चाय के बाग में (मलयालम कहानी) : तकषी शिवशंकर पिल्लै
Chay Ke Baag Mein (Malayalam Story in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai
वह एक होशियार जासूस था। बड़े-से-बड़े केस उनसे साबित हुए हैं।
एक दिन हम मुजरिमों के बारे में बहस कर रहे थे। कई मजेदार किस्से उन्होंने सुनाये।
कई मुजरिमों के साथ मेरा रिश्ता रहा है। उनकी जिन्दगी और मानसिक उथल-पुथल के अध्ययन करने का मौका मुझे मिला है। मैं उनके लिए हमदर्दी दिखा सकता हूँ। अकसर मैंने सोचा है कि जुल्म का पूरा एहसास उसकी सही परछाईं में जानना है। ऐसे मौकों पर कभी-कभी मुजरिम अपनी राज जासूसी अफसर के सामने बता भी सकता है।
मैं एक मजेदार कहानी बता देता हूँ। पन्द्रह साल पहले की है। शायद आज भी वह जिन्दा हो सकता है।
शबरी की घाटी जैसे पूर्वी पहाड़ों के बागों से एक जासूसी अफसर के लिए बहुत काम हो सकते हैं। ये बाग मुजरिमों के लिए अच्छी-खासी जगह है। इन बागों में हजारों की तादाद में मजदूर काम करते हैं। इनका बाहरी दुनिया से कोई सरोकार नहीं। इन बागों में से मैंने बड़े-बड़े सख्त मुजिरमों को ढूंढ़ निकाला है।।
पीरुमेड के एक बाग में सन् 19...में एक मजदूर की हैसियत से मेरी भर्ती हुई। यह एक बहुत बड़ा चाय का बाग है। हजारों मजदूर हैं। बाग के मालिक ने इनके लिए रहने की सुविधा का बन्दोबस्त भी किया है।
मैं कारखाने में काम करता था। वहाँ करीब दो सौ आदमी काम कर रहे हैं। इनमें से एक पर मेरी नजर टिकी। एक मोटा-तगड़ा काला आदमी। उसकी आँखों ने मुझे आकर्षित किया था। इतनी बड़ी-बड़ी गोलदार आँखें मैंने देखी नहीं हैं। वे लगातार चमकदार रहा करती थीं। वह मुझे भी घूरता रहता था। एक बड़े से चक्र को घुमाने पर जोरदार आवाज में वह यन्त्र घूमने लगा। बाप कैसा मजबूत है। वह हँस रहा था।
उसके उस भयंकर आकार से मैं आँखें हटा नहीं सका। अकसर हमारा आमना-सामना होता था। उसकी नजर मुझे कुछ खास अदा-सी लगी।
उस कारखाने में वह किसी से कुछ नहीं कहता था। उसके बारे में भी कोई कुछ जानता भी नहीं था। जब दूसरे मजदूर हँसी-मजाक में लगे रहते तो वह उन सबसे अनजान-सा उस घुमावदार चक्र को एक जानवर के समान घूरता रहता।
मुझे पता चला कि वह मेरे पास वाले कमरे का है। वह अकेला है। आधी रात के वक्त वहाँ पहुँच जाता। सुबह होने के पहले ही वह चला जाता। काम पर भी वह सही वक्त पर पहुँच जाता। उसके बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ी।
उसको वहाँ आये कई साल हुए! किसी से बात भी नहीं की।
दोस्त! इन बागानों के मजदूरों के बारे में बहुत कुछ जान लेना है। ये जिन्दगी से ऊब गये हैं। न ये हँस सकते हैं, न मजा लूट सकते। शहर में उमंग पैदा करने की बहुत सारी चीजें हैं। वहाँ आशा टूटती नहीं। मुश्किलें भी भुलायी जा सकती हैं। लेकिन जंगल की इस गहराई में? जिन्दगी में कोई नयापन नहीं। कल जितने चेहरे मिले, उन्हीं को आज और कल भी देखना है। यहाँ हड़ताल का नाम नहीं। जीवन की होड़ काफी खुरदरी है। कानाफूसी का अच्छा माहौल है। जिन्दगी में उन्हें शिकायत ही रहती है।
अगर कोई तसल्ली देने वाला मिला तो बस वहाँ के मजदूर की खुशहाली है। वह ऐसे एक आदमी की खोज करता रहता है जो उसकी कसक की कहानी सुनने को तैयार हो। कोई किसी पर विश्वास नहीं रखता। प्यार नहीं करता; आपसी मेल-जोल भी नहीं। उनकी बस्ती से होकर साँझ के वक्त अगर कोई गुजर जाए तो उसका दिल भी बैठ जाएगा। रुआँसियों की अनुगूंज, भद्दी गालियाँ-ये ही सुनने को मिलती हैं। सामने से जो कोई गुजरता है वह शक की नजर से देखता है। उस मायूस माहौल में जुल्मों के बीज भरे पड़े हैं। जिन्दगी का ऊब जाना और ताकत का झर जाना शायद भलाई के लिए ही हों।
पहले-पहल मेरा यही खयाल था कि उस बाग में काम करने वाले सभी . मुजरिम हैं। लेकिन वह मेरी गलतफहमी थी। परन्तु नीच-से-नीच जुल्म भी वहाँ किये जाने की नौबत है।
कारखाने के सभी मजदूरों का मुझ पर भरोसा था। उनका खयाल ही ऐसा था कि उनकी जिन्दगी की उलझन जैसी भी हो, मैं सुलझा सगा। क्योंकि मैं पढ़-लिख सकता था।
बीवी से नफरत करने वाला शौहर-वह हर पल उसकी मौत की चाहत कर रहा है। एक दूसरा-वह यही चाहता है कि अपनी बीवी खुद चली जाए; इसके लिए उसे तंग कर रहा है। वह जाती ही नहीं है। अपने दुश्मन को खत्म करने के लिए पन्द्रह साल से एक आदमी तरकीब निकाल रहा है। यह रही उनकी बात।
जब हम बैठकर चुटकुलेबाजी करते तो वह शैतान जरा हटकर बैठता और घूरता। कभी भी वह हमसे मिलता नहीं था। जब हम बिलकुल ही खुले दिल से काम करते तो वह कभी चक्र को घुमाता रहता, दाँत पीसकर उसे रोकता रहता। उस शैतान के दिल से क्या गुजर रहा है? किसे पता। कभी-कभी वह अपनी घुमावदार आँखों से मुझे घबराया करता है।
उसे भी मालूम हुआ कि मैं उसकी तरफ ध्यान देने लग गया हूँ।
दो हफ्ते और बीत गये। आपस में हमने बहुत ध्यान किया। एक लफ्ज तक निकला नहीं। इसका नतीजा क्या हो सकता है? इस रिश्ते की एक खास किस्म की गहराई और तल्खी है। यह जरूर है कि हम बेकार के हँसी-तकल्लुफ के साथ जुदा नहीं होंगे। आपस में पहचानने के लिए नजरों का यह खिलवाड़, जान-बूझकर बनाये रखा हुआ अलगाव-मैंने फैसला किया कि ये दोनों मिलकर फूटना ही मुनासिब है। फूटने का ढंग क्या हो सकता है? कारखाने के सब किसी से मेरी जान-पहचान है। परन्तु हम अगर बिना कुछ कहकर ही जुदा हो जाएँ तो न मैं उसे भूल सकता हूँ और न वह मुझे। दोस्त! अब भी वह मेरे सामने खड़ा है।
वह कौन है? वह किधर का है? नाम क्या है? क्या पता! कुछ भी नहीं मालूम। कुछ गलतियाँ की होंगी। इस बाग में वह मुझे पाने के लिए ही आया है। उसके लिए ही मैं भी गया था; यह तो मुझे लगा।
एक दिन उसके बारे में मुझे एक राज का पता चला। उसके कमरे का दरवाजा बन्द था। मैंने छेद से भीतर झाँककर देखा। एक दीया जल रहा था। सामने वह बैठा था। उसके सामने चाँदी के सिक्कों का ढेर। वह यों दाँत निपोरकर मुसकराये जा रहा था।
उसके बारे में यह एक बहुत बड़ा राज ही है। मेरी जिज्ञासा और बढ़ी।
रविवार था। हमारे लिए छुट्टी का दिन है। हर रविवार को मैं बाग के बाहर जाया करता था। जंगलों-घाटियों से होकर चढ़ते-उतरते जाना मेरे लिए मजे की बात है। बाग के दीयें एक बहुत बड़ा पहाड़ है। उसके ऊपर से देखने पर सह्यपर्वत की पंक्तियाँ बहुत ही लाजवाब लगती थीं। उस दिन मैं पहाड़ के ऊपर एक पत्थर पर बैठा था। मेरे एकदम सामने करीब तीस फीट दूरी पर एक गहन गर्त था। एक डरावनी अनुगूंज उठती थी। उस गर्त में न जाने क्या हो रहा हो। वह मेरे सामने खड़ा था। न जाने कहाँ से आ गया। मैं डर के मारे उठ खड़ा हुआ। वह एक चीतल के समान दाँत निपोर रहा था। जरा सोचो दोस्त, अगर वह मुझे मारकर गर्त में फेंक दे तो कौन जान सकता है? उभरे हुए पत्थरों से टकराकर उस गहन गर्त में पड़ सकता है। उसकी गोल-गोल आँखें मुझ पर टिकी हैं। मैंने घूरकर देखा। उसने दो कदम आगे रखा। मैंने सोचा कि मैं अब खत्म होने वाला हूँ।
“इधर क्यों आये हैं?" उसने पूछा। वह आवाज उस शैतान अदा के लिए ठीक नहीं थी। तुतलापन था उसमें। आवाज पतली थी। बिना देखे वह आवाज सुने तो ऐसा ही लग सकता था कि वह किसी भिखमंगे की है। वह अकिंचनत्व का एहसास दे रहा था। मुझे यह लगा ही नहीं कि वह आवाज उसकी है। उसने अपना सवाल दोहराया। मैंने कहा, “यों ही और आप?"
“मैं भी ऐसा हूँ, रोज आता हूँ।”
वह पास के एक पत्थर के ऊपर बैठ गया।
“मजा आता है यहाँ बैठने पर" उसने बताया।
“आप रोज आते हैं क्या?"
"रोज आता हूँ, फल और कन्द-मूल उखाड़कर खाता हूँ।"
“मैं यही खाता हूँ। आपको देने के लिए अच्छे किस्म के फल तोड़कर रखा हूँ।"
"किसे? मुझे?"
उसने सिर हिलाया।
उसका नाम-धाम पूछा। उसने बस अपना नाम ही बताया। फिर मैंने कोई सवाल नहीं पूछा। “आप क्या सोच रहे हैं?"
"कुछ नहीं।"
“मैं यों ही सोचकर बैठना पसन्द करता हूँ।"
“आप क्या सोचेंगे?"
तब भी उसने दाँत दिखाया। उसकी नजर से यही लगता था कि उसकी सोचने लायक बात का पता मैंने लगाया हो।
यह परिचय बढ़ा। कारखाने में अब वह मेरे पास आने लगा है। शाम को वापस आने पर अगर मैं सो नहीं गया तो मेरे कमरे में आता है। हम देर तक बहस करते रहते। लगता तो यही है कि उसने मेरे मन की बात भाँप ली। वह कामचोर नहीं। मैं जो कुछ सोचता, उसका वह बहुत जल्द पता लगा लेता है। विस्तार से बातें जान लेना मुश्किल जान पड़ रहा है। मैंने फैसला किया कि कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़ना होगा। मेरी समझ में न आने वाली बहुत-सी बातें उसके पास हैं। वह उसकी अपनी हैं। उसकी जो कमजोरी है वह भी मेरे लिए अनजान है।
दिन गुजरते गये। वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। वह उसके तिकड़म में था। वह खुले में आए, मेरी कोशिश यही थी।
इस तरीके से वह बिलकुल ही एक उलझन बन गया। कभी मुझे शक होता कि वह मुजरिम ही है। एक बहुत बड़ा राज उसके पास है। वह अपना बोझ कहीं उतारना चाहता है। उसके अपने रवैये हैं। उसकी आँखें यही बता रही हैं। समाज की सहमति उसे मिल गयी है? वह मुझसे दोस्ती क्यों कर रहा है? वह मुझे इस नजर से नहीं देख रहा है कि मैं सिर्फ एक मजदूर हूँ। जो भी हो, मुझे पूरी तरह समझ नहीं लिया है। या तो वह एक मजरिम है या दर्दनाक हालत से गुजरा हुआ।
एक दिन उसने मुझसे कहा, “मालिक, मुझे आपका प्यार चाहिए।"
"क्यों?"
“आप मुझसे नफरत करते हैं।"
"नहीं, कभी नहीं।"
तब वह हँसता रहा। मुझे कुछ सूझा। उसकी कमजोरी तो यही है। कुछ देर बाद उसने कहा, "हम आपस में भरोसा करें।"
वह सवाल उसके दिल का है। सचमुच वह चाहता था। वह मेरे जवाब की ताक में था। उसकी जिन्दगी से सरोकार रखने वाला फैसला ही मुझे सुनाना था। साँस रोकते हुए उसने इन्तजार किया। वह उठ खड़ा हुआ। जोरदार आवाज में कुछ कहते हुए वह उधर से चला गया।
फिर एक दिन रात के वक्त वह मेरे कमरे में आया। आधी रात बीत चुकी थी। मेरे पास बैठकर वह मुझे घूर रहा था।
“बताओ?” मैंने पूछा।
"मैं एक बेचारा आदमी हूँ।"
“तो?"
"मेरी अपनी दर्द भरी कहानियाँ सुनानी हैं मुझे।"
“कौन-सा दर्द?"
उसका चेहरा सच्चाई का एहसास दे रहा था। उस भद्दे चेहरे पर पहली बार भाव स्फुरित होने लगा। उसका गला भर आया। “आप सभी से मिलते-जुलते रहते हैं लेकिन मुझसे बोलते ही नहीं। मुझे नींद नहीं आती...मुझे...” उसने अपनी बात रोक दी।
“आपकी कसक क्या है?"
“हम आपस में भरोसा रखेंगे, मैं आपको धोखा नहीं दूंगा।"
“आप बात समझ नहीं रहे हैं।"
“यहाँ किसका भरोसा करें। सब-के-सब चोर हैं। दूसरों की चीज हड़पने के इन्तजार में हैं। बस, उन्हें पैसा चाहिए। इसीलिए सबसे मैं नफरत करता हूँ। साहब के पास पैसा, यही तो सभी बता रहे हैं। आँख बचें तो चोरी करेंगे। आप तो ऐसे नहीं हैं।"
"कैसा नहीं हूँ?"
“चोर।"
“नहीं।”
“तो आप पर मेरा भरोसा है। मुझे भी भरोसा चाहिए।"
समय बीतता गया। उसकी बात सुनने की ललक थी मुझे। लेकिन वह बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया।
कुछ दिनों के बाद उसने मुझसे पूछा, “यह बताइए कि कौन-सी हरकत दर्दनाक है, चोरी या कत्ल?"
"दोनों।”
“तो भी।”
"कोई तो भी की भी नहीं, दोनों बराबर हैं।"
कुछ पल वह चुप रहा और फिर उसने पूछा, “चोर से सब नफरत करते हैं और हत्यारे...से...”
"हत्यारे से डर।"
"फिर भी वह होशियारी की बात है न?"
“यही होशियारी है?"
"नहीं, मगर चोर को देखकर थूकने को मन करता है।"
"अच्छा, रहने दो। आप इनमें से किसे पसन्द करते हैं?"
वह हँस उठा। जब उसे मालूम हुआ कि मैं ध्यान से उसे देख रहा हूँ तो चल पड़ा।
उस पहाड़ के ऊपर बैठे एक दिन उसने अपनी एक कहानी सुनायी। उसके दर्द की कई वजह हैं। वह एक नामी चोर का बेटा है। माँ नादान थी। तीन भाई-उन्हें वह बहुत प्यार करता था। तब उसकी आयु पाँच वर्ष की थी। एक दिन रात के वक्त वह जाग पड़ा। दीये के सामने आँखों को चमकाने वाला ढेर। उसके पास पिताजी! उस छोकरे की आँखें फिर बन्द हो गयीं। एक और दृश्य अदालत है। कठघरे में पिताजी प्रणाम मुद्रा में खड़ा हुआ है। और वह छोकरा कठघरे में। अदालत से प्रश्न मिला, “झूठ बोलोगे. बेटे?"
“नहीं।"
“झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है?"
"भगवान बिगड़ जा सकता है।"
उसने नींद से जागकर जो दृश्य देखा, उसका ब्यौरा दिया।
“पिताजी से प्यार नहीं?"
"हाँ, है।"
पिताजी कठघरे में पत्थर की मूर्ति जैसा खड़ा हुआ है। अपने परिवार के लिए उसने चोरी की थी जिसमें उसका बेटा भी है। माँ के साथ भीख माँगता फिरा। फिर एक दिन किसी फाटक पर की माँ की आखिरी नींद की याद भी उसे है। भाई एक गाड़ी के पीछे भाग गया। दूसरा कूड़ा-कचरे में अन्न की खोज करता फिरा। फिर मिला नहीं। उसने पूछा, “आप बताइए, मैंने क्या किया?"
“अपने पिताजी के विरुद्ध बयान दिया।"
"हाँ।"
“उसका दुःख है?"
"नहीं।"
"क्यों?"
“चोरी करना ठीक नहीं। हर कोई अपने लिए काम करता है, काम करना है। फिर कमाना है। चोरी करने वाले को मारना चाहिए।"
तब उसका चेहरा देखना ही था, कैसा डरावना था!
मैंने पूछा, “आपको यह सूझा कैसे?"
“यों ही, मुझे वह ठीक ऊँचता नहीं। माँ भी पसन्द नहीं करती थी।" कुछ देर तक वह अपने खयालों में डूबता रहा और कहा, “हम आप से भरोसा करेंगे। आपको भी चैन मिलेगा।"
“आपको कैसे मालूम कि मुझे चैन नहीं है?"
“वह...मेरी भी थोड़ी-सी अकल है। एक पढ़ा-लिखा क्यों इस जंगल में आए, आपको किताब पढ़ते हुए मैंने देखा है।"
वह तुरन्त चला गया।
मुझे महसूस हुआ कि सब कुछ साफ हो रहा है।
बाद में भी कई दफा उसने चोरों के प्रति नफरत भरे शब्द सुनाये हैं। पूरी अहमियत के साथ उसने कहा था। वह यही चाहता था कि मैं यह बताऊँ कि कत्ल से बढ़कर चोरी बेहतर काम है। अक्सर वह अपना प्रश्न दुहराया करता। उसने यहाँ तक कहा कि चोर को मारने का प्रावधान कानून में होना चाहिए।
उसने कई प्रदेश देखे हैं। वह कई प्रकार के जुल्म के बारे में जानकारी रखने वाला है। मुजरिमों से अच्छा-खासा रिश्ता भी था। कई कहानियाँ उसने सुनायीं तब भी वह यही कहता रहा कि आपस में भरोसा रखा जाए।
"मुझे आप पर भरोसा है।”
"नहीं।" उसने सिर हिलाया।
उसने एक हत्यारे की कहानी सुनायी। उसे ज्यादा जुल्म करने से वह बचा पाया। वजह यही है कि हत्यारे ने उस पर भरोसा रखा था। मैंने कहा, "मैं हत्यारा नहीं हूँ।"
एक दिन उसने कहा, “मैं दूसरों को तसल्ली दे सकता हूँ लेकिन..."
"खुद को तसल्ली नहीं दे पा रहे हो, यही न?"
उसने हामी भरी, “आपको मालूम है? जुल्म करने वाला सोते वक्त रो पड़ता है और किसी को देखकर भी डरने लगता है, जुल्म सचमुच न करें। वह अपने पर का जुल्म है किसी गैर से नहीं।”
“आप भी रोते हैं?"
"लगेगा कि अकसर वह दिखाई देता है।"
“आपने सही बात कही। मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं कि आपने कुछ नहीं किया है। यह कैसे हो सकता है?"
“आपने क्या किया है?"
“वह रुआंसी। हाय! अब भी मैं सुनता हूँ। कभी-कभी जंगल से होकर जाते समय वह आवाज सुनाई पड़ती है। आपको खून का जमा हुआ दृश्य दिखाई पड़ रहा है?"
"नहीं।"
“फिर?”
“मैं बता सकता कि आप किस रुआंसी के बारे में बता रहे हैं।"
“बताता हूँ, आइए।" वह उठकर चलने लगा। वह एक गहन गर्त में उतर गया। काफी तकलीफ उठाकर ही मैं उतर सका। उसके लिए कोई तकलीफ नहीं। आखिर हम उसके निचले पर्त पर पहुँच गये। मुश्किल से चेहरा भी दिखाई देता था। रोशनी बहुत कम थी।
एक छोटी-सी नदिया जोरदार आवाज में बहती चली जा रही थी। वह कहाँ से किस ओर जा रही है, पता नहीं। यही उसका पड़ाव है। मुझसे बाहर रुकने के लिए कहकर वह गुफा में घुस गया।
झिल्लियों की अनवरत आवाज और उसकी अनुगूंज । हवा के धीमे झोंके के साथ बदबू बह आयी। किसी जंगली जानवर के मुँह की बदबू-सी लगी। मैं कहाँ खड़ा हूँ। कुछ पल के लिए सारे-के-सारे की याद आयी। अगर जिन्दगी यहीं पर खत्म हो जाती तो किसे पता होता।
कुछ देर बाद वह गुफा में से बाहर आया। कोई चीज उसने सीने से लगायी है। वह एक पत्थर पर रख दी गयी। वह एक थैली थी। उसने थैली खोली। आभूषण! मैं विश्वास नहीं कर पाया। उसने हँसकर बताया, "मेरी चोरी का माल नहीं।"
"तो?"
“यहाँ तीन साल पहले मेरी तरह एक मोटा-तगड़ा आदमी आया था। उसने चोरी की थी।"
"आपने उससे चोरी की?"
"नहीं।" उसने थैली फिर ठीक से बाँधी।
"मैं यह इसके मालिक को दे दूँगा।"
वह वापस गुफा के भीतर घुस गया। कुछ देर बाद वापस आया। मुझसे आने को इशारे से बताया। मैं चला। मैं जिस रास्ते से होकर आया था, उसी से होकर चढ़ नहीं पाया। वह एक बन्दर के समान बहुत जल्द चढ़ गया।
एक भीषण दृश्य को देखकर मैं रुक गया। एक आदमी का कंकाल पड़ा हुआ था। मैंने उस पर नजर गड़ायी। पल...एक...दो...तीन वह भी मुझे घूर रहा था। उसकी मुसकराहट ओझल हो गयी। लगा कि वह रोने जा रहा है। उसकी आँखें करुणा चाह रही हैं। उसने प्रणाम किया। अधिकार के सामने उसने घुटने टेके।
"तुमने उसकी हत्या की थी?" मैंने पूछा।
वह गिड़गिड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ। उसका मुँह आधा खुला हुआ था। मुझे घूरते-घूरते वह पीछे की ओर चला।
“खबरदार जो हट गया तो।” मैंने चीखा।
रस्सीदार लता को पकड़कर वह नीचे उतर गया। मैं सहम-सा गया। उस गहन गर्त में से व्यंग्य भरी पैशाचिक हँसी की अनुगूंज सुनाई पड़ी। फिर उसे आज तक किसी ने नहीं देखा है।