए भी स्वीकार न करते हुए कहा, ''होगा। आई सपोज-क्रांतिकारियों को भी अपनी सफाई के लिए कोई-न-कोई दलील तो खोजनी पड़ती है! माँ-बाप को छोड़ कर चल दते हैं तो क्या उनके भले के लिए, या उनकी भावनाओं को बहने का रास्ता देने के लिए?''
इस पटरी का अंत आ चुका था। सामंत ने पूछा, ''कहाँ जायेंगी, आपने तै कर लिया?''
''हाँ। पहले तो दिल्ली जाऊँगी। वहाँ से आगे और - उसके बाद कोई प्रॉब्लेम नहीं है।''
''मुझे मुरादाबाद जाना है। वहाँ तक साथ चल सकता हूँ - इफ यू विश। नहीं तो यहीं से दूसरी गाड़ी में बैठ जाऊँगा।''
''क्यों, मेरा क्या हर्ज है? ठीक है। परसों तै है। कारण आप अम्मा जी को बता दें तो - जाने की बात मैं कह दूँगी।''
''मैं ही कह दूँगा - कह दूँगा कि मैं पहुँचाता जाऊँगा।''
''और कि खबर भी देता रहूँगा - यों आपकी बात का भरोसा तो उन्हें क्या ही होगा!''
सामंत नीचे उतर गया।
शोभा देवी ने आते ही पूछा, ''क्या बात है, बहू?''
सोमा चौंकी। किस बारे में पूछ रही हैं?
''रोयी है?''
''नहीं तो, अम्मा जी - ''
''चेहरा उतरा हुआ है।'' कहते-कहते उन की नजर सोमा की कलाई पर पड़ी। खून तो नहीं बह रहा था, पर कटा हुआ तो दीखता था। और काँच की एक काली चूड़ी ही सही, उसकी अनुपस्थिति तो फौरन खटकती है।
''चूड़ी तूने तोड़ी - चूड़ी टूट गयी!'' अपने अनुमान पर एकाएक करुण वात्सल्य से भर कर उन्होंने एक बाँह से सोमा को घेर लिया।
''टूट गयी, अम्मा जी!'' सोमा समझ रही थी कि अम्मा जी क्या सोच रही होंगी; उन्हें वैसा सोचते जाने देना भी वह नहीं चाहती थी, पर रोकने के लिए क्या कहे जो उसकी स्थिति में प्रत्याशित लगे, यह भी वह नहीं तै कर पा रही थी। पर शोभा देवी को भी लगा कि इस बात को छोड़ देना चाहिए; अधिक चर्चा से शायद दुःख उभरेगा ही... फिर किसी समय बात कर लेंगी; काँच की एक चूड़ी में कोई हर्ज भी नहीं है और रहना भी नहीं चाहिए, उन्हें थोड़ा सहारा रहेगा... शहीद की विधवा कोई साधारण विधवा नहीं होती, वह अपने वैधव्य को भी सौभाग्य की तरह ही ओढ़ती है... शोभा देवी थोड़ी देर चुपचाप उसकी पीठ सहलाती रहीं, फिर उठ कर चली गयीं।
प्रोग्राम सुन कर शोभा देवी को क्लेश न हुआ हो सो तो नहीं; पर बाधा उन्होंने नहीं डाली। पहले बताया जाने पर उन्होंने चौंक कर कहा, ''इतनी जल्दी?'' और उमड़ते आँसू छिपाने के लिए उठ कर दूसरे कमरे में चली गयीं। पर तुरंत ही लौट कर उन्होंने कहा, ''सब तैयारी मैं कर रखूँगी - खाना भी साथ ले जाना - एक दिन से आगे तो मैं कुछ कर नहीं सकती, तुम सुननेवाले भी कहाँ हो!'' और बात तै हो गयी।
दूसरे दिन सवेरे ही शोभा देवी अपने कमरे के साथ सामान - घर में न जाने क्या उथल-पुथल करने लगीं। सोमा देर तक बक्से इधर-उधर खींचे और एक-दूसरे के ऊपर रखे-उतारे जाने का शब्द सुनती रही। उसे स्वयं तो कुछ तैयारी करनी नहीं थी; अम्मा जी ने भी खाना साथ रख देने की जिद तो की थी, जिसे मान लेना भी बहुत कठिन नहीं था; पर यह सब उथल-पुथल क्या अभिप्राय रखती है? उँह, होगा; सोमा यही क्यों मानती है कि इस सबका उसी से संबंध है...
शोभा देवी ने आ कर कुछ सकुचाते हुए कहा, ''बहू, ये दो-तीन चीजें तुम्हें देने के लिए लायी हूँ।''
सोमा ने चौंकते, सकपकाते हुए कहा, ''कैसी चीजें, अम्मा जी?'' एक और कठिन बातचीत के आसन्न संकट से उसकी देह कंटकित हो आयी।
पहली ही चीज से उसकी दुःशंका पुष्ट हो गयी। सोने के मनकों की एक माला थी।
''बीरू ने तो कभी इस तरह की बात करने का कोई मौका नहीं दिया, पर यह मैंने बहू के लिए रखा था। और भी चीजें थीं, पर मैं जानती हूँ, तू और के लिए मानेगी नहीं - पर एक चीज तो तुझे लेनी ही होगी।'' सोमा कुछ कहने को थी, पर शोभा देवी ने उसके मुँह पर हाथ रख कर उसे रोक दिया। ''नहीं बहू, पहले मेरी सुन ले - मैं बड़ा साहस बटोर कर कहने आयी हूँ। तू ऐसे न आयी होती - बेटे के साथ आयी होती - साथ तो आयी पर ऐसे नहीं - '' कहते-कहते उन की आवाज काँप गयी, पर वह हठपूर्वक कहती ही गयीं, ''तो न जाने क्या-क्या करती। पर तू एक निशानी भी नहीं रखेगी तो मैं कैसे रहूँगी, बता? मुझे लगेगा कि तू भी नाता तोड़ कर जा रही है।''
शोभा देवी चुप हो गयीं। सोमा ने एक बार आँख उठा कर उन की ओर देखा कि उन की बात पूरी हो गयी और वह कुछ कह सकती है या नहीं, पर तै नहीं कर पायी। शोभा देवी इसी बीच फिर बोल भी पड़ीं, ''अपनी ओर से तो यही एक चीज दे रही हूँ। जिद कर के दे रही हूँ। बाकी तू देखना चाहे देख ले, रखना चाहे रख छोड़, या ले जाना चाहे ले जा - तेरी हैं। मैं क्या करूँगी...''
बचने का जो मार्ग मिल जाय, अपनाते हुए सोमा ने कहा, ''अम्मा, देखिए न, यहाँ पड़ा रहेगा तो धन है, कभी जरूरत होगी तो ले सकूँगी। मुझे कुछ पहनना तो है नहीं। क्रांतिकारियों की जिंदगी में - आप सोच सकती हैं - गहना किस काम का? सिवा इसके कि खरा धन है, मुसीबत में काम आ सकता है। और इसके लिए उसका यहीं पड़े रहना ठीक है। ऐसे ही संकट में पड़ूँगी तो आप से माँग लूँगी''
''संकट में पड़ें तेरे दुश्मन! पर तू ठीक कहती है - उन्हें रखे ही रहने दे। पर एक चीज तो तुझे ले जानी ही पड़ेगी। अच्छा, माला भी नहीं लेती तो कोई छोटी चीज ले जा -मुँदरी ले जा - पर मैंने तो माला ही सोची थी - ''
टालने की नीयत से सोमा ने कहा, ''और क्या है, अम्मा जी?''
''और सबका तो, बेटी, मुझे पता भी नहीं। बीरू के कुछ कागज हैं, कुछ चिट्ठियाँ हैं, दो-चार फोटू हैं। मैंने तो कागज पढ़ कर नहीं देखे - क्या जाने क्या उनमें हो। वह होता तो तुझे भी न दिखाती-पर... पर अब तो तू ही हकदार है - देख लेना, फिर जो ठीक समझना, करना - रखनेवाले हैं कि फेंकनेवाले, क्या पता... पर उसने सँभाल कर छिपा कर रख छोड़े थे, तो मैंने भी नहीं फेंके।''
बड़े असमंजस में सोमा ने कहा, ''अम्मा जी, इन्हें भी आप रख छोड़ें तो कैसा हो? मेरी जिंदगी तो जैसी होगी, आप सोच ही सकती हैं।''
''सो तो तू ठीक कहती है, बेटी। पर एक बार तू देख तो ले, अगर रखनेवाले होंगे तो मैं रख लूँगी, और अगर कोई बेकार जोखम के हों या तेरे काम के हों तो ले जाना, या जला देंगे। देख तो ले।''
सोमा कैसे कहे कि नहीं देखेगी? वह रख लेगी, वैसे ही लौटा देगी और रख छोड़ने की कह देगी। पर ऐसा भी वह कैसे करेगी? सचमुच वैसे कागज हुए जो 'जोखिम के' हों तो बाद में अम्मा जी क्या कहेंगी-करेंगी? पर उसे क्या? जोखम जिसका है, जिसका था उसी का है या होगा, वह बीच में पड़नेवाली कौन है; वह उस में आती ही किस अधिकार से है? न आ टपकी होती तो कौन तै करता - अम्मा जी ही न? या सामंत? सामंत को दिखा लेगी? पर उसके देखने के न हुए तो? उसका भी फैसला वह कैसे करेगी - देख कर ही तो?
''किस सोच में पड़ गयी बेटी? तो ये सब मैं छोड़ जाऊँ न? सँभाल लेगी? या कोई अटाची या झोला ला दूँ - ''
''नहीं, अम्मा जी, रख दीजिए, मैं देख लेती हूँ। फिर बता दूँगी।''
''और यह माला - '' कह कर शोभा देवी उसे उठा कर सोमा के गले में डालने लगीं तो सोमा ने सकुचा कर कहा, ''यह नहीं अम्मा जी, छोटा-सा कुछ दे दीजिए जिसे मैं हर वक्त साथ रख सकूँ और जिस पर लोगों का ध्यान न जाय।''
''तो माला ऐसी कौन आँखों में चुभनेवाली है, बेटी! पर तेरी मर्जी। यह अँगूठी रख ले - यह मेरी सास की थी, जब मैं इस घर में आयी थी तब मुझे मिली थी। माला तो मैंने अपने चाव से बनवायी थी - ''
क्या फर्क पड़ता है कि वह अँगूठी लेती है कि माला? उसके झूठ का बोझ दोनों के साथ उसे ओढ़ना होगा - बल्कि अँगूठी के साथ तो कुल-परंपरा का दोहरा बोझ उस पर आ जाएगा। माला तो अम्मा जी की अपनी बनवायी हुई है, उसे वह केवल शोभा देवी का ऋण मान कर ले ले सकेगी, कभी लौटा देगी - 'सास' की सास की अँगूठी का बोझ उससे कैसे झिलेगा। सोमा ने कहा, ''जैसी आप की खुशी, अम्मा जी! आप माला ही दे दीजिए।''
शोभा देवी उसके गले में माला डालने लगीं तो सोमा ने झुक कर उनके पाँव छू लिये।
''क्या आशीर्वाद दूँ, बेटी? मेरे आशीर्वाद की सकत तो बीरू के साथ चली गयी। पर जिस भी काम में तू लगी है, घर-बार छोड़ कर मारी-मारी फिरेगी, वह काम पूरा हो और तुझे सुख दे...''
सोमा को लगा, अनजाने ही शोभा देवी ने उसे वही आशीर्वाद दिया है जिसकी उसे सबसे अधिक जरूरत है - वह क्या स्वयं भी जानती है कि किस काम में लगी वह घर-बार छोड़ कर मारी-मारी फिरेगी? उसकी आँखों में आँसू आ गये जिन्हें छिपाने को वह झुकी ही रही।
''उठ बेटी, उठ!'' कहती हुई शोभा देवी ने उसकी पीठ सहलायी और फिर हट गयीं।
सोमा ने कागज और फोटो उठाये, चौकी पर बैठ कर उन्हें गोद में रख कर विचारों की उधेड़-बुन में खो गयी।
इन्हें खुद देख जाना ही ठीक होगा, सामंत को दिखाना नहीं। या इस बात पर वह बाद में सोचेगी कि दिखाये या न दिखाये। पर पढ़ेगी अभी तुरंत नहीं - रात में अकेले बैठ कर सब पढ़ लेगी... उसने आलमारी खोली, ताक पर अपने पर्स के पीछे सब कागज रख कर आलमारी बंद कर दी।
पर रात में जब वह एकांत पा कर उन्हें ले कर बैठी, तो फिर अनमनी हो गयी। पढ़े - क्यों पढ़े? अगर अम्मा जी को ही रख छोड़ने के लिए नहीं दे देती, तो भी क्यों पढ़े - क्यों न फिलहाल अपने साथ रख छोड़े? एक बार उसने सरसरी तौर पर कागज उलट-पलट कर देखे, ऐसा खास तो उनमें कुछ नहीं लगता था जिन्हें 'जोखम के कागज' समझा जा सके - पर ऐसे कैसे पता लग सकता है? कभी लिखावट का भी तो महत्व होता है - वही बड़ा सुराग या सुबूत हो जाती है, इतना तो वह जानती है। पर वैसा भी हो तो उसके पास कागज कम-से-कम उतने ही सुरक्षित होंगे जितने यहाँ - इस घर में तलाशी तो हो ही सकती है और जहाँ तक सोमा का सवाल है, उसके डैडी कभी उसे पकड़ कर भी मँगवाएँगे तो कागजों से तो उनका मतलब नहीं होगा...
कागज उसने वैसे ही लपेट कर एक तरफ कर दिये; फिर पर्स के बराबर रख कर नाप कर देखे, उसमें अँट जायेंगे? हाँ, मजे में...
अब वह फोटो देखने लगी। फोटो जरूर जोखम के होते हैं। तभी तो वीरेश्वर उन्हें नष्ट करना भी चाहता होगा। पर ये स्कूली लड़कों के फोटो - इनमें क्या जोखम हो सकता है? इनमें वीरेश्वर जी हैं या नहीं? उसका चेहरा तो वह पहचान लेती तो अच्छा होता! अनदेखे पति की बहू की बातें तो रूपकथाओं में पढ़ी सुनी हैं - ठाकुर के अरूप राजा की बात भी उसे याद हो आयी - पर अनदेखे की विधवा - दैट इज टू मच! पर शोभा देवी से पूछेगी तो कैसे? कि अम्मा जी, यह तो बता दीजिए कि मेरा पति इनमें था कौन-सा? सारे फोटो एक बार फिर वह देख गयी, फिर उसने सामूहिक रूप से उन सबकी ओर एक बार मुँह बिचका दिया। उसे याद आया, कॉलेज से आते-जाते कभी अनमने सड़क पार करते समय कोई मोटर ज्यादा पास से निकल जाती तो उनका आपस का मजाक थाः 'अरे भई, गाड़ी के नीचे आ कर ही जान देनी है तो गाड़ी तो अच्छी-सी पसंद कर लो!' जिसे संक्षेप में यों भी व्यंजित कर दिया जाता था कि 'भई, श्योरली नॉट दैट वन!' एक मुस्कान उसके अंतराकाश में दौड़ गयी - 'श्योरली नॉट दैट वन!' पर इन सब छायाकृतियों में कौन-सा? उसने फोटो भी हटा दिये, अब वह दोनों ग्रुप फोटो ही सामने रख कर एक-एक चेहरे को देखने लगी। फोटो माउंट किये हुए थे, पर माउंट की दफ्ती ऊपर-नीचे दोनों तरफ से तोड़ कर अलग कर दी गयी थी; सोमा ने अनुमान किया कि वहाँ अवसर का या नामों का ब्योरा छपा रहा होगा जैसा ऐसे औपचारिक ग्रुप चित्रों में होता है। दोनों चित्रों को देख कर उसने पहचाना कि कुछ चेहरे तो दोनों में समान हैं, कुछ आकृतियाँ भिन्न हैं। वीरेश्वर तो दोनों में होगा, ऐसी उसने अटकल लगायी - कौन-कौन से चेहरे हैं जो दोनों में हैं? और सामंत? एक चेहरा उसे लगा जो सामंत का हो सकता था, पर वह एक ही फोटो में था; जो दोनों में थे उनमें कोई ठीक उस जैसा नहीं लगता था, हालाँकि दो ऐसे थे जो हो भी सकते थे - फिनिश किये हुए फोटो में कभी पहचानना मुश्किल हो जाता है। पहले से पहचानते हों तो सादृश्य भी दीख जाता है, सादृश्य के सहारे पहचान में कठिनाई होती है... खैर, देखेगी...
ग्रुप फोटो भी उसने पर्स से नाप कर देखे। दोनों तरफ के हाशिये की दफ्ती भी तोड़ कर अलग कर दी जाय, जैसे ऊपर-नीचे की कर दी गयी है, तो वे भी पर्स में रखे जा सकते हैं। हाशिये उसने तोड़ कर सावधानी से अलग कर दिये, फिर सब चीजें आलमारी में रख दीं। देखा जाएगा...
पर वह सो नहीं पायी। और दिन भी सो पाने में दिक्कत होती थी। अनपहचाने घर की बात नहीं थी, न शोर होता था, पर अपनी स्थिति को ले कर उधेड़-बुन रात के अधिकांश चलती रहती थी... शोभा देवी को अपने जाने की बात कह देने से और तारीख तै हो जाने से उसकी मुक्ति का रास्ता खुल गया था और उसका जी कुछ शांत हुआ था; फिर भी रात-भर न जाने क्या उसे व्यग्र किये रहा। जैसे-तैसे तड़के तक छटपटाती पड़ी रह कर वह उठी; शोभा देवी की जो साड़ी वह पहने हुए थी उसे धो कर उसने फैला दिया और जिन कपड़ों में आयी थी वही पहन कर तैयार हो कर दबे-पाँव कमरे में चक्कर काटती रही। आगे के बारे में भी उसे सोचना था, पर वह सब तो एक बार इस घर से निकलने पर सोच लिया जाएगा - आगे वही तो सोचा जाता रहेगा, पर यहाँ जिस परिस्थिति में वह उलझी हुई है उसके आकार-प्रकार तो कुछ स्पष्ट उसे समझ लेना चाहिए - उसमें से कितनी वह यहीं छोड़ जाएगी, कितनी उसे बरबस साथ ले जानी ही पड़ेगी, कितनी जीवन-भर उसके साथ लगी रहेगी-इन सब बातों का जवाब पाने का कोई साधन है? टहलती हुई हर कदम पर ताल देती हुई वह मानो पूछती जाती थी : है? है? है?
शोभा देवी ने आ कर कहा, ''बड़ी जल्दी तैयार हो गयी, बहू? जाने में तो देर है न?''
''हाँ, अम्मा जी! अभी तो बहुत समय है।'' कहते-कहते सोमा ने जल्दी से एक निश्चय किया।
''अम्मा जी!''
''क्या है?''
''अम्मा जी, जरा यह बताइए - ''कहते हुए उसने आलमारी से ग्रुप फोटो निकाले। ''अम्मा जी, इनमें कौन-कौन हैं जिन्हें आप पहचानती हैं? कुछ को तो मैं जानती हूँ - ''
''बहू, कागज सब तूने देख लिये?''
''अम्मा जी, एक नजर तो देख गयी। पर अभी पक्का नहीं तै कर पायी। वैसे लगता तो यही है कि जोखम-वोखम के कोई नहीं हैं, यहीं रखे रहेंगे। आगे चल कर जब-जब उन की जीवनी लिखी जाएगी तब जरूरत पड़ेगी। अभी...''
''हाँ ऽऽ,'' शोभा देवी ने ऐसे कहा जैसे शहीद के जीवन के इस पक्ष पर तो उन्होंने सोचा ही नहीं था; पर ठीक तो है, कभी तो जीवनी लिखी जाएगी...
अंतरात्मा की कोंच से उबरने का यत्न करते हुए सोमा ने कहा, ''इसी लिए अभी कागज सब मैंने साथ रखे हैं : कुछ और जानकारी बटोर रखूँगी। बाकी ये फोटो - बताइए तो कौन-कौन हैं-''
ग्रुप फोटो ले कर शोभा देवी थोड़ी देर देखती रहीं।
''पुराना फोटू है - स्कूल की टीम का है।'' थोड़ी देर रुक कर उँगली से इशारा करते हुए, ''यह तो तेरा बीरू है - हमेशा ऐसे गरदन थोड़ी टेढ़ी कर के खड़ा होता था! पर तू तो पहचानती होगी। और यह - यह मन्नू है। स्कूल का चेहरा मैं अब भी ज्यादा पहचानती हूँ। अब - अब कैसा - शहरी जैसा हो गया है।''
''देखूँ, अम्मा जी, वह भी इसमें हैं?'' कह कर सोमा आगे झुकी कि पहचान कर ले, कौन-सा वीरेश्वर है, कौन-सा मन्नू, और मन के पट पर उनकी पहचान और फोटो में उनके स्थान पक्के अंकित कर ले। ''और कौन-कौन हैं?''
''और यह रामेश्वर है, और यह किशन, और यह मोहन, और यह - इसका नाम याद नहीं आ रहा, अच्छा हँसमुख लड़का था, अक्सर घर आया करता था पर नहीं याद आ रहा... बाकी तो याद नहीं आते।''
''अम्मा जी, ये लोग अभी यहीं रहते हैं कि सब कहीं-कहीं चले गये?''
''बहू, स्कूल के साथियों का तो तू जानती है, कैसे होता है। बीरू कॉलेज गया तो सब बिखर गये। और जब से वह इस काम में पड़ा तब से तो कोई आता भी होता तो कतराने लगा। कौन मुफ्त में जोखम मोल लेता है!''
''पर परिवार तो यहीं होंगे? आप किन्हीं को जानती हैं?'' अपनी उत्कंठा को संगति देने के लिए सोमा ने जोड़ दिया, ''कभी तो बचपन की भी सब जानकारी की जरूरत पड़ेगी - कहाँ-कहाँ मिल सकेगी, इसका पता रखना चाहिए।''
''हाँ। कोई-कोई तो हैं अभी यहीं। किशन के घर के लोग तो यहीं हैं। वह भी यहीं स्कूल में मास्टर हो गया है।''
''पूरा नाम आप जानती हैं?''
''सब शर्मा जी - शर्मा जी कहते हैं - पता लग जाएगा। पूछ दूँगी। पर पूछ कब दूँगी - तू तो अभी जा रही है!''
''पूछ रखिएगा। और भी जो।'' कहती हुई सोमा ने मन में कहीं टीप लिया : किशन शर्मा, स्कूल मास्टर।
सीढ़ी पर आहट हुई। सोमा ने फोटो जल्दी से पर्स में डाल कर पर्स आलमारी में रख दिया और बोली, ''अम्मा जी, नाश्ता बनाने में मैं कुछ मदद कर देती हूँ।''
''नहीं बेटी, मेरा तो रोज का काम है।''
सोमा ने निहोरे से कहा, ''इसीलिए तो, अम्मा! आज मुझे कर लेने दीजिए।''
''बेटी, तू ऐसा कहती है तो मुझे और लगता है कि तू जा रही है! पर तेरी मर्जी।''
''मैं आ जाऊँगी, अम्मा जी!'' सोमा कह तो गयी, फिर उसने अपने से पूछा, क्या मैं और एक अनावश्यक झूठ बोल रही हूँ? पर भीतर-ही-भीतर जैसे उसे उत्तर भी मिला, नहीं, वह फिर आएगी। कभी। कब, पता नहीं, पर आएगी। और एकाएक उसने फिर कहा, ''मैं आऊँगी, अम्माजी!'' और रसोई की ओर बढ़ गयी।
सामंत क्या सीढ़ी पर ठिठक कर उनकी बात सुनता रहा था? शोभा देवी ने सीढ़ियों की ओर उन्मुख हो कर कहा, ''आज जाना है तो तू भी बड़ी जल्दी तैयार हो गया! और बताने भी आ रहा है - या कि नाश्ते की जल्दी है?''
''जल्दी नहीं, अम्मा! कोई काम हो तो - ''
''तू कब से मेरे काम करने लगा? बहू नाश्ता बना रही है, मैं अभी लाती हूँ।''
ग्यारह बजे सामंत ताँगा ले आया। सोमा ने एक बार फिर शोभा देवी के पैर छुए, कहा, ''मैं आऊँगी, अम्मा जी!'' और आँचल सिर पर लंबा खींच कर मुड़ गयी।
शोभा देवी ने कहा, ''भगवान् सब देखते हैं, बहू, वही तेरी रक्षा करें...''
सामंत ने भी पैर छुए।
''खबर लेते रहना, बेटा। बीरू तो नहीं है अब - पर इसे वैसे ही अपना घर समझते रहना - '' कहते-कहते शोभा देवी ने फिर आँचल से मुँह दाब लिया।
''हाँ, अम्मा।''
ताँगा चल पड़ा।
बरेली का स्टेशन निकल जाने तक कोई कुछ नहीं बोला। सामंत ने अखबार लिया था, निकाल कर देखता रहा; सोमा घर से एक किताब उठा लायी थी, सिर झुकाये पढ़ती रही। बरेली से गाड़ी छूटी तो सोमा ने पूछा, ''आपको तो यहाँ उतरना था कि मुरादाबाद?''
सामंत ने चौंक कर कहा, ''यहाँ क्यों? बरेली में मेरा क्या है?''
सोमा ने बड़ी मासूमियत से कहा, ''कुछ नहीं, मैं तो पागलखाने वाला घिसा-पिटा मजाक कर रही थी। पर आप शायद आगरेवाला मुहावरा ही जानते हैं, बरेली का नहीं।''
सामंत तीखी नजर से उसकी ओर देखता रहा, कुछ बोला नहीं।
''यहाँ एक मेडिकल कॉलेज भी तो है न?''
''हाँ'' कह कर सामंत थोड़ी देर रुका। फिर उसने कहा, ''मैं वहाँ का पढ़ा नहीं हूँ।''
मुरादाबाद में वह उतर गया। बाहर खड़े हो कर बोला, ''अब आपसे कब, कहाँ भेंट होगी? होगी भी?''
सोमा ने कहा, ''चांस ही तो है। पर चांस एक बार होता है तो दोबारा भी होता है।''
''यों, आपको कभी खबर देनी होगी तो अम्मा की मारफत तो मुझे पहुँच ही सकती है।''
तीखा-सा जवाब सोमा की जबान पर आया, उसने रोक लिया। कितने बरस बाद अम्मा के पास आये थे - और वह भी कैसे में? प्रकट उसने कहा, ''सो तो है। पता लेने तो आप जाते ही रहेंगे।''
''आप भी तो जायेंगी - आप तो वायदा कर के आयी हैं।''
गाड़ी चलने लगी तो सामंत ने एकाएक हाथ हिला कर कहा, ''टा-टा, सोमा जी -मिसेज वीरेश्वर नाथ!''
हतप्रभ न होते हुए सोमा ने मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया और वैसे ही स्वर में कहा, ''गुडबाई, मन्नू जी - डॉक्टर सामंत!''
साथ की सवारियों ने कुछ कुतूहल से यह दृश्य देखा। आजकल के नौजवानों के फ्लर्टेशन के ढंग भी अनोखे हैं। या कि यह फ्लर्टेशन था ही नहीं, कुछ और था?
सोमा पीछे हट कर बैठने ही लगी थी कि उसने देखा, सामंत तेज डग भरता हुआ फिर खिड़की के बराबर आ गया है और साथ भाग रहा है।
''सोमा जी, फिर मिलना कब होगा, कुछ पक्का बता सकती हैं?''
सोमा ने बिना सोचे कह दिया, ''ठीक एक महीने के बाद - इसी समय - स्विस होटल के आसपास।'' और कुछ रुक कर, ''और वह नहीं तो उसके एक महीने बाद, डिट्टो।''
''अच्छा, आइ'ल ट्राइ!'' सामंत कुछ पिछड़ने लगा था, दो कदम दौड़ कर फिर बराबर आ गया; बोला, ''माफी आप मुझे दे देंगी, ऐसी आशा करता हूँ।''
सोमा ने मुस्करा कर कहा, ''इट वाज नाइस मीटिंग यू - सो लांग!''
सामंत इस स्वर से थोड़ा अप्रतिभ हुआ। पर ऐसा दीखने न देते हुए उसने हाथ उठा कर हिलाया। उसकी चाल धीमी हो गयी, गाड़ी की तेज, वह खड़ा हो कर भी हाथ हिलाता रहा जब तक कि उसका चेहरा धुँधला नहीं हो गया - सोमा का चेहरा तो उसके लिए कहीं पहले चलते हुए एक पट का हिस्सा बन गया होगा।
3
दिल्ली में सहेली ने और उसकी गृहस्थी ने सोमा को बड़े चाव से लिया, और सोमा को लगा कि वह चाहे तो वहाँ काफी दिन तक रह सकती है। पर एक तो वह जल्दी से जल्दी अपने लिए कुछ रास्ता चुन लेना चाहती थी, दूसरे कब तक उसकी सहेली का कुतूहल नहीं जागेगा, कब तक वह सवाल पूछे बिना रह जाएगी? सवाल उठने और पूछे जाने लगें, इससे पहले ही सोमा वहाँ से हट जाना चाहती थी। यह अंदेशा उसे फिलहाल नहीं था कि डैडी उसके पीछे पड़ेंगे, पर जब पता लगेगा तब उन का गुस्सा उन सब लोगों पर तो उतरेगा ही जिन्होंने सोमा को सहारा दिया - और वह इस मुसीबत में बिना वजह किसी को नहीं डालना चाहती!
घर से भाग जाने की उसकी योजना को पकते-पकते कुछ महीने लगे थे। कॉलेज की पढ़ाई उसने पूरी कर ली थी; समाज के 'हाई सोसायटी' नामक अंग की - हालाँकि लखनऊ की 'हाई सोसायटी' को प्रांतीयता की बात सोच कर उसे कभी बड़ी खीझ आती थी - 'कल्चर' की परिभाषा में और जो कुछ आता है वह भी उसने आप्त कर लिया था : कुछ संगीत, कुछ नृत्य, पेंटिंग, फूल-सज्जा... पेंटिंग में बल्कि उसकी रुचि उस सीमा से कहीं आगे तक चली गयी थी जिसे एक सामाजिक 'एकाम्प्लिेशमेंट' माना जाता है और जिसकी चर्चा वर-कन्या की खोज करनेवाले माता-पिता शादी के विज्ञापनों में करना जरूरी या उपयोगी समझते हैं। 'हाइली एजुकेटेड, ब्यूटीफुल (या स्थिति अथवा हौसले के अनुसार 'फेयर,' 'टॉल,' 'स्लिम', 'गोल्डन या ह्वीट-कम्प्लेक्शंड' वगैरह)', एकाम्प्लिटड इन फाइन आर्ट्स...' सोमा कई बार अपने परिचय की लड़कियों के लिए ऐसे काल्पनिक विज्ञापन बनाया करती थी - कभी विनोद के लिए दो तरह के - एक का वर्णन माता-पिता की ओर से, दूसरे का किसी तटस्थ दर्शक की ओर से। पेंटिंग से उसका इतना लगाव हो गया था कि वह जानती थी, उसके विषय में विज्ञापन में कभी इसका उल्लेख होगा (अव्वल तो वह विज्ञापन होने नहीं देगी!) तो वह उसे काट देगी : जिन चीजों से सचमुच गहरा लगाव होता है, उनका विज्ञापन करने का सस्तापन सहन नहीं होता। वैसे तो शादी के लिए विज्ञापन की बात ही में सस्तापन है; पर उस तरह बसायी हुई गिरस्ती, वैसी शादी, वैसे पति-पत्नी-सास-ससुर, वैसी बारातें, वंश-बेलें, सेहरे, मिलनियाँ, सगुन और मुँह-दिखाइयाँ, वैसा समाज और वैसी सारी जिंदगी में ही तो एक भयानक सस्तापन भरा हुआ है : औसत इनसानी जिंदगी है ही तो एक सस्ती चीज! उसे सस्तेपन से बचाने या उबारने के लिए उस में क्या और कितना गहरा-तर अर्थ हम भरते हैं, यह हम पर है; इस पर है कि हम क्या हैं, क्या होना चाहते हैं, जो होना चाहते हैं उसके लिए कितनी तपस्या करने को, कितनी मार खाने को तैयार हैं... डैडी के जीवन को, समाज को, आदर्शों और आकांक्षाओं को उसने मन-ही-मन अस्वीकार कर दिया था; उसके लिए जिस जीवन की कल्पना वह कर रहे हैं, या कर सकते हैं, सोमा कभी अपना नहीं सकेगी, यह वह अच्छी तरह जानती थी। नौकरी - कैसी नौकरी? अभी तक लड़की के लिए नौकरी का मतलब है मास्टरी - बहुत होगा तो कॉलेज में लेक्चरारी - यों स्कूल की मास्टरी को तो डैडी की प्रेस्टीज भी स्वीकार न कर पाती। हाँ, कॉलेज की पढ़ाई की योग्यता के लिए लड़की विदेश जा कर पढ़े, यह उन्हें बिल्कुल संगत लगता - पर वैसा तो वह शादी कर के पति के साथ जाकर भी कर सकती है - क्यों जरूरी है कि अकेली ही जाए? खर्चे की बात है - पर शादी के बाद भी तो लड़कियाँ विदेश जाती हैं सो पति के या ससुर के खर्चे पर थोड़े ही, लड़की के बाप के खर्चे पर ही तो जाती हैं - चाहे वह पहले ही दहेज में उगाह लिया गया हो, चाहे शर्त में हो कि दामाद को आगे पढ़ायी या ट्रेनिंग के लिए, फॉरेन भेजेंगे। ऐसे ही वह खुद गये थे - ऐसे ही वह दामाद को भी भेज सकेंगे - अगर उसकी जरूरत होगी; नहीं तो उनका दामाद तो ऐसा होना चाहिए जिसे इस की जरूरत न हो। इस की जरूरत न होगी तो वह और कुछ चाहेगा - वह देखा जाएगा - उनकी पोजीशन में कोई समस्या न होनी चाहिए...
शादी की बात उठती ही रहती थी; जब-तब सोमा के सामने भी। उसकी स्पष्टता प्रकट कर दी गयी उदासीनता के बावजूद। सोमा ने एक खास तरह का बहरापन अपने को सिखा लिया था : ऐसी बातें होती थीं तो वह तुरत एक दीवार की ओट हो लेती थी और सारी बात अनसुनी उस दीवार से टकरा कर नीचे गिर जाती थी। धीरे-धीरे डैडी ने भी यह पहचान लिया था; सोमा की आँखों में उस दीवार की छाया उन्हें दीख जाती थी तो या तो वह बात छोड़ देते थे या करते रहते थे तो सोमा को श्रोतृत्व के वृत्त से बाहर छोड़ कर ही।
पेंटिंग अपने डिप्लोमा के बाद भी सोमा ने छोड़ी नहीं थी; बल्कि अपनी शिक्षा की संकीर्णता और प्रांतीयता से मुक्ति पाने के लिए अभ्यास के साथ-साथ बहुत कुछ पढ़ती और संग्रह भी करती रही थी। विभिन्न देशों-प्रदेशों की कला की शैलियों का इतिहास, विभिन्न चित्रकारों के हाथ की विशेषताएँ, रंग और कूची के प्रयोग में अंतर, नजर में ही अंतर - इन सब के बारे में जहाँ जो कुछ पढ़ने-देखने को मिलता वह देख-पढ़ लेती; कभी रंग और कूची ले कर प्रत्येक ढंग का अभ्यास भी करती कि नकल द्वारा वह तकनीकी बारीकियों को ठीक-ठीक आत्मसात् कर सके। जिन लड़कियों ने उसके साथ पेंटिंग सीखी थी उनसे कभी इस ढंग की बात करती तो वे शंका प्रकट करतीं, 'अरे, ऐसे तो ओरिजिनैलिटी बिल्कुल मर जाएगी। यू मस्ट बी ओरिजिनल!' पर सोमा एक बार सिर से पैर तक उन्हें देखती और एक हल्की सी व्यंग्य मुस्कान उसके चेहरे पर दौड़ जाती। ओरिजिनल - कौन इनमें ओरिजिनल है, कहाँ पर? ओरिजिनल कोई कहीं होता है तो भीतर से : ओरिजिनैलिटी खोजने से नहीं आती, बल्कि दूसरों की पहचान करते-करते ही अपनी विशेषता निखर आती है - बशर्ते कि विशेषता कहीं कुछ हो भी! और नहीं हो, तो इस सब में अनुभव और हाथ की मँजाई तो है ही!
सोमा को नहीं मालूम था कि विज्ञापन, फिर भी, निकलता रहा है। डैडी से मिलने प्रायः लोग आते रहते थे, शाम को सोशल विजिट के अलावा प्रायः जूनियर अफसर भी आ जाते थे जिनके लिए वह एक महत्वपूर्ण सामाजिक अवसर होता था - सीनियर अधिकारी के ड्राइंगरूम में रिसीव किया जाना अपने-आप में एक चीज है, प्रेस्टीज की बात है, फिर मिलने-जुलने और प्रभाव डालने का मौका तो है ही; और ऐसे मौके पर सीनियर लोगों से ऐसी-ऐसी गुर की बातें सुनने को मिल जाती हैं जो जीवन में कितना काम देती हैं... ऐसे अवसरों पर अकसर उसे भी बैठना पड़ता था - यह उसकी 'सोशल ट्रेनिंग' भी थी, और यों कभी उसे स्वयं भी एक तटस्थ दिलचस्पी होती थी इस समाज को देख कर... 'ह्वाट ए लाइफ!' कभी-कभी वह मन-ही-मन कहती; इस लाइफ का उपन्यासकार हमारे देश में अभी तक क्यों नहीं हुआ? ऐसे तो हुए हैं जो कुछ इस लाइफ में से निकले हैं - पर वे अंग्रेजी में ही नहीं चले गये तो ऐतिहासिक उपन्यासकार हो गये हैं - यानी इस देश से नहीं भागे तो इस काल से भाग गये हैं! क्यों नहीं अभी तक किसी में इतना साहस हुआ (या कि इतनी प्रक्रिया ही नहीं हुई?) कि इस समाज को ज्यों-का-त्यों देश के वृहत्तर समाज के सामने रखे? या कि शायद इस जीवन का उपन्यासकार होता ही तो उस उपन्यासकार का पाठक नहीं होता! पढ़ा-लिखा हमारा सारा समाज तो यही होना चाहता है जो यहाँ इस ड्राइंगरूम में बैठा है - नौकर, मगर सुविधा-संपन्न, हुकूमत जतानेवाला जबरदस्त नौकर-तरक्की पाया हुआ गुलाम, जिसे हाथ में चाबुक दे दी गयी है कि दूसरे गुलामों को हाँक सके... खान-इ-सामाँ, और खानसामा - कितना कम अंतर है! क्या वह खुद कभी इस की जिंदगी की पेंटर हो सकेगी? इतना तेजाब वह कहाँ से लाएगी... तेजाब की बात से उसका ध्यान ताँबे की खुदाई की ओर जाता; हाँ, शायद पेंटिंग नहीं, ऐचिंग ही इस जीवन के चित्रण के लिए ठीक माध्यम होगा...पर वह सीखेगी कहाँ?
पर कभी-कभी उस दिलचस्पी की तटस्थता या विरक्तता को एक दूसरे प्रकार का झटका लगता था। जूनियर अफसरों में कभी कोई उसकी तरफ एक खास, तौलते हुए अंदाज से देखता था जिसे वह फौरन ताड़ जाती थी; उसके मन में पहला सवाल यही होता था कि यह क्या डैडी की एप्रूवल से है, या कि 'दिस यंग मैन इज हैविंग आइडियाज'? यह नहीं कि किसी भी सूरत में कोई बहुत अंतर पड़ता, क्यों कि ऐसे 'यंग मैन' की दिलचस्पी को एक झटका देने का उसका संकल्प बदलता नहीं, पर अगर डैडी की शह की संभावना रही हो तो उम्मीदवार के सपनों का गुब्बारा नीचे गिराने में शायद थोड़ी दया की गुंजाइश वह रख सकती थी।
पर एक दिन यह बात एकाएक सतह पर आ गयी। ठीक कैसे, यह भी वह स्पष्ट नहीं पहचान सकी। ड्राइंगरूम में नये लोग थे, पर ऐसा तो कई बार होता था कि अपरिचित लोग आ जायें और वहीं डैडी से उनका परिचय हो। पर नहीं, इस ग्रुप में कुछ विशेषता थी... सहसा एक कौंध-सी में स्थिति सोमा के सामने स्पष्ट हो गयी : ये लोग उसे 'देखने' आये हैं... ऐसा कैसे हुआ? एक बार तो उसने सोचा, वहीं की वहीं डैडी से पूछ ले, पर उसने अपने को रोक लिया। थोड़ी देर बाद वह उठी, अपने को 'एक्स्क्यूज' कर के बाहर गयी, और फिर लौटी नहीं, दूसरी तरफ से बाहर निकल कर टहलने चली गयी। लौटी, तब तक वे लोग चले गये थे; सिर्फ डैडी की एक तीखी अभियोग-भरी दृष्टि का सामना करती हुई वह भीतर जाने को थी कि डैडी ने रोक लिया : ''कहाँ चली गयी थीं?'' घूमने? घूमने जाने का यही समय है? समय तो यही है, वह प्रायः इसी समय जाती भी है। एक दिन छोड़ा नहीं जा सकता था, जब कि खास उससे मिलने लोग आये थे?
''मुझसे? मैं तो उनमें से किसी को भी नहीं जानती!''
तो क्या हुआ? डैडी ने मिलवाया तो था। बाद में और परिचय वह दे देते। उन्होंने खास तौर से समय दिया था -
सोमा ने मुँह फोड़ कर पूछ ही तो डाला, ''डैडी, आपने एड्वर्टाइज किया था?''
डैडी ने जवाब नहीं दिया, एकटक उसी नाराजगी की नजर से उसे देखते रहे, मानो स्पष्ट कर देना चाहते हों कि यह और गुस्ताखी है जिसे वह गवारा नहीं कर सकते।
''आप को बॉदर करने की जरूरत नहीं है।''
नाराज होते हैं तो हों। कभी तो साफ बात कहनी ही होगी। सोमा कह कर उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना तेजी से वहाँ से हट गयी। पीछे उसने सुना, डैडी धीरे से दुहरा रहे हैं, 'बॉदर... बॉदर!' मानो कड़वी थूक का एक घूँट न निगल पा रहे हों, न थूक देने की जगह दीख रही हो।
उसी रात सोमा ने स्पष्ट देखा कि वह घर छोड़ कर चली जाने का निश्चय भीतर-ही-भीतर कर चुकी है; बाकी इतना और तै करना है कि कब और कैसे। छोड़ जा कर क्या करेगी, इसका जवाब अनंतर सोचना होगा - और यह भी तो है कि यह बाहर की बहुत-सी चीजों पर निर्भर करेगा कि वह क्या कर सकती है या कितना चॉएस उसके पास है - सिर्फ घर छोड़ देने की बात चॉयस से परे जा चुकी है - उसे स्वाधीन होना ही है। सोमा मन-ही-मन ऐसे लोगों की सूची बनाने लगी जिन से वह सहायता की या कम से कम सलाह-मशविरे की आशा कर सकती है।
सिविल लाइंस में एक विदेशी चित्रकार दंपति रहते थे। पत्नी प्रसिद्ध चित्रकार थीं जिनकी शकीहों का विशेष सम्मान था; पति का हाथ बहुत अच्छा था पर शैली अधिक शास्त्रीय थी इसलिए उनके चित्रों की वैसी धूम नहीं थी। पर चित्रकार से भी अधिक वह कलापारखी थे : उनका घर एक अच्छा-खासा छोटा संग्रहालय भी था और शो-रूम भी। विदेशी ग्राहक प्रायः उन्हीं के यहाँ से भारतीय कला वस्तुएँ खरीदते थे। दाम निस्संदेह वह अच्छे लेते थे, पर चीज वहाँ से खरी और प्रामाणिक मिलती थी, इसलिए उनकी प्रतिष्ठा संग्रहालयवालों में भी बहुत थी। उनका नाम भी सोमा ने पहली बार संग्रहालय में डायरेक्टर से ही सुना था जिन्होंने एक संदिग्ध प्राचीन चित्र पर उनसे राय ली थी; तभी सोमा को मालूम हुआ कि कार्ल स्टेगर की असल-नकल की परख का विदेशों में भी सम्मान है। इतना ही नहीं, प्राचीन चित्रों के मूल-रूप को पुनः उद्धारित या निरूपित करने में उन्होंने विशेष कुशलता प्राप्त की है; कई संग्रहालयों के लिए उन्होंने बदले हुए चित्रों के नीचे से असल चित्र निकाल कर दिया है या खराब होते हुए चित्रों को ठीक कर दिया है। सोमा ने उन्हीं से मिल कर यही काम सीखने का निश्चय किया। इसकी उपयोगिता देश में क्या होगी, इसका कोई जवाब फौरन उसे नहीं सूझा; पर इस कौशल का मान और इस की आवश्यकता देश में संग्रहालयों के साथ बढ़ती जानी चाहिए इसमें उसे संदेह नहीं था -तैल-चित्र माध्यम में अभी उतनी नहीं तो जल रंगों और वनस्पति रंगों के क्षेत्र में तो बहुत अधिक-सारी भारतीय चित्रकला के साथ इस की गुंजाइश है, और भित्तिचित्रों की रक्षा और पुनःप्रतिष्ठा का राज भी कभी तो महत्व पाएगा ही - सरकारी तौर पर नहीं तो शोध के स्वतंत्र विषय के रूप में... और इस क्षेत्र में दूसरे कोई व्यक्ति कम-से-कम उसकी जानकारी में तो नहीं थे।
कार्ल स्टेगर को उससे मिल कर और उसकी इच्छा जान कर विस्मय हुआ। इतने बरसों में कभी कोई भारतीय चित्रकार उनसे कुछ सीखने नहीं आया था - और वह भी स्त्री और वह भी चित्रों के रेस्टोरेशन की कला सीखने! उन्होंने अपनी पत्नी सैसी स्टेगर को भी बुला लिया; साथ बैठ कर चाय पीते-पीते तीनों देर तक बातचीत करते रहे। सोमा ने कभी अपनी पैरवी इतने जोरों से नहीं की थी; पर सच बात यह है कि उसे अब तक कभी इस की जरूरत भी नहीं पड़ी थी; आज उसने ठान रखी थी कि वह नकारात्मक जवाब ले कर लौटनेवाली नहीं है। फिर भी उस दिन तो बात पक्की नहीं तय हो पायी। स्टेगर दंपति ने उसके हाथ का कुछ काम देखना चाहा : डिप्लोमा की बात का कुछ तो असर था, पर अधिक नहीं - 'इस काम में डिप्लोमा बहुत अहमियत नहीं रखते, बात हाथ की, आँख की और लगन की होती है' - लेकिन सोमा तो उस समय डिप्लोमा दिखाने की स्थिति में भी नहीं थी, काम कहाँ से लाती! फिर भी, दोनों जब बीच-बीच में अपने संग्रह की कई एक चीजें उसे दिखा कर तरीके से उस से ऐसे सवाल पूछ चुके जिन के जवाब में उसे अपनी पसंद, अपने ज्ञान और अपनी परख सभी का पता देने का अवसर मिलता रहे, तब कार्ल स्टेगर ने एक खुली मुस्कान के साथ कहा, ''हम जरूर फिर एक बार इस की बात करना चाहेंगे - क्यों, ऐसा है न, सैसी?'' और क्षण-भर पत्नी से आँख मिला कर उन्होंने फिर सोमा की ओर उन्मुख हो कर कहा, ''आपके विचार में मुझे बड़ी दिलचस्पी है, मिस - मिस''
सोमा ने जल्दी से कहा, ''मिसेज नाथ - लेकिन आप सोमा ही कहिए -''
''मिसेज नाथ - सोमा। हम लोग इस की थोड़ी और बात करें। आप क्यों न कल फिर आ जाइये - या परसों, जैसी सुविधा हो - और थोड़ी देर सैसी के स्टूडियो में काम कीजिये! सैसी तो आजकल बाहर एक कमीशन पेंट कर रही है - आप को तीन-चार घंटे अकेले काम करने को मिल जायेंगे।''
सैसी ने कहा, ''ठीक है। एंड डोंट माइंड द मेस-वैसे तो हर आर्टिस्ट को हर दूसरे आर्टिस्ट का स्टूडियो अस्त-व्यस्त लग सकता है - या अस्त-व्यस्त होना ही जरूरी और ठीक भी लग सकता है - '' वह कई संभावनाएँ खुली छोड़ दे कर मुस्करा दीं।
'हर आर्टिस्ट को हर दूसरे आर्टिस्ट का - ' सोमा ने संकोच का अनुभव किया, संतोष का भी। वह कहाँ की आर्टिस्ट है अभी! पर इन लोगों ने उसे रिजेक्ट तो नहीं कर दिया है, परीक्षा अभी पूरी न भी हुई हो तो अनुकूलता तो दीख रही है... उसने कहा, ''आप दोनों की बड़ी कृपा है। मैं कल ही आ जाऊँगी।'' सैसी की ओर उन्मुख हो कर, ''आपके स्टूडियो में काम कर सकूँ, यह मेरे लिए बड़े गौरव की बात होगी।'' फिर कार्ल की ओर, ''और आपसे कुछ सीख सकूँ - ''
सैसी ने पति को थोड़ा चिढ़ाते हुए कहा, ''सिखाने में तो यह बहुत अच्छे हैं - अगर शागिर्द की जान पहले न ले लें। इसी लिए तो शागिर्द लेते नहीं, किसी को लेनेवाले हों तो मैं नहीं लेने देती।''
सोमा ने कहा, ''मेरे मामले में आशा है आप अपवाद मानेंगी।'' और फिर उत्तर का मौका न दे कर, ''और जहाँ तक जान लेने की बात है, मैं बिल्ली जैसी सख्त जान हूँ - आठ जानें फालतू रखती हूँ।''
''स्मार्ट गर्ल!'' कहते हुए कार्ल खड़े हो गये। मिलाने के लिए उन्होंने हाथ बढ़ाया। लेकिन एकाएक नये विचार से उन्होंने पूछा, ''आप के पति की क्या राय होगी, अगर आप घंटों पुराने चीथड़ों के साथ बिताएँगी? विल ही लाइक इट?''
सोमा ने संक्षेप में कहा, ''आई एम ए विडो।'' कहते-कहते एक दूसरा दृश्य, एक और वाक्य उसके मन में कौंध गया : 'इट डजंट माइंड'...
''आयी बेग योर पार्डन।'' कार्ल के स्वर में खरा अनुताप था, मानो उनसे भारी अनौचित्य हो गया है। उन्होंने एक याचना-भरी निगाह से सैसी की ओर देखा। संकेत समझते हुए सैसी ने विदाई का मामला हाथ में ले लिया, ''हमारे लॉन का तीर्थंकर आपने देखा है?''
सैसी स्टेगर जब सोमा को बाहर के फाटक तक छोड़ आयीं तो सोमा ने मुड़ कर घर के सामने की रौंस और उसके बीच में पक्के चबूतरे पर जमी हुई नेमिनाथ की प्रस्तर मूर्ति को ऐसे देखा मानो उस परिवेश को पहचान रही हो, जिसमें अब उसे रहना है।
उस दिन के लिए इतनी उपलब्धि काफी थी, पर सोमा तुरंत सहेली के पास लौटना नहीं चाहती थी। टहलने के लिए भी वह इलाका अच्छा था, पर सोमा के मन का भाव ऐसा था कि गरम निहाई को ठंडा नहीं होने देना चाहिए-एक और मार, एक और मार...
कुछ ही दूर पर, रामकिशोर लेन में एक बँगले के अहाते में एक छोटी काटेज का आधा हिस्सा उसे मिल गया। दूसरे आधे में एक धनहीन परिवार रहता था - माँ और स्कूल की आयु की बेटी - और वे लोग एक पुरुष-रहित प्रतिवेशी ही चाहते थे। उनके लिए सोमा उतना ही आदर्श पड़ोसी थी जितना सोमा के लिए वे आदर्श मकानदार और पड़ोसी।
दिन-भर अच्छी कमायी कर आये होने का भाव ले कर सोमा सहेली के घर लौटी। सहेली उसकी प्रतीक्षा ही कर रही थी। सोमा ने देर तो बहुत कर दी थी, फिर भी अभी थोड़ी देर तक तो 'लेडीज टॉक' का समय था ही, इससे पहले की सहेली को अपने शाम के कार्यों से व्यस्त हो जाना पड़े। पर सोमा इस समय जनाना बातचीत के मूड में बिल्कुल नहीं थी; आते ही उसने बता दिया कि वह सब तय कर आयी है, उसे काम भी मिल गया है, घर भी, और... फिर सहेली के चेहरे की हल्की निराशा देख कर वह रुक गयी, साथ ही उसे यह भी ध्यान आया कि अभी 'काम' मिला कहाँ है, भले ही संभावना काफी है... सहेली को भी ध्यान आया, गप्प न कर सकने की निराशा के ऊपर सोमा की सफलता की ओर उसे ध्यान देना चाहिए; बोली, ''तुम पैरों तले घास जमने का मौका नहीं देतीं, क्यों न?'' सोमा मुस्करा दी। यह अंग्रेजी मुहावरों का अनुवाद कर के बोलने का खेल उसका कॉलेज का शगल था। खेल का खेल, एक वास्तविक असमर्थता को ओट की ओट : क्यों कि सच बात यही थी कि अंग्रेजी मुहावरे का तो सब अभ्यास करते थे, हिंदी बोलते समय स्वतंत्र सोचना किसी को न आता था, न सूझता था, सब लाचार अनुवाद करते थे जिससे प्रायः हँसी की सामग्री मिल जाती थी और असमर्थता की कसक उसमें खो जाती थी। सहेली को खुश करने के ख्याल से सोमा ने वैसे ही हलके स्वर में कहा, ''क्यों दूँ? हमेशा दीवार का फूल बन कर थोड़े ही बैठ रहूँगी?''
''अरे तो काम देख कर आयी है, या कि हज्बैंड मिल गया है?''
सोमा कहने को हुई, 'दोनों।' पर उसने अपने को रोक लिया। वह सब बताना अभी जरूरी नहीं है, ठीक भी नहीं। सोये कुत्तों को पड़े रहने दो।
लगभग कॉलेज के दिनों जैसी ही हो गयी थी दिनचर्या, सिवाय इस के कि सहपाठिनों की हँसी-ठिठोली नहीं थी, न कॉलेज के लड़कों के बारे में तीखे रिमार्क। पर इन की कमी सोमा को नहीं खल रही थी, और उसे कुछ अचंभा भी हो रहा था कि स्मृति में उसके कॉलेज के दिन इतने शांत और एक-रस हो गये हैं - एक-रस अच्छे ही अर्थ में, बुरे अर्थ में नहीं; फिर भी एक-रस, समगति से चलनेवाले और शांत। जिन दिनों वह उनमें से गुजर रही थी उन दिनों तो वह शांत या एक-रस नहीं लगते थे - रोज ही कुछ-न-कुछ लगा रहता था, कोई एक्साइटमेंट या कोई मुसीबत, और कुछ नहीं तो चिड़चिड़ाने के लिए घर की ओर से ही कोई हरकत... ऐसे ही हम अतीत को इतनी जल्दी अपनी नयी प्रवृत्तियों की रंगत में रंग लेते हैं - पर क्या अभी से उन दिनों का रोमानीकरण आरंभ हो गया है - क्या वे इतनी दूर चले गये हैं, वह बूढ़ी होने लगी है? दूरी मनसा ही होती है - पर काल भी तो मनसा ही जाना जाता है - जिस अर्थ में शरीर के स्नायु बूढ़े होते हैं, उसका पता तो बीस-पचास साल में लगता है, असल बूढ़ा होना तो मानसिक होता है जो एक दिन में भी हो सकता है। पर ऐसे विचार उसे अधिक गहरे में नहीं व्याकुल करते थे; काम सीखना उसने शुरू कर दिया था; रामकिशोर लेन से हर्र स्टेगर के बँगले तक आने-जाने के बीस-पचीस मिनट एक निर्वैयक्तिक ढंग से ऐसी किसी बात को सोचने में कट जाते थे और इस तरह की अन्यमनस्कता में एक फायदा यह भी था कि रास्ते में मिलनेवाले आते-जाते लोगों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता था - न उनमें से ही कोई उसकी ओर विशेष ध्यान देता था। पर दो-चार दिन बाद उसे लगा कि कोई व्यक्ति उसके पीछे-पीछे आ रहा हैः वह इतनी दूर पर था कि शंकित होने की कोई बात नहीं लगती थी, पर उसके बाद दो-तीन बार ऐसा संदेह होने पर जब उसने पहचान लिया कि दूर रहता और उदासीन दीखता हुआ भी प्रत्येक बार वही व्यक्ति होता है और उतनी ही दूरी पर, तब उसे निश्चय हो गया कि वह उसके पीछे ही है, उसी का अनुसरण कर रहा है - क्यों? उसने सैसी स्टेगर से इस का उल्लेख कर दिया और पूछा, ''यह लोकैलिटी तो सुरक्षित है न - कोई चिंता की बात तो नहीं है न?'' सैसी ने हँस कर कहा, ''चिंता नहीं, सोमा। सुरक्षित तो आजकल क्या है, पर वह फॉलो ही करता होगा - उसी में सुरक्षा मान लेनी चाहिए। हमारे घर पर भी तो निगरानी रहती है - तुमने नोटिस नहीं किया? सभी फॉरेनर आजकल संदिग्ध हैं - आखिर लड़ाई का जमाना है - यह भी तो हो सकता था कि नजरबंद ही कर लिए जाते। जर्मन-इटालियन तो घेर ही लिए गये - हम लोग एक तो चेक हैं, दूसरे बहुत पहले से बसे हैं, हम पर सिर्फ निगरानी है। और तुम रोज यहाँ आती जाती हो - या कि तुम्हारे अपने भी कुछ पॉलिटिक्स हैं, सोमा?'' और मानो उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी।
''नहीं, मिसेज स्टेगर-या कम-से-कम मेरे अपने चुने हुए तो कोई नहीं।''
''हम से अधिकतर ऐसे ही होते हैं, सोमा - अपने पॉलिटिक्स हम नहीं चुनते - सिर्फ उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं। तुम्हारी बात से लगता तो है कि - ''
''नहीं, कुछ नहीं, मिसेज स्टेगर! मेरे दो-एक परिचित थे - या - '' सोमा ने अपने पर जोर डाल कर कह ही तो डाला, ''मेरे दिवंगत पति भी कुछ - ''
''आइ सी। तब उधर कुछ ध्यान मत दो - समझ लो कि बिना वेतन का एक बॉडीगार्ड तुम्हें मिला हुआ है। मैं तो कभी-कभी पेंट करने जाती हूँ तो अपना कैनवस और ईजेल भी उससे उठवा लेती हूँ। ही माइट एज वेल फील यूसफुल!'' कह कर वह जोर से हँस दी।
सोमा ने तर्कपूर्वक निश्चय कर लिया कि वह आश्वस्त है और रहेगी - पर मन में कहीं एक खुटका बना ही रहा। अच्छा, अब जब सामंत से मुलाकात होगी तो पूछेगी - सामंत जरूर जानता होगा... पर मुलाकात क्या होगी? और - कहीं इस निगरानी का कारण वही हुआ तो? वह यात्रा - वीरेश्वर का घर - अगर वीरेश्वर नाथ का क्रांतिकारियों के साथ जाना हुआ था तो उसके घर पर जरूर निगरानी रहती होगी - रही होगी - पर तब सामंत को पता न होगा? वत सतर्क न रहा होगा? पर वीरेश्वर की मृत्यु तो शिकार की दुर्घटना में हुई थी। सोमा को अचंभा हुआ कि उसे सामंत के शब्द अक्षरशः याद आ गये - 'इस समय का तथ्य यही है कि शिकार पार्टी में अकस्मात् गोलियाँ लग गयीं जिससे मृत्यु हुई। राजा साहब का बयान भी था जिनकी शिकार पार्टी थी, सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट भी कि दुर्घटना में मृत्यु हुई।' 'राजा साहब का बयान भी था' - इसका क्या मतलब होता है? 'इस समय का तथ्य यही है' ...यानी कि वास्तविक घटना कुछ और थी, राजा साहब के रसूख से ऐसी व्यवस्था हो गयी... पर यह भी तो हो सकता है कि पुलिस ने ऊपर से बात मान ली हो और - ...तब क्या सामंत पर भी निगरानी होगी? जब वह मिलने आएगा तब क्या ये दोनों गुरगे आपस में सलाह करेंगे? एकाएक सोमा को अपने डैडी का ध्यान आया : यह सब जानकारी जब कभी उन तक पहुँचेगी तब उन्हें कैसा लगेगा! एक कूट विनोद से उसका मन भर गया : डैडी जब अपनी स्टडी में बैठे ये सारे बयान पढ़ रहे हों तब वहाँ अदृश्य खड़े हो कर देखने में कितना मजा आएगा! पर क्या डैडी को पता लग गया होगा कि वह कहाँ है, क्या कर रही है? और किस नाम से रहती है? दैट विल बी द लास्ट स्ट्रॉ... तिनके का बोझ - तिनके के बोझ से डूबने की बात उसे फिर मजेदार लगी। ऐसी लदी हुई नाव कि एक तिनका और लदने से डूब जाय - उसने कल्पना से देखने की कोशिश की कि डैडी नाव की तरह समुद्र में डोल रहे हैं, और उन पर लादा जा रहा है - भूसा... अच्छा, वह ऐसा ही एक स्केच बनाएगी, हाँ, चेहरा पहचान में आनेवाला नहीं, और किसी का कैरिकेचर ही बना देगी - वाइसराय का ही चाहे -
लेकिन 'मिस्टर स्टेगर सिखाने में तो बहुत अच्छे हैं - अगर शागिर्द की जान पहले न ले लें'! काम, काम, काम...
महीना पूरा हो गया था। तीसरे पहर के लिए सोमा ने छुट्टी पहले से माँग रखी थी; फिर भी वह स्टेगर के बँगले में समय से गयी; भीतर थोड़ा देर काम कर के उसने सैसी से पूछा, ''क्या मैं आपके मकान के पिछवाड़े जा सकती हूँ?''
सैसी ने कुछ अचरज के स्वर में अनुमति देते हुए कहा, ''श्योर!'' तो सोमा ने मानो सफाई देते हुए कहा, ''वहाँ गिलहरियाँ बहुत आती हैं - मैं उन्हें चारा देना चाहती हूँ। छोटी थी तब मेरी एक पालतू गिलहरी थी।''
सैसी ने कुछ रंजित स्वर से कहा, ''यहाँ से सभी पालतू हो गयी हैं। कार्ल उन्हें खिलाते भी रहते हैं।''
बात को निबाहने भर के लिए पिछवाड़े में टहल कर सोमा पिछले गलियारे से ही गुजरती हुई जाली के छोटे किवाड़े से बाहर निकली; दो-एक छोटी सड़क से होती हुई राजपुर रोड पर निकल आयी और वहाँ से दूसरी तरफ से स्विस होटल के सामने टहलती हुई पहुँच गयी। वह निगरानी करनेवाला आदमी उसने स्टेगर के सामने के फाटक से कुछ दूर पर खड़ा देख लिया था; ऐसे कार्यों का कोई अनुभव न रहते भी उसने उसे चकमा दे कर जाने की सावधानी बरतना ही ठीक समझा था। उसने यह भी देखा था कि यह आदमी अकसर उस दूसरे आदमी के साथ बातचीत करने बैठ जाता था जिसकी ड्यूटी स्टेगर के बँगले पर थी - और दोनों करते भी क्या? तब उसे पता तो होगा कि पिछवाड़े भी एक रास्ता है; पर जब तक वह उधर कहीं देख न ली जाए तब तक यही माना जाता रहेगा कि 'साहब लोगों' के बँगले से उसका आना-जाना औपचारिकता के साथ ही होता होगा।
काफी देर तक सोमा स्विस होटल के सामने टहलती रही। सुशिक्षित युवती होने के नाते वह यही जानती थी कि लड़कियों को प्रतीक्षा करते खड़ा नहीं रखा जाता; पहले पहुँच कर राह देखना पुरुषों का काम है और उन्हें इंतजार करा कर देर से आना लड़कियों का सहज अधिकार। देर हो गयी, तो उसने अपने से कहा कि इस शिष्टाचार से सामंत को बरी समझना चाहिए - वह दूसरे संस्कार का है, ये बारीकियाँ नहीं भी जानता होगा! जब और देर हो गयी तब उसने और रियायत दी : जैसे काम में वह है उसमें देर तो हो ही सकती है - उसे भी तो चकमा दे कर आना पड़ सकता है -
पर आखिर और कितने चक्कर वह स्विस होटल के सामने काटेगी? अलीपुर रोड है, सैर की सड़क है, ठीक है; पर सैर करनेवाले इधर कंपनी बाग में जायेंगे, उधर कुदसिया बाग में जायेंगे, जमुना की ओर जायेंगे - अलीपुर रोड का चक्कर कब तक काटेंगे? फिर कमिश्नर के बँगले से वह जगह बहुत दूर नहीं है; निगरानी की बात ही है तो वहाँ भी किसी का ध्यान गया तो?
एक बार उस तरफ को देख कर सोमा कश्मीरी गेट की ओर बढ़ गयी; वहाँ से लौटती बार कुदसिया बाग के भीतर से होती हुई निकली; पर स्विस होटल के आसपास या पार कंपनी बाग के दीखनेवाले हिस्से में कहीं कोई नहीं था। वह बढ़ती हुई चली ही गयी, स्टेगर के साथवाले बँगले में घुस कर वह शंकित आँखों से इधर-उधर देखती हुई बाड़ आधी बेध और आधी फाँद कर स्टेगर के बँगले के अहाते में घुस गयी, तीर्थंकर के चबूतरे के पास खड़े होकर उसने अपनी साड़ी की सलवटें ठीक कीं और फिर सामने के फाटक से निकल आई।
हाँ, आदमी बँगलेवाले आदमी के साथ बात करता इधर-उधर देख रहा था।
रामकिशोर लेन के मोड़ पर मुड़ते हुए सोमा ने देखा, वह वहीं उतनी दूर पर ठिठक गया है। तेज कदमों से वह अपने कमरे में चली गयी; जोर से घसीट कर उसने एक कुर्सी सामने को की, और उस पर धम्म से बैठ गयी। एकाएक उसे लगा कि उसकी आँखें चुनचुना रही हैं - कि वे रोएँगी। रोने को क्या हुआ है? उसने झुक कर साड़ी ऊपर खींच कर अपनी पिंडलियाँ उघाड़ लीं; बँगलों की बाड़ पार करते हुए उसकी पिंडलियाँ छिल गयीं थीं, जरूर उसी की जलन के कारण उसकी आँखों में आँसू आ रहे होंगे। वह धीरे-धीरे सी-सी करती हुई अपनी पिंडलियाँ सहलाने लगी।
थोड़ी देर बाद बुदबुदा कर अपने ही से बोली, ''लायर! फेस इट - यू आर फीलिंग डिच्ड! यू वांटेड हिम टु बी देयर''...
बहुत पिंडलियाँ सहला लीं, ऐसी कोई छिली-विली नहीं थीं, मामूली एक-दो खरोंचें... झूठ-मूठ फस मत करो! सोमा ने साड़ी नीचे खिसका कर पिंडलियाँ ढँक लीं और थोड़ी देर निश्चल बैठी रही। फिर झटके से उठते हुए उसने कहा, ''डैम!'' और थोड़ा रुक कर, ''कुछ फिकिर नईं, मिसेज नाथ; अगला टाइम हम उसको डिच करेंगा।'' अपने को डिप्रेशन से उबारने के लिए वह जब-तब इस 'खानसामा उर्डू' का आसरा लेती थी; अक्सीर नुस्खा था। पर आज जैसे उसमें कोई तासीर नहीं थी; बहुत ही अँधेरे तूफानी मूड में सोमा छोटी रसोई में जा कर कहवा बनाने लगी - अपने मूड से भी ज्यादा काला, कड़वा कहवा।
एक लंबा महीना जल्दी से निकल गया : उसके लंबा होने और उसके जल्दी निकल जाने दोनों का स्पष्ट बोध सोमा को था, अगर दोनों के विरोध का भी था तो वह उस विरोध को पूरा हल करना जरूरी नहीं समझती थी। कार्ल स्टेगर उसे काम रुचि से सिखा रहे थे इसलिए पूरा परिश्रम भी चाहते थे; दिन-भर वह काम करती थी और शाम को पुस्तकें साथ ले आती थी चित्र देखने और पढ़ने के लिए। दिन छोटे होने लगे थे और जब वह लौटती थी तब नदी की ओर से एक धुएँला कुहरा बढ़ कर बकायन के मुरझाने लगे शिखरों और बबूल की झाड़ियों पर अपनी मैली चादर बिछा रहा होता था - मानो इसी ऊबड़-खाबड़ शय्या पर जाड़ा अपनी कसैल नींद पूरी करेगा... कभी-कभी इसी धुएँ से कसायी आँखें लिये घर लौटती हुई सोमा को एकाएक सामंत की चूक की याद आ जाती थी तब उसकी आँखें और कड़वा आती थीं और उसे लगता था कि सात घंटे के दिन की अपेक्षा यह सत्रह मिनट की साँझ ज्यादा लंबी है - क्यों कि ऐसे दिनों वह साँझ को अधिक लंबा नहीं होने देती थी, घर में नहीं घुसने देती थी-घर तक की वॉक पूरी होते ही वह अपने पीछे दरवाजे बंद कर के बत्तियाँ जला लेती थी और काम में जुट जाती थी -समय की स्थिति से नाता तोड़ लेती थी। यद्यपि समय की स्थिति क्या होती है, गति का ही तो नाम समय है... न, गति का नहीं, गति के बोध का, गति से अपने संबंध के ज्ञान का। गति और स्थिति के बीच की टूट का, बढ़ती हुई टूट का...
पर 'अगला टाइम' भी 'मिसेज नाथ' उसको डच नहीं 'करने सका'। अब की बार उसने पूरे दिन की छुट्टी ले ली थी, और स्टेगर दंपति से कनॉट प्लेस में करने लायक काम भी पूछ लिया था। पूर्वाह्न वहाँ बिता कर वहीं उसने हल्का-सा लंच लिया; फिर वहीं अपने 'साथी' को चकमा दे कर वह निकल आयी और दूसरी तरफ से टैक्सी ले कर स्विस होटल पहुँच गयी। साथी बहुत देर तक वहाँ नहीं रहेगा, जान जाएगा कि उसे चकमा दिया गया है - पर तब घर ही तो लौटेगा पता लेने के लिए? और भविष्य में अधिक सतर्क रहेगा? पर सोमा भी अब अधिक निडर हो गयी है; जब उसे पीछा छुड़ा कर कहीं जाना होगा तो जरूर कोई युक्ति निकाल लेगी!
टैक्सी को विदा कर के उसने होटल में ही चाय पीने की रस्म अदा की और फिर टहलती हुई बाहर निकल आयी। अपने को अधिक प्रतीक्षा या उत्कंठा के मूड में उसने आने नहीं दिया था; उसका निश्चय था कि सामंत नहीं आया तो वह अपने को पिछली बार की तरह निराशा में नहीं डूबने देगी। आखिर उनकी मुलाकात निरे एक्सिडेंट से हुई थी; एक्सिडेंट भी ऐसा-वैसा नहीं, वन-इन-ए-मिलियन, क्यों कि ऐसा तो उसने कभी उपन्यास में भी नहीं पढ़ा था! बल्कि उपन्यास में पढ़ा होता तो विश्वास भी कर पाती या नहीं, पता नहीं! वह दो या तीन चक्कर लगाएगी और फिर घर चल देगी, बस।
पर वह पहली बार ही मुड़ी थी कि उसे सामने से सामंत आता दिखाई दिया। अखरोटी रंग का गर्म सूट, पॉलिशदार जूते, नोकीले कॉलरवाली धारीदार कमीज और मैच करती हुई टाई : यह एक दूसरा ही सामंत था। नयी-नयी नियुक्ति पर आया हुआ अफसर - वह भी जैसे अभी-अभी जिला अफसर के पास अपनी पहली औपचारिक हाजिरी लगा कर आ रहा हो! ऐसे लोग उसके डैडी के यहाँ अक्सर दीखते थे - पर मन ही मन उनसे तुलना कर के सोमा ने निर्णय किया कि नहीं, सामंत उन जैसा दीखता है, पर उनमें से नहीं है - इस के ये कपड़े पहनने में कुछ विशेषता है। सूट ने आदमी नहीं पहना है, आदमी ने सूट पहना है।
पास आते-आते खिले चेहरे से सामंत ने कहा, ''हैलो-सोमा जी - '' और फिर निकट से, धीरे से, ''अब किस नाम से पुकारूँ, बता दीजिएगा - ''
''मिसेज नाथ - यानी वीरेश्वर नाथ, आप तो जानते हैं!'' कहती हुई सोमा मुस्करा दी। ''बट सोमा टु यू - 'जी' को ड्रॉप कर दीजिए।''
''थैंक यू, सोमा। नाइस नेम, सोमा। सोमा जी कहने से तो लगता है, उधर कहीं बंबई-मद्रास तरफ की होंगी, या बोहरा-पारसिन कुछ सोमा जी, बोमा जी, सोमा जी किरसुनजी, या कि जमसेट जी सोमा जी पोटलीवाला! नहीं, पर्सवाला!''
सामंत की यह नटखट मुद्रा सोमा को अच्छी लगी। पर पर्सवाला के उल्लेख से उसका ध्यान उस रेलगाड़ीवाली घटना की ओर चला गया जिससे कुछ कड़वाहट भी मन में आ गयी; इसलिए उसने जब हँसते हुए कहा, ''ओ शटअप!'' तो उस में कौतुक-भरी वर्जना के साथ एक सच्ची खीझ भी थी।
''किधर चलें? टहलेंगी, या कि - आप की तरफ चलेंगे - कहाँ रहती हैं यहाँ?'' शायद अभी यह सब पूछना कुछ ढिठाई लगे इस ख्याल से कुछ सकुचा कर सामंत ने फिर कुछ नटखट ढंग से जोड़ दिया, ''या कि यहाँ भी मिस्टर नाथ के रिश्तेदारों के यहाँ ठहरी हैं - ''
क्या फायदा है कुढ़ने से! सोमा ने आयासपूर्वक अपने को वश किया और हँसी का वही स्तर स्वीकार करती हुई बोली, ''वह कैसे होता! वैसा कोई खयाल रखनेवाला एस्कॉर्ट मिलता तब न!''
''सो तो है। सो तो है। पर - उधर पार्क की तरफ हो लें? अभी तो थोड़ी देर धूप है, सुहाना मौसम रहेगा - '' सामंत को लगा कि आमंत्रित करने या न करने का फैसला सोमा का है, उसकी पूरी छूट उसे रहनी चाहिए। सोमा से कदम मिलाने के लिए उसने अपने डग थोड़े छोटे कर लिए। यह लिहाज सोमा को अच्छा लगा, इसलिए और भी कि सामंत से इसकी अपेक्षा उसे नहीं थी।
सोमा की तिरछी नजर से अपनी टाँगों की ओर देखता पा कर सामंत ने पूछा, ''यह आउट फिट आपको पसंद - आपको ठीक-ठीक लगा? मेरे लिए तो अभी अभ्यस्त नहीं हैं - आई फील ड्रेस्ड अप।''
चिढ़ाने के लिए सोमा ने कहा, ''यू आर, मिस्टर सामंत, यू आर!'' फिर कुछ पसीज कर, ''अच्छा लगता है - मेरे लिए तो प्लेजेंट सरप्राइज था।''
''मैं पिछली बार आ नहीं सका, उसके लिए बहुत-बहुत माफी चाहता हूँ। पर आ सकता ही नहीं था। उधर बंगाल तरफ जाना पड़ा था। और खबर देने का कोई उपाय तो था नहीं - ''
बंगाल तरफ। यह कहाँ का मुहावरा बीच-बीच में यह आदमी बोलता है? या कि यह भी एक विशिष्ट निजी ढंग है? सोमा ने एकाएक पूछा, ''डॉक्टर सामंत, यह सामंत नाम कहाँ का है - बंगाली सामंत या मराठी? या कि पश्चिम के सामंत गुजराती होते हैं? मुझे नहीं मालूम।''
सामंत खुली-खुली आँखों से उसकी तरफ देखता रहा, कुछ बोला नहीं।
थोड़ी देर बाद सोमा ने कहा, ''अच्छा, मैं समझ गयी। ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। पर डॉक्टर सामंत, आपके सर्कल में क्या किया जाता है और क्या नहीं किया जाता, वह मैं न जानूँ या मानूँ तो कोई दोष है? आप जानते हैं कि मैं आपके सर्कल में नहीं हूँ - न मुझे उससे कोई सिंपैथी है।''
सामंत ने क्षण-भर चुप रह कर कहा, ''न सही सिंपैथी। सिंपैथी चाहिए भी नहीं।'' स्वर में थोड़ी रुखाई थी। उसे दबा कर बदले स्वर में वह फिर बोला, ''और इस 'डॉक्टर' को छुट्टी दी जाय तो कैसा रहे? कॉल मी मोहन।''
''मोहन या कि मन्नू!'' सोमा ने चिढ़ाते हुए कहा, ''पर सिंपैथी क्यों नहीं चाहिए? मैं तो समझती थी, आप लोगों को दो तरह के लोग चाहिए - एक तो... साथी, दूसरे... सिंपैथाइजर। ऐसा ही तो मैंने पढ़ा भी है आप लोगों के - ''
''जरूर पढ़ा होगा।'' सामंत ने कुछ जोश में कहा, ''पर हमें दोनों नहीं चाहिए। हमें सिर्फ इनसान चाहिए!'' थोड़ा और भी उत्तेजित स्वर में उसने पूछा, ''तुम कभी अखबार-वखबार भी पढ़ती हो, सोमा?''
'आप' से 'तुम' तक का परिवर्तन अलक्ष्य नहीं रह सकता था। और कारण सिर्फ बात की उत्तेजना तक ही सीमित हो, ऐसा भी नहीं जान पड़ता था। सोमा को हल्की-सी सिहरन हुई; वह सिहरन अच्छी भी लगी।
''पढ़ती तो हूँ, डॉ. मोहन, पढ़ती हूँ, पर आप कहना क्या चाहते हैं?''
''अखबार पढ़ कर कोई कैसे उदासीन रह सकता है - यह सोच भी कैसे सकता है कि सिंपैथाइजर हमें चाहिए? यहाँ पर 'हम' और गैर-हम का फर्क कुछ मतलब रखता है? सभी भारतीयों की एक-सी प्रतिक्रिया होनी चाहिए - ''
''किस बारे में? लेकिन मान लीजिए कि बात आजादी की है और उस बारे में सबको एक साथ सोचना चाहिए। हालाँकि वह भी होता नहीं है - आजादी की परिभाषाएँ भी कई हैं, पर वह हो भी तो सवाल प्रतिक्रिया का नहीं, प्रक्रिया का है। सभी को क्यों एक ही प्रोसेस ठीक दीखना चाहिए? क्या दूसरा रास्ता नहीं होता और जो दूसरे रास्ते अपनाते हैं, आपकी राय में सब बेवकूफ हैं? या उससे भी बदतर-बेईमान हैं?''
''बड़े-बड़े आदमी हमें मिसगाइडेड कह सकते हैं, तो हम भी उन्हें गलती पर मान ही सकते हैं, सोमा जी। पर उसे छोड़िए। मैं एक मन की बात नहीं कहता। आप ही की दलील से चलें - अगर आजादी की बात सभी के सामने है, तो हमारे सिंपैथाइजर होने की बात कहाँ से उठती है? सब अपने-अपने सिंपैथाइजर ही रहें; चलिए, अपने-अपने सर्कल का शिष्टाचार बरतें!''
''अच्छी बात है, अच्छी बात है, इतना सेंसिटिव होने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि आपके काम में तो खासी मोटी चमड़ी का होना चाहिए - नहीं?''
उचित डाँट खाये हुए भाव से मोहन बोला, ''आप ठीक कहती हैं। मुझे बुरा नहीं मानना चाहिए था। पर...'' और अब फिर सोमा ने 'आप' से 'तुम' का परिवर्तन लक्ष्य किया, ''पर सच मानो सोमा, और कभी ऐसी चूक मुझसे होती नहीं है, तुम्हीं पता नहीं क्यों चिढ़ा देती हो!''
चिढ़ा देने की ही सही, शक्ति तो शक्ति है। सोमा को मजा आ रहा था। इसीलिए वह कुछ उदार होने को भी तैयार थी। ''मैं मानती हूँ कि वैसा लीडिंग सवाल मुझे नहीं पूछना चाहिए था। 'आस्क नो क्वेश्चन्स, बी टोल्ड नो लाइज'। लेकिन चिंता भी तो हो सकती है? बंगाल तरफ क्या वैसे ही किसी काम से गये थे - जोखम के काम से?''
अब की बार मोहन को अच्छा लगने की बारी थी। बोला, ''जोखम तो - कहाँ नहीं है। सड़क पार करते हैं तो जान खतरे में डालते हैं। यहाँ बिजली के तार के नीचे चल रहे हैं, टूट जाय तो - ! आदमी काम करता है, पेशबंदी करता है, बस।''
दोनों थोड़ी देर चुपचाप चलते रहे। पार्क का दूसरा छोर आ रहा था, मोहन की चाल में ही निहित प्रेरणा के साथ मुड़ते हुए सोमा को अच्छा लगा : यह अनायास मिलाये हुए कदमों से टहलने में एक अपूर्व स्फूर्ति थी... उसमें जैसे पंख थे, उन पर उड़ते हुए कुछ बोलना भी जरूरी नहीं था, न यह जानना ही कि दोनों के विचार समांतर हैं या दूर-दूर...
मोहन ने पूछा, ''सोमा, जब घर से - भाग आयी थीं तब कोई पेशबंदी की थी?''
''पूरी। क्यों?''
''तब क्या मालूम था कि उस सब के बावजूद जिस गाड़ी में बैठोगी उसमें-क्या होगा?''
सोमा एक विरस-सी मुस्कान मुस्का दी; कुछ कहना जरूरी नहीं था।
थोड़ी देर बाद सोमा ने कहा, ''हाँ, मैं जो भी प्रिकॉशन ले रही थी, डैडी के खिलाफ; रेलगाड़ी के खिलाफ नहीं - ''
''देट्स इट।'' जोखम इसमें उतना नहीं होता कि हम करते क्या हैं, इसमें होता है कि प्रिकॉशन हम एक तरफ को लेते हैं और शॉक दूसरी तरफ से आता है।
''क्या सब तरफ से प्रिकॉशन नहीं लिया जा सकता?''
''अपनी तरफ से तो सब वही करते हैं। पर सब तरफ का मतलब क्या होता है? वैसी टोटल पेशबंदी करने की कोशिश तो कर के देखो! पागलखाने का शॉर्टकट है।''
''बरेलीवाले, कि आगरेवाले?''
मोहन ने एक तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा। थोड़ी देर जैसे कुछ तौलता हुआ देखता रहा। फिर बोला, ''आइ टेक इट, यह फिर वही पागलखानेवाला घिसा-पिटा मजाक है? ए लिटल टू आब्वियस दिस टाइम।''
सोमा को लगा कि बात ठीक ही है। इतना आब्वियस होने की जरूरत नहीं थी। अपने गलत कदम पर कुछ कुढ़न उसे हुई। टालती हुई बोली, ''ओह, लेट अस नॉट स्पायल इट ऑल! अच्छा सुंदर दिन है, बढ़िया सैर है : आई एम डिटर्मिंड टु एंजॉय इट!''
मोहन चुप रहा। क्यों? इतना ग्रेस तो उस में होना चाहिए था कि मान जाय? उसने कुछ तकलीफ पहुँचाने को तो कहा नहीं था; अगर कुतूहल था ही तो क्या हुआ - खास कर जब मोहन ने उसे शांत करने लायक कुछ फिर भी नहीं बताया?
थोड़ी देर बाद मोहन को भी लगा होगा कि बात यहाँ अटकी नहीं रहनी चाहिए। बोला, ''हाँ, बहुत बढ़िया सैर थी। पिछली बार आ न सकने का मेरा अफसोस फिर ताजा हो आया।''
बढ़िया सैर - थी। यानी समाप्त हो गयी। शह स्वीकार करते हुए सोमा ने कहा, ''अच्छा, अब लौट चलें?''
''चलिए। आप को घर तक पहुँचा दूँ -''
सोमा ने हँस कर कहा, ''घर तक तो झूठे को पहुँचाना होता है। नहीं, मैं चली जाऊँगी। अच्छा ही है कि जहाँ रहती हूँ वहाँ पुरुष न आयें-जायें।''
मोहन ने एक बार उसकी ओर देख कर स्वीकार कर लिया कि हाँ, यही वास्तविक कारण होगा। बोला, ''फिर कब भेंट होगी?''
सोमा का मन हुआ कि शरारतन वह कह दे, ''फिर डिट्टो''- यानी एक महीने बाद उसी दिन, उसी समय; पर इसके अलावा कि इतना लंबा अंतराल वह नहीं चाहती थी, यह ज्यादती होगी कि वह मोहन से फिर कहीं से दिल्ली की यात्रा की जहमत उठवाये। बोली, ''आप अभी कब तक यहाँ हैं?'' और जल्दी से उसने जोड़ दिया, ''यह सवाल कुछ इनफर्मेशन निकलवाने के लिए नहीं है, मतलब यही कि इस वीक-एंड तक की बात हो तो तब तक आप यहाँ हैं न - असुविधा तो नहीं होगी? तब शायद मुझे कुछ अधिक समय मिल जाय, या कहीं - ''
''ठीक है। किस समय कहाँ आ जाऊँ?'' कह कर मोहन ने भी जोड़ा, ''यह भी आपका घर का पता जानने का हीला नहीं है, सोमा जी; आइ मीन, कहाँ मिलना आपको सुविधाजनक होगा?''
तो मोहन के मन में कहीं अभी गाँठ रह गयी है। क्यों? ऐसा तो उसने कुछ कहा या पूछा नहीं। क्या अनदेखा कर जाए? नहीं, तब वह और कड़ी पड़ जाएगी। साफ-साफ पूछने में भी जोखम है, पर - 'जोखम तो - कहाँ नहीं है।' उसने एकाएक रुक कर मोहन की ओर मुड़ते हुए थोड़ा घुड़क कर पूछा, ''क्या बात है, मोहन? किस बात का गुस्सा तुम पोस रहे हो?''
मोहन भी रुक गया। थोड़ी देर उसके चेहरे को एकटक देखता रहा। फिर कुछ इस भाव से कि यों खड़े रहना जरूरत से ज्यादा लक्ष्य होगा, चलने को मुड़ते हुए बोला, ''यहाँ आने से पहले लखनऊ गया था।''
सोमा ने बराबर आते हुए पूछा, ''तो?''
''पता लगा कि मिस्टर जैतली के तबादले के ऑर्डर जारी होनेवाले हैं!''
''ऐसा? कहाँ को?''
''यह तो नहीं पता लगा। पर यह पता लगा कि मिस्टर जैतली के दो लड़के हैं, दोनों सनावर में पब्लिक स्कूल में हैं।''
''ओ - आपने पड़ताल की? इतना कष्ट क्यों?''
''और लड़की उनकी कोई नहीं है।''
सोमा झिझकी नहीं, वैसे ही चलती रही। थोड़ी देर में सम स्वर में उसने कहा, ''होती भी तो अब क्या? अब तो नहीं है।''
मोहन देर तक उसकी ओर देखता चलता रहा। सोमा इससे आगे भी कुछ कहेगी या नहीं? पर सोमा जैसे बात समाप्त कर चुकी थी; आगे जोड़ने को कुछ था नहीं।
देर बाद उसने कहा, ''स्विस के सामने से - आइ सपोज - मुझे लौट जाना चाहिए।''
सोमा ने खंडन नहीं किया। बोली, ''अगले इतवार को दस बजे आइ'ल बी फ्री। कनॉट प्लेस में मिलूँगी - डैविकोज में। वहाँ से कहीं और जाना चाहेंगे तो उठ जायेंगे -डैविकोज ठीक है न?''
''ठीक है - '' मोहन के स्वर में कुछ ऐसा भाव था कि वह कुछ और भी कहना चाहता है, पर सोमा ने उसकी बात काट कर कहा, ''और एक बात और भी आपको कह दूँ : मेरे घर पर निगरानी रहती है - और एक आदमी पीछे-पीछे भी रहता है।''
मोहन ने हठात् मुड़ कर देख कर कहा, ''यहाँ तो नहीं आया था?''
''नहीं, नहीं, आइ गेव हिम द स्लिप।''
''ओह! ...थैंक यू फॉर टेलिंग मी। कनॉट प्लेस में दूसरे भी हो सकते हैं।''
''मैं सावधान रहूँगी।''
''अच्छा, सोमा।'' कह कर मोहन चलने को हुआ।
सोमा ने एकाएक दीप्त हो कर पूछा, ''मन चंगा?''
मोहन को क्षण ही भर अर्थ ग्रहण करने की देर हुई। फिर उसने कहा, ''हाँ, सोमा।'' थोड़ा रुक कर, ''कांट एफोर्ड अदरवाइज।''
सोमा ठीक तै नहीं कर पायी कि इसमें कहीं बचा हुआ अवसाद है, या कारुण्य। फिर उसने प्रत्युत्पन्न निश्चय से कहा, ''मैं यहाँ स्टेगर के यहाँ काम सीख रही हूँ। पर वहाँ भी निगरानी है। अच्छा, डोंट डिच!'' उसका नमस्कार बहुत संक्षिप्त था, पर चेहरे का दीप्त भाव उसकी कमी पूरी करता था। मोहन थोड़ी देर ठिठका रहा, फिर उसने एक बार चारों ओर नजर डाली : अगर यह विदाई पार्क के लिए नितांत साधारण न भी रही हो तो भी किसी ने उसे देखा नहीं था। फिर वह मुड़ा और लंबे कदम भरता हुआ क्लब की तरफ को निकल गया।
बाकी सप्ताह फिर काम में निकल गया। शनिवार को काम समाप्त कर के सोमा घर आयी तो थोड़ी देर बाहर टहलती रही। मोहन से पिछली भेंट का असर अभी बाकी था : कुछ डोरे उजले रंगों के तो दो-एक गहरे मैले रंगों के भी; वह रोज ही थोड़ी देर इन्हें सुलझा कर अलग कर लेने का प्रयत्न करती रही थी पर सफल नहीं हुई थी। आज भी वह यही कर रही थी। कल मोहन से फिर मिलना होगा, उससे पहले बात को कुछ समझ लेना चाहिए, इस भावना ने उसकी उधेड़-बुन को कुछ तीक्ष्णता भी दे दी थी। उसने चलते-चलते जो अंतिम बात कही थी, उसका उद्देश्य यही था कि जैतली परिवारवाली बात से मोहन के मन में बसा हुआ संदेह या शिकायत दूर हो जाय, उसे लगे कि भरोसा कर के उसे एक रहस्य की बात बता दी गयी है। हो सकता है कि उसे उसने कॉनफिडेंस माना भी हो - पर अगर उसकी पड़ताल यही है कि पुलिस कप्तान जैतली की कोई लड़की नहीं है, तो इस जानकारी का वह करेगी तो क्या करेगी? 'मिस सोमा जैतली - और जैतली साहब के दो लड़के हैं, लड़की कोई नहीं है।' और उसने सिर्फ नाम नहीं बताया था, यह कर कर बताया था कि विश्वास करने में पहल वह करेगी। कहने में पहल का दावा - और पहली ही बात झूठ साबित! पिछली भेंट में तो खैर बात जैसे-तैसे निभ गयी - या टल गयी - उसी भेंट में तो सामने आयी भर थी - पर आगे कहाँ तक चलेगी?
पर झूठ की आखिर जरूरत क्या है? रेलगाड़ी में - खैर, एक तो कॉनफिडेंस की बात तो यह थी कि घर से भाग कर आयी है, इससे क्या कि जिस अफसर की बेटी है उसका ठीक नाम क्या है? दूसरे-दूसरे भाग कर आने के बाद उसका पहला ही तो साक्षात्कार था बाहर की परिस्थिति के साथ - क्या हुआ अगर उसने तुरत सही नाम नहीं बता दिया? बिल्कुल भी न बताया होता तो भी क्या झूठ होता? पर पुलिस कप्तान का नाम - जो पहला नाम जबान पर आ गया, उसने ले दिया था - और परिस्थिति के देखते शायद पुलिस के अफसर का नाम जबाँ पर आना अनपेक्षित भी नहीं था - अगर थोड़ा ड्रामा उसमें था, तो क्या हुआ! वह क्या जानती थी कि जिसके आगे यह नाम लेगी वह जैतली साहब को जाननेवाला ही निकलेगा!
जो हो, झूठ पर जमे रहने की जरूरत नहीं है। उसने तय कर लिया कि कल जब मोहन से मुलाकात होगी तो उससे अपना झूठ स्वीकार कर लेगी, उसे ठीक-ठीक परिचय दे देगी और इस बात की क्षमा भी माँग लेगी कि पहली ही बार उसने भरोसा करने की बात कर के झूठ बोला... यह सब भी ठीक जरूरी हो ऐसा नहीं है, पर इससे अगर निकटतर आने का रास्ता साफ होता है तो उसे यह करने में जरा भी संकोच नहीं होगा। दोस्त उसके कोई अधिक नहीं हैं - कोई भी बचा है या नहीं, क्या पता! - और मोहन सर्वथा इस योग्य है कि -
कि क्या? इसका जवाब स्पष्ट न देने में कोई बुराई सोमा को नहीं दीखी। कि यही कि ऐसी साफ बयानी के बाद शायद मोहन भी कुछ और बताये, कुछ निकटतर आये,
एक दोस्त की गुंजाइश तो उसे है, जरूर है...
इतवार को डेविकोज में सोमा को फिर काफी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। फिर मोहन आता हुआ दीखा, पर उसकी नजर मिलते-न-मिलते छिटक कर दूर चली गयी, मोहन उसकी ओर बढ़ने की बजाय कुछ दूर की मेजों के पास से बढ़ता चला गया और मुड़ कर ओझल हो गया। सोमा को उसने देखा जरूर, यह तो माना नहीं जा सकता था कि सोमा उसे मिली नहीं; तब न मिलने का कोई कारण ही रहा होगा - सोमा को निगरानीवाली बात याद आयी - कनॉट प्लेस में 'दूसरे भी हो सकते हैं' ...क्या किसी जोखम के कारण मोहन ने रुकना ठीक नहीं समझा -
दो-तीन कहवे पी कर सोमा ने उठ जाना ही ठीक समझा। मोहन लौट कर आता होता तो अब तक आ गया होता। बाहर निकल कर भी वह इधर-उधर देखती निकल गयी; मोहन कहीं नहीं दीखा। लौटने की कोई जल्दी उसे नहीं थी; लाल किले तक सवारियाँ ले जानेवाले एक ताँगे में वह बैठ गयी; वहाँ थोड़ा सा टहल कर उस ने कश्मीरी गेट तक का दूसरा ताँगा लिया, वहाँ से पैदल चलती हुई घर गयी। हताश तो थी ही, इस तरह उसने अपने को थका भी लिया। घर पहुँची तो पड़ोसिन बाहर टहलती मिली - उसे थोड़ी कोफ्त हुई क्यों कि वह उस समय किसी के सामने पड़ना नहीं चाहती थी और उसने सोचा था कि अपने कमरे का रास्ता साफ मिलेगा। पर पड़ोसिन टहल ही नहीं रही थी, उसकी राह देख रही थी; उसे देखते ही भीतर गयी और लौट कर बोली, ''मिसेज नाथ, आपके लिए चिट्ठी है। एक अर्दली आ कर दे कर गया था, ताकीद कर गया कि आप ही को दूँ।''
सोमा ने चौंक कर चिट्ठी ले ली। मोहरबंद सरकरी लिफाफा था। ऊपर एक कोने में टाइप के मोटे अक्षरों में लिखा था 'बाई हैंड'; नीचे पते की जगह केवल नाम टंकित था : 'मिसेज नाथ'। और भी चकित हो कर सोमा भीतर चली गयी। दरवाजा बंद कर के उसने लिफाफा खोला। भीतर एक और लिफाफा था, यह भी मोहरबंद। इसमें ऊपर कोने में टंकित था 'कॉनफिडेंश्यल'; उसके नीचे पता हाथ से लिखा था : 'फॉर मिस सोमा कुमार, केयर ऑफ मिसेज नाथ'। क्षण भर सोमा एक-टक इस पते को देखती रही, फिर उसने चिट्ठी पलंग पर गिरा दी और स्वयं भी लेट गयी। एक बार फिर उसने लिफाफा उठाया और थोड़ी देर पते की लिखावट की ओर देखती रही। फिर लिफाफा ढीली उँगलियों से सरक कर उसके तकिये पर आ गिरा; सोमा ने एक बाँह की कोहनी के मोड़ से दोनों आँखें ढक लीं और पड़ी रही। थोड़ी देर बाद दूसरे हाथ की उँगलियाँ पलंग की बाँही पर घोड़ा दौड़ाने लगीं - कभी तेज, कभी धीरे...
चिट्ठी खोले कि न खोले? पढ़े कि ऐसे ही जला दे? या कि फिलहाल पड़ी रहने दे? हफ्ते-दो-हफ्ते-दो महीने... पर पढ़ तो लेनी चाहिए, जवाब चाहे दे या न दे, या देर से दे। तो पता उसका मिल गया - इतनी जल्दी! पर जल्दी कहाँ, दो-ढाई महीने कुछ कम लंबा अर्सा नहीं होता। पर चिट्ठी ही क्यों, कोई आ भी तो सकता था। क्या पता कोई ले कर ही आया हो - या कि चिट्ठी पहला कदम हो, इसके बाद और कुछ कार्यवाही होनेवाली हो?
लिखावट डैडी की थी : जिले के पुलिस कप्तान मिस्टर जैतली की नहीं, जिला मैजिस्ट्रेट मिस्टर कुमार की। जिनके कोई लड़के सनावर में नहीं पढ़ते; जिनकी एम.ए. पास लड़की -
हुँह! स्टॉप इट!
महीने दिन का डिट्टो सकता था, तो क्या सप्ताह दिन का भी समझ लिया जाएगा? सोमा ने स्टेगर से काम सीख रही होने की बात तो मोहन को बता दी थी, पर इस की संभावना कम थी कि वह वहाँ पता लेने या मिलने आएगा। तब दो संभावनाएँ उसके आगे बचती थीं : अगले इतवार को उसी समय डैविको के चायघर में (या फिर उस से अगले इतवार को?)-या महीने के दिन तीसरे पहर के समय स्विस होटल के सामने... इस बीच मिस्टर कुमार उसे लेने आ गये तो? पर नहीं, वह ना हो जाने की संभावना रहते खुद नहीं आयेंगे, पूछने किसी को भेजेंगे भी नहीं... अफसर की प्रेस्टीज उसकी लड़की से बड़ी होती है - फिर यह भी उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि अगर वह मिस्टर स्टेगर के साथ काम कर रही है तो कुछ बिगड़ा भी नहीं है - ऐसे बिना पूछे जाने की कोई जरूरत भी नहीं थी। और हाँ, गाड़ी में चाभी लगी रहते उसे वैसे छोड़ जाना बड़ा इर्रेस्पांसिबल काम था - कोई ले कर चल देता तो? किसी क्राइम में इन्वॉल्व हो जाती तो? वह भी पोलिटिकल क्राइम में? जिला मैजिस्ट्रेट की गाड़ी - पोलिटिकल क्राइम में पहचानी गयी! एक व्यंग्य-भरी मुस्कान से सोमा के ओठ टेढ़े हो आये थे। हाँ, गाड़ी का इन्वॉल्व हो जाना बड़ी जहमत की बात होती, बेटी इन्वॉल्व हो गयी तो वह उसकी जिम्मेदारी है! और एक महीने बाद तो उसकी जिम्मेदारी हो ही जाएगी, सोमा को याद आया; महीने-भर के अंदर ही वह इक्कीस की हो जाएगी और तब - शी विल बी ऑन हर ओन... तभी डैडी की चिट्ठी का जवाब देगी।
अगर इतवार को सोमा डैविको गयी - व्यर्थ; उससे अगले इतवार भी : तीसरी असफलता का जोखम उठाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। 'तीसरी बार' में न जाने क्यों एक आखिरीपन का, विधाता के अटूट विधान का-सा भाव होता है! उसके डर की काट करने के लिए कहते तो हैं, 'थर्ड टाइम लकी'; पर वह तभी जब तीसरे प्रयत्न की लाचारी ही हो, उससे बचने का कोई रास्ता न हो। जैसे जब जाड़ों में नदी में नहाना ही पड़ जाय तो अपने को दम दिलासा देने के लिए कोई कह ले कि 'नहीं, पानी उतना ठंडा तो नहीं है'। महीने के दिन तीसरे पहर वह स्विस होटल के सामने भी राह देखती रही; भीतर जा कर बैठी और फिर बाहर सड़क और कंपनी बाग का चक्कर काट आयी - मोहन नहीं दीखा।
सोमा यह नहीं मान सकी कि जानबूझ कर नहीं आया - या कि यह विचार उसके मन में नहीं उठा होगा कि महीने-दिन की मुलाकात की बात पक्की नहीं तो कम से कम काफी संभाव्य तो मानी जा सकती है - उसका चांस तो लेना ही चाहिए। क्या फिर 'बंगाल तरफ' चला गया होगा - या और किसी तरफ भेज दिया गया होगा? हो तो सकता है... पर एकाएक सोमा को लगा कि उसके लिए निश्चित कुछ जानना निहायत जरूरी है; कहीं यह भी प्रत्यय हो आया कि वैसा कुछ हुआ होता तो उसे पता देने की कोई तरकीब मोहन ने जरूर निकाल ली होती। अपने इस प्रत्यय पर उसे कुछ अचंभा भी हुआ। किस आधार पर वह ऐसा मानती है कि मोहन उसके प्रति ऐसे किसी दायित्व का अनुभव करेगा? और 'विशफुल थिंकिंग' भी है तो वैसा भी क्यों - वही क्यों विश कर रही है - क्या विश कर रही है? नहीं, वह सब कुछ वह कुछ नहीं जानती - शी मस्ट नो... कहाँ है मोहन, क्यों नहीं आया, क्या कर रहा है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया, पकड़ा तो नहीं गया, या - पर नहीं, नहीं, नहीं, वैसा वह नहीं सोचेगी, वैसा सोचने से भी अहित होता है... सोमा ने तय किया कि जल्दी ही वह शोभा देवी के पास जाएगी - शायद उन्हें कुछ खबर हो।
जब से मोहन से ऐसी बात हुई थी तबसे सोमा नियम से अखबार पढ़ने लगी थी। कभी-कभी अवकाश के कुछ मिनटों में मिस्टर स्टेगर से भी खबरों की चर्चा हो जाती थी। युद्ध के समाचार तो होते ही थे, देश में भी अगस्त के बाद से जो कुछ घटित हो रहा था वह एक तरफ चिंता बढ़ानेवाला था तो दूसरी ओर बड़ी उत्तेजना देनेवाला भी; कार्ल स्टेगर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, पर खबरों पर टिप्पणी के रूप में कभी-कभी कहते थे, 'युद्ध का परिणाम जो हो, उसके अंत में मुझे भारत की आजादी तो दीखती है - अंग्रेजों को क्यों नहीं दीखती वह? वह कम खून-खराबे के साथ होगी, कि बहुत ज्यादा, यह तो कुछ इस पर निर्भर है कि युद्ध किधर को झुकता है। पर अंग्रेज जीतेंगे तो कम खून-खराबे से भी अच्छा नतीजा निकल सकता है - पर अंग्रेज खुद ही क्या कर रहे हैं, पता नहीं! हिंदुस्तान को लड़ाई में शामिल उससे पूछ कर नहीं किया गया, इसलिए वह अनिच्छुक साथी है, पर यह क्या जरूरी है कि युद्ध के अंत में वह एक एंबिटर्ड एलाई भी हो - इतना बड़ा 'एंबिटर्ड एलाई?'' स्टेगर जैसा तटस्थ व्यक्ति अंग्रेज सरकार की हरकतों में कटुता की इतनी संभावना देखता है, तो वह तो हिंदुस्तानी है : उत्तर प्रदेश और बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसकी खबरें पढ़ कर उसका खून नहीं खौलेगा? 'हमारे सिंपैथाइजर होने की बात कहाँ से उठती है, सब अपने-अपने सिंपैथाइजर ही रहें - ' ठीक तो है, कोई किसी राजनीति में हो, हिंदुस्तान की ब्रितानवी सरकार जो कर रही है वह किसी को सह्य नहीं हो सकता! विश्व युद्ध में मार खा कर बौखलाये होने की बात भी एक हद तक ही मतलब रखती है -हिंदुस्तान में उन्हें बौखलाने का भी हक क्या है? अपने घर में बौखलाएँ जा कर! उसे याद आया कि पिछले महायुद्ध के अंतिम दिनों में भी ऐसे ही दमन और पाशविक दुर्व्यवहार की घटनाएँ घटी थीं - उसे ध्यान ही नहीं था कि जलियाँवाला बाग वगैरह की बरसों पहले पढ़ी हुई बातें उसकी स्मृति में ऐसी साफ-साफ टँकी हुई होंगी, उसे स्वयं अचंभा हुआ। पर उस समय के डायर-ओड्वायर को हम जितना कोस लें, इस समय तो यही सच था कि दो-चार अंग्रेज जिला अधिकारियों को छोड़ कर बाकी तो हिंदुस्तानी ही थे, जिनके आदेशों से हिंदुस्तानी पुलिस अफसर और सिपाही ये सारे अत्याचार कर रहे थे... पर उस से क्या? थोड़ी-बहुत पाशविकता हर इनसान में दबी रहती है - आखिर पशु से मानव बने होने का मनुष्य का इतिहास कोई बहुत लंबा नहीं है। यह तो शासन की कसौटी होती है कि वह इन पशुवृत्तियों को वश कर के रखता है, या बढ़ावा देता है और फिर खुल खेलने की पूरी छूट देता है... नैतिक दृष्टि से तो अंग्रेज सरकार के यहाँ होने का कोई कारण कभी नहीं था - अब तो प्रशासन की दृष्टि से भी वह निकम्मी साबित हो गयी है - लेट इट क्विट! हिंदुस्तानी अफसर भी अगर उसकी सेवा में बने रहना चाहते हैं तो - वे भी जायें, सारे जैतली भी जायें, सारे डैडी भी चले जायें! 'क्विट इंडिया - क्विट! गेट आऊट!' कांग्रेस आंदोलन के नारे के साथ सोमा ने पूरी एकात्मता अनुभव की : पहले और खास तौर से डैडी के ड्राइंगरूम की चर्चाओं में उसे इस नारे की व्यावहारिकता के बारे में काफी संदेह था और अंग्रेज क्विट कर ही जायें तो उसके बाद की संपूर्ण अराजकता के काफी सजीव चित्र उसके पिता ने कई बार खींचे थे, पर खबरों की इस प्रतिक्रिया में वे सब बातें पीछे छूट गयीं और सारा आक्रोश, सारी तिलमिलाहट इस दो शब्द के सूत्र में ग्रथित हो गया - बल्कि दो भी नहीं, केवल एक शब्द, जिसकी ध्वनि में भी एक 'खट्!' से हो जानेवाली क्रिया का सारूप्य था - 'क्विट !'
शोभा देवी से मिलने सोमा उनके घर नहीं गयी। कांग्रेस के दफ्तर में गयी। इस बीच वह सी.आई.डी. वालों के मामले में काफी सतर्क भी हो गयी थी, और आसानी से पहचानने भी लगी थी कि कहाँ, कौन निगरानी के लिए तैनात है या किसी के पीछे लगा है। मिस्टर कुमार का पत्र पाने के बाद से वह इधर और भी ध्यान देने लगी थी। पत्र के तीसरे दिन एक बावर्दी अर्दली सवेरे ही फिर आया था; 'मेम साहब' को उसने सिटी मैजिस्ट्रेट साहब का सलाम दिया था और पूछा था कि कोई जवाब हो तो एक सरकारी हरकारा शाम को गाड़ी से जानेवाला है; सोमा ने सलाम लौटा दिया था और कह दिया था कि कुमार साहब को चिट्ठी उसने पहले ही भिजवा दी है। अर्दली फिर सलाम बजा कर चला गया था। सिटी मैजिस्ट्रेट साहब जो समझें। मिस्टर कुमार को वह यही खबर तो भिजवाएँगे न कि कहा गया है कि जवाब चला गया है? वह उस जवाब की प्रतीक्षा करते रहें तो करते रहें, अच्छा ही है; बात पर विश्वास न करें तो न करें, वह भी ठीक ही है। महीने-छः हफ्ते में फिर कोई हरकत करेंगे तो देखा जाएगा - तब तक तो वह खुद कुछ लिख ही देगी। तब तक उसे खूब सतर्क रहना है : सी.आई.डी. वाले उसे कहीं न देखें, ऐसी कोशिश तो जरूरी नहीं है; देखें तो कहाँ देखें, कहाँ न देखें, इसी का ध्यान उसे रखना है। कांग्रेस के दफ्तर पर भी कड़ी निगरानी थी, पर वहाँ कई लोग आते-जाते थे; और फिर निगरानी यही तो पहचानती कि कौन भीतर गया - भीतर किससे मिला, इसका पता वहाँ थोड़े ही लगता था। भीतर भी कोई भेदिया हो सकता है, होगा ही; पर वीरेश्वर नाथ की माँ से उसके घर मिलने की बात तो दूसरी बात थी।
शोभा देवी उससे मिलकर प्रसन्न हुईं : स्पष्ट ही उन्हें आशा नहीं थी कि बहू से इतनी जल्दी फिर मिलना होगा। वह रुकेगी नहीं, इस सूचना से उन्हें बहुत अचंभा भी नहीं हुआ; हालात पहले से भी बदतर ही थे और कब क्या हो, इसका ठिकाना नहीं था। पर शोभा देवी को कुछ मालूम नहीं था : मन्नू न उनसे मिलने आया था, न उसकी कोई खबर उन्हें मिली थी। आया तो संदेशा वह जरूर दे देंगी; बहू कहती है तो शायद उसके आने का कुछ इम्कान भी होगा - नहीं तो शोभा देवी को तो भरोसा नहीं है कि मन्नू इधर जल्दी ही घर आनेवाला है।
कांग्रेस के दफ्तर से निकल कर सोमा किशन शर्मा की खोज में निकली। स्कूल पहुँचने पर मालूम हुआ कि राजनीतिक प्रदर्शन और नारेबाजी के कारण स्कूल पर एक दिन लाठी चार्ज हुआ था, उसी दिन से स्कूल बंद करवा दिया गया है और सरकारी रोक अभी जारी है। मास्टर कृष्ण चंद्र शर्मा पर भी मार पड़ी थी, उसी दिन से वह कहीं लापता हैं। ऐसा समझा जाता है कि फरार हैं, पर वारंट वगैरह निकले हों, ऐसी तो कोई बात नहीं है।
अब? शोभा देवी ने कहा था, उसके माँ-बाप का तबादला बरेली हो गया था। बरेली जा कर पड़ताल करे? पर क्या पूछेगी? कि किसी मन्नू के माँ-बाप तबादले से बरेली आये हैं? सामंत-मोहन सामंत-सामंत नाम का कोई सरकारी मुलाजिम बरेली में है या नहीं, इसकी पड़ताल तो शायद हो सकती है - और कोई डॉक्टर हो तो उसका पता और जल्दी लग जाय, हालाँकि सब अपने को रजिस्टर तो नहीं कराते। पर सोमा का यह संदेह किसी तरह दबता नहीं था कि मोहन-मन्नू का नाम सामंत नहीं होगा - मोहन भी होगा या नहीं, पता नहीं... तब डौंडी पिटवाये कि कोई मन्नू के बाबू जी वहाँ सरकारी मुलाजिम हैं? 'बरेली के बाजार में...' लोकगीत की कड़ी के साथ उसे डैडी की याद आयी - क्या मिस्टर कुमार से पूछे? हुँह, वह जरूर ही बता देंगे। और मुफ्त में एक और नाम या छद्म नाम जान कर गाँठ बाँध लेंगे तो और क्या जाने क्या गुल खिलाएँगे... यों जिस आदमी की लाश सौंपी गयी थी उसका कुछ नाम-ब्योरा तो कहीं दर्ज होगा - रेलवे में भी हो सकता है - क्या पता करे कि फलाँ तारीख को कूपे किसने किस नाम से रिजर्व कराया था? सवारी कहाँ से बैठी थी, यह पता लगाना तो मुश्किल नहीं होगा - तारीख तो उसे याद है, घटना का ब्योरा अखबार में छपा ही था... पर वहाँ, क्यों कोई भी सही नाम दिया गया होगा? (जो हो, अनंतर उसने पुछवाया भी, तो पता लगा कि रिजर्वेशन राजा साहब के सेक्रेटरी के नाम से ही था!)
ब्लैंक-ब्लैंक-ब्लैंक... सबक यह कि चुपचाप अपना काम करो : जो सीख रही हो, सीखो; बालिग हो जाने से मिलनेवाली आजादी तो मिल गयी है, पर स्वाधीन आत्मनिर्भर हो जाने से मिलनेवाली वयस्कता भी मिल जाय तब बात है... जैसे-जैसे वह काम सीखती जाती है, भविष्य का एक नक़्शा उसके सामने उभरता आता है; अब इसका वह क्या करे कि जहाँ दूर भविष्य का प्रदेश स्पष्ट हो आया है वहाँ शुरू से ही उसके यात्रा-पथ की रेखा के समांतर एक और रेखा खिंची है जिस पर लिखा है 'एक्सपेडिशन लॉस्ट' - यात्रा नहीं छोड़ दी गयी, यात्री ही लापता हो गया! क्या उसका एक्सपेडिशन उस खोये हुए एक्सपेडिशन की खोज ही होगा - क्या यात्रांत में वह जो पाएगी वह उसी का पाया हुआ नहीं, इस खोये हुए यात्री का पाया हुआ भी होगा?
4
तंजौर की एक बाल गोपाल मूर्ति को अपने सामने मेज पर रखे हुए सोमा आरामकुर्सी पर बैठी थी। उसे ध्यान नहीं था कि कितनी देर से वह ऐसे बैठी है; कभी-कभी ध्यान आता था तो इसी बात का कि देखते-देखते बाल गोपाल कुछ धुँधले पड़ गये हैं। तब वह आँख मल लेती थी, कभी थोड़ा उझक कर लैंप का कोण बदल देती थी जिससे मूर्ति पर प्रकाश कुछ दूसरे ढंग का पड़ने लगे, या कभी मूर्ति का ही कोण बदल देती थी - कभी घुटरुअन टिके बाल गोपाल को आगे झुका कर हाथ, कोहनी और एक घुटने पर टिका कर बैठा देती थी जिससे उनकी मुद्रा कुछ और मनोरंजक हो जाती थी - और फिर पूर्ववत् ताकने बैठ जाती थी।
यों विचारों में खोये रहने का आज कोई विशेष कारण नहीं घटित हुआ था, या अगर कुछ हुआ था तो उससे सोमा को स्फूर्ति ही मिलनी चाहिए थी, यों बैठ कर उदासी में रँगे विचारों के कुहासे में डूबते-उतराते रहने की प्रेरणा नहीं। पर जो था सो था - सोमा कभी लौट कर उस 'घटित' का भी मुख्तसर-सा मुआयना कर लेती थी और फिर उन्हीं निरानंद विचारों में खो जाती थी।
यह बाल गोपाल की मूर्ति उसे हर्र स्टेगर ने दी थी। उन दिनों वह विशेष प्रसन्न थे। कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहीं से मिट्टी और मसाले की मूर्तियों और मूर्ति-खंडों का एक खासा ढेर प्राप्त किया था - तीसरी से ले कर दसवीं शती तक की चीजें जो अधिकतर उत्तर प्रदेश के इलाकों से पायी गयी थीं - बरेली, उन्नाव, कानपुर, इलाहाबाद-मिर्जापुर-बनारस जिलों से अधिकतर गंगा-तटवर्ती पुराने डीहों से। उन्हें तो ये चीजें प्रायः 'मिट्टी के मोल' मिल गयी थीं, पर सफाई और पहचान के बाद जब उन्हें करीने से लगा कर रखा गया, और फिर खंडित मूर्तियों के टुकड़े भी एक-एक पहचान कर जोड़े गये और इस प्रकार और भी काफी-सी मूर्तियाँ उपलब्ध हो गयीं, तब यह संग्रह एक अच्छा-खासा, स्वतः संपूर्ण छोटा संग्रहालय जान पड़ने लगा जिस का एक अंग सरकारी संग्रहालय ने और मुख्य भाग किसी विदेशी संग्रहालय के प्रतिनिधि ने खरीद लिया। चित्रों, कांस्य और प्रस्तर मूर्तियों और प्राचीन आभूषणों या अलंकृत पात्रों की बिक्री से तो काफी आय स्टेगर-दंपति को होती रहती थी, पर आवें-पकी मिट्टी की चीजों से इतना बड़ा मुनाफा पहले नहीं हुआ था। मृत-खंडों को जोड़ने का अधिकतर काम सोमा ने किया था, इसलिए उस पर वह विशेष प्रसन्न थे। सोमा ने तो इस काम को अपनी शिक्षा का ही अंग समझा था, और उससे अधिक परिश्रम किया था या समय दिया था तो इसलिए कि अपने विचारों से ही वह बची रहना चाहती थी। पर मिस्टर स्टेगर ने उसके सामने उसी की जोड़ी हुई कई-एक मूर्तियाँ रख कर कहा था, ''मिसेज नाथ, यू'व डन ए ब्यूटिफुल जॉब... इन में से कोई आप अपने लिए रखना चाहेंगी? जो आपको पसंद हो, छाँट लीजिए!'' सोमा के संकोच प्रकट करने पर उन्होंने एक उज्ज्वल मुस्कान के साथ कहा था, ''नहीं, सोमा; इस काम में कोई बिना वजह उदार नहीं होता! मैंने कुछ अच्छी चीजें तो पहले ही अपने लिए छाँट कर रख ली थीं - उसके बाद ही बिक्री के लिए संग्रह दिखाया था! वे चीजें भी तुम देख लेना - बाकी ये चीजें फुटकर बिक्री के लिए भविष्य के लिए रखी हैं जिन में से तुम्हें चायस दे रहा हूँ। जो पसंद हो, ले लो - दो ले लो - चलो, तीन ले लो!'' सोमा फिर भी कुछ असमंजस में उन मूर्तियों की ओर देखती रही थी; स्टेगर कहते गये थे, ''और अपनी ओर से मैं एक भेंट और देना चाहता हूँ - लेट इट बी ए सरप्राइज!'' और साथ के छोटे कमरे में एक बना-बनाया पैकेट उन्होंने ला कर सोमा को दे दिया था - ''इसे घर ले जा कर खोलना - तुम्हें पसंद आएगा जरूर!''
अब की सोमा ने नये संकोच से कहा था, ''यू आर वेरी काइंड, मिस्टर स्टेगर - '' पर स्टेगर ने फिर बात काट दी थी, ''नॉनसेंस, सोमा! इस काम में संकोच नहीं चलता, विनय भी नहीं चलता। और काम सीख रही हो तो यह भी सीखो। हर संग्रह करनेवाला हर दूसरे संग्रह करनेवाले को बेवकूफ बनाता है। और जो ऐसा नहीं करता उस पर दूसरे संग्रह करनेवाले विश्वास नहीं करते - यह इस व्यवसाय की अनोखी नीति है। गाहक को ठग लेना तो इस व्यवसाय में मामूली बात है, उससे प्रतिष्ठा नहीं बनती। जब किसी अच्छे पारखी को, संग्रह करनेवाले को - यानी दूसरे ठग को! - ठग लेते हैं, तभी असल डिप्लोमा मिलता है। तब बिरादरी में शामिल हो जाते हैं, सम्मान मिलता है, दूसरे राय पूछते हैं।'' खुशी से दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में मलते हुए स्टेगर ने कहा था, ''लोग मेरी राय पूछते हैं - मैं ईमानदारी से सलाह देता भी हूँ - जहाँ ईमानदारी का मौका होता है। ऑनर एमंग थीव्ज! यानी कोई मेरे पास कुछ पुराना माल बेचने आएगा तो उसे मैं नहीं बताने लगूँगा कि वह क्या-क्या चीजें लुटाने जा रहा है और उनके सही दाम क्या होंगे - उसे तो यही कहूँगा कि जंक है! यह भी कह दे सकता हूँ कि मैं तो बेच लूँगा क्यों कि मेरी प्रतिष्ठा है, पर है तो कूड़ा ही - यानी खरीदूँगा कूड़े के दाम।'' फिर एकाएक उनका स्वर गंभीर हो गया था, ''सोमा, मैं तुमसे पूछना चाहता रहा हूँ - आगे तुम्हारा क्या करने का विचार है? तुम्हारा एंबिशन क्या किसी म्यूजियम में टेक्निकल एसिस्टेंट या छोटा अफसर बन जाने-भर का है, या कि कभी अपना कारोबार शुरू करने का? क्यों कि तुम्हारे देश में अभी तो पुरानी कला-वस्तुओं के व्यवसाय का बहुत बड़ा क्षेत्र है - और बीस बरस में क्या हो जाएगा, पता नहीं! ''
असल में सोमा की शाम की उदासी का स्रोत इसी प्रश्न से था। 'तुम्हारा एंबिशन क्या है, सोमा? सचमुच क्या? क्या किसी संग्रहालय में - संग्रहालय के तलघर में! - अनेक टूटी-फूटी (चाहे मूल्यवान) चीजों के बीच में एक और टूटी-फूटी (चाहे एक तरह से जीवित, चाहे एक तरह से मूल्यवान्!) चीज बन जाना, या - '
या क्या? पुराखंडों का सौदागर हो जाने से ही क्या कोई कहीं बहुत ऊपर उठ जाता है? जीने लगता है? जीने के अलावा उसका कोई एंबिशन नहीं है, पर जीना क्या होता है? कैसे जीने को वह जीना कहे! घर पहुँच कर उसने स्टेगर का दिया हुआ पैकेट खोला था; उस में ८वीं-९वीं शती की यह बाल गोपाल की मूर्ति थी और उसके साथ था सोमा के नाम बारह सौ रुपये का एक चेक। एक बार फिर वह संकोच और कृतज्ञता से गड़ गयी थी; और इस बात से कि रुपये की उसे सख्त जरूरत है और यह चेक बड़े समय से आया है, उसका संकोच कुछ कम नहीं हुआ था। फिर चेक उसने अपने बटुए में रख लिया था और तबसे बाल गोपाल को सामने बैठा कर विचारों में डूबी रही थी... बताओ, बाल गोपाल, क्या होता है जीना? क्या होता है? कहीं से सूरदास की एक पंक्ति तैरती हुई उसके मानस में आ गयी थी, 'मैया, कबहुँ बढ़ैगी चोटी?' हाँ, जीने का वह भी एक तरीका तो है, ऐसा सरल कोई प्रश्न पकड़ कर उसकी रट के सहारे जीते रहना - कि अमुक कब होगा, कब, कब... कब बढ़ेगी चोटी! ...पर उसका अभी क्या प्रश्न इससे क्या कम है? 'क्या होता है जीना'! क्या इसी भोले प्रश्न की रट के सहारे जीते रहा जा सकता है - जीते चला जा सकता है कि क्या होता है जीना?
बारह सौ रुपये का चेक। तात्कालिक कई एक प्रश्न बारह सौ रुपये से हल हो जायेंगे। पर चेक का वह करेगी क्या - उसे कैसे भुनाएगी? उसका कोई एकाउंट तो है नहीं - और न वह चेक किसी के नाम कर के रुपया ले सकती है। किसी को जानती ही नहीं! सहेली की याद उसे आयी - पर उसके पास जाएगी तो पहले मिसेज नाथ नाम का ही चक्कर कैसे समझाएगी? सहेली का प्रश्न उसे याद आया - 'अरे तो काम देख कर आयी है, या कि हज्बैंड तुझे मिल गया है?' इस रूँगे में मिले हुए हज्बैंड का वह क्या करेगी? -मिला तो रूँगे में ही; यह भी वह नहीं कह सकती कि उस से कोई फायदा नहीं हुआ - एक आरजी तौर की ओट तो उसे मिली हुई ही है? निस्संदेह उसे यह नाम न मिला होता तो भी वह दिल्ली आती ही और कोई छद्म नाम सोचती ही, पर वह नाम मिसेज वीरेश्वर नाथ होता, यह कल्पनातीत बात थी; मिसेज कोई भी होती, यह भी असंभाव्य। वह मिस ही रहती; न सही मिस जैतली, तो मिस जोशी, मिश्रा, मित्रा, सिन्हा, सिंह, सेठी, गुप्ता, लाट, माहेश्वरी, रुद्रा, कुछ भी चल जाता - या कराँटिन भी बन लेती - चाहे देशी नामोंवाली, चाहे विलायती, चाहे खानसामा हिंदुस्तानी बोलनेवाली, चाहे ची-ची अंग्रेजी-दोनों में ही उसे अच्छी-खासी महारत हासिल है! ...नहीं, चेक उसे स्टेगर के पास ही ले जाना होगा -धन्यवाद देगी तो यह भी कह सकेगी कि वही भुना दें या कोई उपाय बताएँ...
'मिसेज नाथ नाम का चक्कर'...सचमुच चक्कर! कब इससे उबरेगी वह-कब ऐसे किसी भी छद्म की जरूरत से उबरेगी? उसे सहेली की याद आयी : एकाएक उस से मिलने की तीव्र उत्कंठा भी उसमें जागी। अपने पहले, सरलतर जीवन के किसी साथी से मिल कर जैसे वह फिर उस सरलतर जीवन में पहुँच सकेगी, अपने को पा सकेगी, वह हो सकेगी जो वह वास्तव में है... पर वास्तव में वह कौन है, क्या है? सोमा कुमार? कुमार नाम से, उस नाम की परंपरा से जुड़ कर क्या वह अधिक वह हो जाएगी जो वह है? क्या वीरेश्वर नाथ नाम में ही इसकी अधिक संभावना नहीं है, इसीलिए कि उसके लिए वीरेश्वर नाथ का कोई-कोई चेहरा नहीं है, कोई इतिहास नहीं है, किसी घटना, स्मृति में कोई साझा नहीं है, कोई अस्तित्व ही नहीं है? न, यह बात तो ठीक नहीं हुई; अस्तित्व तो है पर वह अनस्तित्व से ही शुरू होता है, इतिहास भी है जो मृत्यु के बाद से आरंभ हुआ; स्मृति भी है जो एक चादर ढँकी देह की, मृत देह की है; हाँ, चेहरा जरूर नहीं है अगर वह शोभा देवी के चेहरे को ले कर ही वीरेश्वर नाथ के लिए स्वयं कोई चेहरा गढ़ न ले? और चेहरा न होना बहुत बड़ी छूट है। उसे इस रूपहीनता के लिए वीरेश्वर नाथ का आभार मानना चाहिए जिसने कोई बंधन उस पर नहीं लादा - उन सुविधाओं के बदले जो अपने नाम के साथ उसने दिया - बंधन के नाम पर एक शोभा देवी जिन्होंने उसे स्नेह ही दिया, मुक्त ही किया, बाँधा तो बिल्कुल नहीं... शोभा देवी के चेहरे को ले कर वह वीरेश्वर नाथ का चेहरा गढ़ सकती है - क्या हम सभी हमेशा ही ऐसा नहीं करते रहते? सात पीढ़ियों तक, ग्यारह पीढ़ियों तक, इक्कीस पीढ़ियों तक अपनी परंपरा अतीत में ले जाने का मोह और फिर उस मोह को 'कुल-परंपरा' नाम दे कर उससे अपने को बाँध लेने, अनुशासित करने, उसके प्रति अपना ऋण चुकाते चलने का दूसरा मोह - यह और क्या है सिवा अपनी और अपने सगे माँ-बाप की परछाईं में गढ़े हुए कल्पित चेहरों का एक पूरा छवि-घर बना लेना, अपनी भावना के जोर पर उसे एक अस्तित्व दे देना? एक छवि-घर माँ-बाप की परछाइयों का, एक दूसरा छवि-घर पति की या सास-ससुर की परछाइयों का; फिर इन परछाइयों की शादियाँ हो जाती हैं, दो 'कुल-परंपराएँ' मिल जाती हैं और एक नयी 'मर्यादा' खड़ी हो जाती है और हम उसकी लादी ढोने में जुट जाते हैं। और यों सिर झुकाये-झुकाये ही बैल या गधा बूढ़ा हो जाता है : तब सहारे के लिए वह पुरखों की परंपरा के बदले संतान की परंपरा गढ़ लेता है - बेटे या बेटी की परछाईं में रचे हुए चेहरों का छवि-घर! संतान-हमीं को तान-खींच कर जो भविष्यत् में ले जाता है, स्थायित्व देता है, बनाये रखता है - उफ कितने गहरे अर्थ में हम बनाये जाते हैं मोह के इस दोहरे शीश-महल में : समांतर शीशों में हम जिधर देखते हैं, छाया-छवियों की अनंत परंपरा पाते हैं - अपनी ही छवि की छायाओं की - उधर अंतहीन भविष्य में को, इधर अंतहीन अतीत में को... जीना क्या होता है, बताओ न, बाल गोपाल? क्या होता है जीना, मिस कुमार?
सोमा को डैडी की चिट्ठी याद आयी। 'मिस कुमार, केयर ऑफ मिसेज नाथ...' बड़ी सफाई से डैडी दोनों को एक मानने से बच गये थे! क्यों? उसकी रक्षा के लिए, या स्वयं अपने बचाव के लिए - कि चिट्ठी कहीं कभी गलत हाथों में पड़ भी जाय तो उन की स्थिति बिल्कुल साफ रहे! एक रूखा, व्यंग्य-भरा भाव सोमा के भीतर उमड़ आया : डैडी ने अवश्य अपना कर्तव्य भी (अपनी नजरों में) पूरा कर लिया होगा, और अपने को बेगाल भी रखा होगा - अपनी नजर में भी, अपने समाज की नजर में भी - यानी शासन की नजर में भी, क्यों कि उन की नजर में जो समाज सरकार नहीं है, वह कुछ नहीं है : वह शासित है जिस की राय पूछी नहीं जाती, जिसे बताया जाता है कि उसकी राय क्या होनी चाहिए... बाल गोपाल की ठोड़ी के नीचे एक उँगली डाल कर सोमा ने उसका चेहरा उठा दिया जिससे मूर्ति का लड्डूवाला हाथ फिर ऊँचा उठ गया, मूर्ति दूसरे हाथ और दोनों घुटनों पर टिकी रह गयी। अरे वाह रे लड्डू गोपाल? सोमा उठी, दराज में से डैडी की चिट्ठी निकाल लायी और फिर पूर्ववत् बैठ गयी। थोड़ी देर बाद चिट्ठी उसने खोली, लिफाफा गोद में डाल कर धीरे-धीरे पढ़ी, उलट कर देखी और एक बार फिर पढ़ी, और फिर वह भी गोद में गिरा दी।
उसका अनुमान ठीक ही था : डैडी के पत्र में बराबर इस बात की गुंजाइश रखी थी कि सोमा कुमार और मिसेज नाथ को दो अलग व्यक्ति मानते रहा जा सके - यानी यह भी माना जा सके कि पत्र लिखनेवाला बराबर दोनों को अलग ही मानता रहा है। सोमा जो घर छोड़ आयी, तो क्या विवाह करने के लिए, या कि विवाह उसने चुपचाप कर लिया? - इसके बारे में भी प्रश्न थे, उसके गुप्त पति के बारे में भी, हल्का-सा यह प्रस्ताव भी था कि सोमा स्वयं घर नहीं आती तो कभी अपने पति को उन से मिलने भेज दे सकती है - वह देख तो लें कि यंग मैन कैसा है, क्या कर सकता है, शायद सोमा को कुछ सलाह ही दे सकें कि उसकी या दोनों की तरक्की का क्या रास्ता हो सकता है - शायद युद्ध के समाप्त होने पर दोनों विदेश भी जा सकें... और यह भी पूछा था कि यह मिसेज वीरेश्वर नाथ है कौन? क्या उनके परिचय में भी कभी आयी हैं? क्या करती हैं? 'नथिंग डिसग्रेसफुल, आई होप'...कि डैडी आशा करते हैं, मिसेज नाथ उनकी चिट्ठी ठीक-ठाक सोमा को पहुँचा देंगी - कि सोमा अगर उनके यहाँ 'पेइंग गेस्ट' बन कर रह रही है तो उसे पैसे की भी तो जरूरत होगी - वह खबर दे तो मिस्टर कुमार भिजवाने का प्रबंध कर देंगे... इस बीच वह स्थानीय प्रशासन से कह भी देंगे कि सोमा का ख्याल रखें, उसे कोई तकलीफ न होने पावे...
कैसा हो अगर वह सचमुच किसी को भेज ही दे डैडी कुमार से मिलने के लिए? अगर क्षण-भर के लिए यह सवाल उसके मन में कौंधा और तुरत हटा दिया गया - कैसा हो अगर वह मोहन को ही भेज दे एक बार मिल आने के लिए? नहीं, नहीं, नहीं - डैडी की दुनिया डैडी को मुबारक हो, उसे वह स्वयं भी तो छोड़ आयी है, उसे, उसके सूट-मढ़े 'ब्लू-आइड बॉयज' को, जो सब जल्दी ही अपने योग्य जार्जेट-मढ़ी बहुएँ ले आयेंगे और उन्हें अपने-अपने ड्राइंगरूमों में सजा कर, क्लब घर में या दूसरों के ड्राइंगरूमों में जा कर दूसरों की जार्जट-मढ़ी बहुओं से फ्लर्ट करेंगे; या कभी-कभी डैडी कुमार की पार्टियों में शामिल हो कर स्वयं किसी बड़े साहबों के श्रीमुख से शासन करने के गुर सुनते रहेंगे, और दूसरे बड़े साहबों को वे अवसर देते रहेंगे जो तरक्कियों का आधार बनते हैं... जरूर ही वह सोमा को 'दोनों को तरक्की का क्या रास्ता हो सकता है,' यह बता सकेंगे - क्या सोमा बार-बार ऐसे तरक्की के रास्ते बताये जाते सुनती नहीं रही? क्या उसके घर छोड़ने का निश्चय करने में असली प्रेरणा विज्ञापन द्वारा तय की गयी शादी की संभावना से नहीं, इसी बात से नहीं मिली थी कि डैडी उसके और उसके भविष्यत् पति के लिए जो तरक्की के रास्ते सुझाएँगे उन्हें वह स्वीकार नहीं कर सकेगी - उन्हें अपनाने को राजी होनेवाली पति को भी स्वीकार नहीं कर सकेगी... वैसे डैडी को उचित से अधिक दोष क्यों दिया जाय - उस समाज के पुरुष तो पुरुष स्त्रियाँ जो मानती थीं, मानती हैं उसे भी क्या सोमा स्वीकार कर सकती? 'लोग न जाने शादी को बंधन क्यों मानते हैं : वह तो एक खास किस्म की आजादी देती है। बल्कि एरेंज्ड मैरेज तो लव मैरेज से ज्यादा आजादी देती है क्योंकि उसमें अपने पार्टनर को प्यार करने का कोई कमिटमेंट नहीं है - सिर्फ समाज में निबाहने का कमिटमेंट है। शादी अपनी जगह है, वह अपनी जगह है : एक-दूसरे की तरक्की और खुशी के लिए जो कोशिशें की जायेंगी वे अपनी जगह हैं। इस समाज में कितनी बार सोमा इस चिंताधारा के उदाहरण भी देख चुकी थी! पत्नी और पति दोनों की तरक्की के जोड़-तोड़ में लीन : पति हर उपाय से अपने को आगे बढ़ाने में जुटा हुआ, उस कोशिश में शादी के बाहर थोड़ा सुख भी मिल जाय तो वह अतिरिक्त लाभ; पत्नी भी हर उपाय से पति को आगे बढ़ाने में जुटी हुई, उस कोशिश में अपने को एक मनपसंद लवर भी मिल जाय तो सोने में सुहागा (या कि सुहाग में सोना? - सोमा ने मन ही मन जोड़ा, और बात की अनेक श्लिष्ट व्यंजनाओं पर मुँह बिचकाते हुए मुस्करा दी)। पति और पत्नी दोनों एक ही लक्ष्य के लिए कृतयत्न हों, इससे बड़ी और क्या सफलता होगी एरेंज्ड मैरेज की!
नहीं, इतनी कड़वी बातें नहीं सोचनी चाहिए : घर से वह भाग आयी है, इस जीवन को पीछे छोड़ आयी है, तब इसको ले कर कड़वाहट का संचय करने वह क्यों चली है? सायास अपने सामने कोई हँसानेवाला चित्र लाने के लिए उसने कल्पना की, मेले में एक बड़ा भारी पहिया घूम रहा है जिस पर लगातार जोड़े सवार होते जाते हैं : पहिये को घुमाते हुए खड़े हैं डैडी कुमार, जो हर बार में अरों को धक्का देने के साथ-साथ एक भोंपू से पुकारते जाते हैं : तरक्की! तरक्की! तरक्की!
सोमा सचमुच हँस आयी। फिर उसे ध्यान आया, यह कल्पना कुछ कम कड़वी नहीं थी। उठे वह, कुछ काम करे - पर उठने में गोद में पड़ा हुआ पत्र नीचे गिर गया तो सोमा चौंक गयी : वह भूल ही गयी थी कि पत्र वहाँ अभी पड़ा है। उसने फर्श से पत्र और लिफाफा उठाया और बाल गोपाल के नीचे दबा दिया। फिर न जाने उसे क्या सूझी कि उसने चेक भी ला कर पत्र के साथ रख कर बाल गोपाल को दोनों पर बैठा दिया। एकाएक उसका मन हल्का हो आया। कल वह चेक का कुछ करेगी - और डैडी की चिट्ठी का भी कुछ जवाब जरूर दे देगी। क्या, यह अभी स्पष्ट नहीं था, पर एकाएक उसे लगने लगा था कि जवाब देने में कोई दिक्कत उसे नहीं होगी, लिखने बैठेगी तो दिमाग पर जोर डाले बिना सही जवाब उसे सूझ जाएगा, सही चिट्ठी लिखी जाएगी।
है न, बाल गोपाल? उसने पलकें जरा-सी उभार कर मानो मूर्ति से यह पूछा, फिर हल्के कदम से रसोई की व्यवस्था में लग गयी।
सोमा के संकोच को मिस्टर स्टेगर ने हँसी में उड़ा दिया। पश्चिम में ऐसी कोई बात न होती - यह अपने परिश्रम का उचित मूल्य समझ कर स्वीकार कर लिया गया होता। निस्संदेह सोमा ने बहुत परिश्रम किया और सिर्फ परिश्रम नहीं, अच्छा काम किया : उन्हें अच्छा-खासा मुनाफा भी हुआ जिससे सोमा को कमीशन भी मिल सकता है या बोनस भी मिल सकता है - पर यह तो केवल मेहनताना है। ''देखना चाहोगी कि मैंने अपने हिसाब में क्या लिखा है?'' इशारे से सोमा को अपने दफ्तर की आलमारी के पास बुलाते हुए उन्होंने एक खाता खोल कर सोमा की ओर मोड़ दिया : ''मिसेज नाथ, फी-फॉर टेकनिकल एसिस्हटैंस इन रेस्टोरेशन...'' और सोमा की चकित मुद्रा देख कर बोले, ''हिंदुस्तानी लोग प्रायः अपनी मेहनत का सही मूल्य लेना नहीं जानते - या तो बहुत एहसान मानते हैं -कृतज्ञ होना अच्छी बात है पर वजह तो होनी चाहिए, नहीं तो फिजूल एंबैरसमेंट होता है! - या फिर एकदम दूसरे छोर पर पहुँच कर सोचने लगते हैं कि अगर किसी ने बिना मोल-तोल के मेहनताना दिया है जो जरूर बहुत-सा ठग लिया होगा। निस्संदेह लोग ठगते भी होंगे - मेरे जेनरलाइजेशन का बुरा मत मानना - मेरे कहने का मतलब है, अपनी मेहनत का सही मोल आँकना सीखना चाहिए - तभी अच्छा काम भी होता है और काम की इज्जत भी होती है!''
चेक वापस लेने या नकद देने की कोई जरूरत नहीं थी; चेक पर सोमा के हस्ताक्षर करा कर उन्होंने प्रमाणित कर दिये : ''बैंक के लिए इतना काफी है - कैश मिल जाएगा। लेकिन सोमा, किसी बैंक में खाता खोल लो जरूर - बैंक और जो हों, आधुनिक सभ्यता की सहूलियतों में से एक तो हैं ही!''
सोमा हँस दी, ''इतना तो जानती हूँ, हर्र स्टेगर!''
इसके कुछ ही दिन बाद स्टेगर ने सोमा से पूछा कि क्या वह उनके लिए कुछ पुरानी चीजें देखने बाहर जाना चाहेगी? वह स्वयं इन दिनों नहीं जा सकते हैं, पर सोमा की पहचान पर उन्हें भरोसा है; बंगाल में एक जगह बहुत-सी चीजें बिकाऊ हैं और वह देर नहीं करना चाहते क्यों कि आदमी जरूरतमंद है, ज्यादा दिन माल रोक कर नहीं रखेगा। सोमा जाय तो व्यवस्था वह कर देंगे - सोमा चीजें पसंद कर के सौदा आरजी तौर पर तय कर ले, एकदम फाइनल बात न करे - जरूरी हो तो कुछ पेशगी भी दे आये। सब चीजों के फोटो भी ले ले और अपने लिए अलग से एक सूची भी बना ले - कैमरे का इस्तेमाल तो वह जानती है न? और याद से चीजों की सूची बना लेगी न?
सोमा को थोड़ी झिझक भी हुई - जिम्मेदारी पर भी, लंबी यात्रा की संभावना पर भी; पर अच्छा भी लगा कि ऐसा भरोसे का काम उसे सौंपा जा रहा है और इस तरह एक लीक में पड़ जाने की ऊब से वह बच भी जाएगी। बोली, ''थैंक यू, हर्र स्टेगर; मेरे लिए तो ऐसा अनुभव बहुमूल्य होगा - और अपनी पहचान की परख भी मैं करना चाहूँगी।''
''गुड!'' तय हो गया कि तीन दिन बाद सोमा कलकत्ते जाएगी, वहाँ से आगे मुफस्सिल में। बिक्री के लिए दिखाये जानेवाले सामान की जो सूची विक्रेता की ओर से आयी थी, उसकी नकल उसने ले ली। विभिन्न चीजों के बारे में जो प्रश्न स्टेगर ने उठाये थे, या जिन बातों की खास पड़ताल करने का सुझाव दिया था, वे भी उसने टीप लीं। कलकत्ते की गड़बड़ी के समाचार उसने सुने थे, युद्ध भारत की पूर्वी सीमा की ओर बढ़ रहा है, और बढ़ेगा तो कलकत्ते में दंगा-फसाद होने की संभावना है, ऐसी चर्चा भी उसने सुनी थी। अखबार में यह चेतावनी देख कर कि दंगा-फसाद की खबरें उड़ानेवाले को सख्त सजा दी जाएगी, और लोगों की तरह उसने भी परिणाम निकाला था कि 'तब जरूर कुछ गड़बड़ हो ही रही होगी!' - पर इन सब बातों से वह विशेष विचलित नहीं थी, बल्कि थोड़ा आकर्षण ही था इसका : वह नया कुछ देखेगी भी, और जब इतने लोग जानबूझ कर इतनी तरह का जोखम उठा रहे हैं, और करोड़ों जनता बिना जाने कि जोखम क्या हो सकता है, उसके बीच दिन काट रही है, तब वही चार दिन जोखम में रह ली तो ऐसा क्या पहाड़ गिर जाएगा! वह जरूर जाएगी। क्या जाने इसी यात्रा के संयोग से उसे कोई रास्ता दीख जाय तो अभी दीखा नहीं है, जो अब दीखना ही चाहिए, दीखना ही चाहिए...
कलकत्ते तक जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। कानपुर से गुजरते हुए एक बार बड़े जोर से एक 'होम-सिकनेस' ने उसे धर दबोचा था जिसका मिस्टर कुमार से कोई खास संबंध नहीं था : ऐसा भी होता है कि होम कोई विशिष्ट सगा न हो कर सगेपन का एक वातावरण ही हो और इसी की माँग सोमा के भीतर उमड़ आयी थी। कॉलेज के दिन, सहेलियाँ, लखनऊ, मोहन, यहाँ तक कि शोभा देवी भी डैडी कुमार के साथ उस माँग की परिधि में घिर आयी थीं। पर फिर इलाहाबाद पार हो जाने पर वह मनोभाव जैसे अपने-आप विलय हो गया था, और मुगलसराय स्टेशन की चहल-पहल ने तो उसे झकझोर कर उस कल्पनालोक से उबार कर अब-यह-यहाँ की ठोस भूमि पर ला खड़ा किया था। कलकत्ते से आगे जाना भी, हावड़ा से सियालदह तक की यात्रा की हाय-तोबा, नोच-खसोट और राह किनारे की दरिद्रता और निष्कारुण्य को साधारण मान लें तो, मामूली बात ही थी। काम पूरा कर के सोमा कलकत्ता लौट आयी थी - और वहाँ अटक गयी थी। जापानी बम के आतंक से कलकत्ता सहमा हुआ था, मारवाड़ी सब जिस गाड़ी से जहाँ का भी टिकट मिल जाय, कटा कर भागे जा रहे थे; रेल टिकट और रिजर्वेशन टिकट की साधारण चोर बाजारी ने एकाएक बृहत् उद्योग का आयतन प्राप्त कर लिया था; पछाँही दरबान लोग जहाँ एक ओर इस चिंता से ग्रस्त थे कि मारवाड़ी लोग सब अपनी कोठियाँ बंद कर के चल देंगे तो उन्हें काम कौन देगा, वहाँ दूसरी ओर इस तात्कालिक सुयोग से प्रसन्न भी थे कि टिकट घर की खिड़कियों पर मारामार करने और बाबुओं के लिए रास्ता बनाने के लिए उन की बड़ी माँग थी और सेवाओं के मुँह-माँगे दाम मिल रहे थे। और कल की चिंता कल-भर दूर थी, जब कि सुयोग तो सामने था! ये सब उपाय न सोमा के बस के थे, न वह करना चाहती थी; फलतः वह अटकी हुई थी और झल्ला रही थी। एक आदमी से उसने पूछा कि कब तक रेलगाड़ी में जगह मिलने की संभावना है, तो वह हँस दिया था, ''आप यहाँ कोठी चाहें तो मैं नाम के किराये को दिला सकता हूँ - बल्कि ऐसा भी कोई मिल जाएगा जो आपको उसके घर में रहने के पैसे भी दे दे, अगर आपकी साख का कोई सबूत मिल जाय या जान-पहचान निकल आये। पर टिकट - वह तो मुश्किल काम है! उसके लिए तो विशेष उपाय करना होगा!'' क्या विशेष उपाय? इस पर फिर हँसी, ''आप तो सब जानती हैं..."
'विशेष उपाय' करने को सोमा तैयार नहीं थी। पैसे की बात उतनी नहीं थी, सिद्धांत की बात थी : रिश्वत के नाम से उसकी आत्मा विद्रोह करती थी। वह पड़ी रहेगी कलकत्ते में - आखिर कभी तो भगदड़ थमेगी! या कि भागनेवाले मारवाड़ी ही चुक जायेंगे - एक-एक गाड़ी में दो-तीन हजार भी निकल जायेंगे तो कितने दिन लगेंगे आखिर!
होटलों में जगह थी। सोमा ने स्टेगर को ब्योरा दे कर चिट्ठी लिख दी, होटल में सामान जमाया और तय किया कि वह अखबार ही पढ़ कर दो-चार दिन काट लेगी -अंग्रेजी-हिंदी-बांग्ला के अखबार और उनके विशेष संस्करण - फिर कई टुटपुँजिया परचे-परचियाँ - दिन-भर में पढ़ने को काफी सामग्री हो जाएगी...।
पर उतना उसे रुकना नहीं पड़ा। तीसरे ही दिन उसने कुछ लोगों को होटल छोड़ते देखा और सुना कि वे लोग पश्चिम को जा रहे हैं, तो उसने मैनेजर से पूछ लिया - भारी रिश्वत के अलावा कोई युक्ति वह बता सकते हैं कलकत्ते से निकल जाने की? कलकत्ते में रहने से वह डरती नहीं है, भाग कर तो कभी न जाती - पर उसे काम से जल्दी वापस पहुँचना है... मैनेजर ने मुस्करा कर कहा, ''एक और उपाय तो है : पैसा तो उसमें भी लगेगा, पर कम; और वह रिश्वत भी नहीं है।'' वह क्या? कि सोमा दिशाशूल में यात्रा करे : टिकट तो ठीक दामों मिल जाएगा पर टिकट घर पर धक्का-मुक्की करने और फिर ठेल-ठाल कर उसे गाड़ी पर सवार कराने के लिए बिहारी दरबान पचास रुपये लेगा। ''यह तो रिश्वत नहीं है, यह तो मेहनताना है - आप खुद देख लीजिएगा! पर आप दिशाशूल में यात्रा कर लेंगी न?''
सोमा ने संक्षेप में कहा, ''हाँ। आप टिकट दिला दीजिए।''
''वह तो रिजर्वेशन की बात नहीं है, आप जायेंगी तो वह गाड़ी पर सवार करा देगा।''
...वार। दिशाशूल। तूफान मेल में सोमा सकुशल सवार हो गयी : एक पैर किसी दूसरी सवारी के पैर से कुचला गया, या बैग का हैंडल खींच-तान में उखड़ गया, तो कोई बड़ी बात नहीं थी। दिशाशूल के बावजूद इतनी सख्त भीड़ है, यह देख कर सोमा देश के भविष्य के बारे में आशान्वित होनेवाली ही थी कि उसने देखा, गाड़ी के सीटी देते ही आधे लोग उसी ठेलम-ठेल के साथ उतरने लगे हैं जिससे थोड़ी देर पहले वह सवार हुई थी - ये लोग सिर्फ जगह घेर रखने के लिए सवार हुए थे। सोमा को काफी जगह मिल गयी। दिशाशूल! निषिद्ध दिशाएँ ही उसकी यात्रा के लिए सही दिशाएँ हैं शायद? पर नहीं, यह परिणाम भी उतना ही दूषित है जितना इससे उलटा परिणाम होता : न कोई दिशा निषिद्ध है, न कोई शुभ; आदमी काम करता है और आशा करता चलता है...
काम करता है, पेशबंदी करता है, बस। सोमा को याद आया कि यह वाक्य मोहन ने उसे कहा था। वह भी तो तब 'बंगाल तरफ' से लौटा था। क्या अब भी वह यहीं कहीं होगा? कैसा हो, अगर वह इसी गाड़ी पर सवार हो? या अभी न हो तो - कैसा हो अगर रात में, भोर में कभी किसी स्टेशन पर वह इसी डिब्बे में घुसे और देखे कि वहाँ सोमा बैठी है!
यत्नपूर्वक सोमा ने अपने विचारों को इधर बढ़ने से मोड़ा। आदमी काम करता है, पेशबंदी करता है, बस। आदमी काम करता है। काम करता है...
लोग बनारस की सुबह और अवध की शाम की बात करते हैं। लखनऊ के गोमती-तट की कुछ शामें तो सोमा की स्मृति में भी बड़ी मधुर थीं, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं था कि उसका कितना श्रेय अवध को मिलना चाहिए, कितना गोमती को और वह भी सिर्फ लखनऊ की, या कितना स्वयं सोमा की उन दिनों की रोमानी प्रवृत्ति को। पर बनारस की सुबह! बनारस की सुबह की जिस चीज की याद और सब चीजों पर छा जाती है, वह है वहाँ की धूल : भोर होते-न-होते हर गली-कूचे में न जाने कितनी बुहारियाँ कितनी धूल उड़ाने में संलग्न हो जाती हैं : जो धूल गली से ऊपर को नहीं उड़ाई जाती, वह ऊपर के छज्जों-चौबारों से झाड़े गये पायदानों या उलटायी गयी टोकरियों से उड़ कर आकाश में छा जाती है और वहाँ से दिन-भर बरसा करती है। उसकी याद से भी सोमा के दाँत किरकिरा आते थे।
पर दिल्ली की बरसात - क्या उसकी भी बात कोई करता है? मुहावरे में तो वह नहीं आयी; हाँ, दिल्ली का एक-आध बादशाह जरूर दिल्ली के सावन-भादों का कायल रहा, इस की गवाही, लाल किले की दो बुर्जियाँ देती हैं। सोमा ने उनके नाम ही सुने थे, देखी नहीं थी; बरसात में कभी किले की ओर से निकलती हुई उसे उन की याद आ जाती थी, पर दिल्ली का माहौल जिस तेजी से बदलने लगा था उस में लड़कियों का बेला रोड वगैरह की तरफ अकेले घूमना अनहोनी बात हो चली थी, और बरसात में घूमने का तो कोई सवाल ही नहीं था। अलीपुर रोड और बेला रोड पर जब से फौजी गाड़ियों-ट्रकों की आवाजाही बढ़ने लगी थी, यों तो तभी से वहाँ की हवा बदलने लग गयी थी। दिल्लीवाले अपनी सब से मन-पसंद तफरीह-कश्मीरी गेट से निगमबोध घाट और जमुना बाँध तक की ताँगे की सैर शौक छोड़ कर रामलीला ग्राउंड का ही पैदल चक्कर लगा कर गुजारा करने लगे थे। अगस्त ४२ के बाद धीरे-धीरे उस तरफ सन्नाटा बढ़ने लगा था : साँझ-सवेरे आने-जानेवाले लोग कनखियों से एक-दूसरे को देख लेते थे और फिर शंकित मन अपने-अपने रास्ते बढ़ जाते थे या जो ऐसा नहीं करते थे वे दूसरों की ओर तीखी आशंका का कारण बन जाते थे। साँझ के बाद सिर्फ मोटरें ही उधर से निकलती थीं - बहुधा पुलिस की मोटरें, कभी-कभी दूसरों की और तीखी आशंका का कारण बन जाते थे। साँझ के बाद सिर्फ मोटरें ही उधर से निकलती थीं - बहुधा पुलिस की मोटरें, कभी-कभी दूसरी। सोमा ने सुना था कि उधर रहनेवाले लोग रात को देर में घर लौटते हैं तो मोटर धीरे चला कर लाते हैं कि कहीं उन पर संदेह न हो जाय और पुलिस की मोटर उनके पीछे न लग जाय या गाड़ी की तलाशी न हो जाय। दिल्ली में एकाधिक गुप्त रेडियो प्रसारक काम कर रहे थे और पुलिस की धारणा थी कि ये मोटरों में घूमते फिरते हैं क्यों कि स्थिर रहेंगे तो प्रसारण की दिशा से पता लग जाएगा कि उन की स्थिति कहाँ है। सोमा का ठिकाना हर्र स्टेगर के बँगले से दूर नहीं था; कभी शाम को देर से काम से लौटते हुए उसे डर तो नहीं लगता था पर दूसरे इक्के-दुक्के व्यक्ति की सशंक दृष्टि का अनुभव उसे जरूर हो जाता था। अक्सर वह भाँप जाती थी कि ताकनेवाला व्यक्ति सी.आई.डी. का ही होगा; कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता था।
एक बार एक अनोखा अनुभव भी उसे हुआ था। बरसात बीत चली थी। बादल छाये थे, पर बूँदें नहीं पड़ रही थीं। उमस के कारण झुटपुटा और भी ओझल और सुनसान लग रहा था। सोमा पैदल चली जा रही थी कि एक मोटर उसके पास आ कर रुकी, किसी ने बड़े भद्र स्वर से पूछा, ''आपको हम कहीं पहुँचा दें?'' और वह जवाब दे, इसके पहले ही दरवाजा खुल गया। दिल्ली में तो माँगने पर कोई लिफ्ट नहीं देता; यह बिन माँगे ऐसा शिष्टाचार! - और कोई संदेह करने की गुंजाइश नहीं थी क्यों कि चालक के बराबर एक स्त्री भी बैठी थी। सोमा फिर भी धन्यवाद दे कर टाल देना चाह रही थी कि स्त्री ने ही आग्रहपूर्वक कहा, ''आइए न - हम इधर ही जा रहे हैं - पहले भी एक-आध बार आप को पैदल इधर से जाते देखा है।'' सोमा ने कुतूहलवश ही मान लिया : कौन होंगे ये लोग जो इतनी शालीनता दिखा रहे हैं?
गाड़ी चल पड़ी। थोड़ी देर बाद स्त्री ने पूछा, ''हम लोग एक-आध जगह रुकते चलें तो आपको आपत्ति तो न होगी - अधिक नहीं, दो-चार मिनट लगेंगे - ''
कुछ विस्मय से सोमा ने कह दिया, ''नहीं।''
मोटर अलीपुर रोड से मुड़ गयी; थोड़ी दूर जा कर एक बँगले पर रुकी। स्त्री सोमा के साथ बैठी रही, चालक उतर कर एक मिनट को भीतर गया और लौट आया। गाड़ी चल पड़ी। ऐसे ही एक बँगले पर फिर रुकी; सोमा ने लक्ष्य किया कि चालक जाता हुआ एक पैकेट भी ले जा रहा था जो लौटा तब उसके हाथ में नहीं था। एक तीसरी जगह भी ऐसा ही हुआ। उसके बाद स्त्री ने कहा, ''चलिए, अब आपको पहुँचा दें। देर के लिए माफ कर दीजिएगा।'' रामकिशोर रोड पर सोमा को छोड़ कर गाड़ी आगे निकल गयी। अपने घर की ओर मुड़ने से पहले सोमा ने देखा कि वह और भी एक जगह उसी प्रकार रुकी है; फिर सोमा अपने फाटक के भीतर चली गयी। अनुमान से ही उसने समझ लिया कि यह हो क्या रहा है : मोटर घर-घर परचे बाँटती घूम रही होगी। यह अनुमान अगले दिन और पुष्ट हो गया जब पड़ोस घर से उसे भी एक परचा मिला - 'रात में पता नहीं कौन घर-घर में डाल गया।' इससे यह रहस्य तो नहीं खुला कि उसे लिफ्ट क्यों दी गयी - सोमा ने स्वयं ही अनुमान कर लिया कि गाड़ी में दो महिलाएँ होने से वह कुछ ज्यादा 'रेस्पेक्टेबल' हो जाएगी - 'ड्राइवर कहीं संदेशा पहुँचाने या पता लेने उतरा होगा...'
यों बरसात बीत गयी थी, वर्षा से धुले हुए पेड़ों की पत्तियों को शरद ऋतु चमकाने लगी थी और फिर कातिक के अंधड़ों ने धूल उड़ा कर शरद का सारा परिश्रम व्यर्थ कर दिया था। सोमा को दिल्ली आये एक वर्ष हो गया था : यों तो हमारा समय के बीतने का बोध कई तरह का होता है, ज्ञानजन्य भी और अनुभवजन्य भी; सोमा के जीवन में समय की गति मानो ठिठक गयी थी और जब चलती भी थी तो धारा की तरह सम और प्रवाहमान नहीं, बंदर-कूद की तरह एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक। अखबार वह नियम से पढ़ती थी, बदलती हुई तारीखें या युद्ध के समाचारों का घटना-क्रम ऐतिहासिक काल की उस गति का अंश था जो हमारे अनुभव का नहीं, ज्ञान का ही अंग रह जाती है जैसे अशोक या अकबर का राजत्व, या राणा प्रताप की प्रतिज्ञा या पलाशी का युद्ध; पेड़ों का अंकुरित होना या पत्तियों का पीला पड़ जाना उस अनुभूत काल का अंग जो हठात् एक स्थिति के बदले एक दूसरी स्थिति हमारे सामने उभार लाता है - वसंत और शरद को हम आता हुआ नहीं देखते, आ गया ही पहचानते हैं! - उसी अनुभूत काल का अंग, जिसका अंग अशोक की टूटी हुई लाट है, या अकबर के हस्ताक्षर के बदले हाथ की छाप या चित्तौड़गढ़ का सिंहपौर, या ढाका की मलमल... पर एक और भी स्तर है काल के अनुभव का : जैसे एक दिन एकाएक स्टेगर द्वारा निमंत्रित होना - ''सोमा, तुम्हारी ट्रेनिंग तो अब पूरी समझनी चाहिए - तुमने एक वर्ष पूरा कर लिया, एंड आइ मस्ट से आइ एम वेरी इंप्रेस्ड... सैसी, शैल वी हैव ए पार्टी एट डैविकोज?'' या और एक दिन स्विस के आगे जा निकलना और अनमने-से हठात् सड़क पार करने लगते ही मोटर से चीख सुन कर ठिठक जाना और याद करना 'जोखम कहाँ नहीं है? सड़क पार करते हैं तो जान खतरे में डालते हैं।' यह न धारा है, न बंदर-कूद; यह एक टेढ़ा सुआ है जो अनवधान में मर्म में बिंध जाता है और फिर भीतर-भीतर घुमाया जाता है; जिसके घाव को हम कराहते हुए दबाते हैं और इस प्रकार सुए को और गहरा चुभाते जाते हैं...
बरसात में तैल रंगों के काम में हवा की नमी के कारण बाधा थी, इसलिए पुराखंडों की सफाई और मरम्मत की दूसरी विधियाँ सीख लेने के बाद सोमा जलरंगों के काम को और रसायन संबंधी अध्ययन को अधिक समय देती रही थी, नहीं तो - ऐसा स्टेगर का अनुमान था। अब तक उसकी ट्रेनिंग पूरी हो गयी होती - यानी जितनी ट्रेनिंग वहाँ हो सकती थी, उस से आगे की शिक्षा तो विदेश में किसी संस्था में ही संभव थी - और बाकी तो अनुभव और अभ्यास ही सिखाता है - आदमी 'काम को नहीं सीखता, काम से सीखता है।' स्टेगर कभी-कभी कहा करते थे। बल्कि सोमा ने पहचान लिया था कि यह उनका एक तरह से तकिया कलाम है। सोमा कुछ अच्छा काम कर दिखाये तब यही प्रशंसा-वाक्य बन जाता था; काम की विधि के बारे में पूछे तो यही समाधान-वाक्य था; और हर्र स्टेगर उसे जब कोई काम सौंपते थे तो यही आदेश का संकेत होता था! जाड़े लगने के साथ फिर तैल रंगों का काम करने का अवसर आया, पर एक कठिनाई और थी कि मरम्मत किये हुए या फिर से रंगे हुए अधिक पुराने तैलचित्र तो मिलते नहीं थे; उन्नीसवीं शती के ही कुछ विदेशी तैलचित्र हर्र स्टेगर कहीं से ले आये थे जो उन्होंने सोमा को सौंप दिये थे। ''है तो रबिश-रोबदार दीखता है तो क्या हुआ!'' फिर आँखों में विनोद की चमक भर कर बोले थे, ''हाउ वुड यू लाइक टु रेस्टोर सम ऑफ योर डेड रूलर्स?'' 'रेस्टोर' शब्द के श्लेष पर सोमा हँस पड़ी थी, 'योर डेड रूलर्स' कहने में स्टेगर का कोई आक्षेप भारत पर नहीं था इतना वह उन्हें जान गयी थी।
''श्योर आइ'ल डिग देम अप!'' उसने भी उसी स्वर में उत्तर दिया था, ''उन्हें कब्र में भी शांति नहीं मिलनी चाहिए-मुर्दा पेंटिंग में भी नहीं!''
और वह बड़ी लगन से चित्रों का चप्पा-चप्पा छाँट कर उस पर मेहनत करने लगी : चटके हुए रंगों को पूरना, पपड़ी उठाना, दफ्ती पर बनाये गये चित्रों में गली हुई दफ्ती से रंग उठा कर नये फलक पर जमाना, अलग-अलग चित्रकारों के कूची चलाने के ढंगों की नकल, रंग की पपड़ी की मोटाई का अध्ययन, तेलों की मिलावट-रंगों के भेद और उनके आधार पर देश-काल निर्णय... आँख और हाथ दोनों के कड़े अनुशासन की जरूरत थी इस काल में-पीठ और गर्दन की जो तपस्या थी वह अलग! वह काम में दिलचस्पी ही नहीं थी जो सोमा को घंटों निरंतराल इस काम में लगाये रहती थी, कोई और भीतर सुलगन भी थी : सोमा भी इस बात को जानती थी और मिस्टर स्टेगर भी समझने लगे थे। पर आग को छेड़ा भी जा सकता हो तो सुलगन को नहीं छेड़ना चाहिए : उसमें आग ललक उठे तो मुश्किल, और कहीं बुझ जाय तो भी - क्या जाने क्या अनर्थ हो...
वह सन् १९४४ का वसंत था जब एक दिन हर्र स्टेगर ने सोमा से फिर एक लंबी यात्रा का प्रस्ताव...
(अधूरा उपन्यास)