चेहरे पर उभरता चेहरा (गुजराती कहानी) : आबिद सुरती
Chehre Par Ubharta Chehra : Aabid Surti (Gujarati Story)
हर सप्ताह शाम रजत हमारे यहाँ गुजारता और घंटा-भर गप्पें लड़ाकर चल देता । उसकी बातें हमेशा दिलचस्प होतीं । चर्चा करने के लिए उसके पास विषयों की विविधता नहीं थी, फिर भी जिस खूबी से वह अपने विचारों को पेश करता, उसका बयान करना मुझ जैसे लोकप्रिय कथाकार के लिए भी काफी मुश्किल काम है ।
एक शाम रजत ने अपनी बात कुछ यों शुरू की थी, ‘फिल्म लाइन में आने के बाद इंसानों के चेहरे अपने नहीं रह जाते । कितने ही मासूम, खेलदिल चेहरों को मैंने भेड़ियों के चेहरों में तब्दील होते देखा है ।’
उसकी इस बात को मजाक समझ, मैं ठहाका लगाकर हँस दिया था । फिर मैं काफी देर तक सोचता रहा । उसके शब्द मुझे छू गए थे । मैंने तभी निश्चय कर लिया था कि अब जब कभी मैं नई कहानी लिखने बैठूँगा, इस मुद्दे को केंद्र में रखकर शुरूआत करूँगा । मगर उस वक्त मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मुझे रजत पर ही कुछ लिखने को प्रेरित होना पड़ेगा ।
वह दार्शनिक नहीं था । कवि या कहानीकार भी नहीं था । पंद्रह साल पहले फिल्म लाइन में अपनी किस्मत आजमाने वह बंबई आया था । उसका चेहरा, उसका जिस्म किसी सफल अभिनेता जैसा प्रभावशाली था । उसकी बात करने की शैली, उसका वाक्प्रवाह, आँखों के भाव देखकर स्वाभाविक रूप से ही मेरे सामने यह प्रश्न उठ खड़ा होता-जो आदमी जिंदगी में इतना सहज अभिनय कर सकता है, वह परदे पर असफल कैसे रहा होगा? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है ।
हमारी पहली मुलाकात टाइम्स प्रकाशन संस्थान में हुई थी । ‘धर्मयुग' के मेरे उपसंपादक मित्र ने मुझसे उसका परिचय करवाया था। रजत ने चकित होकर, स्थिर दृष्टि से कुछ पल मेरी ओर देखा था, मानो उसकी पहचान मुंशी प्रेमचंद या शरत्चंद जैसे किसी साहित्यकार से करवाई गई हो-
‘मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि ... ' आखिरकार उसने कहा था, ‘काली किताब जैसे धाँसू उपन्यास के राइटर आप ही हैं!' वह युवक उसी पल मुझे भा गया था ।
वास्तव में उसे युवक कहना थोड़ी ज्यादती होगी, क्योंकि जब मेरी उससे पहली मुलाकात हुई, वह शादीशुदा था-दो बच्चों का बाप! अगर मैं गलत नहीं सोचता हूँ तो उसकी उम्र चालीस से कम नहीं, कुछ ज्यादा ही होनी चाहिए । अलबत्ता दिखने में वह देव आनंद की तरह सदाबहार लगता था । उसकी त्रासदी यह थी कि उसके जीवन में न तो बहार थी, न शांति । उसका संघर्ष अभी जारी था ।
‘एक दिन मैं फिल्म इंडस्ट्री को हिलाकर रख दूँगा ।' कभी-कभी वह आवेश में बोल उठता, ‘प्रोड्यूसरों की कारें मेरे घर के बाहर कतार बाँधे खड़ी होंगी । भरोसा रखो, बहुत जल्द मैं सुपर स्टार बनूँगा और आप होंगे मेरे सुपरहिट कहानीकार!’
ऐसे शब्दों से वह खुद को धोखा दे सकता था, मुझे नहीं । मुझे तो, दरअसल, उस पर दया आती थी, साथ ही एक किस्म का आनंद भी मिलता था । जिस भ्रम में वह आज भी जी रहा था, उससे मैं बहुत पहले उबर चुका था । फिल्म स्क्रिप्ट-राइटर बनने के सपने देखने मैंने सालों पहले छोड़ दिए थे ।
मेरे इन्हीं सोए हुए सपनों को थपथपाने की शुरूआत उसने जाने-अनजाने कर दी । जब भी वह हमारे घर आता, कम-से-कम एकाध जुमला ऐसा जरूर छोड़ जाता, जिससे मुझे गुदगुदी हो ।
फिल्म इंडस्ट्री में रजत की खासी अच्छी पहचान थी । डाल-डाल पर बैठने वाले पंछी की तरह उसका उठना-बैठना कई प्रोड्यूसरों के दफ्तरों में था । चोटी के कुछ अभिनेताओं के संपर्क में भी वह था।
‘मैं फिल्म इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग ले रहा था । तब शत्रुघ्न, जया, रेहाना मेरे साथ थे ।' वह कहता, ‘शत्रु तो आज भी मेरा दोस्त है । अभी कल ही महबूब स्टूडियो में मेरी उससे मुलाकात हो गई । वह किसी नए स्टोरी राइटर की तलाश में है । मैंने आपका नाम सुझाया । आप यकीन करेंगे, भाई साहब, वह आपके नाम से पहले से ही परिचित था ।’
मैं खुश हुआ । शत्रुघ्न जैसा जाना-माना अभिनेता मेरा नाम जानता हो, यह मेरे लिए बड़े गर्व की बात भी थी।
‘फिर?' मैं पूछ बैठा ।
‘अप्वाइंटमेंट लेकर चंद ही दिनों में मैं आपकी मुलाकात उससे करवा दूँगा,' रजत ने कहा, ‘वह आज भी उन दिनों को भूला नहीं है । किस्मत का खेल देखिए सफलता उसके कदम चूम रही है, जबकि गरीबी और भूख ने आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा । आज भी मैं यह नहीं जानता कि मेरे घर में कल का राशन कहाँ से आएगा?’
मैंने तुरंत ही अपनी जेब से बटुआ निकालकर सौ रुपए का एक नोट उसकी ओर बड़ा दिया ।'यह क्या?' वह बोल उठा, जैसे मैंने उसका अपमान किया हो । जैसे कोई स्वाभिमानी कंगाल भूख से मरने को राजी हो, लेकिन मुफ्त की रोटी किसी भी हाल में स्वीकारना नहीं चाहता हो ।
‘दान नहीं दे रहा हूँ' मैंने खुलासा किया, ‘तुम्हारे पास पैसे आएँ, तब मुझे लौट। देना ।’
‘मगर.. ।’
‘तुम कोई पराए नहीं हो । लो, रख लो इसे ।’
पलकें झुकाकर उसने हौले से नोट मेरे हाथ से ले लिया । उस दिन मुझे लगा, शायद मुझसे कहीं कोई गलती हुई है । दोस्ती में मुझे पैसों का व्यवहार शुरू नहीं करना चाहिए । लेकिन मैं क्या करता? उसकी आवाज में घुली करुणा ने मुझे लाचार कर दिया था । काफी प्रयास करने पर भी मैं अपनी संवेदनाओं को रोकने में नाकाम रहा था । मैंने तुरंत निश्चय कर लिया, मुझे अपने जज्बात पर अंकुश रखना सीखना होगा ।
खुद को सीख देना कितना आसान है, पर उस पर अमल करना उतना ही मुश्किल! यह हकीकत आप तभी समझ पाएँगे, जब आपका परिचय रजत जैसे किसी मित्र से हो ।
उसकी हालत खस्ता थी, इसमें दो राय नहीं हो सकतीं । पर मैं भी तो कोई लखपति नहीं था । फिर भी उसकी आंसू-भरी कहानियाँ सुनकर मेरा दिल पसीज जाता । कोई मित्र घर आकर ऐसा कहे कि ‘बारिश का मौसम शुरू होने वाला है । बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं । उनके लिए नई किताबें खरीदनी पड़ेगी । बारिश के जूतों, छाता वगैरह का भी इंतजाम करना होगा ।’
तो आप क्या करेंगे?
रजत ने मुझसे ऐसा ही कहा था, ‘इतना ही नहीं, महीनों से मकान का किराया भी नहीं दे पाया हूँ। फिर, बिजली का बिल, दूधवाले का बिल, धोबी... जाने भी दो । यह तो मेरी रोज की रामायण है। इन सब -समस्याओं से जूझना मैंने सीख लिया है। लेकिन ... लेकिन मेरे बच्चों का क्या...?’
मैंने जेब में हाथ डाला तो चालीस रुपए मेरे हाथ में आ गए ।'लो', मैंने कहा, ‘अभी यह रख लो ।’
आप यह मत सोचना कि मैंने इतनी आसानी से अपनी जेब खाली कर दी होगी । अब तक मैं सावधान हो चुका था । रजत के चरित्र को लेकर मेरे मन में अनेक शंका-कुशंकाएँ उठने लगी थीं । रजत के साथ ही हर मुलाकात के बाद मन-ही-मन निश्चय करता था कि अब वह चाहे कितना ही अपनी मुसीबतों का रोना मेरे आगे रोए, मुझे अपना मन ठोस रखना है । उसे एक भी पैसा नहीं देना है। और कुछ दिनों बाद वह चेहरे पर मुस्कान लिए हमारे घर आ खड़ा होता । पल-भर के लिए स्थिर दृष्टि से मैं उसके चेहरे को देखता रहता । मुझे भ्रम होता । रजत के चेहरे में मुझे भेड़िए के चेहरे की झलक दिखने लगती । आँखें झपककर मैं भ्रम के कणों को गिरा देता । मुझे अपने आप पर दया आ जाती । हमारे बीच जो कुछ घटित हो रहा था, उसमें रजत का जरा भी दोष नहीं था । उसने मेरे सामने कभी भी हाथ नहीं फैलाया था, कभी खुले शब्दों में मुझसे मदद नहीं माँगी थी । सच यह था कि उसकी दुखभरी दास्तान मेरी संवेदना को झनझना देती थी । अनायास मेरे हाथ अपनी जेब में उतर जाते थे ।
मैंने एक बार फिर निश्चय किया-अब अपनी कमजोरियों को अपने मन पर हावी नहीं होने दूँगा । अपनी संवेदनाओं पर पूरी तरह अंकुश रखूँगा । इस बार मेरा फैसला अडिग था । उसकी वजह थी मेरी बीवी, जो कि रजत से हमदर्दी रखती थी, वह भी सावधान हो गई थी अब वह मेरी ही ओर शक-भरी नजरों से देखने लगी । क्या कथाकार इतने बेवकूफ़ होते होंगे? कुछ इसी तरह के भाव उसकी आँखों में मुझे नजर आते थे ।
‘आपको हो क्या गया है?' आखिर जब उससे नहीं रहा गया तो उसने मुझे साफ सुना दिया, ‘आए दिन ऐसा करते रहोगे तो एक रोज हाथ में कटोरा लिए भीख माँगने की नौबत आ जाएगी ।’
‘इसमें दोष सिर्फ़ मेरा नहीं है,' मैंने लूला बचाव किया । ‘कल तुम भी मौजूद थीं ।’
हमेशा मुस्कराते रहने वाला रजत कल जब हमारे घर आया, तो उसकी सूरत गंभीर थी । वह बिना एक भी शब्द बोले, चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गया । मैं भी खामोश रहता, तो शायद सुरक्षित रह जाता, लेकिन मुझसे उसकी गिरी हुई हालत देखी नहीं गई । ‘क्या बात है?' मैंने पूछ लिया।
देवदास का अभिनय करते दिलीपकुमार की अदा से उसने अपने चेहरे को धीरे-धीरे ऊपर उठकर मेरी ओर देखा और फिर पलकें झुका लीं । उसकी इस मुद्रा से सिर्फ़ मेरा ही नहीं, पत्नी का मनोबल भी डगमगा गया ।
‘भाई साहब', वह बोल उठी, ‘कुछ बताओ तो हमें भी पता लगे ।’
‘भाभी' ... एक ही शब्द का उच्चारण कर उसने सोचने के लिए थोड़ा वक्त लिया, ‘आप औरत हैं, एक औरत का दुख आप समझ सकती हैं । मेरी बीवी का आज सुबह गर्भपात हो गया । उसे डॉक्टर के पास ले जाने की मेरी हैसियत नहीं थी । इसलिए मैं यहाँ दौड़ आया । सोचा था, यहाँ कुछ देर गपशप लड़ाकर अपने गम भुला दूँगा ।’
किस्सा कोताह, हमने उसके मुँह से बात उगलवाई न होती तो उसकी पीड़ा भी सतह पर न आती । अपराधी हम खुद थे । अंत में उसे पचहत्तर रुपए देकर हमने प्रायश्चित किया । उसके जाने के बाद हम पति-पत्नी के बीच चिनगारियाँ उड़ीं । पत्नी ने मुझे दोषी ठहराया, जबकि मैंने उस पर अँगुली उठाई ।
इस बार थोड़ी देर बाद शांतिपूर्वक सोचने पर मैं खुद चौंक उठा । कल्पना में रजत के कान मुझे भेड़िए के कानों जैसे लगे थे । अलबत्ता, यह मेरा सिर्फ भ्रम था । लेकिन अब तक एक बात मेरे मन में पूरी तरह बैठ गई थी । रजत मुझे जितना भोला और सीधा नजर आता था, वास्तव में वह वैसा था नहीं । फिल्म के परदे पर सफलता प्राप्त करने में वह भले ही नाकाम रहा हो, जिंदगी में वह अद्भुत कलाकार था । उसकी अभिनय-कला के बल पर उसका घर भी चल रहा था ।
आज मेरा जाना टाइम्स प्रकाशन संस्थान में हुआ और उपसंपादक मित्र से मैंने बातों-बातें में ही कल की घटना के बारे में बताया तो उससे पता चला कि कल रजत मेरे घर से निकलकर सीधा उसके घर गया था । गर्भपात वाला किस्सा सुनाकर उसने मेरे मित्र से भी काफी रुपए उगलवाए थे । यह बात और है कि मदद के लिए उसने वहाँ भी हाथ नहीं फैलाया था । यही उसकी खूबी थी । अपने अभिनय द्वारा वह ऐसा दर्दनाक माहौल खड़ा कर देता था कि निर्दयी कसाई के मन में भी एक बार दया पैदा हो जाए, तो ताज्जुब नहीं ।
मुझे इतना भरोसा था । अब वह कुछ दिनों तक अपनी शक्ल नहीं दिखाएगा । हमारी दो मुलाकातों के बीच कम-से-कम एक हफ्ते का फासला रहता था । यह अवधि पूरी हो इससे पहले मेरा जी घबराने लगता । शाम को काम से घर वापस आते समय मेरे पाँव अपनी ही गली में आगे बढ़ने से कतराने लगते थे ।
कहीं रजत पहले से ही आकर मेरा इंतजार कर रहा होगा तो? घर से मील भर दूर के सुरक्षित फासले पर होते हुए भी यह प्रश्न मेरा गला घोंटने लगता । मानो मैं खुद ही कोई अपराधी होऊं, ऐसे मैं डरते-डरते अपने घर में कदम रखता । घर पहुँचने के बाद भी मेरी परेशानी का अंत न होता । बार-बार मैं जाने-अनजाने खिड़की से बाहर झाँक लेता । दरवाजे की घंटी बजते ही चौंककर खड़ा हो जाता । वह आया! बस, अभी आता ही होगा... यह डर मुझे लगातार सताता रहता । मैं डर के माहौल में जीने लगा ।
इस तरह तकरीबन पंद्रह दिन गुजर गए। अब मेरे डर में हैरानी भी शामिल हो गई । रजत आया क्यों नहीं? क्या उसे पता चल गया होगा कि अब मैं उसकी बातों में आने वाला नहीं हूँ?
एक हफ्ता और बीत गया । मैंने सोच लिया । उसकी छठी इंद्रिय ने जरूर भाँप लिया होगा । अब इस तिल में तेल नहीं बचा है । अब इसमें से छोटी-सी एक बूँद भी नहीं निकल पाएगी और एक शाम अचानक वह फिर हास्य बिखेरता हुआ हमारे घर में नमूदार हुआ। वह थोड़ा पिए हुए भी था। शायद इसीलिए कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रहा था ।
उसका अभिवादन न मैंने किया, न मेरी पत्नी ने । फिर भी वह हमेशा की तरह हमारे घर को अपना समझ कुर्सी खींचकर बैठ गया । फिर रसोई में व्यस्त मेरी पत्नी से वह व्यंग्य में बोला, ‘भाभी, आज सिर्फ़ चाय नहीं चलेगी । साथ में कुछ नमकीन भी देना पड़ेगा । शत्रुघ्न हमारे भाई साहब से मिलना चाहते हैं ।' मेरी पत्नी को मौन बने रहने में अपनी सलामती दिखाई दी। मैं भी चुप रहा । इसलिए मेरी ओर देखते हुए उसने बम फोड़ा, ‘क्या आप लोग यह सोच रहे हैं कि मैं आज भी आपसे मदद माँगने आया हूँ?’
‘नहीं-नहीं,' मेरे होंठ खुल गए, ‘तुमने हमारे सामने कभी भी हाथ नहीं फैलाया है ।’
‘फिर ... आप इतने टैंस क्यों बैठे हैं? ’
‘नहीं तो । मैं... मैं तो एकदम नार्मल हूँ। ’
‘मुझे देखिए,' वह सगर्व बोला, ‘मेरा जीवन फटेहाल होते हुए भी मैं खुलकर हँस सकता हूँ । वह कहावत आपने सुनी ही होगी-हंसों और सारा जग तुम्हारे साथ हंसेगा ।’
नाटकीय अदा से हँसते हुए उसने रसोई की ओर देख अपनी आवाज थोड़ी ऊँची की, ‘आप भी हँसिए, भाभी! मेरे सब दुखों का अंत आ गया है।’
मैंने पूछा, ‘कोई फिल्म साइन की है?’
‘नहीं, मेरी बीवी दो बच्चों को रोते-बिलखते हुए छोड़कर चली गई।' यह बात उसने इतनी सहजता से कही कि पहले तो मैं कुछ समझ ही नहीं पाया । दूसरे, पत्नी के चले जाने से दुखों का अंत हो जाए, यह बात भी मेरे लिए पहेली थी । मैं बुद्धू की तरह उसकी ओर देखता रहा । मेरी पत्नी रसोई से दो कदम बढ़ाकर बैठक में आ गई । वह अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाई । उसने ही रजत से सवाल किया, ‘क्या हुआ?’
‘होना क्या था, भाभी! उससे बर्दाश्त नहीं हुआ ।' वह अपनी पत्नी के बारे में बता रहा था, ‘इसमें उस बेचारी का भी दोष नहीं! महज उम्मीदों के सहारे भूखे पेट कोई कब तक जी सकता है ।’
उसकी आँखें डबडबा आई, ‘सुबह उठकर देखा तो ऐसा लगा जैसे घर में मरघट का सन्नाटा उतर आया हो । सबकुछ सुनसान था । हमारा घोंसला बिखर गया, भाभी... ’
मुझे उसके बच्चों का खयाल आया । उनमें एक तो दूध पीता शिशु ही था । उसके बारे में मैं कुछ पूछूँ इससे पहले ही यह भर्राई आवाज में बोला, ‘लल्ले को अपने पड़ोसी को सौंपा और बड़े को घर में बंद कर बाहर निकल गया । किसी ने सच ही कहा है, जब दुख हद से ज्यादा बढ़ जाते हैं, तो वे दवा बन जाते हैं । आज इस बात की सच्चाई का भी पता चल गया, वरना इस तरह हँसी बिखेरता मैं आपके सामने थोड़े ही बैठा होता ।’
सिर झटककर एक बार फिर वह नाटकीय अदा से हँस दिया और उसकी आँखों का गीलापन आँसू बनकर चेहरे पर ढुलकने लगा । मेरी पत्नी धीरे-धीरे आगे बढ़ हमारे निकट आई और मेरे बगलवाली कुर्सी पर बैठते हुए उसने रजत से पूछा, ‘बड़का सुबह से घर में बंद है तो वह खाएगा क्या? ’
‘रात में घर लौटूँगा तो चने-कुरमुरे की दो पुड़ियाँ बँधवा लूंगा । देखिए, यह एक रुपया मैंने संभालकर रखा है।’
‘घर लौटने के लिए बस के किराए की भी जरूरत पड़ेगी ।' मैंने कहा । अचानक वह फफककर रो दिया ।
घंटे-भर बाद जब वह हमारे घर से लौटा, तब उसकी जेब में उसका अपना एक और हमारे दिए हुए सौ रुपए मिलाकर एक सौ रुपए थे । उस रात सोने से पहले मैंने रजत के बारे में नए सिरे से सोचना शुरू किया तो मेरे विचार गड्डमड्ड हो गए । मैं रजत का चेहरा अस्त्रों के सामने लाने की कोशिश करता और मेरे सामने भेड़िए का चेहरा मुस्कराता था ।