चतुरसेन (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ

Chatursen (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan

डीटीपी किये गये कागज के किताओंको चतुरसेन की ओर फैंक कर खीज भरी आवाज में शोध-कार्य के निर्देशक वाल्मीकि सर ने कहा – “चतुरसेन शर्मा, तुझ जैसा शोधकर्ता पीएच.डी. पाने के लिए योग्य नहीं है । इस तरह के आलेख क्या पीएच.डी. डिग्री पाने के लायक है। शोध-कार्य के नाम पर यहाँ एक तमाशा लगा रखा है जा, निकल जा मेरे सामने से ।“

चतुरसेन अपमान का जहर पीकर कागज के किताओंको समेटते हुए सर् के चेम्बॅर से बाहर निकल आया । वाल्मीकि सर् की इस तरह की कठोर भर्त्सना चतुरसेन शर्मा को तीखी छुरी से गोदे जाने की तरह लगी । ऐसे चिडचिडे स्वभाव वाले सर् को उसने अपने छात्र-जीवन में पहले कभी नहीं देखा था । वह जितनी बार वाल्मीकि सर् के पास गया है, हमेशा नकारात्मक बातें ही सुनने को मिली हैं ।

पीएच.डी. की थेसिस के दाखिल करने की तारीख जितना निकट आ रही थी, चतुरसेन के मन में उतना ही भय उमड़ रहा था । उमड़ने का कारण भी था । नौकरी के लिए उसकी उम्र गुजरती जा रही थी । अनिता और वह दोनों ने एक साथ पीएच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन किया था । अनिता साल भर पहले पीएच.डी. की डिग्री पाकर एक निजी कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी प्रारंभ कर चुकी है, लेकिन चतुरसेन उसी तरह शोध-कार्य के चक्कर में फँसा हुआ है ।

अगले ही पल चतुरसेन ने सोचा कि वह एक लड़की क्यों नहीं हुआ । एक लड़की होता तो सर् से होशियारी के साथ अपना काम हासिल कर लिया होता, जिस तरह अनिता ने किया है । उसने देखा है कि जब भी अनिता सर् के चेम्बॅर में जाती थी, उस पर सर् किस तरह फिदा हो जाते थे और अपनी मर्दानगी को जाहिर करने के लिए पूरे दम से जुट जाते । अनिता को कुरसी में बैठने के लिए कहकर उसके साथ घण्टों बतियाते । हँसते हुए मजेदार बातें कहते । लेकिन उसके जाने से सर् ने कभी उसे कुरसी में बैठने के लिए कहा नहीं है । चतुरसेन उसी तरह लम्बे समय तक खड़े-खड़े सर् से सोच-समझ कर बातचीत करता । बातचीत के समय सर् का चेहरा काफी भयंकर दिखाई पड़ता । सर् के उस सूखे, खीज भरे, गंभीर चेहरे को देख कर चतुरसेन खूब डर जाता । डर और भय से मुक्त होने के लिए वह मन ही मन प्रभु हनुमान से प्रार्थना करता । उसे महसूस होता मानो बाल्मीकि सर् उसके भविष्य को रौंद डालना चाहते हों ।

वाल्मीकि सर् के चेम्बर में जाने से पहले भगवान् के पास वह सिर्फ इतनी मिन्नत करता, ’हे, भगवान् ! सर् आज मुझ पर रीझ जाएँ ।“

लेकिन उसकी इस तरह की चाह कभी पूरी होती नहीं थी । वह जितनी बार सर् के चेम्बॅर में गया है, सिर्फ डाँट-फटकार के अलावा उसे कुछ नहीं मिला है । उसने ऐसा कभी महसूस नहीं किया कि सर् उस पर खुश हैं ।

इससे पहले उसने प्रभात सर् के निर्देशन में एम्.फिल. की डिग्री प्राप्त की है । प्रभात सर् वाल्मीकि सर् की तरह गुस्सैल स्वभाव के व्यक्ति नहीं है। वे एक संवेदनशील व्यक्ति हैं । उनकी सहायता और सहानुभूति पाकर चतुरसेन ने आसानी से एम्.फिल. की डिग्री हासल की थी, लेकिन वाल्मीकि सर् .......।

चतुरसेन की नजर में वाल्मीकि सर् एक अच्छे इंसान नहीं हैं । उसके हिसाब से सर् एक बेकार आदमी हैं । लड़कियों के प्रति सर् की कमजोरी है । रिेजर्वेशॅन के कारण नौकरी पाकर वे आज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बन गये हैं । सर् का जैसा केरियर है, रिजर्वेशन नहीं होता तो वे कहीं चपरासी या प्यून की नौकरी कर रहे होते ।

चतुरसेन ने कई बार गाइड बदलने की कोशिश की है, लेकिन कोई भी प्राध्यापक वाल्मीकि सर् के भय से राजी नहीं हुए ।

चतुरसेन ऊँची जाति का लड़का है । वह रोज सुबह और शाम पूजा-पाठ करता है । एक घण्टा ध्यान में बैठता है । प्रार्थना के समय कभी-कभी उसके मन में आता कि वह प्रभु से यह माँगे कि वाल्मीकि सर् की जिन्दगी में कोई दुर्घटना घट जाए । दुर्घटना में सपरिवार उनकी मौत हो जाए, किन्तु अपने परिवार के संस्कार के कारण उसने भगवान् के सामने ऐसी इच्छा जाहिर नहीं की है ।

यूनिवर्सिटी रिसॅर्च एलिजबिलिटि टेस्ट पास होने के बाद विभाग के किसी और सर् का स्लट खाली नहीं था । इसलिए वह मजबूर हुआ था वाल्मीकि सर् को शोध-कार्य के निर्देशक के रूप में स्वीकार करने के लिए । अब वह कर क्या सकता है? चतुरसेन की तकदीर साथ दे नहीं रही है । इसके लिए वह भगवान् को दोष दे रहा था, या अपनी तकदीर को कोस रहा था ।

वाल्मीकि सर् की हर किस्म की बेगारी चतुरसेन करता था । पीने के लिए पानी लाने से लेकर नजदीक की दुकान से चाय लाता था । उस समय दूसरे सहपाठी ठिठोली करते हुए कहते थे – “देखो भाइयों ! चन्द्रगुप्त निकल पड़े चाणक्य की सेवा में ।"

गुरु की सेवा करना कोई बुरा काम नहीं है, फिर भी दोस्तों की हँसी-ठिठोली से वह खुद को अपमानित महसूस करता था । मन में एक सवाल उठता था कि वह सर् के लिए लाए हुए पानी और चाय में क्या जहर मिला दे?

वाल्मीकि सर् को सबक सिखाने के लिए कई तरकीबों को अपनाने के बावजूद वह विफल हो गया था । कई बार छात्र संघ के नेताओंके पास जाकर सर् के खिलाफ फरियाद की है । उन्हें उकसाने के लिए ढेर सारी कल्पित और मनगढंत बातें सुनाई हैं । कर्ज-उधार करके उनके लिए शराब-पानी का इंतजाम भी किया हैं । नशे में चूर छात्र-नेताओंने ढेर सारे वादे किये थे, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं हुआ ।

चतुरसेन के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी । मन्दिर के एक साधारण पूजक और भोज में रसोई बनानेवाले का बेटा होते हुए विश्वविद्यालय में पढने के कारण, उसके प्रति सबका आदर था । लेकिन उसकी उम्र जितनी बढ़ती जा रही थी, नौकरी पाने की आशा उतनी ही कम होती जा रही थी । साथ ही लोगों का स्नेह और आदर उतना ही कम होता जा रहा था । सर् ने एक दिन उसे पास ही के एक होटल से नाश्ता लाने के लिए भेजा । नाश्ता लाकर उसने सर् को दिया । सर् ने नाश्ता करते समय उससे पूछा -

’सुबह से कुछ खाया है कि नहीं ।“ खाने की तश्तरी से दो समोसे निकाल कर सर् ने चतुरसेन को खाने के लिए दिये । खा चुकने के बाद सर् ने कहा -

’चतुरसेन, इस चिट्ठी को लेकर महान्ति सर् को दे आना। पोस्टमैन मुझे दे गया है । सर् अपने रूम में नहीं थे । अभी आ गये होंगे ।“

महान्ति सर् को चिट्ठी देने के लिए चतुरसेन सोशॅल साइन्स की बिल्डिंग की दूसरी मंजिल में पहुँचा । “कहकर विनय वचन, तोषण करो प्राणियों का मन” - भागवत की इस वाणी का सदुपयोग करते हुए असन्तुष्ट छात्रों को संतुष्ट करने में महान्ति सर् पारंगत हैं । उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता था कि पानी पर ही मलाई उभर रही है ।

चतुरसेन ने अत्यंत विनम्रता के साथ कहा - ’मे आइ कॅम इन सर्।“ महान्ति सर् ने अपने उसी पुराने ढंग से ऊँची आवाज में पूछा - ’कौन?“

चतुरसेन ने उत्तर दिया - ’सर् मैं। वाल्मीकि सर् ने मुझे भेजा है । मैं आपकी चिट्ठी लेकर आया हूँ।“

महान्ति सर् के हाथ में चिट्ठी देकर चतुरसेन लौट रहा था । सर् ने पूछा- ’क्या खबर है? तेरा शोध-कार्य कहाँ तक गया । नतीजा कब मिलेगा?“

महान्ति सर् की इच्छा थी कि वाल्मीकि सर् के बारे में चतुरसेन कुछ कहे । वे विभाग के दूसरे प्राध्यापकों के बारे में जानकर काफी खुश होते थे । दूसरों की चर्चा से उन्हें खूब आनन्द मिलता था । बात को कुरेद कर महान्ति सर् कुछ लिखने का अभिनय करने लगे, मानो वे दूसरों के बारे में कुछ सुनना चाहते नहीं हों । लिखते समय वे दो बार चतुरसेन के चेहरे को निहारने लगे । चतुरसेन ने अनुभव किया कि महान्ति सर् उसके मुँह से वाल्मीकि सर् के बारे में कुछ सुनना चाहते हैं । इसलिए उसने कहना शुरू किया - ’सर् ! मैं ऊँची जाति का लड़का हूँ । वाल्मीकि सर अपने खाने की तश्तरी से नाश्ता निकाल कर मुझे खाने को देते हैं.... और...।“ इतना कह कर चतुरसेन चुप रहा ।

चतुरसेन को चुप होते देखकर महान्ति सर् ने उसे फिर से उकसाया - ’कहो, क्या कहना चाहते थे । सच बात को बताने में इतना घबराते क्यों हो। हम तुम्हारे साथ हैं । क्या हुआ है बताओ।“

महान्ति सर् के उकसावे में आकर चतुरसेन और उत्साहित हो उठा । उसने कहना शुरू किया – “वाल्मीकि सर् मेरे शोध-कार्य में सहयोग नहीं कर रहे हैं । डाँटते-फटकारते हैं, अपमानित करते हैं । मुझे हमेशा परेशान करते रहते हैं । अनिता और मैंने एक साथ पीएच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन किया था । अनिता का काम काफी दिनों से खत्म हो चुका है । अनिता के साथ सर् के संपर्क को आप जानते ही हैं ।“

वाल्मीकि सर् के खिलाफ सुनने के बाद महान्ति सर् जिस तरह अन्दर ही अन्दर खुश हो रहे थे, चतुरसेन को उसका पता चल नहीं पा रहा था । महान्ति सर् बाहर से वैसी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर नहीं रहे थे । सब कुछ सुनने के बाद महान्ति सर् ने कहा – “देखो, मैं साधारण वर्ग का हूँ । इसलिए आज तक रीडर पोस्ट में हूँ । वाल्मीकि सर् आरक्षण के कोटा में प्रोफसर और विभागाध्यश हो गये हैं । हम लोग भी उनके व्यवहार से परेशान हो उठे हैं । उस आदमी के पास संस्कार नाम की कोई चीज है ही नहीं । बिना किसी बात के झगड़ा करता है । हम लोगों को दलित-उत्पीडन केस में फँसा देने की धमकी देता है । बेटा, यह कलियुग है । विश्वविद्यालय के नियम-कानून के बारे में उसे कुछ पता नहीं है । वह मुझ से कई मामलों में सलाह लेता है । लेकिन सलाह अपने रास्ते और वाल्मीकि सर चलते हैं अपने रास्ते। उस आदमी का ईगो काफी है । करिअॅर पूरी तरह कमजोर । मैट्रिक से लेकर बी.ए. तक गाँधी श्रेणी में पास हुआ है । एम्.ए. में मात्र पचपन प्रतिशत मार्क । सब कुछ रिजेर्वेशॅन का कमाल है । फिर भी वह हमारा विभागाध्यक्ष है । तकदीर को कोसने के अलावा और कर क्या सकते हैं । महान्ति सर् एक ही साँस में वाल्मीकि सर् के खिलाफ बहुत कुछ कह गये । चतुरसेन सुन कर काफी खुश हो गया ।"

चतुरसेन ने महान्ति सर् को दिलासा देने के लिए कहा – “सर्! आप दूरदर्शन में आते हैं, रेडियो में कहते हैं, आपके आलेख अखबारों में प्रकाशित होते हैं । आपके शोध के आलेख बडी मात्रा में इंटॅरनेट में उपलब्ध हैं । आपकी लिखी गयी किताबें कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में हैं । वास्तव में आपको ही विभाग का अध्यक्ष होना चाहिए था । इस तरह का एक नीच आदमी आपके सिर पर बैठा हुआ है । हमें सुनकर दुःख होता है । आपको कैसा नहीं लगा रहा होगा।“

चतुरसेन की बातें सुनकर सर् के गले से करुणा से भरा एक वाक्य निकल आया – “यह सब कलियुग की कथा है।"

महान्ति सर् के मगरमच्छ के आँसू देखकर चतुरसेन ने एक झूठी बात जोड़ते हुए कहा – “सर् आप जानते हैं कि नहीं? वाल्मीकि सर् ने धर्म परिवर्तन किया है । कानून के हिसाब से धर्म परिवर्तन करने से जाति का रिजॅर्वेशन कट जाना चाहिए । धर्म परिवर्तन के बाद भी उनका जाति का रिजॅर्वेशन कायम है और उसका फायदा भी उठा रहे हैं । सर् को मैंने दूसरे धर्म की धर्मिक संस्था में जाते हुए देखा है।“ इस बात को सुनकर वाल्मीकि सर् पर महान्ति सर् का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया था ।

दूसरों की बुराई सुनने के बाद लोग कैसे यों ही खुश हो जाते हैं, महान्ति सर् इसका एक जीवंत उदाहरण हैं । सबकुछ सुनने के बाद एक लम्बी साँस भरते हुए महान्ति सर् ने कहा - ’ठीक है, जाओ । सर् से कहना कि मुझे चिट्ठी मिल गयी । मैं सर् से बात करूँँगा और तेरे लिए अनुरोध करूँगा ।“

महान्ति सर् का झूठा दिलासा सुनकर चतुरसेन लौटा । मन-ही-मन वाल्मीकि सर् को गाली देना शुरू किया । चतुरसेन के लौटने के बाद वाल्मीकि सर् ने उसे फिर बैंक जाने के लिए कहा । बैंक में प्रभात मिश्र सर् के साथ मुलाकात हुई । मिश्र सर् को चतुरसेन ने फिर से अपनी करुण कथा कहना शुरू किया, लेकिन मिश्र सर् ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

चतुरसेन की बार-बार अतिशय विनती सुनने के बाद एक दिन वाल्मीकि सर् ने चतुरसेन से कहा – “तुम्हारा जिला यहाँ से बहुत दूर है । इस तरह बीच-बीच मे आने से तुम्हारा शोध-कार्य खत्म नहीं होगा । इतने दूर से हर सप्ताह में आना भी संभव नहीं है । तुम होस्टल में क्यों नहीं रहते।“ चतुरसेन ने उत्तर में कहा – “सर्! मैंने होस्टल के लिए अर्जी दी थी। गवेषणा होस्टल के कमरों की संख्या बहुत कम है । इसलिए मुझे कमरा नहीं मिला । हमारी अर्थिक अवस्था काफी खराब है । शहर में किराये का मकान लेकर रहना मेरे लिए संभव नहीं है । अविवाहित युवकों को शहर में आसानी से किराये का मकान मिलता नहीं है।“

वाल्मीकि सर् ने तनिक सोचने के बाद कहा – “मेरे एक मित्र इस शहर में रहते हैं । उनकी कोठी के ऊपरवाली मंजिल में एक कमरा खाली है । वे मेरे काफी नजदीक के मित्र हैं । यदि मैं कहूँगा तो वे खूब कम किराये में उस कमरे को देने के लिए राजी हो सकते हैं।“ वाल्मीकि सर् ने फौरन उस आदमी को फोन लगाया, और चतुरसेन से कहा कि तू शाम तक जाकर उस आदमी से बातचीत कर ले । चतुरसेन समझ नहीं पा रहा था कि उसकी इच्छा के खिलाफ सर् उसे इस तरह क्यों झंझट में डाल रहे हैं । वह आज गाँव लौटना चाह रहा था । बॉयज होस्टल में एक दोस्त के पास वह पिछले तीन दिनों से रह रहा था । आज फिर उसे अनुरोध करना होगा ।

शाम को वह सर् के मित्र के पास जाने के लिए निकला । शहर के उपांत इलाके में एक पक्के मकान में पहुँच कर चतुरसेन ने उस आदमी से मुलाकात की । मकान के सामने लगे नामपट्ट से पता लग रहा था कि वह आदमी सर् की ही जाति और गोत्र का है । अब वह क्या करेगा ? सर् की बात की अवहेलना करने का मतलब है, आफत को मोल लेना । उस आदमी से बातचीत करते समय चतुरसेन यह प्रमाणित करने की कोशिश कर रहा था कि वह प्रगतिवादी, आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष है ।

गाँव जाकर वह अपना असबाब ले आया । मकान-मालिक के पास खुद को प्रगतिवादी के रूप में प्रस्तुत करनेवाला चतुरसेन गृह-प्रवेश के पहले दिन से ही नीचे के कुएँ से आनेवाले पानी को पीना नहीं चाहता था । क्यों कि उसके कमरे में जिस नल से पानी पहुँचता है, वह नल मकान-मालिक के पखाने से होकर जाता है । यह जानने के लिए कि सुबह और शाम मालिक के घर में आरती और पूजा-पाठ होता है कि नहीं, वह जीने के पायदान पर बहुत देर तक बैठा रहता था और गौर किया करता था । घर के अन्दर से कभी उसे किसी मंत्र का उच्चारण सुनने को नहीं मिला । वह मकान-मालिक के घर के अन्दर प्रवेश करना चाहता नहीं था । उसका प्रमुख कारण यह था कि कहीं मकान-मालिक के परिवार का कोई सदस्य उसे कुछ खाने का अनुरोध न कर दे । इस भय से वह अपने कमरे से बाहर आते समय और बाहर से कमरे में जाते समय वड़ी होशियारी से आया-जाया करता था । उसने अपने मानसिक स्तर में खुद को तैयार कर लिया था कि यदि कभी वैसी परिस्थिति उसे मजबूर करे, तो वह बहाना बनाते हुए कह देगा कि आज उसका पेट खराब है या उपवास है । यदि परिस्थिति और ज्यादा मजबूर करे, तो वह नाश्ते की चीजों को बैग में छिपाकर ले जाएगा । फिर वहाँ गाय-भैंस या पशु-पक्षियों को खिला देगा । लेकिन किसी दिन नाश्ते के लिए आग्रह करने का मौका आया ही नहीं ।

मकान-मालिक की हर ताकीद का पालन वह बारीकी से करता था । पहले दिन से ही मकान-मालिक ने उसे सुना दिया था कि वह जोर से चिल्लाएगा नहीं, यार-दोस्तों को कमरे में लाएगा नहीं, रात को ज्यादा देर से लौटेगा नहीं । सिगरेट या किसी नशीली चीजों का सेवन नहीं करेगा । पर इन सब शर्त को बताने का मूल कारण क्या हो सकता है । कारण को ढूँढने के लिए चतुरसेन की आँखों के कोटर में से दोनों पुतलियाँ घूमने लगीं । अंत में चतुरसेन को कारण का पता चल गया । पहले उसने जो अनुमान लगाया था, वह सच साबित हुआ । छत के आधे हिस्से में फूलों के गमले कतारों में रखे हुए थे । गीले कपड़े सुखाने के लिए लम्बा तार बँधा हुआ था। एक दिन अचानक उसने मकान- मालिक की बेटी को कपड़े सुखाने के लिए ऊपर आते हुए देखा । उसके नीचे उतर जाने के बाद चतुरसेन कुतूहल के साथ सुखाये गये कपड़ों के पास गया । उसने सुना था कि नीच जाति के लोगों के बदन से घिनौनी गंध निकलती है । कुतूहल के साथ वह मकान-मालिक की बेटी डालिमा के सूख रहे सलवार के पास गया और उस पर हाथ फेरने लगा । गंध के बदले उसने कसमसाते यौवन वाली एक युवती की सुगंध को पाया । वाह, कैसी सुगंध ! इस तरह की गंध को उसने कभी सूँघा ही नहीं था । वह कमरे में लौट कर बार-बार अपनी हथेलियों को सूँघने लगा। मन्दिर से पिताजी के लाये हुए गाय के घी को खा चुकने के बाद जिस तरह काफी देर तक हाथ में सुगंध रहती है, उस तरह युवती की गन्ध ने उसे काफी देर तक उलझा रखा ।

एक छोटे मन्दिर के पूजक होने के कारण पिताजी हर महीने समय पर रुपये भेज नहीं पा रहे थे । घर से रुपये देर से आते थे । महीने के आखरी कुछ दिन वह ज्यादा परेशान हो जाता था । परेशानी से बचने के लिए वह शहर में जितने सब ज्यादा परिचित व्यक्ति, उनके घर पहुँच जाता था। उन्हें कर्ज-उधार माँगता था । जिनके घर में चतुरसेन भोजन करना चाहता था, उनके घर में भोजन का समय आने तक वहीं बैठा रहता था । जब वे भोजन करने के लिए तैयार होते थे, तब शिष्टाचार की दृष्टि से विदा माँगते हुए कहता था –“मैं जा रहा हूँ । आप लोगों का काफी कीमती समय अकारण नष्ट किया । आप लोग भोजन कीजिए । मैं अपने कमरे में जाकर रसोई बनाऊँगा ।“

चतुरसेन की चतुर बातों को कुछ लोग समझ लेते थे और कहते थे – “अब जाकर रसोई कब बनायेंगे । हमारी रसोई पहले से हो चुकी है । खाकर जाइए।“

चतुरसेन का उद्देश्य पूरा हो जाता था । वह खाना खाकर खुशी से घर लौटता था ।

किन्तु कभी-कभी कुछ लोग चतुरसेन के गुरु प्रमाणित हो जाते थे। उनसे उत्तर मिलता था – “हाँ, जल्दी जाओ । दाल और रोटी बनाने में कितना समय लगेगा?”

खुद को निरीह प्रमाणित करने के लिए चतुरसेन उत्तर देता था – “सुबह की दाल बची है । सिर्फ चार रोटियाँ बनानी हैं । कम समय में तैयार हो जाएगा।“ वहाँ से दुःखी मन से लौटते समय रास्ते में सरकार के पाँच रुपये की थाली का सदुपयोग करता था या फिर कमरे में पहुँच कर चिउड़ा और मुरमुरा खाकर लोटा भर पानी पीकर सो जाता था ।

वह अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए मन्दिर के पूजक के रूप में काम कर रहे अपने पिता को दोषी नहीं ठहरा पा रहा था । अभाव के कारण एम.फिल. पास करने के बाद काफी दिनों तक वह गाँव में ही पड़ा रहा । उसके बेकार जीवन के रस को ज्यादा पी रहे थे गाँव के अनपढ़ जवान । फिर से एक बार शहर लौट आने के कारण गाँव के लोगों के मन में नानाविध आशंकाएँ उपज रही थीं । चतुरसेन को कहीं कोई नौकरी मिल गयी क्या ! किसी को इस बात का पता नहीं था कि वाल्मीकि सर् की डाँट-फटकार के कारण शोध-कार्य को खत्म करने के लिए वह शहर में रहने के लिए मजबूर है ।

चतुरसेन का सारा सुख कई तरह की नौकरियों के लिए दी गई लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के नतीजे के पास अटक जाता था । एक उज्ज्वल भविष्य के लिए देखे गये सारे सपने धीरे-धीरे टूट रहे थे । दिन पर दिन सरकारी नौकरी के मिलने की आशा कम होती जा रही थी और चतुरसेन की उम्र बढ़ती जा रही थी । कई नौकरियों की परीक्षाओंकी तय की गयी उम्र की सीमा को वह पार कर चुका था । कुछ नौकरियों की उम्र की सीमा के लिए सिर्फ कुछ ही महीने बाकी थे । भले ही वह गाँव के वातावरण से आया था, पर प़ढाई मंे वह कमजोर नहीं था । यूजीसी का नेट उसे मिला था और सफलता के साथ उसने एम.फिल. की डिग्री हासिल की थी । परिवार की गरीबी और भविष्य की अनिश्चितता के कारण उसमें एक रिक्त स्थान पनप रहा था । उस रिक्त-स्थान को भरने के लिए उसके सामने डालिमा उपस्थित हुई थी ।

चतुरसेन समझ नहीं पा रहा था कि वह दिन पर दिन डालिमा की ओर क्यों आकर्षित होता जा रहा है । छत पर आने के लिए बनी सीढ़ी के पायदानों पर डालिमा की पदचाप को सुनकर उसका हृदय इतना पुलकित क्यों हो उठता है । डालिमा फूलों के गमलों में पानी देने और कपड़े सुखाने के बहाने बार-बार छत पर आती थी । डालिमा के सकारात्मक हाव-भाव के कारण संपर्क और आगे बढ़ता गया । डालिमा के पिताजी शहर में एक जूते की दुकान में और भाई राज्य के बाहर एक कंपनी में नौकरी करते हैं । डालिमा ने समाज विज्ञान में एम.ए. पास किया है और उसे वजीफा मिलता आया है।

नीच जाति के कारण डालिमा के घर में पानी पीने, नाश्ता करने की इच्छा न रखने वाला चतुरसेन दिन पर दिन डालिमा के सामने स्मार्ट बनने की कोशिश करने लगा । डालिमा का जन्म दिन कब है, उसकी पसंद के हिरो और हिरोइन कौन हैं, किस रंग के कपड़े-लत्ते वह पहनना चाहती है, इन सब बातों को जान कर वह डालिमा के मन पर विजय पाने की कोशिश करने लगा। उसने बार-बार डालिमा के आगे यह प्रमाणित करना चाहा कि जाति और गोत्र में उसका विश्वास नहीं है । शूद्र जाति का शंभूक तपस्या करने के कारण राम के राज्य में एक ब्रह्मण के पुत्र की मृत्यु हुई थी । बाद में धर्म उल्लंघन का कारण दिखाकर राम ने जो उसकी हत्या की थी, वह एक भूल थी । उसने डालिमा से यह बार-बार कहा है कि विदुर, वेदव्यास की माता सत्यवती और रामायण के रचयिता वाल्मीकि शूद्र थे । वे अपने महत कार्य़ के कारण ही इतना महान् हुए हैं । वह नीतिवाणी सुनाते हुए कहता कि महाभारत युद्ध में कृष्ण ने रथ का सारथी बन कर किस तरह एक शूद्र की भूमिका का निर्वाह किया था । फिर वह अम्बेदकर को अपना आदर्श पुरुष बताता । इन सब बातों के मूल में चतुरसेन की एक ही अभिलाषा थी – डालिमा को अपना बनाना ।

कुछ ही दिनों में चतुरसेन डालिमा के गहरे प्रेम में डूब गया । डालिमा के लैपटॉप का इस्तेमाल करना, इण्टरनेट के लिए उसके वैयक्तिक हॉटस्पॉट का इस्तेमाल करना, भूख लगे तो डालिमा के यहाँ नाश्ता करना आदि चतुरसेन का रोजमर्रे का काम हो गया था । प्राध्यापक की नौकरी के लिए ओड़िशा लोकसेवा आयोग के विज्ञापन को देख कर चतुरसेन के मन में आवेदन करने की प्रबल इच्छा हुई । लेकिन फीस भरने के लिए आवश्यक पैसे उसके पास नहीं थे । यार-दोस्तों को माँग कर और पिताजी को फोन करके वह निराश हुआ । कुछ सोच नहीं सका कि क्या करेगा । चारों ओर से निराश होकर दुःखी मन से चतुरसेन छत पर बैठा हुआ था । सूख रहे कपड़ों को लाने के लिए जब डालिमा छत पर गयी, तो देखा कि चतुरसेन चिंतित होकर छत के एक कोने में हताश बैठा है । यह देखकर डालिमा ने पूछा – “क्या हुआ है तुम्हें ? इस तरह तुम्हारा मन मुरझा क्यों गया है? सर् ने आज डाँटा-फटकारा है क्या?”

चतुरसेन ने अपने अभाव की बात खुलकर कही – “ओड़िशा लोकसेवा आयोग की ओर से प्राध्यापक की नौकारी के लिए विज्ञापन निकला है । आवेदन करने की फीस एक हजार रुपये हैं । आवेदन करने की बात सोचता हूँ । पर आवेदन करने की फीस मेरे पास नहीं है । ऑनलाइन आवेदन करने के लिए सिर्फ एक दिन बाकी है।“

डालिमा ने दिलासा देते हुए कहा – “ओह! यह बात है । मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक मिले हुए वजीफे के रुपये मेरी बैंक-खाता में जमा हैं । मुझे खर्च करने का मौका नहीं मिल रहा है । पिताजी ने कभी उन रुपयों के बारे में पूछा नहीं है । पिताजी ने सिर्फ एक बार कहा था कि उन रुपयों को रहने दो, तेरी शादी के समय काम आयेंगे।“

डालिमा से रुपयों की सहायता पाकर चतुरसेन ने उसी दिन प्राध्यापक की नौकारी के लिए आवेदन किया था । वह भी डालिमा के लैपटॉप और मोबाइल से किया । डालिमा के साथ उसका संपर्क बढ़ने के बाद उसकी उदासीनता काफी बढ़ गयी थी । ज्यादातर समय वह खोया-खोया रहता था । वाल्मीकि सर् ने उसकी इस अवस्था को देख कर पूछा था – “अरे शर्मा! तुझे क्या हुआ है । आजकल तू इतना उदास क्यों रहता है?”

चतुरसेन ने जवाब में कहा – “वैसा कुछ नहीं है सर् ! मैं अपने भविष्य को लेकर काफी चिंतित हूँ । कल गाँव से फोन आया था । पिताजी की तबीयत काफी खराब है । वे अब मंदिर में समय पर पूजार्चना करने के लिए जा नहीं पा रहे हैं । मेरे कारण घर का आर्थिक बोझ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । मैं कहीं टिक नहीं पा रहा हूँ । इस बेरोजगार जीवन के कारण मुझे बड़ी पीड़ा होती है । भविष्य मुझे अंधकारमय लग रहा है । सोच रहा हूँ कि इस पढ़ाई को छोड़कर सूरत चला जाऊंगा।“

इस तरह की हताशा की बातें सुनकर वाल्मीकि सर् ने चतुरसेन पर गुस्सा करते हुए कहा – “तुझ जैसा स्कॉलर मुझे जिन्दगी में कभी नहीं मिला था । सिर्फ बहाना बनाने के अलवा तुझे कुछ और पता है । यदि शोध-कार्य में तेरा मन नहीं था, तो फिर एक सीट को दबोच कर बैठा क्यों है? इससे दूसरे शोध-कार्य से वंचित हुए । यदि तेरी इच्छा छोड़ देने की है, तो लिख कर विश्वविद्यालय के अधिकारी को अवगत कर दे । दूसरे विद्यार्थी इंतजार में हैं। कम-से-कम उन्हें मौका मिलेगा।“

सर् को दुःख जताने के लिए जाकर चतुरसेन आफत में फँस गया । सर् के क्रोध का शिकार हुआ । उसने सोचा था कि सहानुभूति की ठण्डी हवा उसकी ओर बह आएगी, लेकिन नतीजा उल्टा हुआ । सोचा कि वाल्मीकि सर् वास्तव में एक हृदयहीन इंसान हैं । उनके पास दया और करुणा नाम की कोई चीज है ही नहीं । प्राध्यापक की नौकरी के लिए चतुरसेन के पास सही समय पर कॉल लेटर पहुँचा । मई के महीने की चिलचिलाती धूप में कटक शहर की कोलतार की सडकें चूल्हे की आँच की तरह गरम लग रही थीं । रिकशे से उतर कर चतुरसेन ने कंटेनमेंट रोड पर बने ओड़िशा लोकसेवा आयोग भवन में प्रवेश किया । उसकी तरह कई प्रत्याशी पहले से जाकर वहाँ साक्षात्कार के लिए बैठे हुए थे । मन में उपज रहे अनजाने भय को दूर करने के लिए तथा मन को तनिक ताजा बनाने के लिए चतुरसेन डालिमा को फोन लगाकर कुछ देर तक गपशप करता रहा । लेकिन उसे यह बिलकुल नहीं बताया कि वह प्राध्यापक का इण्टरव्यू देने आया हुआ है । कहा कि मैं एक सेमिनार में हूँ । मैं पेपर प्रेजॅण्टेशन के बाद तुम से फिर बातचीत करूँगा। फिर इंटरव्यू के लिए अपनी बारी के आने के इंतजार में रहा । उसका मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा था । क्योंकि उसकी जिन्दगी की सारी आशा और आकांक्षाएँ इसी इंटरव्यू पर ही निर्भर थीं । ओपीएससी में प्राध्यापक की नौकरी के लिए उम्र की जो सीमा तय है, उसे पार करने के लिए उसके पास सिर्फ चार ही महीने बाकी थे । जो प्रत्याशी इंटरव्यू देकर अन्दर से निकल रहे थे, उन्हें सब इस उत्सुकता के साथ घेर लेते थे कि किस प्रकार के प्रश्न पूछे जा रहे हैं ।

काफी देर तक इंतजार करने के बाद इंटरव्यू बोऱ्ड के सदस्यों के सवालों का सामना करने की बारी चतुरसेन की आयी । इंटरव्यू हाँल के अन्दर प्रवेश करते ही इंटरव्यू बोर्ड में अपने गाइड़ वाल्मीकि सर् को अचानक देख कर वह जितना आश्चर्य-चकित हुआ था उससे ज्यादा नॅर्वस हो गया था । उसकी रही सही आशा बिलकुल मुरझा गयी थी । वह निराशा में टूट-सा गया और किसी भी प्रश्न का उत्तर सही ढंग से दे नहीं सका ।

इंटरव्यू अच्छा नहीं हुआ था । इसलिए वह दुःखी मन से लौटा था । उसके अगले दिन उसे बिस्तर से उठने की इच्छा नहीं हुई । वह काफी देर तक सोया रहा । चतुरसेन के मन की गहराई में इतना दुःख भरा हुआ था कि उसे कुछ अच्छा लग नहीं रहा था । यह पृथ्वी उसे मानो जहर से भरी हुई लग रही थी । सारा विषाद जैसे उसके शरीर में भर गया था । उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । लग रहा था कि जीने से क्या फायदा?

किसी के फोन कॉल से वह उठ बैठा । वह वाल्मीकि सर् का फोन था। सोचा कि जाएगा या नहीं! बिना इच्छा के वह सर् के पास पहुँचा। सर् ने उसे देखते ही कहा – “शर्मा ! मेरी तरफ से तुझे अनेक अनेक बधाई । तू प्राध्यापक के इंटरव्यू में सफल हुआ है । मुझे पता था कि गाँव के परिवेश में पढ़ कर आया है । तू अंग्रेजी बोलने में काफी कमजोर है । मैं तेरे नॅर्वस होने को देख रहा था । पहले प्रश्न का तेरा उत्तर ही गलत था । इण्डो-चीन संपर्क को लेकर था, जो गलत था । यह इण्डिया-चीन को लेकर संपर्क नहीं है। इण्डो-चीन थाईलैंड, लाओस, काम्बोडिया, विएतनाम आदि देशों को लेकर बना हुआ एक इलाका है, जो फरासियों के शासनाधिन था । वह इलाका है इण्डो-चीन । फिर भी मैंने बोर्ड के सदस्यों से कहकर तेरी नौकरी करवा दी है । इसके लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी । सौभाग्य से बोऱ्ड के सदस्यों में से दो मेरे अंतरंग मित्र थे । उन्हें कहकर तुम्हें ज्यादा मार्क दिया गया । तू सरकारी कॉलेज में प्राध्यापक होगा । मेरी तरफ से तुझे फिर से बधाई। कल तक नतीजा अखबारों में प्रकाशित हो जाएगा । मैंने यह सूचना पहले दी नहीं कि मैं इंटरव्यू बोऱ्ड में बैठूँगा । इसका कारण यह था कि मैं सरकारी गोपनीयता को तोड़ना चाह नहीं रहा था ।“

चतुरसेन सिर्फ सर् के चेहरे को भौचक होकर निहार रहा था । वह अब समझ पाया कि वाल्मीकि सर् कितने महान् हैं । वह सर् को नीच कह कर दूसरों के सामने उनकी नुकताचीनी कर रहा था । अब उसे अपने पाप का प्रायश्चित करना होगा । उसी पल सर् के पैरों पर गिरते हुए उसने साष्टांग प्रणाम किया । तीन बार माथा टेका । कहा कि आप कितने महान हैं सर् ।

वाल्मीकि सर् ने कहा बहुत जल्दी तेरा ज्वाइनिंग लेटर आ जाएगा । यहाँ रहते हुए भी शोध-कार्य समाप्त करने के लिए समय नहीं मिल सका । अब प्राध्यापक की नौकारी करने के बाद समय कहाँ से मिल पाएगा । नौकरी में ज्वाइनिंग करने से पहले इस पीएच.डी की थेसिस को जमा कर दे ।

वाल्मीकि सर् को नौकरी में ज्वाइन करने से पहले थेसिस को जमा करने का वचन देकर वह मन में खुशी लिए नाचते-कूदते, किसी एक गाने को गुनगुनाते हुए सीढ़ी के पायदानों को चढ़ते हुए अपने कमरे में लौट रहा था । डालिमा फूल के गमलों में पानी देने के लिए पहले से ही छत पर थी । चतुरसेन को खुश देखकर डालिमा ने पूछा – “आज तुम इतने खुश क्यों हो! खुशी का कारण जरा मुझे भी सुनाओ।“

चतुरसेन ने उत्तर दिया – “ना, वैसी कोई खास बात नहीं है। गाँव से फोन आया है । पिताजी की तबीयत काफी खराब है । मुझे गाँव जाना होगा। सोच रहा हूँ कि हमेशा के लिए गाँव चला जाऊँगा ।“

हमेशा के लिए गाँव चले जाने की बात सुनकर डालिमा का मन उदास हो गया । कहा – “जाने से पहले तनिक मेरी चिन्ता करो।“

चतुरसेन ने प्यार भरे नयनों से डालिमा की ओर निहारते हुए पूछा – “मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम क्या कहना चाहती हो ।“

डालिमा ने अब की बार खुल कर कहा – “मैं तुम्हें अपनी जीवन साथी बनाना चाहती हूँ ।“

डालिमा के मुँह से विवाह के प्रस्ताव को सुन कर चतुरसेन चौंक उठा। पहले यह बात उसे मजाक की तरह लगी । फिर उसे लगा कि डालिमा उसका इम्तहान ले रही है । डालिमा के प्रत्यक्ष प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए चतुरसेन ने उत्तर दिया – “डालिमा ! आज तक मैंने तुम्हें एक अच्छी सखी के रूप में देखता आया हूँ । विवाह के दृष्टिकोण से मैंने कभी भी तुम्हारे साथ संपर्क को बढ़ाया नहीं है।“

चतुरसेन के उत्तर से डालिमा काफी टूट गयी । दुःख और पीड़ा से टूटते हुए देखकर चतुरसेन ने कहा – “परेशान मत हो! मैं तुम्हारे पास फिर से लौट आऊँगा ।“ डालिमा सिसकियाँ भरते हुए रोने लगी – “मुझे निराश मत करना। मुझे डर लग रहा है । काफी डर लग रहा है । कहीं मेरे सारे सपने पानी के बुलबुलों की तरह मिट न जाएँ।“

“तुम्हें यदि डर लगता है, तो मेरे साथ रेल स्टेशन तक चलो । मैं क्या तुम्हारे यहाँ से छिपकर भाग रहा हूँ?” चतुरसेन के ढाड़स से तनिक तसल्ली मिली थी डालिमा को । चतुरसेन को विदा करने के लिए डालिमा भुवनेश्वर के रेल स्टेशन में गयी थी । भीड़ भरे प्लेटफार्म की रेल-पेल में एक डिब्बे में घुसकर चतुरसेन ने एक सीट ढूँढ़ निकाली । अपना सामान वहीं रख कर खिड़की के पास आकर कहा – “डालिमा, तुम परेशान मत हो! पहुँचते ही मैं जरूर फोन करूँगा।“

डालिमा ने अनुरोध करते हुए कहा - ’फोन करना भूलना मत।“

सिग्नॅल मिलने के बाद ट्रेन ने सरकना शुरू किया । दो हाथ हिलने लगे । धीरे-धीरे दोनों हाथों के बीच का फासला बढ़ता गया । थोड़ी देर बाद साँप के फन की तरह हिल रहे दोनों हाथ अदृश्य होने लगे । ट्रेन के चले जाने के बाद प्लेटफार्म पर ढ़ेर सारे लोग थे, फिर भीr डालिमा खुद को अकेली महसूस कर रही थी ।

घर पहुँच कर डालिमा चतुरसेन के फोन का इंतजार करती रही । एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, कई दिनों तक वह फोन का इंतजार करती रही । फिर भी फोन नहीं आया । बारिश खत्म हो जाने के बाद छतरी जिस तरह बोझ-सी लगती है, स्वार्थ खत्म हो जाने के बाद संपर्क वैसा ही लगता है । इस बीच चतुरसेन के मोबाइल का सिम कार्ड बदल जाने के साथ-साथ उसके फोन का नम्बर भी बदल चुका है। उसका विवाह हो चुका है । वह अपनी पत्नी, माँ और पिताजी के साथ भुवनेश्वर से बहुत दूर एक शहर में रह रहा है । इस बात का आज तक डालिमा को पता नहीं चला है । डालिमा को आजकल कुछ अच्छा नहीं लग रहा है । ना घर, ना बाहर, ना यह शहर, ना यह पृथ्वी, ना यह जीवन, ना ये इंसान । वह महसूस कर रही है कि धीरे-धीरे कोई बीमारी उसे लीलती जा रही है । चतुरसेन के साथ गुजारे गये वे अंतरंग पल याद आते ही डालिमा काफी दुःखी हो जाती है और विषाद की वह छाया और गहरी होती जाती है ।

चतुरसेन सरकारी प्राध्यापक के रूप में एक सरकारी महाविद्यालय में नौकरी कर रहा है । पीएच.डी. की मौखिक परीक्षा देकर डॉक्टर की डिग्री पा चुका है । वाल्मीकि सर् ने भी कभी जानने की इच्छा नहीं की है । इस तरह उनके अध्यापन काल में कई छात्र आये हैं और गये हैं । इस पर उनकी निगाह नहीं है, लेकिन चतुरसेन का चतुर चेहरा याद आते ही वाल्मीकि सर् भी दुःखी हो जाते हैं ।

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