चारुमित्रा (नाटक) : डॉ रामकुमार वर्मा
Charumitra Dr. Ram Kumar Verma
स्थान : कलिंग का शिविर
काल : ईसा पूर्व 261
पात्र
सम्राट अशोक : मगध के सम्राट
तिष्यरक्षिता : सम्राट अशोक की रानी
उपगुप्त : बौद्ध भिक्षु तथा आचार्य
चारुमित्रा : तिष्यरक्षिता की परिचारिका -1
स्वयंप्रभा : तिष्यरक्षिता की परिचारिका -2
राजुक : द्वार-रक्षक
पुष्य : शिविर-रक्षक
स्त्री, प्रहरी आदि
[261 ई.पू. सम्राट अशोक ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष में कलिंग पर चढ़ाई कर दी है। उसका कारण यह है कि कलिंग-नरेश सम्राट अशोक की सत्ता स्वीकार करने में अपना अपमान समझते रहे हैं। उसने भारत के बाहर भी उपनिवेश स्थापित कर रखे हैं। सम्राट अशोक को यह सहन नहीं हो सकता। उसने उज्जैन और तक्षशिला में आत्माभिमान की जो दीक्षा प्राप्त की है, वह कलिंग-नरेश के स्वातंत्र्य-प्रेम से समझौता नहीं कर सकती। और जब अशोक ने महाराज चंद्रगुप्त के वंश में जन्म लिया है, तो वह कैसे अपने अधिकार में आँख मूँद सकता है? इस समय उसका राज्य उत्तर में हिंदूकुश से लेकर दक्षिण में पेनार नदी तक है और पश्चिम में अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक। सिर्फ कलिंग एक मतवाले नाग की तरह सिर उठाए हुए विषम दृष्टि से अशोक की ओर देखता है। अशोक उस नाग का सिर कुचलना चाहता है। उसने दो वर्ष पहले कलिंग पर चढ़ाई कर दी है।
उसकी सैन्य-शक्ति अपार है। पैदल, घुड़सवार, रथ और हाथियों को उसने कलिंग की सीमा पर अड़ा दिया है। वे आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। सम्राट अशोक स्वयं सैन्य-संचालन करते हैं। उनका शिविर उनकी सेनाओं के साथ है। वे युद्ध के अतिरिक्त किसी भी विषय पर बात नहीं करना चाहते। उनका व्यक्तित्व दृढ़ और तेजस्वी है। ऊँचा कद और भरे हुए अंग, जिन पर शस्त्र सजे हुए हैं, एक बड़ी ढाल उनकी पीठ पर कसी हुई है और तलवार उनके हाथ का भाग बन गई है। सुंदर मुखाकृति, जिसमें अभिमान और उत्साह का चित्र शक्ति की रेखाओं से खिंचा हुआ है। मस्तक पर शिरस्त्राण और कानों में कुंडल, भौंहें मिली हुई और ओठ कसे हुए। शरीर पर सटा हुआ वस्त्र। चाल में सतर्कता और दृढ़ता। वे अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से ही कुछ क्षणों तक विपक्षी को अप्रतिम बना देते हैं और अपनी विजय को विपक्षी की मृत्यु की रेखाओं से ही गिनते हैं। वे दया के अनुकूल नहीं - क्रूरता के प्रतिकूल नहीं।
उनका शिविर इस समय गोदावरी तट पर है। दूर पानी के बहने और शिलाओं से टक्कर खाने की आवाज है। शिविर के चारों ओर लताओं और गुल्मों का जाल है। समस्त वातावरण में शांति और सौंदर्य है, जो कभी किसी सैनिक की ललकार से या पक्षी के तीखे स्वर से भंग होता है लेकिन फिर शांत हो जाता है - जैसे एकाकी मार्ग में चलती हुई कोई स्त्री ठोकर खाने से चीख उठे लेकिन फिर अपने मार्ग पर चलने लगे। शिविर के पदों पर शस्त्र त्रिकोण में या लंबी रेखाओं के रूप में सजे हुए हैं। जगह-जगह युद्ध के वस्त्र टँगे हुए हैं।
इस समय शाम के छह बजे हैं। सम्राट अशोक युद्ध से नहीं लौटे। उनकी रानी तिष्यरक्षिता शिविर में बैठी हैं। या तो सम्राट अशोक ही महारानी तिष्यरक्षिता को अपने साथ युद्ध-कौशल दिखाने के लिए ले आए हैं या सम्राट का वियोग सहन न कर सकने के कारण उनकी कुशल-कामना करते हुए, उन्हें अपने दृष्टि-पथ में रखने के लिए ही तिष्यरक्षिता सम्राट अशोक के साथ चली आई हैं। इस समय वह अपने कक्ष में बैठी हुई चित्र बना रही हैं। शिविर के कक्ष में ऐश्वर्य बरस रहा है। स्तंभों में स्वर्ण-लताएँ लिपटी हैं और उन पर रत्नों के फूल हैं, जो प्रकाश में ज्योति-मंडल बन जाते हैं। नीलम और मोतियों की झालरों से कक्ष की दीवारों पर समुद्र की फेनिल लहरों का आभास उत्पन्न किया गया है। पीछे एक महराव है, जिसके दोनों ओर एक-एक हाथी घुटने टेके हुए हैं। चारों ओर दीप-स्तंभ हैं, जिनमें दीपक जल रहे हैं। और उसी स्तंभ में फूल के आकार के पात्र से सुगंध-धूम निकल रहा है। कक्ष के बीच में एक ऊँचा और सजा हुआ आसन है। उससे हट कर कोने की ओर चार छोटे-छोटे कुर्सीनुमा आसन हैं। उन आसनों में से एक पर तिष्यरक्षिता बैठी हुई है। उसके सामने चित्र-फलक पर एक अधबनी तस्वीर है, जिसमें प्रकृति का सौंदर्य अपनी पूर्णता के लिए तिष्यरक्षिता की तूलिका में से उतर रहा है।
कमरे में निस्तब्धता है। तिष्यरक्षिता चित्र बनाने में लीन है। रुककर एक ही स्थान पर खड़ी रहकर वह भिन्न-भिन्न कोणों से चित्र की ओर देख रही है। दो क्षणों तक चित्र देखने के बाद, वह अपनी तूलिका से दीप-स्तंभ के पात्र पर शब्द करती है। एक परिचारिका प्रवेश कर दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करती है।]
तिष्यरक्षिता : चारु! देख, यह चित्र कितना अच्छा बन रहा है !
चारुमित्रा : बहुत अच्छा, महारानी!
तिष्यरक्षिता : चारु! मैंने चाहा कि इसी जगह की प्रकृति का चित्र बना लूँ। यहाँ रहते-रहते ये पेड़, ये झुरमुट, ये फूल, मुझे बहुत अच्छे लगने लगे हैं। लता खिलती है तो मालूम होता है जैसे उसके सुहाग के दिन आए हैं। और गोदावरी तो ऐसे बहती है, जैसे किसी के छूने पर उसे रोमांच हो आया है। तुझे भी तो यह जगह अच्छी लगी होगी?
चारुमित्रा : हाँ महारानी! मुझे बहुत अच्छी लगती है।
तिष्यरक्षिता : तब तो यह युद्ध समाप्त हो जाने दे। फिर तेरा विवाह इसी जगह रचाऊँगी। इन्हीं पेड़ों के नीचे मंडप होगा और इन्हीं फूलों से मेरी माँग भरूँगी।
चारुमित्रा : महारानी! आपका चित्र बहुत अच्छा बना है!
तिष्यरक्षिता : तू अपने विवाह की बात इस तरह उड़ा देना चाहती है? इसी चित्र में तेरे विवाह का भी चित्र होगा।
चारुमित्रा : महारानी! आप अपनी तूलिका को कष्ट न दें। आपकी कला हम लोगों के लिए बहुत ऊँची है।
तिष्यरक्षिता : तू बहुत मीठी बातें करती है चारु! लेकिन मेरी कला जीवन के हर एक चित्र को अपना अंग समझती है। यही दृश्य देख - कितना साधारण है पर मुझे तो बहुत प्रिय है।
चारुमित्रा : यह तो यहीं पास के कुंज का चित्र है।
तिष्यरक्षिता : हाँ, चारु! मैं कल वहाँ गई थी महाराज के साथ। वे न जाने कैसे हो गए हैं! हर समय युद्ध की बातें करते हैं। तेरे कलिंग देश पर जब से उन्होंने चढ़ाई कर दी है तब से तो सारा राज्य-कार्य महामात्रों पर ही छोड़ रखा है। आज दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं और कलिंग पर उनका क्रोध वैसा ही बना हुआ है!
चारुमित्रा : यह मेरे देश का दुर्भाग्य है!
तिष्यरक्षिता : मैं चाहती हूँ, चारु! कि यह लड़ाई शीघ्र ही समाप्त हो जाय। सच मान, यह युद्ध मुझे अच्छा नहीं लगता। हमारे सुख और शांति के जीवन में जहाँ हँसी का फूल खिलना चाहिए, वहाँ आह और कराह काँटे की तरह चुभ जाती है। च्छा य तब से तो सारा राज्य
चारुमित्रा : महारानी! लड़ाई में यही आह और कराह तो तलवार का संगीत बनती है।
तिष्यरक्षिता : अच्छा, चारु! यह बता, तूने कभी लड़ाई लड़ी है?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्यरक्षिता : तू जानती ही नहीं, लड़ाई किसे कहते हैं? जीवन भी तो एक लड़ाई है। पुरुष की स्त्री से लड़ाई, स्त्री की पुरुष से लड़ाई। स्त्री-पुरुष की पुरुष-स्त्री से लड़ाई! तूने कभी लड़ाई लड़ी ही नहीं?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्यरक्षिता : विवाह होने से पहले इसका अभ्यास अवश्य कर ले!
चारुमित्रा : जी, महारानी!
तिष्यरक्षिता : और चारु! मैं भी महाराज से लड़ना चाहती हूँ। वे यह युद्ध बंद कर दें। मुझे यह अच्छा नहीं लगता। कितने वीरों का नित्य रक्तपात होता है। आज जिन वीरों से देश की उन्नति होती, वही व्यर्थ मर रहे हैं - जो वीर मिट्टी छूकर सोना बनाते, वही आज मिट्टी हो रहे हैं!
चारुमित्रा : सच है, महारानी!
तिष्यरक्षिता : लेकिन कलिंग के लोग लड़ना भी अच्छी तरह जानते हैं, नहीं तो मगध की सेना के सामने कौन टिक सकता है? दो वर्षों से तो यह लड़ाई चल रही है!
चारुमित्रा : अभी बहुत वर्षों तक चलेगी, महारानी!
तिष्यरक्षिता : [आवेश से] क्या-क्या चारु! तू महाराज की शक्ति का अपमान करती है?
चारुमित्रा : महारानी! क्षमा कीजिए। इसमें महाराज की शक्ति का अपमान नहीं है। मेरे कलिंग के लोग वीर हैं! वे माता की तरह अपनी भूमि का आदर करते हैं। जब तक एक भी वीर है, तब तक तो कलिंग की जय का घोष वायु को सहन करना ही होगा!
तिष्यरक्षिता : तू विद्रोह की बातें करती है, चारु!
चारुमित्रा : महारानी! मैं विद्रोह की बातें नहीं करती, मैं अपने देश के गौरव की बातें कह रही हूँ।
तिष्यरक्षिता : तब तो तू महाराज के साथ विश्वासघात कर सकती है!
चारुमित्रा : महारानी! मैंने महाराज की सेवा उस समय से की है, जब उनका राज्याभिषेक भी नहीं हुआ था। आपके चरणों की छाया में बड़ी हुई हूँ। जब मैं महाराज की सेवा में कलिंग से आई थी, तब तो युद्ध की बात नहीं थी! आज मेरा देश कलिंग संकट में है, तो महारानी! मुझे उसके संबंध में कुछ कहने की आज्ञा भी नहीं मिलेगी?
तिष्यरक्षिता : चारु! तुझे पूरी आज्ञा है, किंतु मैं महाराज का अपमान सहन नहीं कर सकती।
चारुमित्रा : संसार में उनका अपमान करने की क्षमता किसी में नहीं है, महारानी! और मैं तो उनकी आजन्म सेविका हूँ।
तिष्यरक्षिता : लेकिन जब से कलिंग-युद्ध आरंभ हुआ है, तब से मैं महारानी होकर भी तुझसे डरती हूँ।
चारुमित्रा : महारानी, आप मुझे आत्म-हत्या की ओर प्रेरित करती हैं।
तिष्यरक्षिता : [हँसकर] मैं तो तुझसे हँसी कर रही थी, चारु! तू भी कभी हमसे विश्वासघात कर सकती है? चारु! मुझे प्यास लग रही है।
चारुमित्रा : जो आज्ञा [कोने से पात्र भर कर देती है।]
तिष्यरक्षिता : [दो घूँट पीकर] लेकिन चारु! यह युद्ध मुझे नहीं चाहिए। कितने दिनों से इस शिविर में रहते हुए जैसे मेरा सुख सपना बनता जा रहा है! महाराज का वियोग सहन कर सकती, तो चारु! मैं पाटलीपुत्र से कलिंग के इस शिविर में न आती। रात्रि में युद्ध की समाप्ति पर उनके दर्शन कर लेती हूँ तो जैसे फिर युवती बन जाती हूँ। आज कहूँगी कि वे कलिंग का युद्ध बंद कर दें। वीरों को स्वतंत्र साँस लेने देना भी तो दया की क्रूरता पर विजय है। मुझे तो इस विजय पर ही संतोष है।
चारुमित्रा : आप देवी हैं।
तिष्यरक्षिता : फिर बतला क्या उपाय करूँ, चारु? महाराज तक्षशिला में रह कर बड़े क्रूर बन गए हैं। कहते हैं, पूज्य पितामह जिन्होंने निकेटर सिल्यूकस की प्रचंड सेना का नाश कर दिया था, जिन्होंने अलक्षेंद्र के राज्य की दिशा बदल दी थी, तक्षशिला के ही तो विद्यार्थी थे। पितामह के योग्य पौत्र बनने का आदर्श जो है उनके सामने।
चारुमित्रा : हाँ, महारानी!
तिष्यरक्षिता : अच्छा, चारु! आज महाराज से एक बात पूछूँगी कि आपके पूज्य पितामह ने तो सेल्यूकस पर विजय पाकर उनकी सुंदरी कन्या पर भी विजय पाई थी। क्या आपकी विजय में किसी...
चारुमित्रा : महारानी! क्षमा करें। कलिंग देश वीरों का देश है, कन्याओं का नहीं।
तिष्यरक्षिता : क्या कलिंग देश में कन्याएँ होती ही नहीं? चारु! तू तो अपने देश की प्रशंसा करते-करते ऊबती नहीं। महाराज की प्रशंसा क्यों नहीं करती जिन्होंने कलिंग से युद्ध होने पर भी कलिंग देश की सेविका को अपने देश से नहीं निकाला।
चारुमित्रा : महारानी! महाराज अशोक सम्राट हैं। मेरे यहाँ रहने से उनका क्या बिगड़ता-बनता है!
तिष्यरक्षिता : आचार्य चाणक्य ने शत्रु के विषय में क्या कहा है, जानती है? कहा है - शत्रु कभी छोटा नहीं होता।
चारुमित्रा : महारानी! मैं अपने पद से अलग होने की आज्ञा चाहती हूँ।
तिष्यरक्षिता : [हँसकर] बस, बुरा मान गई! बात-बात पर आज्ञा चाहती है। अरे, तू सेविका होकर भी मेरी सखी है। अच्छा देख, मेरा चित्र और ध्यान से देख!
चारुमित्रा : [ध्यान से देखते हुए] महारानी, आपने तो टूटे हुए वृक्ष बनाए हैं और उनमें लाल रंग भर दिया है।
तिष्यरक्षिता : बतला, इसमें क्या रहस्य है?
चारुमित्रा : मैं चित्रकला नहीं जानती, महारानी!
तिष्यरक्षिता : अरे, यह तो साधारण समझ की बात है। यह चित्र मैं महाराज को दिखलाना चाहती हूँ। उनसे कहूँगी, देखिए आपने कलिंग के वीरों को तो रक्त से नहला ही दिया है, अब आपकी तलवार इन बेचारे वृक्षों पर भी पड़ी है और उनकी शाखाओं और टहनियों से रक्त निकल रहा है।
चारुमित्रा : महारानी! आपकी बात की थाह नहीं ली जा सकती।
तिष्यरक्षिता : चारु!
चारुमित्रा : महारानी!
तिष्यरक्षिता : महाराज अभी नहीं आए?
चारुमित्रा : नहीं, महारानी!
तिष्यरक्षिता : देख यह गोदावरी का सुरम्य तट, ये पानी की लहरें जैसे सौंदर्य की मालाएँ हों जो अपने आप गुँथ कर बड़ी होती है और तट पर किसी का हृदय न पाकर टूट जाती हैं!
चारुमित्रा : हाँ महारानी!
तिष्यरक्षिता : और ये जो पक्षी उड़ते चले जा रहे हैं जैसे प्रेम की ग्रंथियाँ हैं, जिन्होंने आकाश में उड़ना सीख लिया है। अच्छा सुन, यह समस्त वातावरण तेरा नाच देखना चाहता है। तू नाच सकेगी?
चारुमित्रा : जो आज्ञा, महारानी!
तिष्यरक्षिता : जा, जल्दी पैरों में संगीत भर ला!
[चारु जाती है। तिष्य थोड़ी देर प्रकृति की ओर देखती है, फिर अपने चित्र के पास आकर तूलिका उठाती है और उसमें रंग भरने लगती है। धीरे-धीरे गाती जाती है -
अलि पहचान गया कली को!
[चारु पैरों में नूपुर पहन कर आती है और तिष्य के सामने खड़ी होती है।]
चारुमित्रा : आज्ञा है?
तिष्यरक्षिता : मेरी और उस कली की भी जो नाच के साथ खिलना चाहती है।
[चारु प्रणाम कर नृत्य करती है। कुछ समय तक नृत्य होता है। तिष्य तन्मय होकर देखती है, कभी बीच में प्रशंसा करती जाती है। अकस्मात 'महाराज अशोक की जय' का घोष। नृत्य रुक जाता है। तिष्य चारु को देखती है और चारु तिष्य को। 'महाराज अशोक की जय', 'सम्राट अशोक की जय'। शीघ्रता से एक परिचारिका का प्रवेश।]
परिचारिका : महारानी! महाराज शिविर से लौट रहे हैं।
[जाती है।]
चारुमित्रा : महारानी! अब क्या होगा?
तिष्यरक्षिता : कुछ नहीं। तू अपने नूपुर उतार दे।
चारुमित्रा : [सिर हिलाकर] जो आज्ञा।
[बैठकर नूपुर उतारने लगती है। एक पैर का नूपुर उतर जाता है, लेकिन दूसरे पैर का उतारने में उलझ जाता है और प्रयत्न करने पर भी नहीं उतरता। इतने में ही जय-घोष के साथ महाराज अशोक का प्रवेश। तिष्य और चारु प्रणाम करती हैं। अशोक अभय-मुद्रा में हाथ ऊपर करते हैं।]
अशोक : देवि, आज युद्ध में फिर विजय! ओह तुम्हारी मंगल-कामनाओं में कितनी शक्ति है! विजय - विजय - विजय! [हाथ उठाता है।]
तिष्यरक्षिता : महाराज की विजय हो!
चारुमित्रा : महाराजाधिराज की विजय हो!
अशोक : देवि, शत्रुओं की संख्या बहुत अधिक थी। हाथी और घोड़े जैसे दुर्भाग्य की तरह अड़े हुए थे, किंतु तुम्हारी मंगल-कामना ने मुझे और मेरे वीरों को ऐसी शक्ति दी कि वे सूखे पत्ते की तरह बिखर कर चूर-चूर हो गए! मेरी शक्ति के पीछे देवी! तुम्हारी मंगल-कामना है। चारुमित्रा! देवी पर पुष्प-वर्षा हो!
[चारुमित्रा आगे बढ़ने के लिए पैर उठाती है कि उसके पैर का नुपूर शब्द कर उठता है।]
अशोक : [चारुमित्रा के पैरों पर दृष्टि गड़ा कर] अरे यह क्या? नृत्य! संग्राम-भूमि में रंगभूमि! [प्रश्नवाचक मुद्रा में] चारु?
चारुमित्रा : महाराज! क्षमा चाहती हूँ।
अशोक : मेरी युद्ध-भूमि में केवल भैरवी का नृत्य हो सकता है, चारुमित्रा का नहीं।
चारुमित्रा : महाराज...
अशोक : और उस भैरवी-नृत्य में तलवारों का संगीत होगा, नूपुरों का नहीं।
चारुमित्रा : महाराज...
अशोक : मेरे युद्ध के उत्साह में कोमलता भरने वाली चारुमित्रा! तुझे क्या पुरस्कार चाहिए? रत्नों का हार? मोतियों की माला?
चारुमित्रा : मुझे दंड दीजिए, महाराज !
अशोक : मेरे युद्ध के उत्साह में कोमलता भरने वाली चारुमित्रा! तुझे दंड ही मिलेगा। तू इस नीति से मुझे युद्ध करने से रोकना चाहती है? स्त्री! कलिंग से उत्पन्न शरीर कलिंग का ही साथ देगा! विश्वासघातिनी! चारुमित्रा! [पुकार कर] राजुक!
[राजुक का प्रवेश]
अशोक : राजुक! चारुमित्रा जलते हुए अंगारों पर नाचना चाहती है! आग तैयार हो!
राजुक : जो आज्ञा [प्रणाम कर प्रस्थान]
अशोक : चारुमित्रा! दूसरे पैर में भी नूपुर पहन ले। एक पैर से पूरी ध्वनि नहीं निकलेगी। दूसरा पैर नूपुरों की प्रतीक्षा में है।
[चारु दूसरे में भी नूपुर पहनने के लिए झुकती है]
तिष्यरक्षिता : महाराज!
अशोक : देवि!
तिष्यरक्षिता : महाराज! चारु का दोष नहीं है।
अशोक : देवि! चारु का दोष नहीं है? यह कैसी बात कहती हो? कलिंग के शरीर में कलिंग की आत्मा का मगध के साथ क्या व्यवहार हो सकता है? चारु जानती है कि मेरे क्रोध में उसका देश जल रहा है। वह मेरे क्रोध की ज्वाला को शांत करने के लिए अपने संगीत और नृत्य का प्रयोग करना चाहती है। मुझे नहीं सुना सकती तो तुम्हें सुना कर तुम्हारे द्वारा मुझमें कोमलता का संचार करना चाहती है। मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे स्वभाव को भी उसने दया से भर दिया है। त्मा िक्षता
तिष्यरक्षिता : महाराज! दया करना तो स्त्री का स्वाभाविक धर्म है। चारु मुझे क्या दया से भर सकती है! किंतु महाराज! चारु निरपराध है। आपके वियोग के क्षणों को काटने का वह मेरा साधारण उपाय था। मैंने ही चारु को आज्ञा दी थी कि वह नृत्य करे।
अशोक : तुमने आज्ञा दी थी?
तिष्यरक्षिता : हाँ, महाराज! युद्ध के भयानक क्षणों में स्त्री के एकाकी हृदय को कौन-सा सहारा है, संगीत, नृत्य, चित्रकला! यही तो!
अशोक : चारु अपनी ओर से नृत्य करने नहीं आई?
तिष्यरक्षिता : नहीं, नहीं महाराज! उसे क्षमा कीजिए।
अशोक : अशोक ने किसी को भी अपराध करने पर क्षमा नहीं किया, किंतु इस समय क्षमा करता हूँ। [चारु की ओर देखकर] चारु! तुम्हें क्षमा करता हूँ। अच्छा हो कि तुम्हारा नृत्य भैरवी नृत्य बनकर मगध की विजय के लिए हो! और यदि ऐसा न कर सको तो फिर यह नृत्य अपने कलिंग के कटते हुए वीरों के रुंडों और मुंडों के लिए रहने दो! [पुकार कर] राजुक!
[राजुक का प्रवेश]
अशोक : आग तैयार हो गई?
राजुक : जी।
अशोक : उस आग से उन कायरों को शीतल करो जो आज युद्ध-भूमि से पीछे हटे हैं।
राजुक : जो आज्ञा! [जाने लगता है।]
अशोक : और सुनो - यह मत सुनना कि वे संचालन-कौशल से सावधानी के साथ पीछे हटे हैं। युद्ध-भूमि के अतिरिक्त प्रत्येक भूमि वीरों के लिए कलंक भूमि है।
राजुक : जो आज्ञा!
[जाता है]
अशोक : चारु! जा, इन संगीत भरे पैरों को विश्राम की आवश्यकता है।
[चारु सिर झुकाकर जाती है]
अशोक : देवि! कलिंग से युद्ध करते समय मुझे ज्ञात होता था जैसे पाटलीपुत्र की शक्ति से एक प्रलय उत्पन्न हुआ है जो कलिंग को रक्त के समुद्र में डुबाना चाहता है। तक्षशिला, गंधार, उज्जैन और तोशली के बड़े-बड़े वीर मेरी घूमती हुई दृष्टि की दिशा में ही अपनी तलवार घुमाते थे। सेना की एक-एक टुकड़ी पानी की लहर की तरह बढ़ती और धीरे-धीरे बड़ी होकर शत्रुओं की तलवार से टकराती थी। वे तलवार भी नहीं घुमा सकते थे। उस समय मुझे तो ऐसा ज्ञात होता था कि मेरी ललकार भी तलवार थी, जिसके सामने घूमा हुआ हथियार भी लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता था।
तिष्यरक्षिता : महाराज, इतना रक्तपात...
अशोक : मैंने अपनी सेना का अर्ध-व्यूह बनाकर आक्रमण किया था। शत्रु सोचते थे, जैसे सहस्रों धूमकेतु एक विशेष आकार में कसे हुए मौत की आग लेकर आ रहे हैं। न जाने कितने शत्रु हाथियों के पैरों से पिस गए - सैकड़ों घोड़ों के पैरों में उलझकर खून से लथ-पथ हो गए। मालूम होता था - रक्त का नाला महानदी में मिलने के लिए जा रहा है।
तिष्यरक्षिता : महाराज! इतना भयानक युद्ध!
अशोक : मुझ पर भी एक वीर ने तलवार चलाई। मैंने तक्षक की तरह अपना सिर बचा लिया। उसकी तलवार वायु-मंडल में शून्य चक्र बना कर रह गई। अपने निष्फल हुए आक्रमण के वेग से वह मुड़ गया। उसके मुड़ते ही मैंने तलवार की नोक उसकी पसलियों में घुसेड़ दी। उसकी ललकार आह में बदल कर खून में डूब गई। वह टूटे हुए पेड़ की तरह भूमि पर गिर पड़ा।
तिष्यरक्षिता : महाराज! आपका युद्ध-कौशल भयानक है।
अशोक : फिर मैं मरे हुए घोड़े की पीठ से पैर टेक कर लड़ता रहा। शत्रुओं के नायक वीरभद्र की तलवार जैसे ही आगे गिरने के लिए अर्ध-चंद्र बना रही थी वैसे ही मैंने झुक कर कक्ष भाग से कंधे पर ऐसा वार किया कि अपने वेग में, भुजा समेत उड़कर उसकी तलवार एक हाथी की पीठ में घुस गई। हाथी शत्रु-पक्ष को कुचलता हुआ भाग खड़ा हुआ। उसी समय सेना के पैर उखड़ गए और आज की विजय ने, देवि। तुम्हारे गले में माला पहना दी!
तिष्यरक्षिता : महाराज! बहुत भयानक युद्ध है! अब सहन नहीं हो सकता।
अशोक : देवि! तुम बड़ी कोमल-हृदया हो। युद्ध तुम्हारे लिए नहीं है। इसीलिए मैं चाहता था कि तुम पाटलीपुत्र में रहो। किंतु तुम्हारा ही अनुरोध मुझे विवश कर सका कि तुम्हें साथ ले आया।
तिष्यरक्षिता : महाराज! यदि मैं एक अनुरोध और करूँ?
अशोक : क्या?
तिष्यरक्षिता : यह युद्ध रोक दीजिए !
अशोक : यह क्या कह रही हो, देवि? युद्ध का रुक जाना पाटलीपुत्र की उन्नति का रुक जाना है। किसी भी साम्राज्य की सीमा तलवार से खींची जाती है और सीमा को स्थायी रखने के लिए उस रेखा में रक्त का रंग भरा जाता है। [कक्ष में दृष्टि डालते हैं। चित्र-फलक पर दृष्टि डाल कर] अच्छा; यह तुमने बड़ा सुंदर चित्र बनाया है?
तिष्यरक्षिता : हाँ, महाराज! आपको पसंद है!
अशोक : बहुत ही सुंदर है। यह तो उस कुंज का है, जहाँ बैठ कर मैंने युद्ध का कार्य-क्रम बनाया था।
तिष्यरक्षिता : हाँ, महाराज! मैं भी साथ थी !
अशोक : तो ये वृक्ष टूटे हुए क्यों दिखाए गए हैं?
तिष्यरक्षिता : महाराज! युद्ध की गति में आपकी तलवार शत्रुओं पर पड़ने के साथ ही इन वृक्षों पर भी पड़ी है। वे बेचारे भी कट गए हैं और उनसे रक्त निकल रहा है !
अशोक : तो रक्त के स्थान पर लाल रंग की क्या आवश्यकता? सच्चा रक्त भरो इनमें। वह तो बहुत मिल सकता है। मैंने कितने रक्त-प्रवाह की शारीरिक सीमाएँ नष्ट कर उन्हें पृथ्वी पर बहने की पूर्ण स्वतंत्रता दी है। वहीं से रक्त लो!
तिष्यरक्षिता : महाराज! मेरा हृदय काँप रहा है - इस युद्ध की भयानकता से! आप क्यों इतने वीरों के रक्त से राज्य-श्री को अग्नि का रूप देना चाहते हैं?
अशोक : देवि! अग्नि में तप कर ही स्वर्ण पवित्र होता है। आज मेरी तलवार में शक्ति है। उसका अधिक से अधिक उपयोग होने दो।
तिष्यरक्षिता : जैसी महाराज की इच्छा! लेकिन मुझे दुख है इस क्रूरता पर [सिर झुका लेती है।]
अशोक : [मनाते हुए] तुम दुखी हो, देवि? नहीं, दुखी होने की क्या बात? तुम तो दया की देवी हो। तुम्हें तो किसी के दुख से भी दुख होने लगता है। मैं यथा-शक्ति तुम्हारे सद्भावों की रक्षा तो करता हूँ। देखो देवि! आज तुम्हारी दया की ढाल ने मेरे दंड के कृपाण को अच्छा रोका...
तिष्यरक्षिता : महाराज! चारु निरपराध थी।
अशोक : रण-भूमि की दृष्टि से या रंग-भूमि की दृष्टि से?
तिष्यरक्षिता : महाराज! वह सेविका है, आपके चरणों की छाया में ही बड़ी हुई है।
अशोक : किंतु आवश्यकता से अधिक बढ़ने पर काटने-छाँटने की आवश्यकता होगी। देवि, मैं अपने शिविर में शत्रु-पक्ष के किसी व्यक्ति को अब रहने की आज्ञा नहीं दे सकता।
तिष्यरक्षिता : किंतु अब वह शत्रु-पक्ष की कहाँ है? महाराज! वह तो उस समय से आपकी सेविका है, जब कलिंग युद्ध छिड़ा भी नहीं था।
अशोक : किंतु कृपा की दृष्टि राजनीति की दृष्टि नहीं होती, देवि! आज युद्ध से लौटते समय मैंने चारु के संबंध में विचार किया था।
तिष्यरक्षिता : युद्ध से लौटते समय!
अशोक : हाँ, युद्ध से लौटते समय कलिंग के कुछ व्यक्ति मुझे प्रणाम कर रहे थे, मुझे उनके प्रणाम में चारु का प्रणाम दीख पड़ा। यदि इस समय चारु नृत्य न भी करती तो भी मैं उसे दंडित तो करता ही।
तिष्यरक्षिता : किंतु वह बेचारी!
अशोक : राजनीति तिष्यरक्षिता नहीं है देवि! जो दया से तरल हो जाय। किंतु आज तुम्हारे कहने से मैंने राजनीति को स्त्री का हृदय बना दिया।
तिष्यरक्षिता : महाराज! आपकी कृपा। विश्राम कीजिए।
अशोक : देवि! मुझे विश्राम! पितामह चंद्रगुप्त ने 24 वर्ष के शासन में कितना विश्राम किया? तक्षशिला से मगध तक पृथ्वी का प्रत्येक कण उनकी आहट सुन कर काँपता था। बहुत से छोटे-छोटे राज्यों को एक संघ में गूँध कर उन्होंने अपनी राज्य-श्री को विजय-माला पहनाई थी। सेल्यूकस निकेटर से गांधार और सीमाप्रांत लेकर आर्यावर्त के मुकुट में उन्होंने कुछ रत्न और जड़ दिए थे। मैं उन्हीं की संतान हूँ, देवि! विश्राम के लंबे क्षणों में राज्य-सीमा संकुचित हो जाती है।
तिष्यरक्षिता : ठीक है, महाराज! पर कलिंग-युद्ध ने आपको बहुत उत्तेजित कर दिया है!
अशोक : कलिंग अपने को सम्राट मानता है। वह पाटली-पुत्र का आधिपत्य नहीं मानता। सुमात्रा और जावा में उसने अपने उपनिवेश स्थापित कर रखे हैं। जल-यानों में बिहार करता है और समझता है कि वह आर्यावर्त का सम्राट है। तिष्या! वह मेरे शासन के मार्ग को एक स्तूप बनकर रोकना चाहता है। मैं आचार्य उपगुप्त के उपदेशों की भाँति उसे भी ठोकर मार देना चाहता हूँ।
तिष्यरक्षिता : महाराज! आचार्य उपगुप्त में और कलिंग में समानता नहीं हो सकती।
अशोक : क्यों नहीं? आचार्य उपगुप्त बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आचार्य हैं, कलिंग विद्रोहियों का सबसे बड़ा नेता है। मैं बौद्ध धर्म और कलिंग दोनों का नाश करूँगा।
तिष्यरक्षिता : क्षमा, दया, करुणा, महाराज! आचार्य उपगुप्त कल यहाँ आए थे। उन्होंने कलिंग के भीषण रक्तपात को देख कर कहा था कि बुद्धि का अक्षय कोष मनुष्य, थोड़ी-सी भूमि के लिए मनुष्यत्व को मिट्टी में मिला देना चाहता है। कलिंग के संबंध में कहा था कि अहंकार का फल यही हुआ है और होगा।
अशोक : यह व्यंग्य मुझ पर किया गया, देवि!
तिष्यरक्षिता : महाराज! उनके कथन में सत्य है। क्या अहंकार का नाश नहीं होना चाहिए?
अशोक : अहंकार और राज्य-धर्म में अंतर है। राज्य-धर्म पाटलीपुत्र का अधिकार है और अहंकार कलिंग की वृत्ति है। उसे अपनी सेना का अहंकार है। उसके पास साठ हजार पैदल, सात सौ हाथी और एक हजार घुड़सवार हैं। समझता है कि वह इंद्र का वंशज है। मैं अपनी सेना के हाथों उसके अहंकार के पौधे को उखाड़ फेकूँगा, तिष्या!
तिष्यरक्षिता : कितनों का रक्त बहेगा, महाराज!
अशोक : उसमें आर्यावर्त को नहला कर पवित्र करना चाहता हूँ, देवि!
[नेपथ्य में भयानक तुमुल! किसी स्त्री का क्रंदन-स्वर - 'अशोक का नाश हो' ... 'अशोक का सर्वनाश हो! !' प्रहरी का स्वर - 'पुष्प मार डालो इसे भी।']
तिष्यरक्षिता : [कान बंद कर क्रंदन स्वर में] नहीं महाराज! [अशोक के वक्षस्थल में छिप जाती है। अशोक जोर से आवाज देते हैं] नहीं! [फिर तिष्य की पीठ पर हाथ फेर कर] शांत हो! शांत हो - मैं अभी देखता हूँ। [अशोक तिष्य को सँभाल कर आसन पर बिठलाते हैं, फिर शिविर की खिड़की से देखते हुए] पुष्प! इस स्त्री को मेरे शिविर में भेजो।
[तिष्य अपने हाथों से नेत्र बंद किए हुए है। अशोक तिष्य के हाथों को आँखों से हटा अपने हाथों में लेते हैं।]
अशोक : देवि! मैं अभी देखता हूँ, कौन है?
तिष्यरक्षिता : महाराज! मैं आपका अमंगल नहीं सुन सकती। [आकाश की ओर देखते हुए] महाराज का मंगल हो, महाराज का मंगल हो! महाराज का मंगल हो!
अशोक : कोई स्त्री है : गोद में एक बच्चे को लिए हुए है।
तिष्यरक्षिता : मैं पूछूँगी, वह कौन है - क्यों ऐसी अशुभ बात मुँह से निकालती है?
अशोक : अवश्य तुम्हीं पूछो। मैं वस्त्र बदलने जाता हूँ!
[जाते हैं]
[प्रहरी एक स्त्री को लेकर आता है तिष्य के संकेत से प्रहरी हट जाता है। वह स्त्री लगभग 25 वर्ष की होगी। उसके बाल और वस्त्र अस्त-व्यस्त हैं। वह अपने बच्चे को गोद में लिए हैं। उसकी मुद्रा पागल स्त्री की तरह है।]
तिष्यरक्षिता : आओ, आओ, देवि! तुम कौन हो?
सत्री : [विस्फारित नेत्रों से एक बार ही फूट कर] ओह, रानी! अशोक का सर्वनाश हो...! अशोक का सर्वनाश हो...! मुझे भी मार डालो! मुझे भी मार डालो!
तिष्यरक्षिता : ठहरो-ठहरो, तुम महाराज के संबंध में कुछ नहीं कह सकतीं। चुप रहो, क्या चाहती हो?
स्त्री : मैं क्या चाहती हूँ? मेरे बच्चे के टुकड़े-टुकड़े कर डालो! यह अभी मरा नहीं है! [पुत्र की ओर देख कर] लाल! अभी तुम मरे नहीं हो। ये लोग तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, तब तुम मरोगे। तब तक कुछ बोलो - बोलो मेरे लाल! [अपने बच्चे को हाथों ही में झकझोरती है।]
[अशोक का प्रवेश। वे दूर चुपचाप इस तरह खड़े हो जाते हैं कि तिष्य के पीछे हैं और तिष्य की दृष्टि उन पर नहीं पड़ती। माता अपने बच्चे को देखकर] तेरा खून इतना मीठा है, मेरे बच्चे! राजा तक उसे पीना चाहता है? और खून हो तो अपने नन्हें से कलेजे को सामने रख दे। ये सब मिलकर पी लें!
तिष्यरक्षिता : क्या तुम्हारा बच्चा मर गया है! कैसे?
स्त्री : अशोक राक्षस ले गया, मेरे बच्चे को! राज्य नहीं चाहता था मेरा लाल, लेकिन मेरे लाल को अशोक ले गया! इसे -
अशोक : [आगे बढ़कर] यह क्या कह रही हो, तुम? ठीक तरह से बतलाओ। तुम्हारा न्याय होगा। यह बच्चा कैसे मरा?
स्त्री : मुझे न्याय नहीं चाहिए - नहीं चाहिए! पाटलीपुत्र से न्याय उठ गया! इसके पिता को सैनिकों ने घेर कर मारा और जब मैं इसे बचाने लगी तो इसके फूल-से कलेजे में भाला घुसेड़ दिया उन राक्षसों ने। मेरे बच्चे को राज्य नहीं चाहिए था! मेरा छोटा राजा तुम्हारा राज्य नहीं चाहता था। तब भी इसे - तब भी इसे...
अशोक : ठहरो, मैं उन दुष्टों को दंड दूंगा। वीरों के लिए उनका भाला है, शिशुओं के लिए नहीं।
तिष्यरक्षिता : महाराज! न्याय होना चाहिए बेचारी स्त्री का!
अशोक : होगा और अवश्य होगा।
स्त्री : मैं अब न्याय लेकर क्या करूँगी! लाओ, महाराज! मैं तुम्हें राजतिलक कर दूँ। अपने बच्चे के रक्त का तिलक लगाकर - [चिल्लाकर] महाराज अशोक... चक्रवर्ती अशोक...!
अशोक : मैं अभी न्याय करूँगा। [पुकारते हुए] पुष्य...
[प्रहरी का प्रवेश]
अशोक : इस स्त्री को विश्राम-शिविरों में ले जा कर अपराधियों की पहचान कराओ, मैं अभी आता हूँ। जाओ...
[जाने को उद्यत होता है।]
अशोक : और उन अपराधियों को बंदी कर मेरे सामने उपस्थित करना। समझे?
प्रहरी : जो आज्ञा। [स्त्री से] चलो। [स्त्री को बलपूर्वक ले जाता है]
स्त्री : [जाते हुए, नेपथ्य में] मेरा बच्चा! मेरा लाल! [धीरे-धीरे शब्द क्षीण हो जाता है। कुछ देर तक स्तब्धता रहती है। अशोक विचारमग्न हैं, तिष्य कहती है...
तिष्यरक्षिता : महाराज, मूर्छा-सी आ रही है।
अशोक : देवि विश्राम करो। मैं अभी न्याय करूँगा!
तिष्यरक्षिता : महाराज! यह रक्त-पात अब बंद हो!
अशोक : एक छोटी-सी घटना राज्य की बढ़ती हुई बेल को काट दे! यह घटना तुम्हारा चित्र नहीं है देवि, जिसमें तूलिका के एक हल्के झटके से राज्य की बेल कट जाय! देवि! युद्ध में तो यह सब होता ही है।
तिष्यरक्षिता : महाराज! मैं क्या करूँ?
अशोक : विश्राम करो। मैं विश्राम-शिविरों में अभी जाता हूँ। सेना के विश्राम की क्या व्यवस्था है, घायलों की क्या सुश्रूषा हो रही है, यह मुझे देखना है। [पुकार कर] राजुक! [राजुक का प्रवेश]
अशोक : महामात्रों से कहो कि अश्व तैयार हों। उन्हें मेरे साथ नैश-निरीक्षण के लिए चलना होगा।
राजुक : जो आज्ञा, महाराज! [जाता है]
अशोक : देवि! महाराज बिंदुसार ने राज्य की सीमा नहीं बढ़ाई। वे कदाचित यह उत्तरदायित्व मेरे लिए छोड़ गए हैं। सम्राट चंद्रगुप्त के परिश्रम की परंपरा कुछ वर्षों तक तो चले!
तिष्यरक्षिता : कब तक महाराज?
अशोक : जब तक कि पाटलिपुत्र का प्रवासी नागरिक कलिंग के जनपद में निवासी होकर न रहने लगे।
[राजुक का प्रवेश]
राजुक : महाराज! महामात्र और अश्व तैयार हैं!
अशोक : अच्छा, जाओ, मैं अभी आता हूँ। [तिष्य से] देवि! आज उस स्त्री का न्याय भी करूँगा और निरीक्षण भी। सैनिकों के पुरस्कार और दंड की व्यवस्था एक साथ ही होगी। देवि! मंगल-कामना करो कि मगध चिरंजीवी हो।
तिष्यरक्षिता : महाराज! मेरे दुख में भी मगध चिरंजीवी हो।
[अशोक का प्रस्थान]
तिष्यरक्षिता : वायु के प्रवाह की भाँति सदैव अस्थिर! अभी आए और अभी चले गए! मैं क्या करूँ! [चित्र की ओर दृष्टि डालती है।] यह चित्र! [क्रोध से फाड़ कर फेंक देती है। पुकार कर] स्वयंप्रभा!
[स्वयंप्रभा का प्रवेश। वह प्रणाम करती है।]
स्वयंप्रभा : महारानी! यह क्या? यह चित्र किसने फाड़ दिया? ओह... इतना सुंदर चित्र!
तिष्यरक्षिता : मैंने - मैंने इसे नष्ट कर दिया।
स्वयंप्रभा : मैं इसे, जोड़ सकती हूँ?
तिष्यरक्षिता : नहीं। इसे उठा कर बाहर फेंक दे।
[स्वयंप्रभा फटे हुए चित्र के टुकड़े एकत्र करती है।]
तिष्यरक्षिता : स्वयंप्रभा! महाराज गए?
स्वयंप्रभा : जी, महारानी! पाँच महामात्रों के साथ अभी-अभी गए हैं।
तिष्यरक्षिता : चले गए! तू क्या कर रही थी?
स्वयंप्रभा : महारानी! आपके सुंदर गीतों की स्वर-लिपि लिख रही थी। बड़े सुंदर गीत हैं।
तिष्यरक्षिता : उसको नष्ट कर दे। महाराज यह सब कुछ नहीं चाहते। इस विषय में बात मत कर, जा।
[स्वयंप्रभा जाना चाहती है।]
तिष्यरक्षिता : चारु कहाँ है?
स्वयंप्रभा : महारानी! अभी तो यहीं थी। कदाचित शिविर-कक्ष में हो।
तिष्यरक्षिता : रो रही थी?
स्वयंप्रभा : महारानी, उदास तो बहुत थी। ज्ञात होता था कि उसके आँसू सूख गए हैं, किंतु हृदय रो रहा है।
तिष्यरक्षिता : तूने उससे बातें कीं?
स्वयंप्रभा : महारानी! आपके गीतों की स्वर-लिपि पूछी, वह कुछ भी नहीं कह सकी।
तिष्यरक्षिता : बेचारी चारु! आज चारु पर महाराज बहुत अप्रसन्न हुए।
स्वयंप्रभा : महारानी! उससे कभी कोई अपराध तो हुआ नहीं।
तिष्यरक्षिता : कहते थे कि वह कलिंग की है, शत्रु-पक्ष की।
स्वयंप्रभा : महारानी! आज तक महाराज की सेवा उसने जितनी श्रद्धा और भक्ति से की है, उतनी पाटलीपुत्र की किसी सेविका ने नहीं। वह तो महाराज के अंतःपुर की अंगरक्षिका है।
तिष्यरक्षिता : हाँ, मैं भी यही समझती हूँ।
स्वयंप्रभा : महारानी, महाराज की इच्छा ही उसके कार्य का नाम है। वह कैसे विश्वासघातिनी हो सकती है?
तिष्यरक्षिता : कहते थे, राजनीति की दृष्टि दया की दृष्टि नहीं है।
स्वयंप्रभा : महारानी! राजनीति भी कोई राजनीति है यदि उससे सच्ची सेवा और सच्चे प्रेम में सदेह उत्पन्न हो जाय?
तिष्यरक्षिता : यही संदेह तो शायद उनके जीवन की सफलता है। उन्होंने शत्रु के छोटे-से-छोटे कार्य को अपनी शक्ति से छिन्न-भिन्न कर दिया है। आज मेरी प्रार्थना पर ही उन्होंने चारु को क्षमा किया।
स्वयंप्रभा : महारानी! आपकी करुणा ने महाराज की शक्ति के साथ रहकर राज्य को संतुलित किया है!
तिष्यरक्षिता : स्वयंप्रभा! आज मेरी करुणा सीमा तक पहुँच गई!
स्वयंप्रभा : कैसे, महारानी?
तिष्यरक्षिता : एक स्त्री के छोटे-से बच्चे को सैनिकों ने मार डाला।
स्वयंप्रभा : हाँ, महारानी! मैंने भी सुना।
तिष्यरक्षिता : महाराज न्याय करने गए हैं। देखें, क्या न्याय करते हैं। मैं तो आज बहुत अशांत हूँ।
स्वयंप्रभा : महारानी! विश्राम कीजिए...
[नेपथ्य में - 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि]
स्वयंप्रभा : आचार्य उपगुप्त का कंठ-स्वर है; महारानी!
तिष्यरक्षिता : [स्वस्थ होकर] जाकर उन्हें यहाँ ले आ। मैं बहुत विह्वल हो रही हूँ।
स्वयंप्रभा : जो आज्ञा, महारानी! [स्वयंप्रभा जाती है।]
तिष्यरक्षिता : [अपने-आप मंद कंठ स्वर से] महात्मा उपगुप्त...
[सँभल कर उठती है और स्वयं आसन ठीक करती है। प्रतीक्षा-दृष्टि से द्वार की ओर देखती है। स्वयंप्रभा के साथ महात्मा उपगुप्त का प्रवेश। महात्मा उपगुप्त बौद्ध भिक्षु के वेश में हैं। पीत वस्त्र धारण किए हुए। हाथ में भिक्षा-पात्र।]
तिष्यरक्षिता : प्रणाम करती हूँ, भंते!
उपगुप्त : [अभय-हस्त] सुखी रहो, देवि! क्या महाराज नहीं हैं?
तिष्यरक्षिता : भंते! वीर पुरुष घर नहीं रहते। रणक्षेत्र ही उनका घर है।
उपगुप्त : देवि! रणक्षेत्र हृदय को शांति नहीं दे सकता। तथागत ने कहा है - 'अहंकार और ईषणा का नाश करो'। यह युद्ध अधिकार-लिप्सा है, इसका अंत नहीं है, देवि!
तिष्यरक्षिता : महात्मन! आपका उपदेश महाराज के कानों तक पहुँचा?
उपगुप्त : देवि! महाराज नीति-कुशल है। मेरी बातें सुनते हैं। मुस्कराकर कहते हैं - आप थक गए होंगे, भंते, विश्राम-गृह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
तिष्यरक्षिता : महात्मन! यह युद्ध बंद होना चाहिए। मैं इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकती।
उपगुप्त : देवि! इस अत्याचार को कौन सहन कर सकता है? एक लाख आदमी तो रणक्षेत्र में मर गए। तीन लाख घायल हुए, जो एक लाख के पथ का अनुसरण करना चाहते हैं। देवि! रक्त की नदियाँ बह निकली हैं, जो महानदी की समानता करने को अग्रसर है। कलिंग राज्य के घर फूल की पँखुड़ियों की तरह गिर रहे हैं! देवि! तुम कुछ नहीं कर सकतीं?
तिष्यरक्षिता : महात्मन, आज मैं रानी न होकर एक साधारण स्त्री होती तो किसी प्रकार आत्म-बलिदान कर महाराज के मन की दिशा बदल देती। पत्नी हो कर पति के मार्ग की बाधिका बनने का साहस मुझमें नहीं होता। राज-वंश की मर्यादा कैसे नष्ट करूँ? महात्मन! मैं रानी होकर साधारण स्त्री भी नहीं रही!
उपगुप्त : तो कहता हूँ देवि! शांत होओ। जब तक मनुष्य आर्य-सत्य से परिचित नहीं होता, उसे दुख उठाना ही पड़ता है। तथागत ने कहा है - 'भिक्खुओ! मैं सब बंधनों से - लौकिक और अलौकिक - मुक्त हो गया। अनेक के लाभ के लिए विचरण करो, अनेक के हित के लिए विचरण करो, संसार के प्रति करुणा के लिए विचरण करो। देवताओं और मनुष्यों के कल्याण के लिए विचरण करो।' देवि! मुझे विश्वास है, महाराज अशोक इस धर्म-शिक्षा को मान कर संसार का कल्याण करेंगे।
तिष्यरक्षिता : भंते! मुझे विश्वास नहीं होता।
उपगुप्त : समय की प्रतीक्षा करो। महाराज में परिवर्तन होगा। जब किसी व्यक्ति में शक्ति की क्षमता होती है तो बुरे मार्ग से अच्छे पर और अच्छे मार्ग से बुरे मार्ग पर जाने में विलंब नहीं लगता। महाराज में शक्ति की क्षमता है और वे बुरे मार्ग पर हैं। किसी भयानक भावना से उनके हृदय की दिशा-परिवर्तन संभव है। वे विजय के आकांक्षी हैं। विजय प्राप्त करें किंतु हिंसा से नहीं, अहिंसा से। वे शासन करना चाहते हैं, करें किंतु क्रोध से नहीं, करुणा से। विनाश करें, किंतु जाति का नहीं, अपनी तृष्णा का। वे ज्ञान-प्राप्ति में प्रयत्नशील हों, राज्य-प्राप्ति में नहीं। ज्ञान अमर है, राज्य क्षण-भंगुर है!
तिष्यरक्षिता : महाभिक्षु, आपका ज्ञान सुनकर हृदय को शांति मिलती है।
उपगुप्त : शांति लाभ करो देवि, यही पथ निर्वाण का है। अच्छा देवि, अब मैं जाऊँगा। [उठ खड़े होते हैं।]
तिष्यरक्षिता : महात्मन, आशीर्वाद दीजिए कि राज्य में शांति हो।
उपगुप्त : ऐसा ही हो!
तिष्यरक्षिता : महात्मन, भिक्षा स्वीकार कीजिए। मैं अपने हाथ से लाऊँगी।
[तिष्य भीतर जाती है]
स्वयंप्रभा : महात्मन्, आप से एक प्रार्थना करना चाहती हूँ।
उपगुप्त : कैसी?
स्वयंप्रभा : महात्मन, आप चारु को जानते हैं!
उपगुप्त : हाँ, हाँ, महाराज की सेवा में सतत रहने वाली।
स्वयंप्रभा : आज वह बहुत दुखी है।
उपगुप्त : क्यों?
स्वयंप्रभा : महाराज का उस पर से विश्वास उठ गया है!
उपगुप्त : इसलिए कि वह कलिंग-बालिका है?
स्वयंप्रभा : जी हाँ।
उपगुप्त : तो उसके लिए उचित तो यही है कि वह महाराज की सेवा और संलग्नता के साथ करे। संदेह को सेवा से नष्ट कर दे। वह इस समय कहाँ होगी?
स्वयंप्रभा : महाराज के बाहरी शिविर में।
उपगुप्त : अच्छा, मैं उससे मिलता जाऊँगा। उसे संतोष और शांति देकर फिर संघाराम जाऊँगा।
स्वयंप्रभा : भंते, बड़ी कृपा होगी आपकी।
उपगुप्त : यह तो तथागत की आज्ञा है।
[तिष्य भिक्षा लेकर आती है]
तिष्यरक्षिता : मुझे अपने हाथों से आपकी सेवा में मधुकरी लाने में विशेष हर्ष होता है भंते!
उपगुप्त : तुम सुखी रहो देवि।
[तिष्य उपगुप्त को मधुकरी देती है]
उपगुप्त : अच्छा अब जाऊँगा।
तिष्यरक्षिता : महात्मन! प्रणाम।
उपगुप्त : सुखी रहो।
तिष्यरक्षिता : स्वयं, महाभिक्षु को शिविर-द्वार तक पहुँचा दो।
[स्वयंप्रभा का उपगुप्त के साथ प्रस्थान]
तिष्यरक्षिता : [सोचते हुए] तिष्य, तेरी दशा एक कीड़े की तरह है, जो ऐसी लकड़ी में रहता है जिसके दोनों ओर आग लग रही है। तू कहाँ रहेगी?
[स्वयंप्रभा का प्रवेश]
स्वयंप्रभा : महारानी, भंते जाते समय आपके लिए स्वस्ति-वचन कह गए हैं।
तिष्यरक्षिता : तथागत को प्रणाम। स्वयंप्रभा या तो मैं संघाराम चली जाऊँगी या वनवासिनी हो जाऊँगी।
स्वयंप्रभा : महारानी, आप शांत हों।
तिष्यरक्षिता : नहीं स्वयंप्रभा, अब मुझे इस राज्यश्री से घृणा हो रही है। उसके सजाने के लिए कितने मनुष्यों की बलि देनी पड़ रही है। रात-दिन युद्ध की बात सुनते-सुनते जैसे मेरी श्रवण-शक्ति विद्रोह कर रही है। अब मैं और कुछ सुनना नहीं चाहती। देख, कितनी अच्छी वन-श्री है। यहाँ के पेड़ और पर्वत कैसे सुख में दीख पड़ रहे हैं। ये तो किसी से लड़ने नहीं जाते, किसी का खून नहीं बहाते, लेकिन रात-दिन बन पर हरियाली छाई रहती है, फूल खिलते रहते हैं। निर्झर वन के चरणों को धोते रहते हैं। इन्हें किस बात की कमी है? यह मनुष्य ही रात-दिन न जाने किसके लिए दूसरे का मुख नष्ट करने में जुटा रहता है, खून की नदियाँ बहाता है?
स्वयंप्रभा : महारानी, जीवन का सत्य यही है।
तिष्यरक्षिता : और स्वयंप्रभा, अगर मैं स्त्री न होकर इसी पास के पेड़ की एक कली होती, तो आनंद के साथ बसंत के किसी प्रातःकाल खिलकर सारे संसार को एक बार हँसती हुई आँखों से देख लेती और शाम होने पर सूर्य के पीछे-पीछे मैं चली जाती। स्त्री और महारानी होकर मैं सुखी नहीं हूँ स्वयंप्रभा! जीवन के सत्य से बहुत दूर जो जा पड़ी हूँ।
स्वयंप्रभा : महारानी, आपका हृदय शांत हो।
तिष्यरक्षिता : स्वयंप्रभा! कैसे शांत हो?
तिष्यरक्षिता : स्वयंप्रभा! कैसे शांत हो? शांति का उपाय करने के बदले मैं अशांति की लहरों में बही जा रही हूँ। पास में कोई कूल-किनारा नहीं है। मालूम होता है, युद्ध की समाप्ति होते-होते मेरा जीवन भी समाप्त हो जाएगा।
स्वयंप्रभा : महारानी, दुखी न हों, ऐसी बातें न करें!
तिष्यरक्षिता : मैं महाराज के सामने बहुत साहस कर कुछ बातें कहना चाहती हूँ। या तो मैं कह नहीं सकती या महाराज की दृष्टि मुझे कहने नहीं देती। साहस कर दो-एक शब्दों में यदि कुछ कहती भी हूँ, तो महाराज की वीरता की लहर में मेरे शब्द बुद्बुद की भाँति बह जाते हैं।
स्वयंप्रभा : महारानीजी, आप जो कुछ भी कह सकती हैं, महाराज के सामने उतना कहने की शक्ति संसार के किसी भी व्यक्ति में नहीं है।
तिष्यरक्षिता : किंतु उसका परिणाम कुछ नहीं स्वयंप्रभा, चारु को बुलाएगी।
[नेपथ्य में - महाराज अशोक की जय! जय!]
तिष्यरक्षिता : स्वयंप्रभा, रहने दे किसी को मत बुला। महाराज आ रहे हैं।
[चिंतित मुद्रा में अशोक का प्रवेश। तिष्य प्रणाम करती है। स्वयंप्रभा अधिक झुककर प्रणाम करती है।]
अशोक : देवी, न्याय नहीं हो सका!
तिष्यरक्षिता : महाराज, उस स्त्री का न्याय?
अशोक : हाँ देवी, वह स्त्री उसी शिविर में आत्म-हत्या करके मर गई।
तिष्यरक्षिता : मर गई! [करुण स्वर में] आह, बेचारी स्त्री!
अशोक : मैंने पुष्य को आज्ञा दी थी कि वह उस स्त्री को विश्राम-शिविर में ले जाकर खड़ी कर दे। शिविर का प्रत्येक सैनिक उसके सामने आए और वह स्त्री उस सैनिक को पहचाने, जिसने उसके शिशु की छाती में भाला घुसेड़ दिया था। मुझे ज्ञात हुआ कि 123 सैनिक घरों में घुसे थे। उन्हीं 123 सैनिकों के भाग्य का निर्णय था, किंतु उस स्त्री ने 17 सैनिकों के आने पर एक बार अपने बच्चे को चूमा, हृदय से चिपटा लिया और अट्ठारहवें सैनिक की कमर से छुरी निकाल कर स्वयं आत्म-हत्या कर ली। पुष्य उसे रोक नहीं सका और वह खून की नदी में तड़पने लगी। देवि, उसने मेरे न्याय पर विश्वास नहीं किया। उसने मेरी राज्य-सत्ता से बढ़कर अपने बच्चे को समझा।
तिष्यरक्षिता : महाराज, माता का हृदय संसार के किसी वैभव से नहीं तुल सकता। वह सबसे बड़ा है।
अशोक : किंतु माता के हृदय में विशालता भी तो होती है।
तिष्यरक्षिता : पहले वह अपने बच्चे के लिए होती है महाराज! आप अनुमान कर लीजिए कि इस युद्ध में जितने वीरों की मृत्यु हुई है, उनकी माताओं के हृदय की क्या दशा होगी?
अशोक : मैं देख रहा हूँ देवि! आज एक बच्चे की माँ ने मेरे सारे साम्राज्य को तुच्छ सिद्ध कर दिया!
तिष्यरक्षिता : महाराज आर्यावर्त्त के सब से बड़े वीर हैं।
अशोक : देवि, आज विश्राम-शिविर में जाने पर ज्ञात हुआ कि एक लाख से अधिक सैनिक अभी तक युद्ध में मारे जा चुके हैं, जिनमें बहुत अधिक संख्या कलिंग के सैनिकों की है, तीन लाख सैनिक घायल हुए हैं। उनकी माताओं के हृदय की क्या अवस्था होगी?
तिष्यरक्षिता : [आश्चर्य और दुख में] महाराज, चार लाख वीर संग्राम की बलि हुए हैं!
अशोक : जब कलिंग-नरेश को ज्ञात हुआ कि चार लाख वीर संग्राम-भूमि की बलि हुए हैं, तब उसने यह संधि-पत्र भेजा है। [संधि-पत्र खोलते हुए] आज पाटलिपुत्र की विजय हुई, किंतु देवी, उस स्त्री की आत्म-हत्या ने मेरा ध्यान संग्राम में मरे हुए वीरों की माताओं की ओर आकर्षित कर लिया है और मेरी विजय में जैसे उल्लास के बदले अभिशाप तड़प रहा है।
[बाहर कोलाहल होता है। 'चारु', 'चारु', 'क्या हुआ', 'अभी प्राण शेष है', 'कहाँ चोट लगी है', 'यह कैसे हुआ', 'शांत-शांत' की आवाजें आती हैं।]
अशोक : [चौंककर] यह कैसा शब्द? राजुक!
[राजुक का प्रवेश]
राजुक : महाराज, चारुमित्रा का मृत शरीर बाहर है।
अशोक : [पुनः चौंककर] चारुमित्रा का मृत शरीर?
तिष्यरक्षिता : आह चारु - [सिर झुकाकर बैठ जाती है।]
राजुक : जी हाँ, उन्हें तलवार का गहरा घाव लगा है। आचार्य उपगुप्त उनके साथ हैं।
अशोक : शीघ्र भीतर लाओ।
[चारुमित्रा का शरीर लेकर दो प्रहरी आते हैं, साथ में उपगुप्त भी हैं।]
अशोक : महाभिक्षु को अशोक का प्रणाम! महात्मन यह क्या? [प्रहरियों से] यह शरीर नीचे रख दो! आह, चारुमित्रा! [प्रहरी शरीर रख देते हैं]
तिष्यरक्षिता : ओह मेरी चारु! मेरी चारु!!
उपगुप्त : देवी शांत हों। महाराज, यह चारुमित्रा की स्वामिभक्ति का प्रमाण है!
अशोक : स्वामिभक्ति! कैसी स्वामिभक्ति? अभी जीवित है चारु?
उपगुप्त : महाराज, अभी जीवित तो है, पर वह अचेतावस्था में है।
तिष्यरक्षिता : भंते, क्या हुआ?
उपगुप्त : देवी, शांत हों! चारुमित्रा ने आज संसार के सामने यह घोषित कर दिया कि एक नारी में कितनी शक्ति है, कितनी क्षमता है!
अशोक : किस प्रकार भंते?
उपगुप्त : मैंने सुना था, आपने चारुमित्रा पर अविश्वास किया था!
अशोक : हाँ, वह कलिंग की अधिवासिनी थी। अविश्वास होना स्वाभाविक था।
उपगुप्त : किंतु महाराज, उसने बाल्यावस्था से आपकी सेवा की थी और आज उस सेवा से उसने अपने कलिंग को अमर बना दिया।
अशोक : मैं उत्सुक हूँ भंते, चारु के संबंध में सुनने के लिए।
उपगुप्त : महाराज! आर्यावर्त्त जानता है कि आपने रक्त की नदी बहाकर कलिंग-युद्ध में कितने वीरों को रणक्षेत्र में सुला दिया है। आपने रक्त की नदी से कलिंग की भूमि को लाल बना दिया है और अब तो आपकी विजय निश्चित है।
अशोक : मैंने विजय प्राप्त कर ली महाभिक्षु, यह संधिपत्र है।
उपगुप्त : महाराज, इस संधिपत्र से अधिक मूल्यवान चारु का बलिदान है।
अशोक : [आश्चर्य से] बलिदान!
तिष्यरक्षिता : मेरी चारु ने अपना बलिदान कर दिया!
उपगुप्त : हाँ, महारानी! महाराज के अविश्वास से उसे हार्दिक दुख हुआ था। आज वह महाराज के बाहरी शिविर में महाराज से आज्ञा लेकर चली जाती और महानदी की लहरों में विश्राम करती, किंतु उसके पूर्व ही उसे विश्राम करने का अवसर मिल गया।
अशोक : किस प्रकार? शीघ्र बतलाइए।
उपगुप्त : महाराज! यदि चारुमित्रा के चरित्र-गान में कुछ विलंब लग जाय, तो आप धैर्य रखें! उसका चरित्र ही ऐसा है। आज चारुमित्रा आपके बाहरी शिविर में आपके लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी, किंतु संभवतः आपके लौटने में देर हुई।
अशोक : हाँ, मैं आज शिविरों के निरीक्षण के लिए चला गया था। अभी तक मैं अपने शिविर में शयन के लिए नहीं पहुँचा।
उपगुप्त : महाराज, उस शिविर में आप पर आक्रमण करने के लिए कलिंग के कुछ सैनिक छिपे हुए थे। वे संध्या से ही मगध-सैनिक के वस्त्र में शिविर में घूम रहे थे। चारुमित्रा को उन पर संदेह हुआ। उसने बातें कर यह जान लिया कि कलिंग के सिपाही हैं।
अशोक : [आश्चर्य से] फिर?
उपगुप्त : महाराज! देवी चारुमित्रा ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा - कायरो, तुम लोग मेरे देश कलिंग के नाम को कलंकित करने वाले हो! यदि महाराज अशोक को मारना है, तो युद्ध में तलवार लेकर क्यों नहीं जाते? यहाँ चोरों की तरह घुस कर एक वीर पुरुष से छल करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती!
अशोक : चारुमित्रा तुम धन्य हो! तुम देवी हो!
उपगुप्त : महाराज! उन सैनिकों ने चारुमित्रा को लालच दिया, कलिंग की विजय का स्वप्न दिखलाया, किंतु चारुमित्रा ने कहा - मैं अपने स्वामी से विश्वासघात नहीं कर सकती! मैं देश-भक्ति को जितना आदर देती हूँ, उतना ही स्वामिभक्ति को।
अशोक : चारु, तू अमर हो!
उपगुप्त : महाराज, चारु निश्चय ही अमर होगी। उसने उन सैनिकों को हट जाने के लिए ललकारा। जब वे नहीं हटे तो कक्ष में टँगी हुई तलवार लेकर उसने उन सैनिकों पर आक्रमण कर दिया।
तिष्यरक्षिता : धन्य चारु, चारु सैनिक भी है!
उपगुप्त : हाँ देवी, दो सैनिक घायल होकर भाग गए लेकिन एक सैनिक की तलवार चारु के कंधे पर लगी और वह गिर पड़ी। उसी समय मैं पहुँचा। वह कायर वहाँ से भाग कर पास की झाड़ी में छिप गया। देवी चारु ने अचेत होने से पहिले सारी कथा मुझे टूटे-फूटे शब्दों में सुनाई थी।
अशोक : धन्य है चारु! आज तूने अपने देश कलिंग को अमर कर दिया।
तिष्यरक्षिता : महाराज, मेरी चारु...
अशोक : महारानी, अधीर मत हो। चारु ने जो कार्य किया है, वह नारी-जाति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। और सुनो देवी, आज से अशोक ने... अत्याचारी अशोक ने युद्ध को सदैव के लिए छोड़ दिया! [तलवार भूमि पर फेंक देता है।]
सब : महाराज अशोक की जय!
अशोक : महाभिक्षु, आज से मैं हिंसा किसी रूप में न करूँगा। और देखूँगा कि मनुष्य का रक्त इस पृथ्वी पर न पड़े। प्रत्येक स्थान पर, सिंहासन पर, अंतःपुर में, विहार में, मैं जनता की सेवा करूँगा। आज से मेरा महान कर्तव्य होगा कि मैं सब जीवों की रक्षा का अधिक से अधिक प्रबंध करूँ।
उपगुप्त : देवानांप्रिय प्रियदर्शी महाराज अशोक का कल्याण हो!
अशोक : मेरे आदेशों को शिलालेख के रूप में लिखवाकर समस्त आर्यावर्त्त में प्रचार कर दो कि अशोक आज से उनकी रक्षा करने वाला उनका बंधु है।
चारुमित्रा : [बेहोशी दूर होने पर] महाराज अशोक की जय!
तिष्यरक्षिता : ओह, चारु तू अच्छी है!
अशोक : चारुमित्रा की जय! चारु?
चारुमित्रा : महाराज, क्षमा! आपकी आज्ञा थी कि मैं मगध की ओर से तलवारों के साथ भैरवी-नृत्य सीखूँ! पूरी तरह नहीं सीख सकी। क्षमा हो।
अशोक : चारुमित्रा, तू पाटलिपुत्र की शोभा है, उसके गौरव की विभूति है।
चारुमित्रा : महाराज आग के अंगारों पर नाचने का अवसर तो आपने नहीं दिया - अब मैंने अंगारों पर अपनी देह रखने का अवसर आप से माँग लिया! [क्षमा करें, देवी!]
तिष्यरक्षिता : ओह चारु, तू अच्छी हो जाएगी।
चारुमित्रा : नहीं देवी [शिथिल स्वर से] महाराज अशोक की जय।
[आँखें बंद कर लेती है। अशोक अवाक हो चारुमित्रा की ओर देखते रह जाते हैं।]
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