चरनदास चोर (नाटक) : हबीब तनवीर

Charandas Chor (Play in Hindi) : Habib Tanvir

पात्र

चरनदास : एक चोर ।
हवलदार : चरनदास को पकड़ने के लिए आतुर ।
सत्तूवाला : एक किसान जिसे चरनदास लूटता है ।
सेठानी : एक स्त्री जिसके ज़ेवर चरनदास छीनता है ।
गुरु : जिन्हें चरनदान अपना गुरु बनाता है और उनसे सदैव सत्य बोलने का प्रण करता है ।
चेला एक : गँजेड़ी ।
चेला दो : शराबी ।
चेला तीन : जुआरी ।
मालगुजार : एक धनी और समृद्ध किसान ।
मंगलू : मालगुजार का नौकर ।
पुजारी : मन्दिर का पुजारी ।
मन्त्री : राज्य के मन्त्री ।
मुनीम : खजाने के मुनीम ।
रानी : राज्य की रानी ।
पुरोहित : राज्य के पुरोहित ।
दासी (खूबा) : रानी की दासी ।

इनके अतिरिक्त सिपाही, पंथी गायक और अनाज लेने वालों की भीड़ ।

अंक एक-दृश्य : एक

[पंथी गायक गीत गाते और नाचते हुए प्रवेश करते हैं । ]

सत्यनाम ! सत्यनाम ! सत्यनाम !
सार गुरु महिमा अपार,
अमृत धार बहाई दे ।
हो बेड़ा पार, सत्यगुरु ज्ञान लगाई दे !

सत्यलोक से सत्तगुरु आये हो
अमृतधारा ला सत्त भर लाये हो
अमृत दे के बाबा कर दे सुधार
तर जाही संसार । सत्यगुरु ज्ञान लगाई दे !

सत्य के तराजू में दुनिया ला तोलो जी
गुरुजी बताइन सच सच बोलो जी
सत्य के बोलिया मन हावे दुई चार !
वही गुरु है हमारा !
अमृत धार बहाई दे !
सत्यनाम ! सत्यनाम ! सत्यनाम !
सार गुरु महिमा अपार
अमृत धार बहाई दे ।
हो जाही बेड़ा पार, सत्यगुरु ज्ञान लगाई दे !

[पंथी गायक नाचते हुए निकल जाते हैं । दूसरी ओर से चरनदास कपड़ों का एक भारी गट्ठर लिये हुए गाना गाते हुए प्रवेश करता है । ]

बिलई ताके मुसुवा बाड़ी में सपट के ॥
बिलई रोग ही मरगे कहिके मुसुवा सब आवें,
कोई चढ़े पीठ में, कोई दिल्लगी लगावें ।
लें कइसे मरें संगी ओ गिर रपट के ॥
बिलई ताके मुसुवा बाड़ी में सपट के ॥

अटक मटकन दही के चटकन
खोलो भैया मोरे, ढक्कन का चीज है ।

बिलई ताके मुसुवा बाड़ी में सपट के ॥

मने मन बिलई ह गुने दिन डूबन दे राह रे,
कहाँ जाहू देखत हाववे तुम सब मोर मारे,
पाछू में रह जाही तेले ले जाहूँ झपट के ॥

बिलई ताके मुसुवा बाड़ी में सपट के॥

[ गाना ख़तम होते ही हवलदार हाथ में डंडा लिये भागते हुए मंच पर आता है और चरनदास को पकड़ लेता है । ]

हवलदार : ( हाँफते हुए) भाग के कहाँ जायेगा रे ? अब तू बच नहीं सकता बाबू । नदी में जायेगा तो नदी से निकाल लूंगा बेटा । अरे तू चोरी कर के दिन दहाड़े भागा जा रहा था । अब आया बेटा मेरे हाथ ।

चरनदास : (स्वर में दीनता है) अरे रे... अरे क्या हो गया महाराज ?

हवलदार : अबे मुझे पहचानता नहीं? मैं हूँ मिस्टर बाबूदास । हवलदार ! पुरानी सर्विस वाला हूँ बेटा । भूसा भर दूंगा साले ।

चरनदास : (नकली रोना) अरे बाप रे !

हवलदार : गट्ठर नीचे रख । तेरी गरदन मरोड़ के अलग फेंक दूंगा बेटा ।

चरनदास : (रोने लगता है) ओ माँ ! मेरा सिर अलग ही पड़ा रहेगा जी । ( रोना बन्द कर) और क्या करेगा मेरे बाप ?

हवलदार : तेरे हाथ-पाँव के टुकड़े टुकड़े कर चारों तरफ़ तिड़ी-बिड़ी कर दूंगा बेटा ।

चरनदास : (और जोर से रोता है) ऐ मां ओ ! ( रोना रोककर ) और क्या करेगा ?

हवलदार : तेरी हड्डी पसली एक कर उसकी चटनी पीस के कुत्तों को खिला दूंगा ।

चरनदास : (और जोर से रोता है। फिर एकदम रोना रोककर ) हे माँ ओ ! आज ही खिलायेगा मेरे बाप ?

हवलदार : मेरी चलती तो अभी खिला देता बच्चू, पर क्या करूँ ? सरकारी नौकर हूँ । ये इतना बड़ा गट्ठर तेरे बार का है बे ?

चरनदास : (दीन स्वर में ) गाहक का है महाराज !

हवलदार : गाहक का है ? ..तू धोबी है क्या रे ?

चरनदास : हाँ महाराज !

हवलदार : हत्तेरे की । उल्लू कहीं का। तू ने पहले क्यों नहीं बताया ?

चरनदास : मुझे बताने का मौका कब मिला महाराज ?

हवलदार : अच्छा, एक बात बता बेटा । तूने चोरी की है तो मुझे बता दे। अभी हम लोग दो ही आदमी हैं। मैं तुझे छोड़ दूंगा ।

चरनदास : मैं चोरी नहीं करता महाराज ।

हवलदार : चोरी कभी नहीं करनी चाहिए। अच्छा यह बता, इस गाँव से एक सोने की थाली चोरी हुई है बाबू । तू जानता है रे किसने चुराई होगी थाली ?

चरनदास : हाँ।

हवलदार : बता बेटा । अभी तुझे इनाम दूंगा ।

चरनदास : इनाम !

हवलदार : हाँ।

चरनदास : दे इनाम दे ।

हवलदार : पहले पता तो बता चोर का ।

चरनदास : पहले इनाम तो दो महाराज ।

हवलदार : तुझे विश्वास नहीं है रे उल्लू । अच्छा ले, ये दो रुपये ले । बाद में और इनाम दूंगा ।

चरनदास : अच्छा-अच्छा ।

हवलदार : तो बता जल्दी ।

चरनदास : महाराज, जिस आदमी ने चोरी की है न, वह चोर है।

हवलदार : चोर है ! यह बात तो मैं भी जानता हूँ ।

चरनदास : बस तो फिर जाके उसे पकड़ लीजिए ।

हवलदार : अरे तू बताएगा तभी तो पकड़ूंगा ।

चरनदास : बता तो रहा हूँ महाराज !

हवलदार : उल्लू ! अरे मैं उसका नाम पूछ रहा हूँ चोर का । उसका नाम क्या है मुझे बता ?

चरनदास : ओह हो महाराज ! जो चोरी करता है उसका नाम चोर ही होता है, उसका कोई और दूसरा नाम नहीं होता ।

हवलदार : हाँ, जो चोरी करता है वह चोर होता है और उसका नाम भी चोर होता है ।

[ मौका पाकर चरनदास भाग जाता है। हवलदार उसके पीछे-पीछे भागता है । ]

हवलदार : अरे, मुझे धोखा देकर भागता है । भाग के कहाँ जायेगा बच्चू ? ....

[ हवलदार चरनदास को न देख पाने के कारण ग़लत दिशा में चला जाता है। चरनदास दूसरी दिशा से भागकर मंच पर आ जाता है और कपड़ों की गठरी खोलकर उसमें से सोने की थाली निकालता है और खुश होता है । ]

चरनदास : देखो, सोने की थाली बचा ली। हवलदार थाली को देख नहीं पाया।

[ थाली हाथ में लेकर गाता है]

जम्मो मुसुबा अपन अपन ले एकेक बिखरागे ।
एक बुढवा घूँस मुसुबा देख वहीं पछुवागे ॥
देख के ओला चुप्पे उठग टाँग मारे फटके ।
बिलाई ताके मुसुबा बाड़ी में सपट के ॥

अटकन मटकन दही के चटकन -
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ?
ढक्कन में निकले है एक बिल्ली,
चूहा भागे दनादन ये चीज है ॥

अटकन मटकन दही के चटकन
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ?
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ?
निकल हावे बैंगन ये चीज है ।
छुक छुक भागे इंजन ये चीज़ है।
इंजन है कि बैंगन का चीज है।
गुड़िया बनगे इंजन ये चीज है ।
गुड़िया बनगे मक्खन ये चीज़ है ।
नाचे गुड़िया छनाछन ये चीज है ।
गुड़िया बनगे मक्खन ये चीज है ।
खागे बिल्ली वो मक्खन ये चीज है
बिल्ली बनगे ढक्कन ये चीज है ।

[ एक किसान, जिसके हाथ में सत्तू की गठरी है, आता है ]

चरनदास : ओ जाने वाले ! तेरे हाथ में क्या है ? उसको यहीं रख दे । नहीं तो तुझे कच्चा ही खा जाऊँगा ।

सत्तूवाला किसान : ओ हो ! मुझे कच्चा खा जायेगा, मैं तुझे कच्चा नहीं खा लूंगा। बड़ा आया कच्चा खाने वाला। हिजड़ा कहीं का ।

चरनदास : ये इधर आ (हिजड़ा आवाज में) एक बात पूछूं भैया !

सत्तूवाला : पूछ ।

चरनदास : तूने ये बात कैसे जानी ?

सत्तूवाला : (हँसता है)

चरनदास : चुप बे, क्या मैं वही हूँ रे ?

सत्तूवाला : मुझे नहीं मालूम भैया ।

चरनदास : क्या रखा है रे ? नीचे रख दे । लादे दे । अबे दे । भाग यहाँ से । (डराता है)

[ सत्तूवाला डरकर भाग जाता है ]

चरनदास : (गठरी खोल के देखता है) अरे सत्तूवाले ! ओ सत्तूवाले ! इधर आ। अपना सत्तू तू भी खाले । आ जा। डर मत । आजा, अरे दोनों भाई एकसाथ बैठकर खायेंगे। कितना आनन्द आयेगा । आ जा। बैठ जा, अरे बैठ । ( सत्तूवाला बैठता है । उसके कमर से पैसे की आवाज आती है उसे सुनकर ) घंटी में क्या दबा रखा है ? ला दे । दे दे और दे । (सत्वाला डरते हुए पैसे की थैली दे देता है) अरे तू तो मेरे से भी बड़ा चोर निकला। भाग यहाँ से ।

[ सत्तूवाला भाग जाता है । चरनदास गाना गाता है]

बिलई ताके मुसुवा बाड़ी में सपट के ॥
कान पूंछी डोलावें नहीं बइठे रहय चुपले ।
खाने को वो मुसुबा निकले ओला धरे गुपले ।

बिल के पाछू छोड़ के थोरिक बइठे रहय हटके ।
बिलई ताके ॥

अटकन मटकन दही के चटकन
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ।
बिल्ली बनीगे है ढक्कन ये चीज है ।
चूहा भागे दनादन ये चीज है ।
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ?
बिल्ली बनीगे है ढक्कन ये चीज है ।
बिलई ताके मुसुबा बाड़ी में सपट के ॥

बड़े मुसुबा कह कइसे दिन दिन होंथन कमी ।
सब्बोला चेतावे अच्छा करिहों काली गनती ।
हम को खतम करके अपन खावत है डपट के। बिलई ताके ॥

अटकन मटकन दही के चटकन,
खोलो भइया मोरे ढक्कन का चीज है ?
बिल्ली के सिर में है राजे मुकुट
चूहा मारे दनादन ये चीज है ।
बिल्ली बनीगे हे ढक्कन ये चीज है।

[ एक सेठानी सोने के गहनों से लदी हुई प्रवेश करती है। उसके पीछे चरनदास भी लुकता -छिपता आता है।]

चरनदास : (स्वत:) अरे बाप रे ! कितने गहने पहन रक्खे हैं ।

[ कुछ सोचता है और फिर सहसा रोने लगता है ]

सेठानी : ( उसके पास आकर) क्या हुआ भैया ? कहाँ से आया है ? भटगाँव से आया है ?

चरनदास : नांदगाँव से आया हूँ ? (स्वतः ) हत् तेरे की बुद्धू । (स्पष्ट ) कहाँ की हो बाई ? मैं भटगाँव से आया हूँ ।

सेठानी : मेरे छोटे बाबू ठीक हैं न ?

चरनदास : दीदी दीदी कह रहे थे ।

सेठानी : दीदी दीदी कह रहे थे ! उसकी तो कोई दीदी नहीं है। मैं तो उसकी भाभी हूँ ।

चरनदास : अरे हाँ ! भाभी भाभी कह रहे थे। सख्त बीमार हैं। तेरे हाथ से दवाई पिऊँगा, नहीं तो पट से मर जाऊँगा, कह रहे थे। जल्दी चल ।

सेठानी : अच्छा भैया, मैं घर से आती हूँ ।

चरनदास : नहीं, घर जाने का समय नहीं है। जल्दी चलो नहीं तो वह पट से मर जायेगा ।

सेठानी : अच्छा भैया चल ।

चरनदास : (कुछ दूर जाकर ) अरे बाप रे !

सेठानी : क्या हुआ भैया ?

चरनदास : बाई, रास्ता बहुत खतरनाक है । यहीं पर एक आदमी को कच्च से मार डाला था। बेचारा तड़प-तड़प कर मर गया । और तू औरत जात! कोई आ जाये तो क्या करेगी ? इसलिए जितने गहने पहनी हो उसे इस गमछे में रख दो ।

[चरनदास अपना गमछा ज़मीन पर फैला देता है ]

सेठानी : अच्छा भैया रख देती हूँ ।

[ गहना उतारती है और गमछे में रखती है । चरनदास इस दौरान उससे एक-एक बात पूछता है ]

चरनदास : यह गहना कहाँ बनवाया है बाई ?

सेठानी : रायगढ़ में ।

चरनदास : सोनार का क्या नाम है बाई ?

सेठानी : राम लाल ।

चरनदास : असली सोने का है ?

सेठानी : हाँ भैया ।

[सेठानी पूरे गहने निकाल कर गमछे में बाँधती है ]

चरनदास : ला मुझे दे ।

सेठानी : नहीं, मैं रख लेती हूँ ।

चरनदास : बाई, तेरे हाथ से गहना इधर-उधर हो जायेगा। मैं सम्भाल कर रखूंगा ।

सेठानी : नहीं, मैं सम्भाल लूंगी ।

चरनदास : बाई, तू औरत जात है । कोई चोर-बदमाश आया तो क्या करेगी ? मैं हिम्मत करूँगा । ला दे ।

सेठानी : नहीं ।

[ चरनदास उसके हाथ से पोटली छीन लेता है । सेठानी रोती है ]

सेठानी : देवर बुला रहा है-कहकर बीच रास्ते में लाकर मेरे गहने छीन लिये। चोर कहीं का ।

चरनदास : क्यों रो रही है बाई ? क्या करूँ, भगवान ने मुझे चोर ही बनाया है ।

सेठानी : मुझे आधे रास्ते में लाके धोखा दिया। तेरी खाट निकले ।

चरनदास : अरे खाट मत निकाल बाई । आराम करना पड़ता है।

सेठानी : तेरा मुर्दा निकले।

चरनदास : ऐसा मत कहो बाई । तुम्हारी हमारी मुलाक़ात नहीं होगी ।

सेठानी : (फिर रोती है)

चरनदास : (रोते हुए) औरत जात का रोना सुनकर मेरा कलेजा फट जाता है । औरत जातका गहना चोरी नहीं करना चाहिए। मैं चोरी नहीं करूंगा । (गहना सेठानी को देता है) ले, ये गहना सम्भाल के रख ले बाई ।

[ सेठानी चरनदास को धक्का मारती है और गहना लेकर भाग जाती है । चरनदास गिर जाता है । उसी समय हवलदार आता है। चरनदास हवलदार को चकमा देकर भाग जाता है।]

हवलदार : ( उसके पीछे भागते हुए) अरे फिर मुझे धोखा दिया । बचकर कहाँ जायेगा बच्चू ।...

[ हवलदार पीछे भागता है ]

अंक एक-दृश्य : दो

(गुरु का गाते हुए प्रवेश )

बाबा रमता अकेला बन में ।
साधू रमता अकेला बन में ।
अमा के डारा कोयलिया बोले
बाबा सुबाना बोलत है बन में,
घर वाले मन है घर में राजी,
फक्कड़ है राजी मन में ।
बाबा रमता अकेला बन में
साधू रमता अकेला बन में ।

गुरु : अलख ! खोल पलक । देख दुनिया की झलक ।

एक चेला : गुरुदेव, पायलागी । गुरुदेव !

गुरु : भोले नाथ, शिवशम्भू !

दूसरा चेला : पायलागी महाराज !

गुरु : जय हो ! जय हो ! जय हो !

तीसरा चेला : पाँव पड़ता हूँ गुरुदेव ।

गुरु : कल्याण हो, कल्याण हो बेटा । जीते रहो ।

[ गुरुजी मृगछाला बिछाकर बैठ जाते हैं। अपना चिमटा और थैला भी नीचे रख देते हैं ]

[ भक्त लोग भी उनके तीनों ओर घेरा बनाकर बैठ जाते हैं और गुरुजी के साथ भजन शुरू करते हैं-]

अब होगा नहीं कल्याण, दीजो गुरु दक्षिणा ॥
है व्यर्थ गुणी का ज्ञान, दीजो गुरु दक्षिणा ॥
दक्षिणा की रीति निभाने वाला पायेगा ।
इसको जो समझा, वो धोखा नहीं खायेगा ।
गुरु दक्षिणा है महान, दीजो गुरु दक्षिणा ॥
अब होगा नहीं कल्याण, दीजो गुरु दक्षिणा ।।

[ भजन समाप्त होने पर एक शराबी प्रवेश करता है ]

शराबी : मैं भी चरण छूता हूँ महाराज !

गुरु : जय हो बेटा । जय हो, चिरंजीव रहो। जीते रहो । कल्याण हो बेटा । आहा हा हा हा बेटा, रोज तुझे देखता हूँ । रोज तू आता है, गुरु के चरण छूता है, गुरु दक्षिणा देता है, लेकिन तूने गुरु से प्रण किया था कि शराब नहीं पीयूँगा तो बता शराब छोड़ी कि नहीं ?

शराबी : शराब की बात आपने क्या छेड़ी महाराज, मुझे कटार मार दी ।

गुरु : अरे अरे !

शराबी : एक दिन की बात है महाराज कि मैं घर के अन्दर गया । देखता हूँ कि खाली बोतल औंधी पड़ी है। मेरे मन में एक बार आ...

गुरु : आहा हा हा हा...

शराबी : आप फ़िक्र मत करो महाराज । आपके अमृत वचन मैंने सुन लिये थे। बोतल से मैंने कहा - 'ख़बरदार री बोतल ! पीना तो पीना तुझे देखना भी हराम है।'

गुरु : शाबाश! शाबाश है बेटा ।

शराबी : उसी दिन से गुरुजी मेरा बदन कुट-कुट, कुट-कुट दुखता रहता है ।

गुरु : कुट-कुट, कुट-कुट...

शराबी : दुखता है ।

गुरु : कुट, कुट, कुटक, कुट..

शराबी : दुखता है महाराज !

गुरु : अरे दुखने दे बेटा। गुरु का वचन है न, उसे दवाई समझ । अमृत है अमृत । अगर गुरु के वचन को अमृतरूपी दवाई समझ के तू पी गया और हृदय में बसा लिया और बोतल के खयाल को भुला दिया तो संसार में इन्सान बनकर रहेगा इन्सान !

जुआरी : (ताश के पत्ते फेंटते हुए) महाराज, बड़ी देर से इंतिज़ार कर रहा हूँ । कितना माल जमा कर लिया है आपने ? आइये, हो जाएँ दो दो हाथ । लीजिये काटिये ।

गुरु : ऐसा चिमटा दूंगा कि तेरी खोपड़ी खुल जाएगी। बदतमीज कहीं का। यह सन्त अखाड़ा है कि जुआ अखाड़ा रे ?

जुआरी : गुरुदेव ! आप तो सबके गुरु हो । जुआ में जीतने का कोई उपाय बताओ न । बहुत पैसा हार गया हूँ महाराज ।

गुरु : जुआ जीतने का उपाय तुझे सीखना है तो जुए वाले चौधरी के पास जा । यह संत अखाड़ा है बाबू । यह देख, यह बेचारा शरीफ़ शराबी तीन दिन से मेरे पास आता है । पहिले दिन आया शराब के नशे में धुत्त । बोलने का होश नहीं । चलने का होश नहीं। मुझसे कहा, “गुरुजी मुझे शिष्य बना लो।" मैंने कहा, चल हट ऐसे आदमी को मैं शिष्य बनाने वाला नहीं। बस उसी दिन इसने वचन दिया और शराब एकदम छोड़ दी। अगर मेरा शिष्य बनना है तो जैसे इस शराबी ने शराब एकदम छोड़ दी वैसे ही तू भी ताश का जुआ छोड़ दे ।

जुआरी : गुरुदेव, मैं और कोई जुआ नहीं खेलता । सिर्फ़ यह एक ताश का जुआ ही तो खेलता हूँ महाराज !

गुरु : अरे सब जुआ छोड़ दे ।

जुआरी : बस इसी ताश के खेल से आमलेट और स्लाइस का खर्चा निकालता हूँ ।

गुरु : अब डबल मत लेना रे आमलेट का नाम । अगर तुझे आमलेट खाना है तो कैंटीन वाले को जाकर गुरु बना । अगर मेरा शिष्य बनना है तो जुआ तुझे छोड़ना पड़ेगा ।

जुआरी : यह लीजिये, छोड़ दिया महाराज । अब मुझे चेला बनालोगे गुरुदेव ?

गुरु : अरे इन्सान को चेला बनाता हूँ । कुत्ते-बिल्लियों को चेला नहीं बनाता।

जुआरी : ठीक है महाराज, बस मैं आज से जुआ नहीं खेलूंगा । मुझे चेला बना लो गुरुदेव ।

गुरु : जरूर बनाऊँगा ।

गंजेड़ी : (आते हुए) गुरुदेव, मुझे चेला बना लो गुरुदेव ।

गुरु : तेरे में क्या ऐब है बाबू ?

गंजेड़ी : मेरे में कुछ ऐब नहीं है गुरुदेव । ( बीड़ी सुलगाता है)

गुरु : कोई ऐब नहीं है, तो तू बना-बनाया चेला है बेटा । फिर तुझे किस बात की चिन्ता ? (खाँसता है) कहाँ का धुआं है ( यकायक ) मार डाला रे । चंडाल कहीं का । बदतमीज़ ..

गंजेड़ी : क्या हो गया गुरुदेव ?

गुरु : पूछना न पाछना, अरे कभी संत अखाड़े में बैठा है ? आके फकर-फकर बीड़ी पीनी शुरू कर दी।

गंजेड़ी : कभी नहीं बैठा हूँ गुरुदेव ।

गुरु : मैं सोच रहा हूँ कहाँ से इतना धुआँ आ रहा है। पावर हाऊस बना रखा है।

गंजेड़ी : माफ़ कर दो गुरुदेव ।

गुरु : बेटा, यह संत अखाड़ा है, अगर तुझे मेरा शिष्य बनना है तो जैसे इस शराबी ने शराब पीना बन्द कर दी, इस जुआरी ने जुआ खेलना बन्द कर दिया वैसे ही तू भी बीड़ी पीना बन्द कर दे ।

गंजेड़ी : बीड़ी पीना बंद कर दूं गुरुदेव ? अच्छा लो, बंद कर दिया।

गुरु : शाबाश ! ... एक ही बात में बन्द कर दिया ! ...बेटा, एक चीज़ और..

गंजेड़ी : और क्या चीज ?

गुरु : गुरु दक्षिणा लगेगी ।

गंजेड़ी : गुरु दक्षिणा ! अभी देता हूँ गुरुदेव ।

जुआरी : यह गमछा लो महाराज मेरी तरफ़ से ।

गुरु : शाबाश बेटा । जीते रहे पहलवान ! अरे ! इसमें तो कुछ नहीं है।

जुआरी : उसमें क्या होगा महाराज !

गुरु : मैं समझा गमछे में कुछ दक्षिणा बाँधकर दे रहा है। यहाँ तो एक पैसा नहीं है और गमछा भी छेद वाला है ।

जुआरी : आप नहीं जानते महाराज, वह छेद वाला है न इसी में से हवा पास होती है ।

गुरु : अच्छा तुमने मुझे मोटर सायकिल बनाया है। हवा भरने के लिए आया है । अरे बाबू ! गुरु दक्षिणा नहीं देगा तो तरेगा कैसे ?

जुआरी : महाराज ! सब पैसा आज मैं जुए में हार गया। कल लेना ।

गुरु : उधार चलाने के लिए आ गये। ये राशन की दुकान नहीं है बाबू, तुरन्त दान महाकल्याण । अभी दे ।

जुआरी : नहीं है महाराज ।

गंजेड़ी : यह लीजिए महाराज, मेरी तरफ़ से दक्षिणा ।

गुरु : शाबाश टेटकू । ऐसे को कहते हैं चेला, तुझसे कब से माँग रहा हूँ और इसे देख, तुरन्त दक्षिणा रख दी। शाबाश । कितना है बेटा ?

गंजेड़ी : पूरा पच्चीस का बंडल है गुरुजी !

गुरु : अरे यह क्या ? मैं समझा नोट का बंडल है और तूने रख दिया बीड़ी का बंडल ! अरे अभी बीड़ी पीना मैंने छुड़ाया है और तू मुझी को बीड़ी पिला रहा है।

गंजेड़ी : गुरुदेव, बीड़ी पीना छुड़ा दिया है न, उसी कारण तो दे रहा हूँ ।

गुरु : अच्छा, यानी आज से नहीं पीयूँगा सोच के गुरुजी को अर्पण कर दिया। अरे बेटा, बीड़ी मैं भी नहीं पीता । बीड़ी तू भी मत पी। यह बीड़ी फेंक ।

गंजेड़ी : यह लो ।

गुरु : शाबाश बेटा । गुरुजी के खर्चे के लिए कुछ पैसा दे ।

गंजेड़ी : पैसा ? पैसा नहीं है गुरुदेव ।

गुरु : तेरे पास भी पैसा नहीं हैं रे !

गंजेड़ी : नहीं है गुरुदेव ।

गुरु : सब उधार वाले आ गये हैं। वाह रे चेले ! चेले मिले तो शराबी, गंजेड़ी, जुआरी । एक भी नकदी न दे। सबके सब उधारी ।

गंजेड़ी : कल ले लेना गुरुदेव ।

गुरु : क्या बात कर रहा है? अरे दक्षिणा नहीं देगा तो तरेगा कैसे ? देख बेटा, गुरु दक्षिणा बिना बात नहीं बनती। दक्षिणा तो देनी ही पड़ती है। देख भला, सवा रुपया तो होगा तेरे पास ? बस एक रुपया पच्चीस पैसा ।

गंजेड़ी : अरे बाप रे ! एक रुपया पच्चीस नवा पैसा । नई है गुरुजी ।

गुरु : और कुछ नहीं तो चाय के लिए दो-चार आना निकाल रे ।

गंजेड़ी : एक फूटी कौड़ी नई है गुरुजी । जो कुछ था, उसकी बीड़ी ले ली ।

गुरु : फिर वही बीड़ी की बात ! अच्छा यह क्या है ? हूँ चिलम, वाह रे गंजेड़ी लगे दम मिटे ग़म बेटा तेरे पास तो पैसा नहीं है। यह चिलम गुरु दक्षिणा में दे दे ।

गंजेड़ी : गुरुदेव, आपने बीड़ी छोड़ने के लिए कहा न, मैंने छोड़ दी, मगर यह गाँजा नहीं छूटता गुरुदेव ।

गुरु : अरे अरे अरे, बेटा यह गुरु दक्षिणा का माल है । दे के वापिस नहीं लेते। जय भोलेनाथ ।

गंजेड़ी : अच्छा ले लो गुरुदेव । अब मेरे कान में मंत्र तो फूँक दो ।

[चरनदास भागता हुआ आता है और गुरु के कदमों में गिर पड़ता है। एक ओर गुरु की आड़ में छिप जाता है । ]

चरनदास : गुरुजी !

गुरु : कल्याण हो बेटा, कल्याण हो ।

[ हवलदार का भागते हुए प्रवेश । इधर-उधर देखता है ]

हवलदार : साधू महाराज !

गुरु : कौन है भाई ?

हवलदार : यहाँ कोई चोर भाग के आया है क्या ?

गुरु : चोर ? अरे बेटा, चोर यहाँ आके क्या करेगा ? अरे कोई माल धनी के घर जाएगा तो माल पाएगा । अरे संत के अखाड़े में आएगा तो क्या धूनी की खाक चुराएगा ? और अगर आ भी जाए तो वह चोर चोर नहीं रह जाएगा।

हवलदार : कैसे ?

गुरु : जैसे गंगा का पानी नाली का पानी गंगा में मिल जाता और गंगा बन जाता है, वैसे ही संत के अखाड़े में चोर, लफंगा, जुआरी, बदमाश, लोफ़र, शराबी-कबाबी जो भी आएगा बेटा, संत के अखाड़े में आएगा, संत बन जाएगा । वह चोर नहीं रह जाएगा। यहाँ कोई नहीं आया, दूसरी जगह देख ।

हवलदार : अच्छा साधू महाराज ! किसी दूसरी जगह देखता हूँ ।

(जाने लगता है)

[ शराबी, जुआरी और गंजेड़ी गुरु से कान में मंत्र फुंकवाने के बाद एक कोने में खिसक गये। गुरु के सामने से हटते ही शराबी ने अपनी जेब से छुपी हुई बोतल निकाल कर शराब पीनी शुरू कर दी । गंजेड़ी ने बीड़ी पीनी शुरू कर दी और जुआरी ने ताश का खेल शुरू कर दिया। हवलदार जाते-जाते इस गिरोह को देखता है और ठिठक जाता है ।]

हवलदार : इनको देखो सालों को। सड़क के बीच में बैठकर जुआ खेल रहे हैं । (जमीन पर फैले रुपए उठाकर अपनी जेब में रख लेता है) लाज नहीं आती बे तुम लोगों को ! अरे सुनो तो रे ! ये कौन है ?

जुआरी : उनको पूछ रहे हो सरकार ? साधू महाराज हैं।

गंजेड़ी : हमारे गुरुजी हैं ।

हवलदार : तुम्हारे गुरुजी हैं ! अरे मुझे तो चोरों के सरदार लगते हैं ।

शराबी : किसने कहा रे चोरों के सरदार ? मुझे कहा साले ने ? मुझे चोरों का सरदार कहता है बे ?

जुआरी : अरे ! तुझे कोई कुछ नहीं कह रहा है। चुपचाप बैठ जा ।

शराबी : इसकी ये हिम्मत ?

हवलदार : अबे ! अभी दिखाता हूँ । मजा चखाता हूँ बेटा ।

[ तीनों को मार कर भगा देता है और खुद भी चला जाता है । ]

चरनदास : (गुरु के कदमों से सिर उठाकर) वाह गुरुदेव ! आज आपने मुझे बचा लिया महाराज ।

गुरु : भगवान बचाने वाला है बेटा । परमात्मा ने तुझे बचाया । मैंने क्या बचाया ? कहाँ रहता है ? तेरा नाम क्या है बाबू ?

चरनदास : महाराज ! मेरा नाम है चरनदास ।

गुरु : क्या काम करता है ?

चरनदास : मत पूछो गुरुजी ।

गुरु : क्या हो गया रे !

चरनदास : मुझे बताने में शर्म आती है ।

गुरु : काम बताने में शर्म आती है। अच्छा मैं समझ गया बेटा । गुरु के सामने झूठ बोलता है । दाई के सामने पेट छुपाता है । तेरे पीछे हवलदार घूम रहा है। और तू जान बचाने के लिए मेरे पास आया है।

चरनदास : आप तो जान गये गुरुजी । मैं और क्या बताऊँ ?

गुरु : बेटा, तू शिष्य बनने के लिए आया है तो चोरी करना छोड़ दे |

चरनदास : चोरी नहीं करूंगा तो खाऊंगा क्या ?

गुरु : अरे संसार में सब क्या चोरी करके ही जीते-खाते हैं ? नौकरी कर । शराफत से रह । संसार में नाम कमा । चोरी करेगा तभी पेट पाल सकेगा ? अरे कुछ बोल । गुरु बनाने के लिए आया है न, गुरु का वचन रख । हज़ार बात का प्रण मत कर। एक वचन का प्रण कर । बस एक चीज छोड़ दे।

चरनदास : एक चीज़ ? आप हुक्म दें, तो मैं एक नहीं, चार छोड़ दूंगा गुरुदेव ।

गुरु : अच्छा। चार चीज़ कौन-कौन सी !

चरनदास : पहिला प्रण करता हूँ गुरुजी ।

गुरु : अच्छा ले, मैं सुन रहा हूँ ।

चरनदास : आज से मैं सोने की थाली में नहीं खाऊँगा ।

गुरु : शाबाश !

चरनदास : दूसरा प्रण गुरुजी ।

गुरु : सुन रहा हूँ, सुन रहा हूं, बोल-बोल ।

चरनदास : हाथी पर बैठ के जुलूस के साथ शहर भर में कभी भी नहीं घूमूंगा गुरुजी ।

गुरु : अच्छा-अच्छा । वाह रे संतोषी जीव !

चरनदास : तीसरा प्रण गुरुजी ।

गुरु : ले बोल ।

चरनदास : कोई रानी मुझे "शादी कर ले शादी कर ले" ऐसा कहेगी न, तो मैं साफ इन्कार कर दूंगा। मैं रानी से शादी करूंगा ही नहीं गुरुजी ।

गुरु : शाबाश बेटा !

चरनदास : चौथा प्रण गुरुजी ।

गुरु : यह सबसे बढ़-चढ़ के होगा । ले सुना ।

चरनदास : अगर देश की प्रजा सब जमा होके मुझसे कहेगी - चरनदास ! राजा बन जा । गद्दी पर बैठ जा - ऐसा कहेगी न तब भी मैं राजा नहीं बनूंगा गुरुजी । "मैं राजा नहीं बनता" साफ कह दूंगा ।

गुरु : (हँसता है) बेटा, तेरे चारों प्रण मैंने सुने । सोने की थाली में तू नहीं खायेगा । इसलिए कि बचपन से तू सोने की थाली में खा-खा के परेशान हो गया । आज गुरु के सामने तूने प्रण कर लिया कि आज से तू सोने की थाली में नहीं खायेगा । वाह ! दूसरा प्रण - हाथी पर चढ़ के जुलूस में नहीं निकलेगा । इसलिए कि तू इतना बड़ा नेता है कि हाथी पर बैठ बैठ के जुलूस में निकल-निकल के अब तू बिल्कुल थक गया है और गुरु के सामने प्रण कर लिया है। कि आज से तू हाथी पर चढ़ के जुलूस में नहीं निकलेगा । अच्छा कौन-सी रानी तेरी खूबसूरती को देख के तरस रही है रे ? आज से तू रानी संग शादी करेगा ही नहीं । वाह रे निर्लोभी ! चौथा प्रण- तू देश का राजा नहीं बनेगा । देश की सारी जनता तरस रही है न तेरे लिए ? चरनदास बैठ-बैठ गद्दी पर उचित रूप से राज तुझी से चलेगा । लेकिन तू न गद्दी पर बैठेगा, न राजा बनेगा । तुझे लोभ नहीं है बेटा । तू संतोषी जीव है । वाह रे चरनदास ! चरनदास !

चरनदास : जी गुरुजी ।

गुरु : मैंने सुन रखा था बेटा - कि आदमी जब सोता है और उसे नींद लग जाती है तब वह सपना देखता है। अरे बेटा, तू तो जागते हुए, बैठे-बैठे सपना देखता है रे । तू एक चोर है । तेरी ज़िन्दगी में यह सब आने वाला नहीं है बाबू । ऐसी बातें तू जबरदस्ती क्यों सोचता रहता है ?

चरनदास : नहीं गुरुजी ! मौके की बात है। कहीं लग ही गया, तब की बात कहता हूँ ।

गुरु : अरे चोर आदमी जीवन भर मौका ही ताकता रहता है। बेटा अच्छा बेटा सुन। यह चार प्रण तूने अपने मन के किये हैं न, अब तू एक प्रण मेरे मन का कर ।

चरनदास : वह कौन-सा प्रण गुरुजी ?

गुरु : झूठ बोलना बन्द कर दे ।

चरनदास : आपने अच्छा फँसाया मुझे गुरुजी । झूठ बोले बिना चोरी का काम नहीं चलता गुरुजी ।

गुरु : हां, इसीलिए कहता हूँ बेटा, सब बीमारी की एक दवाई- 'झूठ बोलना बन्द कर दे ।' चोरी आप ही आप बन्द हो जाएगी।

चरनदास : नहीं गुरुजी । मैं मुसीबत में पड़ जाऊँगा गुरुजी ।

गुरु : तो हट, मुझे फुरसत नहीं । चल जा, दूसरी जगह देख । चरनदास आपके पाँव पड़ता हूँ गुरुजी ।

गुरु : कह दिया- मुझे फुरसत नहीं ।

चरनदास : गुरुजी ! (यकायक हवलदार को आता हुआ देखकर) अच्छा गुरुजी, आज से मैंने झूठ बोलना छोड़ दिया। (हवलदार इधर-उधर देखने के बाद चला जाता है।) पक्का गुरुजी, सारा समाज बैठा है, इन सबके सामने मैं प्रण करता हूँ कि आज से बस झूठ बोलूंगा ही नहीं ।

गुरु : कसम तो पक्की खाई है। पक्का प्रण है न कि हवलदार को देखके पक्का बना दिया ।

चरनदास : नहीं गुरुजी । जो बात जुबान से निकल गई सो निकल गई।

गुरु : जय हो ! जीते रहो । कल्याण हो । अच्छा अब बता बेटा, गुरु के बारे में क्या विचार है ?

चरनदास : सब अपने-अपने धन्धे में मस्त हैं गुरुजी ।

गुरु : क्या मतलब ?

चरनदास : मतलब यह है गुरुजी कि मैं तो रात के अन्धेरे में छुप-छुपा के, नज़र बचा के दीवार फांद के घरों में घुस के चोरी करता हूँ और आप हैं दिन-दहाड़े खुले मैदान में । आदमी सब जमा हैं और आमदनी आपकी ज्यादा है ।

गुरु : चुप !

चरनदास : आप ही ने तो कहा था गुरुजी कि झूठ बोलना छोड़ दे ।

गुरु : वाह रे मेरे सच बोलने वाले ! अरे मैं वह बात नहीं कह रहा हूँ। मैं गुरु दक्षिणा के बारे में कह रहा हूँ कि तुमने क्या विचार किया ?

चरनदास : दक्षिणा के बारे में ? यह सारा गट्ठर तो आपके सामने रख दिया है गुरुजी ।

...............

चरनदास : अरे, क्यों रो रहा है भाई ?

किसान : (चरनदास को पहचान कर ) तुम ? फिर लूटने चले आये ? ले जाओ । बस, ये लंगोटी बची है, ले जाओ। और नहीं तो मेरा गला घोंट दो ।

चरनदास : अरे हुआ क्या ? कुछ फूटेगा ।

किसान : गाँव में जबरदस्त अकाल पड़ा है। कितने ही गरीब तड़प- तड़प के मर गये । दूसरों की क्या कहूँ भैया । तीन दिन हो गये मेरे ही बच्चों को रोटी का टुकड़ा नहीं मिला है।

चरनदास : अरे राम राम !

किसान : इस गाँव में बहुत बड़ा मालगुज़ार है, जिसकी दस गाँव में खेती है भैया । उसके यहाँ कुआँ, पम्प, बिजली सब लगा है । और जगह-जगह धान उग रहा है। लेकिन मजाल है कि वो किसी गरीब को आधा किलो दे दे । गोदाम के पास अगर कोई जाए तो उसके पहलवान लाठी मार-मार के कचूमर निकाल दें ।

चरनदास : ऐसा अत्याचारी !

किसान : बड़ा कंजूस है साला ।

चरनदास : उस मालगुज़ार को जरा मुझे एक नजर दिखा भला । कहाँ है ?

किसान : मेरे साथ आ । मैं दिखाता हूँ । आ, आ ना जी । वह देख । वह देख रहा है न । वह बैठा है। एक-एक पैसा गिनता हुआ । ब्याज का पैसा । वही है ।

चरनदास : यह है ? माँग के देख ।

किसान : मुझे डर लगता है भैया ।

चरनदास : डरते क्यों हो जी ?

किसान : बन्दूक में गोली भर के बैठा रहता है भैया ।

चरनदास : अरे बाप रे !

किसान : चमक गये न ?

चरनदास : तू माँग के देख। मौका आएगा तो उसकी बन्दूक की गोली

........................

मालगुज़ार : अरे बहुत है तो क्या सब जन को बाँटने के लिए है ?

किसान : (गिड़गिड़ाते हुए) दे मालिक दे दे ।

मालगुज़ार : ( चरनदास को अकड़ के इधर-उधर घूमता देखकर) अरे तू क्यों इतना ऐंठ रहा है ? तेरे हाथ-पाँव अकड़ गये हैं क्या ? जरा सम्भल के चल। (किसान से ) यह तेरा संगवारी है क्या रे ?

किसान : हाँ मालिक । मेरा संगवारी है ।

मालगुज़ार : अच्छा, तू मेरे पास पहलवान लेके आया है ।

किसान : नहीं मालिक। मैं ही भूख-प्यास से मर रहा हूँ फिर भला पहलवान को कहाँ से खिलाऊंगा ?

मालगुज़ार : (चरनदास से) तू कौन है वे ?

चरनदास : मैं आदमी हूँ ।

मालगुज़ार : अरे वह तो मैं भी देख रहा हूँ तू आदमी है । मैं तेरा नाम और काम पूछ रहा हूँ ।

चरनदास : तुम मत पूछो। तुम्हें गुस्सा आ जाएगा।

मालगुज़ार : अरे तू बताएगा मुझे गुस्सा आ जाएगा ! बता ।

चरनदास : मेरा नाम है चरनदास । काम है चोरी। दोनों मिलाके मुझे चरनदास चोर कहते हैं ।

मालगुज़ार : ओह हो ! चरनदास चोर है तो मेरा घर ही उठा ले जाएगा ।

चरनदास : हाँ। मौका पड़ेगा तो वैसा भी हो जाएगा ।

किसान : मालिक, मैंने सुना है कि यह सच बोलता है और जो बात कह देता है न उसे करके दिखाता है।

मालगुज़ार : वाह रे मेरे धर्मराज ! मैं कहता हूँ इसको हटा यहाँ से रे ।

चरनदास : मैं कहता हूँ तेरे पास अनाज है इस गरीब को दे ।

मालगुज़ार : हूँ। तू ने कह दिया और बस मैं दे दूं ।

चरनदास : मेरा कहना मान जा ।

मालगुज़ार : ( धमकी देता हुआ) तुम लोग मेरे को मनाने के लिए आये हो रे ?

किसान : समझ जा मालिक। नहीं तो सब उलटा पुलटा हो जाएगा।

मालगुज़ार : अरे तुम दोनों मिलके उलट-पुलट दोगे क्या रे ? अरे मैं कहता हूँ निकलो यहाँ से ।

चरनदास : चल बे । कैसे नहीं देता मैं देखता हूँ । (चरनदास किसान के साथ जाता है।)

मालगुज़ार : लोफ़र साले । काम न धाम, आ गये। कोढ़िया साले । दे दे, दे दे, अरे मंगलू रे !

मंगलू : ( भागता हुआ धाता है) क्या है दाऊ !

मालगुज़ार : वह दो जने आये थे। बदमाश साले, लोफ़र कहीं के । दुनिया भर के यहाँ खड़े बक बक कर रहे थे । शकल- सूरत से बिल्कुल चोर जैसे दिख रहे थे ।

मंगलू : चोर सरीखे ? मेरे रहते आप फिक्र कर रहे हैं मालिक ? रहने दीजिये । ऐसे चोर कितने ही घूमते रहते हैं गली में ।

मालगुज़ार : अरे वह लोग कह रहे थे कि जो वह कहते हैं, कर के दिखाते हैं ।

मंगलू : मैं अभी गोदाम में चौकीदारी लगा देता हूँ । मेरे रहते आप फिक्र न करें ।

मालगुज़ार : मैं वही कह रहा हूँ, अरे हाँ, कहीं वैसा ही मौका आ जाये तो सबै गाँव वालों को बोल देना- मेरी आवाज सुनते ही सब लाठी लेकर दौड़ पड़ें ।

मंगलू : आ जाएँगे मालिक । सब दौड़ पड़ेंगे लाठी ले के सभी ।

मालगुज़ार : अरे वह धान के बोरे सब गिन लिये हैं ?

मंगलू : नहीं गिने हैं। गिनूं मालिक ?

मालगुज़ार : जा गिन के आ ।

मंगलू : ८० बोरे हैं मालिक ।

मालगुज़ार : ठीक से गिन लिये हैं ?

मंगलू : बराबर गिने हैं (मंगलू इशारे से बीड़ी माँगता है) बीड़ी देना मालिक ।

मालगुज़ार : मेरी घोड़ी ने दाना खा लिया है वे ?

मंगलू : नहीं ।

मालगुज़ार : अरे पहिले दाना दे के आ। फिर पी लेना बीड़ी।

[ राउत आते हैं । उनके साथ किसान और चरनदास चोर राउत के भेस में आते हैं और नाचते रहते हैं । नाचते-नाचते चरनदास और किसान मालगुज़ार की नज़र बचाकर सब धान के बोरे एक-एक करके चुराकर ले जाते हैं ।]

मालगुज़ार : मज़ा आ गया मंगलू ।

मंगलू : मज़ा आ गया मालिक ।

मालगुज़ार : अरे राउत लोगों ने क्या धूम मचाई !

मंगलू : डट के नाचे मालिक ।

मालगुज़ार : ( यकायक धान के बोरों की तरफ नजर उठाकर ) अरे यहाँ धान के बोरे तूने गिनती की थी, वो कहाँ गये ?

मंगलू : (आश्चर्य से) यहीं तो रखे थे मालिक ।

मालगुज़ार : अरे राउत लोगों की धमाचौकड़ी में इधर-उधर हो गये क्या रे ?

मंगलू : कौन जाने मालिक !

मालगुज़ार : अरे मैंने तुझे कहा था बराबर ख्याल रखना । मेरे साथ तू भी नाच में भूल गया रे ।

मंगलू : बस ज़रा-सा नाचा था मालिक । ज़रा ही सा नाचा था।

मालगुज़ार : अरे तेरे ज़रा से नाचने से मेरे कर्म फूट गये रे। ज़रा से के बच्चे !

मंगलू : मैं घोड़ी को दाना दे के आता हूँ ।

मालगुज़ार : अरे चल, तू लाठी लेके आ रे । अरे गाँव वालो ! सब दौड़ो रे। मेरे धान की चोरी हो गई। आओ रे आओ रे आओ रे ! ( शोर मचाता हुआ भागता है)

[ सब गाँव वाले शोर मचाते हुए लाठियाँ लेके दौड़ पड़ते हैं ]

अंक एक-दृश्य : चार

[एक चौराहा । धान की बोरियाँ रखखी हुई हैं । चरनदास और किसान दोनों मिलकर लोगों को धान बाँट रहे हैं। एक तरफ़ से मर्द, औरत, बच्चे, बूढ़े लाइन बनाकर आते हैं और अपनी झोली या कपड़ों में धान लेकर दूसरी ओर निकल जाते हैं । इस बीच कोरस - गायक गीत गाते हैं ।]

गीत

सुनब- सुनब संगधारी,
भाई मोर चरनदास चोर नइये ।

बड़े- बड़े पैसे वाला, सेठ साहूकार
घर - जा के वोहा चोराये,
हमर असन घर में वो नई करय चोरी,
लान के गरीब लखवाये ॥

कतको भई आदमी है चोर नई दीखे
जबरा पगड़ी पदवी वाला,
चोरी के माल ह नीकल ही ते खोलबे ते
उँकर तिजौरी के ताला ॥

सच के आघू नई चले ककरो चलाकी
सिपाही दरोगा तक डराये
सच संचार से भी ऊपर है,
सच भगवान से मिलाये ।

सुनब- सुनब संगधारी,
भाई मोर चरनदास चोर नइये। ..

अंक एक-दृश्य : पांच

[एक मंदिर । पूजा समाप्त कर आरती के बाद पुजारी थाली घुमाता है । सब मर्द औरतें एक-एक दो-दो आने डालकर जा रहे हैं। पुजारी सबको आशीर्वाद दे रहा है। उन्हीं में चरनदास चोर भी है जो हीरे-जवाहरात का ढेर थाली में रख देता है ।]

पुजारी : अरे बाप रे ! इतना सारा चढ़ा दिया बेटा। वाह भगवान वाह ! आज कैसा दयालु जीव भेजा है। बेटा, तेरा नाम क्या है ?

चरनदास : चरनदास चोर मेरा नाम है महाराज ।

पुजारी : इतना सारा चढ़ावा दिया है। तू भला चोर कैसे हो सकता है ? मैं नहीं मान सकता। बेटा, उहूँ मैं नहीं मान सकता । और तू क्या काम करता है बेटा ?

चरनदास : चोरी करता हूँ महाराज ।

पुजारी : देखा न फिर वही दिल्लगी। अरे बेटा, ब्राह्मण बैरागी संग मजाक नहीं करते। और यहाँ कैसे आना हुआ बेटा ?

चरनदास : भगवान से धन माँगने आया हूँ ।

पुजारी : (आश्चर्य से ) भगवान से धन मांगने ?

चरनदास : हाँ।

पुजारी : बेटा, अरे तूने इतना सारा चढ़ाया है। भगवान तुम्हें भला कमती करेगा ? भगवान तुम्हें दुगुना चौगुना देगा । और तुम कब जाओगे बेटा ?

चरनदास : भगवान मुझे दे देगा तो मैं खुद ही चला जाऊँगा महाराज ।

पुजारी : नहीं बेटा । ऐसे दयालु जीव को यों ही नहीं चले जाने देगा भगवान । रात भर यहीं रह, आराम कर और सुबह उठना और ध्यान-स्नान करके प्रसाद खाके तब फिर जाना बेटा ।

चरनदास : मुझे मत रोकिये महाराज ।

पुजारी : क्यों ?

चरनदास : आपका नुक़सान हो जाएगा।

पुजारी : अरे बेटा, मन्दिर के नुक़सान को भगवान पूरा करेगा बेटा । तू अपना सोच । चुपचाप प्रसाद खा ले और धाराम से सो जा ।

चरनदास : अच्छा महाराज ।

पुजारी : सोजा, सोजा ।

[पुजारी सो जाता है । चरनदास भी लेट जाता है । थोड़ी देर बाद जब पुजारी की नींद गहरी हो जाती है तो चरनदास उठता है । वह मंदिर का सारा धन चुराके जाने लगता है। यकायक रुक कर प्रभु सिंहासन के पास जाता है और मूर्ति को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करने के बाद उठाकर अपने पास रख लेता है ।]

चरनदास : ( चलते-चलते पुजारी का पाँव छूते हुए) अच्छी तरह सोते रहिये महाराज । मैं जा रहा हूँ। (चला जाता है)

पुजारी : (एकदम जागकर ) अरे सब चोरी हो गया । सब । तुमने भी मेरा साथ छोड़ दिया भगवान । चोर-चोर-चोर !

(भागता दूसरी तरफ चला जाता है। दूसरी तरफ से कोरस का प्रवेश ) ( कोरस गाने के बीच में अस्थाई पर चरनदास एक न एक नई चीज चुराकर अन्दर जाता है । तुरन्त उसके पीछे हर बार हवलदार पहुँच जाता है। और हर बार चरनदास हवलदार को चकमा देकर भाग निकलता है ।)

कोरस : तरि च नारी नाहन मोर नहा नारी नहानारे सुबा हो
तरि च नरी नहा नारी ना !
का कहिबो या सोचेल होगे कइसे ढंग बताबो दिदी परोसिन
छोड़त नइये वोहर एको खोर,
परोसिन देख तो बहिनी आवत हावे चोर ।
तरिच नारी...

बड़े-बड़े चोरी करये दिन दहाड़े जाके ।
चलव बहिनी आंपत चीज रख दे बो छुपाके ।
साँच में कछु आँच नइये त कइसे डराबो ।
दिदि परोसिन ।
चलतो हमन गाँव में करन सोर !
तरिच नारी...

दगा धोका में हावे मजा भारी हो,
अब के दिन में सुन ले जी ।
इहाँ बहती जे करे हुसियारी हो,
अब के दिन में सुन ले जी ।
पानी ह गुड़ बने, बने गुड़ मिसरी ।
शकरे मान काढ़ी येला मत बिलरी ।
लंद-मंद में होवे बलिहारी हो
अब के दिन में सुनले जी ।
दगा धोखा में...

तरि च नारी नाहना मोर नहा नारी नहा सुवाहो
तरिच नारी नहा नारी ना ।

मध्यांतर

अंक दो-दृश्य : एक

[एक ओर से गुरु 'साधु रमता अकेला बन में' गाते हुए आते हैं । दूसरी ओर से चरनदास आता है ]

चरनदास : चरण छूता हूँ गुरुदेव ।

गुरु : जय हो । जय हो । कल्याण हो । तरक्की दे भगवान ।

चरनदास : मुझे भुला तो नहीं दिया महाराज ?

गुरु : अरे बेटा, तुझे कौन भुला सकता है । तेरा नाम तो संसार में उजागर है । चरनदास चोर तू ही तो एक चेला है बेटा जिसने गुरु का नाम ऊंचा किया है।

चरनदास : हाँ गुरुदेव । मैंने अपना सच बोलने का प्रण नहीं तोड़ा है ।

गुरु : सच बोलने का प्रण भी नहीं तोड़ा है और चोरी करना भी नहीं छोड़ा है । भई तुझी में कमाल है यह। दूसरा नहीं कर सकता ।

चरनदास : बस गुरु जी ! अब चोरी भी नहीं करता । बहुत धन जमा कर लिया आपकी कृपा से । बस एक चोरी बाकी है। बस वह चोरी कर लूं तो चोरी बिल्कुल छोड़ दूं ।

गुरु : और कौनसी चोरी बच गई है रे !

चरनदास : इस तरफ़ देखिये न गुरु जी ।

गुरु : अरे बाप रे ! सरकारी खजाने की चोरी। अरे बेटा, यह चोरी तू करेगा तो कभी नहीं बचेगा। रानी साहिबा तुझे बग़ैर पकड़वाए नहीं छोड़ेंगी। अरे तू तो कहता है कि मेरे पास बहुत धन जमा हो गया है तो तू गुरु की सेवा में क्यों नहीं लग जाता है ?

चरनदास : गुरुजी, आज से आप चैन की वंसी बजाइये। बस अब आप

.....................

चरनदास : और रोक के उसी के पास गपशप में लगे रहियेगा ।

गुरु : कर्म फूट गए। इतने बड़े मन्त्री साहब के साथ में गपशप लगाऊँगा रे ।

चरनदास : हाँ, मैं तब तक चोरी कर के आता हूँ ।

गुरु : यह मुझसे नहीं हो सकेगा ।

चरनदास : गुरुजी, बस यही मेरी विनती है ।

गुरु : नहीं, बिल्कुल नहीं। बिल्कुल नहीं ।

चरनदास : नहीं गुरुजी, यह मेरी आखिरी चोरी है। बस इतनी मदद कर दीजियेगा । आपके चरण छूता हूँ ।

गुरु : अरे तू अपने साथ मुझे भी धँसाएगा जेल में ।

चरनदास : नहीं, बाद में मैं आपको छुड़ा लूंगा जी ( रुककर ) वह देखिये आ गए। गुरुजी, बस अब संभालिये।

गुरु : अरे राम-राम ! माया मिली न राम दुविधा में गये प्राण । कहाँ तुझ से मुलाक़ात हो गई रे । चरनदास एक काम कर बेटा । बहुत सारे फूल के गजरे ला के दे दे ।

चरनदास : ओ हो ! मुझे काम है न गुरुजी । आप ले लीजियेगा न फूल के गजरे । यह लीजिये पैसा ।

गुरु : ला ।

चरनदास : ठहरिये, मैं हवलदार को भेजता हूँ ।

गुरु : हवलदार को क्यों भेजेगा ?

चरनदास : आप डर क्यों गये गुरुजी ?

गुरु : सरकारी आदमी है। उससे नहीं डरूंगा तो क्या तुझसे डरूँगा ?

चरनदास : वह तो मेरा साथी है गुरुजी ।

गुरु : तेरा साथी है ?

चरनदास : हाँ, जिगरी दोस्त है मेरा । उसी के हाथ मैं फूलों का गजरा दे के भेजता हूँ ।

गुरु : अच्छा ले जा । जल्दी भेजना। (चरनदास जाता है) हाए बाप रे इसकी हिम्मत तो देखो ! कितनी बड़ी चोरी करने जा रहा है । और मुझे भी मिला रहा है अपने कर्म में ।

[मंत्री साहब आते हैं]

गुरु : हुजूर, सरकार, कल्याण हो । चिरंजीव हों ।

मन्त्री : यह दान माँगने की जगह नहीं है महाराज। घर में आईयेगा तो दान मिलेगा ।

गुरु : मैं दान नहीं मांग रहा हूँ सरकार उद्घाटन करने के लिए कह रहा हूँ ।

मन्त्री : उद्घाटन ! काहे का उद्घाटन ?

गुरु : बहुत-सी संस्थाएं हैं। बहुत लोग आपका रास्ता देख रहे हैं । कब नये मन्त्री आयें और कब हमारी संस्था का उद्घाटन हो । फूल के गजरे भेजे हैं सबने ।

मन्त्री : गजरे ! कहाँ हैं ?

गुरु : आप जरा जल्दी पहुँच गये महाराज । वह लोग पीछे रह गये हैं । लेकिन बस अब आ ही रहे होंगे। आप जरा रुकिये मैं देखता हूँ। वह देखिये वह आ गये फूल के गजरे । लाओ हवलदार लाओ। फूल के गजरे ।

[हवलदार एक बाँस पर फूल की मालायें, एक कैंची और एक रिबन यानी फ़ीता लाता है। गुरु कैंची मंत्री को पकड़ा देते हैं । हवलदार हर उद्घाटन से पहले मंत्री के गले में फूलमाला डालता है ।]

गुरु : यह लीजिए महाराज । साइकिल की दूकान । इसका उद्घाटन कीजिए। (मंत्री फ़ीता काटते हैं। हवलदार एक नई माला उनके गले में डालता है) यह राशन की दूकान । (मंत्री कैंची से फीता काटते हैं। हवलदार नई माला उन्हें पहनाता है) यह जूते की दूकान (मंत्री फ़ीता काटते हैं। हवलदार एक और माला उनके गले में डालता है) यह कपड़े की दूकान । (मंत्री फीता काटते हैं। हवलदार माला उनके गले में डाल देता है) यह पान की दूकान । ( मन्त्री फीता काटते हैं। हवलदार एक और माला उनके गले में डाल देता है) यह जनता के लिए बाथरूम है । (मंत्री फ़ीता काटते हैं। हवलदार उनके गले में माला डाल देता है) यह ... यह काहे की दूकान है, ये मुझे भी नहीं मालूम पर आप उद्घाटन कर दीजिए। (मंत्री फीता काटते हैं। हवलदार माला उनके गले में डाल देता है ।)

[अब तक मंत्रीजी के गले में इतनी मालाएँ पड़ चुकी कि उनका सिर पूरी तरह मालाओं से ढँक चुका । उन्हें मालाओं के कारण कुछ भी दिखाई नहीं देता । गुरु उनका हाथ पकड़कर उन्हें आगे सरकाता जाता है ।]

मंत्री : बस ! हो गया काम पूरा ?

गुरु : अभी कहाँ मंत्रीजी ? अभी तो दो-तीन बाज़ार और बाकी हैं। लोग आपकी इन्तजार में हैं। आइए, मेरे साथ आइए । वहाँ भी आपको उद्घाटन करने हैं।

[गुरु मालाओं से ढँके मंत्री का हाथ पकड़कर उन्हें अपने साथ मंच से बाहर ले जाता है । पीछे-पीछे हवलदार जाता है ।]

अंक दो-दृश्य : दो

[चार सिपाही सरकारी खजाने की एक बहुत बड़ी पेटी लेकर मंच पर आते हैं और उसे मंच के एक कोने में रखकर बरछी तान उसका पहरा देने लगते हैं । पीछे सरकारी मुनीम है जो अच्छी तरह खजाने को देखकर चौकी पर बैठ जाता है और खाता खोलकर उसकी जाँच-पड़ताल करने लगता है । दो सिपाही मुनीम के निकट बरछी तानकर खड़े हो जाते हैं । चरनदास मंत्री के भेष में आता है । सिपाही अपनी बरछी हटाकर चरनदास को रास्ता देते हैं और सिर झुका लेते हैं । मुनीम उठकर अदब से खड़ा हो जाता है ।]

मुनीम : मंत्री जी...मंत्री जी... (झुक-झुककर सलाम करता है ।)

चरनदास : खजाने की चाबी कहाँ है ?

मुनीम : यह रही महाराज !

चरनदास : खजाना कहाँ है ?

मुनीम : वह रहा खजाना महाराज !

चरनदास : तुम जाओ, अपना काम करो । ( पेटी के पास जाकर चाबी से उसे खोलता है ।) आह हा ! हीरे ! जवाहरात ! चाँदी ! सोने की ईंटें ! ...लेकिन यह सब मुझे नहीं चाहिए। हाँ, बस यह सोने की मोहरें ले लेता हूँ। एक-दो-तीन चार-पाँच ....बस और क्या ज़रूरत ? पाँच मोहरें बहुत हैं। याद तो करेंगे किसी ने चोरी की थी।

[चाबी मुनीम की तरफ़ फेंककर बाहर निकल जाता है । थोड़ी देर बाद असली मंत्री आता है। मुनीम के पास खड़े सिपाही बरछी तानकर उसे वहीं रोक लेते हैं ।]

मंत्री : यह क्या बदतमीज़ी है ?

सिपाही : कहाँ जा रहे हो ?

मंत्री : अरे तुम लोग मुझे पहचानते नहीं ?

मुनीम : रोको रे रोको रे । जाने मत देना ।

मंत्री : तुम्हें क्या हो गया ? क्या मुझे पहचानते नहीं हो। मैं नया मंत्री हूँ । खजाने की जाँच के लिए आया हूँ ।

मुनीम : बड़ा आया मंत्री का बच्चा । लन्दी - फन्दी चोट्टा । लफंगा । एक-से-एक भेष बदलकर फिरते रहते हैं। मंत्रीजी आके चले भी गये । खजाने की जाँच हो चुकी । रास्ता नापो । किसी और को बेवकूफ़ बनाना ।

मंत्री : मंत्री आके चले गये ! बेवकूफ़ ! वह कोई चोर होगा। मैं हूँ असली मंत्री ।

मुनीम : वह चोर होगा। आप हैं असली मंत्री । अरे माफ़ कीजिए मंत्रीजी । मैं पहचान नहीं सका था। मुझसे बड़ी ज़बरदस्त भूल हो गई। मुझे माफ़ कर दीजिए ।

मंत्री : अन्दर जाके खजाना देखो। ज़रूर चोरी हुई होगी।

मुनीम : (खजाने के पास आता है, पेटी खोलता है, हीरे-जवाहरात की जाँच करता है) यह भी ठीक है... यह भी ठीक है... यह सोने की ईंट यह भी ठीक है। ठीक है कि बदल दिया, नहीं ठीक ही है । यह सोने की मोहरें - एक - दो-तीन - चार-पाँच- । छः-सात आठ पाँच मोहरें कम...एक-दो- तीन-चार ..पाँच ही मोहरें कम । अब भला पाँच मोहरों की चोरी पर भला किसको यकीन आएगा ? पाँच मोहरों की चोरी कोई चोरी नहीं है । इससे अच्छा तो यह है कि पाँच मोहर मैं रख लेता हूँ और कह दूंगा कि दस मोहर की चोरी हुई । बस ! अब बनेगी चोरी। (चीखता है) मंत्रीजी ! मंत्री- जी ! ... दस मोहरों की चोरी हो गई ।

मंत्री : दस मोहरों की चोरी हो गई ! मेरे होते हुए चोरी हो गई ! अब मैं रानी साहब को क्या जवाब दूंगा बता । यह सब तेरा कसूर है। मंत्री और चोर में तुझे फ़रक़ नहीं मालूम? चोर को मंत्री समझ बैठा । आ भला, रानी साहब तुझे मज़ा चखाएँगी । आ मेरे साथ दरबार में चल ।

[ दोनों जाते हैं ।]

अंक दो-दृश्य : तीन

[रानी का राजदरबार ।]

रानी : क्या? सरकारी खजाने में चोरी हो गई ?

मंत्री : हाँ रानी साहबा ।

रानी : कब ?

मंत्री : अभी-अभी ।

रानी : दिन दहाड़े ?

मंत्री : जी हाँ ।

रानी : डाका ?

मंत्री : इसे डाका ही कहेंगे रानी साहबा और क्या ।

मुनीम : मेरा कुसूर नहीं है रानी साहब। मैंने सोचा - नए मंत्रीजी आये हैं ।

रानी : कितने की चोरी हुई ?

मुनीम : दस मोहर ।

रानी : बस !

मंत्री : चोर का नाम चरनदास है सरकार ।

रानी : तुम लोग जब चोर को जानते हो तो उसे पकड़ते क्यों नहीं ?

मंत्री : चोर भाग गया रानी साहब ।

रानी : चोरी के बाद चोर क्या तुम्हारा इंतिज़ार करता रहेगा कि आ मुझे पकड़ । या शायद महल के अन्दर कहीं छुपा होगा। क्यों मंत्रीजी ?

मंत्री : रानी साहब, चरनदास मशहूर चोर है। उसे पकड़ना आसान बात नहीं ।

रानी : आसान हो चाहे मुश्किल, चोर को तो पकड़ना ही पड़ेगा । उसे छोड़ कैसे देंगे ?

पुरोहित : एक तरकीब है उसे बुलाने की ।

रानी : कौन-सी ?

पुरोहित : चरनदास ने अपने गुरु से सच बोलने का प्रण किया है और उसे अपनी सच्चाई पर बहुत घमण्ड है। मेरी राय में डोंडी पिटवा दी जाय कि अगर सचमुच चरनदास सच्चा आदमी है तो खुद दरबार में आकर अपना जुर्म कुबूल कर ले । बस इस तरह वह आ जाएगा ।

रानी : हाँ पुरोहितजी ठीक कह रहे है मंत्री । जाओ ढिंढोरा पिटवा दो और ऐलान करवा दो कि चरनदास को रानी ने दरबार में बुलाया है।

मंत्री : जो हुकुम ।

गीत

रानी ने संगी शहर में डोंडी पिटवाई ॥
दस मोहरें रानी के खजाने से
कोई ले गया चुरा
चोर चरनदास सच्चा है भाई I
तो बतला दे आके ॥
रानी ने संगी शहर में डोंडी पिटवाई ॥

[चरनदास अपने गुरु के साथ दरबार में आता है]

मंत्री : (गुरुजी को देखकर ) पाँय लागी महाराज ।

रानी : चरन छूती हूँ महाराज ।

गुरु : खुश रहो । चिरंजीव रहो ।

रानी : दासी, महाराज के लिए धन ला ।

पुरोहित : ( चरनदास से ) पाँव पड़ ।

चरनदास : (रानी से ) पाय लागी ।

रानी : चरनदास नाम है तुम्हारा ?

पुरोहित : चरनदास चोर । क्यों ?

चरनदास : हाँ महाराज, चरनदास चोर ।

रानी : चोरी करते हो और इतराते हो ?

चरनदास : अपना काम अच्छी तरह से करेंगे तो क्यों नहीं इतरायेंगे ?

रानी : चोरी अच्छा काम है ?

चरनदास : अच्छा हो या बुरा, चोरी तो सभी करते हैं रानी साहब ।

रानी : क्या मतलब ?

चरनदास : सब लोग आपकी चोरी छुपाते हैं और मैं डंके की चोट, खज़ाने चोरी करता हूँ । बस यही फरक है ।

रानी : तुम झूठ कभी नहीं बोलते ?

चरनदास : झूठ बोले बिना मेरा चोरी का काम मज़े से चलता है फिर भला मैं क्यों झूठ बोलूं रानी साहब ?

रानी : चोरी और सच्चाई। ऐसा मेल मैंने कभी नहीं देखा था । लेकिन तुम मुझे यह बताओ तुम चोरी करने के लिए सरकारी खजाने में गये, सारा खजाना तुम्हारे सामने खुला पड़ा था, फिर तुम दस मोहर चुराकर क्यों रुक गये ?

चरनदास : मैंने दस मोहर नहीं चुराईं, पाँच मोहर चुराई हैं। मेरा नाम सारी दुनिया जानती है। मैंने सोचा ज़रा रानी साहब को भी पता चल जाये कि चरनदास किस चिड़िया का नाम है। बस यह सोचकर पाँच मोहर मैंने चुरा लीं ।

रानी : मंत्रीजी, चोरी कितने मोहर की हुई है ?

मुनीम : दस ही मोहर की चोरी हुई है रानी साहब । चोर कहीं सच बोलेगा ?

रानी : क्यों मंत्रीजी ?

.......................

लेकिन चोरी न करने का प्रण क्यों नहीं किया ?

चरनदास : अपने धर्म को कैसे छोड़ दूँ रानी साहब ? चोरी तो मेरा धर्म है ।

रानी : और मज़ा भी आता होगा । क्यों ?

चरनदास : बहुत मज़ा आता है ।

रानी : अच्छा जाओ, मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया। यह पाँच मोहर भी इनाम में रख लो ।

चरनदास : यह मेरी कमाई की नहीं हैं। मेरी कमाई का पैसा मेरी जेब है । मैं अपनी मेहनत की कमाई पर जीता हूँ । मुझे और पाँच मोहर नहीं चाहिए। मेरे पास भगवान का दिया बहुत है ।

रानी : चरनदास, तुम सच्चे आदमी ज़रूर हो मगर मुँहजोर हो ।

चरनदास : सच्चाई और मुँहजोरी में क्या फ़रक़ है, मैं नहीं जानता रानी साहब ।

रानी : हाँ हाँ, मैं देख रही हूँ, तुम किसी चीज का फ़रक़ नहीं जानते ।

चरनदास : नहीं जानता ।

रानी : अच्छा यह पाँच मोहर साधु महाराज को दे दो इसलिए कि इन्होंने चरनदास को सच बोलना सिखाया है ।

गुरु : रानी साहब का कल्याण हो ।

रानी : और जो पाँच मोहर चरनदास ने चुराई हैं वह मैंने उसी को दान दे दीं।

चरनदास : यह तो मेरी मेहनत की कमाई है रानी साहब। आप क्यों कह रही हैं दान दे दीं ? ये तो बस मैंने ले लीं और मेरी हो गईं। जय सिया राम (चला जाता है)

गुरु : रानी साहब का कल्याण हो, रानी साहब का कल्याण हो !

(चरनदास के पीछे-पीछे चला जाता है।)

मंत्री : रानी साहब, आप हुकुम दें तो उसे अभी पकड़ लूँ ।

रानी : नहीं, उसे पकड़ो मत। ऐसे चोर का मान करना चाहिए, उसे जुलूस भेजकर बुलवाना चाहिए ।

मंत्री : क्या मतलब ?

रानी : तुम हाथी-घोड़ों का बहुत बड़ा जुलूस लेके जाओ और चरनदास को हाथी पर बैठाकर सब शहर में घुमायो । उस के बाद उसे दरबार में पहुँचाओ । हम उसे राज की तरफ़ से उसकी सच्चाई के लिए सम्मान देंगे । खड़े क्यों हो ? जाते क्यों नहीं ?

मंत्री जी : आज्ञा रानी साहब । चलो सिपाहियो ।

[मंत्री और सिपाही जाते हैं ]

अंक दो-दृश्य : चार

[मंत्री एक बहुत बड़ा जुलूस लेकर चरनदास के पास आता है। जुलूस के सामने पंथी गायक नाचते और गाते हुए आते हैं ।]

चरनदास यम के चोरी तैय मत करबे ।
सतनाम, सही नाम नहीं पावे हो चरनदास
यम के चोरी तय मत करबे ॥

झूठ नई छूटे हो, झूठ के बोलइया से,
जुवा नई छूटे हो, जूवा के खेलाइया से,
तोर जीव के कैसे मुक्ती लगाबे हो
चरनदास यम के चोरी तय मत करबे ॥

दारू नहीं छूटे हो, दारू के पियइया से,
चोरी नहीं छूटे हो, चोरी के करइया से,
पाछू मन-मन में पछतावे हो
चरनदास यम के चोरी तय मत करबे ॥

सच नहीं छूटे हो, सच के बोलइया से,
किसी के नहीं छूटे जी, जो हो जस के करइया से,
ये जीवन ला बारम्बार नई पाबे हो
चरनदास यम के चोरी तैय मत करबे ।

[चरनदास आता है । इतने बड़े जुलूस को देखकर प्रसन्न होता है ।]

चरनदास : ओ हो ! ...इतना बड़ा जुलूस ! ...इतने आदमी... सिपाही, घोड़े... (माथे पर हाथ रखकर एक ओर देखते हुए) बाप रै ! ...उधर हाथी भी खड़ा है ।

मंत्री : हाँ चरनदास, तुम्हारे लिए ।

चरनदास : (साश्चर्य) रानी साहब ने ये हाथी मेरे लिए भिजवाया है। मंत्रीजी ?

मंत्री : हाँ, रानी साहब का हुक्म है कि तुम्हें इस पर बैठा कर दरबार में लाया जाये । वहाँ रानी तुम्हारा सम्मान करेंगी ।

चरनदास : अच्छा। (अचानक अपना प्रण याद आ जाता है) नहीं मंत्री जी, मैं हाथी पर नहीं बैठूंगा। तुम यह जुलूस वापस ले जाओ ।

मंत्री : चरनदास, रानी साहब नाराज हो जायेंगी ।

चरनदास : उन्हें समझा देना मंत्रीजी । मैं हाथी पर नहीं बैठ सकता ।

मंत्री : ( नाराज होकर ) हाथी पर नहीं बैठ सकता ? पैदल तो चल सकता है । सिपाहियो, देखते क्या हो ? चरनदास को रस्सी से बाँधकर दरबार में ले चलो और जुलूस को तितर-बितर करो। हाथी-घोड़े वापस ले जाओ। जल्दी करो । मुँह क्या देखते हो ?

[जुलूस वापस लौट जाता है ।]

......................

रानी : दासी, खाना लाओ (दासी दो-एक आदमियों के साथ थालियों में खाना लेकर आती है) मुझे माफ़ कर दो चरनदास। आओ कुछ खा लो।

चरनदास : जो आज्ञा रानी साहब ।

(चरनदास खाने ही वाला है कि एकाएक हाथ रोक लेता है ।)

रानी : क्या बात है चरनदास ? हाथ क्यों रोक लिया ?

चरनदास : कुछ नहीं रानी साहब ।

रानी : तुम्हें किसी बात का शक है ? पहले मैं खाऊँ !

चरनदास : जी नहीं ।

रानी : फिर क्या बात है चरनदास ?

चरनदास : यह खाना मैं नहीं खाऊँगा रानी साहब ।

रानी : क्या तुम्हें पसन्द नहीं है ?

चरनदास : नहीं, ये बात नहीं है ।

रानी : रानी के घर खाने से तुम्हारा नियम बिगड़ जाये। । जवाब दो ?

गुरु : रानी, मेरे चेले ने प्रण किया है कि कभी सोने की थाली में नहीं खाऊँगा ।

रानी : प्रण! फिर वही प्रण ! अच्छा अपने प्रण को हटाओ और मेरे हुकुम से खाना खा लो। ( रुककर ) चरनदास मेरा हुकुम मानो और खाना खा लो। नहीं खाओगे ! क्या ? तुम नहीं खाओगे ? ? बोलो खाओगे या नहीं?

चरनदास : (थाली हटा देता है) मुझे माफ़ करे रानी साहब ।

रानी : (गुस्से में ) मंत्रीजी, चरनदास ने राज्य का अपमान किया है इसे पकड़कर जेल में डालिए ।

मंत्री : जो आज्ञा रानी साहब सिपाईयो, चरनदास को जेल में ले चलो ।

चरनदास : ( याचना करता हुआ-सा ) गुरुदेव !

गुरु : कल्याण हो बेटा ।

सिपाही : चलो चलो । ( चरनदास को ले जाते है। मंत्री और गुरुजी पीछे-पीछे जाते हैं ।)

अंक दो-दृश्य : पाँच

रानी : ( टहलते हुए) यह मैंने क्या किया ? यह मैंने क्या कर दिया । ( आवाज़ लगाती है) दासी...

दासी : ( आती हुई ) रानी साहब !

रानी : उसे बुला के लाओ ।

दासी : किसे ?

रानी : चरनदास को । यह ले चाबी (दासी को चाबी देती है) ।

दासी : जी अच्छा ।

रानी : और सुन जरा संभल के जाना । कोई देख न ले ।

दासी : जी अच्छा।

[दासी जाती है । रानी थोड़ी देर तक इंतज़ार में टहलती है । इतने में दासी वापस आ जाती है ।]

रानी : क्यों ?

दासी : ले आई।

रानी : कहाँ है ?

दासी : बराबर के कमरे में ।

रानी : किसी ने देखा तो नहीं ?

दासी : किसी ने नहीं देखा। मैं पीछे के दरवाज़े से देख-भाल कर लाई हूँ । यह लीजिये चाबी (रानी को चाबी देती है)

[ रानी विचारों में डूबी टहलने लगती है । फिर रुक जाती है । ]

रानी : खूबा !

दासी : जी ।

रानी : वह मान जायेगा ?

दासी : आप कैसी बातें कर रही हैं रानी साहब । जरूर मानेगा । आखिर क्यों नहीं मानेगा ? आप कहेंगी और वह नहीं मानेगा ।

रानी : अभी तक तो उसने मेरी एक नहीं मानी ।

दासी : ऐसी बात भला कौन आदमी नहीं मानेगा ? सब लोगों के सामने आपने हुकुम दिया तो उसने नहीं माना। नहीं तो आपकी सब बातें मान जाता। अब ऐसी बात कहेंगी और अकेले में कहेंगी फिर भला वह कैसे नहीं मानेगा ? जरूर मानेगा । इस बात से इन्कार नहीं करेगा ।

रानी : मेरा दिल धड़क रहा है।

दासी : लीजिये अब उसे बुला लीजिए। मैं जाती हूँ | जाऊँ ?

रानी : तू क्या कहेगी ?

दासी : कहूंगी-तुम्हें रानी साहब बुला रही हैं।

रानी : तू उसे जेल से लाई तो क्या कहके लाई ?

दासी : मैंने कहा— रानी साहब तुम्हें बुला रही हैं।

रानी : उसने क्या कहा ?

दासी : उसने कुछ नहीं कहा बेचारे ने ।

रानी : कुछ नहीं कहा ?

दासी : कहने लगा - क्या रानी साहब मुझे जान से मार डालेंगी ।

रानी : तूने क्या कहा ?

दासी : मैंने कहा- तुम्हें कोई क्या मारेगा जी । रानी साहब बेचारी खुद ही मर मिटी हैं तेरे ऊपर ।

रानी : फिर वो क्या बोला ?

दासी : पूछने लगा – क्यों ?

रानी : फिर ।

दासी : मैंने कहा - रानी साहब का मन उसके बस में नहीं है । चरनदास बोला – मैं तो चोर हूँ भई - चोरी करना तो मेरा धन्धा ही है। दिल की चोरी बाकी रह गई थी, आज वह भी कर दिखाया । यह कहके हँसने लगा ।

[ दासी हँसने लगती है । रानी को ईर्ष्या होती है । ]

रानी : हँसने लगा ! ( डाँटकर ) तो तू उसके साथ हँसी-मजाक में लगी हुई थी ?

दासी : रानी साहब, आपने पूछा तो मैंने बताया। लेकिन ज्यादा बातें नहीं कीं बेचारे ने ।

रानी : बेचारे ने ! फिर तू बात बढ़ा बढ़ा के क्यों बताती है ?

दासी : जो बात हुई थी वही बात बता रही थी रानी साहब ।

रानी : अच्छा, अब तू जा (दासी जाने लगती है) और देख, उसे अच्छी तरह लाना ।

दासी : जी अच्छा ।

रानी : और सुन, तू बाहर खड़ी रहना ।

दासी : जी अच्छा ।

रानी : ले अब जा ।

[ दासी जाती है । थोड़ी देर बाद चरनदास हथेली में तम्बाकू-चूना मलता हुआ आता है । ]

रानी : आओ चरनदास। ये तुम्हारे हाथ में क्या है ?

चरनदास : तम्बाकू-चूना है ।

रानी : जरा-सा मुझे दिखाओ। अच्छा लगता है ?

चरनदास : थोड़ा नशा करता है । (रानी तम्बाकू चखती है और खाँसने लगती है।)

[चरनदास हँसता है । रानी थोड़ी सहज हो जाती है।]

रानी : चरनदास, मुझे माफ़ कर दो।

चरनदास : ऐसा मत कहिए रानी दाई ।

रानी : मुझे रानी दाई मत कहो। मेरा नाम कलावती है।

चरनदास : मैं आपके चरण छूकर माफी माँगता हूँ । माफ कर दीजिये।

रानी : नहीं-नहीं चरनदास, मेरे पाँव मत छुओ ।

चरनदास : क्या करूँ ? मैं तो चोर हूँ। इसे डाँट, उसे फटकार । सब जिन्दगी ऐसी ही बीत गई। मुझे रानी से बात करनी नहीं आती। मुझे माफ कर दो रानी दाई !

रानी : चरनदास, तुम्हारे जैसा आदमी मेरे राज में नहीं है । मैं अपने दिल में तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ । चरनदास, लेकिन बोल नहीं सकती । अब तुम्हीं बताओ, अगर मैं तुम्हें जेल में न डाल देती तो तुम्हारे साथ बातें कैसे करती ? तुम चले जाते । अब बार-बार तुम्हें रस्सी से बाँधकर नहीं बुलाती तो बातें कैसे होतीं ?

चरनदास : रानी दाई !

रानी : मुझे रानी दाई मत कहो ।

चरनदास : मुझे अच्छा नहीं लग रहा है ।

रानी : क्यों क्या बात है ? अच्छी तरह बैठ जाओ । आराम से हाथ- पाँव फैलाकर ।

चरनदास : मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने मुझे परीक्षा लेने के लिए बुलाया है ।

रानी : तुम्हारे बग़ैर मेरी ज़िन्दगी उदास है चरनदास । मैं तुमसे शादी करना चाहती हूँ । देखो इनकार मत करना । अभी तक तो तुमने मेरी हर बात से इनकार कर दिया । बस मेरी एक बात रख लो। देश को तुम्हारे जैसे राजा की ज़रूरत है । तो कहो, खूब सोच-विचार के जवाब देना । इनकार मत करना चरनदास ।

चरनदास : रानी दाई ।

रानी : एक बार कह दिया ना मुझे रानी दाई मत कहो ।

चरनदास : रानी साहब, मुझसे यह नहीं होगा। मुझे माफ़ कर दीजिए ।

रानी : क्यों, क्या मैं तुम्हें पसन्द नहीं ?

चरनदास : ऐसा मत कहिए रानी साहब। आप इतनी खूबसूरत हैं और मैं आखिर आदमी हूँ भई, देवता तो नहीं हूँ ।

रानी : मेरे लिए तुम देवता हो । मैं तुम्हारी पूजा करूँगी । आरती उतारूंगी। तुम्हारी सेवा करूँगी। दूसरा कोई आदमी आज तक मेरी आँखों में नहीं जँचा जैसे तुम मेरे मन में समा गए हो । जब से तुम्हें देखा है रात-रात भर मुझे नींद भी नहीं आती खाना-पीना सब छूट गया है। चरनदास, मेरी जिंदगी पर तरस खाओ । इनकार न करो।

चरनदास : मुझे गुरु का वचन याद आ रहा है रानी ।

रानी : (चौंकती है) गुरु का वचन ? क्या तुमने यह भी प्रण किया है कि किसी रानी से शादी नहीं करोगे ? किसी देश की राजगद्दी पर नहीं बैठोगे ।

चरनदास : हाँ क्या बताऊँ ? दिल्लगी-दिल्लगी में अपने गुरु से मैंने कह दिया था। चार काम मैं नहीं करूँगा । अब देख लो, एक-एक करके सब बातें मेरे सामने आ रही हैं। मुझे क्या मालूम था कि कोई रानी सचमुच मुझे शादी करने के लिए कहेगी ? अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ ?

रानी : दिल्लगी- दिल्लगी में जो कुछ तुमने गुरु से कहा था- उसे भुला दो । अपने गुरु से माफ़ी माँग लो। प्रायश्चित कर लो। हम लोग यज्ञ करके सब साधु-महात्मानों को जमा करेंगे और दान देकर माफ़ी माँग लेंगे। और ब्याह रचा लेंगे। ठीक है न ?

चरनदास : कर्म फूट गये । मुझसे नहीं होगा रानी । मैंने प्रण किया है ।

रानी : (गुस्से से काँपने लगती है) प्रण! प्रण ! प्रण ! चरनदास, एक बार और अच्छी तरह सोच लो । क्या तुम्हें इनकार ही है ? ( चरनदास चुप रहता है ।)

(विराम )

रानी : (कुछ विचार करने के बाद) अच्छा चरनदास ! मैं तुम्हारी चार बातें मान गई हूँ। मेरी एक बात तुम भी मान जाओ, अब दोबारा मैं शादी की बात तुमसे नहीं करूंगी । बताओ, मेरी एक बात मानोगे ?

चरनदास : क्या बात ?

रानी : यह बातें जो हम लोगों ने यहाँ की हैं वह किसी को मत बतलाना, नहीं तो मैं बदनाम हो जाऊँगी। बोलो...

चरनदास : रानी !

रानी : कहो ।

चरनदास : आप भूल गई हैं ।

रानी : कौन-सी बात ?

चरनदास : मैंने अपने गुरु को सच बोलने का प्रण दिया है ।

रानी : (क्रोध) सच बोलने का प्रण दिया है। ...सच बोलने का प्रण दिया है। ...जिन्दा रहोगे तभी तो बोलोगे ।

चरनदास : ( साश्चर्य) रानी दाई ।

रानी : जिन्दा रहोगे तभी तो सच बोल पाओगे ! मरे हुए आदमी कुछ नहीं बोलते। बताओ, क्या तुम्हें अपने प्राणों से प्यार नहीं है चरनदास ?

चरनदास : बचूँ चाहे मरूँ । लेकिन अपने गुरु को दिये प्रण को नहीं तोड़ूँगा रानी साहब। मुझे माफ़ कर दो। हत्या मत करो। पाप मत करो ।

रानी : (चीख उठती है) चोर ! चण्डाल ! मुँहजोर ! बदमाश !

चरनदास : (अवाक् ) रानी ! रानी साहब !

रानी : (चीख कर ) द्वारपाल ! ( सब लोग आ जाते हैं उनके साथ सिपाही हैं ) इस चोर को किसने छोड़ा ? कैसे आ गया मेरे कमरे के अन्दर ? तुम लोगों को क्या साँप सूंघ गया ? कहाँ थे तुम लोग ? इसकी ये हिम्मत । चरनदास मुझसे कह रहा था -- मेरे साथ व्याह रचायेगा ।

चरनदास : (आश्चर्य से अवाक् ) रानी साहब !

रानी : एक चोर का यह हौसला !

चरनदास : रानी साहब !

रानी : आँखें फाड़े क्या देख रहे हो ? ऐसे आदमी को मार-काट- कर फेंक दो ।

[सिपाही बरछियाँ हाथ में लिये आगे बढ़ते हैं । चरनदास अवाक्, स्तब्ध पीछे हटता जाता है । सिपाही आगे ही आगे बढ़ते जाते हैं और बरछियाँ भोंककर चरनदास को मार देते हैं । चरनदास गिर पड़ता है । सिपाही चरनदास के निर्जीव शरीर को उठाकर मंच के बाहर चले जाते हैं । रानी भी पीछे-पीछे जाती है । पंथी गायक हाथ में सतनामी झंडा लिये हुए मंच पर गाते हुए प्रवेश करते हैं । ]

सत्य ही ईश्वर है,
ईश्वर ही सत्य है,
ईश्वर ही सत्य है,
सत्य के बरोबर नहीं है कोनों भी बात
सुन्दर आरती उतारों हों गुरु बाबा की ।
सुन्दर आरती उतारों हों गुरु बाबा की ।

[ मंच पर एक जगह झण्डा स्थापित कर देते हैं । कोरस गायक आते हैं और गीत प्रारम्भ करते हैं । ]

एक चोर ने रंग जमाया ।
सच बोल के !
संसार में नाम कमाया
सच बोल के !

(अधूरी रचना)

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